1 - कैलाश में प्रतिदिन संध्या समय शिवजी साधु-संतों और देवताओं को प्रवचन सुनाते थे। एक दिन पार्वती ने कहा कि इन साधु-संतो को ठंडी हवा और ओस से बचाने के लिए एक हाल का निर्माण किया जावे। किंतु शिव का यह संकल्प नहीं था फिर भी पार्वती का आग्रह बना रहा। अतः ज्योतिषियों को बुलाकर मंडप निर्माण के लिए उनकी सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि ग्रहों के अनुसार शनि की प्रतिकूलता के कारण यह भवन अग्नि के द्वारा भस्म हो जायगा। फिर भी मंडप का निर्माण किया गया। अब शिव-पार्वती के लिये यह एक समस्या थी। शिव ने विचार किया कि शनि से अपना कोप शांत करने की प्रार्थना की जाय, यद्यपि इसकी उन्हें आशा नहीं थी क्योंकि शनि का कोप प्रसिद्ध था। इससे पार्वती को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने निश्चय किया कि उस नन्हें से दुष्ट ग्रह को वे अपने द्वारा निर्मित मंडप के नाश का कारण नहीं बनने देंगी। उन्होंने यह तय किया कि यदि शनि न माने और मंडप को नष्ट ही करना चाहे तो इससे पूर्व वे स्वयं ही उसे नष्ट कर देंगी। शिव ने शनि से की गई प्रार्थना का उत्तर पाने तक रुकने को कहा। शनि के पास वे स्वयं जाने को तैयार हुए और कहा कि यदि शनि मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं तो मैं वापस आकर ही यह शुभ समाचार तुम्हें दूँगा। किन्तु यदि वे न मानें तो मैं यह डंका (डमरू?) बजाऊंगा। तब तुम उसे सुनकर इस मंडप को आग लगा देना ताकि शनि को इसे जलाने का श्रेय न मिल सके। पार्वती मशाल जलाकर तत्पर थी कि डंका बजे तो वे तत्काल अपना कार्य करें। और उस दुष्ट ग्रह को अपनी दुष्ट योजना सफल बनाने का क्षणमात्र भी अवसर न दें। वहाँ शिव की प्रार्थना को शनि ने स्वीकार कर लिया। अतः जब शनि ने शिव से प्रार्थना की कि वे उसे अपने प्रसिद्ध तांडव नृत्य को दिखावें तो शिव इन्कार न कर सके। उसकी प्रार्थना के अनुसार शिव डंका बजाकर तांडव नृत्य करने लगे। इस डंके का शब्द सुनकर यहाँ पार्वती ने मंडप में आग लगा दी और वह शिव संकल्प के अनुसार जलकर राख हो गया। चाहे जो हो दैवी संकल्प पूरा होना ही चाहिये। शनि तो दैवी योजना में निमित्त मात्र था।
-श्री सत्य सांई वचनामृत 17-10-61
2 - शिकारी का सिर था या नहीं?
तीन शिकारियों को यह पता चला कि गांव से थोड़ी ही दूर दर में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह क्रिस्ता इस तरह याद है।
शिकारियों से बचने के लिये भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाते का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था-सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गये, अपनी बन्दूक्ते उन्होंने गुफा के मुंह की तरफ़ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इन्तजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहां बैठा रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इन्तजार करते-करते पहले ऊब जायेगा।
एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी न किसी तरह गुफा में घुसने और वहां से भेड़िये को निकालने का फ़ैसला किया। गुफा के मुंह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाक़ी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ़ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता। आखिर वे भी इन्तजार करते-करते तंग आ गये। उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि उसका सिर नहीं है।
अब वे यह सोचने लगे गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था।
सिर के बिना धड़ को वे गांव में लाये, लोगों को घटना सुनायी। एक बुजुर्ग ने कहा- इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहां तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ़ करने के लिये वे उसकी विधवा हो गयी बीवी के पास गये।
‘‘मैं क्या जानूं कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिये नयी टोपी का आर्डर देता था।‘‘
-रसूल हमज़ातोव - मेरा दाग़िस्तान पेज-42
3 - शक्करपारे
रोज़ की तरह, सात साल का गुट्टू मुन्ना अपनी हमउम्र पड़ोसिन चुनमुन के पास खेलने पहुँचा। चुनमुन उसे अपने मकान के दालान में खड़ी मिली। वह बड़े चाव से कुटुर-कुटुर शक्करपारे खा रही थी। गुट्टू मुन्ना उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया, मगर न जाने क्यों चुनमुन ऐसी बन गई, जैसे उसने उसे देखा ही न हो। गुट्टू मुन्ना फिर ठीक चुनमुन के सामने आकर खड़ा हो गया, मगर चुनमुन ने तब भी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
‘यह चुनमुन बड़ी शान ही में मरी जा रही है!‘ गुट्टू मुन्ना ने सोचा और कहा, मत बोलो तो मत बोलो, हम भी नहीं बोलेंगे।
फिर उसका ध्यान शक्करपारों की ओर गया। नरम पड़ते हुए वह बोला, चुनमुन! ओ चुनमुन!
मुझसे क्यों बोल रहा है? चुनमुन बोली, याद नहीं. कल शाम तेरी-मेरी कुट्टी हो गई थी।
गुट्टू मुन्ना को याद आया, कल शाम उसका और चुनमुन का झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में सारा दोष चुनमुन ही का था। हाँ, घोड़ा-घोड़ा खेलने में गिर ही जाते हैं, उसने चुनमुन को जानकर थोड़े ही गिराया था। और फिर स्वयं वह भी तो गिरा था, उसके भी तो घुटने छिल गए थे। अब चुनमुन बेकार में अगर इस झगड़े को बढ़ाए तो चुनमुन की ग़लती है। कुट्टी तो फिर कुट्टी ही सही!
लेकिन इस तर्क से चुनमुन को पराजित करने के बजाय, गुट्टू मुन्ना ने शक्करपारों पर दृष्टि जमाकर प्रस्ताव रखा, अच्छा चुनमुन, अब तेरा-मेरा सल्ला, हैं भाई? चुनमुन कुछ नहीं बोली। उसके दाँत कुटुर-कुटुर करते रहे। गुट्टू मुन्ना ने उसकी चुप्पी को खामोशी-ए-नीम-रज़ा समझकर उत्साह से कहा, अच्छा, अब तेरा-मेरा सल्ला हो गया; है ना चुनमुन ? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई; है ना चुनमुन? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई।
गुट्टू मुन्ना चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा।
कुटुर-कुटुर-कुटुर! चुनमुन ने उत्तर दिया।
गुट्टू मुन्ना घोर आशावादी था, इस उत्तर से तनिक भी निराश न हो, उसने बड़े ही प्रसन्न स्वर में कहा, अब मेरा-तेरा सल्ला हो गया, है ना?
अब मैं और तू खूब मिलकर खेलेंगे, है ना? संग बाज़ार घूमने जाएँगे, है ना? खूब चीजें खाएँगे, है ना? तू मुझे शक्करपारे खिलाएगी, है ना?
मगर इन शांति-घोषणाओं का चुनमुन पर कोई असर न हुआ। वह मज़े से एक शक्करपारे को अँगुलियों में थामकर चूसती रही। उसके चेहरे का हर हिस्सा बतलाता रहा कि शक्करपारे गुट्टू मुन्ना के वायदों से कहीं ज़्यादा मीठे हैं। हारकर गुट्टू मुन्ना दालान की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसे विचार आया कि क्यों न वह चुनमुन के शक्करपारे छीन ले। और उन्हें छीनना उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। वह चुनमुन से तगड़ा जो था। लेकिन चुनमुन से शक्करपारे छीनने का अर्थ था, चुनमुन का रोना और उसकी माँ का भीतर से निकलकर आना। और गुट्टू मुन्ना अगर किसी से डरता था तो चुनमुन की माँ से। संक्षेप में यह कि छीनकर शक्करपारे मिल तो सकते थे, पर बड़े ही महँगे दामों में। कुछ समझ में न आता देख गुट्टू मुन्ना ने चुनमुन की ओर देखा, इस आशा से कि शायद उसकी मनःस्थिति में इस बीच कोई परिवर्तन आ गया हो। लेकिन स्थिति पूर्ववत् थी। चुनमुन की जेब से एक के बाद एक निकलकर शक्करपारे उसके मुँह में गायब होते जा रहे थे।
गुट्टू मुन्ना ने देखा कि मौक़ा कुछ कर दिखाने का है, खाली बैठने से काम नहीं चलेगा।
बादशाह फ़ोट्टी थ्री फ़ोर फ़ोट्टी फोर। मुहल्ले के शराबी की नक़ल करते हुए वह ज़ोर से चीखा।
चुनमुन ने पलटकर उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और उसे लगा जैसे शक्करपारे उसके मुँह में आ गए हों। फ़ोटी फ़ोटीरी फ़ोर काला आदमी! उसने अपना अभिनय जारी रखा।
चुनमुन ने एक शक्करपारा अपने होंठों में दबा लिया और उसे होंठों से ऊपर-नीचे हिलाती रही। गुट्टू मुन्ना के अभिनय पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। गुट्टू मुन्ना के मुँह में आए हुए शक्करपारे गायब हो गए, वहाँ केवल लार बची रही।
गुट्टू मुन्ना फिर यूँ ही बेमतलब ज़ोर से हँसा। लेकिन इस हँसी का चुनमुन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। मगर गुट्टू मुन्ना चुनमुन की जिज्ञासा प्रबल होने पर आस लगाए रहा और अपनी हँसी को तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए कोई मज़ेदार बात सोचने लगा। परंतु उसका ज़रखेज दिमाग भी आज कोई मज़ेदार बात न उपजा सका। इस मज़ेदार बात की कमी से तनिक भी हतोत्साह न हो गुट्टू मुन्ना पुनः जी खोलकर हँसा।
काफ़ी हँस चुकने के बाद उसने हँसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ओहो, बड़े मज़े की बात, ओ हो हो हो! और वह फिर हँसने लगा।
चुनमुन उसकी ओर से मुँह फेरती हुई बोली, कोई भी बात नहीं है।
बात है। गुट्टू मुन्ना ने तैश में आकर कहा, लेकिन चुनमुन ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की और बात वहीं रह गई।
गुट्टू मुन्ना की इच्छा हुई कि जाकर चुनमुन की चोटी खींच दे। शक्करपारे के मामले में वह सरासर बेईमानी कर रही थी। चोटी खींचने से तो शक्करपारे मिल नहीं सकते थे। गुट्टू मुन्ना ने खींचकर एक कंकड़ उठाया और पास ही सोए हुए पिल्ले को दे मारा। पिल्ला किकियाता हुआ उठकर भागा। गुट्टू मुन्ना की आँखें भागते हुए पिल्ले को संतोष-भरी नज़र से देखती रहीं। पिल्ला एक फलवाले के खोंचे के क़रीब टाँगों में दुम दबाए खड़ा हो गया।
फलवाला आवाज़ लगा रहा था, आम लो, लँगड़े आम !
गुट्टू मुन्ना को एक मज़ाक सूझा, उसने ज़ोर से पुकारा, ए लँगड़े!
चुनमुन उसकी इस बात पर हँस दी। गुट्टू मुन्ना तुनककर बोला, मेरी बात पर क्यों हँस रही है?
चुनमुन चबाया हुआ शक्करपारा निगलती हुई बोली, कोई भी नहीं हँस रहा। गुट्टू मुन्ना कुछ देर चुप रहा, फिर उसने एलान किया, मुझे और भी बहुत-सी बातें आती हैं। और चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन चुनमुन ने उसकी हँसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इधर गणितज्ञ गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क ने उसे बताया, जिस रफ़्तार से ये शक्करपारे खाए जा रहे हैं, उससे वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अगर उसने अभी कुछ नहीं किया तो फिर उसकी शक्करपारे खाने की आशाएँ मात्र आशाएँ ही रह जाएँगी।
फिर गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क के भीतर कहीं एक लाल बत्ती जली और उसके विचारों ने आश्चर्यप्रद फुर्ती से काम करना शुरू किया। इतनी फुर्ती से कि पलक मारते ही उनका कार्य समाप्त भी हो गया। गुट्टू मुन्ना को अपनी सबसे ज़बर्दस्त तरक़ीब सूझ गई। वह छलाँगें भरता हुआ अहाते के दरवाज़े पर जा पहुँचा।
अब मेरा हवाई जहाज़ चलेगा! उसने बुलंद स्वर में घोषणा की और लपककर दरवाज़े पर चढ़ गया। उसके भार से दरवाज़ा चरमराता हुआ आगे-पीछे घूमने लगा।
घर घर घर ढर्र ढर्र ढर्र ऊँ ऊँ ऊँ! गुट्टू मुन्ना का हवाई जहाज़ चल पड़ा। धीरे-धीरे, जैसे बिना किसी विशेष मतलब के, टहलते हुए चुनमुन हवाई जहाज़ के पास आकर खड़ी हो गई।
जो हवाई जहाज़ पर चढ़ना चाहे चढ़ सकता है, लेकिन उसे सल्ला करना होगा और शक्करपारे खिलाने होंगे।
चालक ने आकाश में उड़ते-उड़ते ही एलान किया।
चुनमुन चुप रही। हवाई जहाज़ फौरन ज़मीन पर उतर आया और चालक ने एक बार फिर से एलान किया, हवाई जहाज़ पर जिसे चढ़ना हो, आ जाए!
घर्र घर्र घर्र। हवाई जहाज़ स्टार्ट हो चुकने पर काफी देर यात्री की प्रतीक्षा करता रहा। फिर यात्री न आता देख चालक ने हवाई जहाज़ बिना यात्री के उड़ा दिया।
ऊँ ऊँ ऊँ ऽऽऽ हवाई जहाज़ वायु को चीरता हुआ तेज़ी से उड़ने लगा और चालक ने एक बार फिर एलान किया, जिसे हवाई जहाज़ में आना हो, आ जाए! फिर विज्ञापन के हथकडे प्रयोग करता हुआ बोला, बड़ा ही मज़ा आ रहा है हवाई जहाज़ में। ओ हो! ओ हो! अहा! ओ हो! अहा! ओ हो! जिसे आना हो, आ जाए!
लेकिन शायद उस दिन गुट्ट मुन्ना बिल्ली का मुँह देखकर उठा था, वरना क्यों हवाई जहाज़ की बेहद शौकीन चुनमुन ने अपनी कल्पनाप्रियता को ताक पर रख एक रूखा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, बड़ा हो रहा है यह हवाई जहाज़ ऐसे हवाई जहाज़ में कौन बैठे? ये हवाई जहाज़ थोड़े है, यह तो दरवाज़ा है!
हवाई जहाज़ की रफ्तार धीमी पड़ने लगी, फिर सहसा वह तेज़ चलने लगा और चालक चीखने लगा, ओ हो! बड़ा मज़ा! ‘ओ हो! बड़ा मज़ा! ओ हो‘
चुनमुन कुछ देर हवाई जहाज़ को देखती रही और फिर, दरवाज़ा टूट जाएगा! कहकर सीढ़ियों पर बैठ गई।
उसके सीढ़ियों पर बैठते ही हवाई जहाज़ ज़मीन पर उतर आया। चालक उसमें से कूदकर उतरा और चुनमुन के पास आकर खड़ा हो गया।
उसने चुनमुन को ‘देती है या नहीं‘ वाली खूँख्वार नज़र से देखा। चुनमुन ने झट से जेब से चार शक्करपारे निकाल मुँह में एक साथ ठूँस लिए और हथेलियाँ झाड़ती हुई बोली, अब हैं ही नहीं, खतम! अब हैं ही नहीं, खतम!
इस बात ने जैसे गुट्टू मुन्ना के गालों पर दो करारे चाँटे जड़ दिए।
गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और उसका मुँह निराशा की कड़वाहट से भर आया। उसने फिर आव देखा न ताव, धड़ाधड़ चुनमुन के दो-तीन घूँसे जड़ दिए। चुनमुन रोने लगी। उसके रोते ही गुट्टू मुन्ना को ध्यान आया कि वह कितनी बड़ी भूल कर बैठा। मत रो चुनमुन! उसने कहा, मत रो! फिर कुछ रुककर, मत रो!
मगर चुनमुन थी कि ‘पैं-पैं‘ लगाती ही रही और फिर हुआ वही जो होना था। चुनमुन की माँ घर से निकलकर आई और अपनी पिसे मसाले से सनी हथेलियाँ गुट्टू मुन्ना और चुनमुन के गालों पर जमा गई। फिर उसने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया और चुनमुन को संबोधित कर चीखी, अब देख, कौन तुझे भीतर आने देता है।
मार खाकर दोनों बच्चे सीढ़ियों पर बैठे रोते रहे, फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे। डबडबाती हुई सूजी-सूजी आँखें, मसाले से पुते हुए गाल, बिखरे हुए बाल, फड़फड़ाती हुई नाक की नोकें। चेहरे देखकर हँसी रोकी नहीं जा सकती है।
तो पहले चुनमुन हँसी। फिर गुट्टू मुन्ना हँसा।
गुट्टू मुन्ना ने पूछा, क्यों हँस रही है?
चुनमुन बोली, तू क्यों हँस रहा है?
गुट्टू मुन्ना ने जवाब दिया, मैं तो तेरी शक्ल देखकर हँस रहा हूँ। बंदर-जैसी लग रही है।
चुनमुन बोली, मैं भी तेरी शक्ल देखकर हँस रही हूँ। बंदर-जैसी लग रही है।
गुट्टू मुन्ना ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और फिर सहसा प्रेरणा पाकर बोला, हम दोनों की शक्ल बंदर-जैसी लग रही है। चल, पनवाड़ी के ऐने में जाकर देखें!
-मनोहर श्याम जोशी
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