Monday, February 26, 2024

पीएससी - दावे, आपत्तियां और निराकरण

छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा वर्ष 2023, पिछले 11 फरवरी को आयोजित हुई थी, 16 फरवरी को मॉडल आंसर जारी हुए और 27 फरवरी तक दावा-आपत्तियां मंगाई गई हैं। और अब खबर आई है कि आयोग मार्च के प्रथम सप्ताह में संशोधित मॉडल आंसर जारी करेगा, जिसके आधार पर परिणाम घोषित किए जाएंगे।

भ्रष्टाचार के आरोपों और जांच से जूझ रहे छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग की इस परीक्षा पर खबरें आईं, उनमें उल्लेखनीय कि ‘पहली आपत्ति (सत्तारूढ़) भाजपा नेताओं की तरफ से आई और खबरों के अनुसार इसके बाद मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी मुखर हो गई है। अभ्यर्थी और कोचिंग संस्थान, जो सीधे प्रभावित होने वाले पक्ष हैं, भी खोज-बीन में जुटे होंगे। लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अनियमितता, पक्षपात, भूल-गलती, विलंब, अदालती और जांच की कार्यवाही जैसी की खबरें लगातार आती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के साथ अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश एक जैसी है। 

फिलहाल जांच वाले विषय को छोड़ कर परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों, मॉडल आंसर और उन पर दावा-आपत्ति की समस्या को समझने का प्रयास करें। यह स्थिति अधिकतर प्रारंभिक परीक्षा, जिसमें बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न होते हैं, के साथ होती है। इसमें मानवीय कारकों के चलते होने वाली त्रुटि दूर करने के लिए उत्तर पुस्तिकाएं ओएमआर शीट के रूप कर दी गईं। एक समस्या ऐच्छिक विषय और स्केलिंग को ले कर भी होती थी, जिसके कारण अब ऐच्छिक के बजाय, सभी अभ्यर्थियों के लिए एक जैसा प्रश्नपत्र होने लगा है। यह माना जा रहा है कि इससे विज्ञान, अभियांत्रिकी और तकनीकी विषय के अभ्यर्थियों को लाभ मिलता है, कला-मानविकी के अभ्यर्थी पिछड़ जाते हैं। अंतिम चयन के आंकड़े देखने पर स्थिति कुछ ऐसी ही दिखाई पड़ती है। 

इस परीक्षा के कुछ सवाल, जिन पर आपत्तियों की चर्चा है, क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटा जिला, जिले में लिंगानुपात, बस्तर की लोक संस्कृति में विवाह मंडप में प्रयुक्त होने वाली लकड़ी, छत्तीसगढ़ राज्य कितने राज्यों की सीमा को छूता है? इन प्रश्नों पर ध्यान दें तो स्पष्ट होता है कि आपत्तियों का मुख्य कारण काल-सन का उल्लेख न होना है, अर्थात छत्तीसगढ़ में पिछले वर्षों में नये जिले बने हैं, इसके बाद आंकड़ों का बदल जाना स्वाभाविक है, इसी तरह राज्यों की सीमा में बिहार-झारखंड या आंध्र से तेलंगाना भाग का राज्य बनना, उत्तर में मतभेद का कारण बनेगा। बस्तर के प्रश्न में लोक-संस्कृति बनाम जनजातीय संस्कृति के अलावा, विभिन्न जनजातियों की भिन्न परंपराएं, भौगोलिक क्षेत्र (बस्तर का विस्तृत क्षेत्र, जो अब सात जिलों में से एक है।) उत्तर में मतभेद की स्थिति का कारण बनता है। हिंदी और अंग्रेजी के प्रश्नों में अंतर, भाषाई भूल के अलावा प्रकाशित, सार्वजनिक उपलब्ध स्रोत अथवा प्रश्नपत्र में छपाई की भूल, प्रूफ केी गलतियां भी समस्या का कारण बनती है। 

ऐसे प्रश्न, जिनके मॉडल आंसर पर आपत्तियां होती हैं, सामान्यतः सामाजिक विज्ञान-मानविकी के होते हैं, परंपरा-मान्यता से संबंधित होते हैं। ऐसा इसलिए कि प्राकृतिक विज्ञान के प्रश्नों जैसी वस्तुनिष्ठता सामाजिक विज्ञान के प्रश्नों में संभव नहीं होती। विज्ञान में कारण होते हैं तो कला में कारक। और विज्ञान में भी आवश्यक होने पर नियत मान के साथ एनटीपी जोड़ा जाता है, यानि वह मान सामान्य ताप-दाब पर होगा, अन्यथा बदल जाएगा। कालगत आंकड़ों में जनगणना दशक, योजनाएं पंचवर्षीय और अनेक सर्वेक्षण-प्रतिवेदन वार्षिक होते हैं। इस मसले के कुछ अन्य पक्षों को सीधे उदाहरणों में देख कर समझने का प्रयास करें। छत्तीसगढ़ की काशी, कई स्थानों को कहा जाता है। मूरतध्वज की नगरी आरंग भी है, खरौद भी। खरौद, खरदूषण की नगरी है तो बड़े डोंगर में भी खरदूषण की जनश्रुति है। सोरर की बहादुर कलारिन, लोक विश्वास में बड़े डोंगर में भी है। ऐसी स्थिति में ‘कहा जाता है, माना जाता है ...‘ वाले प्रश्न वस्तुनिष्ठ कैसे होंगे! 

प्रश्नपत्र तैयार करने वालों, माडरेटर्स और अभ्यर्थी, इन सभी की समस्या जो अंततः आयोग की समस्या बन जाती है, यह कि किन स्रोतों को प्रामाणिक आधार माना जाए। शासन की वेबसाइट अपडेट नहीं होती, दो शासन की ही दो भिन्न साइट पर तथ्य और आंकड़े भिन्न होते हैं (पूर्व में वन विभाग से संबंधित एक प्रश्न में ऐसी स्थिति बनी थी।) इसके साथ पुनः उदाहरणों सहित बात करें तो 1920 में गांधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास का उल्लेख विभिन्न स्थानों पर है, मगर तिथियां अलग-अलग मिलती हैं, और खास बात यह कि किसी प्राथमिक-प्रामाणिक स्रोत से पुष्टि नहीं हो पाती कि गांधी 1920 में छत्तीसगढ़ आए थे। इसी तरह वीर नारायण सिंह की फांसी के स्थान में मतभेद है और डाक तार विभाग द्वारा जारी डाक टिकट में उन्हें तोप के सामने बांधा दिखाया गया है साथ ही उनके एक वंशज ने कुछ और ही कहानी दर्ज कराई है। पहली छत्तीसगढ़ी प्रकाशित रचना ‘छत्तीसगढ़ी दानलीला‘ के प्रकाशन की तिथि विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्य-इतिहासकारों ने अलग-अलग बताई है। ऐसे ढेरों उदाहरण और भी हैं। 

सामान्य अध्ययन और सामान्य ज्ञान के फर्क का ध्यान भी आवश्यक होता है। सामान्य अध्ययन, ऐसी आधारभूत जानकारियां हैं, जो सामान्यतः अध्ययन से, पुस्तक आदि माध्यम से पढ़ाई प्राप्त होती हैं और जिन जानकारियों की अपेक्षा किसी सामान्य जागरूक नागरिक से की जाती है, जबकि सामान्य ज्ञान आवश्यक नहीं कि पुस्तकों में आया हो, जहां समझ-बूझ की अपेक्षा होती है, और यह संस्कृति-परंपरा की दृष्टि से कई बार वैविध्यपूर्ण छत्तीसगढ़ में मतभेद का कारण बनती है, एक उदाहरण हरियाली अमावस्या का है, जो मैदानी छत्तीसगढ़ में हरेली, सरगुजा में हरियरी और बस्तर में अमुस तिहार नाम से प्रचलित है। कुरुद- धमतरी क्षेत्र के पंडकी नृत्य से अन्य छत्तीसगढ़ लगभग अनजान है, वह सुआ नृत्य-गीत को जरूर जानता है। बस्तर का दशहरा, दंतेश्वरी देवी का पर्व है, रायपुर के आसपास रावण की विशाल स्थायी मूर्तियां हैं, जिनकी पूजा भी होती है, सरगुजा में गंगा दशहरा का प्रचलन है तो सारंगढ़ के आसपास दशहरा के आयोजन का प्रमुख हिस्सा मिट्टी की मीनारनुमा स्तंभ पर चढ़कर गढ़ जीतना होता है। राम-रावण और रावण-वध वाला दशहरा तो है ही। इसी तरह भाषाई फर्क में शिवनाथ के उत्तर और दक्षिण यानि मोटे तौर पर बिलासपुर और रायपुर, दोनों की छत्तीसगढ़ी का फर्क क्रमशः- अमरूद जाम-बिही है, मेढ़क बेंगचा-मेचका है, तालाब तलाव-तरिया है और कुछु काहीं हो जाता है।

इस समस्या का सीधा और आसान हल दिखाई नहीं देता, मगर कुछ हद तक इसे कम किया जा सकता है, जैसे- मानविकी के प्रश्नों में एकमात्र सही विकल्प के बजाय निकटतम विकल्प को सही माना जाए। मान्यता है, कहा जाता है आदि जैसे प्रश्न न पूछे जाएं। आंकड़ों वाले प्रश्नों के कारण यह स्पष्ट हो कि सही उत्तरों के लिए निर्धारित तिथि क्या होगी। दावा-आपत्ति में गाइड बुक की जानकारियों के बजाय पाठ्य-पुस्तकों और अधिक प्रामाणिक ग्रंथों में आई जानकारी को सही माना जाए, मगर प्रश्न अनावश्यक चुनौतीपूर्ण न हों, क्योंकि अभ्यर्थी, विद्यार्थी होता है, शोधार्थी नहीं, और परीक्षा सामान्य ज्ञान की ली जानी है। एक ही प्रामाणिकता के दो स्रोतों में जानकारी में अंतर हो तो, परीक्षा के लिए निर्धारित माह-वर्ष के ठीक पहले अर्थात अंत में आई, अद्यतन जानकारी को प्रामाणिक माना जाए। यानि ऐसे आंकड़े या जानकारियां, जब तक विशिष्ट महत्व के न हों, करेंट अफेयर की तरह, अद्यतन स्थिति के ही प्रश्न होने चाहिए। इस तरह अन्य बिंदु निर्धारित कर वह परीक्षा की अधिसूचना के साथ प्रश्न-पत्र पर भी स्पष्ट अंकित हो।


Wednesday, February 21, 2024

दो महीने, नौ किताबें

2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में फुटकर पढ़ाई के साथ पढ़ी गई नौ किताबें। 2019 से 20022 के बीच छपी नौ की नौ सुशोभित की- 
माया का मालकौंस (2019) 
गांधी की सुंदरता, सुनो बकुल! (2020) 
कल्पतरु, दूसरी कलम, अपनी रामरसोई (2021) 
पवित्र पाप, देखने की तृष्णा, मिडफ़ील्ड (2022) 
मेरी जानकारी में इसके अलावा उनकी गद्य की माउथ ऑर्गन, बायस्कोप, बावरा बटोही, आइंस्टाइन के कान, यह चार तथा कविता की अन्य चार पुस्तकें अब तक (जनवरी 2023) प्रकाशित हैं।

इन पर बात करने के पहले संक्षिप्त भूमिका। कोविड के आगे-पीछे नये-युवा लेखकों को पढ़ता रहा। 24 जुलाई 2020 को अपने फेसबुक पर ’चार-यार चालीसा’, ऐसे चार जो उम्र के चौथे दशक में हैं, की बात कही थी- 

मुझ जैसे बुजुर्ग के चौथे अंतःकरण या ग्यारहवीं इन्द्रिय, चंचल मन में ऐसे युवा के प्रति सम्मान होता है, जो यों अभिभावक मानते हुए व्यवहार करें, लेकिन आपस में ऐसी हर छूट की गुंजाइश रखें जो मित्रों के साथ होती है। चिड़िया और बच्चों से आप अपनी मैत्री का दावा कर सकते हैं लेकिन उस पर मुहर तभी लगती है, जब वे भी ऐसा मानें, प्रकट करें। 

चार में से ऐसे दो उत्तर भारतीय पहले, आशुतोष भारद्वाज(1976) स्वयंभू किस्म के प्रखर, उत्साही मगर संयत बौद्धिक, किसी भी संस्कार-परंपरा से आकर्षित होते हैं, जूझने-परखने, जितना सम्मान करने, उतना ही खारिज करने को सदैव तत्पर। दूसरे, व्योमेश शुक्ल (1980) परंपरा के लक्षणों को संस्कारों से जोड़कर, सब भार स्वयं वहन करते हैं, मगर उसे प्रसंगानुकूल वजन घटा-बढ़ा कर व्यक्त कर सकते हैं, बनारसी स्निग्धता तो है ही। इन दोनों से अच्छी मेल-मुलाकातें हैं। 

अन्य दो, मालवी, जिनसे कभी मुलाकात नहीं है, एकाध बार फोन पर बात हुई, उन्हें पढ़ता जरूर रहता हूं, लिक्खाड़ सुशोभित (1982) ऐसा लगा कि गांधी पर लिखते हुए उनकी सोच और अभिव्यक्ति में गांधी का स्थायी प्रवेश हुआ, पैठ गए, अधिक प्रभावी और रसमय बना दिया है। अनुशासन और मर्यादा का शील भी उनमें स्थायी है, इसके लगभग ठीक विपरीत अम्बर पांडेय (1984) अनुशासन की मानों उनकी अपनी संहिता हैं। उच्छृंखलता कभी अभिव्यक्ति में आती है, वह शायद स्वभाव की नहीं है, बल्कि यदा-कदा मन-तुरग को जीन-लगाम मुक्त कर हवाखोरी कराते रहते हैं (पिछले साल 2023 में सुशोभित से जनवरी में भोपाल में मुलाकात हुई और अम्बर मिल गए कथा कहन, जयपुर में, फरवरी में)।

किसी चिंतक-दार्शनिक को पढ़ने में उसका जीवन-वृत्त जानना रोचक और मददगार होता है, यह देखने के लिए कि जीवन स्थितियों ने उसके विचारों पर कोई, क्या और कितना असर डाला है। चारों उम्र के चौथे दशक यानि तीसादि बरस आयु के हैं। अपना पर्याप्त समय पढ़ने में खरचा है। इनके लेखन से, इनकी दिमागी बनावट (इंटेलेक्चुअलिटी) को समझने का आनंद लेता रहता हूं। ऐसे मित्र, जिनके बारे में धारणा चाहे बदलती रहे, मेरे मन में इनके प्रति मैत्रीभाव एक जैसा अडिग बना हुआ है।

(जेंडर बैलेंस आग्रह बतौर अगली किश्त विचाराधीन है☺️) 

अब 2022-2023 दिसंबर-जनवरी, दो महीनों में पढ़ी गई नौ किताबें, फुटकर पढ़ाई के साथ। सारी सुशोभित की। पढ़ते हुए कुछ नोट्स-टिप्पणियां-

# ‘पुस्तक को एक दिन में पढ़कर समाप्त हो जाना चाहिए। या जितने भी दिनों में वह पढ़ी जाए, वह मेरी चेतना में एक ही दिन हो।‘

# दृश्यों पर, स्वाद पर, शब्दों पर, आवाज पर मैं उनके साथ अपने पढ़ने का दायरा विस्तृत होते पाता हूं।

# कई बार ऐसा लगता है कि तथ्य, सूचना, संदर्भ एकत्र कर रहा है, और व्याख्या तक ले जाने के फिराक में है। मगर खुद को साबित करने के दबाव से मुक्त।

# भाषा सध जाए और मन ‘बहक‘ जाए फिर कलम क्योंकर न फिसले।

# एक अकेले एकांत में भटकता है, न ऊबता, न घबराता, कुछ जग की से होते अपनी तक आता है, सन्नाटा बुनता, सुनता, गुनता, गढ़ता है और दम मारने आता है शब्द-भाषा थामे, अभिव्यक्त होता है।

# वे जिस लेखक-जिद से लिखते हैं, उसके लिए पाठक-जिद से ही पढ़ना संभव होता है।

# इस जिम्मेदारी से लिख रहे हैं कि हिंदी पाठक को क्या पढ़ने-जानने, समझने-बूझने और मन बहलाते, पाठकीय भूख मिटाने को मिलना चाहिए।

# हिंदी पाठक को मुहैया कराने की यह जिद है, खासकर फुटबॉल और कुछ हद तक विश्व सिनेमा, विश्व साहित्य।

# फुटबॉल अपने नियमों के दायरे में, गोल के आंकड़ों के आगे कहां तक पहुंच जाता है। उस रेंज की, फलक की हैं जो कम समय में कम उम्र द्वारा लिखी गई, जिसे धीरज से पढ़ पाना, आमतौर पर जिद से ही संभव है।

# फिल्म की स्टोरी सुनना और सुनाना, कभी इसलिए कि फिल्म नहीं देख पाएंगे, या फिल्म देखनी है, ट्रेलर की तरह।

# खुली-खुली सी सरपट पढ़ जाने वाली, बात-बात में कविता बनकर चुनौती-सी बातें, कल्पतरु के गद्य में सुनो बकुल से अधिक कविताई होने लगी है।

# कवि मन के प्रवाह में कैसा वाक्य सहज रच जाता है- ‘और उसने भी बतलाया नहीं कि नहीं मैं तेरा नहीं हूं।‘

# पाठक को छूट हो, अगर चाहे सहज अर्थ या रूपकों का भेद ले, विचार और व्याख्या को प्रेरित करे, संभावना बनाए।

# मैं खुद को लेखक-पुस्तक के हवाले नहीं कर देता, मानता हूं कि वह मेरे हवाले है, इससे दबाव नहीं होता कि उसे शब्द दर शब्द पीना है, नजरें दौड़ती हैं फिर किताब की कुव्वत कि वह कितनी याद रहे, कितनी जज्ब हो और कितनी यूं ही गुजर जाए। सुनने-देखने पर इतना आसान काबू नहीं होता।

# किताबें- आप लेखक के पास नहीं पहुंच सकते, जब मन चाहे खोल-बंद कर सकते हैं, वह ‘लाइव‘ नहीं है कि अभिव्यक्त होने के दौरान सामने रहना जरूरी है, लिखा हुआ पढ़ते चिट मारने जैसा भी।

# सुशोभित- मूलतः फीचर वाले पत्रकार हैं, अहा! जिंदगी वाले, स्तंभ लेखन वाले। वरना पत्रकार कब सतही और सरसरी हो जाते हैं उन्हें खुद भी पता नहीं लगता और साहित्यकार कब अनावश्यक उलझाव भरे नाटकीय।

# सुशोभित- साहित्यकार कैसे हैं, हैं भी या नहीं, यह तो समीक्षक तय करेंगे यों वे लगभग लगातार पाठक, दर्शक या श्रोता-सी ही मुद्रा में होते हैं, लेकिन लेखक या कहें लिक्खाड़ आला दरजे के हैं।

# सुशोभित- लेखक, शहरी माहौल, अपने कार्य-स्थल की भीड़ और पारिवारिक सघनता के बीच भी अपने को नितांत एकाकी रख कर सृजन करता रहा है मगर यह भी जरूरी होता है कि उसमें जंगल, नदी के किनारे, सुनसान-सन्नाटे में स्थित रहते, भरा-पूरापन कितना उमगता है।

# सुशोभित- ‘रोज-मर्रा‘ का मरने से कोई ताल्लुक नहीं, फिर भी बहुतेरे अक्सर दैनंदिन जीवन को मशीनी-मुर्दों की तरह जीते हैं, मगर उसमें जीवन-मधु का संचय करना, संभव करते जान पड़ते हैं।

Tuesday, February 20, 2024

निगम सर को पत्र-1986

1986 का साल। तब न मेल, न मोबाइल। पत्र माध्यम होता था, अब लगता है कि ‘वे दिन भी क्या दिन थे‘ आदरणीय डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम (पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में विभागाध्यक्ष रहे, श्री शंकराचार्य व्यावसायिक विश्वविद्यालय, भिलाई के संस्थापक कुलपति), जिन्हें संबोधित यह पत्र है, बस इतना ही कहना है कि उनसे जितना पाठ-मार्गदर्शन कक्षा में मिलता था, शासकीय सेवा के दौरान मिलता रहा और अब भी मिलता रहता है। और खास कि यह पुर्जानुमा यह कागज उनके पास सुरक्षित था, उन्होंने मुझे वापस सौंप दिया। आगे पत्र का मजमून, जो अपना बयान खुद है-

आदरणीय गुरुदेव,

व्यग्रता के फलस्वरूप इस कागज पर पत्र लिख रहा हूँ, प्रथम समाचार ताला से प्रतापमल्ल का ताम्बे का एक सिक्का मिला है, ऐसे सिक्के बालपुर और संभव है अन्य sites से भी मिले हों.
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दूसरा यह कि पीछे मुण्डेश्वरी मंदिर का plan है जिसमें नीली स्याही से regular lines वाला हिस्सा वास्तविक plan है, पेन्सिल से भरा हिस्सा, एक तरफ मात्र दिखाई गई दीवाल है, जबकि काली स्याही से बनाई गई टूटी रेखाएँ extension हैं, जिनके द्वारा इस मंदिर को भी ताराकृति भू-योजना बनाने के इरादे में हूँ, निःसंदेह आपकी स्वीकृति एवं अनुमति के बाद, मंदिर का काल भी इधर के ‘कोसली‘ के कालों का ही है, अंतर यह है कि इनमें बाहिरी भाग पर plan है, मुण्डेश्वरी में भीतरी भाग पर, जैसा नीचे चित्र से स्पष्ट है। जोना विलियम्स ने कुछ अन्य प्रकार से इसे अष्टकोणीय, ताराकृति, पंचरथ, आदि कहते हुए एक अन्य नाम कश्मीर के ‘शंकराचार्य‘ का दिया है. 

कोसली → मुंडेश्वरी 

मेरे extension हेतु सचिवालय की विशेष सहृदयता देखने को मिली, और उन्होंने बहुत सामान्य से प्रयास के फलस्वरूप स्वतः ही 8.10.86 से अर्थात् लगभग 15 दिनों पूर्व extension order भेज दिया वह मुझे मिला, पिछले दिनों ही. इसमें आगे के लिए सुरक्षित मार्ग क्या हो सकता है, इसकी राय के लिए में स्वयं रायपुर उपस्थित होऊंगा, आपका मार्गदर्शन मूल्यवान होगा. 

इसी बीच आपका पत्र मिला, इसके लिए किसी टिप्पणी की स्थिति में मैं स्वयं को नहीं समझता, इतनी अतिरिक्त सूचना और देना चाहता हूँ कि इन सिक्कों पर जिस प्रकार का चक्र बनाया गया है ठीक वैसा ही, उतना ही सुन्दर colour polished terracotta चक्र हमलोगों को ताला से प्राप्त हुआ है, मैं उसके फोटोग्राफ व आकार आदि आपको लिख भेजूंगा, paper पढ़ने के समय आप वह भी प्रदर्शित कर सकते हैं या जिस तरह से आप उपयोगी मानें. 

श्री नगायच जी व आपको संयुक्त दीपावली शुभकामना नगायच जी के पते पर ही भेज चुका हूँ मिला होगा, सूचनाएं एवं अभिवादन से नगायच जी को भी अवगत कराइयेगा. हमारी नयी findings (ताला की) संबंधी समाचार chronical में प्रकाशित होगा, cuttings नगायच जी को भेज दूंगा. 

सपरिवार कुशलता की कामना सहित रायकवार जी का अभिवादन भी ग्रहण करेंगे। 

राहुल 

पुनश्चः बस्तर में (जगदलपुर) हो रहे परिषद के seminar के लिए मेरी कोई आवश्यकता समझें तो सेवा हेतु याद कीजिएगा. 

पत्र कार्यालय के पते पर भी भेज सकते हैं- 
Office of the Registering Officer (Arch.) 
Rajendra Nagar 
Bilaspur (M.P.)

Monday, February 19, 2024

जेबकट जेलर और मेरी जेल-यात्रा

यह उन दिनों की बात है, जब हमारा जेल आना-जाना लगा रहता था। खुलासा यों कि तब जेल विभाग के नाम में ‘सुधारात्मक सेवाएं‘ नहीं जुड़ा था, मगर उसकी पृष्ठभूमि बन रही थी। दहेज प्रताड़ना, बहू जलने-जलाने की घटनाओं के साथ बाल-बच्चेदार युवा ननद-जेठानियों का जेल जाना आम था। ऐसी महिलाओं के साथ उनके छोटे बव्वे भी होते थे, मां के साथ रहने के कारण इन मासूमों को जेल काटना होता था।

बिलासपुर जेल के अधीक्षक और स्थानीय स्वयंसेवी संस्था ने जेल के साथ एक झूलाघर की योजना बनाई और यह सफलतापूर्वक संचालित होती रही, ऐसी गतिविधियों में रुचि होना पहला कारण बना। दूसरा कारण कि माखनलाल चतुर्वेदी और ‘पुष्प की अभिलाषा‘ कविता की रचना-भूमि के साथ बिलासपुर जेल में कैद रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जानकारी, प्राथमिक स्रोत से एकत्र करने की धुन लगी। इसी सिलसिले में तीसरी बात पता लगी कि बिलासपुर जेल-अमले में भी कोई जेबकट है। यह अधिकारी और कोई नहीं, स्वयं जेल-अधीक्षक डॉ. कृष्ण कुमार गुप्ता थे, जो मामूली जेबकट नहीं, इस विधा के पारंगत और डॉक्टरेट उपाधिधारी विद्वान थे।

बाद में 8 जून 2010 को जेल प्रहरी प्रशिक्षण के एक सत्र में व्याख्यान के लिए मुझे रायपुर केन्द्रीय जेल का ‘आमंत्रण‘ मिला। इसके लिए जो कुछ बातें सोची-पढ़ी-कही थीं- आमतौर पर हम उसके बारे में नहीं सोचते, जिससे सीधा ताल्लुक न हो। आपकी यह संस्था ‘जेल’ मेरे लिए इसी तरह है। यों जेल से कुछ-कुछ नाता रहा है लेकिन बाहर-बाहर वाला। मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं कि आमंत्रण पाकर मैं जेल के भीतर पहुंचने की बात के साथ, जेल के बारे में शायद ऐसा पहली बार सोचा और फिर क्या-क्या विचार आया यही आपसे बताना चाह रहा हूं।

मैंने याद करने की कोशिश की कि बचपन में कब और क्या बदमाशी करने पर मुझे कमरे में बंद किया गया था और अब किस स्थिति में और क्यों मैं ऐसा बच्चों के साथ करने की सोचता हूं। कमरे में बंद किया गया- सजा पाया बच्चा अपराधी नहीं होता और अगर उसने गलती की है तो आशा की जाती है कि उसे कुछ देर कैद कर देने पर उसे अपनी गलती का अहसास होगा और आगे वह ऐसी गलती नहीं दुहराएगा।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पंडित सुंदरलाल शर्मा की हस्तलिखित जेल पत्रिका ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान‘ और मेरी टायलर की पुस्तक सहित अन्य जेल साहित्य को भी याद किया। अण्डमान निकोबार का विश्वदाय स्मारक, काला पानी जेल याद आया। अस्थायी जेल, राजनैतिक बंदी, विचाराधीन और सजायाफ्ता। कोट लखपत, माण्डले। बंदी-प्रत्यक्षीकरण और मैग्ना कार्टा। निर्वासन, वन गमन, अज्ञातवास, नजरबंद, सामाजिक बहिष्कार, जात बाहर, जिला बदर। औरंगजेब-शाहजहां का आगरा कैद आदि के साथ कहीं पढ़ा हुआ कि बौद्ध धर्म में जेल के भी एक देवता हैं। राजिम के प्रसिद्ध कथावाचक संत कवि पवन दीवान राजनीति में ‘पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है‘ जैसे नारे के साथ राजनीति में आए, मध्यप्रदेश में मंत्री रहे। कहते मंत्री बन जाने पर लोग अपेक्षा ले कर आते, वे जवाब देते, जिसका मंत्री हूं, वही तो दे सकता हूं, उन्हें जेल विभाग मिला था।

वापस जेबकट जेलर डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता पर, जिनसे इस विधा के रहस्य सुनते-जानते समझ में आया कि जेबकटी या जेबकतरा कहने से बात पूरी नहीं बनती, क्योंकि इसमें कुछ कट करते हैं और कुछ पिक, इसलिए ‘पाकेटमार‘। उस्ताद या वस्ताज वे कहे जाते हैं, जो दोनों में माहिर होते हैं, गुप्ता जी ऐसे ही उस्ताद हैं। सागर, मध्यप्रदेश निवासी, वहीं अपराध शास्त्र में स्नातकोत्तर के बाद ‘पाकेटमारी‘ पर न सिर्फ शोध किया, पुस्तक Pickpockets - The Mysterious Species (1987) भी लिखी और शासकीय सेवा में आए।

गुप्ता जी ने जेबकटी में ब्लेड के टुकड़े का इस्तेमाल, मुंह में ब्लेड छुपाकर रखना और मुश्किल आन पड़े तो चबाकर चूरा बना कर निगल जाना जैसे कई कमाल कर के दिखाए। मुंह में ब्लेड का टुकड़ा लिए, पानी पिया, साथ चाय-बिस्किट लिया, तब तक हम भूल चुके थे कि ब्लेड का टुकड़ा तो उन्होंने निकाला नहीं था, क्या निगल गए? पूछने पर सही-सलामत वापस मुंह से निकालकर टेबल पर रख दिया। बताया कि उस्ताद का दरजा यों ही नहीं मिल जाता, इसके लिए कई तरह के अभ्यास और उनमें माहिर होना पड़ता है, जिनमें से एक मार खाना है। दोनों हाथों से कान को ढकते हुए हाथ बांधकर सिर पर रख लेना और बैठ कर चेहरे को दोनों घुटनों के बीच छुपा लेना, इसके बाद कितने भी लात-घूंसे बरसे, सह लेना। इस विद्या के अपने कूट-शब्द हैं, जिनमें उंगलियों से जेब साफ करना ‘सलाई‘ है और ब्लेड का टुकड़ा ‘ताश‘। इन दोनों के इस्तेमाल- कट और पिक दोनों में समान महारत तो होनी ही चाहिए।

जानना चाहा कि हम जो निशाने पर आ जाते हैं, उनके लिए क्या नसीहत होगी, बताया- लोग अक्सर बेखयाली में उस समय सब से अधिक गुम होते हैं, जब उनका ध्यान किसी अनावश्यक, निरर्थक दृश्य की ओर होता है। पाकेटमारों के लिए भीड़-भाड़, ट्रेन-बस, मेले-ठेले की भीड़ तो अच्छा मौका है ही, सबसे आसान शिकार वह होता है जो रेलवे स्टेशन के डिस्प्ले बोर्ड पर अपनी गाड़ी की स्थिति देख लेने के बाद भी गाड़ियों की सूचनाएं देखता रहता है। सावधानी क्या रखी जाए, के जवाब में बताया कि जिस जेब में पर्स है उसके साथ जेब में कुछ रेजगारी भी रखें, इसका अनुमान हो जाने पर कट की संभावना कम हो जाती है।

जेल में एक कैदी से मुलाकात हुई, जिसके बारे में पता चला कि वह जेबकट है, पूछने पर कि क्या उसे मालूम है कि जेलर साहब भी तुम्हारे पेशे वाले हैं? उसने कहा कि सुना है, मगर उन्हें तो सरकार ने लाइसेंस दिया है। गुप्ता जी से लाइसेंस की बात पूछने पर असलियत मालूम हुई कि शोध के दौरान वे जेबकतरों की राजधानी बंबई गए। इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालय से अपने शोधार्थी होने और फील्ड वर्क के लिए बंबई में रह कर अध्ययन करने का पत्र लिया था, जिसके आधार पर बंबई पुलिस ने उन्हें सहयोग करने का पत्र जारी किया था, इसलिए थानों में, पुलिस को या कभी अप्रिय स्थिति बनने पर यह पत्र-'लाइसेंस' दिखाना होता था।

1997 का दौर। तब राज्य की राजधानी भोपाल के पत्रकारों से मेल-मुलाकात होती रहती थी। भोपाल जाने पर जनसंपर्क के बाबूदा‘ यानि नंदकिशोर तिवारी, राजकुमार केसवानी, रामअधीर, माध्यम के कमल तिवारी और अन्य साथियों में भरत देसाई होते, गोष्ठियां होतीं। भरत तब इंडिया टुडे में थे, मिसाल-बेमिसाल की योजना बनी और वे बिलासपुर आए। साथ एक उम्दा इंसान, फोटोग्राफर दिलीप बनर्जी भी थे, जिन्होंने बिलासपुर जेल में रह रही महिला, जिनके निरपराध बच्चे उनके साथ जेल में हैं, पर एक फोटो फीचर भी किया था। भरत देसाई की यह कहानी इंडिया टुडे के 27 अगस्त 1997 में छपी। इस कहानी के साथ, गुप्ता जी से ढेरों बातें हुईं, इस दौरान यहां लोगों की उपस्थिति में उन्हें ‘करतब‘ दिखाने का आग्रह किया गया, इस पर उन्होंने मुझे शिकार बनाया। मेरे बगल से गुजरे, दिलीप जी ने फोटो ले ली, वही पत्रिका में छपी। हम सब आश्वस्त कि सफल न हो सके, गुप्ता जी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, मगर फिर अगले मिनट मुस्कुराते हुए मेरा बटुआ मुझे लौटा दिया। आगे पत्रिका के पेज का चित्र और वह कहानी-

अभी भी खुजाती उंगलियां 
बिलासपुर जेल के वर्तमान अधीक्षक एक समय ‘लाइसेंसधारी‘ पॉकेटमार हुआ करते थे 

मध्य प्रदेश की बिलासपुर जेल के अधीक्षक डॉ कृष्ण कुमार गुप्ता जब आसपास हों तो सतर्क रहने की जरूरत है. आखिर वे सात साल तक पॉकेटमार रहे हैं और इस धंधे के गुरों से बखूबी वाकिफ हैं. वे कई दिनों तक, यहां तक की खाते हुए भी, मुंह में ब्लेड रख सकते हैं और फिर मिनटों में उसे दांतों से चकनाचूर कर सकते हैं. 

गुप्ता की जिंदगी में यह खास मोड़ 1983 में आया जब सागर विश्वविद्यालय में अपराध-विज्ञान के छात्र के रूप में वे शोध का विषय नहीं तय कर पा रहे थे. तभी उनके संकाय अध्यक्ष की जेब कट गई. गुप्ता याद करते हैं, ‘‘पूरे परिसर में लोग जेबकतरों के बारे में किस्से गढ़कर सुनाते रहे लेकिन इस पेशे के बारे में प्रमाणिक जानकारी का अभाव देखकर मैं चकित रह गया.‘‘ बस, शोध का विषय तभी तय हो गया. 

पर एक समस्या अभी बाकी थी. बकौल गुप्ता, ‘‘पॉकेटमारों का विश्वास जीतने का एक ही तरीका था कि मैं उन्हीं की जमात में शामिल हो जाऊं‘‘ सो वे कुख्यात पॉकेटमार मनोहर उस्ताद से मिले जिसने वादा किया, ‘‘जिस दिन तुम मुझे रंगे हाथ पकड़ लोगे, मैं तुम्हें शिष्य बनाने लायक समझूंगा‘‘ तीन महीने तक परछाई की तरह पीछा करने के बाद गुप्ता ने मनोहर को एक किसान की जेब साफ करते पकड़ ही लिया फिर बिलासपुर के इस शातिर जेबकतरे ने अपना वादा बखूबी निभाया. गुप्ता कहते हैं, ‘‘मैं गिरोह के लोगों के साथ ही उठता-बैठता और उन्हीं के साथ खाता-पीता.‘‘ इससे मध्य प्रदेश में सागर शहर के संपन्न तंबाकू व्यापारी उनके पिता बेहद परेशान हो गए. पर गुप्ता के शोध निदेशक समरेंद्र सराफ ने उन्हें भरोसा दिलाया कि उनके बेटे ने किसी खास उद्देश्य से ही असामाजिक रास्ता अख्तियार किया है. 

धीरे-धीरे अभ्यास रंग लाया. गुप्ता गर्व से बताते है, ‘‘उन दिनों मध्य प्रदेश में उच्च श्रेणी के जेबकतरों में मनोहर उस्ताद के बाद मेरी गिनती होने लगी थी.‘‘ फिर दो साल तक मुंबई में सक्रिय रहने के दौरान उन्हें चौंका देने वाले अनुभव हुए. ‘‘सागर में रोजाना 200 से 500 रु. कमाई होती थी, पर मुंबई के जेबकतरे रोज 5,000 रु. तक कमाते थे.‘‘ पैसे से भी ज्यादा गुप्ता को जेबकतरों में आपसी संवाद के लिए प्रयुक्त भाषावली की समानता ने चकित किया. सागर और मुंबई दोनों जगह इस धंधे में ब्लेड को पान, रेलवे स्टेशन को चरखी, रेलवे टिकट निरीक्षक को मामा और सिपाही को ऊंचा कहा जाता है. उन्होंने जल्द ही ऐसे 1,000 कूट शब्दों को ढूंढ़ निकाला. 

लेकिन यह आसान काम नहीं था. गुप्ता सागर में कई बार पकड़े गए और पिटे भी. पर शोध छात्र के रूप में पहचान के चलते वे गिरफ्तारी से बचते रहे. वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मैं एक तरह से लाइसेंसधारी पॉकेटमार था.‘‘ दर्जनों पॉकेटों से मारी गई रकम गिरोह के साथ मौज मस्ती में उड़ा दी जाती कभी-कभी वे पुलिस को खबर कर दिया करते थे कि आज वे फलां इलाके में सक्रिय हैं. फिर शाम को थाने जाकर कोई शिकायतकर्ता हुआ तो वे उसके पैसे लौटा दिया करते थे. 

इस पेशे के गुर सीखते सीखते गुप्ता पॉकेटमारी में निपुण हो गए, उन्होंने सीखा कि सिक्के भरी जेब पर कभी हाथ साफ मत करो क्योंकि उनकी खनक से भंडाफोड़ हो सकता है. एक बार गुप्ता ने देखा कि चांदी की चार चूड़ियां खरीदकर निकले एक किसान के पीछे लगे मनोहर ने सफाई से दो चूड़ियां उड़ा लीं. बाद में मनोहर ने समझाया, ‘‘अगर मैं चारों चूड़ियां उड़ाता तो उसे अचानक वजन कम होने का एहसास हो जाता. यह सारे बेशकीमती सबक गुप्ता की थीसिस ‘डायनामिक्स ऑफ पिकपॉकेटिंग एज ए कैरियर क्राइम‘ में दर्ज हैं इसके लिए सबसे ऊपर आभार व्यक्त किए जाने वालों में मनोहर का नाम है. इस अध्ययन को देश भर में अपराध विज्ञान के अंतर्गत बेहतरीन शोधों में गिना जाता है और इसी के आधार पर गुप्ता को जेल अधीक्षक पद मिला. 

आज अपराधी उनके साथ सहज महसूस करते हैं. पॉकेटमार रमेश सोनकर का कहना है, ‘‘वे हमारी बिरादरी में से ही हैं‘‘ मनोहर उस्ताद को जब पता चला कि उससे धंधे के गुर धोखे से उगलवाए हैं तो शुरू उसे बड़ा गुस्सा आया, पर अब गुप्ता को उच्च पद पर देखकर उसे बेहद गर्व होता है. अपराध जगत से किनारा कर लेने के सात साल बाद गुप्ता मानते हैं कि उनकी उंगलियां अब भी जेब काटने को मचलती हैं. वे पूछते हैं, ‘‘क्या कोई बंदर उछल-कूद छोड़ सकता है?‘‘ और शरारत से मुस्कुराते हुए इस संवाददाता को उसका पर्स लौटा देते हैं.

Thursday, February 1, 2024

राजा की जान तोते में

अथवा 
शुक और मृतक स्मारकों का वृहत्तर परिप्रेक्ष्य

कहानी में राजा की जान तोते में होती है, अक्सर ऐसा (राक्षस, दैत्यरूपी) राजा क्रूर और आततायी होता है मगर जालिम राजा की कोई कमजोरी होती है, जिसमें उसके ‘प्राण बसते हैं‘, यहां कहानी इससे अलग है। ऐसा राजा, जिसने अपने तोते के कारण, अपनी बात रखने के कारण अपनी जान दे दी। यह राजा प्रतापी, दयावान और लोकोपकारी भी था- गोवा का कदंबवंशी जयकेशी-प्रथम, जिसने अपनी जान दी प्रिय पालतू तोते के पीछे। जयकेशी की आकस्मिक मृत्यु की तिथि सन 1078, उनके पुत्र गुवालदेव के 1079 के अभिलेख के आधार पर अनुमानित है तथा प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ में तोते वाली कहानी का उल्लेख है। वर्द्धमान, काठियावाड़ के आचार्य मेरुतुंग के 1306 में रचित संस्कृत ग्रंथ ‘प्रबन्धचिन्तामणि‘, जिसका हिन्दी अनुवाद 1932 में शांतिनिकेतन में रहते हुए पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने, तथा सम्पादन जिन विजय मुनि ने किया। सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता द्वारा सन 1940 में प्रकाशित कराया गया। यद्यपि C H Tawney द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद ‘Wishing-Stone Of Narratives‘, 1901 में प्रकाशित हो चुका था।

धारवाड़ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे पुराशास्त्री शदाक्षरी सेत्तार ने मृत्यु के विभिन्न पक्षों- जैन-मृत्यु ‘सल्लेखना-कायोत्सर्ग-संथारा‘ और जैन ग्रंथ 'भगवती सूत्र' के 'मरण' जैसे विषयों पर गंभीर शोधपूर्ण लेखन किया है। विचारणीय कि जैन स्रोतों में विभिन्न प्रकार के मरण बताए गए हैं, यथा- अवीचिमरण, तद्भवमरण, अवधिमरण, आदिअंतिममरण, बालमरण, पंडितमरण, ओसण्णमरण, बालपडिण्तमरण, सशल्यमरण, बालाकामरण, वोसट्टमरण, विप्पाणसमरण, गिद्धपुट्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, प्रायोपगमनमरण, इंगिनीमरण, केवलिमरण। सेत्तार की पुस्तकों का शीर्षक है- Inviting Death (1989) तथा Pursuing Death (1990)। इसी क्रम की आरंभिक पुस्तक 1982 में ‘Memorial Stones‘ उनके सह-संपादन में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में C V Rangaswami का लेख ‘Memorials for Pets, Animals and Heros‘ है, जिसके अंत में तोते और उससे किए गए वादे की स्मारक शिला स्थापित किए जाने का उल्लेख है। लेख के अंत में R N Gurav के शोध प्रबंध का संदर्भ दिया गया है। इसी संग्रह में R N Gurav का लेख ‘Hero-stones of the Kadambas of Goa‘ शीर्षक से है, किंतु इसमें जयकेशी-तोते वाले किसी स्मारक खंड- हीरो-स्टोन का उल्लेख नहीं है। R N Gurav का शोध, कर्नाटक विश्वविद्यालय में ‘The Kadambas of Goa and their inscriptions‘ पर 1969 में किया गया है, उनके शोध प्रबंध के अध्याय-5 में जयकेशी प्रथम की चर्चा है। यहां भी ‘प्रबंधचिंतामणि‘ का संदर्भ तो है, मगर तोते-जयकेशी के किसी स्मारक शिला का नहीं। इसी ‘Memorial Stones‘ पुस्तक में एक अन्य महत्वपूर्ण लेख On the Memorials to the Dead in the Tribal Area of Central India है, जिसमें बस्तर के मृतक-स्तंभों पर विस्तार से चर्चा है। बस्तर अंचल के मृतक स्तंभ, उरसगट्टा और उरसकल आम है साथ ही, छत्तीसगढ़ के मुख्यतः धमतरी-बालोद क्षेत्र के गांवों में बड़ी संख्या में और अन्य स्थलों में भी लौहयुग के महापाषाणीय शवाधान स्थल हैं।

यहां एक कहानी, जो 3500 साल से भी अधिक पुरानी है, उसके बाद न जाने कब से कही जा रही है। पहली बार दर्ज हुई 1873-74 में, जब पुरातत्व सर्वेक्षण के जे.डी. बेगलर छत्तीसगढ़ आए। बेगलर ने बालोद से गुरूर-धमतरी के रास्ते में नवापारा से मुजगहन तक शिल्प और पाषाण खंडों का फैलाव देखा, जिसका हाल ‘सोरर‘ शीर्षक से बयान किया है। वहां उसने मद्य-विक्रेता कलाल और उसकी ज्यादतियों की कहानी सुनी। अवशेषों को किला होने की संभावना और सती-पाषाण खंड का उल्लेख किया। एक संरचना, संभवतः वही ‘बहादुर कलारिन की माची‘ कहा जाने लगा, का विवरण भी उन्होंने दिया है। 1933-34 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इन अवशेषों को 'स्टोन एज सिमिट्री?' कहा, इनके काल और प्रयोजन की जानकारी न होने तथा अब तक उत्खनन न होने की बात कही, इन्हें संरक्षित स्मारक घोषित करने का उल्लेख करते हुए स्थल पर कोई दंतकथा, लेख, उकेरन न होना भी बताया।

1956-57 में डॉ. एम.जी. दीक्षित द्वारा धनोरा ग्राम में संक्षिप्त उत्खनन कराया गया था। इस क्रम में विभिन्न प्रकार के लगभग 500 महापाषाणीय स्मारक चिह्नित किए गए थे। उत्खनन से कंकाल अवशेष, मनके, कांच की चूड़ियां, खंडित ताम्रकलश आदि मिले थे। इस तरह स्थल की पहचान लौहयुगीन महापाषाणीय स्मारक स्थल के रूप में सुनिश्चित हुई और आगे काम की आवश्यकता रेखांकित हुई। अगले चरण में विस्तृत उत्खनन करकाभाट में ए.के. शर्मा ने 1990-91 में कराया। स्थल पर मेनहिर, कैर्न, पिट सर्किल, सिस्ट, डोलमेन, कैपस्टोन शवाधान पहचाने गए, जिनके उत्खनन से लौहयुगीन अवशेष पर्याप्त मात्रा में मिले। इस क्षेत्र में सोरर, धनोरा और करकाभाट के आसपास कुछ अन्य ग्रामों टेंगना, नवापारा, करहीभदर, चिरचारी, मुजगहन, कन्नेवाड़ा, बरही, बरपारा, कपरमेटा, धोबनपुरी, भरदा तक तथा धमतरी के लीलर और भंवरमाड़ा, बसना के पास बरतिया भांठा जैसे स्थलों में भी महापाषाणीय पुरावशेष होने की जानकारी मिलती है।

हबीब तनवीर के ‘नया थियेटर‘ का चर्चित नाटक है ‘बहादुर कलारिन‘, 2004 में इसी शीर्षक से प्रकाशित नाटक-पुस्तक में उन्होंने बताया है कि 1975-76 में वे इस सोरर क्षेत्र में गए और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ (इस नाम की किसी पुस्तक का पता नहीं चलता, संभवतः दुर्ग दर्पण या छत्तीसगढ़ परिचय) में शामिल बहादुर कलारिन का मिथक पढ़ा, दुबारा गए, इलाके में फैले पुरावशेष देखे और लोगों द्वारा जमीन खोदते मूर्तियां और सोने के टुकड़े मिल जाने की बात सुनी तो यह नाटक लिखने और खेलने का मन बना लिया। नाटक बना, खेला गया, नाटक का अंत छत्तीसगढ़ी पारंपरिक सुआ गीत के तर्ज पर होता है- ‘जइसने तैं खाबे रे सुआ वइसने तोला देहूं रे, जीयत भर ले सुआ नाव ला तोर लेइहौं, नाव ल बताबे सोरर गांव के, जा जा रे सुआ कहि देबे पेड़ के संदेस ...‘।

यहां बात से निकली बात के बहाव की कुछ मौज और- दुर्ग जिला का पहला गजेटियर अंग्रेजी में 1910 में प्रकाशित हुआ, इसके आधार पर गोकुल प्रसाद द्वारा बनाया हिंदी ‘दुर्ग-दर्पण‘ 1921 में प्रकाशित हुआ। दुर्ग दर्पण का सोरर लगभग अंग्रेजी गजेटियर के सोरर का अनुवाद है, जिसमें कलारिन, राजा का शिकारी पक्षी-बाज, कलारिन महिला, उनके पुत्र छछान-छाड़ू, उसकी 160 पत्नियां, चावल कूटने के गड्ढे (खलबट्टे), छछान की लंपटता, मां द्वारा छछान को कुएं में ढकेल कर मार दिया जाना और स्वयं खंजर मारकर मर जाना, आया है। छछान छाड़ू की पूजा, सोरा-सोलह मुहल्लों या सरहरागढ़ के आधार पर सोरर नामकरण का उल्लेख है। स्वतंत्र भारत में दुर्ग जिला गजेटियर 1972 में प्रकाशित हुआ, इसमें आए सोरर का विवरण बेगलर रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें कलाल राजा, धान कूटने की ढेंकी के पत्थर पर बने छिद्र, वहां से गुजरने वाले प्रत्येक से बलपूर्वक ढेंकी में धान कूटने का बेगार कराने के साथ कलार जाति की महिला और राजपूत राजा की जनश्रुति का भी उल्लेख है, जो मुख्यतः 1910 के गजेटियर के अनुरूप है।

1925 में प्रकाशित ‘रायपुर रश्मि‘ में एक किंवदंती का उल्लेख है, जिससे कलार-राजपूत की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है, इसमें बताया गया है कि कलचुरियों ने अपने वंशज भंडारी-कल्यपाल को सोरर का राज दे दिया, ये भंडारी राजप्रासाद में कल्य अर्थात् कलेऊ बना कर दिया करते थे, जो प्रचंड सैनिक निकले, कल्यपाल कलवार से कलार हो गया और दंड-सेना से डडसेना या डनसेना, जो इस अंचल में अब भी बड़ी संख्या में हैं। 1926 में राय बहादुर हीरालाल ने वाघराज के गुरूर शिलालेख के पाठ के साथ उल्लेख किया है कि गुरूर, कुछ समय पहले तक कांकेर राजाओं के अधीन था। इससे सोरर क्षेत्र के अवशेषों और जनश्रुतियों में सीमा-विवाद के युद्ध और उसके प्रभाव की संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

पुराने संस्कृत और बौद्ध साहित्य में भाण्डागारिक राजकीय पदनाम आता है, किरारी के काष्ठस्तंभ में भी यह शब्द आया है। ये राजकीय व्यवस्था में भंडार-कोष के प्रभारी होते थे। युद्ध के दौरान लाव-लश्कर वाली पूरी फौज के लिए खान-पान, भंडार का इंतजाम जरूरी होता था, इसके लिए सेना के साथ ऐसे भंडारी हुआ करते होंगे, जो सैनिक-योद्धा भी हों। पानीपत की दूसरी लड़ाई वाले हेमू का स्मरण करें, जो पहले नमक और रसद आपूर्ति करता था, भाण्डागारिक-कल्यपाल होते हुए (कलार भी शराब के अलावा नमक का व्यापार करते थे। यों हेमू की जाति को ले कर मतभेद है, कुछ इतिहासकार उसे ब्राह्मण तो कूुछ तेली मानते हैं, मगर उसका जन्मना नहीं तो कर्मणा इस तरह कलार वाला है।) दुर्घर्ष योद्धा-सेनापति बना, विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। बनिया-व्यापारी की तरह जाति-चरित्र बताने के लिए प्रचलित जोड़ा शब्द बनिया-बक्काल है। बक्काल यानि राशन विक्रेता और हेमू को मुस्लिम इतिहासकार-लेखक ‘हेमू बक्काल‘ लिखते हैं।

बस्तर में सुंडी-कलार समाज के लोग उपनाम ‘सेठिया‘ लिखते हैं। 2003 में प्रकाशित ‘बस्तर की प्राचीन राजधानी बड़े डोंगर‘ पुस्तिका के लेखक बस्तर लोक-इतिहास के अध्येता बहीगांव निवासी घनश्याम सिंह नाग स्वयं कलार हैं, लिखते हैं कि ग्राम पावड़ा के पास बारदा नदी बहती है। नदी की सात धाराएं हाड़ दरहा (अस्थि-विसर्जन स्थल) में आ कर मिल जाती हैं। किंवदंती का उल्लेख करते हैं कि यहां छचान चोढीन बहादुर कलारीन की शराब भट्ठी हुआ करती थी, इसलिए चट्टान को भाटी पखना कहते हैं। चट्टान में बने गोल-गोल गड्ढे बहादुर कलारीन की 'पांस-हांडी' है। शराब बनाने के पहले महुए को हांडी में डुबो कर रखा जाता है जब महुआ शराब बनाने योग्य हो जाना, 'पांस आना' है। बहादुर कलारीन सात आगर सात कोड़ी (एक सौ सैतालिस) हांडी पांस का मंद (शराब) बनाती थी, जिसे खरदूषण अकेला पी जाता था। यहीं खरदूसन रक्सा का आसन ‘खरदूषण पीढ़ा‘ और बहादुर कलारीन का खजाना ‘हांडा पखना‘ की किंवदंती भी है।

एक और कहानी की चर्चा कर लें, जिसका उल्लेख रसेल-हीरालाल 1916 में करते हैं। इस कहानी में एक कलार बालक, बालोद के राजपूत राजकुमार का महाप्रसाद (अनुष्ठानपूर्वक मित्र) था। राजा का लड़का, कलार की बहन के प्रति आकर्षित हो कर उस पर बुरी नजर रखता था। कलार अपने महाप्रसाद के पिता-फूलबबा, राजा के पास शिकायत ले कर गया कि एक कुत्ता हमारे घर को गंदा कर रहा है, उसका क्या करना चाहिए। राजा कहता है कुत्ते को मार देना चाहिए। राजा से जबान लेने के बाद कि इसके लिए उसे दंडित नहीं किया जाएगा, अगले दिन अपने ‘महाप्रसाद‘-प्रिय मित्र को मार डालता है। इसके बाद हुई लड़ाई की परिस्थितियों के चलते कलारों ने बालोद छोड़ दिया यह लड़ाई डंडे से लड़ने के कारण कलार, ‘डंड-सेना‘ कहलाए और आज भी डंडसेना-कलार, बालोद का पानी नहीं पीते। उल्लेखनीय कि यहां आए दो नाम दुर्ग-दर्पण वाले गोकुल प्रसाद, हीरालाल के अनुज, कलार थे। गोकुल प्रसाद की पुत्री श्रीमती पार्वती बाई राय अपने पूर्वजों के लिए लिखती हैं- ‘यद्यपि कलार हैहय वंशियों की शाखा कलचुरि से उत्पन्न है ...।‘

हजारी प्रसाद द्विवेदी के गांव की बात भी याद की जा सकती है। वे अपने निबंध ‘मेरी जन्मभूमि‘ में लिखते हैं- ‘हमारे गांव से कलवार या प्राचीन ‘कल्यपाल‘ लोगों की बस्ती थी, जो एकदम भूल गए हैं कि उनके पूर्वज कभी राजपूत सैनिक थे और सेना के पिछले हिस्से में रह कर ‘कल्यवर्त‘ या ‘कलेऊ‘ की रक्षा करते थे।‘ माना जाता है कि इनमें जायस, अमेठी, उत्तरप्रदेश निवासी जायसवाल कहलाए, शिवहरे को सोम-हरे के व्युत्पन्न माना गया है। राय-कलार, राज-काज से संबंधित होने को रेखांकित करने के लिए कहे जाते हैं। मेरे गांव अकलतरा में कुछ उत्कृष्ट और भरोसेमंद हिसाब-किताब रखने वाले प्रशासकीय और वित्तीय नियंत्रण-कुशल मुनीम-मुख्तियार (जमीन-जायदाद का हिसाब किताब रखने वाले राजस्व-अमले के सदस्य भी) कलार-जायसवाल रहे हैं। दूर की कौड़ी सही, मगर क्या छछान छाड़ू का धान कुटवाना, भंडार और रसद के प्रबंध से संबंधित है? इस क्षेत्र और बालोद के बीच बहने वाली नदी तांदुला है। धान कूट कर चावल बनाना और नदी का नाम तांदुला (तंडुल-चावल) में कोई सूत्र-संकेत हो या महज संयोग, उल्लेखनीय अवश्य है। तथा कलार और छछान का संबंध उस श्येन-बाज पक्षी से भी हो सकता है जो वैदिक साहित्य में मुंजवत् पर्वत से सोम ले कर आता है। जनश्रुतियों की विविधता और यह विवरण, शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो सकता है।

हबीब तनवीर इस दौर में सोरर क्षेत्र में हुए-हो रहे पुरावशेषों के नुकसान का उल्लेख तो करते हैं, मगर यहां कराए उत्खनन और राज्य शासन द्वारा संरक्षित स्मारक-स्थल करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, कुलिया, मुजगहन साथ ही इनमें प्रमुख स्मारक चिरचारी स्थित ‘बहादुर कलारिन की माची‘, जो लगभग 15-16 वीं सदी ईस्वी में निर्मित किसी मंदिर का अवशिष्ट मंडप भाग जान पड़ता है, का उल्लेख नहीं करते। संभवतः वे इससे अवगत नहीं हुए या इसका जिक्र करना आवश्यक नहीं माना। उन्होंने बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘दुर्ग परिचय‘ का उल्लेख इस कथा के संदर्भ में किया है, संभव है उक्त पुस्तक में कथा भिन्न प्रकार से आई हो मगर बलदेव प्रसाद मिश्र की प्रचलित पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ के 1960 में प्रकाशित चौथे संस्करण में ‘सोरर‘ शीर्षक से कहानी है, जिसमें सोरर में कटार लिए हुए नारी मूर्ति (संभवतः योद्धा-सती स्मारक शिला) का उल्लेख है, यहां भी छछानछाड़ू है, जिसे उसकी माता ही धक्का मारकर कुंए में गिरा देती है और कटार से आत्महत्या (स्वेच्छा मृत्यु वरण) कर लेती है, मगर इसमें ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ जैसा कुछ नहीं है, जो हबीब तनवीर के नाटक में प्रमुखता से आया है। स्थानीय लोगों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में ऐसा संकेत-मात्र है।

इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी कथा-गीत‘ में ग्राम सोरर के नागरिकों अंतूराम कान्डेय और पुनीत पटेल का दिनांक 25/07/2009 का साक्षात्कार प्रकाशित है, जिसमें जानकारी है कि अंतूराम जी ने भी बहादुर कलारिन की कथा पर नाटक लिखा है। इनके अलावा सोरर के गोस्वामी, कुंभज परिवार के सदस्य ‘बहादुर कलारिन‘ नाटक के इस संस्करण से जुड़े रहे हैं, बताते हैं कि हबीब तनवीर के नाटक के ‘इडिपस कांप्लेक्स‘ से असहमति के कारण यह नाटक 1984 में तैयार किया गया, जिसकी 50 से अधिक प्रस्तुतियां दो-तीन साल में हुईं। इस नाटक में 160 या छै आगर छै कोरी यानि 126 के बजाय 147 यानि सात आगर सात कोरी ओखलियां बताई गई हैं। पुनीत राम बताते हैं कि ‘हमारी मान्यता है कि छछानपुत्र की माता को एक गलतफहमी हुई थी। बहादुर कलारिन बेटे से कहती है कि तुम इतनी स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें ले आये हो तो जो पसंद है उससे शादी करो। बेटा कहता है कि तुम्हारी जैसी सुदर और गुणवती कोई नहीं- यही बात गलतफहमी का कारण बनती है।‘ तथा यहां छछानछाड़ू का मंदिर है, उसे देवता के रूप में पूजा जाता है और बहादुर कलारिन का भी मंदिर बन रहा है, ... आसपास के गांव के लोग भी उसे देवी मानते हैं। विभिन्न प्रसंगों में देखा जा सकता है कि मृत्यु का वीरोचित स्वैच्छिक वरण या ‘इहलीला समाप्त करना‘, समाधि लेना आदि महिमामंडित होकर सम्मानित और पूजित होने लगता है। इसे आत्महत्या की तरह कायराना नहीं माना जाता था। प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ में बहादुर कलारिन की तरह दसमत ओड़निन, बिलासा केंवटिन, राजिम तेलिन, न्यौता धोबनिन, गंगा-चंदा ग्वालिन, गुजरी गहिरिन और सुसकी, लोहारिन, कोहारिन जैसी विभिन्न नारियों के नाम और शौर्यगाथा/महिमा, त्याग और उत्सर्ग लोक की स्मृति में हैं।

छत्तीसगढ़ के मल्हार (बिलासपुर), आतुरगांव (कांकेर) और छातागढ़ (दुर्ग) से ईसा की आरंभिक सदी के अभिलिखित पाषाण-खंड प्राप्त हुए हैं, जो स्मृति लेख हैं। इन्हें स्मरण-स्तंभ/शिला कहना उपयुक्त होगा, ‘स्मरण‘ में स्मृति भी है और मरण भी। दुर्ग-राजनांदगांव अंचल में योद्धा और सती-स्मारक पाषाण बड़ी संख्या में हैं। बालोद के कपिलेश्वर मंदिर समूह से संलग्न परिसर में ऐसे पुरावशेष एकत्रित कर प्रदर्शित किए गए हैं, इनमें से कुछ अभिलिखित हैं। यहां प्राप्त एक सती स्तंभ पर के तीन पंक्तियों वाले अभिलेख का काल प्रिंसेप ने दूसरी सदी ईस्वी ठहराया, ऐसा स्वीकृत हो तो यह सबसे पुराना सती-स्तंभलेख होगा। अन्य अभिलेख लिपि और उकेरन के आधार पर ये गोंडकालीन इतिहास से संबंधित अर्थात् सोलहवीं सदी ईस्वी तक प्राचीन, अनुमान होता है। ऐसे कुछ पाषाण खंड परवर्ती काल के भी हैं। 

कवर्धा से लगभग 25 किलोमीटर दूर 
संकरी नदी के बाए तट के ग्राम गुढ़ा के 
14-15 वीं सदी इस्वी के सती स्तम्भ 
(चित्र सौजन्य- श्री अजय चंद्रवंशी)
प्रसंगवश, महाभारत, वनपर्व 190/67 में संभवतः बौद्ध स्तूपों और मृतक-समाधियों के लिए कहा गया है कि युगांतकाल में देवस्थानों, चैत्यों और नागस्थानों में हड्डी जड़ी दीवारों के चिह्न होंगे ...‘। एक अन्य उल्लेखनीय संदर्भ, हूणों से युद्ध में मारे गए गोपराज (जिसके नाना शरभ, संभवतः वही जो दक्षिण कोसल के प्रसिद्ध शरभपुरीय राजवंश के संस्थापक थे) की पत्नी के सती होना, आरंभिक ज्ञात अभिलिखित स्पष्ट उल्लेख 510 ईस्वी के भानुगुप्त के एरण (सागर, मध्यप्रदेश) शिलालेख में आया है। 1829 में सती प्रथा उन्मूलन के पश्चात नागपुर के अधीन छत्तीसगढ़ में सितंबर 1931 में सती प्रथा पर कानूनी रोक लगाए जाने की जानकारी मिलती है। नीचे छातागढ़ से प्राप्त, वर्तमान में महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में प्रदर्शित अभिलिखित दो शिलाओं के चित्र। स्थल का नाम ‘छातागढ़‘ ध्यातव्य है, क्योंकि छत्र, छाया, छाता आदि जैसे शब्द-भाव मृतक-शिलाओं के लिए प्रयुक्त होते थे।

निस छाया/सिधनेगमसरह                    घरनिय समि-निका छाया

‘प्रबंधचिंतामणि‘ का परिचय मेरे लिए कुछ इस तरह का- बारहवीं सदी के ग्रंथ कल्हण की राजतरंगिणी इतिहास-दृष्टि से रचित आरंभिक कृति माना गया है, जिसमें प्राचीन अभिलेखों- शिलालेख, ताम्रपत्र, तालपत्र, भूर्जपत्र, दानपत्र, ग्रंथों, किवदंतियों, जनश्रुतियों जैसे सभी स्रोतों का इस्तेमाल है और इस ग्रंथ की तैयारी में देशाटन कर भूगोल की जानकारी सहित समकालीन परिस्थितियों से भी वे परिचित हुए। विक्रमांकदेवचरित, गौड़वहो, पृथ्वीराज दिग्विजय और कीर्तिकौमुदी जैसी कृतियों को इसी परंपरा का मान मिला है। इसके साथ इतिहास अध्ययन के तौर-तरीके और स्रोत-सामग्री पर विचार करते चलें। पुरातात्विक वस्तुएं व्याख्या निर्भर होती हैं। साहित्यिक स्रोतों में कल्पना, रूपक और प्रतीकों, लक्षणा-व्यंजना होती है। विश्वसनीय माने जाने वाले अभिलेखों में तिथि अंकित न होना, अतिशयोक्ति आदि के कारण उनकी भी तथ्यात्मक विश्वसनीयता कम हो जाती है। कई बार ऐसे भिन्न स्रोतों को मिलाने पर वंशक्रम, पूर्वज-वंशज, उत्तराधिकारियों की जानकारी में भी विसंगति होती है। ऐसी स्थिति में जिस काल से संबंधित राजवंशों, घटनाओं, समाज और लोगों के पर्याप्त इतिहास का अभाव हो, वहां कोई भी पूरक और समानांतर सूचना का स्रोत महत्वपूर्ण हो जाता है, बल्कि विश्वसनीय इतिहास-घटनाओं का परीक्षण और उससे जुड़ी स्थितियों की जानकारियों के लिए भी सहायक होता है। इस प्रकार का इतिहास लेखन-शोध कुछ-कुछ ललित निबंधों पूर्वज जैसा हो जाता है।

आधुनिक इतिहास अध्ययन में कई विद्वान किसी स्थल, स्मारक अथवा पुरावशेष पर शोध-लेखन करते हुए, उससे संबंधित देश-काल, परिवेश और अन्य संबंधित रोचक संदर्भों की चर्चा को शामिल किया करते थे, जो न सिर्फ ऐसे अध्ययन के पूरे परिप्रेक्ष्य के लिए, बल्कि अन्य पक्षों की ओर खोज के लिए राह सुझाता है। यथा- हीरानंद शास्त्री का Brahmi Inscription on a Wooden Pillar from Kirari, राय बहादुर हीरालाल के The Birth Place of the Physician Sushena और Why Kewat Women are Black, पं. लोचन प्रसाद पांडेय के The Ramayana of Valmiki Mentions two Kosalas, Mahanadi - The Famous River of Mahakosala और Six Lacs and Ninety-Six Villages of Kosala जैसे लेख और बलदेव प्रसाद मिश्र की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ इसके उदाहरण हैं। इस दृष्टि से जैन आस्था के इस ग्रंथ ‘प्रबंधचिंतामणि‘ को इतिहास-लेखन की पूर्वज शैली के महत्व सहित देखा जा सकता है।

इसके ग्रंथकार मेरुतुंग सूरि स्वयं स्पष्ट करते हैं- ‘बार-बार सुनी जाने के कारण पुरानी कथाएं बुद्धिमानों के मन को वैसा प्रसन्न नहीं कर पातीं। इसलिए मैं निकटवर्ती सत्पुरुषों के वृत्तांत से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूं।‘ तथा वे यह भी कहते हैं कि ‘बहुश्रुत और गुणवान ऐसे वृद्धजनों की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्यों में भी प्रतिभा का वैसा योग न होने से शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारण से तथा भावी बुद्धिमानों को उपकारक हो ऐसी परम इच्छा से, सुधासत्र के जैसा, सत्पुरुषों के प्रबंधों का संघटन रूप यह ग्रंथ मैंने बनाया है।‘ और यह भी कि ‘यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि से कहे गए प्रबंध भिन्न भिन्न भावों वाले अवश्य होते हैं, तथापि इस ग्रंथ की रचना सुसंप्रदाय के आधार पर की गई है, इसलिए चतुर जनों को वैसी चर्चा न करनी चाहिए।‘

किसी कृति के सम्मान के साथ उसके सम्यक मूल्यांकन की जिम्मेदारी निर्वाह का एक उल्लेख इस ग्रंथ के संपादन संबंधी ‘प्रास्ताविक वक्तव्य‘ से स्पष्ट किया जा सकता है, जहां एक ओर इस ग्रंथ के महत्व पर जोर दिया गया है, वहीं कहा गया है- ‘... न मालूम मेरुतुंग सूरि ने किस आधार पर, ऐसा भ्रान्तिपूर्ण यह वर्णन अपने इस महत्व के ग्रन्थ में ग्रंथित कर डाला है, सो समझ में नहीं आता।' बहरहाल इस ग्रंथ में जैनधर्म, गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास की कथाओं, श्लेष, रूपक-उपमा वाले अनमोल शब्दों और कहन के उदाहरण तथा उनका मोल बारंबार आया है।

जयकेशी प्रसंग की पृष्ठभूमि में उनके पिता शुभकेशी और जयकेशी की पुत्री मयणल्ला देवी का उल्लेख आवश्यक है। ‘प्रबंधचिंतामणि‘ से पता चलता है कि- ‘इधर, शुभकेशी नामक कर्नाट देश का राजा घोड़े से (जिसको अपने काबू में न रख सकने के कारण) उड़ाया जाकर किसी घने जंगल में जा पड़ा। वहां पत्र फलों से भरे भरे किसी वृक्ष की छाया का उसने आश्रय लिया। उसके पास ही दावाग्नि लगी। जिस वृक्ष ने (अपनी छाया में) विश्राम देकर उपकार किया था उसे, कृतज्ञता के कारण छोड़कर चले जाने की उसकी इच्छा न हुई। और इसलिए, उसी के साथ दावानल में उसने अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके बाद, मंत्रियों ने उसके पुत्र जयकेशी को राजपद पर अभिषिक्त किया। क्रमशः उसके एक मयणल्ला देवी नाम की पुत्री पैदा हुई। ... श्री कर्ण ने उससे विवाह कर लिया।‘

इस क्रम में आगे ‘मयणल्लादेवी के पिता की मृत्युवार्ता‘ आती है, जिसमें कथा इस प्रकार आई है-

‘किसी समय, कर्णाट देश से आये हुए सन्धिविग्रहिक से मयणल्ला देवी ने अपने पिता जयकेशी का कुशल समाचार पूछा तो उसने अश्रुपूर्ण आंखों से कहा कि- ‘स्वामिनि, प्रख्यातनामा महाराज श्री जयकेशी भोजन के समय पिंजरे में तोते को बुला रहे थे। उसके ‘मार्जार‘ (बिल्ली) बैठी है, ऐसी आशंका व्यक्त करने पर, राजा ने चारों ओर देख कर-किंतु अपने भोजन के पात्र के (चौकी के), नीचे छिपे हुए मार्जारको न देख कर प्रतिज्ञा पूर्वक बोल उठे कि- ‘यदि बिल्ली के हाथ तुम्हारी मृत्यु होगी तो मैं भी तुम्हारे ही साथ मरूंगा‘। वह तोता ज्यों ही पिंजडे से उड़ कर उस सोने के थाल पर आ कर बैठा त्यों ही उस बिल्ली ने (लपक कर) भेड़िये जैसे दाँतों से उसे मार डाला। राजा ने उसे मरा देख कर भोजन का ग्रास छोड़ दिया, और उक्ति-प्रत्युक्ति जानने वाले राजपुरुषों के (बहुत कुछ) निषेध करने पर भी कहा- 

‘राज्यं यातु श्रियो यान्तु प्राणा अपि क्षणात्। 
या मया स्वयमेवोक्ता वाचा मा यातु शाश्वती।।‘

‘राज्य चला जाय, श्री चली जाय, और क्षणभर में प्राण भी भले ही चले जांय, किन्तु जो बात मैंने स्वयं कही है वह शाश्वती वाणी न जाय।‘

इस प्रकार इष्ट देवता की भाँति इसी वाणी का जाप करता हुआ, काष्ठ की चिता बनवा कर, उस तोते को साथ ले, उसमें प्रवेश कर गया। इस वाक्य को सुन कर मयणल्ला देवी शोकसागर में डूब गई। विद्वज्जनों ने विशेष प्रकार के धर्मोपदेशरूपी हस्तावलंबन दे कर उसका उद्धार किया।‘

‘प्राण जाए पर वचन न जाई‘ और ‘तोता-राजा सहगमन‘ (सहगमन- सामान्यतः जीवनसाथी, पति के साथ पत्नी का सती हो कर 'परलोक गमन?' के लिए प्रयुक्त होता है।) के इस प्रसंग का विवरण कुछ अन्य स्रोतों में लगभग इन शब्दों में मिलता है-

गोवा कदंब राजवंश के राजा जयकेशी द्वारा एक तोते के लिए आत्मदाह का एक अनोखा उदाहरण मिलता है। जिन परिस्थितियों के कारण राजा की मृत्यु हुई वे इस प्रकार थीं- जब राजा जयकेशी भोजन करते थे तो तोते का प्रतिदिन उनके साथ देता था। एक दिन, तोते ने राज सिंहासन के नीचे एक बिल्ली को बैठे देखा। राजा के बार-बार पुकारने, स्नेह और धमकी के बावजूद, तोता खाने में साथ देने के लिए पिंजरे से बाहर नहीं आया और अपने आसन्न प्राण-संकट का संकेत देता रहा। अंत में, राजा ने कहा कि यदि तोते को किसी भी घातक स्थिति का सामना करना पड़ा तो वह अपनी जान भी जोखिम में डाल देगा। जाहिर तौर पर उन्होंने यह आश्वासन अपने आसन के नीचे बिल्ली की मौजूदगी को न जानते हुए दिया था। तोता राजा की बात पर, पिंजरे से बाहर आया, तो बिल्ली ने उस पर झपट्टा मारा और उसे मार डाला। दुखी राजा ने तोते के दुःख से, अपने वादे को पूरा करते हुए, तोते के साथ जलकर मर गया। किसी पालतू जीव से किए गए वादे की खातिर जान देने का यह एक दुर्लभ मामला है।

और कुछ बातें तोता, सुआ या मिट्ठू पर- ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक सूत-रोमहर्षण या लोमहर्षण (अपनी वक्तृत्व शैली से मंत्रमुग्ध कर रोमांचित करने वाले) और कुशीलव कथा रचने-गढ़ने और सुनाने वाले जबकि शुकदेव, कथा वाचक यानि कथा बांचने-दुहराने वाले होते थे, इसी से 'तोता रटंत' कथन चल पड़ा। तोते को बोलना सिखाया जाता है, ‘तपत्कुरु‘, पं. दानेश्वर शर्मा का प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी गीत है- 'तपत कुरु भइ तपत कुरु, बोल रे मिट्ठू तपत कुरु‘। ऐसा जान पड़ता है कि गुरुकुल-आश्रमों में तोते रखे जाते थे, जिनको तपत्कुरु सिखाया जाता था कि वे दुहराते-रटते रहें ‘तप करो, तप करो‘। ऐसे ही तोता रटंत का प्रसंग मंडन मिश्र वाला है। मंडन मिश्र का शास्त्र-ज्ञान किताबी था, शंकराचार्य की तरह अनुभूत नहीं था फिर मंडन मिश्र की पत्नी भारती के सामने ‘अनुभूत‘ के सवाल पर ही शंकराचार्य लाजवाब होते हैं। ‘शुक सप्तति‘ बारहवीं सदी ईस्वी का ग्रंथ माना जाता है। जैन हेमचंद्र इस ग्रंथ के दो पाठों- एक संभवतः चिंतामणि भट्ट का और दूसरा श्वेतांबर जैन से परिचित थे। ए.बी कीथ के अनुसार भी इसका एक संस्करण, श्वेतांबर जैन की रचना प्रतीत होती है। इसकी कहानी अब भी किस्सा तोता-मैना प्रचलित और लोकप्रिय है। देह पिंजर (पसली) में जान (आत्मा) कैद होती है, जैसे पिंजरे में तोता, इंतकाल में प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं। एक कहावत में बन्दर, जोगी, अगिन, जल, सूजी जैसे दस में सुआ को भी गिना जाता है, जो कभी अपने नहीं होते। तोता-चश्म की तरह निरपेक्ष आत्मा, शरीर को छोड़कर प्रयाण कर जाती है। जयकेशी की मृत्यु-कथा, क्या ऐसा ही कोई रूपक है?

चलते-चलते, ‘प्रबंधचिंतामणि‘ के कुछ रोचक उल्लेख और उद्धरण-

कालिदास, भारवि और दंडिन के साथ कहा जाता है- ‘माघे सन्ति त्रयो गुणाः‘ या 'माघे मेघे गतं वयः‘ या ‘काव्येषु माघः ...‘, ऐसे ‘उपमा, अर्थगौरव और पदलालित्य‘ संपन्न महाकवि माघ की भौतिक समृद्धि और ऐश्चर्य से भी भरपूर होने का भी ‘प्रबंध‘ यहां है, जिसमें बताया गया है कि माघ, किस तरह राजा भोज के वैभवपूर्ण आतिथ्य से संतुष्ट नहीं होते। दूसरी तरफ राजा भोज माघ का वैभव देखने श्रीमालनगर जाते हैं और माघ द्वारा की गई अगवानी और अप्रत्याशित समृद्ध सत्कार से चकित होते हैं।

'तुम्हारे जीवित रहते बलि, कर्ण और दधीचि जीते हैं और हमारे जीवित रहते दारिद्र्य जीता है। हे जगदेव! हम नहीं जानते कि किसका हाथ थक जाएगा- दरिद्रों को रचते-रचते ब्रह्मा का या कृतार्थ करते करते तुम्हारा।'

'सौगत (बौद्ध) धर्म है सो तो सुनने लायक है (अर्थात् उसके सिद्धान्त सुनने में अच्छे हैं), और आर्हत (जैन) धर्म है सो करने लायक है। व्यवहार में वैदिक धर्म का अनुसरण करना योग्य है और परम पद की प्राप्ति के लिए शिव का ध्यान धरना उचित है।'

'यद्यपि कटे हुए ब्रह्मशिर को वह धारण करता है, यद्यपि प्रेतों से उसकी मित्रता है, यद्यपि रक्ताक्ष हो कर मातृकाओं के साथ वह क्रीड़ा करता है, यद्यपि स्मशान में वह प्रीति रखता है और यद्यपि सृष्टि करके वह उसका संहार कर देता है, तो भी, मैं उसमें मन लगा कर भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। क्योंकि त्रिलोक शून्य है और वह जगत का एकमात्र ईश्वर है।'

'जिसे विष्णु दो आँखों से, शिव तीन से, ब्रह्मा आठ से, कार्तिकेय बारह से, रावण बीस से, इंद्र दस सौ से ओर जनता असंख्य नेत्रों से भी नहीं देख पाती, बुद्धिमान पुरुष उसी को एक प्रज्ञा (बुद्धि) रूपी नेत्र से स्पष्ट देख लेता है।'

'ग्रहों रूपी कौड़ियों से जब तक द्युलोक में सूर्य और चंद्रमा, जुआड़ी की तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रंथ विद्यमान रहो।'

टीप-

*मेरे लिए विभिन्न संदर्भों में प्रवेश और उन तक पहुंच, सामान्यतः बरास्ते छत्तीसगढ़ होता है।

*भारतीय चिंतन परंपरा पर विचार करें तो एक हिंदू या सनातन, दूसरा बौद्ध और तीसरा जैन, इन तीनों में शंकर के वेदांत के बाद दर्शन-चिंतन में टीका ही मिलती है, कुछ पुराणों का भी काल इसी दौर (आठवीं-नवीं सदी ईस्वी से अंगरेजों के आते तक) का ठहरता है, साहित्य में वीरगाथा, भक्ति, रीति हावी है। बौद्ध परंपरा में जेन आदि अन्य देशों में विकसित हुआ, भारतीय परंपरा में बौद्धों में सूनापन ही जान पड़ता है। जैनों में खासकर कर्नाटक और मरु-गुर्जर प्रदेश में रची और सहेजी जिन कृतियों की जानकारी मिलती है, उनसे लगता है कि भारत में जैन शास्त्रीय चिंतन परंपरा के अलग-अलग आयाम बराबर उद्घाटित होते रहे हैं, मगर धार्मिक या पंथ-विशेष से संबंधित मानकर नजरअंदाज हुए हैं।