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Saturday, January 1, 2011

नया-पुराना साल

बड़ा पक्षपाती है, यह काल का पहिया, जिसे चाहे अल्पावधि में उन्नति के शिखर पर ले जाकर बिठा दे और जिसे चाहे, पतन के गर्त में गिराकर नेस्तनाबूद कर दे, किन्तु इसकी निर्लिप्तता भी प्रशंसनीय है, इसके नीचे चाहे कोई भी आए, बिना चिन्ता किए उसके ऊपर से गुजर जाएगा और इसकी निर्बाध गति को देखिए तो बड़ा अनुशासित और नियमबद्ध जान पड़ता है, किसी की चिरौरी-विनती से यह अपनी गति न बढ़ा सकता और न ही किसी की दुआ-बद्‌दुआ से गति कम ही करता। वह तो घूम रहा है, घूमता रहेगा।

क्या हमारी यही नियति है कि काल-चक्र के नीचे आकर पिसते रहें? नहीं, ऐसा सोचना अज्ञानता का परिचायक होगा। काल-चक्र की गति अपने साथ चलने की सीख देती है और अपनी अवज्ञा के प्रतिक्रियास्वरूप कभी-कभार हमारे कान भी उमेठ दिया करती है। जीवन को गतिमान रखने के लिए, काल-चक्र के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए ही हमारे आदि-गुरुओं ने ज्ञान दिया है -

कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति, कृत सम्‍पद्यते, चरंश्चरैवेति चरैवेति ...

अर्थात्‌ सोये रहना ही कलयुग है, उठ जाना द्वापर है, खड़े हो जाना त्रेता है और चल पड़ना ही सत्‌युग है, अतः चलते रहो, चलते रहो ... चलते रहने का यह संदेश जिसने विस्मृत किया वह पीछे छूट गया और खो गया काल-चक्र के गर्दो-गुबार में।

काल का विभाजन चार युगों में, शताब्दियों में और दिन-रात से लेकर घंटे-मिनट-सेकंड, तक किया गया। काल-गणना में सहायक हुआ सूर्य। प्रारंभिक काल-गणना में सूर्य घड़ी बनी और सूर्य की स्तुतियों को मूर्त किया गया, कोणार्क में सूर्य मंदिर बनाकर। सूर्य का वाहन रथ है, जिसमें सात घोड़े जुते हैं, रथ को गति का प्रतीक माना गया और सात घोड़ों का तारतम्य प्रिज्म के सात रंगों से स्थापित किया जाता है इसीलिए पूरा मंदिर रथाकार बनाया गया। रथ के पहिये और आरों से काल की विभिन्न गणना सप्ताह-घंटे को प्रदर्शित किया गया किन्तु काल के इस प्रतिनिधि की हालत देखिए - काल के ही प्रहार से आज इसका ध्वंसावशेष मात्र रह गया है और काल की गति से प्रभावित यह मंदिर आज भी खड़ा है, विगत स्मृतियां अपने दामन में समेटे, एक इतिहास अपने हृदय में छिपाए।

देश, काल, पात्र की सीमा से परे वस्तु शाश्वत होती है किन्तु ऐसा लगता है कि शाश्वत सिर्फ यह नियम है अन्य कुछ भी नहीं। कभी तानसेन की सुर लहरियों से काल भी ठिठक जाया करता था, ऐसी मान्यता है, किन्तु तानसेन के राग-सुर-ताल सभी काल से ही तो बंधे थे, काल उनसे तो न बंधा था। अपने संगीत से काल को रोक लेने वाला आज इतिहास के पृष्ठों में कैद है।

कभी वेदों को भी लिपिबद्ध किया गया और इसके शब्दों को अपौरुषेय एवं शाश्वत कहा गया। महत्व तो अभी भी है इनका, किन्तु कथन शाश्वत नहीं रहा। काल के प्रभाव का पर्त चढ़ता गया, चढ़ता जा रहा है और इनका महत्व अब इसलिए है, क्योंकि काल प्रहार से बचे ग्रंथों में ये प्राचीनतम हैं।

वैसे तो शाश्वत में विभाजन की कोई गुंजाइश नहीं है फिर भी कुछ देर के लिए इस नियम को परे रखकर सोचें तो व्यक्ति अथवा जीव, शाश्वतता के इस क्रम में सबसे नीचे रखा जा सकता है और फिर उसकी कृतियां और कला कुछ ऊपर। मोटे तौर पर व्यक्तिवाचक संज्ञाएं कम और जातिवाचक संज्ञाएं अधिक शाश्वत हैं। अब यह प्रश्न सिर उठाने लगता है कि क्या 'शाश्वत' की शाश्वतता पर प्रश्न चिह्‌न नहीं लगाया जा सकता, 'शाश्वत' एक शब्द ही तो है और शब्द शाश्वत हैं अथवा नहीं यह दार्शनिक समस्या है तथा दार्शनिक समस्याओं को सामान्य व्यक्ति तो छू ही नहीं सकता, दार्शनिक भी उसे उलझाते ज्यादा हैं अतः इस विवाद में न पड़कर आइये रास्ता बदलें।

वैज्ञानिकों की एक कल्पना है- 'काल-यंत्र', एच जी वेल्स के अनुसार इस यंत्र से काल को रोका तो जा ही सकता है, समय को पीछे भी किया जा सकता है। वैज्ञानिक-बौद्धिक संभावनाओं से हटकर विचार करें तो क्या यह संभव जान पड़ता है? शायद काल की गति को रोकने का प्रयास प्रकृति पर आघात होगा और प्रकृति को हम अपने अनुसार नहीं बदल सकते, हमें ही प्रकृति के अनुसार बदलना होगा। डारविन ने अपने विकासवाद में 'प्रकृति के अनुसार अपने को ढाल लेने की क्षमता रखने वाला ही बचा रह पाता है', की बात कही है और संभव है प्रकृति को छेड़ने के ऐसे प्रयास में काल, महाकाल बनकर आ जाए।

महाकाल की धार्मिक मान्यता 'शिव' के साथ जुड़ी हुई है। 'शिव' का शाब्दिक अर्थ होता है शुभ, मंगल। यदि 'शिव' शब्द को 'शव' धातु से व्युत्पन्न मान लिया जाय तो इसका अर्थ होगा 'निद्रित होना' तात्पर्य, जिस अवस्था में वासनाएं सो जाती हैं। माण्डूक्योपनिषद में इस अवस्था को चतुर्थ कहा गया है, जो निर्विकल्प समाधि की अवस्था है। तो संभावना यह व्यक्त की जा सकती है कि कहीं शिव की निद्रा खुलने वाली तो नहीं? कहीं फिर से तो डमरू न बज उठेगा? कहीं फिर ताण्डव नृत्य तो नहीं होने वाला है! खैर ...

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी
ऊंगलियां उट्‌ठेंगी सूखे हुए बालों की तरफ
इक नजर देखेंगे गुजरे हुए सालों की तरफ
बात निकलेगी तो फिर दूर ... ...

अतः आइये अब गुजरे सालों की तरफ से नजर हटाकर नये वर्ष के स्वागत के लिए तैयार हों, नया वर्ष जो अपने साथ लाएगा नया उत्साह-उल्लास, नई उमंगें और ढेर सारी खुशियां - सबके लिए।

मजमून का पता-ठिकाना :

1980 का एक पुराना साल, कभी जिसके नये होने की उमंग के साथ अपने लिखे इस पूर्व कृत पर अब वय वानप्रस्थ दृष्टि डालते हुए यह नये-पुराने भेद से निरपेक्ष लगा।

नोबल क्लब के मुख्‍य कर्ता-धर्ता अरूण अदलखा, विजय नंदा, डॉ. सुरेन्द्र गुप्ता, डॉ. अखिलेश त्रिपाठी, शरद अग्रवाल, बिलाल गंज, अजीत कोटक, कु. लक्ष्मी पुरोहित, कु. अनिता शाह, अरूण शाह आदि रहे। क्लब को रायपुर में 1979 में पहली बार सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित कराने के कारण अधिक जाना गया। इस हेतु प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी ए.के. हंगल का शुभकामना संदेश, 'नोबल क्लब' की स्मारिका में प्रकाशित हुआ।

स्मारिका के संपादक डॉ. मानिक चटर्जी हैं तथा सह-संपादकों में मेरा भी नाम है। रचना वापसी के लिए खुद के पता लिखे लिफाफों का खासा संग्रह रखने वाले मुझ के लिए पहला अवसर था, जब संस्था/पत्रिका द्वारा कुछ लिखने का आग्रह किया गया था। यही इस लेख-मजमून का पता ठिकाना है, जो 2011 में भी बतौर पोस्ट लगाए जाने लायक लगा।

हमारे साथी प्रताप पारख के हाथ यह स्मारिका लगी और उन्होंने कवायद शुरू कर दी, कि देखें 30 साल बीत जाने के बाद स्मारिका के लगभग 100 विज्ञापनदाता प्रतिष्ठानों/संस्थाओं की क्या हालत है। इसमें एक पता शहर के लोहिया बाजार का भी मिला। हमने याद कर लिया कि यह लोहे का बाजार नहीं, बल्कि डॉ. राम मनोहर लोहिया पर रखा गया बाजार का नाम था। आज यह बाजार कहां है हम याद न कर सके, मैंने पता लगाने का प्रयास भी नहीं किया, क्योंकि मैं राजधानी के बाजार में अपनी याददाश्त सहित लोहिया जी के खो जाने को रेखांकित करना चाह रहा हूं।