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Thursday, September 27, 2012

एकताल

केलो-कूल पर कला की कलदार चमक रही है। यह आदिम कूंची की चित्रकारी के नमूनों, कोसा और कत्थक के लिए जाना गया है। यहां रायगढ़ जिले की छत्तीसगढ़-उड़ीसा सीमा से लगा गांव है- एकताल। इस नाम का कारण जो हो, पूरे गांव की लय, सुर और ताल एक ही है। यहां के झारा या झोरका कहे जाने वाले धातु-शिल्पियों की कृतियों में मानों सदियां घनीभूत होती हैं, प्रवहमान काल-परम्परा ठोस आकार धरती है। इनमें श्रम, कौशल, तकनीक और कला का सुसंहत रूप मूर्तमान होता है।

एकताल, जिला मुख्‍यालय रायगढ़ से आवाजाही के लिए नवापाली हो कर 15 किलोमीटर लंबा रास्ता है, लेकिन नियमित चलता रास्ता 20 किलोमीटर और उड़ीसा के कनकतुरा गांव हो कर जाता है। लगभग 700 जनसंख्‍या वाला यह अकेला गांव होगा, जहां के 7 शिल्पी, यानि आबादी का 1 प्रतिशत, राष्ट्रपति पुरस्कृत हैं। झारा, पारम्परिक रूप से आनुष्ठानिक कृतियां और आभूषण बनाया करते थे, जिनमें कान का गहना मुंदरा और फंसिया, बच्चों के लिए पैर की पैरी, पैसा रखने का मुर्गी अंडा आकार का जालीदार कराट, आभूषण रखने के लिए ढक्कनदार कलात्मक नारियल, पोरा बैल, दिया-जागर, नपना मान और अगहन पूजा के लिए लक्ष्मी होती। ये कृतियां धातु शिल्प की प्राचीनतम ज्ञात मोमउच्छिष्ट प्रणाली (Lost-wax process) से बनती हैं। 10 किलो की कलाकृति बनाने में लगभग 7 किलो पीतल और 700 ग्राम छना-साफ किया हुआ मएन-वैक्स की आवश्यकता होती है, जिसमें धूप और तेल मिलाया जाता है। पहले वैक्स सुलभ न होने के कारण सरई धूप (साल वृक्ष के गोंद-राल) में तेल मिलाया जाता था।

शिल्पी झारा समुदाय के विशाल देवकुल में धरती माता, बूढ़ी दाई, चेचक माता, गुड़ी माता, सेन्दरी देवी, कलारी देवी, काली माई, चंडी देवी, रापेन देवी, बोन्डो देवी, चारमाता, अंधारी देवी, सिसरिंगा पाट, सारंगढ़िन देवी, चंद्रसेनी देवी, नाथलदाई, मरही देवी, खल्लारी माता, बमलेश्वरी, घाटेसरी देवी, घंटेसरी देवी, मन्सा देवी, समलाई देवी, दुर्गा, भवानी, कालरात्रि, कंकालिन, खप्परधारी और न जाने कितनी देवियां है, लेकिन करमसैनी देवी का मान सबसे अधिक है। क्वांर नवरात्रि में पहले मंगलवार को, (दशहरा के समय) करमा वृक्ष में करमसैनी की पूजा करते हैं। गीत गाते हैं- ''जोहार मांगो करमसैनी, अपुत्र के पुत्र दानी, निधन के धन दानी, अंधा ल चक्खु दान दे मां करमसैनी।''

इन कल्पनाशील शिल्पियों में से गोविन्दराम ने अपने समुदाय की गाथा, मान्यता, धारणा, आस्था और विश्वास को कृतियों में ढालना आरंभ किया और करमसैनी के करमा वृक्ष को मूर्त कलाकृति का रूप दे कर 1984-85 का शिखर सम्मान प्राप्त किया। गौरांगो तथा श्यामघन ने गढ़ी राकस-चुरैल (राक्षस-चुड़ैल) की आकृति, जिस पर वे दोनों 1986 में राष्ट्रपति से पुरस्कृत हुए। इसे और सुघड़ रूप दे कर गोविन्दराम भी 1987 में राष्ट्रपति पुरस्कार के हकदार बने, उन्हें 2005 का दाउ मंदराजी सम्मान भी मिला है। गोविन्दराम के बाद एकताल के धनीराम को 1997 में, रामलाल को 1998 में, उदेराम को 2002 में और धनमती को 2003 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है।

उधर बस्तर में सुखचंद (घड़वा) पोयाम को 1970 में, जयदेव बघेल को 1977 में, राजेन्द्र बघेल को 1996 में और पंचूराम सागर को 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ है। छत्तीसगढ़ से जयदेव बघेल और रजवार कला की सोनाबाई को (नवंबर 2012 में गोविन्दराम को भी) शिल्प गुरु सम्मान भी मिला है तो बस्‍तर के सुशील सखूजा जैसे नवाचारी ढोकरा-ढलाई कलाकार ने इस शिल्‍प को देश के बाहर भी एक अलग पहचान दिलाई है।

इन बरसों में इनकी बनाई कलाकृतियों की मांग वैसी नहीं रही। समय के साथ झारा शिल्पियों ने सीखा कि कृतियों के साथ कहानी जरूरी है और यह भी कि सरकार से मिलने वाले सम्मान की बात ही कुछ अलग है। अब उनकी कृतियां आज के दौर का भी अभिलेखन कर रही हैं।
भीमो बताते हैं- पत्नी के साथ मिल कर 15 किलो की 3 फीट की कलाकृति बनाने में 2 महीना लगा। चित्र में साथ 'कहानी'। शिल्प पर लेख है- छत्तीसगढ़ शासन कि उचित मुल्य कि दूकान। रू 2 रू चावल किलो का काहनी
प्रमाण पत्र के साथ श्री भीमो झारा

समय की नब्‍ज समझते, नए प्रतिमान गढ़ते ढोकरा शिल्‍पी परम्‍परा के साथ प्रासंगिक हैं

Thursday, July 28, 2011

डीपाडीह

(इस पोस्‍ट पर टिप्‍पणी अपेक्षित नहीं)

स्मरण सन 1988 का। मार्च का महीना, ठीक धूल पंचमी के दिन डीपाडीह के लिए रवाना हुए। पृष्ठभूमि में तीन खास स्थितियां। लगभग तीन माह पहले स्वयं का विवाह, डेढ़ माह पहले डाक्टर कक्का का निधन और लगभग पांच माह से चक्रवर्ती जी का बिलासपुर प्रवास। ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा मिली, वहां के काम से पूरी तरह उबर नहीं पाए, नये काम की शुरूआत के लिए डीपाडीह के लिए प्रस्थान हो गया।

इसके पहले सरगुजा जिले में कुछ समय के लिए रामगढ़, उदयपुर तक ही गया था, जो बिलासपुर सीमा से अधिक दूर नहीं है लेकिन इस बार लक्ष्य था, सरगुजा जिले की दूसरी सीमा पर बिहार से लगा डीपाडीह। एक दिन अम्बिकापुर, एक दिन कुसमी और फिर एक सुबह चक्रवर्ती जी काम शुरू करने की शुभकामनाओं सहित छोड़कर वापस लौट गये। मेरी स्थिति पैराशूट से अन्जान भूगोल पर कहीं टपक पड़े जैसी थी। डीपाडीह से गुजरने में ही कन्हर नदी के किनारे गांव के छोर पर बना अकेला सा कच्चा घर, जो गांव की सबसे भव्य इमारत दिखती थी, बिना मालिक और उसके इजाजत की परवाह के तय कर लिया था, आते-जाते ही काम शुरू करने के लिए मजदूर और गांव के तिराहे-बस अड्‌डे के होटल वाले द्वारा विशेष रूप से मेरे लिए किये खाने का प्रबंध हो गया।

गोदामनुमा, बिना बिजली की सुविधा वाली उस इमारत के जिम्मेदार गांव के सेठ जी थे उन्होंने सहर्ष और निशर्त चाबी मुझे सौंप दी और मामूली साफ-सफाई का इन्तजाम भी करा दिया। सुबह से गांव के अंतिम छोर के टीले, उरांव टोली से काम शुरू हुआ। काम की शुरूआत में ही अकेला होने से पूरे समय मजदूरों के साथ फिरकी बन जाना और बीच के एक घंटे के भोजन अवकाश में उरांव टोली के बच्चों के साथ आसपास के दूसरे टीलों पर घूमना और शाम को दिन ढलते-ढलते वापसी। प्रतिदिन दस-बारह किलोमीटर पैदल चलना होता था। वापस आते हुए बस्ती में खाना खाने रूकता और फिर इकट्ठे डेरे पर लौटता, इस बीच कोई सहयोगी साफ-सफाई कर चिमनी जलाकर, पीने का पानी भरकर जा चुका होता था।

बस्ती से डेरे तक का लगभग एक किलोमीटर का रास्ता आगे बढ़ते हुए सूना होता जाता, बिजली भी आधे रास्‍ते तक ही थी। होश संभालने के बाद बिना बिजली के घर में एक-दो रात तुमान में काट चुका था, यह दूसरा लेकिन लम्बा, अवधि अनिश्चितता समेत अनुभव था। अंधेरा गहराते ही बस्ती के न जाने किस कोने से मानों मेरे लिए जादुई और रहस्यात्मक स्वर लहरी और ढोल-ढमाके की आवाज पूरे परिवेश से अभिन्न, उभरने लगती थी, जैसे उजली रात की चांदनी। इसी आवाज के साथ आगे बढ़ता था। यह तो शायद देर रात तक चलता हो लेकिन डेरा पास आते-आते कन्हर के प्रवाह का पथरीला, प्राकृतिक संगीत धीरे-धीरे बढ़ते हुए हावी होता जाता और घर पर पहुंचते तक सिर्फ यही आवाज रह जाती, जो सोते तक मेरे साथ सूनापन काटते बनी रहती। कैम्प में रोजमर्रा को कुछ बदल लेना मुझे हमेशा भाता रहा, जिसमें शेविंग और मांसाहार छोड़ना मुख्‍य होता। साथ ही ऐसे प्रवास में ट्रांजिस्टर और समाचार पत्र से अपने को बचा कर रखता, मुझे बड़ी राहत मिलती कि यों बिना खबर-अखबार के दिन शुरू नहीं होता, लेकिन कैम्प से वापस आ कर आजमाने का मौका होता कि दुनिया जस की तस है।

सुबह सूर्योदय के साथ उठकर कार्य स्थल पर जाने की तैयारी शुरू होती, नदी के सूने घाट में जाकर स्नानादि, फिर कैमरा, नोटबुक, टेप सहित उरांव टोली, बीच रास्ते में बस्ती से गुजरते हुए दोपहर के खाने जैसा नाश्ता कर रात तक के लिए फारिग होकर काम पर हाजिर। फिर वही क्रम दुहराते हुए वापसी, घर पहुंच, लगभग घंटे भर फील्ड डायरी लिखकर, काम पर जाने, खाना खाने जैसी प्रयास रहित निष्ठा से सो जाता।

यही क्रम चलता रहा, शायद चार या पांच दिन, फिर एक शाम घर लौटने की और अकेले रात गुजारने की याद आई, मशीनी ढंग से चल रही स्थिति में पहली बार संवेदनायुक्त यह सोच उपजी, लेकिन तत्काल चिमनी जलाने वाले से कमरे में एक लाठी रख देने को कहकर, निजात पा लिया। अगली सुबह कुछ अलग हुई। सिर पर बाल न होने से कंघी-शीशे का और इस बहाने अपना चेहरा देखने की स्थिति नहीं थी, नदी में मुंह धोते हुए बहते पानी में अपना प्रतिबिंब देखने की कोशिश करने लगा और शायद उसमें बिना कुछ देखे, काम बन गया की तसल्ली सहित फिर आगे की दिनचर्या शुरू हो गई, शाम वापस आने पर खाना खाते हुए क्षणिक विचार आया, बगल में ग्रामीण बैंक वालों के घर में आईना देख लूं, किन्तु हाथ धोते-धोते ही विचार भी धुल गया।

अगली शाम काम से वापस लौटते हुए अजीब अनुभूतियां हुई, जो अब याद आने पर रोमांचक सिहरन होती है। लेकिन बीच में कुछ और बातें- डीपाडीह चारों तरफ दूर पास पहाड़ियों से घिरा हुआ है, शाम होते-होते पास की पहाड़ियां गहरी हरी, उससे दूर की धूमिल और सबसे दूर की पहाड़ियां काली होने लगती थीं। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग सफेद कपड़े पहनते हैं और आगे-पीछे पंक्तिबद्ध चलते हैं। पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में पंक्तिबद्ध लोग सिर पर, कन्धे पर सामान लिये हुए लैण्ड मार्क बनकर चमकते, सरकते दिखते थे, घर वापसी की तैयारी में। आकाश पर चिड़ियां अपने ठिकानों की ओर उड़ान भरने लगती और सूर्य पहाड़ियों में छुप जाता। उस शाम मुझे लगने लगा कि मैं इस प्राकृतिक दृश्य से अभिन्न हूं, और इस विशाल दृश्य में समा कर खोता जा रहा हूं, अपने शरीर का और ठीक उस समय शायद अपने विचार क्रम का भी भान नहीं हो रहा था, पता नहीं कितनी देर, दो मिनट, तीन मिनट या पांच मिनट, अचानक सामने बिलासपुर से आया दफ्तर का एक कर्मचारी दिखा, जो अपने साथ ढेर सारी सरकारी, निजी डाक और भी कई जानकारियां लेकर आया था।

अगले दिन से ही मैंने जो अब तक गांव में कुछ भी न देखा-समझा था, सभी कुछ पहचाना सा लगने लगा। गांव के लोग, गलियां, घर, आने-जाने वाली बसें, बच्चे और मंदिरों के टीले सभी से अपनापन महसूस हुआ। बाद में तो गांव के भांजे-दामादों और समधियान को भी जानने लगा। वापस आने पर जब मित्रों से चर्चा हुई तो उन्होंने पहले डायरी लिख डालने को कहा और मुझमें अचानक उमड़े बागवानी-वनस्पति, पशु-पक्षी और प्रकृति प्रेम को इस घटना से जोड़ा, मित्रों ने अनुसार वह ऐसा बिन्दु था जहां या तो पूरी स्थितियों से स्थायी विराग हो सकता था या यह दूसरी स्थिति जिसमें सब कुछ आत्मीय और घनिष्ठ बन जाए। ... लिखने के क्रम में कई बात छूटी और विचार प्रवाह टूटा, फिर भी ...

बाद में स्वयं भी मैं काफी दिनों तक उधेड़बुन में पड़ा रहा। लगा कि मौन विकसित करके इस दुर्लभ स्थिति को शायद महसूस किया जा सके जो मुझे अनायास मिली। अपना अस्तित्व और 'मैं' की अस्मिता थोथे और निरर्थक संदर्भों से जुड़कर बनती है और निर्जीव वस्तुएं, घर की सीढ़ियों और फर्नीचर की जमावट में हम आंख मूंदकर चल सकते हैं उनसे अपनी अस्मिता अनुभूति के लिए। लेकिन सभी सुलभ संदर्भ- आपकी जानी-पहचानी जगह, जाने-पहचाने लोग, आपसी बातचीत-सम्भाषण, आपके जाने हुए या आपको जानने वाले सन्दर्भ, और उसमें सहायक खुद अपना चेहरा शीशे में देखना न हो सके तो हमारा मजबूत लेकिन नकली सन्दर्भ-अस्तित्व भरभराकर गिर सकता है, और वह बिन्दु अपनी पहचान करने का अवसर देता है तो व्यक्तित्व में स्थायी परिवर्तन ला सकता है।

डीपाडीह, सरगुजा 1988 से 1990 तक के तीन साल का जैसे पता-ठिकाना ही हो गया था। वहां हजार-एक साल की परतें उघारते हुए, उसे मन ही मन महसूस करते हुए हासिल, सामत सरना का टीला जिस रूप में उभरा-

बीतते दिनों के साथ धूमिल पड़ने के बजाय स्‍मृतियों में जिसके रंग और चटक होते जाते हैं-

सभ्‍य और सामाजिक आचरण के मूल में आदिम मन ही सक्रिय होता है।

तब तक मैं थोरो के 'वाल्‍डन' का नाम भी ठीक से नहीं जानता था, पढ़ा तो अब भी नहीं है।

संबंधित पोस्‍ट - टांगीनाथ

Friday, June 17, 2011

अलेखक का लेखा

आज 17 जून, श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले की जन्‍मतिथि है। उनका जन्‍म सन 1928 में तथा निधन 21 जुलाई 1999 को हुआ। आप सागर विश्‍वविद्यालय से वनस्‍पति शास्‍त्र के स्‍नातकोत्‍तर तथा बीएड थे। मध्‍यप्रदेश राज्‍य शासन के शिक्षा विभाग की सेवा में अधिकतर बिलासपुर संभाग में पदस्‍थ रहे और शिक्षण महाविद्यालय, बिलासपुर से सेवानिवृत्‍त हुए। इस सामग्री की प्रति मुझे उनके भतीजे श्री संजय तथा पुत्र श्री चंद्रकांत से यहां प्रकाशित करने हेतु सहमति सहित प्राप्‍त हुई। पोस्‍ट के दो हिस्‍से हैं- पहला पारिवारिक पृष्‍ठभूमि का, छोटे फॉन्‍ट में और आगे सामान्‍य फॉन्‍ट में वह भाग, जिसके लिए यह पोस्‍ट लगाई गई है।

यह वंश नृसिंह पंत से प्रारंभ हुआ है यह जानकारी मिली, इसके पूर्व के लोगों के नाम ज्ञात नही हो सके। राहट गांव व हाड क्षेत्र के निवासी थे। आज भी राहटगांवकर परिवार अमरावती के आसपास रहते है वहां के कृषक है और शासकीय/व्यापारिक/निजी संस्थानों में नौकरी करते हैं। छत्तीसगढ़ में आया हुआ परिवार पूर्व में नौकरी या खेती करते रहे होंगे। लिखित प्रमाण नहीं मिला कि परिवार के पहले व्यक्तियों में से कौन भोसले के सेवा में रहकर अंग्रेजों के बंदोबस्ती कार्यालय के रायपुर/बिलासपुर/रतनपुर/नवागढ़ में आये। किन्तु यह सत्य है कि हमारा परिवार रायपुर में ही आया और उन्हें कृषि भूमि दी गई होगी। नृसिंह पंत के बाद ही यह परिवार तीन परिवारों में बंट गया। अकोली वाले राहटगांवकर यहां से ही अलग हुए हैं। नृसिंह पंत के कितने पुत्रियां थी ज्ञात नहीं है। नरहर पंत से ही यह परिवार आगे बढ़ा वर्तमान में तीसरा परिवार नरहर पंत के बाद अलग हुआ। तीन परिवार अलग अलग रहने लगे। 1. तात्याराव बापूजी, अकोलीवाले का परिवार मोहदी से दो किलोमीटर दूर अकोली ग्राम मे बस गये। 2. कृष्णराव आप्पाजी और गोपाल राव आप्पाजी का परिवार ''टोर'' और ''कहई'' नाम के गावों में रहने लगे और कुछ ही वर्षों में खेती की भूमि बेचकर नौकरियों में लग गये, इसी पीढ़ी से अलग अलग हो गये। एक बात विशेष ध्यान में आई कि जो परिवार पास पास रहे चाहे कितनी दूरी रिश्तों की हो घनिष्ट हो जाते हैं। अकोली वाले राहटगांवकर का मोहदी आवागमन अधिक था वे निकट हो गये जबकि वे कृष्णराव के अधिक निकट थे और हमसे और अधिक निकट संबंधी हैं किन्तु आज तक वे हमसे निकट संबंध नहीं रख सके।

नरहर पंत के पुत्र आपाजी जिनका विवाह संबंध धमतरी निवासी हिशीकर से हुआ था। भोसले शासन के अंतिम वर्षों में अंग्रजों ने 1860 सन के करीब भोसले कार्यालय नागपुर के कुछ जानकार लोगों को छत्तीसगढ़ भेजा और व्यवस्था बन्दोबस्त और दफ्तर के कार्य में रायपुर भेजा। इसी दफ्तर के साथ आपाजी रायपुर आये और वैवाहिक संबंध कर रायपुर में रहने लगे। जानकारी मिलती है कि अप्पाजी परिवार सहित रायपुर के पुरानी बस्ती में रहते थे। उनकी मृत्यु किस सन में हुई ज्ञात नहीं है। उनकी विधवा पत्नी को उमरिया नाम का गांव हक मालगुजारी सहित 20-25 एकड़ जमीन दी गई थी। पटवारी तहसीलदार के दफ्तर से जानकारी मिल सकती है कि किस सन में यह गांव (आज की मोहदी) दी गई। अनुमान है कि आपाजी के मृत्यु के तत्काल बाद यह कृषि भूमि मिली है। तथा कुछ ही काल खेती करने के उपरान्त उनकी मृत्यु हो गयी होगी। उनके कुटुंब का विस्तार अगले पृष्ठ में दिया गया है। उनकी दो पुत्रियां और पांच पुत्र थे। उनके पुत्रों में से दो बड़े पुत्र अमृतराव और गणेश की विवाहोपरान्त मृत्यु हो गई इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। वे दोनों निपुत्रिक थे। कुछ जानकार बताते हैं कि दो तीन विधवायें थीं जो घर के कामों में हाथ बटाती थीं और कभी मोहदी में और कभी अन्यत्र समय बिताती थीं। वे दोनों निसंतान थे।

आपाजी के पुत्रों में लक्ष्मण राव बड़े थे। दूसरे यह कि वे बहुत कम पढ़े लिखे थे। दूसरे और तीसरे पुत्र यथा यादवराव और नारायण राव पढ़े लिखे थे- अंग्रेजी की जानकारी थी। शिक्षण रायपुर में ही हुआ होगा। केवल इतना ही सुना है कि आपाजी की विधवा पत्नी यादवराव और नारायण राव को लेकर रायपुर के तहसील दफ्तर गयी थी और दोनों को बिना विशेष अनुनय विनय के नौकरियां मिल गई यादव राव सिमगा में कानूनगो और नारायण राव धमतरी / महासमुंद में शाहनवीस के पद पर कार्य करने लग गये दोनों को करीब रू. 12/- पेंशन मिलती थी यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में और नारायण राव की मृत्यु बीस नवम्बर उन्नीस सौ एकतीस में हुई।

यादवराव का समय मोहदी में भजन पूजन में बिताते थे। अपने निवास के लिए उन्होंने ''करिया बंगला'' बनाया जहां 2-3 कमरे और परछी थी कुल 65 फुट लम्बा और 12 फुट चौड़ा हाल जिसके उत्तर में लम्बी 9 फुट चौड़ी परछी थी पीछे दक्षिण में बागवानी हेतु करीब 34 डिसिमिल जगह थी। इस हाल में पूर्व की ओर एक खिड़की थी जहां से उनके लिए पीने का पानी रखा जाता था। भजन पूजन में रत रहते और पढ़ा करते थे। उस समय की भजनों की कापियां और झांज ढोल मैंने देखा है। ग्रंथों में महाभारत, सुखसागर, विश्राम सागर, रामायण, पांडव प्रताप, रामविजय, हरिविजय मुझे मेरी मां ने दिखाया था। इन ग्रंथों की पूजा दशहरे के देवी के नवरात्र के नवमी को होती थी। इसी समय मुझे ये ग्रंथ दिखाये गये थे। यादवराव ने अपने सेवाकाल की सम्पूर्ण कमाई अपने बड़े भाई लक्ष्मण राव (बड़े महराज) को सौंप दी थी। यादवराव दादाजी के नाम से और नारायण राव नानाजी के नाम से जाने जाते थे। परिवार के अन्य सदस्य नारायण राव को काका जी कहते थे। यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में हुई।

लक्ष्मण राव परिवार के केन्द्रीय सदस्य थे। उनके दोनों छोटे भाई वेतन का अधिकांश भाग उन्हे सौंप देते थे और बदले में सम्पूर्ण राशन, अचार और खेती में उत्पन्न अन्य वस्तुएं भेजते थे। सुना है कि प्रत्येक भाई के पास एक-एक सुन्दर दुधारू गाय थी। गाय का दूध देना बंद होते ही गाय मोहदी भेज दी जाती थी और दूसरी गायें भाइयों के पास चली जाती थी। परिवार में होने वाले सभी वैवाहिक ओर अन्य मांगलिक कार्य मोहदी में ही होते थे। पुरोहित खाना पकाने वाले और पानी भरने वाले रायपुर से खबर मिलते ही आते थे उनके लिए रायपुर बैलगाड़ी जाती थी। आगंतुकों को पत्र द्वारा सूचना जाती थी और मांढर धरसीवां में बैलगाड़ियां तैनात रहती थी। बरसात में आवागमन कठिन था। मोहदी के पास एक घास भूमि थी जिसमें पानी भरता था और कीचड़ हो जाता था। उस भूमि का नाम कोल्हीया धरसा है। (कोल्हीया धरसा से लगा एक डबरा था आज छोटे तालाब का रूप ले चुका है राहत कार्य इत्यादि से) बरसात के लिए बैल तगड़े रखे गये थे। मैंने देखा है कि गाड़ियों की संख्‍या करीब 6 थी और बैल जोड़ियां 7-8 थी प्रत्येक जोड़ी को नाम दिया गया था। एक प्रणाली जो मैं जानता हूं बहुत अच्छी थी वह ऐसे कि रावत, नाई, धोबी, बिगरिहा को 1 या 1½ एकड जमीन दी गई थी जिसकी फसल का हक उन कर्मचारियों को दिया गया था। खेतिहर मजदूर बसाये गये थे उन्हें बसुन्दरा कहते थे वे आवश्यकता पड़ने पर पहले मालगुजार की खेती पर जाते थे बाद में अन्य कृषकों के यहां यह एक कृषकों के साथ समझौता था। (बनिहार)

लक्ष्मण राव साहूकारी भी करते थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने 350 एकड़ तक कृषि भूमि बना ली थी। पूरे कृषि कार्य हेतु 22 नौकर थे। भूमि और नौकर (कमिया) बराबर दो भागों में बंटा था यह मात्र स्पर्धा की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए था। करीब 13-14 एकड़ (एक नांगर की खेती) के लिए एक नौकर था नौकरों को संपूर्ण उपज का 1/4 भाग मिलता था। हिसाब कुछ जटिल था फिर मजदूरी उतने ही खंडी धान की मिलती थी जितनी कि आज करीब 28 से 32 खंडी तक। मुखिया नौकर को (अघुवा) कुछ अधिक मिलता था। चना, तिवरा, राहर, गेंहू मूंगफली इत्यादि के बदले 1/4 कीमत के रूपये मिलते थे जो 15 से 25 तक थे कभी कभी 60-70 रूपय तक मिले थे। कोदो और धान की उपज बहुत होती थी। कोदो श्रावण-भाद्रपद माह में उबाल कर जानवरों को खिलाया जाता था। पैरा, हरी घास, दाना सभी जानवरों को दिया जाता था। मेरे यादगार एवं देखने के अनुसार सभी जानवर तगड़े थे। दूध-दही इतना होता था कि इस हेतु पकाने के लिए एक कमरा ही अलग था। जजकी भी साल में 2-3 बार होती होगी क्योंकि लडकियां और बहुओं की संख्‍या अधिक थी इस हेतु एक अलग कमरा था। जिसे छवारी कुरिया कहते थे। धान के चांवल बनाने का काम सतत होते रहता था। इस हेतु एक कमरा था। सभी दामादों के लिए कमरे अलग अलग थे। मांगलिक कार्यों के भोजन पकाने हेतु कमरा था। लकडियां-कंडों हेतु भी पर्याप्त कमरे थे। कंडे बनाने हेतु घिरा हुआ एक मैदान है जहां एक पाखाना भी था। घर में दो बड़े बड़े संडास विशेष बनावट के थे। जानवरों के लिए गोठे बड़े बड़े थे। करिया बंगले की पडछी में 5-6 खंड थे जहां पहले 2-4 घोड़े और बाद मे बैल जोड़ियां रखी जाती थी। सभी प्रकार का कचरा फेंकने के लिए एक बहुत बड़ा गड्‌ढा है जो आज भी पूर्व एवं दक्षिण की ओर है।

इस तरह शासन-प्रशासन व्यवस्था व्यवहार की दृष्टि से लक्ष्मण राव (भाउजी) कुशल थे उन्हीं का अनुकरण होता रहा 1947 के बाद कुछ व्यवस्थाएं बदल गई जो आज दिखाई देती है। गांव देवता, ग्रामीण त्यौहारों का चलन और सामाजिक व्यवस्थाएं उन्हीं की देन है। सामूहिक बैठकों की व्यवस्था (गुड़ी) छायादार चबूतरे उन्हीं की प्रेरणा से बने।

लक्ष्मण राव का जीवन सादगीपूर्ण था वे दो गमछों में अपना निर्वाह करते थे। शर्ट कुरता, कोट टोपी केवल रायपुर या अन्यत्र आने के समय करते थे। लक्ष्मण राव के मां की मृत्यु 1870 में हुई उस समय वे 20 वर्ष के थे।

मोहदी के वयोवृद्धों में एक लक्ष्मण राउत (पहटिया) थे वे सतत हमारे यहां नौकरी पर रहे। उन्हें कनवा भी कहते। वे बताते है कि बैल का सींग आंख को लगा था किन्तु आखें जब थी तब भी उन्हें ''कनवा'' यह संबोधन था इसका राज मेरी मां ने बताया। लक्ष्मण राव बडे देवर थे उनकी पत्नी बड़ी जीजी गिरिजा बाई पहटिया को ''कनवा'' इसलिए कहती थी कि उनके पति और पहटिया एक ही नाम के थे। यह राउत वृद्धावस्था में हनुमान का पुजारी हो गया और राम राम नाम की रट लगाते बस्ती भर घूमता था। उसके दांत टूटे नहीं थे किन्तु घिस गये थे। गुड़ खाकर सर्दी खांसी ठीक कर लेते थे और अलसी का तेल पीकर पेट की बिमारी ठीक करते थे। मृत्यु के समय उनकी उम्र करीब 90-95 की रही होगी। (1952-53)

मोहदी में एक बार सूखा पड़ा फसल नहीं हुई ग्रामीणों और लक्ष्मण राव-नारायणराव के प्रयास से नहर बनाई गयी जो आज भी ठेलका बांधा से जुड़ी है। एक तालाब भी खुदवाया गया जो नौकाकार है उसे नैय्या और महुआ के वृक्षों से घिरे स्थल पर दूसरा तालाब ''महुआ'' तालाब बनाया गया।

मोहदी में एक कृषि क्षेत्र है जिसे डीह-गरौसा कहते हैं। डीह का अर्थ है बस्ती जो ढह गई हो। गरौसा का अर्थ है गांव का रसा हुआ पानी प्राप्त करने वाले खेत। इस संबंध में एक वाकयात कथा के रूप में बताई गई- जहां डीह है वहां एक तालाब है- उमरिया, यह और पूर्व में दूसरा ये छोटे छोटे दो तालाब हैं यही कृषि भूमि हमारे आजोबा/आजी को दी गयी थी। यहां ग्रीष्म काल में जल संकट था। ग्राम गोढ़ी से पानी लाया जाता था। पास ही एक नाला है वहां भी पानी था। उमरिया डीह से गोढ़ी, नगरगांव, अकोली जाने के लिए दूर के रास्ते थे, बीच में (जहां आज मोहदी है) जंगल था- बांस, महुआ, सागौन, साजा, सेन्हा, बेर, नीम, इमली, पीपल, गस्ती, बरगद इत्यादि का घना जंगल। एक बार रात को अकोली में गाड़ियों का पड़ाव पड़ा। भैंसा रात का प्यास बुझाने कहीं निकल गये। सबेरे जब वे पड़ाव में लौटे तो उनके सींगों और शरीर पर चोई (काई) लगी थी। उमरियाडीह पहुंचने पर गांव में यह समाचार तेजी से फैला कि अकोली और गोढ़ी के बीच जो जंगल है वहां तालाब होने का अनुमान और तर्क लगाया गया। तर्क की शोध हेतु लोग समूहों में जंगल में घुसे और वहां देखा तो बहुत बड़ा जलाशय है। लोग नाच उठे। ये तरिया मोहदी इस तरह वर्तमान मोहदी ग्राम में वसाहत प्रारंभ हुई इस मोहनीय स्थल में वसाहत करने का श्रेय लक्ष्मण राव को जाता है। शासकीय बन्दोबस्ती के आने के बाद नाप हुए होंगे और हैसियत के अनुसार लोगों को जमीन कृषि हेतु और मकान बनाने दी गयी होगी। जंगल की कटाई प्रारंभ हो गयी और लकड़ियों का उपयोग मकानों में होने लगा। बढ़ई, राजगीर और चूना बनाने की तकनीक ज्ञात की गई होगी हमारे दो बड़े मकान दो मंजिला इसके साक्षी हैं। अन्यत्र से भी कृषक परिवार जो सम्पन्न थे वसाहत के लिए आये। इनमें से दो परिवार छोटे गौंटिया और बड़े गौटिया (केरे गौटिया) के वंशज आज भी है। लछमन रावत एवं अन्य वृद्ध बताते है कि गौटिया परिवार में भैसा गाड़ी भरकर नगदी रुपया पैसा लाया गया था। अब उनके वंशज सम्पन्न नहीं रह गये।

उस समय मोहदी की जनसंख्‍या करीब 200-250 होगी। धीरे धीरे यह गांव कृषि में उन्नति करते गया और जनसंख्‍या आज 1990 में करीब 1900 हो गयी कुल मतदाता 837 हैं।

हमारे परिवार को सोलह आने का मालगुजारी हक था। सभी घास जमीन तथा आबादी जमीन मालगुजार की थी। ग्राम का क्षेत्र कृषि भूमि, आबादी, घास जमीन सहित कुल 1367 एकड़ है। आज यहां बालक/बालिका पाठशाला है और एक माध्यमिक शाला है। हाई स्कूल की बात लोगों के ध्यान में है।

पोस्‍ट रामकोठी के लिए जानकारी एकत्र करते हुए यह नहीं प्राप्‍त हो सका और जब मिला तो पढ़कर अपनी पोस्‍ट फीकी लगी। यह तब मिल जाता तो 'रामकोठी' शायद लिख ही न पाता। मेरी दृष्टि में श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले के निजी-पारिवारिक प्रयोजन हेतु लिखी यह सामग्री इतिहास, साहित्‍य, संस्‍कृति, समाज विज्ञान, ग्राम संरचना और पद्धतियों पर अलेखक का, जो इन विषयों का विशेषज्ञ भी नहीं, ऐसा लेखा है, जिसकी सहजता, प्रवाह, समन्‍वय और वस्‍तुगत रह कर आत्‍मीयता, इन क्षेत्रों के विद्वानों को भी चकित कर सकती है। नतमस्‍तक प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

Wednesday, June 8, 2011

गांव दुलारू

''मकोइया की कंटीली झाड़ियां, पपरेल, कउहा, बमरी और मुख्‍यतः पलाश के पेड़ों का जंगल- परसा भदेर। गांव के इस दक्खिनी छोर पर 1945 में आखिरी बार काला हिरण देखा गया। काले हिरण की तो नस्ल दुर्लभ हो गई, परसा भदेर में पलाश के कुछ पेड़ बाकी रहे। 1952 में मालगुजारी उन्मूलन हुआ और जंगलात, सरकार के हो गए। इसी साल, इन पलाश वृक्षों ने आखिरी वसंत देखा।'' गोपा लमना कहानी सुना रहा है, इन अनगढ़ बातों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूं, पर कहां तक। सेटलमेंट की कहानी, चीझम साहब, गढ़ीदार भुवनेश्वर मिश्र की देवी-भक्ति और उनकी घोड़ी बिजली, गांव के उत्तर-पश्चिम का महल- हाथीबंधान। बहुत सी बातें। अपने पुरखों से सुनी-सुनाई। अपनी आंखों देखी। ''आंखों की देखी कहता हूं बाबू, मिसिर बैद के घर के पीछे पुराना सिद्ध मंदिर था, बड़ा भारी, सतजुगी। महल से कोटगढ़ तक कोस-भर लंबी सुरंग थी। अब कौन मानेगा ये बातें। सुनता ही कौन है। जब पहली दफा रेलगाड़ी आई थी, वह भी याद है। बिजली तो अब-अब लगी है।'' अतीत की बातें। एकदम सत्य। मेरे गांव का सच्चा-निश्छल बचपन, दाऊजी के दुलारू जैसा।

दाऊजी के किस्सों से सभी जी चुराते हैं, लेकिन वे सुनाते है- कई बार सुना चुके हैं, लक्खी के घोड़ाधार और गांव के मालिक देवता, ठाकुरदेव का किस्सा। पूरवी सिवाना के तालाब किनारे का डीह, ठाकुरदेव यहीं विराजते हैं, अपने बाहुक देवों जराही-बराही के साथ। और गांव के दूसरे छोर पर अंधियारी पाठ। ''जब भी गांव पर आफत-बिपत आती, यही देवता गांव के बैगा-गुनिया और मुखिया लोगों को सचेत करने निकलते थे और गांव की रखवारी तो किया ही करते थे। सात हाथ का झक्क सफेद घोड़ा, उस पर सफेद ही धोती-कुरता और पागा बांधे देवता। कोई उन्हें आज तक आमने-सामने नहीं देख पाया और देखा तो बचा नहीं।'' दाऊजी को कई रात उनके घोड़े की टाप सुनाई देती है। जाते हुए पीछे से या दरवाजे की झिरी से कइयों ने उन्हें देखा है। दाऊजी ने ही दुलरुवा का किस्सा भी सुनाया था। दाऊजी बताते हैं कि घोड़ाधार पहरुवा हैं और उनके आगे-पीछे ही दिख जाता है यह दुलारू। दुलारू को लेकर हमेशा मेरी जिज्ञासा बनी रहती है। सुना है, गांव के लोगों का ही लाड़-दुलार पाकर बड़ा हुआ। जवान होता लड़का दिखाई पड़ता है, सुंदर और बलिष्ठ। किसी से बोलता-बतियाता नहीं। गांव के सिवाने पर, स्टेशन या सड़कों पर इधर-उधर कहीं भी, कभी भी घूमता दिखाई पड़ जाता है। पता नहीं कब आ जाए, किधर निकल जाए। संभवतः मानसिक रूप से अविकसित। अब किसी का विशेष ध्यान इसकी ओर नहीं रहता। न ही दुलारू किसी से विशेष लगाव दिखाता। अक्सर हंसता रहता है पर उसकी हंसी में, भोलापन है या उपहास या व्यंग्य-भाव, मैं आज तक निर्णय नहीं कर पाया।

किस्सों से अनुमान होता है कि यह मुख्‍यतः बंजारा-नायकों की बस्ती थी, छोटा-सा विरल गांव। गोपा नायक के नाम पर गोपी टांड था और उसी का खुदवाया गोपिया तालाब, रामा का रामसागर और लाखा का लक्खी, इसी तरह सात टांड थे। लाखा बंजारा और नायक सौदागर द्वारा अपने कुत्ते को गिरवी रखने की कथाएं पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक प्रचलित हैं और ये देवार गीतों के भी विषय-वस्तु बने, लेकिन यह अधिक पुरानी बात नहीं है। यही कोई दो-ढाई सौ साल हुए होंगे। बंजारापन तो नायकों की जातिगत प्रवृत्ति है। मारवाड़ के ये बंजारे-नायक बैलों पर नमक और तम्बाकू का व्यापार करते यहां से गुजरे तो यह स्थान मध्य में होने के कारण और उपजाऊ जान पड़ने से उन्हें भा गया और उन्होंने इसे अपना स्थायी निवास बना लिया, हालांकि उनके बंजारेपन और व्यापार की प्रवृत्ति में विशेष अंतर नहीं आया फिर भी वे धीरे-धीरे कृषि की ओर उन्मुख होते गए। नायकों ने इसे सुगठित बस्ती का रूप अवश्य दिया पर आबादी-बसावट में शायद मूलतः निषाद-द्रविड़ जन ही रहे होंगे।

इस गांव के बसने में जिस आरंभिक क्रम का अनुमान होता है, उसमें भारत उपमहाद्वीप के आग्नेय कोण में स्थित मलय द्वीप समूह के कहे जाने वाले निषाद अर्थात्‌ आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा ही सर्वप्रथम आए होंगे। केंवट, जिन्हें छत्तीसगढ़ी में निखाद कहा जाता है और बैगा नामक जाति, इसी नस्ल के प्रतिनिधि हैं। अधिकतर यही पूरे क्षेत्र में ग्राम देवताओं के बैगा-गुनिया, ओझा, देवार होते हैं। कहीं-कहीं गोंड़-कंवर भी बैगा हैं, जो परवर्ती नस्ल, द्रविड़ की जातियां हैं। तात्पर्य कि निषादों की मूल बसावट का द्रविड़ों के आगमन और मेल-जोल से द्रविड़-संस्कार हुआ होगा। इसके बाद पुनः नव्य-आर्य, जो पहले ही भारत के उत्तर-पश्चिमी मुहाने से प्रवेश कर चुके थे, बाद में विन्ध्य पर्वत लांघ कर यहां पहुंचे होंगे और उन्हीं के साथ मिश्रित रक्त के कुछ लोग आए होंगे, जो काफी बाद तक भी यहां आते रहे।

अब की कहानी तो सबको मालूम ही है। बाद का कस्बाई रंग एक-एक कर उभरना हमने ही देखा है। तीसेक दफ्तर, नहर विभाग की अलग कालोनी, एक छोटा सा सरकारी कारखाना, जो हमें बहुत बड़ा लगता है, उसकी कालोनी अलग। चार-पांच कच्चे-पक्के सिनेमाघर, वीडियो हाल। सरकारी कालेज, नयी-नयी नगरपालिका, लगभग दोगुनी हो गई आबादी और नियमित व चौबीस घन्टे शहरीकरण आयात के उपलब्ध यातायात साधन। इस सबके साथ गांव के दूर तिराहे पर पर ढाबे, नयी उम्र के खर्चने वाले लड़कों के आउटिंग का अड्‌डा।

यह दुलारु उन होटलों के आसपास भी दिख जाता है। नयी कालोनियों की ओर जाने में जरूर हिचकिचाता है। उसका बालभावपूर्ण सहमता-दुबकता चेहरा हमेशा याद आता है, जब मैं पिछवाड़े झांककर कारखाने की दैत्याकार चिमनियों और चौंधिया देने वाली रोशनी देखता हूं। साइरन की आवाज से किस बुरी तरह घबरा जाता है, दुलारू। पहले चोंगे पर शादी और छट्‌ठी-बरही के गीत बड़ी पुलक से सुनता था, अब लाउड-स्पीकर पर इन्कलाबी और विकास के नारे सुनकर बिदकता है। पहले रेलगाड़ी की सीटी सुनकर प्रसन्न होता था, गाड़ी के समय स्टेशन पर ही रहता था, पर अब यदि वहां रहा तो मुंह लटकाए रहता है। मैं रोज-ब-रोज बेडौल होता उसका शरीर देखता हूं पर उसकी हरकतों में अब भी बचपना है, पहले की तुलना में असमय बुढ़ापे-सी उदासी भी दिखती है। वह मेरे लिए हमेशा अजूबा रहा है।

एक दुलारू ही क्यों, अंतर तो हर जगह दिखाई देता है। रोज-दिन विकास की मंजिलें तय हो रही हैं। लोग पहले से अधिक चतुराई या कहें बुद्धिमानी सीख-जान चुके हैं। बहुत पहले हमारे एक गुरुजी ने किसी पुराने शिलालेख के हवाले से बताया था- 'जानते हो, तुम्हारे गांव का इतिहास सात सौ साल पुराना है, जब कलचुरि राज-परिवार के अकलदेव ने मंदिर, तालाब व उपवन की रचना कर, इसे बसाया था।' अकलदेव या अकालदेव। नाम की सार्थकता, आज के व्यवसाय-कुशल परिचितों की अक्लमंदी की बातें सुनकर महसूस होती है। आठ-दस साल पहले ही यह अकालदेव का गांव था। सार-दर-साल अकाल। फिर भी दुलारू प्रसन्नचित्त रहता था, अब नहर है, दोहरी फसल होने लगी है, वैसा अकाल तो अब याद भी नहीं आता। सरकारी मंडी है, नयी-नयी राइस मिलें लगती जा रही हैं, लेकिन दुलारू को देखकर चिन्ता होती है, वह भयभीत क्यों है। वह क्यों अकलदेव के बसाए गांव के लोगों जैसा नहीं हो पा रहा है।

याद करता हूं, बैठक और घर-चौबारे की रोजाना आत्मीय चर्चा और सबसे जोहार-पैलगी के दिनों को। जब कोई अजनबी कभी गांव में आता- मेहमान, व्यापारी या स्थानान्तरित अफसर, तो सभी को इतनी उत्सुकता होती जैसे अपने घर के आंगन में किसी अनजान से टकरा गया हो और आज छुट्‌टी के दिनों में अनजानों की इतनी भीड़ होती है कि उनके बीच स्वयं को बाहरी आदमी जैसा महसूस होता है, फिर भी लगता था कि कहीं कोई मजबूत स्नेह-सौहार्द्र सूत्र हम सबको जोड़े हुए है। किसी घटना-दुर्घटना की, चाहे वह व्यक्तिगत ही क्यों न हो, चर्चा ही नहीं, चिंता भी हर कोई करता था, पर अब तो हर छठे-छमासे कोई जवान मौत बिना शिनाख्‍त पड़ी रह जाती है, अखबार में छपी गांव की ही कई खबरें हमारे लिए भी समाचार होती हैं।

मुझे अपने बचपन के साथी पीताम्बर की याद आती है। साथ खेले, पढ़े, बढ़े। एक सक्रिय व्यक्ति रहा वह, भरपूर उत्साही। भयंकर सूखा पड़ने पर, गांव में पीने के पानी की कमी होने पर, ट्राली-टैंकर पर सवार, चिलचिलाती धूप में दिन भर जल-वितरण व्यवस्थित करने में लगा रहता था। किसी घटना पर पुलिस की निष्क्रियता पर, बिना किसी परवाह के नारे बुलंद करता। भूख हड़ताल हो या चक्का जाम या कोई गमी-खुशी, हर जगह शामिल हो जाता। घर का मंझला लड़का, बड़े भाई की डांट सुनता और छोटे से हीन ठहराया जाता। फिर भी न तो उसकी हरकतें बदलीं, न बड़े भाई की इज्जत और छोटे भाई से प्रेम में कोई कमी आई। कुछ बरस हुए, कारखाने में उसे नौकरी मिल गई, छोटे से पद पर, किंतु वेतन चार अंक कब का पार कर चुका है, शादी भी हो गई। खेती इस साल ठीक हो नहीं पाई, 'बतर' में आदमी नहीं मिले, सो किसान बड़े भाई चिन्तित, छोटा भाई फेल हो गया सो अलग, बूढ़ी मां बीमार है और भाभी की जचकी होने वाली है, बड़ी बहन को उसका पति ले जाने को तैयार नहीं और छोटी के हाथ इस साल पीले करने हैं। तंग आ गया है पीताम्बर इन सबसे। ''दिन भर खटूं मैं और खाने वाले घर भर।'' मैंने पूछा, सुनता हूं तुम्हारे यहां कोई मिल में फंसकर मर गया और उसका मुआवजा नहीं दिया जा रहा है। मेरी बात पर वह कान नहीं देता। उसे क्या, कौन सी उसकी तनख्‍वाह कम हो जाएगी। अफसर घूंस लेता है, तो क्या हुआ, उसे तो चार अंकों में उतने रुपये ही मिल रहे हैं। उसने कालोनी में क्वार्टर के लिए आवेदन दिया था, अब वहीं रहने लगा है, बीवी के साथ। कारखाने से लोन लेकर स्कूटर भी खरीद लिया है, उसी पर हाट-बाजार आता-जाता है। मैं उससे मिलने पर अब भी पूछता रहता हूं- भाई की चिन्ता, मां की तबियत, बहन का गौना और वह जवाब देता जाता है- मैनेजर... ओवर टाइम... एरियर्स... एलडब्ल्यूपी....। सब कुछ बदल रहा है, शायद।

कभी यहां की रामलीला पूरे इलाके में प्रसिद्ध थी, सभी वर्ग-सम्प्रदाय के लोग इसे सफल बनाने में शामिल होते और पूरे इलाके के दर्शक दूर-दूर से आते। रामलीला तो अब कहानी बन चुकी है, पर बड़े-बुजुर्ग इसका स्मरण कर उमंग से भर जाते हैं। हाथी-बंधान का नवधा रास जरूर हमने देखा। मठ की रथयात्रा और भजन प्रभात-फेरी, बाजार और स्टेशन के राधाकृष्ण मंदिरों की जन्माष्टमी, कुटी में कई-कई अजूबे साधु-संतों का सिलसिला बना रहता था। जैन मंदिर के गजरथ समारोह की चर्चा तो आने वाली पीढ़ियों में भी होगी। दशहरा के रावण, मेले-तमाशे के बाद, दुर्गा-विसर्जन और ताजिया या गौरा का उत्साह एक जैसा ही होता। होली-दीवाली तो पूरे गांव का त्यौहार होता ही था। अखबारों में साम्‍प्रदायिक दंगों की खबर होती तो गांव के गैर-मुस्लिम मुखिया, मस्जिद के मुतवल्‍ली का झगड़ा निपटा रहे होते।

बचपन में अक्सर हमलोग खेत-बरछा की ओर चले जाते थे। वहां ददरिया सुनाई पड़ जाता था या चरवारों के बांसुरी की विचित्र किंतु मधुर धुन। अगहन लगते न लगते फसल घर आने लगती और मेला-बाजार का मौसम शुरू हो जाता। तमाशबीनों, डंगचगहा, बहुरूपियों के झुण्ड आने लगते, हम दिन भर उन्हीं के पीछे लगे रहते। फगुनहा मांदर और फाग अब जैसा दो-चार दिन और किराये पर नहीं, बल्कि पूरे माह चला करता था। चिकारा वाले भरथरी का इन्तजार तो अब भी रहता है। राखी के दूसरे दिन, भोजली के अवसर पर गुरुजी की ओसारी में बैठ कर भरत पूरे उत्साह से आल्हा का 'भुजरियों की लड़ाई' खंड गाता था। कई साल बाद, इस बार दुलारू के पीछे-पीछे, भोजली के दिन मैं भी पुरेनहा तालाब के पार तक गया। रास्ते में भरत नहीं दिखा। मित्रों से पूछताछ की, उसे क्या हो गया? तबियत खराब है या कहीं बाहर गया है? वे लोग बताते गए- निगोसिएशन... वर्क आर्डर... टाइमकीपर... पीस वर्क...।

आज पीताम्बर के भाई साहब मिले, अपनी व्यथा-कथा लिए। पीताम्बर की चर्चा होने पर मैंने उनसे पूछा- आपने पीताम्बर का नया घर देखा? उन्होंने बताया- 'हां, दशहरा के दिन बड़े-बखरी की जुन्ना हवेली से देखा, तिजउ भी साथ था। मैं तो कभी कारखाना देखने नहीं गया, तिजउ दिखा रहा था उसका क्वार्टर और कारखाने की चिमनी से निकलता धुआं। कह रहा था कि यही धुआं फेफड़ों में भरने लगेगा, धीरे-धीरे खेतों में बैठता जाएगा और सब किसानी चौपट हो जाएगी, सारी जमीन बंजर हो जाएगी।'

मैं घर वापस आया। चिमनी का धुंआ और ट्रकों से उड़ती धूल से पूरा शरीर चिपचिपा हो रहा था। खूब नहाया, पर लगा कि धुंआ धीरे-धीरे जमता ही जा रहा है, अंदर कहीं और जड़ किए दे रहा है, चौपट... बंजर। कारखाने का साइरन दहाड़ कर धीरे-धीरे लंबी गुर्राहट में बदल गया, चाह कर भी दुलारू के भयभीत चेहरे की याद दिमाग से नहीं निकाल पा रहा हूं।

तीसेक साल पहले अपना लिखा यह नोट ढूंढ निकाला, जो बाद में कभी दैनिक भास्कर, बिलासपुर संस्‍करण के अकलतरा परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था, फिर से पढ़ते हुए लगा कि यह किसी एक गांव की नहीं, आपके अपने या जाने-पहचाने गांव की भी कहानी हो सकती है।

Wednesday, January 12, 2011

गिरोद

यही है इस कथा का शीर्षक और गांव का नाम- गिरोद। किसी छोर से शुरू हो सकने वाली और जहां चाहे रोकी जा सकने वाली कथा। देखिए किस तरह। दस साल पुराने छत्तीसगढ़ विधान सभा से पांच किलोमीटर के दायरे में। लोहा कारखाने के पास, पंद्रह साल से जिसकी भारी मशीनों का तानपूरा यहां जीवन-लय को आधार दे रहा है। कोई बारह सौ साल पुराने अवशेष युक्त गांव का अब यही पता है। वैसे गांव का स्थानीय उच्चारण है- गिरौद या गिरउद। आपका हार्दिक स्वागत है।
गांव के एक छोर पर तालाब के किनारे कोई डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जिसका निर्माण गांव प्रमुख दाऊ परिवार ने कराया। पत्थर की नक्काशी वाले स्तंभों और प्रवेश द्वार वाला स्थापत्य मराठा शैली का नमूना है।
खजुराहो में मिथुन मूर्तियों की बहुलता है और प्रसिद्धि यहां तक कि ऐसी कलाकृतियों को खजुराहो शैली नाम दे दिया जाता है, लेकिन ऐसे अंकन कमोबेश मंदिरों में दिख जाते हैं। माना जाता है कि इससे संरचना पर नजर नहीं लगती, बिजली नहीं गिरती, सचाई राम जाने। यह मंदिर भी इससे अछूता नहीं और इन पर नजर बरबस पड़ती है।
इस शिव मंदिर के पास ठाकुरदेव की पूजा-प्रतिष्‍ठा की परम्परा निर्वाह के लिए कमल वर्मा ने बइगाई का कोर्स किया है, गुरु सूरदास तिखुर वर्मा से प्रशिक्षण लिया, जिसके आरंभ के लिए हरेली अमावस्या और गुरु द्वारा सफल मान लिये जाने पर दीक्षांत के लिए नागपंचमी अथवा ऋषिपंचमी तिथि निर्धारित होती है।
समष्टि लोक के व्यवहार में विद्यमान और प्रचलित टोना-टोटका, रूढ़ि माना जा कर कभी प्रताड़ित भी होता है। दुर्घटनावश बनी परिस्थितियों के चलते अंधविश्वास कह कर तिरस्कार योग्य मान लिये जाने से अक्‍सर इसके पीछे अनवरत गतिमान व्यवस्था ओझल रह जाती है। इसके साथ चर्चा 'सवनाही छेना' की यानि अभिमंत्रित गोइंठा-कंडा, जो गांव बइगा सावन में शनिवार की रात पूजा कर, रविवार को घरों के दरवाजे पर लटका जाता है, ताकि अवांछित-अनिष्ट प्रवेश न कर सके।
घर के दरवाजे पर पहटनिन हर साल हांथा लिखती है। पहटनिन यानि पहटिया-गोसाइन और पहटिया यानि रात बीतते और पहट (प्रखेट? 'खेटितान' अर्थात्- वैतालिक, स्तुतिपाठक जो गृहस्वामी को गा बजा कर जगाता है) होते रोजमर्रा की पहली दस्तक देने वाला ठेठवार। पहट-मुंदियरहा, सुकुवा, कुकराबास, फजर, झुलझुलहा, पंगपंगाए बेरा, भिनसरहा, मुंह-चिन्‍हारी तब होता है परभाती, बिहनिया, रामे-राम के बेरा। हांथा के साथ कहीं शुभ-लाभ लिखा है और इन दिनों जनगणना का क्रमांक भी। हांथा के लिए अवसर होता है देवारी यानि बूढ़ी दीवाली, मातर अर्थात्‌ भैया दूज, जेठउनी एकादशी से कार्तिक पुन्नी तक। फिर इसी से मिलती-जुलती आकृतियां अगहन के बिरस्पत पूजा में चंउक बन कर आंगन में उतर आती हैं।

गांव का मुख्‍य हिस्सा है, दाऊ का निवास, गुड़ी और चंडी माता का चबूतरा। नवरात्रि पर जोत जलाने की परम्परा है और जिस तरह गिनती की शुरुआत एक के बजाय 'राम' बोल कर की जाती है, उसी तरह पहली ज्योति मां चंडी के नाम पर बिठाई जाती है।
चंडी दाई में ग्राम देवता की परम्परा और पुरातत्व घुल-मिल गए हैं यानि चंडी के रूप में पूजित सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी की महिषमर्दिनी के साथ इतनी ही पुरानी प्रतिमाएं और स्थापत्य खंड भी हैं। चबूतरे पर पूजा के लिए तो दिन-मुहूरत होता है, लेकिन यह गुलजार रहता है, चिड़ी के गुलामों, पान की मेमों, ईंट के बादशाहों, हुकुम के इक्कों के साथ पूरी वाबन परियों से मानों देवालय के महामंडप में देवदासियों का नर्तन हो रहा हो और चौपड़ की बाजियों में असार संसार के मोहरे, तल्लीन साधक और उनके साथ सत्संगी से दर्शक भी जमा हैं। गांव के प्रवेश द्वार पर लीला मंच है और एक कमरे में बाना-सवांगा, वस्त्राभूषण सहित भजन-कीर्तन का बाजा-पेटी सरंजाम भी।
बुजुर्ग याद करते हैं, रेल लाइन के किनारे का डीह, यानि जहां कभी गांव आबाद था और बाद में वहीं संतरा, आम, केला, नीबू, अमरूद का मेंहदी की बाड़ वाला फलता-फूलता बगीचा था। लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ सालों में धीरे-धीरे यहां, दो किलोमीटर दूर खिसक आया, आकर्षण बना वही शिव मंदिर और शायद कारण था सड़क और रेल से बदला कन्टूर, खेत और पानी। पुराना पचरी तालाब, जिसके बीच में चौकोर सीढ़ीदार कुंड बताया जाता है।
सन 1900 में पूरे छत्तीसगढ़ में महाअकाल का जिक्र होता है। इस साल मार्च माह में रायपुर जिले को 56 कार्य प्रभार क्षेत्र (चार्ज) में विभाजित कर राहत कार्य से लगभग 2 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराए जाने की बात पढ़ने को मिली थी, जिसमें एक हजार से भी अधिक पुराने तालाबों को दुरुस्त कराया गया था। यह अप्रत्याशित अभिलिखित मिल गया यहां, चार्ज नं.8 के काम का प्रमाण। लोग याद करते हैं- 'बड़े दुकाल पहर के, बिक्टोरिया रानी के सुधरवाए तलाव'

बात करते-करते पता लग रहा है गांव का पूरा इतिहास, व्यवस्थित और कालक्रमानुसार। काल निर्धारण के लिए शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं- छमासी रात, पण्डवन काल, सतजुगी, बिसकर्मा के, रतनपुर राज, भोंसला, अंगरेज ...। इसे ईसा की सदियों में बिठाने के लिए पुरातत्व-प्रशिक्षित, मेरे ज्यादा जोर दे कर सवाल पूछने पर, बाकी सब लाजवाब हैं शायद मैं उनकी यह भाषा नहीं समझ पा रहा हूं और वे मेरी। लेकिन अब तक मौन रहा सियनहा बूझ रहा है और सबको समझ में आ जाने वाली बात धीरे से कहता है 'तइहा के गोठ ल बइहा ले गे'।

पुराना तालाब, फिर बना मंदिर, जिसके बाद दाऊ का घर बना, मराठा असर वाली बुलंद इमारत। लगता है इस मकान में न जाने क्या-क्या होगा। अजनबी से आप, गांव में अकारण तो आए नहीं हैं, यह तो गंवई-देहातियों का काम है, शहरी कामकाजियों का नहीं। लेकिन गांव में कुछ लेने-देने नहीं आए हैं, यह भरोसा बनते ही, आत्मीयता का सोता अनायास फूट पड़ता है।
घर का दरवाजा खुला है, बेरोक-टोक, स्वयं निर्धारित मर्यादा पालन की देहाती शिष्टता निभाते, बैठक में पहुंचने पर तस्वीरें टंगी दिखती हैं। पहली फोटो दाऊ गणेश प्रसाद वर्मा की, चेहरा बदल जाए तो सब कुछ, हम-आप सब की पिछली पीढ़ी जैसा। दूसरी तस्वीर है, उनके पिता दानवीर दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा की।
पचरी तालाब के शिलालेख के बाद दूसरा अप्रत्याशित हासिल यह तस्वीर है। रायपुर 'कुरमी बोर्डिंग' के साथ जुड़ा 'भोला' कौन है, जिज्ञासा रहती थी। पता लगा, दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा यानि वह दानवीर, जिसने कोई 80 साल पहले, छुईखदान बाड़ा कहलाने वाले क्षेत्र का 28 हजार वर्गफुट हिस्सा खरीद कर दान किया था, यह भवन छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जुड़े मुद्‌दों सहित राज्य आंदोलन-बैठकों के प्रमुख केन्द्रों में एक रहा है।
राज्य केन्द्र, राजधानी रायपुर से यहां आने पर लग रहा है कि यह गांव शाखा और पत्ते नहीं, बल्कि जड़ें ही यहां हैं। सो, जमीन पा लेना आश्वस्त कर रहा है और याद भी दिला रहा है, ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं ...

गुफ्तगूं :

अब कभी-कभी स्वयं से ही ईर्ष्‍या होती है कि ज्यादातर पिछला समय गांव-कस्बों में बीता। हजारों गांवों में गया, ज्यादातर में मात्र एक बार। अकारण ही आ गया था यहां, फिर भी 'वहां गए क्यों थे' के जवाब का दबाव हो तो कहूंगा 'किस्सा' के लिए। दादी-नानी तो रही नहीं, जो किस्से सुनाएं और हम रह गए बच्चे, अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता है। इस जन्मना-कर्मणा का हासिल कि हर गांव कथा होता है, जिसे कुछ हद तक पढ़ना सीखा है मैंने। जी हां, कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है और पाठक के साथ पात्र बनने को आमंत्रित करता है तो गांव-कथा में गाथा-बीज भी अंकुराने लगता है। ये भी कोई कथा है ..... आप न माने, मुझे तो कथा, गाथा बनते दिख रही है। ..... कुछ साथी भी है, वापसी की जल्दी है। इसलिए चल खुसरो घर ...

गिरोद से छत्तीसगढ़ के महान संत बाबा गुरु घासीदास जी याद आ रहे हैं, इसी नाम के एक अन्य ग्राम में उनकी पुण्‍य स्‍मृति है और जहां इन दिनों कुतुब मीनार से ऊंचा स्मारक 'जैतखाम' बन रहा है। पिछली सदी के एक और संत स्वामी आत्मानंद जी के नाम पर गांव में मनवा कुर्मी क्षत्रीय समाज रायपुर द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम विद्यापीठ है। और भी कुछ-कुछ, बहुत कुछ ... । इस गाथा को शब्द बनने के पहले यहीं रोक ले रहा हूं, मध्यमा-पश्यन्ती स्तुति बना कर, अकेले पुण्य लाभ के लिए मन में दुहराते, अपनी खुदाई जो है।

Friday, December 10, 2010

गढ़ धनोरा

30, 31 दिसम्बर और 1 जनवरी को बस्तर के गढ़ धनोरा गांव में रहा। डेढ़ हजार साल पुराने अवशेषों की खुदाई के साथ यह नये किस्‍म का नया साल है। रायपुर से बस पकड़ कर केसकाल। आगे पांच किलोमीटर के लिए बस स्‍टैंड के दुकान से हाथ घड़ी की जमानत पर सायकिल किराये पर ली और एडेंगा होते पहुंच गए। पुरातत्‍वीय उत्‍खनन में कितनी पुरानी ‘नई-नई’ चीजें निकलती हैं और कैसा रोमांच होता है, अनगढ़ ढंग से भी बताने पर ईर्ष्‍या के पात्र बन सकते हैं, इसलिए न कुछ नया, न पुराना, वह सब जो चिरंतन और शाश्‍वत लग रहा है।

यहां महुए के पेड़ पर लगे लाल गुच्छेदार tubular फूल वाला सहजीवी या परजीवी वानस्पतिक विकास देखा, यह इस क्षेत्र के महुए के पेड़ों पर कांकेर पहुंचते तक देखने को मिला। स्थानीय पटेल करिया पुजारी उर्फ उजियार सिंह गोंड ने इसे 'भगवान का लगाया कलम' natural grafting बताया। पुस्तकों या botanist से इसका सन्दर्भ या जानकारी नहीं ले पाया, किसी ने सुझाया lorenthus, मान लेने में हर्ज क्‍या ॽ मुझे तो पटेल की बात भाई, जिसने यह भी बताया कि महुए के पत्तों पर लगे कीड़े ही इसे लेकर आते हैं। गढ़ धनोरा से केसकाल वापसी के पैदल रास्ते में शमी के पेड़ पर भी ऐसा ही विकास देखा, जो मेरे अनुमान से orchid जाति का था, पुस्तकों में इस partial parasite का नाम mistletoe (banda) मिला।

यहां छिन्द और सल्फी के पेड़ भी बहुतायत से हैं। सल्फी के पत्ते fishtail palm जैसे होते हैं। अक्टूबर से अप्रैल तक इसके पुष्पक्रम के डन्ठल में चीरा लगाकर ताड़ की तरह पेय निकाला जाता है। सल्फी जैसा महत्‍व किसी पेड़ का नहीं यहां, ढेरों किस्‍से और इस पेय के सामने शैम्‍पेन फीका। केसकाल घाटी के ऊपर ही ये पेड़ दिखे। वरिष्‍ठ सहयोगी अधिकारी रायकवार जी ने बताया कि दन्तेवाड़ा तक उगते हैं, उसके आगे दक्षिण में नहीं और उगे तो रस नहीं, रस तो स्‍वाद नहीं।

मुनगा (सइजन) ऐसा स्‍वादिष्‍ट और गूदेदार तो सोचा भी नहीं जा सकता। भेलवां यानि जंगली काजू के पेड़। हम लोगों ने काजू चखना चाहा। स्‍थानीय विशेषज्ञों ने उसकी सभी सावधानी बरती, भूना, पूछा ‘उदलय तो नइं’ – एलर्जी तो नहीं है इससे, हमने कहा खा कर ही पता लगेगा, गनीमत रही। इसी से पक्‍का अमिट काला रंग बनता है। एक पेड़ ‘बोदेल’ देखा, पलाश की तरह पत्‍ते, लेकिन शाखाओं के बदले मोटी लताएं, लोगों ने बताया- मादा पलाश, छप्‍पर छाने के काम आता है।

एक कीड़ा, लम्बाई लगभग 15 सेंटीमीटर, पहले तीलियों का भ्रम हुआ। अपनी पूंछ के केन्द्र के चारों ओर धीर-धीरे घूम रहा था, अतः कुछ देर बाद ध्यान गया, स्थानीय स्कूल में सहयोगी अधिकारी नरेश पाठक जी के साथ देखा।
तलाश करने पर नाम stick (common Indian species- Carausius morosus) मिला, यों यह दुर्लभ माना जाता है।

अलग-अलग मुहल्लों-पारा में बंटे गांव की आबादी 150-200 और पूरा गांव एक कुनबा है। बाहरी कोई नहीं। बाहर से लड़कियां शादी होकर आती हैं या शादी होने पर जाती हैं और गांव के कुछ लोग नौकरी पर बाहर चले गये हैं। गांव के मुखिया करिया पुजारी और उनका लड़का सरपंच है। कोई छोटा-बड़ा या मालिक-नौकर नहीं है, एकदम निश्चित कार्य विभाजन भी नहीं है, सभी सब काम करते हैं, लेन-देन में अदला-बदली है लेकिन 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' जैसा नहीं। रात को निमंत्रण नहीं, मात्र सूचना पाकर, चर्चा सुन कर, अगले दिन सुबह लोग उसके घर या खेत पर काम के लिए पहुंच जाते हैं। बारी-बारी सब का काम निपट जाता है। मुखिया को परवाह है, फसल-मवेशी, जंगल-जानवर, बहू-बेटी, रोग-बीमारी, पूजा-पाठ, हम सब की भी। बेटे की सरपंची रहे न रहे, मुखिया की सत्‍ता कौन डिगा सकता है।

शनिवार को रामायण (तुलसी मानस पाठ व भजन) होता है, साहू गुरुजी मदद करते हैं, आरती का चढ़ावा केसकाल पोस्‍ट आफिस में जमा कर दिया जाता है, और उपयोग धार्मिक आयोजन या रामायण पार्टी के सदस्यों के एकमत से सार्वजनिक काम के लिए होता है। अल्‍प बचत, सहकारिता और विभिन्‍न वाद, सिद्धांत यहां जीवन में सहज समोए हैं। सभ्‍य और आधुनिक होने की शान बचाए रखना मुश्किल हो रहा है, इस बियाबान में।

( ... लेकिन फोटो क्‍यों नहीं हैंॽ ''एलिमेन्‍ट्री डॉक्‍टर वॉटसन'', तब मोबाइल-कैमरा नहीं था जी। और यह जनवरी 1990 का, डायरी की आदत बनाने के असफल प्रयास का प्रमाण है। ... यह भी लग रहा है कि जो यादें फ्रेम में बंध जाती, फोटो न होने से चलचित्र की तरह, बार-बार, अलग-अलग ढंग से देख पाता हूं, थोड़ी धुंधली और घुली-मिली ही सही, रंग तो बिना सलेक्‍ट-क्लिक के जितने चाहे मन भर ही लेता है। याद आया कुछ ..., जी, सही फरमाया आपने ..., वी. शांताराम, नवरंग, पहला दृश्‍य।)

Tuesday, May 18, 2010

राम-रहीम : मुख्तसर चित्रकथा

छत्‍तीसगढ़, रायपुर-बिलासपुर राजमार्ग क्रमांक - 200
20 किलोमीटर दूर गांव चरौदा-धरसीवां
सड़क पर बांई ओर द्वार दिखाई देता है
इस द्वार से अंदर जाने पर
मंदिर के सामने जल कुंड में गज-ग्राह दिखते हैं

मंदिर के अंदर मंडप में शिलान्‍यास का फलक लगा है


मुक्‍तेश्‍वर शिव मंदिर
कही जाने वाली संरचना के
शिलान्‍यास फलक पर तो रस्‍म अदायी खुदी है
लेकिन लोगों के मन में आज भी
श्री बाबू खान का नाम स्‍थापित है
जिनकी पहल और अगुवाई में
गांव और इलाके भर के श्रमदान से
यह मंदिर बना
धरसीवां से थोड़ी दूर कूंरा उर्फ कुंवरगढ़ गांव है
यहां दो संरचनाएं एक ही चबूतरे पर साथ-साथ हैं
मंदिर-मस्जिद



वापस चरौदा के शिव मंदिर में
मंडप की भीतरी दीवार सचित्र दोहों से सजी है

चित्र के साथ दोहा है-
''राधा जी के हाथ में, ऐसा फूल सफेद।
हंसी हंसी पूछे राधिका, कृष्‍ण नाम नहीं लेत॥''
दोहे का संदर्भ खोजा जा सकता है
किंतु बात लोक मन की है.
राधा लौकी के फूल का नाम पूछ रही हैं
कृष्‍ण बूझकर भी प्रचलित छत्‍तीसगढ़ी नाम
तूमा (राधा को 'तू मां') कैसे उचारें ?

अकथ, ओझल लोक मन के
श्रृंगार, भक्ति, औदार्य-ग्राह्यता का
भाव और रस-सौंदर्य (एस्‍थेटिक) सहज होता है.
धमतरी के श्री दाउद खान रामायणी को याद करते हुए
लंबी सूची के बिना भी महसूस किया जा सकता है.

टीप - इस आलेख का उपयोग बिना पूर्व अनुमति के किया जा सकता है, किंतु उपयोग की सूचना मिलने पर आपको अपने धन्‍यवाद का भागी बना सकूं, इस अवसर से वंचित नहीं करेंगे, आशा है.