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Friday, November 12, 2010

नाग पंचमी

कक्षा-4, पाठ-18

सूरज के आते भोर हुआ, लाठी लेझिम का शोर हुआ।
यह नागपंचमी झम्मक-झम,यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम।
मल्लों की जब टोली निकली, यह चर्चा फैली गली-गली।
दंगल हो रहा अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

सुन समाचार दुनिया धाई, थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में, लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए,अटपट चलते उद्भट आए
उतरेंगे आज अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे गौर सलोने रंग लिये, अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से, मूछों पर ताव जमाते से।
मस्ती का मान घटाते-से अलबेले भाव जगाते-से।
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष, वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष।
जब मांसपेशियां बल खातीं, तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

तालें ठोकीं, हुंकार उठी अजगर जैसी फुंकार उठी।
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल दो बबर शेर जुट गए सबल।
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था भिड़ता बांके से बांका था ।
यों बल से बल था टकराता था लगता दांव, उखड़ जाता।
जब मारा कलाजंघ कस कर सब दंग, कि वह निकला बच कर। 
बगली उसने मारी डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
दो उतरे मल्ल अखाड़े में चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की, यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर, ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी, बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

पहलवान, कक्षा-3, पाठ-17

इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी उठे अजब शान है, अरे ये पहलवान है।

सफ़ेद लाल या हरा, लंगोट कस झुके ज़रा
अजब की आन बान है, अरे ये पहलवान हैं

कक्षा-4, पाठ-25 (आखिरी पाठ)

लल्ला तू बाहर जा न कहीं
तू खेल यहीं रमना न कहीं
डायन लख पाएगी
लाड़ले नजर लग जाएगी
अम्मां ये नभ के तारे हैं
किस मां के राजदुलारे हैं
ये बिल्कुल खड़े उघारे हैं
क्या इनको नजर नहीं लगती
बेटा डायन है क्रूर बहुत
लेकिन तारे हैं दूर बहुत
सो इनको नजर नहीं लगती।

कक्षा-4, पाठ-14

मैं अभी गया था जबलपुर, सब जिसे जानते दूर-दूर।
इस जबलपुर से कुछ हटकर, है भेड़ाघाट बना सुंदर।
नर्मदा जहां गिरती अपार, वह जगह कहाती धुंआधार।
कल कल छल छल, यूं धुंआधार में बहता जल।

तफसील :

पुरानी पोस्ट देखते-दुहराते लगा कि नागपंचमी और बालभारती पर एक बार लौटा जाए। मेरी पोस्ट बालभारती पर टिप्पणी करते हुए रवि रतलामी जी ने 'नागपंचमी' का जिक्र किया था। अतुल शर्मा जी की टिप्पणी में और आगे बढ़ने का संदेश था, उन्होंने नागपंचमी शीर्षक से स्वयं भी पोस्ट लिखी है, जिसमें नागपंचमी कविता संबंधी, विष्णु बैरागी जी और यूनुस जी का लिंक भी दिया है। इस सिलसिले को यहां आगे बढ़ा रहा हूं। पहलवान वाली एक कविता भी लगा रहा हूं, जो कई बार नागपंचमी के साथ गड्‌ड- मड्‌ड होती है।

हां ! बताता चलूं कि बालभारती पोस्ट से ऐसी प्रतिष्ठा बनी कि फोन आते रहे और लोग अपनी याद ताजा करते रहे। इस बीच एक परिचित को जबलपुर जाना था और शायद कुछ भाषण देना था। देर रात फोन आया, जबलपुर कविता ... जल्दी...। मैंने एकाध पंक्तियां, जो याद थीं, दुहराईं। उन्होंने कहा और भेड़ाघाट ..., तब मैंने उनसे वक्त लिया और दूसरे दिन फोन कर उनकी फरमाइश पूरी की। इस सब के साथ लल्ला कविता वाला एक और प्रिय पाठ याद आया, इसलिए वह भी यहां है।

रवीन्‍द्र सिसौदिया
अब आएं राज की बात पर। आपका परिचय कराऊं रवीन्द्र सिसौदिया जी से, जिनकी याददाश्त के बदौलत यह पोस्ट बनी है। वैसे मुझे अपनी स्मृति पर भी भरोसा कम नहीं, लेकिन वह उस माशूका जैसी है, जो साथ कम और दगा ज्यादा देती है, फिर भी होती प्रिय है।

मैं बात कर रहा था राज की। अगर आपको नौबत आए 'फोन अ फ्रेन्ड ...' ये करोड़पति बीच में आ ही जाता है, आजकल। धन्य हैं केबीसी और फेसबुक, जिन्होंने सब रिश्ते समेट कर पूरी दुनिया को मैत्री के सूत्र में बांधने का मानों जिम्मा ले रखा है। केबीसी की महिला प्रतिभागी के फ्रेन्ड, उनके ससुर को फोन किया जाता है या फेसबुक, जिस पर 8 साल का भतीजा सवाल कर रहा है, मुझे उसकी मैत्री, फ्रेन्डशिप स्वीकार है। यह रिश्ते को घोलने का आग्रह है या संपर्क सूत्र जोड़ने का, उस बच्चे से तो पूछ नहीं सकता। वैसे चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, अपरिचित (जिसे बन्दा न कह सकें) सब 'अंकल' में पहले ही घुल चुके हैं, अब भाई-भतीजे घुलकर, पीढ़ियां फ्रेन्ड बन जाएं, उनमें मैत्री स्थापित हो जाए तो हर्ज क्या, लेकिन इस भाईचारा और जनरेशन गैप में घाल-मेल न हो, बस। (क्या करें, वय वानप्रस्थ दृष्टि वाली मेरी पीढ़ी, चिंता करने के लिए कोई न कोई मुद्‌दा खोज ही लेती है।)

बार-बार पटरी बदलते अब आ गया टर्मिनल, बस आखिरी पंक्ति। आपको ऐसी किसी जानकारी की जरूरत आन पड़े तो आजमा कर देखें बिना गूगलिंग हमारे गंवई गूगल सर्च, रवीन्द्र सिसौदिया जी को, रिश्ते में पितामह, इस फ्रेन्ड का फोन नं. +919406393377 है।

पुनश्च-
आशुतोष वर्मा जी ने जानकारी दी है कि जबलपुर के कवि, नर्मदा प्रसाद खरे (उनके नानाजी) ने 1950 के दशक मे यह कविता लिखी थी। इस कविता को सबसे पहले 1960 के दशक में मध्यप्रदेश की प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। 

Monday, October 18, 2010

फिल्मी पटना

या कहें- 'पटना : मेमोरीज, ड्रीम्स, रिफ्लेक्शन्स'। पटना, मुझे फिल्मी सा ही याद आता है। कई बार इस तरह सोचना भी भाता है कि पटना नामक फिल्म तो नहीं देख ली, जिसकी स्मृति को कुछ पढ़े-सुने के साथ गड्‌ड-मड्‌ड कर, इसे अपना देखा शहर मान लेता हूं। ... ... शुरू करें-

मैं राजगीर के रास्ते पर हूं। फिर मुझे सीधे दिखाई देता है, रोप-वे। ऐसा कुछ होता है, सुना भी नहीं था, वह अब सिर्फ देख ही नहीं रहा हूं, सवार हो चुका हूं, चारों ओर हरियाली घाटी। ... ... रास्ते में कहीं गरम पानी का सोता और कुंड मिलता है, ऐसा कैसे होता होगा, प्राकृतिक रूप से या पर्यटकों के लिए किया गया इंतजाम है ... ... नालंदा आता है, कितनी सीढ़ियां, कितने कमरे, कितने किस्से। किसने बनवाया, क्यों दबा, कैसे पता लगा, खोदा किस तरह ? सवाल बने रहे, तब तक और क्या सूझे। ... ... पावापुरी, साफ-सुथरा संगमरमरी, चारों ओर खिले कमल से लबालब भरा बड़ा सा तालाब, ऐसा सचमुच होता है? यह जिक्र कर जैन परिचितों के बीच ईर्ष्या का पात्र बनने की सूक्ष्म हिंसा कई बार कर चुका हूं।

यह सब कम फिल्मी नहीं लगा था, याद ताजा थी और तब तक फिल्म आ गई 'जानी मेरा नाम'। इसमें रोप-वे भी दिख गया और नालंदा भी। मेरे लिए यह वह पहली फिल्म थी, जिसमें दिख रही चीजों को फिल्म से पहले आमने-सामने देख चुका हूं। हां, इस फिल्म में ट्रांसमीटर बनाकर दिखाया गया फिलिप्स फिएस्टा ट्रांजिस्टर हमारे घर आ चुका था, यह भेद बूझ लेना और फिर उसी पर '... ... वादा तो निभाया' सुनना, नालंदा और रोप-वे ... ... याद ताजी कर देता था।

बचपन की याद, तब गांधी सेतु नहीं था। वो महेन्द्रू घाट के शीशे वाले रेस्टोरेंट से स्टीमर को आते देखना तो 'जैसा फिल्मों में होता है ... ...' लगा था। यह याद तब और गहरा गई, जब कहीं अविश्वसनीय सा पढ़ा कि अस्सी की आयु पूरी कर चुके बुद्ध, यहां से अंधेरी बरसाती रात में उफनती गंगा, तैर कर दूसरे पाट-हाजीपुर, पहुंचे थे। फिल्म सिद्धार्थ का गीत 'ओ नोदी रे कोथाय तोमार देश ... ...' सुनकर मैं मानता था कि फिल्म में बुद्ध के गंगा पार करने का भी दृश्य होगा। महेन्द्र को संघमित्रा के साथ, अशोक ने यहीं-कहीं से दूर देस के लिए रवाना किया होगा। ... ... किसी पटना जाने वाले से मैंने पूछ लिया था, कहां जा रहे हैं, जवाब मिला था 'बाढ़'। यह गांव का नाम निकला, मुझे पहले अजूबा फिर मजेदार लगा था।

कभी कॉलेज टूर में नेपाल से पटना आना था। काठमांडू घूमते हुए एयरपोर्ट गए और पटना का टिकट पूछा। एस्कर्शन टीम के रूप में कन्सेशन भी मिल गया, भारतीय रुपयों में हिसाब लगाकर देखा तो समाइत में था। इस तरह पहली 'अंतरराष्ट्रीय' हवाई यात्रा कर, हिमालय के ऊपर से उड़ कर अपने वतन में पटना लैण्ड किया। विमान से बाहर निकलते हुए सावधान होकर, मन में पुरानी फिल्मों के आरंभ वाली न्यूजरील की छवि लिए, जिसे हम टेलर कहते थे, जिसमें प्रधानमंत्री अभिवादन में हाथ हिलाते निकलते दिखते थे, मानों खुद को कैमरे की निगाह से देख रहे हों, हम भी धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर कर बाहर आए, ... ... आसमान से उतरे, सपनों से हकीकत में।

पटना के गांधीनाम-सेतु के साथ गांधी मैदान का नाम सुन रखा था। मालूम हुआ कि आगे गांधी मैदान है, उसी तरफ बढ़ चला। घने बसे शहर के बीच अचानक खाली रह गया सा। यह शायद इसलिए और बड़ा लगा कि वहां लोग थोड़े से ही जमा थे। सीधे सुना सकने लायक समूह के सामने भोंपू-फाड़ भाषण हो रहा था। सड़क के बाईं ओर टाकीज में फिल्म थी 'चोर मचाए शोर'। फिल्म के पोस्टर और गांधी मैदान के इस भाषण की छवि जुड़कर ऐसी अंकित हुई कि कोई उत्तेजक भाषण सुनकर यह अनचाहे याद आ जाता है। जैसे टूटी और खुद कर पटी सड़क कहीं भी देखूं, समानार्थी की तरह याद आता है- 'बोरिंग कैनाल'।

शहर देखते हुए उससे पहचान बनाने के लिए गाइड-बुक से ज्यादा लोगों पर निर्भर करना मददगार होता है। जाने-अनजानों के अलावा रिक्शा वाले की निःशुल्क मार्गदर्शक सेवा लेना, उसे सारथी सम्मान देने के साथ किफायती और फायदे का सौदा लगता है। मुझे पटना के साथ भी ऐसा प्रयोग करने के कई अवसर मिले। वैसे इस समझदारी के चलते कई बार वांछित तक पहुंचने में दुगुना समय लगा है, बावजूद इसके, यह आदत बदलना मुझे अस्मिता का सवाल लगने लगता है।

सितंबर-अक्टूबर महीना। पटना में पुराना कुछ कहां देखा जा सकता है, पुराना यानि पुरातात्विक ..., पाटलिपुत्र ..., सड़क किनारे दो-तीन पढ़े-लिखे सज्जन थे, उनसे मैंने पूछा, वे मुखातिब हुए मेरे रिक्शा वाले से और अच्छी तरह समझाया कि हमें कहां-कहां जाना है। हम पहुंच गए पाटलीपुत्रा कालोनी, लेकिन रास्ते में इतना पानी भरा था कि अंदर नहीं जा सकते। बताया गया कि पॉश कालोनी है, इसलिए इसे छोड़कर आगे बढ़े। अब जिस रास्ते से हम गुजरे, गंगा हमारे दाहिने बह रही थी, ऐसा लग रहा था कि यहां नदी का जल-स्तर सड़क से ऊपर है। रिक्शावाले ने बताया कि हम बुद्धा कालोनी जा रहे हैं। मैंने सोचा कि गंगा-दर्शन हो गए और अब रिक्शा वाले से ही मार्गदर्शन लेना चाहिए।

रिक्शा वाला अब मुझे ले आया, गोलघर। रास्ते में थाना फूलपुर पढ़ा और मैंने अपने संचित सूचना का सहारा ले कर माना कि मैंने पुष्पपुर देख लिया है। 'देखा', दर्ज कर लेने जितना देखकर अपनी ठांव मिली 'केपी जायसवाल संस्थान' और पटना संग्रहालय। इतने सब के बाद यक्षी वाला दीदारगंज, कुम्हरार देखने और अगम कुंआ में सिक्का डाल कर गहराई नापने की चाह, अगली बार के लिए मुल्तवी हो गया। 'मारे गए गुलफाम' का 'तीसरी कसम' बन जाना कितना फिल्मी, कितना असली, जुगाली के लिए बचा लेता हूं।

शाम को पैदल भटकते लौटते हुए दुर्गा पूजा की रौनक और धूम से शहर कल्पना-लोक में बदल गया लग रहा है। लगा कि पटना-कलकत्ता के सांस्कृतिक रिश्ते पूजा, विदेसिया और शौकीन मारवाड़ी रईसों में सबसे सहज प्रकट है। पटना से जुड़े तीन परिचितों- शशि शेखर, संजय रंजन और सुरेश पांडे जी, को याद करता हूं-

पांडे जी रायपुर में और संजय रंजन बिलासपुर आकाशवाणी में रहे। ... ... पुस्तकालयों की सदस्यता लेते हुए मेरा उत्साह ऐसा होता कि अवाप्ति क्रमांक १ से पढ़ना शुरू करूंगा, उस दौरान अपने हमउम्रों में इतना कुछ पढ़े बिरले मिले और जिनके कारण हमारे लिए 'आकाश-वाणी', आपस की बात जैसी आत्मीय हो गई। ... ... बीस-पचीस साल पहले अभियंता शशिशेखर का साथ रहा। उग्र हुए बिना दृढ़ और कर्तव्यनिष्ठ, मध्यप्रदेश सरकार में मुलाजिम रहे युवा शशि ने हमेशा अपने ढंग से ही काम किया। ठंडी और सपाट विनम्रता, दबंगों पर कितनी आसानी से भारी पड़ती है, प्रत्येक अवसर पर साबित करने वाले। सिर्फ कंकड़ बाग याद है और कोई पता नहीं, कैसे तलाश करूं।

... ... वैसे गंगा, मेरे लिए नदी के पर्याय जैसा शब्द है। मन के किसी तल पर हमारे अपने निजी शब्द-संदर्भ कोश भी होते हैं, जो कभी धारणा, कभी रूढ़ि तो कभी पूर्वग्रह लगते हैं, ... ... और 'लिंक' के बिना असम्बद्ध जैसे भी। शायद यही रचनात्मक रूप में कभी भाव-ऋचा और स्पर्श-वास्तु बन कर उजागर होते हैं ... ... खैर, कुछ अपने काम के सिलसिले में और कभी अपने शौक के चलते नदियों के किनारे, उद्गम, संगम और मुहाने पर भटकते रहने से मन अभी भी नहीं भरा है, सोच कर ही रोमांच होने लगता है। गंगा के लिए क्या कहूं, फिल्मी गीत है 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' मेरी ओर से संकल्प नहीं, बस भाव-पियरी।

टीप :

टिप्पणी करते हुए अपनी 'विद्वत्ता' निभा लेना बहुत कठिन नहीं होता। कहते हैं, किसी विषय पर जानना हो तो उस पर लेख लिखें, (इसके लिए पढ़ना पड़ेगा और) आपका काम बन जाएगा। ... ... अगर बिना पढ़े ही कुछ अधिक लिखना हो तो, (लेखक-कवि गण अन्यथा न लें) अधिकतर अपनी क्षीण-सी साहित्यिक 'प्रतिभा' पर भरोसा ही साथ देता है और कई बार तो मुझ जैसे को भी कविता टाइप कुछ-कुछ सूझने लगता है। ... ... बात का खुलासा, कभी सतीश सत्यार्थी जी की पोस्ट पर टिप्पणी करते पटना याद आया। राजू रंजन जी की 'गंगा, गंगा-स्नान और भारतीय संस्कृति' की मेरी टिप्पणी पर उन्होंने कहा कि इस विषय (गंगा) पर मेरे पास जो कुछ है, उसे लिखूं। इस मुश्किल का हल सूझा कि अपनी टिप्पणी के अगल-बगल भटक कर राह तलाश करूं। इस तरह गंगा के पास से गुजरते, अपना विद्वत्ता-भ्रम सुरक्षित रखते, राजू जी के सदाशय-सुझाव का अनुपालन संभव होगा। ... ... आकाशवाणी से फरमाइशी फिल्मी नग्मे।

'फिल्मी' इस पोस्ट में कोई चित्र नहीं है। तस्वीरें, कई बार लगता है कि कल्पना को दिशा देते हुए, उसे सीमित करने लगती हैं, रंगों को फीका कर देती हैं। ... ... संदर्भ तलाशने के दबाव से मुक्त रह कर कुछ लिखने का इरादा होता था, डायरी जैसा, सो यह उपयुक्त लगा। ... ... पटना से संबंधित बृजकिशोर प्रसाद जी ने इसे पढ़ा, पोस्ट के लायक माना, उनका भी आभार।

(पटना साहिब, बाबा मुराद शाह, दानापुर, बेउर, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, दिनकर, शत्रुघन सिन्हा और अफीम वाली चटाई के साथ यादों की छान-बीन में कुछ और मिल सका तो वह सब किसी अगली पोस्ट के लिए)