Showing posts with label परमाणु. Show all posts
Showing posts with label परमाणु. Show all posts

Saturday, June 25, 2011

परमाणु

रस-रसायन की भाषा। ... रससिद्ध करने वाले वैद्यराज, कविराज भी कहे जाते हैं। ... रस कभी कटु (क्षार), अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय, षटरस है तो करुण, रौद्र, श्रृंगार, अद्‌भुत, वीर, हास्य, वीभत्स, भयानक और शांत जैसे नवरस भी है, जिनमें कभी 'शांत' को छोड़कर आठ तो 'वात्सल्य' को जोड़कर दस भी गिना जाता है। ... हमारे एक गुरुजी 'एस्थेटिक' को सौंदर्यशास्त्र कहने पर नाराज होकर कहते, रसशास्त्र जैसा सार्थक शब्द है फिर कुछ और क्यों कहें। ... आजकल फिल्मी दुनिया में किसी न किसी की केमिस्ट्री बनती-बिगड़ती ही रहती है।

शास्त्रों में अज्ञानी के न जाने क्या और कितने लक्षण बताए गए होंगे, लेकिन मेरा विश्वास है कि उनमें एक होगा- 'अपनी बात कहने के लिए विषय प्रवेश की दिशा का निश्चय न कर पाना।' ऐसा तभी होता है, जब विषय पर अधिकार न हो और उसका 'हाथ कंगन को आरसी' यहां भी है। किन्तु विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा हूं कि आपका साथ रहा तो कुछ निबाह हो ही जाएगा।

मेरी अपनी उक्ति है- ''गुणों का सिर्फ सम्मान होता है जबकि पसंद, कमजोरियां की जाती हैं।'' इस वाक्य के वैज्ञानिक परीक्षण के चक्कर में रसायनशास्त्र दुहराने बैठ गया। हमारी परम्परा में वैशेषिक पद्धति में कणाद ऋषि ने अविनाशिता का सिद्धांत प्रतिपादन करते हुए पदार्थ के सूक्ष्म कणों को परमाणु नाम दिया। वैसे पूरी दुनिया में रसायन की प्रेरणा है, चिर यौवन-अमरत्‍व (स्थिरता-अविनाशिता) और किसी भी पदार्थ को बदल कर स्‍वर्ण बना देना (परिवर्तन-गतिशीलता)। शोध अब भी जारी है, लेकिन इस क्रम में खोज हुई कि परमाणु के नाभिक में उदासीन न्यूट्रान (n) और धनावेशित प्रोटान (p) होते हैं, जबकि ऋणावेशित इलेक्ट्रान (e) नाभिक के बाहर कक्षाओं में सक्रिय होते हैं। कक्षों में इलेक्ट्रान की अधिकतम संभव संख्‍या क्रमशः 2, 8, 18, 32 आदि होती है।

इस रेखाचित्र में देखें। सोडियम (Na) n-12, p-11, e-11 (2,8,1) और क्लोरीन (Cl) n-18, p-17, e-17 (2,8,7) से बना सोडियम क्लोराइड (NaCl), नमक यानि सलाइन-सलोनेपन का संयोजक बंध -
बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रान की संख्‍या पूर्ण हो तो तत्व अक्रिय होता है और यहां इलेक्ट्रान की संख्‍या उक्तानुसार पूर्ण न होने पर तत्व क्रियाशील होता है तथा इलेक्ट्रान त्याग कर या ग्रहण कर आवर्त सारिणी के निकटतम अक्रिय गैस जैसी रचना प्राप्त करने की चेष्टा (ॽ) करता है। किसी तत्व का परमाणु, जितने इलेक्ट्रान ग्रहण करता या त्यागता है, वही तत्व की संयोजकता होती है।

देखते-देखते तत्व या पदार्थ, मनुष्य का समानार्थी बनने लगा। पदार्थ के धनावेशित प्रोटान, मानव के पाजिटिव गुण और ऋणावेशित इलेक्ट्रान उसकी कमजोरियां हुईं, बाहरी कक्षा में जिनकी संख्‍या पूर्ण न होने के कारण अन्य के प्रति आकर्षण/पसंदगी और फलस्वरूप संयोजकता संभव होती है। लेकिन उदासीन और धनावेशित केन्‍द्र की स्थिरता के भरोसे ही, उसके चारों ओर ऋणावेश गति और यह संयोग संभव होता है। मानवीय चेष्टा/नियति भी तो अक्रिय गैस की तरह स्थिरता, मोक्ष, परम पद प्राप्त कर लेना है।

यह और भी गड्‌ड-मड्‌ड होने लगा। भ्रम होने लगा (अज्ञान का लक्षण ॽ) कि रसायनशास्त्र चल रहा है या कुछ और। आगे बढ़ने पर जॉन न्यूलैण्ड का अष्टक नियम मिल गया। तत्वों को उनके बढ़ते हुए परमाणु भारों के क्रम में व्यवस्थित करने पर 'सरगम' की तरह आठवां तत्व, पहले तत्व के भौतिक और रासायनिक गुणों से समानता रखता है, इस तरह-
सा- लीथियम, सोडियम, पोटेशियम// रे- बेरीलियम, मैगनीशियम, कैल्शियम// ग- बोरान, एल्यूमीनियम// म- कार्बन, सिलिकान// प- नाइट्रोजन, फास्फोरस// ध- आक्सीजन, सल्फर// नी- फ्लोरीन, क्लोरीन// जैसा सुर सधता दिखने लगा।

मजेदार कि यह नियम हल्के तत्वों पर लागू होता है, भारी पर नहीं। वैसे भी भारी पर नियम, हमेशा कहां लागू हो पाते हैं, 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'। सो सब अपरा जंजाल ...। जड़-चेतन का भेद विलोप ...। कहां तक पड़े रहें दुनियादारी के झमेले में- राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। राम नाम रस पीजै मनवा ...

सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
साध्य उपपन्न।