Showing posts with label भाषाविज्ञान. Show all posts
Showing posts with label भाषाविज्ञान. Show all posts

Sunday, November 11, 2012

गेदुर और अचानकमार

छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे नये जिले बलौदाबाजार के एक गांव में 'गेदुरपारा' यानि गेदुर मुहल्‍ला सुन कर इस शब्‍द 'गेदुर' के बारे में जानना चाहा, अर्थ बताया गया चमगादड़ या चमगीदड़ (चेहरा, गीदड़ की तरह होने के कारण? चम+गीदड़)। यह 'उड़ने वाली, लेकिन चिडि़या नहीं' स्‍तनधारी आम बोलचाल की छत्‍तीसगढ़ी में चमगिदरी, चमगेदरी या चमरगिदरी भी कही जाती है, तो स्‍पष्‍ट किया गया कि छोटे आकार की, जो आमतौर पर पुराने भवनों में रहती है वह चमगिदरी (या धनगिदरी भी, जिसे शुभ माना जाता है) और बड़े आकार की, जो पेड़ों पर उल्‍टे लटकती है, जिसके पीठ पर भूरे-सुनहरे रोएं होते हैं वह गेदुर है। आगे चर्चा में पता लगा कि छत्‍तीसगढ़ के मध्‍य-मैदानी क्षेत्र के लोग, अच्‍छे जानकार भी इस शब्‍द से एकदम अनभिज्ञ हैं, लेकिन बस्‍तर का हल्‍बी और उससे प्रभावित क्षेत्र, जशपुर सादरी क्षेत्र, पेन्‍ड्रा बघेली प्रभावित क्षेत्र (रीवां अंचल में गेदुरहट नामक गांव है) और जनजातीय समुदाय के लिए यह शब्‍द अपरिचित नहीं है। पट्ट (ठेठ) मैदानी छत्‍तीसगढ़ में 'गेदुर' शब्‍द से अनजान व्‍यक्ति इस शब्‍द को दुहराए तो कहेगा 'गेन्‍दुर'।

मंगत रवीन्‍द्र की छत्‍तीसगढ़ी कहानी अगोरा के आरंभ में- ''थुहा अउ पपरेल के बारी भीतर चर-चर ठन बिही के पेड़ ..... गेदुर तलक ल चाटन नई देय'' गेदुर शब्‍द इस तरह, बिही (अमरूद) के साथ प्रयुक्‍त हुआ है। इसका प्रिय खाद्य अमरूद और शरीफा है। आम मान्‍यता है कि इसके शरीर में मल-उत्‍सर्जन छिद्र नहीं होता और यह (शापग्रस्‍त होने के कारण) उत्‍सर्जन क्रिया मुंह के रास्‍ते करती है, 'गुह-गादर' इस तरह भी शब्‍द प्रयोग प्रचलित है। संभवतः ऐसी मान्‍यता के पीछे कारण यह है कि यह फल खाने के बाद रस चूसकर ठीक उसी तरह उगल देती है, जैसा हम गन्‍ने के लिए करते हैं। छत्‍तीसगढ़ी में अशुचिता, गलीचपन के लिए गिदरा-गिदरी शब्‍द प्रयुक्‍त होता है, स्‍वयं गंदा और गंदगी फैलाने वाला जैसा तात्‍पर्य होता है। यहां शब्‍द और अर्थ साम्‍य देखा जा सकता है। माना जाता है कि पेड़ से गिरे गेदुर को खाने वाले की आयु लंबी होती है और ऐसे व्‍यक्ति की जबान से निकली बात फलीभूत होती है। दमा, श्‍वास-रोगियों को भी गेदुर खिलाया जाता है साथ ही कुछ अन्‍य गुह्य उपयोग और मान्‍यताएं गेदुर के साथ जुड़ी हैं।

गेदुर शब्‍द के साथ मिलते-जुलते शब्‍द इंदूर और उंदुर यानि चूहा का ध्‍यान (बस तुक मिलाने को दादुर, मेढक सहित) आता है और बंदर शब्‍द भी अधिक दूर नहीं। प्रसंगवश, बानरो और उंदरा को जोड़ी बना कर 'बांदरो-उंदरो' बोल दिया जाता है। स्‍तनधारियों में सबसे छोटे, 2 ग्राम तक के जीव चमगादड़ों में ही होते हैं। गादर और गेदुर के चमड़े के डैने के कारण गादड़ में 'चम' जुड़ कर सीधा रिश्‍ता बनता दिखता है, लेकिन क्‍या यह बंदर (वानर, वा+नर में नर का अभिप्राय पुरुष नहीं, मानव है, जो चूहा या चमगादड़ की तरह स्‍तनधारी है) तक भी जाता है?

•••

बिलासपुर से अमरकंटक के रास्‍ते में है- 'अचानकमार'। इस शब्‍द के लिए पहले जितनी बातें सुनी थीं, उनसे खास अलग कुछ पता नहीं लगा। मुझे यह संतोषजनक नहीं लगता क्‍योंकि यह शब्‍द मूलतः छत्‍तीसगढ़ी, बइगानी या अन्‍य किसी जनजातीय जबान में इस्‍तेमाल होने की जानकारी नहीं मिलती फिर अचानक का अर्थ उसी तरह लिया जाय, जैसी हमारी रोजमर्रा की भाषा में हैं, तब मानना होगा कि यह नाम काफी बाद में आया है, और किसी पुराने नाम पर आरोपित हो गया है, यदि ऐसा हो तो इस नाम का अधिक महत्‍व नहीं रह जाता।

अचानकमार शब्‍द स्‍पष्‍टतः 'अचानक' और 'मार', इन दो शब्‍दों से मिल कर बना है। अचानक के साथ पुर जुड़कर छत्‍तीसगढ़ में जंगली इलाकों में ग्राम नाम बनते हैं- अचानकपुर। ऐसा ग्राम नाम कसडोल, सिरपुर और बलौदा के पास याद आता है। ध्‍यान देने योग्‍य है कि पुर शब्‍द भी यहां पुराने प्रचलन का नहीं है। अब दूसरे शब्‍द 'मार' के बारे में सोचें। मार या इससे जुड़े एकदम करीब के शब्‍द हैं- सुअरमार या सुअरमाल, बाघमड़ा, भालूमाड़ा, अबुझमाड़ (अबुझ भी अचानक की तरह ही अजनबी सा शब्‍द लगता है), जोगीमारा (सरगुजा), प्राचीन स्‍थल माड़ा (सीधी-सिंगरौली में कोरिया जिले की सीमा के पास)। इन पर विचार करने से स्‍पष्‍ट होता है कि 'मार' या इसके करीब के शब्‍द पहाड़, पहाड़ी गुफा, स्‍थान (जिसे ठांव, ठांह या ठिहां भी कहा जाता है) जैसा कुछ अर्थ होगा, मरने-मारने से खास कुछ लेना-देना नहीं है इस शब्‍द का। यह भी विचारणीय होगा कि कुछ लोग इसका उच्चारण अचान-कमार करते हैं लेकिन अचान शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता और कमार (गरियाबंद वाली जनजाति) का इस क्षेत्र से कोई सीधा तालमेल नहीं है।

भाषा विज्ञान की मदद लें तो र-ल-ळ-ड़-ड-द आसपास की ध्‍वनियां हैं। इस दृष्टि से 'शेर की मांद' और मराठी, तमिल-तेलुगु का मलै या माला (मराठी में फ्लोर या मंजिल के लिए माला शब्‍द या दक्षिण भारत में अन्‍नामलई, तिरुमलई) इसी तरह का अर्थ देने वाले शब्‍द हैं। माड़ना, मंडित करना, मड़ई जैसे शब्‍द भी इसके करीब जान पड़ते हैं। संभव है कि भाषा विज्ञान में इतनी खींचतान मंजूर न हो, लेकिन सहज बुद्धि, भटकती तब रास्‍ता पाती है।

इन शब्‍दों के लिए 'शब्‍द चर्चा' का विचार आया फिर अजीत वडनेरकर जी से फोन पर बात हुई, लगा कि भाषाई जोड़-तोड़ में आजमाया हाथ, पोस्‍ट क्‍यों न कर दिया जाय।

Tuesday, September 6, 2011

भाषा

सितम्‍बर का महीना। 14 तारीख आने में अभी समय है। हिन्‍दी दिवस पर कुछ बात कहने की पृष्‍ठभूमि में फिलहाल अन्‍य भाषाओं (और लिपि) से संबंधित फुटकर कुछ नोट, अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी (सन 1952) को बांग्ला युवाओं की शहादत का स्मरण करते हुए-

# ककहरा से शुरू करें। अंगरेजी (रोमन) अल्‍फाबेट के सभी 26 अक्षरों से बना छोटा सा सार्थक वाक्‍य, जो अब अधिकतर दिखता है, फान्‍ट के नमूने के लिए, पहले इसी वाक्‍य से टाइपराइटर सुधार के बाद ट्रायल होता था, आप परिचित जरूर होंगे लेकिन हमेशा मजेदार लगता है- The quick brown fox jumps over the lazy dog. ऐसा ही एक अन्‍य लोकप्रिय वाक्‍य है- Pack my box with five dozen liquor jugs और बिना दुहराव के, ठीक 26 अक्षरों वाला वाक्‍य- Mr. Jock, TV quiz PhD, bags few lynx है। टाइपराइटर कुंजीपटल की एक पंक्ति के अक्षरों को मिला कर सबसे लंबा सार्थक शब्द TYPEWRITER ही बनता है और उल्‍टा-सीधा एक समान के प्रचलित उदाहरण हैं- WAS IT A CAR OR A CAT I SAW. या A NUT FOR A JAR OF TUNA. इसी तरह हिन्‍दी में 'कोतरा रोड में डरो रात को।' (कोतरा रोड, रायगढ़, छत्‍तीसगढ़ में है.)

# संस्‍कृत में भाषा के कितने ही कमाल हैं, पहले पहल रामरक्षास्‍तोत्र के ''रामो राजमणिः सदा विजयते...'' से अकारांत पुल्लिंग कारक रचना का एकवचन याद करने का आइडिया जोरदार लगा था, उसी तरह एक अन्‍य प्रयोग जिसमें सवाल ही जवाब हैं-
प्रश्‍न- का काली अर्थात् काली वस्‍तु क्‍या है?
उत्‍तर- काकाली (काक+आली) कौओं की पंक्ति।
प्रश्‍न- का मधुरा अर्थात् मधुर क्‍या है?
उत्‍तर- काम धुरा (काम+धुरा) अर्थात् कामदेव का अनुग्रह वहन।
प्रश्‍न- का शीतलवाहिनी गंगा अर्थात् शीतलवाहिनी गंगा कौन है?
उत्‍तर- काशी-तल-वाहिनी गंगा अर्थात् काशी तल में प्रवाहित गंगा शीतल है।
प्रश्‍न- कं संजघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने किसको मारा?
उत्‍तर- कंसं जघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने कंस को मारा।
प्रश्‍न- कं बलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् किस बलवान को शीत नहीं बाधता?
उत्‍तर- कंबलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् कंबल वाले को शीत नहीं बाधता।

# कुछ नमूने देखिए-
हम बचपन में 'का ग द ही ना पा यो' का खिलवाड़ करते हुए का, काग, गदही, कागद, दही, ना, हीना, नापा, पायो, यो जैसे शब्द तोड़-मरोड़ करते थे। निराला जी ने 'ताक कमसिनवारि' को ताक कम सिन वारि, सिनवारि, ता ककमसि, नवारि, कमसिन, कमसिननारि आदि में तोड़ने का प्रयोग किया है। THE PEN IS MIGHTIER THAN THE SWORD वाक्य के शब्द PENIS, THIS, WORD, TEAR, SWARD, MIGHTY, EARTHEN, बन कर कई अर्थछटाएं बनती हैं। यह उद्धरण ऐसी-वैसी जगह से नहीं, अज्ञेय के संग्रह शाश्‍वती में ऐसे और भी नमूनों सहित यह VARIORUM शीर्षक से है।

# एक नमूना यह भी-
i cdnuolt blveiee taht I cluod aulaclty uesdnatnrd waht I was rdanieg. The phaonmneal pweor of the hmuan mnid, aoccdrnig to a rscheearch at Cmabrigde Uinervtisy, it dseno't mtaetr in waht oerdr the ltteres in a wrod are, the olny iproamtnt tihng is taht the frsit and lsat ltteer be in the rghit pclae. The rset can be a taotl mses and you can sitll raed it whotuit a pboerlm. Tihs is bcuseae the huamn mnid deos not raed ervey lteter by istlef, but teh wrod as a wlohe. Azanmig huh? yaeh and I awlyas tghuhot slpeling was ipmorantt! can you raed tihs?

अंगरेजी में स्‍पेलिंग और प्रूफ की गलतियों के लिए और क्‍या कहें? हां! याद आ रहा है, 1980 के दौरान 'हिंदी एक्‍सप्रेस' पत्रिका निकलनी शुरू हुई, जिसके पहले अंक का एक उद्धरण- 'पत्रिका में सबकी रुचि का ध्‍यान रखा गया है, प्रूफ की भूलें भी हैं, क्‍योंकि कुछ लोगों की रुचि सिर्फ इसी में होती है।'

# मोड़ी या मुडि़या लिपि के उदाहरण एक वाक्‍य में 'सेठजी अजमेर' को 'सेठजी आज मर', 'रुई ली' को 'रोई ली' और 'बड़ी बही' को 'बड़ी बहू' पढ़ने की बात बताई जाती है। तात्‍पर्य ''सेठजी का अजमेर शहर जाना, रुई लेना-खरीदना और बही-खाता भेजना'' का समाचार सेठ जी के मरने, रो लेने और बड़ी बहू को भेजने का संदेश बन जाता है। कहा जाता है कि यह गड़बड़ मात्रा न लगाने या कम लगाने के कारण होती थी, अगर रोमन के उदाहरण से अनुमान लगाएं तो ए, ई, आई, ओ, यू का इस्‍तेमाल किए बिना लेखन की तरह।

# सन 1880 में यूरोप और एशिया से हजारों लोग 'हवाई' के शक्‍कर कारखानों में काम करने के लिए लाए गए। अप्रवासियों में अधिकांश चीनी, जापानी, कोरियाई, स्‍पेनी व पुर्तगाली थे, जो न तो मालिकों की अंगरेजी समझ पाते थे न ही मूल हवाई निवासियों की भाषा। पुरुष काम में तो महिलाएं चूल्‍हा-चौकी में लगी रहतीं। भाषा के लिए किसी के पास समय कहां?, लेकिन बच्‍चों का काम कैसे चले। आपसी समझ के लिए पहले तो अशुद्ध खिचड़ी अंगरेजी प्रयुक्‍त होती रही लेकिन 25-30 साल बीतते, नई पीढ़ी आ जाने पर, विशिष्‍ट अजनबी सी भाषा विकसित हो गई। इस भाषा, वर्तमान हवाई क्रिओल में द्वीपवासियों की सभी मूल भाषाओं के शब्‍द हैं किन्‍तु इसके व्‍याकरण की साम्‍यता अन्‍य से किंचित ही है।

हवाई विश्‍वविद्यालय के भाषाशास्‍त्र के प्रो. डेरेक बिकर्टन ने इस भाषा के तीव्र विकास का अध्‍ययन किया है और वे अपनी पुस्‍तक Roots of Language में इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह भाषा पूरी तरह से बच्‍चों के खेल की उपज है। बिकर्टन के अनुसार उनके पालकों के पास भाषा समझने-सीखने का वक्‍त नहीं था और वह जबान भी नहीं जिसे वे अगली पीढ़ी को दे सकते। वे यह भी इंगित करते हैं कि निश्‍चय ही आरंभ में पालक भी इस नई भाषा को समझ सकने में असमर्थ रहे, उन्‍होंने भी यह भाषा अपनी नई पीढ़ी से सीखी। दुनिया की एकमात्र ज्ञात भाषा, जो बड़ों ने बच्‍चों से सीखी। भाषा हमेशा किसी की बपौती हो, जरूरी नहीं। वैसे भी भाषा तो मातृभाषा होती है।

दूसरी तरफ भाषाशास्‍त्री गणेश देवी का कथन- 'हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है, जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं।' और वेरियर एल्विन 1932-35 की अपनी डायरी में तटस्‍थ दिखते हुए फिक्रमंद जान पड़ते हैं, इन शब्‍दों में- 'मंडला जिले के गोंड, बड़ी सीमा तक अपना कबीलापन खो चुके थे। वे अपनी भाषा खो चुके थे।'

एक और बात, पापुआ-न्यू गुयाना की, लगभग 452000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में निवास करने वाली कोई 70 लाख आबादी, 850 से अधिक भाषाएं इस्तेमाल करती है, जिसमें एक इशारों वाली 'भाषा' भी है। भाषाई विविधता की दृष्टि से इसके मुकाबले और कोई नहीं।

# शायद नवनीत पत्रिका में कभी प्रकाशित हुआ- भाषावैज्ञानिक अध्‍ययन का एक निष्‍कर्ष, सामान्‍यतः माता-गृहिणी का शब्‍द भंडार 4000 शब्‍दों का होता है। टिप्‍पणी- "इतनी कम लागत और इतना बड़ा कारोबार।"

महिलाओं से क्षमा सहित, आशय कि सोच रहा हूं- ब्‍लागरों के मामले में यह बात किस तरह लागू होगी। क्षमा पर्व का माहौल है, ब्‍लागरों से क्षमा सहित।

Saturday, January 22, 2011

मोती कुत्‍ता

''मैं तो कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम।''

राम की कौन कहे, सबकी खबर ले लेने वाले कबीर ने क्यों कहा होगा ऐसा? 'मैं', कबीर अपने लिए कह रहे हैं या कुत्ते की ओर से बात, उनके द्वारा कही जा रही है। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी होते तो जवाब मिल जाता, अब नामवर जी और पुरुषोत्तम जी के ही बस का है, यह।

लेकिन किसी के भरोसे रहना भी तो ठीक नहीं। बैठे-ठाले खुद ही कुछ गोरखधंधा क्यों न कर लें, तो मुझे लगता है, यह कबीर की भविष्यवाणी है। वे यहां बता रहे हैं कि सात सौ साल बाद एक 'राम' (विलास पासवान, रेल मंत्री) होंगे और उनका एक कुत्ता 'मोती' होगा। आप ऐसा नहीं मानते ? दस्तावेजी सबूत ?, चलिए आगे देखेंगे। नास्त्रेदेमस को भविष्यवक्ता क्यों माना जाता है, जबकि लगता तो यह है कि होनी-अनहोनी घट जाती है तो उसकी नास्त्रेदेमीय व्याख्‍या कर दी जाती है। हमारे यहां तो भविष्य पुराण (आगत-अतीत) की परम्परा ही रही है।

कर्म और पुरुषार्थ के नैतिक, धार्मिक और विवेकशील संस्कारों के बावजूद मैंने भी कीरो, सामुद्रिक, भृगु संहिता, रावण संहिता, लाल-पीली जैसी किताबों को पढ़ने का प्रयास किया है, किन्तु भाग्य-प्रारब्ध का मार्ग भूल-भुलैया है ही, ये मुझे फलित के बजाय भाषाशास्त्र के शोध का विषय जान पड़ती हैं, जिसमें अपना भविष्य खोजते हुए, भाषा में भटकने लगता हूं। भाषाविज्ञानी परिचितों से आग्रह कर चुका हूं कि इन पुस्तकों की भाषा पर शोध करें। कैसी अद्‌भुत भाषा है, जो सबका मन रख लेती है। इससे भाषाशास्त्र का कल्याण ही होगा और शायद कुछ की तकदीर भी बदल जाए।

चलिए, फिर आ जाएं मोती कुत्ते पर। कर्मणा संस्कृति से जुड़े होने के कारण कोई परिचित दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के सांस्कृतिक कोटा के विरुद्ध भरती की चर्चा के लिए आए, लेकिन मेरा ध्यान अटक गया अधिसूचना- आरपीएफ का कुत्ता 'मोती' पर। फिर एक खबर यह भी छपी- इस 'मोती की नीलामी रोकने हाईकोर्ट में याचिका।' (दस्तावेजी सबूत)

अब तो मान लें कि कबीर भविष्यवक्ता थे और मोती नाम वाले राम के कुत्ते मामले की भविष्यवाणी से भी वे आज प्रासंगिक हैं। आप नहीं मानते तो न माने, हमारी तो मानमानी।

लेबलःहाहाहाकारी पोस्‍ट