सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा, (छत्तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा' काटना मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और खासकर गोरखपुर में 'बनकटा' ग्राम नाम, जिनका उच्चारण 'बनक्टा' होता है, जैसे उदाहरण कईएक हैं) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ। तात्पर्य यह कि पर्यावरण की स्थिति, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से नहीं बल्कि दोहन से असंतुलित होती है। छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर को कृष्ण-मोरध्वज की कथा-भूमि माना जाता है। कथा में राजा द्वारा स्वेच्छापूर्वक आरे से आधा काट कर शरीर दान का प्रसंग है। स्थान नाम आरंग की व्युत्पति को भी आरे और इस कथा से संबद्ध किया जाता है। बहरहाल यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरणीय चेतना बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।
कथा का असर, इतिहास में डेढ़ सौ साल पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ के निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे के प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर 'अरकंसहा' को निकट अतीत तक महत्व मिलने के बाद भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था।
पर्यावरण का संरक्षण नीति और योजना मात्र से नहीं होगा, पर्यावरण को जीवन का समवाय महसूस करते रहना होगा। अन्यथा यह सब 'रस्मी' और पर्यावरण संरक्षण 'नारा' बनकर रह जाएगा। यदि पेड़ छाया के लिए और तालाब का निस्तारी इस्तेमाल नहीं रहा तो उन्हें सिर्फ पर्यावरण की दुहाई देकर बचाने का प्रयास संदिग्ध बना रहेगा। पीढ़ियों से इस्तेमाल हो रहे कुओं का नियमित उपयोग बंद होते ही उसके कूड़ादान बनते देर नहीं लगती। विश्व पर्यावरण दिवस का उत्साह कार्तिक स्नान और अक्षय नवमी, वट सावित्री, भोजली पर भी बना रहना जरूरी है। बसंत में टेसू, पलाश और आम के बौर देखने और कोयल की कूक सुनने की ललक रहे तो पर्यावरण रक्षा की उम्मीद बनी रहेगी। ज्यों माना जाता है कि शेर से जंगल की और जंगल से शेर की रक्षा होती है वैसे ही पर्यावरणीय उपादान, समुदाय की दिनचर्या के केन्द्र में हों, तभी उनका बचा रहना संभव होगा।
पर्यावरण की चर्चा करते और सुनते हुए 'डरपोक मन' में यह आशंका भी बनी रहती है कि बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिए कोई ऐसी मशीन न ईजाद हो जाए, जिसका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियां करने लगे और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाए।
ईश्वरीय न्याय की व्याख्या आसान नहीं लेकिन उससे न्याय की अपेक्षा करते हुए उसकी कृपा, उसके अनुग्रह की चाह सबको होती है। न्याय करते हुए फरियादी की व्यक्तिगत परिस्थितियों का ध्यान ईश्वर रखेगा (मेरा पक्ष लेगा), ऐसी कामना, यह विश्वास बना रहता है। लेकिन प्रकृति का न्याय पूरी तरह तटस्थ और पक्षरहित होता है, जिसमें पहले-पहल गलती होने के कारण 'रियायत' और बार-बार गलती की 'अधिक सजा' नहीं होती तो अच्छे कामों का पुरस्कार अनिवार्यतः, 'श्योर शाट गिफ्ट स्कीम' जैसा मिलता ही है। इसलिए प्रकृति के न्याय पर भरोसा रखें और पर्यावरण को विचार और चर्चा के विषय के साथ-साथ दैनंदिन जीवन से अभिन्न बने रहने की संभावना और प्रयास को बलवती करें। स्वामी विवेकानंद होते तो शायद कहते कि 'उठो, भगवान के भरोसे मत बैठे रहो, इसके लिए तुम्हें ही आगे आना होगा, हम सबको मिलकर बीड़ा उठाना होगा।
टीप - पिछले विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून 2009) पर सुभाष स्टेडियम कान्फ्रेंस हाल, रायपुर में नगर पालिक निगम एवं सिटी टेक्नीकल एडवायजरी ग्रुप के तत्वावधान में पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी आयोजित थी। कार्यक्रम के पहले अंधड़ और गरज-चमक के साथ बारिश हुई। बिजली गुल हो गई। कार्यक्रम मोमबत्ती जलाकर पूरा किया गया। उस दिन उत्पन्न व्यवधान आज प्रकृति की नसीहत जैसा लगता है। वैसे भी हमारी परम्परा में प्रकृति की विषमता को अनिवार्यतः विपक्ष के बजाय मददगार मानने की उदार सोच है। कालिदास पूर्वमेघ में उज्जयिनी पहुंचे मेघ से कहते हैं कि रमण हेतु जाती नायिका को बिजली चमका कर राह दिखाना, गरज-बरस कर डराना नहीं। एक गीत अनुवाद में यह भी जुड़ गया है कि चमक कर उसकी चोरी न खोल देना। पर्यावरण संरक्षण के लिए, प्रकृति अनुकूलन की ऐसी सोच को, इसमें निहित पूरी परम्परा को कायम रखने की जरूरत है।
यह पोस्ट 14 अगस्त 2010 को 'देशबंधु', रायपुर के पृष्ठ-6 पर ''पर्यावरण के साथ परंपरा का निर्वाह'' शीर्षक से प्रकाशित।
बहुत बढिया ्विचारणीय व सामयिक पोस्ट लिखि है। आभार।
ReplyDeleteपर्यावरण चेतना वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। आशा है आपके विचारों से इस महान आवश्यकता की पूर्ति हो पायेगी।
ReplyDeleteसुन्दर विषय व विवेचना । नियमित पाठन होगा ।
ReplyDeletegambheer lekh.
ReplyDeleteअच्छा विषय है,
ReplyDeleteपर्यावरण के प्रति गंभीर होना ही पड़ेगा।
आरे का काम काटना ही रहा है लेकिन
जिस हिसाब से आरा चला उस हिसाब से
पेड़ नहीं लगाए गए।
good one
ReplyDeleteआज ही लौटा हूँ. बहुत बढ़िया आलेख है. मेरे मन की बात भी. आरा और आरंग तथा बस्तर के रथ निर्माण का उल्लेख अच्छा लगा.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख है!!
ReplyDeleteजिस विषय पर आप लिखने की योजना बना रहे हैं ...बहुत आवश्यकता है आज ....बस नियमित रहने की जरुरत है
....क्या करूँ मैं ही नहीं रह पा रहा जो ?
:-)
Adarniya Akaltarawale sahab
ReplyDeleteNischit hi vishay gambhir aur chintan ka hai. logo me chetana, jagruti, aur civic sense jis din aa jaye us din kaykakalp nischit hai. Lekhan shaili ka to mai murid ho chuka hu. Na keval vishay balki visha ko dhirdata ke sath apne aage badhay hai.
tuhar likhayi ha bane lagis au e likhayi hamar noni babu manla bhi shuhahi aisan more aasa have.
Jai johar
jai chattisgarh mahtari
Eco ka arth ghar(home) hota hai..toh ecology ka arth hota hai 'study of our home'. Humne "eco-friendly" hokar apne aap ko paryavaran aur prakriti se alag kar liya hai..
ReplyDeleteSir, aapka jo point hai ki "paryavaran ko jeevan ka samvaay mahsoos karte rehna hoga.", ye tabhi mumkin hai jab hum apne aap ecology ka hi ek hissa maane. Nahi toh aapne jaisa kaha hai ki "yeh sab ek naara ban kar hi reh jayega."
आपकी यह रचना भी बेहतरीन है राहुल जी। अगर हर इंसान थोडा सा इस तरह सोचना शुरू कर दे तो संसार कुछ और खुशहाल हो जाए। और मिलकर गाएं -
ReplyDeleteये हंसी वादियां, ये खुला आसमां
इन बहारों में दिल की कली खिल गयी
पंक्तियां ज़रूर फिल्म से है लेकिन भावनाएं अपनी ही है।
आपकी यह रचना भी दूसरी रचनाओं की तरह बेहतरीन है। आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteरवीन्द्र गोयल्
आपके इस लेख ने मानो पर्यावरण के सुरक्छा लिए ज|न भर दिया है सही बात है पुरे देश में समाज में सभी को यह बीड़ा जरुर उठाना चाहिए क्योकि पर्यावरण सुरक्छित तो हम सुरक्छित
ReplyDeleteयस्मिन जीवति जीवन्ति बहवा सा तु जीवति
ReplyDeleteकुरुते किम ना काकोsपि चंच्वास्वोदर पूर्णम||
जीना उसी का सार्थक है जो पर्यावरण के लिए जीता है
Aapka article bahut achha laga, bahut bahut badhai. Bhavisya mein bhi aapke vicharon ko padhkar khushi hogi. Aapki khojein Chhattisgarh ke itihaas ko rekhankit karengi.......ISHWAR KHANDELIYA
ReplyDeletemujhe bahut prabhavit kiya(`paryawaran upyog se nahi dohan se asantulit hota hai`pura darshan hai)
ReplyDeleteVery well said...
ReplyDeletenow it is time to think about Trees along with our-self , only this is the way to save our future.
but ....
Paryawaran diwas par aapka aalekh anukarniya hai.
ReplyDeleteChintan shuru hota hai yahan se.......in fact abhi se........thanx SIR.
ReplyDeleteAap ke lekh me do mahatvapurna suchnayen hain, mere lihaz se.
ReplyDelete1. Aare ka prayog maratha period me shuru hua-techno upgradation.
2. Kuon ka upyog zari rakhna hoga, show piece bana kar nahi rakh sakte.
achchha laga.
aao eak paodha lagayen.dusron ko samjhayen.dher sari photo Akhbar me chhapayen
ReplyDeleteइस साल पर्यावरण दिवस पर दैनिक नवभारत समाचार पञ में संपादकीय पृष्ठ पर अभिमत में तथा दैनिक हरिभूमि बिलासपुर में संपादित रूप में यह ब्लाग प्रकाशित हुआ, इसके बाद फोन वार्ता, एसएमएस तथा ईमेल से कई प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिनमें से एक श्री विमल पाठक जी भिलाई का एसएमएस उनकी अनुमति मानते हुए यहां उदृत है -
ReplyDeleteनवभारत में आपका शोधपरक लेख पढा. बधाई पर्यावरण पर छत्तीसगढ की चेतना से परिचित कराकर आपने अतिमहत्वपूर्ण कार्य किया है.
पर्यावरण पर आप का लेख अन्य आयाम भी रखता है. आरा का प्रयोग छत्तीसगढ़ में मराठों के साथ प्रारंभ होने का दस्तावेजी उल्लेख प्राप्त होता है. साथ ही लोक आख्यानों में आरे उल्लेख प्राचीन कथाओं ओर पात्रों के साथ मिलता है. यह इस बात का संकेत देता है की संभवत: लोक मानस में बसे कृष्ण-मोरध्वज सरीखे आख्यानों का छत्तीसगढ़ आगमन मराठों के साथ हुआ. ऐसा संभव है की सांस्कृतिक प्रसार की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण स्थानीय स्वरुप के रेखांकन की शुरुआत में यह ब्लॉग प्रारम्भ बिंदु का काम करे.
ReplyDeleteइस सूचनापूर्ण और सोचने को मजबूर करने वाले लेख के लिए साधुवाद
राकेश सिंह
जब इतने व्यपक परिवर्तन देखता हूं मैं, इतने खिलवाड़ प्रकृति से तो समझ नहीं पाता कि करेक्टिव एक्शन कैसे होगा।
ReplyDeleteकभी कभी लगता है कि सीधे सीधे प्रकृति की ओर लौटना होगा। कभी लगता है कि तकनीकी और विज्ञान से हल निकलेगा।
मनुष्य के दो पहलू हैं - एक लोलुप की तरह दोहन कर रहा है प्रकृति/पर्यावरण का और दूसरा बचाने की सोच रहा है। दोनो उपलब्ध तकनीकी ज्ञान का सहारा ले रहे लगते हैं। देखें, कौन जीतता है!
मोरध्वज की कथा तो हमारे सारण जिले में कही जाती है। आशंका सही है डरपोक मन की।
ReplyDeleteऔर संस्कृति का जन्म,
ReplyDeleteपेड़ के जन्म से।
वृक्ष और वनों का ह्रास,
सभ्यता और संस्कृति
के लिए संत्रास।।
जय जय
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