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Monday, October 16, 2023

रायपुर का गभरापारा

रायपुर में गभरापारा का पता करने निकले, जल्दी और आसानी से कुछ हासिल होने की संभावना बहुत कम है, लेकिन लगे रहें तो कई दिशाएं, परतें खुल सकती हैं। मेरे लिए अपना-पराया का द्वंद्व है, रायपुर। अपना हो तो जाना पहचाना, पराया हो तो जान-पहचान के लिए मौन आग्रह, आपके लिए कोई न कोई भेद-रहस्य सामने आते रहेंगे और अपने-पराये इस शहर को जानने-पहचानने की रोमांचक-जिज्ञासा, इसलिए आकर्षण बना रहेगा। शहर आपको तभी अपनाता है, जब आप शहर को अपना लें। मुनीर की बात थोड़े फेर-बदल से ‘जिस शहर में भी रहना अपनाए (न कि उकताए) हुए रहना।‘

बहरहाल, गभरापारा की तलाश क्यों? जवाब सीधा सा है, पता लगता है कि 1867 में रायपुर म्युनिसिपल बना, इसमें रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। चिरहुलडीह और डंगनिया तो सारे बाशिंदों के लिए सहज है, मगर गभरापारा लगभग भुला दिया गया, इसलिए पहेली बन जाता हैै और बूझना जरूरी, क्योंकि यह रायपुर नगरपालिका की बुनियाद में है, अपनी जड़ों से कौन अनजान रहना चाहेगा।

टिकरापारा, मठपारा के लोग अपने इस पड़ोस के न सिर्फ नाम से परिचित हैं, उन पुरानी स्थितियों को भी याद करते हैं कि कुछ नीची-गहरी भूमि वाला क्षेत्र था, टिकरा के साथ तुक मिलाते, उसका युग्म शब्द- गभरा। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि टिकरा की तरह का एक प्रकार है, थोड़ी ऊंचाई वाली कृषि भूमि टिकरा कहलाती है तो गभरा या गभार का आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है।

गभरा या गभार, गर्भ से बना जान पड़ता है। रायपुर गजेटियर 1909 के अनुसार गभार का मतलब flat land (सपाट भूमि) है। अनुमान होता है कि आसपास की उच्च-असमतल भूमि की तुलना में यह अर्थ आया है। डॉ. पालेश्वर शर्मा के अनुसार ‘गर्भ धारण की क्षमता के कारण खेत गभार कहलाते हैं। इन खेतों का मूल्य अधिक होता है।‘ चन्द्रकुमार चन्द्राकर के शब्दकोश में ‘गभार‘ का अर्थ ‘खेत का गर्भ स्थल‘, ‘खेत का गहरा भाग‘ और ‘वह खेत जिसके गर्भ से अच्छी फसल हो, उपजाऊ भूमि‘ बताया गया है। इस मुहल्ले के आसपास के बाशिंदों की याद में भी यह ऐसी ही भूमि वाला क्षेत्र रहा है।

गभरा-गभार से जुड़े या इसके आसपास के शब्द, जो कभी सुना था याद आने लगे। सरगुजा कुसमी-सामरी में कन्हर के दाहिने तट पर प्राचीन स्मारक अवशेषों वाला गांव ‘डीपाडीह‘ स्थित है। डीह, पुरानी बसाहट के अवशेष वाली टीलानुमा भूमि और डीपा, संस्कृत का डीप्र या छत्तीसगढ़ी का डिपरा, जो खंचवा का विपरीतार्थी यानि उच्चतल भूमि का द्योतक है। कन्हर के बायें यानि डीपाडीह के दूसरी ओर गांव है गभारडीह, जिसका उच्चारण गम्भारडीह जैसा होता है। यहां कन्हर का दाहिना तट डीपा-ऊंचा है और बायां तट गभार-नीचा।

इसी तरह टटोलते-खंगालते याद करते बगीचा का हर्राडीपा-गभारकोना मिला। जशपुर का डीपाटोली-गम्हरिया और जिले का ऊंच घाट-नीच/हेंठ घाट तो है ही। बिलाईगढ़ के जोगीडीपा का जोड़ा धनसीर बनाता है। धन, समृद्धि या धान ध्वनित करता है और सीर का एक अर्थ हल होता है, राजा जनक का एक नाम सीरध्वज भी है, जिनकी ध्वजा पर हल हो। सीर का एक अन्य अर्थ, गांव की सबसे उपजाऊ भूमि, जिस पर गौंटिया का ‘पोगरी‘ अधिकार होता था और जो गांव में खेती की जमीन के कुल रकबे का छठवां हिस्सा होता था। रायपुर के आसपास के जोगीडीपा की जोड़ी तरीघाट यानि डीपा-तरी बनती है।

इन सबके साथ एक सफर महासमुंद, बागबहरा का, जहां एक हिस्सा डांगाडिपरा है। बागबहरा का बाग, संभवतः ‘बाघ‘ है। छत्तीसगढ़ में बगदरा, बगदेवा, बगदेई जैसे नाम का बग, वस्तुतः बघ-बाघ ही है और बहरा, गहरी या बरसाती जल-प्रवाह के रास्ते वाली भूमि, जहां पानी ठहरता हो, धान की खेती के लिए उपयुक्त भूमि। बहरा का जोड़ा यहां डिपरा है और वह भी डांगा, यानि डांग- बांस की तरह, लंबा-ऊंचा।

डांग के साथ प्रचलित शब्द डंगनी, डांग कांदा या डंगचगहा को याद कर लें। उूंचाई तक पहुंचने के लिए बांस का डंडा डंगनी तो उूंची लता वाला कांदा, डांग कांदा है और बांस पर चढ़ कर करतब दिखाने वाले डंगचगहा। इसी से जुड़कर वापस रायपुर नगरपालिका के डंगनिया में, जो बांस की अधिकता वाला या ऊंचाई वाला क्षेत्र होगा। इसी तरह चिरहुलडीह में चिरहुल, सिलही चिड़िया, Lesser whistling Teal है। बात रह गई रायपुर के राय की, तो ‘राय‘, मुख्य, महत्वपूर्ण, खास, बड़ा आदि अर्थ देता है। जामुन के दो प्रकारों में एक चिरई जाम, छोटे आकार का, जिसकी गुठली, बमुश्किल चने के बराबर होती है और दूसरा बड़ा, राय जाम। राय-रइया रतनपुर या ‘राय-रतन दुनों भाई‘ के साथ रायपुर के संस्थापक माने गए ब्रह्मदेव, जैसा उन्हें रायपुर शिलालेख संवत 1458 में संबोधित किया गया है- ‘महाराजाधिराजश्रीमद्रायब्रह्मदेव‘, राय ब्रह्मदेव का तो रायपुर है ही।

Saturday, October 14, 2023

जाना-अनजाना रायपुर

खारुन के मंथर प्रवाह के साथ मानव सभ्यता को कई ठौर ठिकाने मिले- कउही, परसुलीडीह, तरीघाट, खट्टी, खुड़मुड़ी, उफरा और जमरांव में सदियों की बसाहट के प्रमाण हैं। यह क्रम नदी के दाहिने तट पर मानों ठिठक गया, महादेव घाट-रायपुरा पहुंचते। हजार साल से भी अधिक पुराने अवशेष इतिहास को रोशन करते हैं। बसाहट को आकर्षित किया पूर्वी जल-थल ने। सपाट ठोस-मजबूत थल और उसके बीच जगह-जगह पर भरी-पूरी जलराशि। यही बसाहट- रायपुर, तीन सौ तालाबों का शहर बना। 

मैदानी-मध्य छत्तीसगढ़, लगभग बीचों-बीच शिवनाथ से दो हिस्सों में बंटता है। छत्तीस गढ़ों के लिए कहा गया है, शिवनाथ नदी के उत्तर में अठारह और शिवनाथ नदी के दक्षिण में अठारह। ये सभी गढ़ राजस्व-प्रशासनिक केंद्र थे। कलचुरि शासकों के इन सभी छत्तीस गढ़ों का मुख्यालय रतनपुर था, किंतु अनुमान होता है कि शिवनाथ नदी के कारण और दक्षिणी अठारह गढ़ों की सीमा नागवंशियों से जुड़ी होने के कारण, इस अंचल में एक अन्य मुख्यालय आवश्यक हो गया। 

कलचुरि शासक ब्रह्मदेव के दो शिलालेख पंद्रहवीं सदी के आरंभिक वर्षों के हैं, जिनसे ब्रह्मदेव के वंश में उसके पिता रामचंद्र के क्रम में सिंहण और लक्ष्मीदेव की जानकारी मिलती है। लक्ष्मीदेव को रायपुर शुभस्थान का राजा बताया गया है। शिलालेख से सिंहण द्वारा अठारह गढ़ जीतने और फिर उसके पुत्र रामदेव/रामचंद्र द्वारा नागवंशियों को आहत करने की जानकारी मिलती है। शिलालेख में रोचक उल्लेख है कि ‘नायक हाजिराजदेव ने हट्टकेश्वर मंदिर बनवाया ... रायपुर में रहने वाली सुंदर स्त्रियां जो कामदेव को जीवित करने के लिए स्वयं संजीवनी औषधियां हैं, यहां के सुखों के कारण कुबेर की नगरी को मन में तुच्छ समझती हैं।‘ कलचुरि शासकों के पुराने केंद्र रतनपुर की बुढ़ाती जड़ों के समानांतर रायपुर शाखा की नई पौध-रोपनी ताकतवर होती गई, और सन 1818 में छत्तीसगढ़ का मुख्यालय रतनपुर से रायपुर स्थानांतरित हो गया।

बाबू रेवाराम की पंक्तियां हैं- 
मोहम भये सुत जिनके, सूरदे नृप नायक तिनके। 
ब्रह्मदेव तिनके अनुज, मति गुण रूप विशाल। 
दायभाग लै रायपुर, विरच्यो बूढ़ा ताल। 

मुख्य सड़क से जुड़े होने के कारण अब बूढ़ा तालाब और तेलीबांधा सामान्यतः जाने-पहचाने जाते हैं, मगर इनके साथ आमा तालाब, राजा तालाब, कंकाली तालाब, महाराजबंद सहित मठपारा के तालाब आदि कई जलाशयों का अस्तित्व अभी बचा हुआ है, जबकि पंडरीतरई, रजबंधा का नाम ही रह गया है और लेंडी तालाब अब शास्त्री बाजार है। 

उन्नीसवीं सदी में रायपुर के विकास के कुछ मुख्य कार्यों की जानकारी मिलती है, जिनमें 1804 में भोसलों और अंग्रेजों के मध्य संधि के फलस्वरूप डाक सेवा का आरंभ हुआ। 1820-25 के दौरान रायपुर-नागपुर सड़क निर्माण कराया गया। राजकुमार कालेज परिसर का लैंप पोस्ट, जिस पर ‘नागपुर 180 मील‘ अंकित है, अब भी सुरक्षित है। 1825 में सदर बाजार मार्ग निर्माण हुआ। 1825-30 के बीच मिडिल तथा नार्मल स्कूल और दो अस्पतालों का निर्माण हुआ। बाबू साधुचरणप्रसाद ने ‘भारत-भ्रमण में लिखा है- ‘सन 1830 में रायपुर का वर्तमान कसबा बसा। पुराना कसबा इससे दक्षिण और पश्चिम था।‘ 1860 में रायपुर से बिलासपुर और रायपुर से धमतरी के लिए सड़क बनी। रायपुर में म्युनिसिपल कमेटी का गठन 1867 में हुआ। 1868 में केंद्रीय जेल भवन, गोल बाजार तथा दो सार्वजनिक उद्यानों का निर्माण हुआ। 1875 में राजनांदगांव के महंत घासीदास के दान से संग्रहालय का निर्माण हुआ, जो जनभागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय है। 

1887 में टाउन हॉल, सर्किट हाउस, अस्पताल भवन बना तथा इसी दौरान लेडी डफरिन जनाना अस्पताल भी खुला। 1888 में रायपुर तक आई रेल की बड़ी लाइन, आगे खड़गपुर होते 1900 में कलकत्ता से जुड़ गई। 1890 में रायपुर-कलकत्ता सड़क, रायपुर-बलौदा बाजार सड़क और धमतरी रेल लाइन बनी। 1892 में ‘बलरामदास वाटर वर्क्स‘ नाम से खारुन से जल-प्रदाय आरंभ हुआ। सरकारी मिडिल स्कूल 1887 में गवर्नमेंट हाई स्कूल का दरजा पा गया, तब यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से फिर 1894 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ। 1894 में राजकुमार कॉलेज जबलपुर से रायपुर आ गया, 1939 तक यहां सिर्फ राजकुमारों को प्रवेश दिया जाता था। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए 1938 में दाऊ कामता प्रसाद के दान, शिक्षाशास्त्री जे. योगानंदम की इच्छा-शक्ति और तत्कालीन नगर पालिका अध्यक्ष ठा. प्यारेलाल सिंह के सद्प्रयासों से रायपुर में छत्तीसगढ़ कॉलेज की स्थापना हुई।

1867 में म्युनिसिपल बना, जिसकी सीमा में रायपुर के साथ चिरहुलडीह, डंगनिया और गभरापारा बस्ती शामिल थी। टिकरापारा से संलग्न गभरापारा लगभग भुला दिया गया नाम हैै। गभरा शब्द भी सामान्य प्रचलन में अब नहीं है। टिकरा-गभरा जोड़े के साथ ध्यान रहे कि गभरा या गभार, टिकरा की तरह कृषि भूमि का एक प्रकार है, जिसका आशय गहरी उपजाऊ भूमि होता है। रायपुर की शान रहे, रजवाड़ों और जमींदारों के बाड़े- खैरागढ़, रायगढ़, खरियार, छुईखदान, छुरा, कवर्धा, फिंगेश्वर, बस्तर, कोमाखान आदि अधिकतर अब स्मृति-लोप हो रहे हैं। और बीसवीं सदी के आरंभ में सिंचाई विभाग की स्थापना और नहर निर्माण के साथ महानदी का पानी खेतों तक पहुंचने लगा। तब तक रायपुर की जनसंख्या 30000 पार कर चुकी थी।

सबसे पुरानी कामर्शियल बैंक, 1912 में स्थापित इलाहाबाद बैंक है। को-ऑपरेटिव बैंक 1913 में और इंपीरियल बैंक 1925 में स्थापित हुआ। बिजली अक्टूबर 1928 में आई, मगर व्यवस्थित होने में समय लगा, जब 1939 में 240 किलोवॉट का पावर हाउस स्थापित हो गया। 1950-51 में ईस्टर्न ग्रिड सिस्टम के अंतर्गत रायपुर पायलट स्टेशन बना, तब रायपुर पावर हाउस का काम शासकीय विद्युत विभाग द्वारा किया जाने लगा।

पुराने रायपुर को इन शब्द-दृश्यों में देखना रोचक है- 1790 में आए अंग्रेज यात्री डेनियल रॉबिन्सन लेकी बताते हैं- यहां बड़ी संख्या में व्यापारी और धनाढ्य लोग निवास करते हैं। यहां किला है, जिसके परकोटे का निचला भाग पत्थरों का और ऊपरी हिस्सा मिट्टी का है। किले में पांच प्रवेश द्वार हैं। पास ही रमणीय सरोवर है। पांच साल बाद आए कैप्टन जेम्स टीलियर? ब्लंट गिनती में बताते हैं कि नगर में 3000 मकान थे। नगर के उत्तर-पूर्व में बहुत बड़ा किला है, जो ढहने की स्थिति में है। 

सन 1893 का विवरण यायावर बाबू साधुचरण ने दिया है, जिसके अनुसार रेलवे स्टेशन से एक मील दूर पुरानी धर्मशाला से दक्षिण गोल नामक चौक (गोल बाजार) में छोटी-छोटी दुकानों के चार चौखूटे बाजार हैं। गोल चौक से दक्षिण दो मील लंबी एकपक्की सड़क है। जिसके बगलों में बहुतेरे बड़े मकान और कपड़े, बर्तन इत्यादि की दुकानें बनीं हैं। ... प्रधान सड़कों पर रात्रि में लालटेने जलती हैं। ... एक पुराना जर्जर किला देख पड़ता है, जिसको सन् 1460 ई. में राजा भुवनेश्वर देव ने बनवाया था। ... किले के दक्षिण आधा वर्ग मील में फैला महाराज तालाब है। तालाब के बांध के निकट श्रीरामचंद्र का मंदिर (दूधाधारी) खड़ा है। जिसको सन् 1775 में रायपुर के राजा भीमाजी (बिंबाजी) भोंसला ने बनवाया।‘ इस विवरण में कंकाली तालाब, आमा तालाब, तेलीबांधा, राजा तालाब का भी उल्लेख है। कोको तालाब के लिए बताया गया है कि इसमें गणेश चौथ के अंत में गणपति जी की मूर्तियां विसर्जित होती हैं, (ध्यान देने वाली बात कि इसी विवरण-वर्ष यानि 1893 में तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक उत्सव का स्वरूप दिया था।) व्यापार संबंधी जानकारी आई है कि गल्ले, कपास, लाह (लाख) और दूसरी पैदावार की सौदागरी बढ़ती पर है। साथ ही यह भी बताया गया है कि वर्तमान कस्बे के दक्षिण और पश्चिम छोटी नदी के किनारे महादेव घाट तक रायपुर का पुराना कस्बा बसा था। 

रायपुर की जनांकिकी की दृष्टि से 2011 की जनगणना में 10 लाख आबादी का आंकड़ा पार यह बसाहट, यही कोई 500 साल बीते, खारुन नदी के किनारे का रायपुरा फैलकर पुरानी बस्ती के साथ रायपुर बनने लगा। कलचुरी आए और राजधानी की नींव पड़ी। अब तक सरयूपारी ब्राह्मण आ चुके थे। राजपूत, पहले कलचुरियों के साथ और बाद में गदर के आगे-पीछे आए। वैश्य, यहां रहते छत्तीसगढ़िया दाऊ बन चुके थे। राजधानी ने अन्य को भी आकर्षित किया। मठपारा, कुम्हारपारा, बढ़ईपारा, अवधियापारा, गॉस मेमोरियल, ढीमरपारा, मौदहापारा, यादवपारा, सोनकर बाड़ा, बूढ़ा तालाब, तेलीबांधा वाले इस शहर में चौबे कालोनी, शंकर नगर, सुंदर नगर और विवेकानंद नगर भी बसा। रजबंधा का शहीद स्मारक, प्रेस काम्प्लेक्स तक सफर तो पूरा अध्याय है। 

इसी दौरान अठारहवीं सदी के मध्य में भोंसलों के साथ मराठी परिवार आ गए। अन्य में मोटे तौर पर डॉक्टर, वकील पेशे में और रेलवे के काम में बंगाली आए। रेलवे ठेकेदारी, तेंदू पत्ते और लकड़ी के व्यवसाय के लिए गुजराती आए। बुंदेलखंडी जैनों की बड़ी खेप की आमद मारवाड़ियों के बाद हुई। स्वाधीनता-विभाजन के दौर में सिंधी, पंजाबी आए। रोटी, कपड़ा और मकान के मारे, इन्हीं का व्यवसाय यानि गल्ला-राशन, होटल-रेस्टोरेंट, कपड़े की दूकान और बिल्डर-रियल स्टेट का काम करते, दूसरों को मुहैया कराते, अपने लिए इसका पर्याप्त इंतजाम कर लिया। इस क्रम में टुरी हटरी पर गोल बाजार और सदर फिर इन सब पर मॉल हावी हो गया। शहर अब नवा रायपुर तक फैल कर अटलनगर अभिहित है। उसके आर्थिक परिदृश्य में, व्यवसायिक प्रभुत्व सिंधी-पंजाबी और जैनों का है तो कामगारों में उड़िया और तेलुगू पैठ न सिर्फ नगर, बल्कि घर-घर में बन गई है। नगर में सामान्यतः आपसी भाईचारा बना रहा है, छत्तीसगढ़ी सहज स्वीकार्यता का यह सबल उदाहरण है और इस दृष्टि से रायपुर, राज्य की राजधानी के साथ अपने स्वाभाविक औदार्य में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि शहर भी है।

पुनश्च- दैनिक भास्कर, रायपुर के 35 स्थापना दिवस पर रायपुर के लिए लिखना था। रायपुर के इतिहास से वर्तमान तक का सफर सीमित शब्दों में लिखना चुनौती जैसा था, यह भी कि अब तक जो लिखा जाता रहा है, उससे अलग और क्या हो सकता है। फिर भी प्रयास किया कि नये-पुराने रायपुर के लिए अपनी समझ को झकझोर कर देखा जाए कि क्या निकलता है, जो बना वह ऊपर है, जो समाचार पत्र में आया, वह आगे है-
(यहां आए पुराने तथ्यों को एकाधिक और यथासंभव मूल-स्रोतों से लिया गया है। डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम जी ने उनके लेखन में आई जानकारियों के उपयोग की अनुमति दी तथा हरि ठाकुर जी की सामग्री से कुछ महत्वपूर्ण दुर्लभ जानकारियां, उनके पुत्र आशीष सिंह जी के माध्यम से मिलीं। अपने दौर की जानकारी और उनकी व्याख्या मेरी है।) 


Saturday, September 3, 2022

दानीपारा शिलालेख-1969

पिछली पोस्ट, दानीपारा शिलालेख-2006 की पाद टिप्पणी 6 में विष्णुसिंह ठाकुर की पुस्तक ‘राजिम‘ में आए उल्लेख के आधार पर इस शिलालेख के राष्ट्रबंधु साप्ताहिक के दीपावली विशेषांक में संक्षिप्त प्रकाशन का लेख किया गया है। इस संदर्भ को स्पष्ट करने के लिए राष्ट्रबंधु पत्र के संपादक श्री हरि ठाकुर के पुत्र श्री आशीष सिंह के सत्प्रयासों से उपलब्ध कराई गई सामग्री को उनकी सहमति उपरांत यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

उल्लेखनीय कि राष्ट्रबंधु साप्ताहिक में इस शिलालेख की प्राप्ति पहले समाचार के रूप में प्रकाशित हुई थी और उसके पश्चात लेख के रूप में। राष्ट्रबंधु में प्रकाशित लेख में शिलालेख के चर्चा या प्रकाश में आने की पृष्ठभूमि की भी जानकारी मिलती है। प्रथम दृष्टया लिपि के आधार पर शिलालेख का काल बारहवीं शताब्दी अनुमान किया गया था, किंतु संपादन करते हुए तिथि, पंद्रहवीं शती निर्धारित की गई। यहां प्रस्तुत करते हुए जानकारी अद्यतन करना समीचीन होगा कि लेख में आए नाम श्री कृष्ण कुमार जी दानी, के तीन पुत्र (स्व.) अनिरुद्ध दानी, विजय दानी, अजय दानी (अजय माला प्रकाशन वाले) हुए। अपनी सीमा में मेरे द्वारा शिलालेख की वर्तमान स्थिति जानने और फोटो लेने के प्रयास में पता लगा कि वर्तमान में दानीपारा वाले उक्त मकान में परिवार के सदस्य निवास नहीं कर रहे है। इस भूमिका के साथ, राष्ट्रबंधु में प्रकाशित दोनों अंश-

राष्ट्रबंधु साप्ताहिक, रायपुर के दिनांक 17-4-69 में ‘बारहवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त‘ - ‘रायपुर नगर की प्राचीनता पर नया प्रकाश‘ शीर्षक से प्रकाशित समाचार-

रायपुर के दानीपारा में इसी सप्ताह एक ऐसे महत्वपूर्ण शिलालेख को जानकारी मिली है जिसे लिपि के आधार पर बारहवीं शताब्दी का माना जा रहा है। पुरातत्व के प्रकांड विद्वान श्री बालचन्द्र जैन को ज्यों ही इस शिला लेख की सूचना मिली, वे स्थल पर पहुंच गये किन्तु उनके पास उस शिला लेख की छाप लेने की सामग्री नहीं थी। उन्होंने स्थानीय म्युजियम के अधिकारी से इस संबंध में सामग्री मांगी किन्तु उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। इस दन्तनिपोरी के पश्चात श्री जैन ने किसी प्रकार शिलालेख का छाप ले ली है और जहां तक वे उसे पढ़ पाने में सफल हुए हैं उससे ज्ञांत होता है कि यह शिलालेख बारहवीं शताब्दी का है। इस शिलालेख में रायपुर, राजिम तथा आरंग में विभिन्न निर्माण कार्याे का उल्लेख है। इस शिलालेख की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गोठाली नामक स्थान का भी उल्लेख है। इस स्थान का उल्लेख रतनपुर के शिलालेख में भी मिलता है। शिला लेख में सेनापति तथा प्रमुख वंशों के पुरुषों के नाम भी आये हैं।

शिलालेख के नीचे का भाग टूट गया है और अप्राप्य है। किन्तु जितना भी हिस्सा उपलब्ध है उससे यह स्पष्ट है कि रायपुर नगर चौदहवीं शताब्दी से पूर्व बस गया था। इस सम्बन्ध में जब तक प्राप्त सूचनाओं के आधार पर रायपुर में प्राप्त यह प्राचीनतम शिलालेख कहा जा सकता यदि हरिठाकुर को प्राप्त शिलालेख को छोड़ दिया जाये।

राष्ट्रबंधु साप्ताहिक, रायपुर के दीपावली विशेषांक, दिनांक 6-11.69 में श्री बालचन्द जैन लिखित लेख-

पन्द्रहवीं शताब्दी
रायपुर में प्राप्त
एक अप्रकाशित शिलालेख 
लेखक- श्री बालचन्द्र जैन

प्रस्तुत शिलालेख श्री कृष्ण कुमार जी दानी के दानीपारा (रायपुर) स्थित घर में रखा हुआ है। पहले यह उनके पुराने मकान की एक मोटी दीवाल में जड़ा हुआ था। पर जब उस मकान का पुनर्निर्माण कराया गया तो शिलालेख को वहां से हटाकर मकान के आंगन में लाकर रख दिया गया और तब से वह वही रखा हुआ है। लेखयुक्त प्रस्तर खंड की चौड़ाई 55 से.मी. और ऊंचाई 45 से.मी. है।

लेख में चौदह पंक्तियां हैं जो 40 से.मी. चौड़े और 29 से.मी. ऊंचे स्थान में उत्कीर्ण है। लेख की ऊपरली दो पंक्तियों के प्रारंभ का आधा भाग क्षत हो जाने के कारण वह भाग पढ़ा नहीं जा सकता। उसी प्रकार सबसे नीचे की पंक्ति के लगभग सभी अक्षरों का निचला भाग क्षतिग्रस्त है। बाकी पूरा लेख अच्छी हालत में है। अक्षर साफ, सुडौल हैं।

लेख की लिपि नागरी है। उसमें तिथि तो नहीं पड़ी है पर अक्षरों की बनावट के आधार पर उसे पंद्रहवीं शती ईसवी का अनुमान किया जा सकता है। शिलालेख की भाषा संस्कृत है प्रारंभ में ‘‘श्री गणेशाय नमः‘‘ और अंत में ‘‘मंगल‘‘ को छोड़कर बाकी पूरी रचना छन्दोबद्ध है। कुल श्लोक दस हैं और उन पर क्रमांक पड़े हुए हैं। तीसरे श्लोक के अंत में भूल से क्रमांक 2 पड़ गया है किंतु आगे के श्लोकों में वह भूल सुधार ली गई है। पहले और तीसरे से लेकर आठवें श्लोकों की रचना अनुष्टुप छंद में की गई है। बाकी तीन श्लोक अर्थात 2, 9 और 10 शार्दूलविक्रीड़ित छंद में हैं। ध्यान देने की बात है कि तीसरा श्लोक में छह चरण है। ऐसे उदाहरण पौराणिक काव्यों में पाए जाते हैं। रायपुर में ही प्राप्त हुए एक दूसरे शिलालेख कलचुरी वंश के राजा ब्रह्मदेव के राज्य काल में विक्रम संवत 1458 में लिखा था। प्रस्तुत लेख में ब के स्थान पर सर्वत्र व अक्षर लिखा गया है। पंक्ति 6 में चंद्रशेखर के ख के स्थान पर रट्ट और उसी प्रकार पंक्ति चार में द्वि के स्थान पर द्धि उत्कीर्ण है। श्लोकों के द्वितीय चरणों के अंत में भी दो दण्डों का प्रयोग किया गया है जबकि एक दंड का ही प्रयोग होना चाहिए था। श्लोकों के अंत में आने वाले म् को भी अनावश्यक रूप से अनुस्वार में परिवर्तित किया गया है।

इस प्रशस्ति में पीलाराय नामक व्यक्ति के चार पुत्रों द्वारा विभिन्न स्थानों पर कराए गए पुण्य कार्यों का विवरण दिया गया है। प्रशस्ति के प्रारंभ में गणेश जी को नमस्कार किया गया है। उसके बाद प्रथम श्लोक में किसी देवी की वंदना है। लेख का अंश खंडित हो जाने के कारण देवी का नाम नहीं मिलता पर संभवतः वह सरस्वती है। दूसरे श्लोक में शिवदास का उल्लेख मिलता है। उनके दो पुत्र थे, एक पीलाराय और दूसरा प्राणनाथ। तीसरे श्लोक में पीलाराय के चार पुत्रों के नाम गिनाए गए हैं और बताया गया है कि वे सभी धर्म तत्पर तथा गो-ब्राह्मणों के सेवक थे। पीलाराय के ज्येष्ठ पुत्र दरियाव के गोठाली नाम का एक रमणीक सरोवर खुदवाया था, चंद्रशेखर (शिव) के मंदिर का निर्माण कराया था और अत्यंत मनोहर बगीचा लगवाया था। ये सभी कार्य रायपुर में कराए गए थे जैसा कि पांचवें श्लोक से जान पड़ता है क्योंकि उस श्लोक में बतलाया गया है कि उस ज्ञानी और परमार्थी दरियाव ने ही रायपुर में राम भक्त मारुति (हनुमान) के मंदिर का भी निर्माण कराया था। छठे श्लोक में कहा गया है कि दरियाव से छोटे तेजीराज ने रायपुर में ही पाटी नाम का एक सुंदर स्वच्छ सुविख्यात और भव्य सरोवर खुदवाया था। तीसरे भाई महाराज (शुद्ध नाम महाराज) ने अपने पुण्य कार्यों को राजिम और आरंग में केंद्रित किया। सातवें और आठवें श्लोक से विदित होता है कि उसने राजीवनयन नामक स्थान में एक जगन्नाथ जी का मंदिर और एक खूब मजबूत शिव मंदिर का निर्माण कराया तथा उसी प्रकार का आरिंग ग्राम में प्रफुल्ल कमलों से सुशोभित सरोवर और महामाया का मंदिर बनवाया।

प्रशस्ति के नौवें श्लोक में कनिष्ठ भ्राता मधुसूदन के गुणों की प्रशंसा की गई है। उसके द्वारा कराए गए निर्माण कार्यों का उल्लेख संभवतः दसवें श्लोक में कहा हो पर शिलालेख ही अंतिम पंक्ति अपाठ्य होने के कारण वह ज्ञात नहीं हो सका है। इस प्रशस्ति की रचना महेश्वर नामक पंडित ने की थी। उसने सभी प्रकार की विद्याएं प्राप्त कर ली थीं। दसवें श्लोक में रायपुर नगर की प्रशंसा की गई है। प्रशस्ति का पूरा पाठ नीचे दिया जा रहा है। इसे मैंने रायपुर के सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर श्री दिलीप विरदी द्वारा उतारे गए फोटोग्राफ से पढ़ा है।

(प्रशस्ति का पाठ चित्र में देख सकते हैं, पृथक से नहीं दिया जा रहा है।)

बालचन्द्र जैन जी का अंगरेजी में प्रकाशित शोध-लेख


Wednesday, May 18, 2022

CONFLICTORIUM

आज 18 मई को अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर सुबह-सुबह याद कर रहा हूं 24 फरवरी 2021 को, जिस दिन दो युवतियों ने कन्फ्लिक्टोरियम प्रतिनिधि के रूप में अपना परिचय दिया था। तब उनकी बातचीत का आशय, अगर मैं ठीक समझ सका तो यह था कि रायपुर, छत्तीसगढ़ में ऐसे संग्रहालय की क्या संभावना है? और इसके बारे में मैं उन्हें क्या बता सकता हूं। यानि उन्हें क्या जानना चाहिए यह भी मुझे बताना है। मुझे यह मनोरंजक पहेली जैसा लगा था।

मैंने बताया कि यह तो खल्लारी के देवपाल वाले मंदिर जैसे उदाहरणों वाला छत्तीसगढ़ है। मगर कन्फ्लिक्ट ही ठहराना हो तो वह कहां नहीं, लेकिन अक्सर बिना समझे, जल्दबाजी कर उसमें दखल देना, उसे हवा देने जैसा होता है। इसलिए मैं मानता हूं कि संग्रहालय के बजाय आचरण और व्यवहार हो, वह भी समन्वय का। वैचारिक भिन्नता तो स्वाभाविक है, रहेगी, आवश्यकता उसके प्रति उदारता की हो सकती है, ... आदि कारणों से मैं कन्फ्लिक्टोरियम जैसा कोई संग्रहालय, छत्तीसगढ़ के लिए निरर्थक मानता हूं।

मुझे तब लगा था कि ऐसे संग्रहालय का निर्णय तो किसी स्तर पर हो चुका होगा, बाद में अपनी बात पर खुद विचार करते हुए लगा था कि उसे मेरी असहमति, कन्फ्लिक्ट मान कर यहां कन्फ्लिक्टोरियम की सख्त आवश्यकता, उनके प्रतिवेदन में होगी, इसलिए समझ नहीं पाया था कि मैं इसके लिए स्वयं को सहमत मानूं या असहमत? बहरहाल, यह बात याद रह गई और पिछले दिनों आपसी चर्चा में आई, मगर आई-गई हो गई। आज फिर याद आने पर लगा कि पहले इसकी तलाश कर लेनी चाहिए।

अटकते-भटकते बैरन बाजार के जनता कालोनी में पहुंचा, वहां बोर्ड दिख गया।
तीर की दिशा में ठिठकते आगे बढ़ा, क्योंकि यह घरों के पिछवाड़े वाली गली थी, एक रहवासी गृहणी ने बताया कि सामने जाइए, बड़ा पीपल का पेड़ है, वही म्यूजियम का प्रवेश है, ऐसा लगा कि उनसे म्यूजियम का पता पहली बार किसी ने पूछा है और पता बताने के अलावा इससे उनका कोई ताल्लुक नहीं है। बताए पते पर दरवाजा बंद और उस पर बोर्ड मिला, कुछ आशा बंधी।

एक युवती पीपल के पेड़ पर जल अर्पित कर रही थी, उससे पता पूछा, उसने कहा कि प्रवेश पीछे गली से है। मैंने कहा कि गली से ही लौट कर आ रहा हूं। संयोग कि वही संग्रहालय की प्रभारी थी, इसलिए उसके बताए रास्ते, यानि घरों के पिछवाड़े वाली गली में वापस लौटा, इस बार आगे बढ़ने पर झांकता सा संकेत मिला।

अब मैं आधे बंद दरवाजे के सामने था, झिझकते हुए प्रवेश किया।
मेरा यहां तक पहुंचना उन्हें कुछ अजीब सा लग रहा था, इसलिए मैंने अनपा परिचय देना जरूरी समझा कि मुझे आकस्मिक दर्शक न मान लें। मैं इसकी पृष्ठभूमि से परिचित हूं और स्वयं संग्रहालय विज्ञान का विद्यार्थी हूं साथ ही संग्रहालय से संबंधित कामों से भी जुड़ा रहा हूं। संग्रहालय प्रभारी स्वागत की मुद्रा में तो थीं ही, अब आश्वस्त भी हो गईं। काउंटर पर देखा कि यह 14 अप्रैल 2022 से खुला है।

अंदर जाने के लिए उन्होंने मुझे हैलमेट दिया, मैंने पूछा कि किसी खतरे की आशंका है, सावधानी बरतनी है? उन्होंने आश्वस्त करते हुए टोपी पर लगे बल्व को जला दिया और बताया कि इस बंद दरवाजे के अंदर अंधेरा है, इससे आपको मदद मिलेगी। सुरंगनुमा अंधेरा संकरा गलियारा, थोड़ा उबड़-खाबड़ भी। अलग सा महसूस करते इसे पार कर आगे बढ़ते जिस कक्ष में ठहरा वहां संविधान की प्रति और अंबेडकर जी के चित्र लगे थे। अंबेडकर-संविधान ने द्वंद्व-CONFLICT को रेखांकित कर उसे मिटाने की राह बनाई? इसलिए? मुझे लगा कि इसके साथ संविधान निर्मात्री सभा के छत्तीसगढ़ के सदस्यों का भी नामोल्लेख, परिचय होता! काउंटर पर के चित्र में ‘रायपुर का अपना CONFLICTORIUM‘ लिखा है, मगर इसमें रायपुर या छत्तीसगढ़ का अपना कुछ नहीं दिखा, तो यह ‘अपना‘ बेगाना-सा लगा। अपनी इस बात से प्रभारी को अवगत कराया।
कुछ और प्रादर्श थे, प्रभारी ने उन सबसे परिचित कराया। मैं फिर पूरा समय ले कर आने की बात कहते, दर्शक पंजी पर अपना नाम दर्ज कर वापस निकल आया। इस संग्रहालय दिवस पर, इस संग्रहालय तक पहुंचने वाला मैं शायद अकेला दर्शक रहा।

Monday, December 20, 2021

मनु नायक और महेश कौल

1948 में महेश कौल की फिल्म आई थी, गोपीनाथ। फिल्म में रायपुर और बूढ़ा तालाब का जिक्र आता है, स्वाभाविक ही महेश कौल से रायपुर, छत्तीसगढ़ के रिश्ते की खोज-खबर करना चाहा। मुझे कभी मनु नायक जी से हुई बातचीत याद आई, जिसमें उन्होंने बताया था कि वे काफी समय महेश कौल के साथ जुड़े रहे थे। मगर अनुमान हुआ कि महेश कौल से मनु नायक का रिश्ता इतना पुराना तो नहीं होगा। इसलिए मनु नायक जी से आग्रह किया, उनके बंबई दौर की शुरुआत और उस दौर की बातें याद करने का।

मनु नायक का जन्म 11 जुलाई 1937 का है, अब वे 84 वर्ष के हो गए हैं, रायपुर आते-जाते रहते हैं, मगर इन दिनों बंबई में हैं। फोन पर बातें होने लगीं तो मानों स्मृति पटल पर सतरंगी तस्वीरें उभरने लगी। कुछ पूरक शब्द अपनी ओर से जोड़ कर उन्हीं की जुबानी-
मनु नायक जी के साथ मैं
कुछ बरस पहले

1955 में ग्यारहवीं पास किया, उसके बाद 1957 में मैं भी एक्टर बनने ही बंबई गया था। महेश कौल जी की फिल्म का विज्ञापन आया था तो मैंने उन्हें एप्लाई किया था। मगर उनसे मेरी जान पहचान हुई पंडित मुखराम शर्मा की वजह से। लंबी कहानी है। दुर्ग का ड्राइवर था नारायण राव नाम का, एन.आर. मास्टर। लालाराम चन्द्राकर थे एक रईस आदमी, दुर्ग जिला के उन्होंने एक बार मुलाकात कराई थी। मोहन स्टूडियो के मालिक के ड्राइवर थे एन.आर. मास्टर। उसके साथ स्टूडियो में गए, कोई सीन था, उसे हिंदी में कापी करने को था, वहां हिंदी लिखने वाला कोई नहीं था, सब उर्दू वाले थे तो मैंने कहा सर आप मुझे परमिशन देंगे तो मैं एक कापी कर देता हूं अच्छे से। उस समय पढ़ते-लिखते थे तो हैंडराइटिंग भी अच्छी बनती थी। मैं लिख दिया पूरा सीन, दो पेज था, साफ अक्षर में। पंडित मुखराम शर्मा वहां आए थे, किसी से मिलने। उन्होंने देखा तो एकदम खुश हो गए। पूछा, कहां के हो, कौन हो।

इसके बाद मैं एयरपोर्ट घूमने गया, दसेक दिन बाद। और लड़के थे, स्टूडियो में सो जाते थे तो मैं भी वहीं सो जाता था, लड़कों से एन.आर. मास्टर ने मुलाकात करा दी थी। उनलोगों के साथ एयरपोर्ट देखने गया तो देख रहा हूं कि एनाउंसमेंट हो रहा था कि मद्रास की फ्लाइट आ रही है। उस जमाने में इतना रिस्टिक्शन नहीं था। अंदर तक जा सकते थे। मैं चला गया अंदर देखने कि कैसे लैंड होता है। एकदम आगे तक बढ़ गए, जहां सिक्योरिटी वाले होते हैं वहां तक पहुंच गए। देखा कि सब लुंगी वाले मद्रासी आ रहे हैं, पैंट का चलन कम था उस जमाने में। उसके बाद देखता हूं तो पंडित मुखराम शर्मा चले आ रहे हैं। मैंने उनको प्रणाम किया और उसके बाद वे पूछने लगे अरे तुम कहां से आ गए। मैंने कहा, सर एयरपोर्ट देखने आए थे। पूछने लगे, क्या कर रहे हो। मैंने कहा कुछ काम नहीं करता, काम खोज रहा हूं। बोले मेरे आफिस में चले आना कल 4 बजे के बाद, रंजीत स्टूडियो में।

मैं वहां पहुंच गया। मुझे पंडित मुखराम शर्मा ने कौल साहब से मुलाकात कराई और बोला, लड़का अच्छा है, हिंदी में लिख लेता है, सब अच्छे से। रायपुर का है, तो कौल साहब ने तुरंत ओके कर दिया, कहा कि रख लीजिए अच्छा है तो। उन्होंने और मुझे रख लिया अपने साथ। इस तरह से मेरा एप्वाइंटमेंट हो गया तुरंत, फटाफट। 1957 से महेश कौल साहब के साथ था, फिल्म तलाक से ले कर दीवाना तक, तलाक फिल्म हिट हुई थी, जिस दिन मैं ज्वाइन किया उस दिन गाने की रिकार्डिंग थी (रौ में बहते सुनाया)-
बिगुल बज रहा आजादी का, गगन गूजता नारों से 
मिला रही है आज हिन्द की, मिट्टी नजर सितारों से 
एक बात कहनी है लेकिन, आज देश के प्यारों से 
जनता से नेताओं से, फौजों की खड़ी कतारों से 
कहानी है इक बात हमें इस, देश के पहरेदारों से 
संभल के रहना अपने घर में, छिपे हुए गद्दारों से।

महेश कौल जी ने मुझसे कभी रायपुर की चर्चा नहीं की। वे व्यस्त रहते थे, हमेशा लोगों से घिरे रहते थे। मेरा काम मामूली था, क्लर्क की तरह, उन्होंने जो कहा कर दो, वह कर दिया। एन.सी. सिप्पी से मिलवाया, एक्जीक्यूटिव थे वे कंपनी के। मुझे लगा दिया उनके साथ। आफिस का, स्टूडियो का जो भी काम होता था फिल्म से संबंधित, जो एन. सी. सिप्पी करते थे वह मुझे करना पड़ता था, ऐसा चालू हुआ तो चलता रहा इसी तरह। एन सी सिप्पी को असिस्ट करता था मैं, प्रोडक्शन के काम में उनको हेल्प करना, शूटिंग में भी जाना पड़ता था कई बार। किसी सामान की जरूरत हो तो उसकी पूर्ति करना हमारी ड्यूटी था।

‘कहि देबे संदेश‘ के लिए कौल साहब मना करते रहे कि तुम बरबाद हो जाओगे, मारकेट था नहीं, इसलिए वे मना कर रहे थे, आखिरी दम तक मना किया था उन्होंने। मैं जब बंबई से वापस आया और अपने स्कूल कचहरी के पास राष्ट्रीय विद्यालय में जा कर बताया, उस जमाने में प्रिंसिपल थे रामानंद कन्नौजे, कि वहां मैं महेश कौल के यहां काम कर रहा हूं। तब कन्नौजे सर ने बताया कि कौल साहब उनके क्लास फेलो थे मॉरिस कालेज, नागपुर में।

मुझे पहले पता नहीं था कि रायपुर से उनका कोई ताल्लुक है। पता चला कि पंडित भोलानाथ कौल थे, महेश उनके (दत्तक) लड़के हैं। लोग बताते हैं कि उस जमाने में रायपुर में उनकी भोला फिनाइल फैक्ट्री थी, गुढ़ियारी में। बाबूलाल टाकीज के सामने खादी भंडार था, उसके मालिक राजदान थे, उनलोगों के रिश्तेदार थे भोलानाथ, उस दुकान में मैं भी गया हूं एक बार। शायद यही आधार होगा।

बहरहाल, देखना-सुनना चाहें तो लिंक पर फिल्म गोपीनाथ है। पूरी फिल्म के बजाय बूढ़ा तालाब, रायपुर वाला अंश देखना हो तो वह फिल्म के आरंभ में ही 9.20 वें मिनट से 12.10 वें मिनट पर है।

Tuesday, September 4, 2012

राम-रहीम

''बेगम साहिबा की छींक का कारण था, उनकी जूती के नीचे आ गया मुआ नीबू का छिलका।'' यह भी कहा जाता है कि सर्दी-जुकाम ऐरे गैरों को होता है, लखनवी तहजीब वालों को सीधे नजला होता है। मुस्लिमों के साथ नजाकत-तहजीब, शेरो-शायरी, बिरयानी और जिक्र आता है ताजमहल का। वैसे कई-एक की नजर में ''ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर, प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तेजो महालय कहा जाता था।'' चलिए, इसी बहाने हमारी श्रद्धा बनी रहे मानव कौशल के इस नायाब नमूने पर। वैसे भी संरचनाओं का शैलीगत वर्गीकरण हो सकता है, लेकिन ईंट-पत्‍थर को उससे जुड़ी आस्‍था ही हिन्‍दू या मुस्लिम बनाती है और ऐसे दरगाह कम नहीं जो हिन्‍दू श्रद्धा के भी केन्‍द्र हैं।

गुजरात के हजरत सैयद अली मीराँ दातार की दरगाह से पं. जागेश्‍वर प्रसाद तिवारी, चिल्‍ला के साथ ईंट ले कर आए थे और 2 दिसंबर 1967 को शंकर नगर, रायपुर में मीरा दातार स्‍थापित किया। मीरा दातार बाबा के इस स्‍थान पर मूर्ति नहीं है लेकिन हनुमान जी और शंकर जी हैं। तब से यह रायपुर का एक प्रमुख निदान केन्‍द्र रहा, सोमवार और गुरुवार को मुरादियों का मेला लग जाता। 30 अगस्‍त 1990 को पं. तिवारी के निधन के बाद, 10 सितंबर 2010 को श्रीमती महालक्ष्‍मी तिवारी के निधन तक इसका महत्‍व बना रहा।
अब रायपुर में इसके अलावा मीरा दातार का एक अन्‍य दरबार समता कालोनी में है, जहां प्रमुख मुस्लिम महिला हैं, लेकिन महादेव घाट वाला मीरा दातार तिवारी जी के शिष्‍य भोलासिंह ठाकुर के निवास 'मन्‍नत' में है। यहां भी शंकर नगर दरबार की तरह त्रिशूल लगा है। उर्स मुबारक के फ्लैक्‍स में यहां कुरान खानी आदि का उल्‍लेख, गुरुदेव श्री मंशाराम शर्मा जी, चिश्‍ती दादा रमेश वाल्‍यानी जी, सरकार बी.एस. ठाकुर और चन्‍दु देवांगन के नाम सहित है।

रायपुर में अनुपम नगर गणेश मंदिर का निर्माण 
के.ए. अंसारी ने 1985 में कराया और इसके बाद 
श्रीराम नगर फेज-I और II विकसित किया।

रायपुर से 20 किलोमीटर दूर गांव चरौदा-धरसीवां का शिव मंदिर सरपंच बाबू खान साहब की पहल और अगुवाई में, गांव और इलाके भर के श्रमदान से 1970 में बना। धरसीवां से थोड़ी दूर कूंरा उर्फ कुंवरगढ़ गांव में दो संरचनाएं मां कंकालिन मंदिर और मस्जिद एक ही चबूतरे पर साथ-साथ हैं।

कुंवरगढ़ के ही श्री अमीनुल्‍लाह खां लम्‍बे समय से श्री रामलीला मंडली के कर्ता-धर्ता हैं। वे मानस गायन के साथ लीला में मेघनाथ और दशरथ की भूमिका निभाते हैं। धरसीवां और कुंवरगढ़ में हिन्‍दू-मुस्लिम मितानी के भी कई उदाहरण हैं।

कुरुद-धमतरी में स्‍कूली दिनों से मानस की लगन लगाए रामायणी दाउद खान गुरुजी हैं। आपका जन्‍म 25 जुलाई 1923 को हुआ। आपको सालिकराम द्विेदी और पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी का सानिध्‍य प्राप्‍त हुआ। आपके मानस प्रवचन का सिलसिला 1947 से आरंभ हुआ। वे कहते हैं कि नैतिक संस्‍कारों के विकास के लिए रामचरित मानस का अध्‍ययन जरूरी है और ''सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोर जुग पानी' मानस का प्रमुख संदेश है।

• कवर्धा-गंडई के साईं फिर्रू खां पुश्‍तैनी भजन गायक हैं।
• हडुवा-घुमका, राजनांदगांव के गीतकार-रामायणी रहीम खां अन्‍जाना जीवन-पर्यन्‍त नाचा, हरि-कीर्तन से जुड़े रहे।
• केनापारा, बैकुंठपुर निवासी बिस्मिल्‍ला खान बचपन से ही रामायण गाते थे। मानस मर्मज्ञ खान साहब ने गांव के बच्‍चों की रामायण मंडली भी बनाई थी और शारदा मानस मंडली से जुड़े रहे। आपका निधन 17 सितंबर 2010 को बनारस में हुआ।
• लाखागढ़, पिथौरा के करीम खान लंबे समय से दशहरा पर रामलीला का संचालन करते आ रहे हैं। नवापारा-राजिम के इकबाल खां युवा पीढ़ी के रामायणी हैं। बैजनाथपारा, रायपुर के एक पुराने कव्‍वाल जनाब सईद की पंक्ति 'श्रीराम जी आ के रावन को मारो' लोग अब भी याद करते हैं और दूसरी तरफ गुढि़यारी के गायक गजानंद तिवारी, छत्‍तीसगढ़ी गीतों को, कव्‍वाली तर्ज में ही गाने के लिए मशहूर रहे हैं।

कंडरका-कुम्‍हारी, दुर्ग के लोकधारा सांस्‍कृतिक मंच के प्रमुख
शेर अली को रामायण गाने की प्रेरणा,
हरि कीर्तन गायक पिता रज्‍जाक अली से मिली।

होठों से फुसफुसाहट, जबान से बोली, कंठ से सुर निकलते हैं,
लेकिन रायपुर आकाशवाणी के लोकप्रिय उद्घोषक मिर्जा मसूद
 ''ॐ'' उचारते तो लगता कि नाभि से निकलने वाली घोष ध्‍वनि है
और जिसे सुनने वाले के दिल की धड़कन बढ़ जाती।

कवर्धा-खरोरा के कवि मीर अली मीर से उनकी चर्चित पंक्तियां
 'जंजीर बोलती थी वंदेमारतम, शमशीर बोलती थी वंदेमातरम्,
कश्‍मीर बोलता है वंदेमातरम्' सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

बिलासपुर के हिदायत अली कमलाकर 
की कृति 'समर्थ राम' और उनका सौहार्द, 
अपने आप में मिसाल है।
 

मोहम्मद खलील अहमद 1974 में बाराबंकी से फरसगांव आए,
सिलाई का काम करते रहे और पूरे इलाके के खलील खालू बन गए।
वे हर उस जगह होते जहां मानस पाठ होता,
खुद मानस गान करने के अलावा हारमोनियम भी बहुत अच्छा बजाते थे।
उन्हें लगभग पूरा मानस कंठस्थ था।
बढ़ी हुई उम्र में अब वे तो मानस पाठ में शामिल नहीं हो पाते
पर स्मृतियों से अब भी भाव-विभोर हो जाते हैं।
(जानकारी के लिए पीयूष कुमार जी का आभार)
 






• छत्‍तीसगढ़ हज कमेटी के चेयनमैन डॉ. सलीम राज ने अयोध्‍या विवाद पर कहा कि 'मुस्लिम समुदाय के पक्ष में भी निर्णय आने पर उस स्‍थल को राम मंदिर के निर्माण के लिए सहृदयतापूर्वक दे देना चाहिए।' हबीब तनवीर के नया थियेटर का अभिवादन 'जय शंकर' तो प्रसिद्ध है ही। होली, दीवाली मनाने वाले मुसलमान मिल ही जाते हैं, नवरात्रि का विधि-विधान पूर्वक कठोर व्रत रखने वाली मुस्लिम महिलाएं भी हैं तो धरसीवां जैसे गांव में रोजा रखने वाले हिन्‍दू भी हैं। मोहर्रम पर ताजिएदारी निभाते हुए बच्‍चों को ताजिए के नीचे से गुजारा जाना आम है, लेकिन अकलतरा में मोहर्रम पर हर साल दुलदुल घोड़े की नाल हमारे घर के पुराने हिस्‍से से निकलती थी।

नारों और नसीहतों से अधिक असरदार, ज्‍यादा जीवंत, सौहार्द-सद्भाव का रस यहां इतनी सहजता से प्रवाहित है कि नजरअंदाज होता रहता है।


  • यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 23 सितम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित।

Wednesday, June 6, 2012

मेरा पर्यावरण

कल एक और पर्यावरण दिवस हमने बिता लिया।

खबर है इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का विषय- ''हरित अर्थव्यवस्था: क्या आप इसमें शामिल हैं?'' (Green Economy: Does it include you?)। यह भी खबर है कि इस अवसर पर विशेष प्रदर्शनी रेलगाड़ी के 8 डिब्बों में जैव विविधता और आजीविका के बीच का संबंध भी प्रदर्शित होगा।

पर्यावरण दिवस की अगली सुबह, आज शुक्र पारगमन हो रहा है। यह वैसी उजली नहीं, सूरज पर एक धब्‍बा बनेगा। यह सुबह मेरी रोजाना की साथी मछलियों के लिए हुई ही नहीं। रायपुर के इस खम्‍हारडीह तालाब में मछलियां, मछुआरों की आजीविका बनती रहीं, आज देखा तालाब का कालिख हो रहा हरा पानी और मछलियां...-




लगता है, बच्‍ची ने रट लिया है और सुबकते, पाठ अनचाहे दुहरा रही है-
मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओ डर जाती है
बाहर निकालो मर जाती है

आज तो यह पाठ झूठा हुआ।

Thursday, July 14, 2011

रायपुर में रजनीश

सन्‌ 1979 में दुर्गा महाविद्यालय से स्नातक हो कर, स्नातकोत्तर के लिए मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय का चयन किया। पुरातत्व में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए गुरूजी श्री डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर की प्रेरणा रही और फलस्वरूप न सिर्फ रायपुर बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के अनूठे शिक्षण संस्थान शासकीय दूधाधारी श्रीवैष्णव स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश हुआ।

1979 से 1981, स्नातकोत्तर अध्ययन के दो साल, मेरे लिए स्मरणीय हैं और रहेंगे बल्कि यादों से कहीं अधिक इस अवधि का प्रभाव स्वयं पर महसूस करता हूं। इस संस्था के प्रति मेरा भाव, सहपाठियों की याद सहित महाविद्यालय और छात्रावास के भवन और गुरुजन की स्मृति के रूप में मेरे साथ जुड़ा है। सर्वप्रथम गुरू डॉं. लक्ष्मीशंकर निगम, प्राचार्य डॉं. रामनिहाल शर्मा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र, डॉ. सुल्लेरे, डॉ. लक्ष्मीकांत शर्मा, डॉ. श्रीवास्तव/ पाठक, कान्हे और जैन मैडम/ स्‍वामी, नाग, पाण्‍डेय, चौधरी, सारस्वत, कान्हे, अग्रवाल सर और इन सब के साथ ग्रंथपाल श्रीमती छवि चटर्जी। संस्कृत अध्ययन के वातावरण में यहां अधिकतर विद्यार्थी आयुर्वेदिक कॉलेज में प्रवेश के इच्छुक होते थे। कुछ छात्रसंघ की राजनीति के लिए यहां आते, कुछ की रुचि संस्कृत में होती, तो कुछ को छात्रवृत्ति का आकर्षण होता, बहरहाल ये सब संस्कृत वाले होते थे लेकिन हम पुरातत्व के विद्यार्थी ऐसे होते थे जो संस्कृत महाविद्यालय के छात्र होकर भी संस्कृत को विषय के रूप में नहीं पढ़ते थे।

इस तरह संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ने वालों और संस्कृत न पढ़ने-पढ़ाने वालों का अलग वर्ग था। बावजूद इसके कि संगत का लाभ सदैव और बराबर एक-दूसरे को मिलता था। अल्पमत में होने के बावजूद भी हमारी भिड़ंत अक्सर संस्कृत वालों से हो जाया करती थी। संस्कृत के लोग, उसे देवभाषा कहते तो हम उस की भाषा वैज्ञानिकता और व्याकरण नियम पर कुतर्कपूर्ण टिप्पणी करते कि इसमें कोट पहले सिल लिया जाता है और उसके अनुसार हाथ-पैर छिलकर फिटिंग लाई जाती है यानि संस्कृत में बोलने की स्वाभाविकता पर व्याकरण के कठोर नियम हावी रहते हैं। ऐसे सभी तर्क-वितर्क के बावजूद विद्यार्थियों के लिए शिक्षण का सौहार्दपूर्ण वातावरण कभी प्रभावित नहीं होता।

डॉ. राजेन्द्र मिश्र अपने व्यक्तित्व के चकाचौंध सहित आते तो हिन्दी के कम अंग्रेजी विभाग के अधिक लगते। कक्षाओं से कहीं अधिक समय चर्चाओं के लिए देते और कोई भी छात्र, जिसे साहित्य में रूचि हो, उसे बराबरी का अवसर देते हुए बात करने को हमेशा तैयार रहते। अच्छा साहित्य पढ़ने का संस्कार डालने के उनके निरन्तर उद्यम में उनका व्यक्तित्व और वक्तृत्व प्रभावी होता। अगर कोई एक ही खास बात इस संस्थान के लिए कहनी हो तो ''यह ऐसा शिक्षण संस्थान रहा कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ज्ञान-दान के लिए सदैव तत्पर रहता। प्राचार्य डॉ. शर्मा से लेकर ग्रंथपाल मैडम चटर्जी तक।'' मैडम चटर्जी अनुशासन की इतनी पक्की थीं कि शुरू में लाईब्रेरी में संभलकर प्रवेश करना होता लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही वे भांप लेती कि विद्यार्थी वास्तव में अध्ययनशील है तो फिर उसके लिए किताबें खोजना, किताबों की जानकारी के साथ हरसंभव मदद के लिए तैयार रहतीं।

डॉं. सुल्लेरे पास ही विज्ञान महाविद्यालय के पीछे रहते और महाविद्यालय के अलावा घर पर भी, कभी भी, मार्गदर्शन के लिए तैयार रहते। डॉ. निगम क्लास की पढ़ाई के साथ-साथ चाय की कैन्टीन में भी गपशप के बहाने इतिहास और इतिहास अध्ययन की मनोरंजक बातें, घटनाएं, संदर्भ सुनाते और उच्चस्तरीय तथा ताजे शोध की जानकारी देकर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। जेब खर्च न होने पर भरोसा रहता कि चाय तो निगम सर जरूर पिला देंगे यह भरोसा कभी नहीं टूटा, बल्कि रोड साइड क्लास अधिक लंबी खिंचने लगे तो मनी कैंटीन का समोसा भी हो जाता। निगम सर के हरे रंग की राजदूत मोटरसाईकिल बिना चाबी के स्टार्ट हो जाती लेकिन उसे चलाना मुश्किल होता। 'चला सको, तो ले जाओ' की अलिखित शर्त के साथ यह सबके लिए उपलब्ध रहती थी। हम कुछ लोग इस सुविधा का अक्सर लाभ लेते और वापस स्टॉफ रूम के सामने लाकर खड़ी कर देते। कई बार ऐसा भी होता कि इंतजार के बाद भी मोटरसाईकिल नहीं लौटती तब 'कल ले लेंगे' के सहज भाव सहित निगम सर, लिफ्ट लेकर या रिक्शे से वापस घर लौटते।

डॉ. रामनिहाल शर्मा और सारस्वत सर से उनके निधन-पूर्व तक सम्पर्क बना रहा और मैं हर मुलाकात में उनसे लाभान्वित होता रहा। डॉ. निगम, डॉ. राजेन्द्र मिश्र और अग्रवाल सर से उनकी थोड़ी बदली भूमिकाओं के बावजूद अभी भी सम्पर्क बना हुआ है और संस्कृत महाविद्यालय का विद्यार्थी होने का लाभ इन गुरुजनों से मुझे अब भी मिलता रहता है।

यहीं पढ़ाई के दौरान मुझे बोर्ड ऑफ स्टडीज और फिर विश्वविद्यालय के अकादमिक कौंसिल के छात्र प्रतिनिधि के रूप में सदस्य रहने का अवसर मिला और इसी महाविद्यालय की शिक्षा का परिणाम मेरे लिए एम.ए. में सर्वोच्च अंकों के लिए स्वर्ण पदक के रूप में सर्वाधिक उल्लेखनीय रहा। इसी पढ़ाई और परिणाम के बदौलत मेरा प्रवेश आगे की पढ़ाई के लिए बिरला इस्टीट्‌यूट, भोपाल में सहज ही हो गया और फिर यही मेरे पुरातत्व/संस्कृति विभाग की इस शासकीय सेवा की पृष्ठभूमि बना लेकिन इन सब उपलब्धियों की तुलना में यह महाविद्यालय गुरूकुलनुमा आत्मीय माहौल के साथ संस्कार केन्द्र के रूप में अधिक स्मरणीय है। वर्ष 2005 इस महाविद्यालय के लिए स्वर्ण जयंती का वर्ष मात्र नहीं विगत 50 स्वर्णिम वर्षों के गौरवशाली इतिहास का साक्षी वर्ष भी है।

2005 में महाविद्यालय की स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रकाशित स्‍मारिका के लिए मेरा लिखा लेख, जो लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ है।

पूर्णिमा परिशिष्‍ट

आषाढ़ की पूर्णिमा, गुरु अथवा व्‍यास पूर्णिमा भी है। कहा जाता है कि व्‍यास का जन्‍म इसी तिथि को हुआ था, जिनका अधिक प्रचलित नाम वेदव्‍यास है। इन्‍हें 28 व्‍यासों की नामावलि में अंतिम, कृष्‍ण द्वैपायन कहा गया है। इनका एक अन्‍य नाम बादरायण भी है। इस अवसर पर गुरुओं और अपने बादरायण संबंधों के कुछ उल्‍लेख-

छात्रावास में रहते हुए हम सब अपने को इस पूरे परिसर के लिए जिम्‍मेदार मानते और मेरी अनुशासनप्रियता का एक ही उदाहरण काफी होगा, लगभग छः म‍हीने बाद एक दिन तबियत नरम-गरम होने के कारण मुझे पता चला कि छात्रावास में प्रतिदिन सन्‍ध्‍या प्रार्थना भी होती है, जो सबके लिए अनिवार्य है। तब दिन भर का तो अपना ठिकाना नहीं रहता था, लेकिन अपनी निशाचरी के कारण, रात की जिम्‍मेदारी चौकीदारों के साथ मैं अपनी भी मानता। रात चौकीदारी वाले साथियों सर्वश्री अंजोरदास, नरहर, कातिक और गुहाराम को भी गुरुओं के साथ स्‍मरण कर रहा हूं, गुरु शब्‍द की एक व्‍याख्‍या है- 'गरति सिञ्चति कर्णयोर्ज्ञानामृतम् इति गुरुः' अर्थात् गुरु, जो कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करे। उन दिनों के इन निशाचर साथियों से मैंने न जाने कितने किस्‍से सुने हैं भूत-परेत, धरम-करम-कुकरम, समाज-लोकाचार के और जीवन का पाठ पढ़ा है, वह सब मुझे अमृत सिंचन की तरह ही प्रिय होता था।

इसी संदर्भ में गुरु पदासीन महापुरुषों का स्‍मरण- कभी इस महाविद्यालय के विद्यार्थी रहे छत्‍तीसगढ़ के महान संत कवि श्री पवन दीवान जी, जिनके लिए नारा बना 'पवन नहीं ये आंधी है, छत्‍तीसगढ़ का गांधी है', जो राजनीति में सक्रिय रहते हुए कई पदों के साथ सांसद और कभी जेल मंत्री भी रहे, तब कहते, जिसका मंत्री हूं, वही दे सकता हूं।... इसी संस्‍था में छात्र रहे राजेश्री महंत रामसुंदरदास जी महाराज।... तीन विद्यार्थियों वाले कक्ष क्र. 12 में लगभग पूरे दो साल मैं अकेले रहा। कभी-कभार गालव साहू और तजेन्‍द्र शर्मा रूकते थे। तजेन्‍द्र के संदर्भ से छत्‍तीसगढ़ के पांडुका गांव में जन्‍म लिए महेश प्रसाद वर्मा यानि विश्‍व गुरु महर्षि महेश योगी से अपना जुड़ाव महसूस करता हूं। तजेन्‍द्र, पढ़ाई के बाद महर्षि जी की संस्‍था से संबद्ध हो गए थे।

अब क्‍लाइमेक्‍स, यानि आ जाएं रायपुर में रजनीश पर। छात्रावास का मुझे मिला कमरा खाली रहने से मुझे सुविधा ही थी। कुछ समय बाद पता चला कि छात्रावास में कई भूत हैं, उनकी चहलकदमी खाली पड़े मेस हॉल में, छत पर और इस कमरे क्र. 12 में रहती है। यह भी बताया गया कि इसी कमरे में कभी किसी छात्र ने आत्‍महत्‍या कर ली थी। (मन ही मन चाहता रहा कि इन किस्‍सों पर सबका भरोसा बना रहे और मैं अकेला इस कमरे में काबिज रहूं, लेकिन) इस बात की शिकायत ले कर पहले मैं वार्डन से मिला फिर प्राचार्य शर्मा जी से। उन्‍होंने धैर्य से मेरी बातें सुनी, फिर बताया कि तुम्‍हें तो वह खास कमरा दिया गया है, (संभव है मेरा मन रखने को, लेकिन मैं क्‍यों न मान लूं) जिसमें कभी रजनीश रहते थे। मैंने अविश्‍वासपूर्वक कहा, आचार्य रजनीश! यहां, रायपुर में। इस पर, शर्मा सर ने यह तस्‍वीर दिखाई-

आप भी देखिए, तब फोटो-वोटो अंगरेजी कारबार माना जाता था शायद, इसीलिए तो संस्‍कृत कालेज के इस समूह चित्र पर लेखी अंगरेजी में है और चित्र के साथ नाम का अनुमान आप लगा ही सकते हैं, Shri R. C. Mohan यानि श्री रजनीश चन्‍द्र मोहन, आचार्य रजनीश, भगवान रजनीश, ओशो।

Sunday, July 3, 2011

स्वामी विवेकानन्द

4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह और भी कम कि 12 जनवरी 1863 को जन्‍म लिए इस महामानव के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्‍थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। रायपुर से कलकत्ता लौटकर उन्‍होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।

रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्‍होंने निवास किया

छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्‌बोधन में भी सुना है। 'स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश' शीर्षक से अबुझमाड़ ग्रामीण विकास प्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश-

विवेकानन्द, जो नरेन्द्र नाथ दत्त के रूप में सन्‌ 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी वय 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ते से रेललाइन के द्वारा नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतः बहुत सम्भव है, नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में, ''वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात्‌ परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।'' उन्होंने बताया था, ''वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत्‌ के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्‌य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनः होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।''14 (14- स्वामी सारदानन्दः'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग', तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।

रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्‍यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, ''बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।

बालक नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे, ''यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसा समझते हैं।'' अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, ''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। कठोपनिषद्‌ में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था, ''बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का, पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।''

नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे।15 (15- स्वामी गम्भीरानन्दः'युगनायक विवेकानन्द' (बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युगनायक नाम से अभिहित)) फिर, रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ। 16 (16- 'दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द', अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43 (आगे 'दि लाइफ' नाम से अभिहित))

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, ''आपने मेरे लिए क्या किया है?'' तुरन्त उत्तर मिला, ''जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!'' पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।

एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ''कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!'' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।17 (17- वही, पृ. 44)

उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।

बताया जाता है कि नरेन्‍द्र, पिता विश्‍वनाथ दत्‍त के साथ रायबहादुर भुतनाथ दे (1850-1903) के इसी ''दे भवन'' में रहे थे। भवन की वर्तमान तस्‍वीर, जिसमें भुतनाथ जी के पुत्र हरिनाथ दे का शिलालेख है कि उन्‍होंने अपने जीवन के 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखीं।


इस भवन में नरेन्‍द्र-विवेकानन्‍द के निवास का संदर्भ यहां लगे एक अन्‍य शिलालेख में था, जिसके सहित इस भवन की तस्‍वीर सन 2003 में स्‍वामी जी के रायपुर आगमन के 125 वर्ष पर छत्‍तीसगढ़ शासन, संस्‍कृति विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी। पता चला कि यह शिलालेख अब वहां नहीं है।


बूढ़ापारा का डे भवन, जिसमें स्वामी विवेकानंद के निवास 
की जानकारी का शिलालेख होता था।
सन 1995 का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसका आशय स्वयं स्पष्ट है।


स्‍वामी विवेकानन्‍द की 150 जयंती के आयोजन आरंभ हो रहे हैं। समय की पर्त कभी इतनी मोटी होती है कि कम समय में ही बड़ी घटना पर भी ओझल कर देने वाला परदा पड़ सकता है। इस अवसर पर उनके रायपुर आगमन व निवास के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति बनती देखकर यह प्रस्‍तुत करना जरूरी लगा।

Wednesday, May 18, 2011

अजायबघर

18 मई। सन 1977 से इस तिथि पर पूरी दुनिया में संग्रहालय दिवस मनाया जाता है। आज यह दिवस 100 से भी अधिक देशों और 30000 से भी अधिक संग्रहालयों में मनाया जा रहा है। इस वर्ष का विषय है 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी' (Theme - Museum and Memory : Object Tell Your Story)। कुछ स्मृति और पुराना लेखा-जोखा मिलाकर हमने संग्रहालय की ही कहानी बना ली है, जिसमें रायपुर, छत्तीसगढ़ के लिए गौरव-बोध का अवसर भी है।

सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। यह नक्शा आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र जी के संग्रह में है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है।


सन 1936 के प्रतिवेदन (The Museums of India by SF Markham and H Hargreaves) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से भी आश्चर्यजनक कम) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है।
अष्‍टकोणीय पुराना संग्रहालय भवन तथा महंत घासीदास
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है (आजाद भारत में पैदा मेरी पीढ़ी को सोच कर कोफ्त होने लगती है)।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
मंजुश्री, सिरपुर, लगभग 8वीं सदी ईसवी
कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, इस वर्ष संग्रहालय दिवस के लिए निर्धारित विषय दुहरा लें - 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी'।

यह पोस्‍ट, नई दिल्‍ली के जनसत्‍ता अखबार में 10 जून 2011 को समांतर स्‍तंभ में 'कहानी ही सही' शीर्षक से प्रकाशित।

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