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Wednesday, January 11, 2012

कवि की छवि

कवि के साथ छवि का तुक यहां संयोग से ही बैठ गया वरना कविता तो अतुकी-बेतुकी सी लगने वाली बातों में भी होती है- खुदबुदाते, मचलते भावों के सामने कब लाचार नहीं पड़ते शब्द, कभी जबान तोतली होने लगती है, तो कभी सघन मौन-चुप्पी। ... घना अंधेरा और तरल रोशनी ... ।
क्यों नदी खामोश है?
दहाड़ क्यों है, पहाड़ के चुप्प्प्प में
जंगल लील जाने को आतुर
चिड़िया टंगी सी, पेड़ अनमने!

कवि मन के भाव-बिंबों को समझने के प्रयास में यह बेतुकी सी बात बन गई। कविताओं के प्रति अपनी रुचि और समझ सीमा के कारण, ऐसा कुछ पढ़ते हुए असमंजस होता है, गद्यार्थी पाठक को घबराहट-सी भी होती है। लेकिन इस संकीर्णता में आसानी से समा जाए ऐसी भी कविता यदा-कदा मिल जाती है।

बात है बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़ के युवा रचनाकार मनीष श्रीवास्तव के काव्य संग्रह 'अवलंबन' की। 1974 में जन्मे मनीष नब्बे के दशक से लिख रहे हैं और इस संग्रह में सन 2006 तक की अनुक्रमित (सरल क्रमांक वाली), बिना शीर्षक वाली 1 से 109 तक रचनाएं शामिल हैं, जिनमें अधिकतर का रचना काल 1999 और 2000 दर्शाया है। (रचनाओं को यहां कोष्‍ठक में उनका अनुक्रम देते हुए उद्धृत किया गया है।)

संग्रह से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि रचनाकार फिलहाल अपनी कवि-छवि से मुक्त है, उसे पता नहीं है कि वह जो कुछ लिख रहा है, वह कविता है, यानि वह एक तरह से कुंवारा-कवि है। कवि (की छवि) बन जाने के बाद, ऐसा भान, अपनी यह पहचान उसे बनाए-बचाए रखने का जतन, रचना-प्रक्रिया के दौरान भी साथ बना रहा तो यह कविता पर भारी पड़ने लगता है। फिलहाल इससे लगभग मुक्त दिखते मनीष, संग्रह के आरंभ में कहते हैं- ''मैंने '97 से '07 तक काफ़ी कुछ कहा। चंद तो यूँ ही बातों में बह गया। जो कुछ मैंने याद रखा, जो कुछ कविता-स्वरूप था, वह संकलित है।''
लक्षण अच्छे कहे जा सकते हैं क्योंकि यह युवा कवि, शब्दों और भाषा को खिलौने की तरह खेलता दिखता है। काश, आकाश और अवकाश पर कविता (2) है तो एक रचना (12) में मोहन, वशीकरण, आकर्षण, द्रावण, उन्मोदन, दीपन, स्तंभन, जृम्भण, उच्चाटन, मारण शब्दों को अपनी तरह से व्यक्त किया है और द्योतक, मोदक, उद्‌घोषक, प्रेरक, धावक जैसे तुक मिले शब्दों के साथ रची गई कविता (26) भी है।

शब्दों से खेल, कहीं भाव से दर्शन तक पहुंच जाता है जैसे (54) एक क्षण, युति का // एक प्रहर, उल्लास का // एक दिवस, आवेगपूर्ण // संध्या एक, आह्लादमयी // एक पक्ष, सान्निध्यरत // एक मास, सहयोग का // एक ऋतु, प्रतीक्षा की // एक वर्ष, प्रयास का // एक दशक, संतुष्टि का // एक जीवन, पूर्णतः परिभाषित!!! और (105) प्रातः उठो, गाओ कुछ पंक्तियाँ, पूरा गीत नहीं // मध्याह्न तक, चलो कुछ कोस, पूरा पथ नहीं // संध्या बैठो, इक नदी किनारे, न, रोओ नहीं // रात सोने दो, आँखों को खेलने दो, एक नए सपन संग, न, खोलो नहीं // हर सुबह नवजीवन का आरंभ, हर रात इक ज़िंदगी ख़त्म, जीवन की अवधि, सिर्फ़ एक दिन!

इस कवि को अपनी बात कहने के लिए कामचलाऊ से लेकर अंगरेजी से भी परहेज नहीं है, लेकिन कमाल तो वहां दिखता है, जब वह शास्‍त्रीय संस्‍कृत के शब्‍द और मनोभूमि में विचरते हुए (15) मंत्रोपलों, ईक्षण, ष्‍ठीवन, लोय, जोय, प्रीत्‍योदधि, व्रण, बैंदव, त्रायमाण, विवक्षा, अमिष जैसे शब्‍दों का सहज इस्‍तेमाल करता है तब कुछ अन्य कविताओं की तरह यहां भी लगता है कि वह सिर्फ संस्कृत भाषा का अभ्यासी नहीं, बल्कि पौराणिक-औपनिषदिक मनोभाव का भी अभ्‍यस्‍त है। जब वह क्‍लासिक उर्दू को पकड़ कर बढ़ता है तो (28) ग़ज़ीर, मुबर्हन, तस्‍ख़ीर, शाबदा, रू-ए-तिला, लज़्ज़ते-गिर्या (77) यूज़क, मिक़्यासुलहरारा, सीमाब, मिक़्यासुलमौसिम, दिनाअत (78) बिफ़ज़िल्ही, चर्बक़ामत, नौख़ास्‍ता, रू-ए-शोरीदा, नैरंगसाज़े-शैदा लफ़्ज आते हैं और (79) में काफिया मिलान के शब्‍द हैं- शुस्‍तोशू, दू-ब-दू, मू-ब-मू, सू-ए-सू, ज़ुस्‍तजू, कू-ब-कू, जू-ब-जू, हू-ब-हू, रू-ब-रू के साथ शेर है- न होते अंग्रेज न 'यू-यू' होती, हिंदी होती तो तुम से तू होती।

आपकी जांच-परख के लिए इस संग्रह के कुछ नमूने-

7 शेरों वाली ग़ज़ल (6) में काफ़िया खींच कर मिलाया गया लगता है, लेकिन बात असरदार बनी है-
माशूक है रोटी यहाँ बच्चे रक़ीब हैं
चूल्हे की वस्लगाह के क़िस्से अजीब हैं
शायर के पेट दौड़ती बहती हुई शराब
कुर्ता-ए-ज़र की ज़ेब में मुद्दे ग़रीब हैं
ये प्यार काग़ज़ी है सो दो लफ़्ज़ हुए हम
मानी हैं जुदा शुक्र है हिज्जे करीब हैं

संग्रह की सबसे छोटी, स्वाभाविक कविता (18) है-
ज़िन्दगी की बिसात पे
जब भी शह देता हूँ...
...तुम मोहरे बदल देती हो!

15 अगस्त 2006 को लिखी कुछ अलग मिजाज की कविता (24) है-
शब्द-विवर में अर्थ-मंडूक // जब मौन व्रत धर लें // अंतरात्मा के झींगुर // परकोलाहलवश सुनाई न दें // चकाचौंध में भावों के मृदु तारागण // जब दिखाई न दें ...
... ... ... ... ... ... ... ... ...
(कहूँ सुप्रीम कोर्ट को इंप्यूडेंट, फिर भले भुगते मुआ ये आदिवासी
मैं और मेरा (लेस्बो) एडवेंचर तो मजे में हैं 'बस मॉस्किटो हैं')
जब कम्युनिज़म पटुओं की ललनाओं को हड़पने की
तानाशाही का जरिया बने, समाधिकार के नाम पर
जब कॅपिटलिज़म का ठेठ अर्थ ही हो जाए
अक्षम से भेदभाव या अपमान या उसे खर समझना
जब सेक्युलर का मतलब दाढ़ी
औ' नेशनलिस्ट सुसंस्कृत हो चले चोटी
सोशलिस्ट (यदि बचा हो) माने झोले में कट्टा
जब टॅररिज़म का मुकाबला करे जिंगोइज़म,
वो भी ख़ाली हाथ!
... ... ... ... ... ... ... ... ...
मौन-कंदरा में विचार शरभ निर्दोष // जब हिमनिद्रालीन हों अनिमेष ही // प्रीत्याभिषेक स्नात मृडमुख से // फूटे ''युद्धं शरणं गच्छामि!'' // कलाश्री के इक्षुचाप में दंत-अंकुश // सुमनशर बद्ध हों जब मायापाश में // तब, ममप्रिय हे अदिति, // तू मुझे अभीष्ट है!

संग्रह की एकदम सहज-स्वाभाविक सी कविता (50) है-

ओह, मैं अश्वमेध कर बैठा!

हृदय-तुरंग से ये कह बैठा
कि जा, जहाँ तक तू दौड़ेगा
वहाँ तक मेरा साम्राज्य होगा

इक नन्हीं बाला ने ऐसा पकड़ा
कि अश्व बेचारा अब तक
उसका बंदी है, वो लालन-पालन
करती है, सो ख़ुश भी है

अश्व छुड़ाने की कोशिश में
राजा से भिक्षु बन बैठा
सुनने में तो ये भी आया
कि उस हय ने संतति की है
दो बछेड़े विश्वास और संयम
और एक नन्हीं घोड़ी प्रतीक्षा
को भी जन्म दिया है!

क्यूँ नृप हारा, बाला जीती?
मैंने अश्व को दमन का अस्त्र बनाया
उसने उसे प्रेम-प्रतीक बना
जीना सिखलाया!

...धरा रह गया यज्ञ
मुझे अश्व की सेवा ही करने दो!

छोटे बहर और 29 शेरों वाली प्रयोगात्मक ग़ज़ल (27) का एक शेर है- खिलौना हूँ मैं दोनों का, करम उसका दुआ उसकी। ऐसी ही 28 शेरों वाली ग़ज़ल (59) शुरू होती है- मुझसे न लिखा जाएगा, ये वर्क़ सफ़ा जाएगा। एक शेर (34) में है- सुबू दो, इक खयाल, काफिए चार, मगर रदीफ बनाई नहीं जाती। एक और ग़ज़ल (38) के कुछ शेर देखते चलें-
भूत है वाचाल चंचल वर्तमान
क्यूँ है रहता लृटलकार मौन
गणपति, मुझ कंठकेतु पर कृपा हो
है तू सक्षम कर मेरा उद्धार मौन
तुझसे गतिमय है मेरी यौवनकथा
न रहेगा इस कथा का सार मौन।
कवि यह भी कहता है- (52) ''हां, मैं विशेषज्ञ नहीं पर, जीवन का हठी विद्यार्थी अवश्य हूँ!'' फिर यह कि- (10) ''सीख लेंगे लब ये जब क़िस्साबयानी, लस्म में, आँखों से तब इरशाद मिलेगी।'' और फिर मानों घोषणा कि- (23) ''ग़ज़लगोई ये चुप नहीं होगी, मुहब्बत तुंदख़ू से है।'' लेकिन बात यहां तक पहुंचती है- (76) ''तम्दीद-ए-ग़ज़ल में है महारत मुझे मगर, यीमन फ़ यौमन ख़ुद को घटाता रहूँ।''

रचनाओं में व्‍यापक भाव और समृद्ध बिंब का जैसा सहज प्रयोग हुआ है, वह कवि की अकूत संभावना का अनुमान कराने के लिए पर्याप्‍त है, लेकिन वह जिस भाषा का प्रयोग करता है, उसके लिए आम पाठक कवि के शब्दों में (37) ही कह सकता है-
... सुनूँ मैं तुम्हारे दिल की बात
और समझ भी पाऊँ! प्रिये यह सरल नहीं है!

राजकमल प्रकाशन की इस पुस्‍तक का आइएसबीएनः 978-81-267-1717-0 है।