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Thursday, February 10, 2022

कलचुरि राज परिवार

बात यही कोई 25-30 साल पुरानी है। हमारे बिलासपुर आफिस में एक सज्जन पधारे। दुआ-सलाम के बाद मैंने आने का प्रयोजन पूछा। उन्होंने कहा कि कलचुरियों का इतिहास जानना चाहते हैं। इतने संक्षिप्त के बावजूद समझ में आ रहा था कि ये न पत्रकारों वाली पूछताछ है, न शोधकर्ता की, कोई किताब लिखने वाला प्राणी भी नहीं लगा, प्रश्न करने का ढंग संयत और शालीन था। मैंने जवाब दिया, ढेरों जानकारियां हैं, मगर बिखरी हुई, आपको किस तरह की जानकारी (क्यों?) चाहिए। इस पर जवाब आया, वह चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा मैं रतनपुर कलचुरि परिवार का वंशज बड़गांव वाला राजेश्वर सिंह हूं। मेरे सामने हजार साल का इतिहास जीवंत हो गया। बातें होने लगीं, मैंने कहा कि मुझे तो आपसे अपेक्षा है कि आपके परिवार संबंधी इतिहास की कुछ ऐसी जानकारी मिल जाएगी, जिससे हम अभी तक अपरिचित हैं। उन्होंने बताया कि उनके पास ऐसा कुछ नहीं है। मैंने तत्काल, प्रकाशित सामग्री की जो छायाप्रति दी जा सकती थी, उन्हें सौंपा। फोन नं., पता लेन-देन हुआ फिर चाय-पान और विदा। कभी यह किस्सा मंजुसांईनाथ को सुना रहा था, उन्हें इन बातों में कुछ खास दिखा और वे तैयारी में जुट गए, फिर एक दिन बताया कि वे सबसे मिल कर आ गए हैं और इतिहास की बारीकी टटोलने लगे। थोड़े दिन बाद इंडिया टुडे के 12 अक्टूबर 2005 अंक में यह छपा, स्थायी संदर्भ जैसे महत्व का मान कर, सुरक्षित और सार्वजनिक करने हेतु यहां यथावत- 


विरासत  छत्तीसगढ़/कल्चुरी राजवंश 

काल की मार से चूर 

भारत में संभवतः सबसे लंबे समय तक राज करने और छत्तीसगढ़ की संस्कृति तथा जीवन शैली पर 
अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले कल्चुरी राजवंश का अब क्रूर नियति से सामना 

भारत में कभी सबसे लंबे समय तक राज करने वाले परिवारों से एक सूर्यवंशी राज परिवार अंधेरों में खोता जा रहा है। लेकिन अटूट आस्था राजेश्वर सिंह को उनके पुश्तैनी गांव महासमुंद जिले के राजा बडगांव में चंडी देवी के उस मंदिर में आशीर्वाद के लिए ले आती है जिनके प्रताप से यह परिवार सदियों तक चमकता रहा।

59 साल की उम्र में भी राजेश्वर सिंह अपने परिवार के अनुकूल प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे छत्तीसगढ़ के भाग्य निर्माता और राज्य के बाशिंदों की जीवन शैली पर अमिट छाप छोड़ने वाले कल्चुरी राजवंश का इकलौता जाना-पहचाना चेहरा हैं। छत्तीसगढ़ की संस्कृति और विशिष्ट जीवन शैली पर यह कल्चुरी प्रभाव ही था कि यह क्षेत्र बहुत पहले शेष मध्य प्रदेश से अलग हो गया था।

कल्चुरी महाभारत काल में हैहयवंशी माने जाते थे। वे चेदि देश के शासक भी थे और संभवतः महाभारत का शिशुपाल उनका पुरखा था। हैहयवंशियों के बारे में अधिकृत प्रमाण दूसरी सदी के बाद तब मिलते हैं, जब वे इंदौर के पास महिष्मती, जो अब महेश्वर कहलाता है, से उभरे। कृष्णराज कल्चुरी वंश का सबसे ताकतवर राजा था और उसी ने इस राजवंश को स्थापित किया।

कल्चुरी राज की सीमाओं के विस्तार का श्रेय कोकल्ल प्रथम को जाता है जिसने अपने राज्य को फैलाया और 8वीं सदी में जबलपुर के पास त्रिपुरी में अपनी राजधानी स्थापित की। इस अवधि के दौरान बाण शासक, जो पल्लवों के सामंत थे, छत्तीसगढ़ में राज कर रहे थे और बिलासपुर के पास पाली उनकी राजधानी थी। इतिहास बताता है कि कल्चुरी वंश के मुग्धतुंग ने छत्तीसगढ़ पर हमला किया और 10वीं सदी में बाण शासकों को पराजित किया। मगर इसके पहले कि कल्चुरी पाली में सुख लूटते, प्रतिशोध से भरे बाण शासकों ने कल्चुरियों पर हमला कर उन्हें हरा दिया और अपने हारे हुए इलाके फिर जीत लिए। मुग्धतुंग के एक उत्तराधिकारी कलिंगराज ने फिर बाण शासकों पर हमला किया और उन्हें छत्तीसगढ़ से खदेड़ दिया। उसने तुम्माण (वर्तमान में बिलासपुर के पास तुम्मान) को राजधानी बनाया। कल्चुरी वंश का सबसे प्रतिभावान शासक कलिंगराज का पौत्र रतनदेव था जिसने बिलासपुर के पास रतनपुर में राजधानी बनाई। यह स्थान आज भी कल्चुरियों की कुलदेवी देवी महामाया के निवास रतनपुर के रूप में मशहूर है। इस वंश का एक और प्रतापी राजा जाजल्लदेव था जिसके नाम से राज्य में जांजगीर जिले का नाम पड़ा था। कल्चुरियों की एक शाखा ने 14वीं सदी में रायपुर की स्थापना की।

मगर 1740 ईस्वी में जब मराठों ने रतनपुर पर हमला कर उन्हें हरा दिया। उस समय रघुनाथ सिंह रतनपुर का राजा था। हार के बाद कल्चुरियों को बड़गांव में जमींदार के रूप में रहना पड़ा। ऐशो-आराम के अभ्यस्त कल्चुरियों को बडगांव से मिल रहे राजस्व से मुश्किल हो रही थी। उन पर तरस खाकर मराठों ने उन्हें पांच गांव गोइंदा, मुढ़ेना, नांदगांव, भालेसर और बडगांव दे दिए और उन्हें कर न चुकाने की भी छूट दे दी। यह व्यवस्था देश के आजाद होने तक जारी रही। भारत के अन्य राजाओं या जमींदारों की तरह बड़गांव के कल्चुरियों के लिए भी आजादी खुश होने का सबब नहीं थी क्योंकि उनके सारे अधिकार छीन लिए गए और उन्हें प्रजा के बराबर कर दिया गया था।

पुरातत्व के उपनिदेशक राहुल कुमार सिंह दावा करते हैं कि कल्चुरी भारत में एकमात्र राजवंश है जिसने सबसे लंबे समय तक शासन किया। उन्होंने 10वीं सदी से 1740 ईस्वी तक यानी करीव 740 वर्ष तक राज किया। छत्तीसगढ़ के नामी इतिहासकार प्रभुलाल मिश्र की राय है, ‘‘कल्चुरी इसलिए सबसे लंबे समय शासक बने रहे क्योंकि उनके पास प्रशासन का बड़ा तामझाम नहीं था और वे सार्वजनिक जीवन में सबसे कम दखल देते थे। सो, लोग भी खुश थे।

मिश्र जोर देकर कहते हैं कि कल्चुरियों ने अपने राज में जातिवाद को कभी भी बढ़ावा नहीं दिया और समाज में मेलजोल की परंपरा बढ़ाई। वे कहते हैं, ‘‘मितान या महाप्रसाद की परंपरा कल्चुरी काल में ही शुरू हुई। छत्तीसगढ़ में ही मिलने वाली मितान परंपरा अनूठी है जिसमें दो भिन्न जातियों के लोग महाप्रसाद में बंधते हैं और मरते दम तक इसे निभाते हैं। इस संबंध को खून के रिश्ते से भी ज्यादा पवित्र माना जाता है।‘‘

छत्तीसगढ़ को उन्होंने अच्छी प्रशासनिक प्रणाली, सांस्कृतिक विकास, मंदिर निर्माण और जलप्रबंधन जैसा बड़ा योगदान दिया। पुरातत्वविद् डॉ. शिवकांत वाजपेयी कहते हैं, ‘अगर हमें छत्तीसगढ़ के गांवों-शहरों में कई तालाब मिलते हैं तो इसकी वजह कल्चुरी है।‘‘

इतने शानदार अतीत वाला यह परिवार आज बडगांव के एक कोने और मुढ़ेना गांव में एकांत जीवन जी रहा है। मुढ़ेना के एक जीर्ण-शीर्ण घर में राजेश्वर सिंह पत्नी, दो बेटों और 94 वर्षीया मां तथा भतीजे के साथ रहते हैं। उन्होंने अब गरीबी को ही अपनी नियति मान लिया है। राजेश्वर कहते हैं, ‘‘निश्चित ही हमें हमारा अतीत कचोटता है। पर हमारे पुरखे छत्तीसगढ़ के राजा थे, इस तथ्य से हमें रोटी नहीं मिलती। हमें संघर्ष करना पड़ता है, इसलिए संघर्ष कर रहे हैं। मौजूदा हालात हमारे अतीत के अनुसार नहीं हैं मगर इसे हमने अपनी जिंदगी का तरीका मान लिया है।‘‘

संपत्ति के नाम पर राजेश्वर के पास 30 एकड़ जमीन और महानदी के तट पर एक खान का पट्टा है। वे भी अन्य कल्चुरियों की तरह हैं जो शासक से किसान बन गए हैं। रायपुर के साइंस कॉलेज से स्नातक राजेश्वर ने एक बार राजनीति में भी भाग्य आजमाया मगर उसने साथ नहीं दिया। वे कहते हैं, ‘‘मैं कांग्रेस का कार्यकर्ता और विद्याचरण-श्यामाचरण शुक्ल का समर्थक था पर जब 1985 में मुझे टिकट नहीं दिया गया तो मैं निर्दलीय लड़ा।‘‘ नतीजा. वे भारी वोटों से हारे और इस हार से करीब दो लाख रु. की चपत लगी। इस नुक्सान ने उन्हें तोड़ दिया। फिर भी राजनीति से उनका प्रेम खत्म नहीं हुआ है। समय-समय पर उन्होंने पंचायत तथा अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव लड़े। पर एक मामले में कल्चुरियों ने समझौता नहीं किया है, वह यह कि वे अभी भी अतीत के शाही परिवारों से ही वैवाहिक रिश्ते रखते हैं।

हैहयवंशी कल्चुरी परिवार अब बिखर गया है। राजेश्वर के बड़े भाई दलगंजन सिंह सहायक खाद्य अधिकारी पद से रिटायर होकर रायपुर में रह रहे हैं। रिटायर्ड स्कूल इंस्पेक्टर मनोरंजन सिंहदेव कांकेर में हैं, आदिमजाति कल्याण विभाग से सेवानिवृत्त एकाउंटेंट बसुरंजन सिंह महासमुंद में रहते हैं जबकि भूपेंद्र सिंह बड़गाव में किसान हैं। कल्चुरी वंश के एक सदस्य चंद्रध्वज सिंह एक प्राइवेट फर्म में सुपरवाइजर हैं। सत्यवान सिंह बडगांव के पास अच्छीडीह में किसानी करते हैं और लाल शिवकुमार सिंह बैंक अधिकारी पद से सेवामुक्त होकर भालेसर में बसे हैं। परिवार के एक और वंशज शिवनारायण सिंह ओडीसा के बलांगीर की एक फैक्टरी में हैं जबकि दो भाई नरेंद्र सिंह तथा महादेव सिंह बडगांव के पास गोइंदा में कृषक हैं।

राजेश्वर सिंह तथा कल्चुरी वंश के दूसरे उत्तराधिकारियों के लिए इतिहास प्रेरणास्पद, प्रसन्न करने वाला और क्रूर भी है।
-जी. मंजूसाईनाथ

परिशिष्ट- 
यह पोस्ट लगाते हुए कुछ संकोच हो रहा था, क्योंकि इस राज परिवार के 700 वर्ष के इतिहास और स्थिति की वर्तमान से कोई तुलना नहीं हो सकती, इसका औचित्य भी नहीं है। परिवार के लाल विजय सिंहदेव जी से मेरा परिचय रहा है और इस पोस्ट के बाद अन्य सदस्यों से भी संपर्क हुआ। महसूस हुआ कि व्यवहार में अब भी गरिमा और शालीनता के साथ सहज-सरलता की कोई कमी नहीं है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि संभवतः छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान में परिवर्तन, इस परिवार के आधिपत्य के बाद तेजी से आया, इसलिए परिवार के सदस्यों से मिलना और बात करना, ऐसा महसूस होता है कि छत्तीसगढ़ के गरिमामय और सौहार्द के सदियों पुराने, प्रतिष्ठापूर्ण इतिहास से जुड़ना है। इस दौरान पोस्ट पर ललित शर्मा जी की महत्वपूर्ण टिप्पणी आई है, जो वस्तुस्थिति को तार्किक ढंग से स्पष्ट और अद्यतन करती है, यहां जोड़ी जा रही है-

स्व: राजेश्वर जी सम्पन्न थे, तभी 1986 में 2 लाख रुपये खर्च कर निर्दलीय चुनाव लड़े थे। इनके पास सबसे बड़ी फर्शी माइंस थी, तब 300 लेबर काम करते थे। आज भी सबसे बड़ी माइंस उन्हीं की है मूढ़ेना में। उनमे दो खानों में लगभग 150 लोग काम कर रहे होंगे। आज 4 फैक्टरी और सबसे बड़ी 2 खदान मूढ़ेना का उन्ही के भतीजों और उनकी पत्नी की है। इनके भतीजे रायपुर देवेन्द्र नगर में हैं। लाल विजय सिंह की एक फैक्ट्री कलचुरी स्टोन नाम से है पर्याप्त जमीन भलेसर में है। 20 एकड़ खेती व 5 एकड़ आम जाम सीताफल का है बड़ा घर है। राजेश्वर सिंह जी का भी मूढ़ेना में बड़ा घर है।। लेकिन एकदम ही हालत बुरी है करके छपा है। स्थिति उतनी भी खराब नही थी जितना इन्होंने कहा। इस परिवार से 1 ibm में स्वीडन में है 2 सॉफ्टवेयर में, मेट्रो सिटी पुणे बंगलोर में हैं एक कांकेर नरहर देव में व्याख्याता हैं, एक sdo रैंक नगर निगम रायपुर में हैं, देवगढ़, सरायकेला, चिल्कीगढ़,पालकोट, चंद्रपुर और अम्बिकापुर के शंकरगढ़ लगभग हर जगह रिश्तेदारी है। कुल मिलाकर वर्तमान में स्थिति अच्छी है।