Showing posts with label अरुण कुमार सेन. Show all posts
Showing posts with label अरुण कुमार सेन. Show all posts

Saturday, March 19, 2022

छत्तीसगढ़ी-सेवी

संस्कृति का अंग, भाषा-साहित्य, आस्था, मान्यता, विश्वास, जीवनशैली बन कर, जीवन में उसके सार्थक होने का रंग भरती है। संस्कृति-भाषा, अपनों में बनी रहे, संरक्षित रहे, उतना ही जरूरी होता है कि वह आंशिक परिवर्तन के साथ ही सही, संपर्क में आए अन्य से लेन-देन करते, बरती जाती रहे। भाषा, मंदिर में पूजित विग्रह- मूर्ति को, संग्रहालय में सज्जित और सम्मानित कर दिये जाने जैसी है, तो लोक-मन में रमी-बसी और व्यवहृत बोली, ग्राम देवताओं की तरह, जो कई बार अनगढ़, अनाकार, अनामित श्रद्धा केंद्र होते हैं। अपरिचित श्रद्धालु भी अपनी गति-मति अनुसार उनसे अपना नाता सहज जोड़ लेता है।

छत्तीसगढ़ी साहित्य-व्याकरण को समृद्ध करने में, इतर भाषा-भाषियों का महत्वपूर्ण योगदान है। भाषा के लिए ऐसी कोई स्थापना है अथवा नहीं, मालूम नहीं, किंतु जिन्हें भाषा से प्रेम हो, वे किसी इतर भाषा के संपर्क में आने पर, उससे परिचित होते हुए, उसके शब्दों के नए-नवेलेपन से, संभवतः अपनी नियमित अभ्यास की भाषा से अलग होने के कारण, अधिक आकर्षित होते है। यहां कुछ ऐसे छत्तीसगढ़ी-सेवियों का उल्लेख है, जिनकी मातृभाषा, छत्तीसगढ़ी से अलग थी। यों मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ मां की भाषा, या बच्चे की पहली भाषा, जिसे वह बोलना सीखता है। मगर स्थानांतरण और भाषाई व्यवहार में परिवर्तन के चलते, अब मातृभाषा का निर्धारण, मां-दादी की बोली से होता है, जिस जबान में दादी, बच्चे के पिता से बात करती हैं तथा घर में आने वाले बड़े-बुजुर्ग रिश्तेदारों के साथ बातचीत के लिए जो भाषा इस्तेमाल की जाती है। ऐसे कुछ इतर मातृभाषियों ने छत्तीसगढ़ी से न सिर्फ प्रेम किया, बल्कि उसे शोध-अध्ययन और अपनी रचनाओं से समृद्ध कर, मान बढ़ाया है।

राय बहादुर हीरालाल ने बिलासा केंवटिन वाले प्रसिद्ध देवार गीत का अनुवाद कर, उस पर महत्वपूर्ण शोधपत्र लिखा है। छत्तीसगढ़ की जाति-जनजातियों और पुरातत्व-परंपरा का अध्ययन करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ की भाषा-बोलियों पर अधिकारपूर्वक गंभीर लेखन किया है। समाज-मानव विज्ञानी श्यामाचरण दुबे का Field Songs of Chhattisgarh पूरी दुनिया में चर्चित है। डॉ. हीरालाल शुक्ल, छत्तीसगढ़ की भाषा-बोलियों के जानकार हैं। हल्बी, भतरी, गोंड़ी, उड़िया पर भी उनका अधिकार है। डॉ. भालचन्द्र राव तेलंग, का शोध और 1966 में प्रकाशित पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ आरंभिक महत्वपूर्ण है।

डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा, भाषाशास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप छत्तीसगढ़ी के शब्दकोश, व्याकरण, मुहावरे, लोकोक्तियां और मानकीकरण पर व्यापक कार्य किया साथ ही उनके निर्देशन, मार्गदर्शन में छत्तीसगढ़ की विभिन्न भाषा-बोलियों पर गंभीर शोध कार्य हुए। गाताडीह, सारंगढ़ निवासी शीतला प्रसाद बाजपेयी 1965-66 में नरसिंहपुर में व्याख्याता बने, डिप्टी कलेक्टर चयनित हुए, मगर शोध की धुन कि शोध में जुट गए। सन 1967 में छत्तीसगढ़ी पर अंगरेजी में लिखा गया उनका शोध प्रबंध Raipuri a Dialect of Chhattisgarh (रायपुर जिले की जनभाषा), पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के आरंभिक शोध-कार्यों में से है।

डॉ. शंकर शेष का शोध और पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी का भाषा शास्त्रीय अध्ययन‘, डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया‘ की सन 1972 में प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास और उसके साहित्यकार‘ तथा 1979 में डॉ. ब्रजभूषणसिंह ‘आदर्श‘ की अगुवाई में प्रकाशित ‘छत्तीसगढ़ की विभूतियां एवं लौकिक प्रसून‘ उल्लेखनीय है। तेलुगूभाषी डॉ. एस. हनुमंत नायडू ‘राजदीप‘ ने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर शोध किया, पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेस‘ के गीत लिखे। उनकी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी के लोक-गीत‘ संक्षिप्त किंतु सारगर्भित है। डॉ. चितरंजन कर के विविध रचनाओं के साथ भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण के ‘छत्तीसगढ़ की भाषाएं‘ खंड संपादक हैं। डॉ. कांतिकुमार जैन, कोरिया-सरगुजा से जुड़े रहे हैं। उन्होंने बस्तर में भी समय बिताया है। ‘छत्तीसगढ़ी की ग्राम्य-जीवन-शब्दावली (सरगुजा जिले की बोली के आधार पर)‘ उनका शोध प्रबंध है और इसी के आधार पर उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश‘ पुस्तक तैयार की। पुस्तक के नये संस्करण के शब्दकोश में 6000 से अधिक शब्द संगृहीत हैं। डॉ. जैन की सहोदरा, डॉ. कुंतल गोयल ने भी छत्तीसगढ़ की संस्कृति और लोक-जीवन के साथ भाषा पर महत्वपूर्ण लेखन किया है।

खरौद निवासी कपिलनाथ मिश्र की पैतृक-भूमि भदोही, बनारस रही है। उनकी चर्चित छत्तीसगढ़ी रचना ‘खुसरा चिरई के बिहाव‘ में पक्षियों, वाद्यों और वनस्पतियों के नामों को संयोजित किया गया है। दयाशंकर शुक्ल और शिवशंकर शुक्ल ने छत्तीसगढ़ी में लिखित साहित्य के आरंभिक दौर को संपन्न बनाया है। मुकुंद कौशल छत्तीसगढ़ी गजल के लिए जाने गए, ‘नवा बिहान‘ का शीर्षक गीत ‘मोर नवा बिहान, बगराये अंजोर छत्तीसगढ़ मा‘ रचा और ‘मोर भाखा संग दया मया के सुग्घर हवै मिलाप रे। अइसन छत्तीसगढ़िया भाखा, कऊनो संग झन नाप रे।‘ उनकी पंक्तियां याद की जाती हैं, दुहराई जाती रहेंगी। रविशंकर शुक्ल ने पारंपरिक पंक्तियों को जोड़कर कई लोकप्रिय गीत गढ़े। ‘नवा बिहान‘ का गीत ‘जय हो मोर धरती मइया, जय हो मोर सोन चिरइया। जय हो मोर देस के भुंइया, हो मोर धरती मइया‘, सबकी जबान पर होता था। उनकी रचना, चंदैनी गोंदा का शीर्षक गीत ‘देखो फुल गे, चंदइनी गोंदा फुल गे‘ से कौन परिचित न होगा।

हरिप्रसाद अवधिया, छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि पर लिखे ‘धान के खेत में‘ उपन्यास के कारण जाने जाते हैं, किंतु छत्तीसगढ़ी वर्णमाला के साथ-साथ भाषाई प्रयोगों पर उन्होंने महत्वपूर्ण लेखन किया। जमुना प्रसाद कसार के प्रधान संपादकत्व में ‘झांपी‘ - छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक मंजूषा, पत्रिका का पहला अंक जनवरी-जून 2001 प्रकाशित हुआ, जिसमें विभिन्न पारंपरिक विधाओं के गीतों पर लेख तथा छत्तीसगढ़ के कुछ प्रमुख कवियों के छत्तीसगढ़ी गीत हैं। 2011 में महावीर अग्रवाल ने 600 से अधिक पृष्ठों की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी कैसे सीखें‘ तैयार की थी। इस पुस्तक में छत्तीसगढ़ी-हिंदी-अंगरेजी के रोजमर्रा बोलचाल के वाक्यों सहित शब्दकोश भी है। मंचीय प्रस्तुतियों और छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए प्रेम साइमन की लेखनी बेमिसाल थी।  

नारायण लाल परमार ने ‘तिपे हे भोंभरा, झन बिलमव छांव मां’ और 
'हे राम। 
का पुन्नी का फागुन तिहार आठों पहर दिखै मुंधियार, 
धरम इमान ह देखते देखत। गजट बरोबर चिरावत हे राम। 
आँही बाँही नइये चिन्हार, जतका दिखथे सबो लचार। 
फोकट के धमकी-चमकी देथे, पागी पटुका नंगावत हे राम।‘ 
जैसे कई भावपूर्ण और लोकप्रिय गीत लिखे। 

कोदूराम (मेश्राम) दलित की कविताओं में छत्तीसगढ़ के लोक सहित छत्तीसगढ़ी के शब्दों का प्रयोग देखते ही बनता है। उनके मराठीभाषी छत्तीसगढ़ी परिवार में, वे दम्पति आपस में और रिश्तेदारों से मराठी में बात करते थे। उन्होंने ‘छन्नर छन्नर पइरी बाजय‘ जैसी सरस लोकप्रिय रचना की। स्कूल की पढ़ाई का आह्वान करती उनकी पंक्तियां, जिनमें वे नाम, पदनाम, रिश्तों की सूची जोड़ते चलते हैं, इस तरह हैं- 
ए ओ सखाराम के सारी, हगरू टूरा के महतारी। 
मंगलू के मँझली भौजाई, भुरुवा मंडल के फुलदाई।। 
हमर परोसिन पुनिया नोनी, पारबती मनटोरा सोनी। 
सुनव जँवारा सुनव करौंदा, तुलसीदल गंगाजल गोंदा।। 
नंदगहिन सातो सुकवारो, जम्मो झिन मन पढ़ लिख डारो। 
ए गा भाई ददा बिसाहू, रतन गउँटिया माधो दाऊ।। 

उनकी, किसानी वाली एक अन्य रचना, जिसमें महिला नामों के साथ मानों इस सूची का विस्तार कर रहे हैं- 
‘चंदा, बूंदा, चंपा, चैती, केजा, भूरी, लगनी। 
दसरी, दसमत, दुखिया, ढेला, पुनिया, पाँचो, फगनी। 
पाटी पारे, माँग सँवारे, हँसिया खोंच कमर-मा, 
जाँय खेत, मोटियारी जम्मो, तारा दे के घर-मा।‘ 

इसी तरह इन पंक्तियों में खादी उल्लेख सहित विभिन्न पोशाक की सूची दे दी है- 
दसेरा देवारी के तिहार-बार आत हवै, जाव हो बाबू के ददा, खादी ले के आहू हो। 
मोर बर लहँगा पोलखा अउ नोनी बर, तीन ठन सुन्दर फराक बनवाहूँ हो। 
बाबू बर पइजामा कमीज टोपी अउ पेन्ट, बण्डी कुरता अपन बर सिलवाहूं हो। 
धोती लगुरा अँगोछा पंछा उरमार झोला, ओढ़े बिछाए के सबो कपड़ा बिसाहू हो। 

डॉ. अरुण कुमार सेन की प्रसिद्ध कविता है- ‘महानदी के पार, राजीवलोचन के धार। मोर नानकुन गांव ये हर, दाई ददा मोर इहां के किसान। उनके दो छत्तीसगढ़ी गीत ‘तैं मोर जनम जनम के संगवारी, बन बैरागिन भटकत हौं रे, मैं राधा, तैं मोर किसन मुरारी‘ तथा ‘आ गे सावन अउ भादों मोर राजा, नदिया सहिं आंखी बोहावै आ जा रे, आ जा।‘ के ग्रामोफोन रिकॉर्ड बने, जो संभवतः इस रूप में आए सबसे पहले गीत हैं। तेलुगूभाषी राममूर्ति जनस्वामी ने शंकराचार्य के प्रसिद्ध चर्पटपंजरिका का सुबोध छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर, भाषा-सामर्थ्य को प्रमाणित किया है, बतौर बानगी उसे ‘जिनगी के चिरपिरहा चूरन बानी‘ कहा है। बाबूलाल सीरिया ‘दुर्लभ‘ की छत्तीसगढ़ी रचनाओं में उल्लेखनीय ‘परेवा गीत‘ है। नायिका, कबूतर को संदेशवाहक बनाकर अपने प्रेमी को संदेश भेजते हुए कहती है- मोर अंतस पीरा ल सब, उन ल तहीं बताबे। उनकर सरी संदेसा ल तंय मोर सो ले के आबे।‘ छोटी सी इस कविता को पढ़ कर लगता है कि कवि को मेघदूत पढ़ कर ताव आया है, और फटाफट यह रच डाला है। 

डॉ. रमेश, बागबहरा की छत्तीसगढ़ी कविता किसी दौर में खासी चर्चित थी, छत्तीसगढ़ राज्य का गठन उनके निधन के बाद हुआ, वे छत्तीसगढ़ विकास मंच के संयोजक थे। उनकी यहां उल्लिखित कविता के अंश से उनका छत्तीसगढ़-प्रेम और आग्रह प्रकट होता है। साथ ही पता चलता है कि वे यहां परंपरा में प्रचलित वाक्पटुता और तुकबंदी के लोकप्रिय प्रसंगों से अच्छी तरह परिचित थे। वे जिन पंक्तियों से प्रभावित जान पड़ते हैं, ऐसे पारंपरिक दो प्रसंग, पहले में कलार जाति के सात लोगों में से सातों के मर जाने की बात कही जाती है- 
इहां ले गइन सातों कलार, 
जात्ते मर गे चंदुआ कलार 
आई! दू झन ल ले गे दाई 
अउ! दू झन ल ले गे गउ 
लबरा! दू झन ल ले गे मंगरा 
सातों खतम हो गे। 

इसी तरह नौ चोर चोरी करने जाते हैं, एक लौट कर आता है, उसकी पत्नी पूछती है- 
का का लाए देस के रीती? दू चपाइन भीती 
अइसा! दू ल मारिस भंइसा 
दइया! दू ल मारिस गइया 
लबरा! दू झन ल धरिस मंगरा। 

अब डॉ. रमेश की कविता ‘छत्तीसगढ़ के छत्तीस मनखे‘, जिसमें वे लिखते हैं- ‘डोकरा डोकरी अकाल म मर गें, बाकी बांचिन चौंतीस, चार झन बाहिर निकलगे बाकी रहि गिन तीस‘ और इसी तरह आगे बढ़ते हुए अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते हैं, जिसने छत्तीसगढ़ का झंडा उठा रखा है, उसे पुलिस पकड़ कर ले जाती है, तब बस अंडा बचा रह जाता है, फिर लिखते हैैं- ‘आओ रे छत्तीसगढ़िया आओ, ए बिजहा ल बचाओ, ये झंडा मा हाथ लगाओ, छत्तीसगढ़ के राज बनाओ।‘ 

ऐसे भाषा-प्रेमियों ने छत्तीसगढ़ी को और छत्तीसगढ़ ने इन सपूतों को अपनाकर स्वयं को समृद्ध और गौरवान्वित किया है।