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Thursday, March 20, 2025

सुरेन्द्र परिहार का पत्र 19-5-1987

सुरेन्द्र परिहार सर, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग (यूटीडी) मैं मैं उनका/ यूटीडी का विद्यार्थी नहीं रहा, मगर पुस्तकालय और परिचितों के कारण, (1976-1981) लगभग प्रतिदिन 3 नंबर सिटी बस से वहां जाता था। (कहा जाता था कि जो यूटीडी में नहीं पढ़ा, उसकी आधी जिंदगी बेकार और जिसने वहां पढ़ाई कर ली उसकी पूरी...!🙂) समाजशास्त्र के इंद्रदेव सर, भाषा विज्ञान के रमेशचंद्र मेहरोत्रा सर, भूगोल के पीसी अग्रवाल सर किसी भी विद्यार्थी की जिज्ञासा समाधान के लिए सहज तैसार हो जाते। परिहार सर की बात निराली थी, कोई भी जिज्ञासु कभी भी उनसे मिलने उनके निवास पर जा सकता था (वे आजन्म अविवाहित रहे), वहां चाय भी मिल जाती थी, पुस्तक पढ़ने को ले सकते थे, लाइब्रेरी से किताब चाहिए और विद्यार्थी को न मिल पा रही हो (मैं उस लाइब्रेरी की सदस्य नहीं था, रीडिंग रूम की सुविधा ले लेता था और बाद में जान-पहचान हो जाने के कारण शोध-संदर्भ खंड में भी जा सकता था।), तो अपने खाते से निकलवा कर देते थे।

विश्वविद्यालयीन पढ़ाई के बाद भी उनके जीवन भर, उनसे मेरा संपर्क बना रहा, जिज्ञासुओं के प्रति उनके रवैये के बारे में उनसे परिचित सभी भलीभांति जानते हैं, जो अपरिचित हैं, इस पत्र से अनुमान कर सकते हैं- 

प्रिय राहुल, 

आपका 10 मई का पत्र एक सुखद अचरज रहा। इस बीच आपसे एक अर्से से मुलाकात नहीं हो पाई। यह जानकर मुझे बड़ा अच्छा लगा कि आप पुरातत्व विभाग में काम कर रहे हैं और अध्ययन और शोध में अपनी रुचि बराबर बना कर रखते हैं। 

आपने आदिम धर्म पर इस बीच परियोजना के लिये एक लेख लिखा है - यह सुखद सूचना है मानव विज्ञान में आदिम और आधुनिक धर्म दोनों पर मानव शास्त्री काफी लम्बे समय से काम कर रहे हैं और धर्म की मान्यताओं और विकास के सम्बंध में काफी बहसें चालती रहती है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न मानवशास्त्रियों ने यह उठाया कि मानव कि धर्म समाज में क्या काम करता है? आदिम अथवा आधुनिक समाज में उसकी क्या उपादेयता है? क्या तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति के कारण वह अपनी जगह खो चुका है? धर्म के क्षेत्र में होने वाली सभी बहसों में आपको मार्क्स के विचारों को अवश्य पढ़ना चाहिये। धर्म के विकास और उपादेयता पर मार्क्स और एंगेल्स ने यह कह कर बहुत गर्मी पैदा कर दी कि ‘‘धर्म जनता का अफीम है‘‘। मैं मार्क्स के विचारों से सहमत नहीं पर इस क्षेत्र में मावर्स को प्रतिभाशाली अवश्य मानता हूं। किसी अच्छी बहस की शुरुआत मार्क्स से की जानी चाहिए।

आदिम धर्म के क्षेत्र में हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में काफी साहित्य - समाजशास्त्र और मानवशास्त्र दोनों ही विषयों में। आप स्वयं यहां आकर कोई पुस्तक ले सकते हैं अथवा इस बीच यदि मैं बिलासपुर अकलतरा आया तो अपने साथ लेता आउंगा। अच्छा तो होगा यदि अपना वक्त निकाल कर यहां आयें तो काफी बातचीत रहेगी। 

पुरातत्व विभाग इन दिनों छत्तीसगढ़ में खनन का कहां कहां काम चला रहा है? बुद्धकालीन मूर्तियां और अवशेष सिरपुर को छोड़कर और कहां है, कृपया सूचित करें। मैं बिलासपुर आने पर आपके संग्रहालय को अवश्य देखना चाहूंगा।। 

शुभकामनाओं के साथ 
आपका शुभांक्षी 
सुरेन्द्र परिहार 
19/5/187

Tuesday, February 20, 2024

निगम सर को पत्र-1986

1986 का साल। तब न मेल, न मोबाइल। पत्र माध्यम होता था, अब लगता है कि ‘वे दिन भी क्या दिन थे‘ आदरणीय डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम (पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में विभागाध्यक्ष रहे, श्री शंकराचार्य व्यावसायिक विश्वविद्यालय, भिलाई के संस्थापक कुलपति), जिन्हें संबोधित यह पत्र है, बस इतना ही कहना है कि उनसे जितना पाठ-मार्गदर्शन कक्षा में मिलता था, शासकीय सेवा के दौरान मिलता रहा और अब भी मिलता रहता है। और खास कि यह पुर्जानुमा यह कागज उनके पास सुरक्षित था, उन्होंने मुझे वापस सौंप दिया। आगे पत्र का मजमून, जो अपना बयान खुद है-

आदरणीय गुरुदेव,

व्यग्रता के फलस्वरूप इस कागज पर पत्र लिख रहा हूँ, प्रथम समाचार ताला से प्रतापमल्ल का ताम्बे का एक सिक्का मिला है, ऐसे सिक्के बालपुर और संभव है अन्य sites से भी मिले हों.
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दूसरा यह कि पीछे मुण्डेश्वरी मंदिर का plan है जिसमें नीली स्याही से regular lines वाला हिस्सा वास्तविक plan है, पेन्सिल से भरा हिस्सा, एक तरफ मात्र दिखाई गई दीवाल है, जबकि काली स्याही से बनाई गई टूटी रेखाएँ extension हैं, जिनके द्वारा इस मंदिर को भी ताराकृति भू-योजना बनाने के इरादे में हूँ, निःसंदेह आपकी स्वीकृति एवं अनुमति के बाद, मंदिर का काल भी इधर के ‘कोसली‘ के कालों का ही है, अंतर यह है कि इनमें बाहिरी भाग पर plan है, मुण्डेश्वरी में भीतरी भाग पर, जैसा नीचे चित्र से स्पष्ट है। जोना विलियम्स ने कुछ अन्य प्रकार से इसे अष्टकोणीय, ताराकृति, पंचरथ, आदि कहते हुए एक अन्य नाम कश्मीर के ‘शंकराचार्य‘ का दिया है. 

कोसली → मुंडेश्वरी 

मेरे extension हेतु सचिवालय की विशेष सहृदयता देखने को मिली, और उन्होंने बहुत सामान्य से प्रयास के फलस्वरूप स्वतः ही 8.10.86 से अर्थात् लगभग 15 दिनों पूर्व extension order भेज दिया वह मुझे मिला, पिछले दिनों ही. इसमें आगे के लिए सुरक्षित मार्ग क्या हो सकता है, इसकी राय के लिए में स्वयं रायपुर उपस्थित होऊंगा, आपका मार्गदर्शन मूल्यवान होगा. 

इसी बीच आपका पत्र मिला, इसके लिए किसी टिप्पणी की स्थिति में मैं स्वयं को नहीं समझता, इतनी अतिरिक्त सूचना और देना चाहता हूँ कि इन सिक्कों पर जिस प्रकार का चक्र बनाया गया है ठीक वैसा ही, उतना ही सुन्दर colour polished terracotta चक्र हमलोगों को ताला से प्राप्त हुआ है, मैं उसके फोटोग्राफ व आकार आदि आपको लिख भेजूंगा, paper पढ़ने के समय आप वह भी प्रदर्शित कर सकते हैं या जिस तरह से आप उपयोगी मानें. 

श्री नगायच जी व आपको संयुक्त दीपावली शुभकामना नगायच जी के पते पर ही भेज चुका हूँ मिला होगा, सूचनाएं एवं अभिवादन से नगायच जी को भी अवगत कराइयेगा. हमारी नयी findings (ताला की) संबंधी समाचार chronical में प्रकाशित होगा, cuttings नगायच जी को भेज दूंगा. 

सपरिवार कुशलता की कामना सहित रायकवार जी का अभिवादन भी ग्रहण करेंगे। 

राहुल 

पुनश्चः बस्तर में (जगदलपुर) हो रहे परिषद के seminar के लिए मेरी कोई आवश्यकता समझें तो सेवा हेतु याद कीजिएगा. 

पत्र कार्यालय के पते पर भी भेज सकते हैं- 
Office of the Registering Officer (Arch.) 
Rajendra Nagar 
Bilaspur (M.P.)

Thursday, December 16, 2021

नारायण दत्त, राय गोविन्द चन्द्र

चिट्ठी-पत्री का दौर था। बड़े और व्यस्त लोग भी पत्रोत्तर जरूरी मानते थे। ऐसे दो महानुभावों के मुझ विद्यार्थी-पाठक के लिए पत्रोत्तर-

2/C कुलसुम टेरेस, 7 वाल्टन रोड,
बंबई 39
4 अक्तूबर 1980

प्रिय श्री राहुल कुमार जी,

आपका २६/९ का कृपापत्र नवनीत से भेजा जाकर मुझे आज मिला। आपने मुझे स्मरण किया और मेरे बारे में जानना चाहा, इसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।

नवनीत मैंने यथामति-यथाशक्ति सेवा की थी। आपको और अन्य कई स्नेही पाठकों मेरे परिश्रम के पीछे कोई दृष्टि नजर आती थी, यह मेरे लिए बड़े परितोष की बात है। नवनीत से आप सब पाठकों का स्नेह पूर्ववत् बना रहे, यह मेरी हार्दिक कामना है।

पिछले दिनों महीनों में मुझे आंखों के चार बड़े आपरेशन कराने पड़े। सो थोड़ा-बहुत अर्थोपार्जन करते हुए ज्यादातर समय स्वाध्याय और आराम में व्यतीत कर रहा हूं। हां, उम्र अभी निवृत्त होने योग्य नहीं हुई है। लेखन में मुझे शुरू से बहुत आसक्ति नहीं रही है। यों भी मैं सिर्फ अपने काम से मतलब रखने और जरा अलग-थलग रहने वाला जीव हूं। लिहाज़ा मेरी चर्चा आप कहीं नहीं सुनेगे। चर्चा हो इसकी मुझे चाह भी नहीं।

आपका स्वाध्याय फले-फूले, जीवन में आप सुखी हों। आपने पत्र लिखने का कष्ट किया इसके लिए पुनः धन्यवाद।

आपका
नारायण दत्त
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वाराणसी
दिनांक २३।९।१९८०

महोदय,
नमस्कार।

आपका कृपा पत्र दिनांक १८।९।८० प्राप्त हुआ अनेक धन्यवाद। मुझे बड़ा हर्ष हुआ कि किसी ने मेरी पुस्तक ‘हनुमान के देवत्व‘ का अध्ययन तो किया। जो सामग्री मुझे प्राप्त होगी उसको दुसरे संस्करण में सधन्यवाद प्रकाशित करूॅंगा। यदि आप हनुमान का चित्र भेज सके तो बड़ी कृपा होगी।

आपका

(डा. राय गोविन्द चन्द्र)

सेवा में,
राहुल सिंह, शासकीय संस्कृत महाविद्यालय,
रायपुर (म.प्र.)

Monday, December 13, 2021

पत्र- 10.10.98

डॉ. कल्याण कुमार चक्रवर्ती जी को मेरे द्वारा यह पत्र लिखा गया था। चक्रवर्ती सर, मध्यप्रदेश के दौरान पुरातत्व के संचालक, फिर आयुक्त रहे। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद प्रमुख सचिव और अपर मुख्य सचिव रहते हुए संस्कृति विभाग का जिम्मा उनके पास रहा। इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और परंपरा के प्रति उत्तरदायित्व उनमें, बतौर अधिकारी ही नहीं, जिम्मेदार नागरिक जैसा रहा है। सरकार और विभाग अर्थात राज्य हित तथा उसके साथ लोक हित के प्रति, विशेषकर छत्तीसगढ़ के लिए, उनकी परवाह, पद-निरपेक्ष रही है, आज भी है। (इस पत्र में आई बातों पर आगे चर्चा होगी, यह ध्यान में रखते हुए तब छायाप्रति रख लिया था, संयोगवश बची रह गई।)


दिनांक 10-10-98

आदरणीय सर,
सादर प्रणाम

21 अगस्त को विभागीय बैठक के लिए भोपाल का अवसर मिला था, किन्तु उस दौरान आपका प्रवास होने से भेंट न कर सका। इसी बैठक में AVRC, इन्दौर के लिए मुझे ताला पर स्क्रिप्ट लिखने का निर्देश प्राप्त हुआ था, जितना बन पड़ा, कामचलाऊ आलेख तैयार कर पिछले सप्ताह भेज दिया हूं।

डा. शंकर तिवारी जी पर प्रस्तावित प्रकाशन का पत्र मिला था, आपसे भेंट करने का प्रयास इस संबंध में भी जानकारी के लिए था, कि इस हेतु मैं किस प्रकार की सामग्री तैयार कर सकता हूं, आपसे मागदर्शन मिल जाता। पिछले वर्षों में हुई findings पर लिखने का प्रयास कर रहा हूं, किन्तु वह पूरा नहीं हो सका है, इस प्रकार की कोई सामग्री उपयोगी हो सकेगी अथवा नहीं और भेजने की निर्धारित तिथि करीब आ जाने से असमंजस में हूं।

इस बीच बिलासपुर में कुछ विभागीय कार्य कमिश्नर श्री उपाध्याय के मार्गदर्शन में हो रहे हैं, उनके, आदेशानुसार मुझे प्रति सोमवार कार्य की प्रगति की जानकारी देने और मार्गदर्शन प्राप्त करना होता है। कलेक्टर श्री सुशील त्रिवेदी जी भी रुचि लेते हैं, किन्तु इस स्थिति में मैं स्वयं को जिला प्रशासन के नियंत्रण का अंग महसूस करने लगा हूं, इसके लिए विभाग जब तक, उदार बना रहे, तब तक तो यह चल सकता है, अन्यथा खींचातानी की स्थिति बनते देर नहीं लगेगी। श्री उपाध्याय साहब, संचालक महोदय से और साथ-साथ श्री रायजादा जी, श्री अजय शंकर जी, EPCO आदि से लगातार सम्पर्क बनाये रखकर सभी कार्य मेरे माध्यम से कराये जाने के इच्छुक हैं, अभी फिलहाल ताला, जेठानी मंदिर के रसायनिकरण का काम हो रहा है और conservation, development कार्य आरंभ किया जाना है, रास्ते और वृक्षारोपण का कार्य भी कमिश्नर साहब ने करवाया है और नदी घाट निर्माण की भी तैयारियां हैं।

#रतनपुर पुल में लगी प्रतिमाएं निकाली जाकर कुल 88 प्रतिमाएं संग्रहालय हेतु संकलित कर ली गई हैं।

#डिडिनेश्वरी मंदिर, मल्हार का संरक्षण समाप्त कर दिये जाने की अधिसूचना प्रकाशन की जानकारी मिली है ।

#डीपाडीह के तीन कर्मचारियों के इस वर्ष की मजदूरी भुगतान के लिए राशि प्राप्त हो गई है। स्वर्गीय पल्टन राम की विधवा के भुगतान का प्रकरण अभी भी लंबित है।

#रूद्र शिव की फोटो के cover page वाला प्रकाशन किन्हीं नीलिमा चितगोपेकर की पुस्तक की जानकारी सुवीरा जायसवाल की लिखी समीक्षा, HINDU में प्रकाशित हुई, देखने में आई। पुस्तक मध्यप्रदेश में शैव धर्म पर है, मुखपृष्ठ पर रूद्र शिव के साथ इस पर कोई सामग्री है या नहीं, जानकारी नहीं है।

#इसी बीच आपके पत्र की मुझे मेजी गई प्रति (मूलतः रायकवार साहब को संबोधित) मिली। इस संबंध में रायकवार साहब से जानकारी प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था, उनसे फोन पर बात हुई, पत्र उन्हें अभी नहीं प्राप्त हुआ है।

#निगम सर के ताला वाले काम के लिए एक प्रस्तावित रूपरेखा बनाकर दिया था, इसी सिलसिले में फोन पर डॉ. प्रमोदचन्द्र जी से भी बात हुई थी, वे दिसंबर में आने की योजना बता रहे थे। रायपुर से नियमित सम्पर्क न रह पाने से आपके पत्र में उल्लिखित बातों को पूरी तरह से नहीं समझ सका हूं। श्री रायकवार जी व डॉ. निगम से आमने-सामने बात होने पर समझने का प्रयास करूंगा और ताला लेख को अंतिम रूप देने का प्रयास करूंगा, उसमें जैसी पहले आपसे चर्चा हुई थी, मैंने प्रतिमा को, क्षेत्रीय स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर, उसे सोम-शैव संप्रदाय की मान्यताओं के आधार पर निर्मित होने की संभावना होने का पक्ष रखने का प्रयास कर रहा हूं।

शेष कुशल है। डा. शंकर तिवारी जी संबंधी आपके प्रकाशन योजना की जानकारी पिताजी को दी है, वे अत्यंत प्रसन्न हुए हैं और इसके लिए विशेष रूप से शुभकामनाओं के लिए मुझे कहा है। कुशलता की कामना तथा सभी के प्रति अभिवादन निवेदन सहित।

पुनश्च- दीपावली की शुभकामनाओं के लिए रूद्र शिव का छायाचित्र (श्री के.पी.वर्मा, रसायनज्ञ द्वारा खींचा गया) साथ है।

Thursday, March 28, 2013

एक पत्र


आदरणीय सर,

लिखना-पढ़ना तो सीख ही लिया था काम भर, लेकिन जिन गुरुओं से संदेह, सवाल और जिज्ञासा के स्वभाव को बल मिला, सिखाया, उनमें आप भी हैं। इस भूमिका पर कहना यह है कि ज्ञानपीठ से प्रकाशित परितोष चक्रवर्ती की ''हिन्दी'' पुस्तक 'प्रिंट लाइन' के फ्लैप पर नाम देखा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र। आपकी समझ पर कैसे संदेह कर सकता हूं, लेकिन आपके माध्यम से पढ़ने की जो थोड़ी समझ बनी थी, उस पर संदेह हुआ, बावजूद कि यह आपकी नसीहतों पर भी संदेह माना जा सकता है। 

आजकल पढ़ना संभल कर और चुन कर ही करता हूं। आपका नाम देख कर किताब पढ़ना शुरू किया। पूरी पुस्तक पढ़ने में लगभग एक घंटे समय लगा, जबकि इतनी मोटी ठीक-ठाक किताब के लिए मुझे आम तौर पर छः-सात घंटे तो लगते ही और कोई अधिक गंभीर किस्म का काम हो तो इससे भी ज्यादा, खैर। किताब पढ़ कर मेरी जो राय बनी उसे जांचने के लिए दुबारा-तिबारा फ्लैप पढ़ा। ध्यान गया कि इसे आपने 'एकरैखिक', 'इकहरेपन' और 'काला सफेद के बीच के रंग' वाला कहा है। आपके इन शब्दों का प्रयोग, जैसा मैं समझ पा रहा हूं, वही है तो मेरे सारे संदेह दूर हो जाते हैं।

आत्म-साक्ष्य पर रचा गया यह उपन्यास, आत्मग्रस्तता के सेरेब्रल अटैक से कोमा में पड़े अमर का एकालाप बन गया है। नायक अमर व्यवस्था और परिस्थिति को दोष देते हुए आत्म-मुग्ध है, उसके नजरिए में तटस्थता का नितांत अभाव है। अमर उनमें से है जो चाहते हैं कि समाज उन पर भरोसा करे, लेकिन जिन्हें खुद के करम का भरोसा नहीं। जिसे खूंटे बदलते रहना हो, ठहर कर काम न करना हो, अपने संकल्पों को मुकाम तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता न हो, उसके लिए क्रांति के नारे बुलंद करते रहना आसान और उसका बखान और भी आसान होता है। नायक की पत्रकारिता ऐसी क्रांति है, जो अन्य करें तो शाम के अखबार की सनसनी या सत्यकथा, मनोहर कहानियां। यह भी हास्यास्पद है कि अमर की पत्रकारिता में जिन और जैसे रोमांच का बखान है, वह इन दिनों टेबुलायड पत्रकारिता में नये लड़के रोज कर रहे हैं।

पेन से लिखे और हाथों-हाथ सौंपे पत्र की प्रति

यह चुके हुए ऐसे नायक की कहानी बन पड़ी है, जिसके जीवन का क्लाइमेक्स शराब और शबाब ही है। पत्रकार अमर की कलम औरों के सान पर घिस कर नुकीली होती है और यह लेखन किसी कलम के सिपाही का नहीं, वाणीवीर (जबान बहादुर) का लगता है, क्योंकि यहां जो सरसरी और उथलापन है, वह डिक्टेशन से आया लगा (अज्ञेय जी के लेखन में कसावट और नागर जी की किस्सागोई का वक्तव्य)। इस उपन्यास के साथ अगर सचमुच लेखक और अमर का कुछ 'आत्मगाथा या आत्मसाक्ष्य' जैसा रिश्ता है फिर तो परितोष जी के बारे में अब मुझे अपनी धारणा के बदले आम तौर पर उनके बारे में लोगों की राय विश्वसनीय लगने लगी है।

आपका नाम होने के कारण ही प्रतिक्रिया लिख रहा हूं। बाजार में लगभग महीने भर से बिकती पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण पा कर आश्चर्य हुआ था। विमोचन में छीछालेदर, परन्तु मुख्‍यमंत्रीजी का शालीन जवाब... क्या कहूं, सब आपके सामने घटित हुआ। आम आदमी भी आचरण के इस छद्‌म को देखता समझ लेता है। हां, किताब में अधिकतर निजी किस्म की चर्चाएं, पढ़ने-लिखने वालों का जिक्र है, सो किताब बिकेगी, इसलिए इसे बिकाऊ (बिकने योग्य/उपयुक्त) साहित्य कहा जा सकता है, बाजार में सफलता की कसौटी के अनुकूल। फ्लैप पर आपके नाम के बावजूद इस लेखन के साथ परितोष जी और ज्ञानपीठ के नाम पर जिज्ञासा, सवाल और संदेह बना हुआ है। निजी तौर पर मेरी शुभकामनाओं के अधिकारी परितोष जी रहे हैं, इस सब के बावजूद भी हैं।

राहुल सिंह

वैसे तो यह मेरी निजी प्रतिक्रिया है, राजेन्‍द्र मिश्र सर के प्रति, लगा कि पुस्‍तक पर एक पाठक की टिप्‍पणी भी है यह, इसलिए यहां सार्वजनिक किया है।

Sunday, August 5, 2012

शुक-लोचन

छत्‍तीसगढ़ और छत्‍तीसगढ़ी के आरंभिक साहित्‍यकार पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय का जन्म शिवरीनारायण में 19 जुलाई 1885 (कहीं 1886 मिलता है), आषाढ़ शुक्ल अष्टमी संवत 1942, रविवार को तथा मृत्यु रायगढ़ में 2 जनवरी 1951 को हुई। उनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएं 'मैथिली मंगल', 'छत्तीसगढ़ गौरव' और सन 1918 में प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया' है, जो शेक्सपियर के 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' को आंचलिक परिवेश में ढाल कर किया गया पद्यानुवाद है, और यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की पहली अनूदित रचना मानी गई है। पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय जी पर रायगढ़ के शत्रुघ्न साहू, भाटापारा के राममोहन त्रिपाठी और बेमेतरा के शत्रुघ्न पांडेय ने शोध किया है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय -  पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय - रमेश पांडेय जी
यहां पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय द्वारा छत्तीसगढ़ के पुराविद-साहित्यकार पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को संबोधित पत्र की प्रस्‍तुति है। इस पत्र की प्रति शुकलाल जी के पौत्र वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी रमेश पांडेय जी ने उपलब्‍ध कराई है।
श्री रामः।
स्वजन-चकोरानन्द-रजनीश-धवल, विधि-कमण्डल-निस्सरित सरितवत विमल, स्वदेशोद्यान-स्थित-प्रभूत-परिमल घृत चन्दन, महितल-विरा-जित-सुकवि-मंडली-मंडन; विश्व-मंदिर-शोभित-दिव्य दीप, निगमाधिक-ग्राम-दाम-अवनीप; धर्म-धुर-न्धर, भूमि-पुरन्दर; अखिल-गुण-गण-मंडित, सकल काव्य-शास्त्र-पंडित; प्रचुर प्रज्ञावन्त, कविता-कामिनी-कंत; यश-धाम, चरित-ललाम; महा महिमा-धृत-पूज्यपाद, श्री र्छ पं. लोचनप्रसाद जी पाण्डेय के त्रि-विध ताप नाशक, सुन्दर-सुशीतल-अमल-कमल-तुल्य शांति-विधायक चरणों में; दीनातिदीन, बुद्धि-विद्या विहीन; पाद-पंकज-मधुकर, दासानुदास; अनुचर; ग्रसित-दुःख-उन्माद, द्विज शुकलाल प्रसाद; भक्ति भरित हृदय-धाम, श्रद्धा-पुष्पांजलि ले ललाम, करता है अनेक अनेकशः दण्डवत-प्रणाम।

देव!
अनेक आधि-व्याधि और उपाधियों के कारण चिरकाल से आपके विपुल विदुषजन-अर्चित, यश-परिमल-पंकचर्चित चारुचरणों में, मैं अपने कुशल-मंगल की मृदुल-मंजुल-पूजा-कुसुमांजलि समर्पित न कर सका। एतदर्थ मुझे बड़ा परिताप है। पर यह सर्वथा सत्य है कि आप के स्मरण-सरोज के अमल आमोद दाम परिमल-प्रवा-ह से मेरा चित्त-चंचरीक यदा कदा आनन्दानु-भव करता ही रहता है। दुर्भाग्य के निकट में इतना सौभाग्य भी बड़ा गर्व मूलक है।

बहुत दिनों से आपलोगों के दर्शनों की हृदय में अतीव लालसा है। प्रजावत्सल महामान्य-वर रायगढ़-नरेश के मंगलमय उद्वाह-कार्य में सम्मिलित हो पूज्यपाद पं. बलदेव प्रसाद जी मिश्र, पूज्यचरण पं. पुरुषोत्तम प्रसाद जी पाण्डेय, श्रद्धास्पद पं. मुकुटधर जी, तथा मनोहरमूर्ति
मनोहरलाल जी सारंगढ़ पधारे थे। दुभार्ग्य से मैं उन दिनों ज्वर ग्रस्त हो शैयाशायी था। अतः उपरोक्त महानुभावों के दर्शनार्थ सारंगढ़ न जा सका। ''मन की मनहीं माहिँ रही।''
मैं आजकल मैथिली-मंगल नामक काव्य का विरचन कर रहा हूँ। दो सर्ग अभी तक बन सके हैं। इसे आपलोगों को दिखा कर कुछ उपदेश ग्रहण करने की मन में बड़ी इच्छा है; पर आपकी अनुमति पाये बिना इसे आप लोगों के पास भेजने से एक प्रकार की असभ्यता होगी, यही सोच मैं इस कार्य से हाथ खींचे बैठा हूं। यदि अवकाश हो, तो कृपया आज्ञा दीजिये।
बद्ध-मुष्ठि रायपुरी काउंसिल शिक्षकों की वेतन-वृद्धि में अनुदारता का प्रयोग चिरकाल से करती आ रही है। मुझे यहाँ ४०/ मासिक मिलता है। बहु कुटुम्बी आश्रम में इतने में जीवन निर्वाह
भली भाँति नहीं हो रहा है। मन सदा उद्विग्न और चिंतित रहता है। अधिक क्या, निम्नलि-खित पद्य मेरी दशा के उज्वल चित्र हैं :-
''मिलता पगार प्रभागार तभी पूर्णिमा है,
ले-दे हुए रिक्त अमावस भय दानी है।
आजतक वेतन के रुपये हजारों मिले;
झोपड़ी बनी न पेट-दरी ही अघानी है॥
पास है न पैसा एक कफन मिलेगा क्या न?
शुकलाल ताक रही मृत्यु महारानी है।
जड़ लेखनी भी रो रही है काले आंसुओं से;
मेरी दुखसानी ऐसी करुण कहानी है॥''
(२)
शिक्षक ने एक रोज पूछा निज बल्लभा से-
''वेतन है अल्प, निरवाह कैसे कीजिये?
अश्रु-ओस-शोभित हो बोली यों कमलमुखी-
''नाथ! मुझे मेरे मायके में भेज दीजिये।
''और इन बालकों को?''(हाय! छाती फट जा तू);
जा अनाथ-आलय को शीघ्र सौंप दीजिये।
कूए में न कूदिएगा चूड़ी मेरी राखिएगा,
बीस दिन खा के शेष दिन व्रत कीजिये।

मैंने सुना है कि हाई स्कूल रायगढ़ में हिन्दी पढ़ाने वाले अध्यापक का स्थान रिक्त है, अथवा उस पद पर किसी अच्छे अध्यापक की नियुक्ति के लिये उस शिक्षा-संस्था के महानुभाव सदस्यगण चिन्ताशील हैं।

मैं नार्मल परीक्षोत्तीर्ण और री-ट्रेंड-टीचर हूं। मेरी सर्विस २२ वर्ष की है। मैं हिन्दी की मध्यमा- परीक्षा में भी उत्तीर्ण हूं। अतः मैं इन्ट्रेन्स कक्षाओं में हिन्दी पढ़ाने का कार्य भलीभाँति कर सकता हूं।

यदि उपरोक्त समाचार सत्य है और यदि वहां मैं सफलता पा अपना हित साधन कर सकूं और आप भी यदि उचित समझें तो रायगढ़ के शिक्षा विभाग के मुख्‍याधिकारी महोदय से
मेरी सिफारिश कर मुझे अपनी अतुलनीया अनुकम्पा से कृतार्थ कीजिएगा।

आशा है, नहीं २, दृढ़ विश्वास है कि मेरी यह विनय-पत्रिका आपके कमनीय कर-क-मलों में समर्पित हो मुझे सफल-मनोरथ कराने में अवश्य सफलता प्राप्त करेगी।

''भिक्षामोघा वर मधि गुणे नाधमे लब्ध कामा।''

विनयाऽवनत
शुकलाल प्रसाद पाण्डेय,
हे.मा. मिडिल स्कूल
भटगांव
आश्विन शुक्ल द्वादशी
८६
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इस तारतम्य में एक अन्‍य पत्र-
हिन्दी व्याख्‍याता पद के लिए मुक्तिबोध जी ने दिनांक 10-5-58 को अंगरेजी में आवेदन किया था, यह भी एक पृथक पोस्ट बना कर प्रकाशित करना चाहता था, किन्तु अपनी सीमाओं के कारण अब तक वह मूल पत्र या उसकी प्रति नहीं देख पाया। विभिन्न स्रोतों से पुष्टि हुई कि यह पत्र टाइप किया हुआ है। यहां इस्‍तेमाल प्रति, सन 1957 में स्थापित शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव के 1982 में प्रकाशित रजत जयंतिका अंक से ली गई है। पत्र में मुक्तिबोध अपने तेवर सहित हैं।


पत्र के कुछ खास हिस्से का हिन्‍दी अनुवाद इस तरह होगा- ''मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकतावादी रुझान का अगुवा रहा हूं। ... ... ... मैंने प्राचीन साहित्यिक मूल्यों का पुनर्विवेचन आरंभ किया और कतिपय नये सौंदर्यबोध की अवधारणा सृजित कर इसे व्यष्टि एवं समष्टि की नवीन परिवर्तनशील जीवन शैली से जोड़ा। ... .... ... अब मेरी साहित्यिक प्रतिष्ठा है। प्रायः हिंदी कविता के आलेखों में मेरे उद्धरण लिये जाते हैं।

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छत्‍तीसगढ़ से मेरा लगाव सिर्फ इसलिए नहीं कि यह मेरी जन्‍मभूमि है, यहां गौरव उपादान पग-पग 'जिन खोजा' नहीं 'बिन खोजा' भी पाइयां हैं।