'दीक्षांत समारोह में गाउन तथा हुड उतार कर दासता की औपनिवेशिक परम्परा से छुटकारा पाना चाहिए।' केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जी के ऐसे कथन के बाद दीक्षांत में धारण किए जाने वाले पारंपरिक पोशाक को केंचुल भी कहा गया। यह भी कि ज्यादा जरूरी है गुलामी की मानसिकता को बदलना। अलग-अलग तथ्य, जानकारियां और दृष्टिकोण सामने आए। विभिन्न पक्षों पर ढेरों बातें हुईं।
अप्रैल 2010 के अंतिम सप्ताह में बिलासपुर के गुरु घासीदास विश्वविद्यालय का सातवां, लेकिन केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने और इस वक्तव्य के बाद आयोजित पहले दीक्षांत समारोह की खबरें छपी- 'यह देश का ऐसा पहला विश्वविद्यालय बन गया जिसने अपने दीक्षांत समारोह से औपनिवेशिक चोला उतार कर स्थानीय संस्कृति के अनुरूप परिधान के बीच उपाधियां वितरित कीं।' (यह जिज्ञासा भी है कि पिछले अकादमिक सत्रों की उपलब्धि-उपाधि अब वितरित होकर केन्द्रीय स्वरूप की मानी जायेंगी?)
बिलासपुर में आयोजित इस समारोह का सचित्र समाचार, अखबारी संस्करण सीमाओं के बावजूद, रायपुर में भी छपा। चित्र में अतिथि व अन्य मंचस्थ, पगड़ी धारण किए दिखे।
पगड़ी यहां हुड का स्थानापन्न है तो हमारी परम्परा में सिर्फ शिरोभूषा नहीं बल्कि गरिमा का परिचायक, सम्मान का पर्याय और वरिष्ठता का प्रतीक भी है। वैसे पगड़ी अब आमतौर पर पोशाक का हिस्सा नहीं, बल्कि परम्परा के हाशिये (शो केस) में सुरक्षित है।
फैशन शो के दौर में ड्रेस डिजाइनरों को सेलिब्रिटी दरजा हासिल है, भानु अथैया पारंपरिक वेशभूषा डिजाइन कर ऑस्कर पा चुकी हैं। इसलिए भी कि खबरों में हम अपनी खास रुचि की पंक्तियां तलाशते हैं, खोजने और सोचने लगा 'इतनी सुंदर पगड़ियां बांधी किसने?', जिनसे यह शान बनी है, उस परम्परा की रक्षा की पगड़ी आज भी किसने संभाली है? तब एक बार फिर मुलाकात हुई बद्रीसिंह कटहरिया जी (मो.+919425223659) से।
राज्य के वरिष्ठ रंगकर्मी, अभिनेता, गायक, मंच नेपथ्य में मेकअप और वेशभूषा के विशेषज्ञ, साहित्यकार, लोक परम्पराओं के जानकार, बिलासपुर निवासी सेवानिवृत्त व्याख्याता बद्रीसिंह जी की चर्चा फिलहाल इस पगड़ी तक। वे विभिन्न पारम्परिक वस्त्र आभूषण शौकिया तौर पर तैयार करते हैं, कौड़ी के काम में उन्हें विशेष दक्षता हासिल है।
नाटक और मंचीय प्रस्तुति की आवश्यकताओं पूर्ति के लिए उन्होंने पगड़ी बांधना भी सीखा और विकसित किया। वे विभिन्न प्रकार की पगड़ियां बांध सकते हैं। इस आयोजन के लिए उन्होंने लगभग हफ्ते भर जुटकर 50 पगड़ियां तैयार कीं।
यह खबरों का जरूरी हिस्सा न माना गया हो, लेकिन लगा कि यह औरों को भी पता होना चाहिए, शायद तभी परम्पराओं की पगड़ी 'जतनी' जा सकेगी।
और यह भी, पारंपरिक लोक विद्याओं- झाड़-फूंक, देवारी (सरगुजा) का दीक्षांत, नागपंचमी पर होता है, इस पर कुछ विस्तार से फिर कभी बात होगी।
उपाधि वितरण समारोह में स्थानीय संस्कृति के अनुरूप परिधान का चयन एक अनुकरणीय पहल है. अपनी परम्पराओं के जतन में आदरणीय बद्री सिंह कटहरिया का योगदान सराहनीय है. इस सुन्दर आलेख के लिए आभार.
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ReplyDelete"पगड़ी संभाल जट्टा पगड़ी संभाल ओए।"
राहुल भैया,पगड़ी को व्यक्ति की इज्जत के साथ जोड़ा गया है।
हमारी संस्कृति में कन्वोकेशन के हुड और गाऊन की कोई कीमत नहीं है।
लेकिन कटिवस्त्र,उत्तरीय(अंग वस्त्रम)और पगड़ी व्यक्ति की जान से ज्यादा कीमती है।
गुरुकु्ल के दीक्षांत समारोह में यही शोभायमान होती है।
पगड़ी की महिमा पर तो और भी बहुत कुछ कहा गया है।
अच्छी पोस्ट
बहुत सुन्दर और स्वस्थ शुरुआत।
ReplyDeleteare jabardast, mai to in sahab se baat karna chahunga bhaiya.
ReplyDeleteshukriya is jankari ko dene ke liye, blog ka kalevar aur bhi accha lag raha hai. muaafi han kahne ke baad bhi abhi tak aapse milne nahi aa paya, ummeed hai chhota bhai hone ke karan maaf kar denge ;)
बहुत ही अच्छी पोस्ट है राहुल भैय्या
ReplyDeleteपगड़ी का अपना महत्व तो है
कभी भगतसिंह और उसके साथियों ने भी गाया था-पगड़ी संभाल ओ जट्टा
राहुल भैय्या आप सक्रिय रहे क्योंकि आपकी सक्रियता से हम लोग कुछ न कुछ नया जानते रहेंगे यह तय है.
आपको बधाई.
shaandaar post !
ReplyDeleteआखिर आज खुल हि गया अकलतरा ब्लागस्पोट डाट काम्।बहुत बहुत बधाई हो।मैंने भी सोचा था इस पर लिखूं मगर मै सोचता ही रह गया।अब लगातार आता रहुंगा।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट,बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteयह पोस्ट ब्लाग4वार्ता पर भी है
badhai rahul bhai iten sundar vishay ko uthane aur us par likhane ke liye vicharniya hai ki kya kapro ke badal jane matra se mansikta badal jayegi yadi aisa hi hai tab to chhatisgarhi paridhano ko mahatva diya jana chahiye achchhe visay par bahas ki suruwat ki ja sakti hai ishwar khandeliya
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति तो रोचक लगी। लेकिन सवाल अभी भी है कि हमने एक परम्परा को हटाकर दूसरी को सिर रख लिया। पगड़ी भी आज कौन पहनता है। वह तो केवल गांव के व्यक्ति के सिर पर ही दिखाई देती है जिसे हमारा तथाकथित पढ़ा लिखा समाज गंवार मानता है। अगर सचमुच यह विश्वविद्यालय में पढ़ने के बाद सिर पर रखने की चीज है । या फिर जिस के सिर पर है वह पढ़ा-लिखा है तब तो बहुत अच्छी बात है। बहस जारी रहे।
ReplyDeleteपगड़ी, सोच रही तगड़ी अपने क्षेत्र की छाप अच्छे से पड़ी। प्रान्त की शान बनी रहे, उतरेगी नही किसी अन्याय के सामने यह पगड़ी। बहुत सुंदर पोस्ट। शुक्रिया।
ReplyDeleteDear RKS Saheb!
ReplyDeletetoday I cud go/re-go thru all ur posts. Maza aaya, bahut! Kendriya mantri ke statement wa action se shuru kar Bilaspur ke Kendriya university ke deexant samaroh ko apni charcha ke kendra me lete huwe uski pagdiyon ko bhi chrcha me lapet kar ultimately wishva ke 2nd highest populated aur the biggest democrate desh INDIA ke karib anjaane se insaan [of course I know Badri ji well] pe aapka wa aapki charcha ka kendrit hona bahut hi pyara laga. Ye mano ek vishal juloos ke shaahi rath ke ghodon ke khuron pe lagaane hetu naal banane wale gumnaan lohaar ka parichya raha. EARTH HOUR ke bahaane aap aur aap jaise hum bahut logon ki peeda mili. BAL BHARATI ne mujhe primary school days me pahuca diya. really us kitab ke shuru ke lessons ke titles hi nahi hain. 1st lesson AMAR CHAL se shuru hota hai. I remember the classroom even now.PAATH 20 MEENU KA TOTA mujhe aaj bhi yaad hai. bombay me ek school ke bachchon se isi geet par ek item perform karaya tha.comment dheere dheere article ban gaya hai, BAHUT BADA SHODH AALEKH ban jane se pahle hi... Baki baad me kabhi... isi tarah.
pagdi ke sath Bilaspur ka naam aur Bilaspur ke sath Badri Bhaiya ka zikr, ek sukhad anubhuti ka ahsaas.apke sampark me to pura Chhattisgarh hai, hamari kamna koi kheshtra na chute apki nazar se, koi vishay na chute apki kalam se.
ReplyDeleteआप लोगो ने पगड़ी लगा कर अंगरेजो की टंगड़ी खिंच दी ; धन्यवाद
ReplyDeleteपगड़ीकार
ReplyDeleteके
जय
हो ....................