किस्सा कोताह 55 साल पहले शुरू हुआ। सन 1955 से 1987, यानि डेढ़ पीढ़ी (एक पीढ़ी 20-25 साल की मानी जाती है) तक मध्यप्रदेश में पढ़ाई की शुरुआत करने वालों के लिए, जिनमें मैं भी हूं, पहली कक्षा की 'बाल-भारती' पहली-पहल पुस्तक है।
इस दौर में 1 जुलाई खास तारीख हुआ करती थी। यह शिक्षा सत्रारंभ की स्थिर निर्धारित तिथि होती। स्कूल दाखिले के लिए आयु छः वर्ष होती। पैमाना होता था, सिर के ऊपर से घुमाकर दाहिने हाथ से बायां कान पकड़ लेना। कान न पकड़ पाने, लेकिन छू लेने पर भी रियायत सहित आयु छः वर्ष मान ली जाती थी। कम ही अभिभावक बच्चे की जन्मतिथि बता पाते, लेकिन भरती प्रक्रिया के अनिवार्य हिस्से की तरह उनका भी यह 'टेस्ट' होता। 'टेस्ट' में सफल अन्य बच्चों की जन्मतिथि गुरुजी को तय करनी होती और तब जन्म वर्ष के लिए भरती के साल को बच्चे का छठवां साल पूरा मानकर, जन्मतिथि 1 जुलाई दर्ज कर दी जाती इसलिए इस जन्मतिथि वाले आमतौर पर मिल जाते हैं।
इसके पहले तक पुकारने का, घर का नाम ही चलता था। दूसरा 'स्कूल वाला नाम' होता और भरती को 'स्कूल में नाम लिखाना' कहा जाता था। (आजकल कहा जाता है- बच्चे को अच्छे स्कूल में 'डाला' है या हमने तो हॉस्टल में 'डाल' दिया है, मानों घर में पड़ी कोई अनुपयोगी-अवांछित वस्तु को ठिकाने लगा दिया गया हो। इसी तरह कहा जाता है कि बस्तर में या जंगलों में आदिवासी पाए जाते हैं, न कि रहते हैं या निवास करते हैं, मानों आदिवासी वन्य जीव अथवा खनिज पदार्थ हों।) कई बार स्कूल पहुंचकर ही बच्चे का नाम तय होता था। कई-एक नामकरण भी गुरुजी किया करते थे। इस तरह यह बच्चों के नामकरण संस्कार के दिन जैसा भी होता था।
वापस 'बाल-भारती' की कुछ बातें। इस पुस्तक का पूरा नाम है- 'मध्यप्रदेश बाल-भारती प्रवेशिका' और पुस्तक की जिस प्रति से याद ताजा कर रहा हूं वह ''मध्यप्रदेश शासन द्वारा निर्मित और प्रकाशित (चित्रकार श्री समर दे) 1970 की पंचदश आवृत्ति'' है, जिसका मूल्य 30 पैसे अंकित है। कवर के अतिरिक्त 32 पेज की पुस्तक में कुल 25 पाठ हैं। पहले 5 पाठों का कोई शीर्षक नहीं है, लेकिन इस पुस्तक को पहले पाठ 'अमर घर चल' से भी याद किया जाता है। कुछ और पाठ याद कीजिए- 'आजा आ राजा। मामा ला बाजा।', 'तरला तरला तितली आई', 'पानी आया रिमझिम रिमझिम', 'अंधा और लंगड़ा', 'हरे रंग का है यह तोता', 'शिक्षक जब कक्षा में आए' क्ष, त्र, ज्ञ प्रयोग का पाठ और अंतिम पाठ 'गिनती का गीत' था।
पुस्तक के कवर पेज के भीतरी हिस्से में छपा होता- 'यह पुस्तक --------------/ ---------------- की है।' अपनी पहली पुस्तक का यह खाली स्थान, लिखना सीख लेने पर भी अक्सर दो कारणों से छूटा रह जाता था। एक तो किताब पर कुछ लिखना अच्छा नहीं समझा जाता था और दूसरा कि अगले साल यही पुस्तक किसी और के काम आती थी।
'बाल-भारती' का हिसाब लगाते हुए एक गड़बड़ यह हो रही थी कि 1970 में पंद्रहवां संस्करण आया और प्रतिवर्ष नया संस्करण छपता रहा तो पहले संस्करण का सन, 1956 होना चाहिए फिर ध्यान आया कि उन दिनों बड़े पहिली और छोटे पहिली या छुछु (शिशु) पहिली होती थी। छोटे पहिली, जिसे प्री-पहिली कह सकते हैं, की पढ़ाई कभी स्कूल में नियमित दाखिले के पहले और अक्सर पहिली कक्षा की शुरूआत में होती थी। यह 'बाल-भारती' छोटे पहिली के लिए होती थी, लेकिन बाद में शायद 1956 में पहली बार छोटे पहिली और बड़े पहिली की दो अलग पुस्तकों को मिलाकर एक पुस्तक बनाया गया, जिस स्वरूप का संस्करण साल-दर-साल होता रहा।
इस सिलसिले में कुछ बातें छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी की। बाल पहेली में संकलित 1906 में लिखा श्री शुकलाल प्रसाद पांडे का वर्णमाला पद्य स्मरणीय है- 'क के कका कमलपुर जाही। ख खरिखा ले दूध मंगाही॥' इसी तरह श्री राकेश तिवारी (मो.+919425510768) ने जस धुन में वर्णमाला का साक्षरता गीत रचा है- 'क से कसेली, ख से खपरा, ग से गरूवा होथे। पढ़थे तेन होथे हुसियार, अपढ़ मुड़ धर रोथे॥' और धमतरी के श्री निशीथ कुमार पाण्डे (मो.+919826209726) ने पिछले दिनों वर्णमाला पद्य रचना कर उसे मजेदार नाम दिया है-'चुटरुस चालीसा', उसका नमूना है- 'क कराही संग मं झारा, जइसे कुची संग तारा, रुख मं चघ के जोरत, मितानी पान अउ डारा।' कोरबा के श्री रामाधीन गोंड ने तो छत्तीसगढ़ी की लिपि भी बना डाली है।
एक बात और। पिछले दिनों राजेश कोछर की पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' का 2009 का संस्करण देखा।
हमने 'छ' छतरी का पढ़ा है, लेकिन इस अंगरेजी पुस्तक में संस्कृत वर्णमाला के 'छ' अक्षर का उच्चारण जैसे 'छत्तीसगढ़' में बताया है। यानि पुस्तक के लेखक (ध्यातव्य को'छ'र) ने 'छत्तीसगढ़' को 'छ' अक्षर वाला, सर्वसामान्य ज्ञात शब्द और इसमें 'छ' की ध्वनि को उच्चारण में सबसे वाजिब पाया, इसके औचित्य पर भाषाशास्त्री और ध्वनिविज्ञानी सहमत हों या न हों, लेकिन 'छत्तीसगढ़' के 'छ' जैसा कर्णप्रिय और कोई उच्चारण नहीं होता। तो आइये इस 1 जुलाई का मधुर पाठ पढ़ें- 'छ' 'छत्तीसगढ़' का।
और यह भी। तीन साल का होते-होते एक बच्चे ने स्कूल जाना शुरू किया। इस रूटीन और स्कूल में लिखने से उसे ऊब होने लगी। इसी बीच अभिभावकों ने ट्यूशन भी तय करा दिया। स्कूल से ऊबने वाला बच्चा खुशी-खुशी ट्यूशन के लिए तैयार हो गया, अभिभावकों को भी तसल्ली हुई। लेकिन ट्यूशन से वापस आकर बच्चे ने सूचित किया- 'ओ हर ट्यूशन नो हय पापा, ओ तो स्कुल ए।'
टीप - 'बाल-भारती' की यह प्रति मो. शब्बीर कुरैशी, शिक्षक, भिलाई खुर्द, कोरबा ने श्री रमाकांत सिंह (शिक्षक, पठियापाली, कोरबा, मो.+919827883541) को समर्पित की है, जिनसे यह मुझ तक आई। श्री रविन्द्र बैस (मो.+919329292907) और श्री रीतेश शर्मा (मो.+919755822908) और अन्य परिचितों ने 'बाल-भारती' की जानकारी जुटाने में मदद की। श्री रवीन्द्र सिसौदिया जी (मो.+919406393377) से ऐसे हर मामले में टेलीफोनिक त्वरित संदर्भ, पूरक जानकारी सहित सहज सुलभ हो जाती है, उनकी पक्की याददाश्त के आधार पर 'बाल-भारती' के लिए लिख सकने का भरोसा बना। पुस्तक 'द वैदिक पीपुल' की प्रति डॉ. चन्द्रशेखर रहालकर जी से देखने को मिली। ट्यूशन का वाकिया श्री किशोर साहू (मो.+919826150086) ने सुनाया।
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ReplyDeleteयह ब्लॉग Nostalgic कर जाता है. आज भी याद है १ जुलाई के तैयारियां, कड़क पन्नों वाली नयी किताबों के खुशबु, पूरा घर सर पर उठा लेना पुराने बस्ते को बदलने के लिए, ढाई- तीन महीनों की छुट्टी के बाद फिर से पुराने दोस्तों से मिलने की ललक.
ReplyDeleteयादगार है ये तारीख. स्कूल और घर के नाम वाली बात बड़ी मज़ेदार है, और कान छूने की प्रवेश परीक्षा वाली भी. आपका ब्लॉग पढ़कर याद आया फिर से कि मुझे भी एक स्कूल में (जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं था) "जबरन" ले जाया गया था. मेरे आगे वाले प्रवेशार्थी का नामकरण गुरूजी ने ही किया था. उस स्कूल से बचने के लिए मैंने ऐसे एक्टिंग की कि मेरा हाथ कान तक नहीं पहुँच रहा है.
बच गया मई स्कूल जाने से उस एक्टिंग के कारण
बहुत ही रोचक पक्ष को उजागर किया है ।
ReplyDeleteblog padkar man punah purani yado me kho jata hai yad aa jate hai wo din jab 1 july ka bari teji se intejar rahta tha teacher ka dar itna tha ki badi class 4th ya 5 th me jate hi yah dekha karte the ki kaun shikchhak iss sal hame padhayega . blog ko padkar man purani smritiyon men kho gaya
ReplyDeleteआज 30 जून है और बुखार चढ रहा है कि कल से स्कूल जाना है,दो महीनों की छुट्टी के बाद। ये स्कूल क्यों जाना पड़ता है?क्या इससे कोई निजात नहीं दिला सकता? फ़िर से वही बड़े गु्रुजी बेंत की छड़ी लिए इंतजार कर रहे हैं।
ReplyDeleteबस युं ही होता था आज के दिन। आपने बीते दिनों की याद दिला दी। पहली क्लास के लिए सिर्फ़ एक बाल भारती ही होती थी।
आभार
सर आपके ब्लाग में स्कूल में नाम दाखिला कराने जैसे शब्दों का उपयोग अत्यंत दिनों बाद पढने को मिला़ आपके ब्लाग से कुछ नई जानकारी मिली़ इसके लिए आभार
ReplyDeleteबने लगिस हे जानके आपमन अबड सुगड लिखथ हव
ReplyDeleteवाह भईया, गरमी की छुट्टियों में गांव घूमकर वापस अपने घर आना और पहली जुलाई को बस्ता लटकाये स्कूल जाने की खुशी को महसूस कर रहा हूं. 'बाल भारती' को याद कर इस पोस्ट को पढ़ने वाला प्राय: हर संवेदनशील ब्यक्ति अतीत के सुखद स्वप्नों में खो जायेगा.
ReplyDeleteमै 1972 में पहली कक्षा में भरती हुआ वास्तविक जन्म तारीख के हिसाब से छ: साल से एक वर्ष छोटा था तब भरती में जन्म तारीख बढ़ा कर लिखा गया.
श्री राकेश तिवारी और श्री निशीथ कुमार पाण्डेय जी के प्रयासों को हमारा नमन.
बालभारती को को तिथिवार याद करने के लिए धन्यवाद भईया.
bhaiya pranam!
ReplyDeleteaap ne bite dino ki yaad diladi
sach me 1july ka bahut besabri se intajar rahata tha, bal bharti ke andha aur langada yaad aa gaya ,aapko aur aapke team ko koti-koti naman aur dhanyawad.
sukhnandan rathore
Dy.S.P(Prob.)
PHQ Raipur
मजा आ गया.हम तो स्कूल से भाग आये थे. हमारी पुस्तक में एक पाठ था, शीर्षक तो याद नहीं पर उसमे "उठो बालकों हुआ सबेरा, चिड़ियों ने तज दिया बसेरा" अब भी याद है.
ReplyDeleteदादा, स्कुल से बहूत बार भागा हूं, लेकिन बाल भारती का मामला हमेशा याद रहा है। सबसे आसान सबसे प्यारी किताब, कई पंक्ितयां आधी अधूरी याद है, अब तक।
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव दिनाँक : ०१.०७.२०१०
ReplyDeleteसरगीपालपारा, कोंडागाँव ४९४२२६, बस्तर छत्तीसगढ़
दूरभाषः ०७७८६२४२६९३, मोबा. : ९३००४२९२६४, फैक्सः ०७७८६२४३४९३
ईमेलः lakhijag@sancharnet.in
आदरणीय भाई जी,
बाल भारती'' शीर्षक आपका ब्लाग मन को भा गया। भूलीबिसरी यादें ताजा हो गयीं। एक अनोखा संयोग यह भी हुआ कि मैंने यह ब्लाग सवेरे में पढ़ा था और दोपहर में पहली से पाँचवी कक्षा तक गीदम कस्बे के मेरे एक सहपाठी से लगभग ४४ वर्षों बाद मुलाकात हो गयी। बाल भारती'' और भी प्रासंगिक हो गयी। इसे पढ़ते ही मैं हँसतेहँसते लोटपाट हो गया था। कारण, अमर घर चल' को मैं मातृभाषा छत्तीसगढ़ी के प्रभाववश हमर घर चल' पढ़ा करता था। इसी तरह दोनों' को छत्तीसगढ़ीहल्बीभतरी परिवेश में पलेबढ़े होने के कारण दोना' कहा करता। पाठशाला में मेरे गुरुजी और घर में मेरे काका हमेशा मुझे टोकते किन्तु मुझसे अमर' का उच्चारण हमर' और दोनों' का उच्चारण दोना' ही होता। मुझे लगता कि अमर घर चल' गलत लिखा गया है और इसे वस्तुतः हमर घर चल' ही होना चाहिये। हा हा हा हा.....।
आपने बच्चों को स्कूल में डालने' और आदिवासियों के जंगल में पाये जाने' की चर्चा कर ऊटपटाँग होती जा रही हमारी भाषा पर बहुत करारा व्यंग्य किया है। आपके प्रत्येक ब्लॉग तथ्यपरक और प्रामाणिक होते हैं। साधुवाद!
१९०६ में लिखे श्री शुकलाल पाण्डे के वर्णमाला पद्य, भाई श्री राकेश तिवारी -ारा जस धुन में लिखे वर्णमाला साक्षरता गीत, भाई श्री निशीथ कुमार पाण्डे रचित चुटरुस चालीसा', श्री रामाधीन गोंड -ारा तैयार छत्तीसगढ़ी लिपि आदि की जानकारी पहली बार आपके इस ब्लाग से मिली। जानकारी के लिये आप धन्यवाद के पात्र हैं। कृपया इन सभी महानुभावों तक मेरा प्रणाम पहुँचा दें। छ' से छत्तीसगढ़ तो होना ही चाहिये। जय छत्तीसगढ़! जय भारतवर्ष!
अन्त में सर्वश्री मो. शब्बीर कुरैशी, रमाकांत सिंह, रविन्द्र बैस, रीतेश शर्मा, रवीन्द्र सिसौदिया, चन्द्रशेखर रहालकर का भी आभार, जिन्होंने विभिन्न तरीकों से आपको बाल भारती' पर लिखने में सहयोग प्रदान किया।
सादर,
हरिहर वैष्णव
प्रति,
श्री राहुल सिंह जी
रायपुर
भईया पायलागी
ReplyDeleteआपमन के बिसरे बात ल नवा अउ बिज्ञानिक ढंग ले परोसे जानकारी ल पड़े म बड़ निक लागिस | मजा आगे पढ़े म मन घूम के स्कुल म
बाल भारती, गणित, पट्टी कलम, घनघोठहा
चुमढ़ी के झोला, झिल्ली के मोरा, स्कुल जावत
पान रोटी, अथान चुचरई
चाबत कलर के बकरम
दू बेनी, चेथी म, बोहावत तेल
खपरा स्कुल, पीतल घंटी
पराथना, जय हिंद गुरूजी, सरसती माता, महातमा गाँधी
किताब, विद्यया , पांव पर बे
फुटगे पट्टी, पटकिक पटका, एक्की छुट्टी
आमा अमली, गिरई , लाठा
खी, मी
थोरिक रिस, छुट बकई
कलम के क
डउका कबे का ?
रोगहा, बेसरम सुटी, कनबुच्ची
एक एकम एक
एक पंचे छै
छुट्टी छुट्टी छुट्टी छुट्टी
हेमंत वैष्णव
bachapan ki yaden tazaa ho gai. achchhi post ke liye badhai. rakesh aur nisheeth ka kaam itihaas me darz ho chukaa hai.
ReplyDeleteसच में रोचक . स्कूल का पहला दिन ............ आज भी याद है .
ReplyDeleteuncle ji so nice post, i m also wrirting blog on sproutsk.blogspot.com plz read and give me suggestion for betterment... ANKUR KHANDELIYA
ReplyDeleteवाह कहां कहां घुमा लाते हैं आप भी....ए फार एप्पल और बी फार बाल की दुनिया से दूर, बहुत दूर.
ReplyDeleteएक आने का एक कायदा हुआ करता था ब्लैक एण्ड व्हाइट प्रिंटिंग में, जिसका ज़िल्द वाला पन्ना भी बाक़ी पन्नों सा ही पतला होता था. ककहरा इसी से सीखते थे. स्कूल में जाकर जब पहली बार रंगीन किताब देखी तो उसका इंडेक्स ही याद कर डाला....मां, पिताजी, आगे देखो, बंदर वाला, भालू वाला, पंख, मोर का पंख...यह आज भी धुंधला सा याद है. बहुत समय बाद पता चला कि यह तो इंडेक्स होता है :)
पिताजी चौथाई और आधे के पहाड़े भी याद करने पर भी ज़ोर देते थे पर जल्दी ही पूत के पांव पालने में नज़र आ गए उन्हें और उन्होंने ज़िद छोड़ दी. आज मेरे बच्चे कैलकुलेटरबाजी से बाज़ नहीं आते :)
क्या कहूँ ...बस मजा आ गया...
ReplyDeleteकई नई और रोचक जानकारियाँ मिलीं....
हमारे बिहार में 'बाल भारती' पहली कक्षा में चलती है पर उससे भी पहले के बिगिनर्स :) बच्चों के लिए एक किताब आती है जिसमें मुख्यतः वर्णमाला सिखाई जाती है. नाम है "मनोहर पोथी"...
पाठ बड़े मजेदार होते हैं उसके....
धन्यवाद ऐसी रोचक पोस्ट के लिए.......
बाल भारती से तो हमने भी शुरूआत की थी. बालभारती पांचवीं तक चलती थी. हर कक्षा के हिसाब से एक.
ReplyDeleteयदि आपको या आपके मित्र को नाग पंचमी छम्मक छम ढोल ढमाका ढम्मक ढम वाली कविता याद हो तो पूरी कविता कृपया यहाँ प्रकाशित करें या मुझे भेजें. हमारे एक मित्र इसे शिद्दत से याद करने व पाने की कोशिश कर रहे हैं.
बढ़िया संस्मरण ! इतनी पुरानी बाल भारती को सुरक्षित रखने वाले,कमाल के बंदें हैं !
ReplyDeleteयहां बस्तर में आप बस पत्थर उछाल दीजिए , जिस पर भी गिरेगा उसकी जन्म तिथि बेशक १ जुलाई ही निकलेगी :) वैसे कारण भी जेनुइन ही हैं !
सिंह साहब यादें ताज़ा हुईं सही पर सबसे तगड़ा पंच यहां पड़ा " ट्यूशन से वापस आकर बच्चे ने सूचित किया- 'ओ हर ट्यूशन नो हय पापा, ओ तो स्कुल ए "
Bachpan ki yaden pustako ki baate padh kar mujhe bhi 1943-47 ki pustako ki yaad aa gayi. Khoob likha hai aapne.
ReplyDeleteVimal Pathak (Bhilai)
2 जुलाई को नवभारत, रायपुर समाचार पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर ''याद है आज भी बाल-भारती का पाठ 'आजा आ राजा, मामा ला बाजा'' शीर्षक से यह प्रकाशित हुआ. इससे भी प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिसमें सिर्फ प्रशंसा नही, एकाध आलोचना और अधिकतर सुझाव थे, सभी के प्रति आभार.
ReplyDeleteसही सिहावलोकन
ReplyDeleteरायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'साप्ताहिक इतवारी अखबार' के 4 जुलाई 2010 के अंक में 'सत्रारंभ और पैमाना' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है.
ReplyDeleteसरजी, संजीव तिवारीजी ने आपके ब्लॉग का पता दिया। बचपन के साथ पुरानी पाठ्यपुस्तकों की भी यादें मन में बसी हैं। फ़्लैश बैक प्रभाव वाली पोस्ट है। यदि आपके पुरानी बालभारती है, तो उसे स्कैन करके अपलोड कर सकें तो सभी लोग पढ़ सकेंगे।
ReplyDeleteपहले तो लगा कि यह बाल भारती पत्रिका पर कुछ है लेकिन यहाँ तो मनोहर पोथी जैसी चीज निकली। छत्तीसगढ़ की लिपि वाली बात अधिक उचित नहीं क्योंकि लिपि बनाना अब मुश्किल काम नहीं है और यह क्षेत्रवादी भावना के प्रसार जैसा है। और छ से छत्तीसगढ़, यह तो नया प्रयोग लगा लेकिन यह भी क्षेत्रवाद के साथ साथ छत्तीसगढ़-प्रेम(मोह?) जैसा …।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा,
ReplyDeletesir dhanywad aapane mughe is punit kam ka hissa banaya.sundar jyan ke liye badhai.
ReplyDelete" ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ,मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो क़ागज़ की क़श्ती वो बारिश का पानी ।" जगजीत सिंह की गाई हुई इस गज़ल की आपने याद दिला दी । बडे गुरुजी होरी लाल और उनके साथ प्रिया प्रसाद एवम् तिलकेश्वर गुरुजी मेरे दाखिले के लिए,हमारे घर आए थे और मैं बडे गुरुजी की ऊँगली पकड कर पहली बार मदरसा गई थी, उस समय मैं चार बरस की थी पर चल-चित्र की तरह एक-एक दृश्य आज भी ताज़ा है । प्रिया प्रसाद गुरुजी का 'ग' गणेश का लिखना और तत्काल तख्ता में गणेश का चित्र बना देना मुझे अभी भी दिखता है । अक्षर-ज्ञान के बाद बिना मात्रा वाला पाठ " अमर घर चल । हठ मत कर । " फिर " आ जा आ राजा , मामा ला बाजा । कर मामा ढम-डम , नाच राजा छम-छम ।" फिर आखिर में "क्ष त्र ज्ञ " के अभ्यास के लिए गीत वाला यह पाठ था -" शिक्षक जब कक्षा में आए , पत्र साथ में अपने लाए । किसी मित्र ने पत्र लिखा था , एक चित्र भी साथ रखा था । हँसता था वह मित्र चित्र में ,बच्चों को था लिखा पत्र में । ज्ञानचंद का तुम्हें नमस्ते , सदा रहो मुझ जैसे हँसते ।"
ReplyDeleteमैं काफी समय से इस किताब कि प्रति पप्राप्त करणे की कोशिश कर रही हूँ, क्य आप इसकी एक स्कैन कॉपी मुझे भेज सकते हैं. काफी ज़रूरी है, ये मानसिक रूप से असमर्थ बच्चोँ के लिए गीता का काम कर सकती है, प्लीज़ मई ईमेल पर इसे भेज दीजिए बहुत उपकार होगा आपका मेरा ईमेल है manisha4aug@gmail.com
ReplyDeleteसबसे महत्वपूर्ण बात आप लिखना भूल गए .. उस समय के पचास से भी ज्यादा प्रतिशत बच्चों के जन्मदिनांक 1 जुलाई लिखे जाते थे ..
ReplyDeletebahut hi badhiya sir. aajkal aise pustak bante hi nahi.
ReplyDeleteपूरा अपने बचपन की याद दिला देते हो Sir ji, आपके और हमारे बचपन में बहुत अंतर है मैं 2001 में पहली पढ़ने गया था,फिर भी बाल भारती की वही परंपरा..
ReplyDeleteशिक्षक जब कक्षा में आए, पत्र साथ में अपने लाए। किसी मित्र ने पत्र लिखा था, एक चित्र भी साथ रखा था।हॅंसता था वह मित्र, चित्र में,, सबको नमस्ते था लिखा पत्र में,,,आजा आ राजा,मामा ला बाजा। कर मामा ढम ढम।नाच राजा छम छम।
ReplyDeleteश्री छगनलाल बड़नेरे शिक्षक, शासकीय नवीन माध्यमिक शाला आदमपुर,,,, जन्मदिनांक 0309/1963,,
ReplyDeleteमोबाइल नंबर 9977518145
ReplyDeleteपहले स्कूल या विद्यालय नहीं बल्कि पाठशाला शब्द प्रचलित था।
ReplyDeleteपाठ दो, सत्यवान सावित्री,, नींबू की कहानी,,राइट बंधु,, असीरगढ़,,कौआ और हिरण,, जैसे पाठ हुआ करते थे और पाठ्य-पुस्तक निगम नहीं होने के कारण नर्मदा प्रिंटिंग वर्क्स जबलपुर से प्रकाशित होती थी सभी पुस्तकें,,
ReplyDeleteबम्हनी बंजर का मेला,,, कान्हा किसली,,सर्कस,, बारहमासा भी था,, अगहन गन्नों में रस भरता,, धानों को लहराता।और बर्फ की चादर लेकर,पूस तभी आ जाता।
ReplyDeleteअटपट राजा झटपट न्याय
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