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Thursday, March 28, 2013

एक पत्र


आदरणीय सर,

लिखना-पढ़ना तो सीख ही लिया था काम भर, लेकिन जिन गुरुओं से संदेह, सवाल और जिज्ञासा के स्वभाव को बल मिला, सिखाया, उनमें आप भी हैं। इस भूमिका पर कहना यह है कि ज्ञानपीठ से प्रकाशित परितोष चक्रवर्ती की ''हिन्दी'' पुस्तक 'प्रिंट लाइन' के फ्लैप पर नाम देखा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र। आपकी समझ पर कैसे संदेह कर सकता हूं, लेकिन आपके माध्यम से पढ़ने की जो थोड़ी समझ बनी थी, उस पर संदेह हुआ, बावजूद कि यह आपकी नसीहतों पर भी संदेह माना जा सकता है। 

आजकल पढ़ना संभल कर और चुन कर ही करता हूं। आपका नाम देख कर किताब पढ़ना शुरू किया। पूरी पुस्तक पढ़ने में लगभग एक घंटे समय लगा, जबकि इतनी मोटी ठीक-ठाक किताब के लिए मुझे आम तौर पर छः-सात घंटे तो लगते ही और कोई अधिक गंभीर किस्म का काम हो तो इससे भी ज्यादा, खैर। किताब पढ़ कर मेरी जो राय बनी उसे जांचने के लिए दुबारा-तिबारा फ्लैप पढ़ा। ध्यान गया कि इसे आपने 'एकरैखिक', 'इकहरेपन' और 'काला सफेद के बीच के रंग' वाला कहा है। आपके इन शब्दों का प्रयोग, जैसा मैं समझ पा रहा हूं, वही है तो मेरे सारे संदेह दूर हो जाते हैं।

आत्म-साक्ष्य पर रचा गया यह उपन्यास, आत्मग्रस्तता के सेरेब्रल अटैक से कोमा में पड़े अमर का एकालाप बन गया है। नायक अमर व्यवस्था और परिस्थिति को दोष देते हुए आत्म-मुग्ध है, उसके नजरिए में तटस्थता का नितांत अभाव है। अमर उनमें से है जो चाहते हैं कि समाज उन पर भरोसा करे, लेकिन जिन्हें खुद के करम का भरोसा नहीं। जिसे खूंटे बदलते रहना हो, ठहर कर काम न करना हो, अपने संकल्पों को मुकाम तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता न हो, उसके लिए क्रांति के नारे बुलंद करते रहना आसान और उसका बखान और भी आसान होता है। नायक की पत्रकारिता ऐसी क्रांति है, जो अन्य करें तो शाम के अखबार की सनसनी या सत्यकथा, मनोहर कहानियां। यह भी हास्यास्पद है कि अमर की पत्रकारिता में जिन और जैसे रोमांच का बखान है, वह इन दिनों टेबुलायड पत्रकारिता में नये लड़के रोज कर रहे हैं।

पेन से लिखे और हाथों-हाथ सौंपे पत्र की प्रति

यह चुके हुए ऐसे नायक की कहानी बन पड़ी है, जिसके जीवन का क्लाइमेक्स शराब और शबाब ही है। पत्रकार अमर की कलम औरों के सान पर घिस कर नुकीली होती है और यह लेखन किसी कलम के सिपाही का नहीं, वाणीवीर (जबान बहादुर) का लगता है, क्योंकि यहां जो सरसरी और उथलापन है, वह डिक्टेशन से आया लगा (अज्ञेय जी के लेखन में कसावट और नागर जी की किस्सागोई का वक्तव्य)। इस उपन्यास के साथ अगर सचमुच लेखक और अमर का कुछ 'आत्मगाथा या आत्मसाक्ष्य' जैसा रिश्ता है फिर तो परितोष जी के बारे में अब मुझे अपनी धारणा के बदले आम तौर पर उनके बारे में लोगों की राय विश्वसनीय लगने लगी है।

आपका नाम होने के कारण ही प्रतिक्रिया लिख रहा हूं। बाजार में लगभग महीने भर से बिकती पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण पा कर आश्चर्य हुआ था। विमोचन में छीछालेदर, परन्तु मुख्‍यमंत्रीजी का शालीन जवाब... क्या कहूं, सब आपके सामने घटित हुआ। आम आदमी भी आचरण के इस छद्‌म को देखता समझ लेता है। हां, किताब में अधिकतर निजी किस्म की चर्चाएं, पढ़ने-लिखने वालों का जिक्र है, सो किताब बिकेगी, इसलिए इसे बिकाऊ (बिकने योग्य/उपयुक्त) साहित्य कहा जा सकता है, बाजार में सफलता की कसौटी के अनुकूल। फ्लैप पर आपके नाम के बावजूद इस लेखन के साथ परितोष जी और ज्ञानपीठ के नाम पर जिज्ञासा, सवाल और संदेह बना हुआ है। निजी तौर पर मेरी शुभकामनाओं के अधिकारी परितोष जी रहे हैं, इस सब के बावजूद भी हैं।

राहुल सिंह

वैसे तो यह मेरी निजी प्रतिक्रिया है, राजेन्‍द्र मिश्र सर के प्रति, लगा कि पुस्‍तक पर एक पाठक की टिप्‍पणी भी है यह, इसलिए यहां सार्वजनिक किया है।

Wednesday, July 18, 2012

बस्तर पर टीका-टिप्पणी

एकबारगी लगा कि यह मार्च महीने में लक्ष्य प्राप्त कर लेने की आपाधापी तो नहीं, जब वित्‍तीय वर्ष 2012 की समाप्ति के डेढ़ महीने में बस्तर पर चार किताबें आ गईं। 15 फरवरी को विमोचित राजीव रंजन प्रसाद की 'आमचो बस्तर' इस क्रम में पहली थी। फिर 26 फरवरी को संजीव बख्‍शी की 'भूलनकांदा', इसके बाद 2 मार्च को ब्रह्मवीर सिंह की 'दंड का अरण्य' और अंत में 31 मार्च को अनिल पुसदकर की 'क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' विमोचित हुई। चारों पुस्तकों पर एक साथ बात करते हुए इस संयोग पर बरबस ध्यान जाता है कि ठेठ बस्तर पर हल्बी शीर्षक वाली आमचो बस्तर का विमोचन दिल्ली में हुआ तो अन्य तीन का रायपुर में और इन चार में, मुख्‍यमंत्री, छत्तीसगढ़ के संयुक्त सचिव संजीव बख्‍शी की कृति का विमोचन विष्णु खरे ने किया तो बाकी तीन का मुख्‍यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने।

क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' - अनिल पुसदकर
मंजे पत्रकार, स्वयं लेखक के शब्दों में उनकी ''किताब में ढेरों सवाल हैं, व्यवस्था पर, सरकार पर, मीडिया पर और मानवाधिकार पर भी सवाल उठाये गये हैं। किताब में बस्तर का नक्सलवाद और उससे जूझते पुलिस वालों की स्थिति का हाल सामने रखा गया है।'' इस किताब विमोचन में हर क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिकों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति पूरे मन से है, दिखाई पड़ रही थी और ज्यादातर लोग पूरे समय शाम 4 से 7 बजे तक बने रहे। अविवाहित अनिल जी की कृति का विमोचन था, कल्पना हुई कि वे बिटिया ब्याहते तब ऐसा माहौल होता।

कार्यक्रम आरंभ होने में विलंब के दौरान पुस्तक अंश के वाचन की रिकार्डिंग बज रही थी। यह अविस्मरणीय प्रभावी था और लगा कि एकदम बोलचाल की शैली में लिखी इस पुस्तक को सुने बिना, सिर्फ पढ़ने से काम नहीं चलेगा। यानि पुस्तक के साथ इसकी आडियो सीडी भी होती तो बेहतर होता। आयोजन के मंच पर लिखे- क्यों जाऊँ बस्तर? मरने! को देखकर साथी बने अष्‍टावक्र अरुणेश ने कहा कि क्या शीर्षक में चिह्नों को बदल देना उचित नहीं होता, यानि क्यों जाऊँ बस्तर! मरने?, मुझे उनका सुझाव सहमति योग्य लगा।

दंड का अरण्य - ब्रह्मवीर सिंह
युवा पत्रकार-लेखक के मन में सवाल है- आदिवासियों की हित रक्षा की बात सभी करते हैं तो आखिर उनके विरोध में कौन है? लगभग इसी मूलभूत सवाल के लिए की गई हालातों की जमीनी तलाश में उपजा जवाब है यह रचना। अखबारी दफ्तरों की उठापटक के हवाले हो गए इस छोटी सी किताब के शुरुआती 10-12 पेज अनावश्यक विस्तार से लगते हैं। ऐसा लगता है कि यह पुस्तक बस्तर पर होने वाले लेखन में साहित्यिक अभिव्यक्तियों के प्रति गंभीर रूप से असहमत है शायद इसीलिए साहित्यिक होने से सजग-सप्रयास बचते हुए, परिस्थिति और समस्या को यहां तटस्थ विवरण, वस्तुगत रिपोर्ताज की तरह प्रस्तुत किया गया है और वह असरदार तो है ही।

भूलनकांदा - संजीव बख्‍शी
खैरागढ़-राजनांदगांव के, पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी परम्परा वाले संजीव जी से मैंने 14-15 साल पहले रमेश अनुपम, आनंद हर्षुल, जयप्रकाश के साथ कांकेर में पहली बार कविताएं सुनीं और तब से उनकी कवि-छवि ही मेरे मन में जमी हुई है। बस्तर में पदस्थ रहे इस राजस्व-प्रशासनिक अधिकारी की कविताओं में अपना जिया परिवेश और संदर्भ- खसरा नंबर दो सौ उनासी बटा तीन (क), मुख्‍यधारा, मौहा जाड़ा, हफ्ते की रोशनी, बस्तर का हाट और कांकेर के पहाड़, जैसे कविता-शीर्षकों के साथ आते रहे हैं।

भूलनकांदा उपन्‍यास का विमोचन, मंच पर उपस्थित लेकिन अनबोले से विनोद कुमार शुक्ल और अपनी जवाबदारी निभाते डॉ. राजेन्द्र मिश्र के वक्तव्य सहित हुआ। मुख्‍य अतिथि विष्णु खरे का व्याख्‍यान, इस लिंक पर शब्दशः सुना भी जा सकता है, 'वागर्थ' के मई 2012 अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसके कुछ अंश हैं-
यह गांव का उपन्यास है, पर ऐसे यथार्थ मानवीय गांव का, जो मैं नहीं समझता कि हिन्दी में इसके पहले कहीं आया हो। ... संजीव बख्‍शी ने जो भाषा बुनी है वह ऐसी नहीं है जो फणीश्वरनाथ रेणु की है। रेणु बड़े उपन्यासकार हैं, इसमें शक नहीं, लेकिन उनके यहां बहुत शोर है, तुमुल कोलाहल है, बहुत ज्यादा साउंड इफेक्ट है। ... कुल मिलाकर यह उपन्यास विनोद जी से थोड़ा हट कर, लेकिन कुछ आगे जाता नजर आता है। ... विजयदान देथा के होते हुए भी, आज तक ऐसा उपन्यास नहीं आया है। ... ऐसी सार्वजनीनता इससे पहले और कहीं नहीं आई थी, शायद प्रेमचंद के यहां भी नहीं।

प्रसंगवश, पिछले सालों में केदारनाथ सिंह ने इस रचनाकार के कविता संग्रह को कविवर विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-परंपरा की अगली कड़ी कहा था। लेकिन यह भी जोड़ा है कि इस कवि ने विनोद जी की शैली को इस तरह साधा है कि जैसे यह कवि का अपना ही 'स्वभाव' हो। इन उद्धरणों के बीच मेरी दृष्टि में यह उपन्यास व्यवस्था से विसंगत हो जाने की जनजातीय समस्या, जिसमें धैर्य की ऊपरी झीनी परत के नीचे गहरी जड़ों वाला द्रोह सुगबुगाता रहता है, का विश्वसनीय चित्रण है।

आमचो बस्तर - राजीव रंजन प्रसाद
लंबे समय बाद इतनी भारी-भरकम, 400 से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक को पेज-दर-पेज पढ़ा। पुस्‍तक में (पृष्ठ 314 पर) कहा गया है कि ''मुम्बई-दिल्ली-वर्धा से बस्तर लिखने वालों ने कभी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत ही नहीं किया।'' निसंदेह, यहां बस्तर के देश-काल को जिस समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसके लिए यह आकार उपयुक्त ही नहीं, आवश्यक भी है। बस्‍तर इतिहास के प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण कालखंड, आदि काल से अब (पृष्ठ 331 पर 6 अप्रैल 2010) तक, को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत इस कृति में काल-पात्रों के अलग-अलग स्तर का समानान्तर निर्वाह होता है।

मिथकीय चरित्र गुण्डा धूर और भूमकाल विद्रोह, दंतेश्‍वरी में नरबलि आदि प्रसंगों की चर्चा पर्याप्‍त विस्तार से है। पात्रों, शैलेष और मरकाम की बातचीत के माध्‍यम से बस्‍तर की समस्‍याओं, परिस्थितियों से लेकर संस्‍कृति, कहावत-मुहावरे तक का अंश भी यथेष्‍ट है। इन सब के बीच लेखक किसी दृष्टिकोण-मान्‍यता का पक्षधर नहीं दिखाई पड़ता, इससे पात्रों के विचार और कथन, उनकी अपनी विश्वसनीय और स्वाभाविक अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं। प्रस्‍तुति में प्रवाह का ध्‍यान रखा गया है न कि कालक्रम का, लेकिन प्रवीरचंद्र भंजदेव और उनके निधन का विवरण अंत में लाना एकदम सटीक है, क्‍योंकि यही वह बिन्‍दु है, जिसके पूर्वापर संदर्भों बिना बस्‍तर के रहस्‍य का अनुमान कर पाना भी कठिन होता है।

संक्षेप में पुस्‍तक पढ़ते हुए भरोसा होता है कि लेखक न सिर्फ गंभीर और सावधान है, बल्कि उसने इस कृति में निष्ठा सहित अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। प्रूफ शुद्धि भी उल्‍लेखनीय और प्रशंसा-योग्‍य (वैसे पुस्‍तक में बार-बार 'प्रसंशा' मुद्रित) है। एक स्‍थान पर ''जहाज डूबने से पहले चूहे ही भागने लगते हैं'' (पृष्ठ 172) कहावत का प्रयोग भैरमदेव से कराया जाना जमा नहीं। आलोचना के कुछ और छिटपुट उल्‍लेख किए जा सकते हैं, लेकिन इस पुस्‍तक की सब से बड़ी कमजोरी, परिशिष्ट का अभाव, माना जा सकता है। इतिहास और तथ्‍यों को औपन्‍यासिक शैली में प्रस्‍तुत करते हुए यह उपयुक्‍त होता कि परिशिष्‍ट के कुछ और पेज जोड़ कर बस्‍तर इतिहास का कालक्रम, ऐतिहासिक पात्रों के नाम की सूची और संक्षिप्‍त परिचय भी दिया जाता, इससे पुस्‍तक की उपयोगिता और विश्‍वसनीयता बढ़ जाती। बस्‍तर पर कुछ लिखते-पढ़ते इस पुस्‍तक में आई टिप्‍पणी याद आ जाती है कि- ''इन दिनों बस्तर शब्द में बाजार अंतर्निहित है। (पृष्ठ 326) और ''अब बस्तर शब्द का लेखन की दुनिया में बाजार है।'' (पृष्ठ 337) अखिलेश भरोस द्वारा लिये चित्र का आवरण के लिए चयन, सार्थक और सूझ भरा है।

इन चारों साहित्‍य-पत्रकारिता की रचनाओं को एक साथ मिलाकर देखते हुए धारणा बनती है कि- अशांति और विद्रोह का इतिहास पढ़ते हुए महसूस होता है कि आम तौर शांत, संस्कृति संपन्न, उत्सवधर्मी लेकिन अपने में मशगूल (बस्तर का) वनवासी, अस्तित्व संकट से मुकाबिल होता है तो जंगल कानून पर अधिक भरोसा करता रहा है।

बस्तर और उसकी परिस्थितियों को समाज-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ समझने के लिए (कम से कम) जो प्रकाशन देखना मुझे जरूरी लगता है, वे हैं- डब्ल्यूवी ग्रिग्सन, वेरियर एल्विन, केदारनाथ ठाकुर, प्रवीरचंद्र भंजदेव, लाला जगदलपुरी, डॉं. हीरालाल शुक्ल, डॉ. कृष्‍ण कुमार झा, हरिहर वैष्णव, डॉं. कामता प्रसाद वर्मा की पुस्तकें/लेखन और मार्च 1966 के जगदलपुर गोलीकांड पर जस्टिस केएल पांडेय की रिपोर्ट।

बस्तर को उसकी विशिष्टता के साथ पहचानते हुए, शोध-अध्ययन दृष्टि से महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्य हैं- छत्तीसगढ़ के पहले मानवविज्ञानी डॉ. इन्द्रजीत सिंह का लखनऊ विश्वविद्यालय से किया गया गोंड जनजाति पर शोध, जो सन 1944 में The Gondwana and the Gonds शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। पुस्तक, बस्तर के जनजातीय जीवन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ उनके आर्थिक परिप्रेक्ष्य का तटस्थ लेकिन आत्मीय विवरणात्मक दस्तावेज है, जिसका निष्कर्ष कुछ इस तरह है- जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति के साथ समझ सकें। इसी प्रकार दूसरा कार्य है, सागर विश्वविद्यालय से किया गया डॉ. पीसी अग्रवाल का शोध Human Geography of Bastar District, जो सन 1968 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ और तीसरा, मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल द्वारा Bastar Development Plan वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन आरसी सिंह देव के निर्देशन में सन 1984 में योजना आयोग के लिए तैयार, बस्तर विकास योजना, जिसे देख कर महसूस होता है कि इस प्रतिवेदन के अनुरूप तब इसका उपयुक्त क्रियान्वयन हो पाता तो आज शायद बस्तर कुछ और होता।


यहां आए सभी नामों के प्रति यथायोग्‍य सम्‍मान।

Friday, February 24, 2012

कैसा हिन्‍दू... कैसी लक्ष्‍मी!

देश के पुराने अंगरेजी अखबार ने हिन्‍दू नाम के साथ प्रतिष्‍ठा अर्जित की है, पिछले दिनों इस हिन्‍दू पर लक्ष्‍मी नामधारी पत्रकार ने ऐसा धब्‍बा लगाया है, जिस पर अफसोस और चिन्‍ता होती है। इस मामले का उल्‍लेख मेरी पिछली पोस्‍ट 36 खसम पर है।

रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र दैनिक 'छत्‍तीसगढ़ वॉच' ने इसकी सुध ली है।
20 फरवरी, मंगलवार को मुखपृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
21 फरवरी, बुधवार को अंतिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
इसके अलावा ललित शर्मा जी ने फेसबुक पर तथा वरुण कुमार सखाजी ने भड़ास पर इसकी चर्चा अपने-अपने ढंग से की है। इस बीच पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए अध्‍यक्ष, छत्‍तीसगढ़ राज्‍य महिला आयोग के हस्‍ताक्षर युक्‍त प्रेस विज्ञप्ति में उल्‍लेख है कि आयोग, लेखिका को नोटिस जारी कर स्‍पष्‍टीकरण मांगेगा और कार्यवाही करेगा।
इस संचार युग में यह खोज-खबर 'द हिन्‍दू' को होगी ही, लेकिन शायद बड़े पत्र-पत्रकार को 'छोटी-मोटी' बात की परवाह कहां... सवाल कि ये कैसा हिन्‍दू और ये कैसी लक्ष्‍मी है?

Saturday, February 18, 2012

36 खसम

छत्‍तीसगढ़ से जुड़ी किंवदंती? पर दो स्‍थानीय लोगों की उत्‍तेजक बातचीत से आह्लादित पत्रकार सुश्री लक्ष्‍मी शरथ (Lakshmi Sharath) ने बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ पर यात्रा-वृत्‍तांत लिखा है, शीर्षक है - CHATTISGARH: Watching in delight as two locals heatedly discuss the legend associated with the State

लेख में कहा गया है- The local women saw Sita with two men and exclaimed she had two husbands. “Sita immediately retorted that each of these women will have Chattison (36) husbands,” says Mumtaj as we break into laughter. Toppoji and Mumtaj continue to discuss how most women in Chhattisgarh do have multiple husbands, although Mumtaj adds hurriedly: “Not everybody though.

अनुवाद कुछ इस तरह होगा- ''स्थानीय महिलाओं ने दो पुरुषों के साथ सीता को देखा और कहा कि इसके तो दो पति हैं, सीता ने तत्‍क्षण व्‍यंग्‍यपूर्वक कहा, इनमें से प्रत्येक औरत के छत्‍तीसों (36) पति हों। मुमताज के ऐसा कहते ही हम ठठाकर हंस पड़े । टोप्‍पोजी और मुमताज आगे बात करते रहे कि कैसे छत्‍तीसगढ़ की अधिकतर महिलाओं के बहुत सारे खसम होते हैं यद्यपि, मुमताज ने जल्‍दी से कहा, सबके साथ नहीं।''
सुश्री शरथ ने लांछनापूर्ण लेखन कर, बरास्‍ते विवाद, धार्मिक भावना और छत्‍तीसगढ़ की अस्मिता को चोट पहुंचाने का भर्त्‍सना-योग्‍य तथा अभद्र कार्य किया है। पाश्‍चात्‍य बौद्धिक जगत से प्रेरित, भ्रमित और गैर-जिम्‍मेदार लेखक, तात्‍कालिक प्रसिद्धि और बिकाऊपने के लिए ईश निन्‍दा का भी रास्‍ता अपना लेते हैं, उनका यह लेखन चर्चित होने का ऐसा ही ओछा और सस्‍ता हथकण्‍डा दिखता है।

'द हिन्‍दू' जैसे अखबार में ऐसी सामग्री प्रकाशित होना चिंताजनक है और इस पूरे मामले में मुझे (बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ में रहे श्री पा ना सुब्रहमनियन तथा छत्‍तीसगढ़ में रचे-पचे डा. बी के प्रसाद सहित), हम सबके मर्यादित बने रहने पर अफसोस हो रहा है।

Sunday, October 30, 2011

हमला-हादसा

18 अक्टूबर की शाम लखनऊ में घटित, अरविंद केजरीवाल वाली घटना के बाद समाचारों में हमला और हादसा शब्द बार-बार आने लगा।
घटना, हमला और हादसा न कही जाए तो समाचारों की दुनिया सूनी होने लगती है शायद, क्योंकि बात चप्पल-जूते चलने तक हो तो यह कोई समाचार हुआ, वह तो कहीं भी, कभी भी हो जाता है।
अखबारों में यह खबर मुखपृष्ठ पर प्रमुखता से छापी गई थी, लेकिन (गनीमत रही कि) एक अखबार जो हमला-हादसा शब्द से बच रहा था, वह 'चप्पल चला दी' और 'चप्पल फेंक कर मारी' तक सीमित रहा, किन्‍तु इस अखबार में खबर एक कालम में सिमट गई है।

खबरों में बताया गया है कि अन्ना ने इसे लोकतंत्र पर हमला कहा है। यह भी कि श्री केजरीवाल पर हमले के बाद जितेंद्र की इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्यों ने जम कर पिटाई की। बाद में श्री केजरीवाल ने हमलावर को माफ भी कर दिया।
इस संदर्भ में कुछ सवाल हैं-
? हमला, हादसा और हमलावर शब्द का इस्तेमाल,
? घटना को लोकतंत्र पर हमला कहा जाना,
? इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्यों द्वारा जितेंद्र की जम कर पिटाई,
? पीटने वाले सचमुच इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य थे,
? ऐसी जम कर पिटाई भी 'हमला' कही जा सकती है,
? जितेंद्र की पिटाई पर वक्‍तव्‍य/कार्रवाई।

ऐसा हर ''हमला-हादसा'' मेरी दृष्टि में असहमति-योग्‍य है।

इस बीच यह भी खबर है कि 6 नवम्‍बर 2001 को नागपुर में अरविंद केजरीवाल का भाषण हुआ और इस मौके पर 'घंटानाद' संस्‍था के कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध किए जाने पर उनके कार्यकर्ताओं ने विरोधियों की जम कर पिटाई की है।
(समाचार पत्र 'आज की जनधारा', रायपुर के ब्‍लॉगकोना स्‍तंभ में 27 नवंबर 2011 को प्रकाशित)

Friday, July 22, 2011

सूचना समर

सूचना का महत्व सदैव रहा है, किन्तु सूचना और सूचक की भूमिका ने जैसा रुख पिछले दशकों में अख्तियार कर लिया है, उसे सूचना समर कहा जाना ही उपयुक्त लगता है। सूचकों द्वारा बरते जा रहे शब्दों में यह पूरी तरह से साफ-साफ दिखाई पड़ता है। सद्‌भावना विकसित और स्थापित करने के उद्देश्य से आयोजित खेल की खबरों में पहले तो पहलवानी अखाड़े के मुहावरे इस्‍तेमाल होते रहे- दूसरे दल, विरोधी को पछाड़ा जाता, पटखनी दी जाती, चारों खाने चित्‍त कर धूल चटाया जाता। अब खेल-खबरों में दुश्‍मन को दांत खट्टे कर मजा तो चखाया ही जाता है, टांग और कमर तोड़ते हुए फतह भी होती है, रौंदकर मटियामेट किया जाता है, भारत और श्रीलंका के मैच राम-रावण युद्ध बन जाता है। इस दौर में संजय द्विवेदी का संकलन 'इस सूचना समर में' मीडिया की नब्ज पर रखी वह उंगली है, जो पाठक को सहज ही बीमार का हाल बता देती है। संकलन की सभी 66 टिप्पणियां, मूलतः 5-6 वर्षों में अलग-अलग लिखी गई सूचना की आवश्यकता-पूर्ति के लिए की गई रचनाएं हैं।
इस समर के और दो पहलुओं का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कबीर कहते थे- 'तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी'। ताल-ठोंक, ठेठ लहजे में कही गई बात अब उलटबांसी लगती है। कुछ वर्षों पूर्व समाचार के रूप में पढ़े और सुने जाने वाले शब्दों को विश्वसनीय बनाने के लिए तथ्य-सूचना एकत्र कर खबर गढ़ी जाती थी लेकिन अब, जब खबरों के दृश्य माध्यम का चलन बढ़ गया है, 'आंखन देखी' के लिए फाइल चित्र भी सहज-सच्चे बन जाते हैं या किसी घटना के दौरान संयोगवश विसंगत कोई दृश्य मिल जाने पर वह समाचार को एक्सक्लूसिव बना देता है और ऐसे दृश्य से बहुधा घटना की अविश्वसनीय व्याख्‍या भी हो जाती है। समाचार दर्शक को इस पर विश्वास करना ही पड़ता है, 'आंखन देखी' जो है।

विचारणीय पहलू यह भी है कि आतंक, हिंसा और दंगा क्षेत्रों से सनसनीखेज खबरें ही आती हैं, सौहार्द-प्रसंग नहीं, अगर आए तो समाचार का वैसा दर्जा उन्हें नहीं मिल पाता क्‍योंकि वह समाचार नहीं, साफ्ट स्टोरी है। रिपोर्टर भी क्या करे, कंपनी ने उसे खर्च कर मौके पर इसलिए तो भेजा नहीं है कि वह दंगा क्षेत्र से अमन का पैगाम ले कर आए, वह तो आया है अधिक से अधिक क्रूर और वीभत्स, उन्माद और हिंसा के जीवंत दृश्य के फुटेज इकट्ठा करने। अन्ततः, रोमांचक नजारों के साथ सनसनीखेज खबरें, साम्प्रदायिक खतरनाक स्थितियों सहित आशंकापूर्ण भविष्य की झांकी गढ़ डालती हैं और ऐसे परिणाम लाती हैं, जो लक्षित कतई नहीं होता।

पुस्तक के दो खण्डों में 'राजनीति' और 'लोग' हैं। 'राजनीति' में, तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों और दलों पर न सिर्फ बेलाग टिप्पणी है, बल्कि सटीक विश्लेषण भी किया गया है। यह विश्लेषण अखबारी होते हुए भी तत्कालीन परिस्थितियों से उपजी प्रतिक्रिया का 'हॉट केक' नहीं है, इसलिए समय बीत जाने पर भी प्रासंगिक और पठनीय है। 'लोग' खण्ड विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें राजनीतिज्ञों के साथ-साथ, सामाजिक सरोकार रखने वाले अन्य चरित्रों का भी चित्रण है। व्यक्तित्वों में सुभाषचंद्र बोस और राममनोहर लोहिया से लेकर निर्मल वर्मा और अरूंधती राय सहित टी.एन. शेषन और राष्ट्रीय प्रमुख नेताओं को एक साथ रखना अपने आप में उल्लेखनीय है। इन सभी व्यक्तित्वों के मूल्यांकन का आधार मुख्‍यतः उनकी कथनी नहीं, बल्कि उनकी करनी को बनाया गया है इसलिए यह न्यायोचित हो जाता है, विशेषकर इसलिए भी, जब उनके मानवीय सकारात्मक पक्षों पर अधिक बल देते हुए उस पर गंभीरता से विचार किया गया हो।

'राजनीति' खण्ड के कुछ शीर्षकों का उल्लेख आवश्यक है, जो आकर्षक तो हैं ही अर्थवत्ता और रचना की गहराई का आभास कराने में भी समर्थ हैं। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिन्दु है जहां संजय की लेखनी पत्रकारिता और साहित्य की रूढ़ सीमा को झुठलाती हुई, पाठक को इस भेद के मात्र आभासी होने का विश्वास दिला देती है। इस खण्ड के कुछ शीर्षक हैं- लालकिला केसरिया होगा, सोनिया को सराहौं या सराहौं सीताराम को, कौरवों ने फिर किया अभिमन्यु वध या कौन काटेगा नफरत के ये जंगल; किन्तु एक संवेदनशील पत्रकार की उकताहट 'इस फिजूल बहस से फायदा क्या है ?' जैसे शीर्षक में झलक जाती है।

कुछ शब्द और जुमलों की आवृत्ति बार-बार हुई है। अलग-अलग प्रकाशित होने पर यह रचनाकार की शैली या उसे आकर्षित करने वाले शब्द माने जाते और खटकते भी नहीं, किन्तु संकलन में पढ़ते हुए, इनका दुहराया-तिहराया जाना, बाधा डालता है। संभवतः इन रचनाओं को संकलन के लिए संपादित करने के बजाय यथावत रखे जाने से ऐसा हुआ है।

संक्षेप में 'समर' के इस माहौल में भी टकसाली शब्दों के साथ संतुलित विश्लेषण और संयत रचनात्मक दृष्टि के कारण संकलन प्रभावित करता है। राष्ट्र और राजनीति के ऐसे 'टर्निंग प्वाइन्ट', जो सूचना समर में 'बैनर' न बनें, लेकिन दूरदर्शी के लिए विचारणीय बिन्दु होते हैं और उनका महत्व भी दीर्घकालिक होता है, ऐसी सामग्री का समावेश ही इस पुस्तक को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।

2003 में प्रकाशित इस पुस्तक को पढ़ कर, मेरे द्वारा उसी समय लिया गया नोट, जिसमें पुस्‍तक पर कम और पुस्‍तक के बहाने मीडिया पर अपनी सोच की बात अधिक है, मेरी जानकारी में अब तक अप्रकाशित भी है, इसकी प्रति संजय जी को दी थी या नहीं, याद नहीं।

Friday, March 11, 2011

सबको सन्मति ...

राष्ट्रीय स्तर पर उपजी विसंगत स्थितियों का विचार करते हुए ईश्वर के बहाने गांधी ही याद आते हैं, यही कारण होगा कि मायाराम सुरजन जी के संकलन का शीर्षक है-'सबको सन्मति दे भगवान', मानों गांधीजी की प्रार्थना सभा । पुस्तक में अस्सी के दशक और नब्बे के शुरूआती वर्षों में हुई सामाजिक उथल-पुथल की पड़ताल करते लेख हैं। यह कालखण्ड है- अयोध्या विवाद, शहबानो, काश्मीर, सिख और तथाकथित ईशपुरूषों का, साथ ही रायपुर से जुड़े तत्कालीन कुछ प्रसंग, जो भारतीय सामाजिक दशाओं की निगरानी के लिए 'इण्डेक्स' माने जा सकते हैं, ऐसे ही मुद्‌दों पर वैचारिक विमर्श, इस पुस्तक में संग्रहित है। इस तरह पुस्तक की प्रकृति स्वयं 'विश्लेषण और टिप्पणी' की है, अतः अब टिप्पणी के बजाय इसकी अंतरधारा पर चर्चा अधिक समीचीन होगी।

फ्लैप का वाक्य है- ''सारी सांस्कृतिक परम्पराएं जैसे राजनीतिक एवं सामाजिक वहशीपन का शिकार होती जा रही है।'' तल्ख लगने वाली यह टिप्पणी गंभीर विचार के लिए उकसाती है। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र, भारत- धर्म प्रधान देश है, जिसका इतिहास धार्मिक-सामाजिक समरसता के प्रमाणों से सराबोर है, किन्तु इतिहास और परम्पराओं की चर्चा में तथ्यों का चयन और उनकी व्याख्‍या, बहुधा युगानुकूल और जरूरतों के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि 'सत्यार्थ प्रकाश', अपने प्रकाशन काल में धर्मों के तार्किक विश्लेषण का महत्वपूर्ण ग्रंथ, आज कथित उदारता और विकास के दौर में खतरनाक विस्फोटक सामग्री जैसा माना जा सकता है।

'धर्म' की पृष्ठभूमि पर रचित कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र', वस्तुतः 'राजनीति' का ग्रंथ है। यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि यदि समाज का ढांचा आपसी मानवीय संबंध के ताने-बाने पर खड़ा होता है तो वृहत्तर सामाजिक प्रसंग, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और राजसत्ता के माध्यम से आकार लेते हैं, इसलिए इन तीनों सत्ताओं का आपसी तालमेल स्वाभाविक है। पुस्तक में विश्लेषण के ऐसे संकेत लगातार विद्यमान हैं और जहां भी विशेषकर राजसत्ता और धर्मसत्ता का घालमेल हुआ है, उसे प्रखर टिप्‍पणी सहित रेखांकित किया गया है। 'अर्थ' की जमीन पर खड़े 'राज' के सिर पर 'धर्म' का वितान होता है, यह समाज की सम्यक दशा भी मानी जा सकती है, किन्तु इसका व्यतिक्रम कैसे बखेड़े पैदा करता है, उसका दस्तावेज यह पुस्तक है।

पुस्तक का एक महत्वपूर्ण और विचारणीय पक्ष विधायिका, कार्यपालिका से आगे न्यायपालिका और सबसे ऊपर जनता की आवाज पर बातें हैं। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, अखबार से यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है। न्यायपालिका के हस्तक्षेप की स्थिति निर्मित होना या अनावश्यक न्यायपालिका का मुंह ताकना, इस पर उच्चतम न्यायलय द्वारा एकाधिक बार टिप्पणी की जा चुकी है। इस दौर में यह भी गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि घटनाएं और मीडिया की खबरें यदि झुठलाई नहीं जा सकती, तो क्या वे इतनी भी सच होती हैं कि उसे जनता की आवाज मान लिया जाय ॽ हाल के अनुभव से तो घटनाएं, और विशेषकर मीडिया में स्थान प्राप्त घटनाएं, जनता की आवाज का सच नहीं मानी जा सकतीं। यदि एक हकीकत यह है कि घटनाओं का विस्तार अक्सर आयोजित-प्रायोजित होता है, स्वाभाविक नहीं, तो दूसरी तरफ मीडिया के लिए 'उन्माद' की तुलना में 'सद्‌भाव' के खबर बनने की संभावनाएं भी कम होती हैं, यह संकट भी दिनों-दिन गहरा रहा है। धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है और गैर के धर्म की निंदा के लिए भी यही नकाब काम आसान करता है। मीडिया की तटस्थता और निष्पक्षता का नकाब, रोमांचक और आकर्षक खबर परोसने की राह आसान बना देता है। (बड़े खर्च के साथ मौके पर पहुंच कर सनसनी वाली खबर न निकले, तो बात कैसे बनेगी ॽ)

धर्म की उत्पत्ति भय से हुई है, इस पर मतैक्य नहीं है, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं कि इतिहास में बारम्बार और इस दौर में विशेषकर धर्म के साथ संकट, आशंका और भयोन्माद का माहौल रचकर धर्म के फलने-फूलने की तैयारी दिखायी देती है। ऐसा लगता है मानों हमारे देश में दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं के लिए सभी संतुष्ट हैं, अन्यथा मानसिक रूप से स्वावलम्बी स्थिति है, क्योंकि ऐसे कारक सामाजिक स्तर पर संवेदना के कारण नहीं बन पाते, किन्तु धार्मिक मामलों में पूरा देश बहुत जल्दी आश्रित होकर किसी व्यक्ति, किसी मुद्‌दे, किसी अफवाह की गिरफ्त में आ जाता है। यदि सामाजिक गतिशीलता के मुद्‌दे रोजमर्रा की जरूरतें हों, तब शायद स्थिति बदल सकती है।

फिर भी जैसा कि पुस्तक के आरंभ में कहा गया है कि इसमें सांप्रदायिकता और धर्मांधता के खिलाफ लिखे गए लेख संकलित हैं। समाचार पत्र में समय-समय पर छपे इन लेखों की अंतरधारा स्पष्ट है और इसका पुस्तकाकार प्रकाशित होना स्वागतेय है, क्योंकि इन लेखों का महत्व दैनिक और स्फुट मात्र नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और स्थायी स्वरूप का है।

सन 2002 में पाठक मंच, बिलासपुर के लिए मेरे द्वारा तैयार की गई, अब तक अप्रकाशित पुस्‍तक चर्चा। लगा कि पुस्‍तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए स्‍वतंत्र लेख की तरह पठनीय है, सो अब यहां प्रस्‍तुत।

Monday, December 6, 2010

खबर-असर

खबरदार, आपके आस-पास खबरी हैं तो आप, आपकी हरकत या ना-हरकत भी खबर बन सकती है, क्योंकि खबरें वहां बनती हैं जहां खबरी हों जैसे पोस्ट वहां बन सकती है जहां ब्लॉगर हो। खबरों के लिए घटना से अधिक जरूरी खबरी हैं और कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्लॉगर की तो पोस्ट अच्छी बनती ही तब है जब कोई मुद्‌दा न हो, वरना 'मीनमेखी' (सुविधानुसार इसे 'गंभीर टिप्पणीकार' पढ़ सकते हैं) पोस्ट को पूर्वग्रह से ग्रस्त अथवा बासी मान लेते हैं।

यह सूक्ति या थम्ब रूल बनाने का प्रयास नहीं, एक सचित्र खबर को पढ़ते हुए लगा कि कोई ब्लॉग पेज तो नहीं देख रहा हूं फिर इसका कैप्‍शन सोचते-सोचते इसकी लंबाई बढ़ गई, बस। पहले यह देखें-

अब सीधे विकल्प पर आइए-

1/ खबर पर ब्लॉग का असर है,
2/ किसी ब्लॉगर की लिखी खबर है,
3/ यह खबर कम ब्लॉग पोस्ट अधिक है,
4/ ब्लॉग पोस्ट और खबर के बीच का फर्क कम हो रहा है।

असमंजस है कि क्या चारों सही या सभी गलत का विकल्प भी दिया जाना चाहिए। अपनी भूमिका भी आप ही चुनें- बिग बी, हॉट सीट या क्विज मास्टर। हां! लेकिन किसी ईनाम-इकराम की गुंजाइश नहीं है, यहां।

यहां किसी ब्लॉगर सम्मेलन के लिए टॉपिक तय करने की कवायद भी नहीं है, यह तो यूं ही, कुछ भी, कहीं भी टाइप है, लेकिन खबरों पर नजर रखने वाले और खबरों की खबर लेने वालों के साथ सभी पहेली-बुझौवलियों को विशेष आमंत्रण।