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Thursday, November 4, 2021

टांगीनाथ सामत राजा और पछिमहादेव

यह किस्सा थोड़े फेर-बदल के साथ इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी 2019 में विचार/पुरातत्व के अंतर्गत ‘डीपाडीह के टांगीनाथ और अतीत की कड़ियां‘ शीर्षक से छपा था। 

डीपाडीह की बात, उसकी पृष्ठभूमि के साथ करने में आसानी होगी। सरगुजा का यह पूरा अंचल अपने आप में पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध क्षेत्र है। लेकिन इसकी विशेष प्रसिद्धि रामगढ़ की प्राचीन रंगशाला के लिए थी। यहां के अन्य पुरातात्त्विक स्थलों में डीपाडीह और महेशपुर दो ऐसे स्थल थे, जिनकी चर्चा फुटकर उल्लेख के रूप में जरूर होती थी। डीपाडीह के साथ एक तो टांगीनाथ का जिक्र आता था और दूसरी बात होती थी सामत राजा या सम्मत राजा से जुड़ी हुई।

इनमें पालवंशी प्रभाव का प्राचीन स्थल टांगीनाथ, छोटा नागपुर के महुवाडांड और नेतरहाट जाने वाले रास्ते में है। टांगीनाथ, यों नाम से लगता है कि यह परशुराम से संबंधित होगा, लेकिन उस टांगीनाथ और डीपाडीह को देखा तो पाया कि यहां जो सबसे ज्यादा प्रकट और विशाल मूर्ति है, वह परशुधर शिव, एकदम अलग प्रतिमाशास्त्रीय प्रतिमान, जो यों शिव का लोकप्रिय विग्रह नहीं है। शिल्पशास्त्रीय ग्रंथों में जरूर जिक्र आता है, यहां परशु लिए हैं, जो स्थानीय भाषा में टांगी या फरसा कहा जाता है। उस परशुधर शिव की मूर्ति को देखकर स्थानीय लोगों में यह धारणा बनी कि ये टांगीनाथ हैं, टांगी लिए हुए देव हैं, उसके साथ कहानी जुड़ी है, जिसमें एक सामत राजा हुआ करते थे और उनका टांगीनाथ से युद्ध हुआ। टांगीनाथ ने उनके पैर काट दिए। जिस विशाल प्रतिमा की यहां चर्चा है, उसका पैर टूटा हुआ है और वह पैर परशु पर टिका है, तो ऐसा लगता है कि उस परशु से उनका पैर काट दिया गया है।

एक रोचक बात आई कि सम्मत राजा क्या है? वास्तव में कोई सामंत राजा था? कोई अर्द्धसंप्रभु राजनैतिक शक्ति यहां हुआ करती थी और जिसका यह केन्द्र था? यहां चाव से सुनी-सुनाई जाने वाली कहानियों में एक पात्र पछिमहादेव भी है। संयोग कि जिस प्रकार पालवंशी राजाओं के नाम में अंत में पाल जुड़ा होता था, उसी तरह यहां से पश्चिम में स्थित त्रिपुरी के कई कलचुरि राजाओं के नाम के अंत में देव रहा है। कहानी में पछिमहादेव के बैल का रूप धर लेने की बात भी कही गई है, तब ध्यान जाता है कि यह ‘पच्छिम-महादेव‘ तो नहीं! अब स्थल उत्खनन से उजागर हुआ कि यह एक विस्तृत पुरातात्विक-धार्मिक स्थल है और यह केन्द्र किसी सबल राजनैतिक प्रभुत्व के अधीन रहा होगा।

स्थल के राजनैतिक इतिहास को देखने में मुश्किल होती है जब कोई अभिलेख न मिले या पुराने साहित्य में कोई स्पष्ट उल्लेख/संदर्भ न आए। इसी तरह दूसरे स्रोत- कोई ताम्रपत्र, कोई शिलालेख, जिससे स्थल की प्राचीनता को जोड़कर समझ सकें, ऐसा कुछ खास प्रमाण यहां नहीं मिला है। शिव इस स्थल के प्रमुख देवता हैं, लेकिन यहां देवी मंदिर भी मिले हैं। एक बहुत महत्वपूर्ण मंदिर देवी चामुण्डा का मिला है। स्थानीय लोगों में ‘बोरजो टीला‘ नाम से ज्ञात स्थल की खुदाई से उद्घाटित स्मारक और मूर्तियों से अनुमान हुआ कि वह सूर्य का मंदिर है, यहां द्वादश आदित्यों की मूर्तियां रही होंगी।

आरंभिक संरचना उरांव टोली का शिव मंदिर, आठवीं सदी ईसवी का है। यहां से आगे लगभग तेरहवीं शताब्दी तक लगातार स्थापत्य गतिविधियों के प्रमाण यहां दिखाई पड़ते हैं। इससे स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि यह एक धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक सक्रियता का केन्द्र रहा होगा। इस स्थल के चारों ओर पहाड़ियां हैं, बीच में सपाट मैदान है और सरगुजा की महत्वपूर्ण नदी, कन्हर यहां से गुजरती है। कन्हर नदी के बहाव की दिशा में उसके दाहिने तट पर यह स्थल स्थित है। यहां से एक किलोमीटर भी कम दूरी पर ऊपर बायीं ओर, सूर्या नाम की छोटी नदी, कन्हर में मिलती है। वहां से आधे-पौन किलोमीटर नीचे उतरते हैं तो गलफुल्ला नाम की दूसरी नदी दाहिनी ओर मिलती है। इस तरह भौगोलिक दृष्टि से यहां तीन नदियों का संगम है और यही स्थल के चयन के पीछे मुख्य कारण रहा होगा।
चइला पहाड़ पर उत्कीर्ण लेख
‘ॐ नमः विस्वकर्मायः।।‘
यहां का चइला पहाड़ उल्लेखनीय है, जहां से इन मंदिरों के निर्माण हेतु पत्थर लाए गए हैं, मंदिरों से बमुश्किल तीन किलोमीटर दूर है। चइला, छीलन को कहा जाता है, ऐसा स्थान जहां पाषाणखंड को छील कर कलाकृतियों का रूप-आकार दिया गया है। अब भी मौके पर आठवीं-नवीं सदी की लिपि में खुदे अक्षर और बड़ी तादाद में छीलन, अधबने उकेरे खंड बिखरे हुए हैं। प्रसंगवश, सरगुजा के एक अन्य महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल महेशपुर में भोजासागर-रनसागर जोड़ा तालाब के पास 'टांकीनारा' पत्थर खदान (टांका-टांकी शब्द सामान्यतः जोड़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन पत्थर को तोड़ने के लिए छेनी से चिह्न बनाने को, टांकी मारना कहा जाता है) भी इसी प्रकार का स्थान है।

आठवीं से तेरहवीं सदी तक, समाजार्थिक दृष्टि से या राजनैतिक दृष्टि से भी देखें तो यहां लगातार निर्माण का क्रम विद्यमान है। यहां छोटे-बडे, अलग-अलग देवी-देवताओं के मंदिर हैं और ढेरों अवशेष, इससे निष्कर्ष निकालने में कोई कठिनाई नहीं कि यहां धार्मिक सामंजस्य रहा है। यहां प्रभावी राजनैतिक शक्ति ने सभी को उदार स्वीकृति दी थी। सभी धर्म-सम्प्रदाय के मानने वालों के साथ उनकी सहमति थी कि वे वहां निर्माण करा सकें। डीपाडीह में रोचक एकाश्मीय लघु मंदिर भी है, जो संभवतः मंदिर निर्माण कराने की मान्यता-पूर्ति के लिए हैं।

माना जा सकता है कि इस पूरे दौर में डीपाडीह धार्मिक आस्था का केन्द्र बन गया था। स्वाभाविक ही, जो धार्मिक आस्था का केन्द्र होता है वहां ऐसी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां सक्रिय हो जाती हैं। डीपाडीह के लिए ऐसी मान्यताएं रही होंगी कि उस पुण्य क्षेत्र में मंदिरों का निर्माण कराया जाय और अपनी क्षमता, अपने सामर्थ्य के अनुसार मनौती पूरी होने पर, ऐसे छोटे मंदिर उस क्षेत्र में बनवाते रहे होंगे। स्पष्ट होता है कि हर आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक मान्यता के व्यक्ति के लिए यह ऐसा स्थल था, जो हर वर्ग-समुदाय की प्रबल आस्था का केन्द्र रहा और आज भी है।

इस स्थल के उत्खनन से उजागर तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि सोमवंशी, जिन्होंने लगभग सातवीं-आठवीं सदी में सिरपुर जैसा महत्वपूर्ण केन्द्र विकसित किया और इस काल के मंदिरों में सोमवंशियों की एक विशिष्ट शैली की छाप है। इस शैली की दो-तीन उल्लेखनीय लक्षण- तारकानुकृति (स्टेलेट या स्टार शेप्ड प्लान) भूयोजना और स्थापत्य में ईंटों का प्रयोग है, जो डीपाडीह के उरांव टोली, शिव मंदिर जैसे स्थापत्य के अलावा अन्य मंदिरों में भी है। यहां छत्तीसगढ़ के मध्य-मैदानी आरंभिक राजवंश सोम-पांडु काल के कला-प्रमाण है लेकिन परवर्ती काल में 11 वीं सदी ईस्वी के रतनपुर कलचुरियों का राजनैतिक और कला-प्रभाव क्षेत्र व्यापक होने के बावजूद यहां लगभग अनुपस्थित है। यहां की कला त्रिपुरी, जबलपुर के कलचुरि, जो रतनपुर कलचुरियों के पूर्वज हैं, से मेल खाती है। नक्शे में देखें तो त्रिपुरी, जबलपुर से शहडोल होते हुए डीपाडीह तक सीधी क्षैतिज रेखा खींची जा सकती है।

प्राचीन स्थलों से विशेषकर खुदाई से प्राप्त होने वाले अवशेषों की दशा देखकर अक्सर किसी दुर्घटना, आपदा की धारणा बना ली जाती है। इस दृष्टि से डीपाडीह में उजागर हुए पुरावशेषों, कलाकृतियों, संरचनाओं को समझने का प्रयास करें तो बहुत सारी अनकही कहानी साफ तौर पर समझी जा सकती है, जिसे यों समझ पाना शायद ही संभव हो।

सामत सरना मंदिर के मंडप के बाहिरी भाग में नन्दी की प्रतिमा है, वह अपनी मूल स्थिति से थोड़ा टेढ़ा, खिसका हुआ है, जो साल के बड़े पेड़ की जड़ों के कारण है। अंदर मंडप में दोनों तरफ आदमकद मूर्तियां हैं। जिसमें विष्णु, महिषासुरमर्दिनी, कार्तिकेय की बहुत सुंदर मूर्तियां साथ ही वराह अवतार की मूर्ति है। ये सभी मूर्तियां खुदाई के दौरान मुंह के बल पड़ी हुई मिलीं थीं, जिससे उनके मूल स्थान को समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई, इन मूर्तियों की साफ-सफाई और उपचार कर ठीक उसी जगह पर उनकी चौकी-पादपीठ, जो मूल स्थान पर सुरक्षित थी, पर खड़ा कर दिया। इसी तरह मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार के सामने दोनों द्वारशाखा और सिरदल, मुंह के बल पड़े मिले। एक ही पाषाणखंड वाले सिरदल पर गजलक्ष्मी के बगल का हिस्सा गहरा उकेरा हुआ है जिसकी वजह से वह हिस्सा टूटा और सिरदल के दो टुकड़े हो गये थे। उसे जोड़ने के लिए पत्थर में छेदकर सरिया और रसायनिक उपचार की मदद से दोनों हिस्सों को जोड़ा गया और इसके बाद उसे फिर वापस मूलरूप में खड़ा कर दिया गया।

डीपाडीह के लिए अनुमान किया जा सकता है कि 13वीं-14वीं सदी ईसवी के बाद स्थल की मान्यता वैसी नहीं रह सकी, जितनी 500 सालों में यानि 8वीं से 13वीं सदी ईसवी तक। धीरे-धीरे स्थल उपेक्षित होता गया, रखरखाव अभाव हुआ और संरचनाएं जर्जर होकर गिर गईं। डीपाडीह के लिए पूरे भरोसे से कहा जा सकता है कि वहां न कोई तोड़फोड़ हुई न भूकंप आया था।

डीपाडीह में पुरानी बावड़ियां हैं, एक छोटा सा रानी पोखर है, उसी तरह सामत-सरना मंदिर के पिछवाड़े एक बावली है। उस बावली को साफ करने की चर्चा बार-बार काम करने वालों और गांव वालों के बीच होती थी, काम शुरू हुआ तो आसपास के गांवों से लोग आने लगे तो पता लगा कि उस बावली में बहुत सारा धन गड़े होने की बात कही जाती है। बात का रस लेते हुए हमलोगों ने पूछा कि क्या मान्यता है, खजाना कितना नीचे है? किसी ने कहा एक पोरिस, पुरुष प्रमाण गहराई में, किसी ने कुछ और। पुरातत्वीय दृष्टि से जांच के लिए एक कोने पर ‘पिट’ लिया कि किसी तरह के पुरावशेष की क्या संभावना हो सकती है? वहां प्राकृतिक भराव वाली मिट्टी ही निकली, लोगों को भी इससे तसल्ली हो गई।

किसी अल्पज्ञात, नए-नवेले से पुरातात्विक स्थल पर बात करना, तब चुनौती जैसा होता है, जब आप विशेषज्ञ की भूमिका निर्वाह करने बैठे हों। डीपाडीह पर बात करते हुए मुझे यह महसूस हुआ था। यह स्थिति कुछ अन्य स्रोत-सामग्री का उदारता से इस्तेमाल करने की छूट मिलती है और स्थापना में पूर्व संदर्भों का दबाव नहीं रहता, उपलब्ध तथ्य-कारक और जानकारियों-प्रमाणों के आधार पर जिस अधिकतम स्तर तक तार्किक संभावना-स्थापना चाहें, प्रस्तुत की जा सकती है यहां ऐसा ही प्रयोग-प्रयास है , क्योंकि सरगुजा के इस अंचल का लिखित-अभिलिखित प्रमाण नहीं मिलता जिस आधार पर इससे अधिक कुछ तय किया जा सके। शिल्प-स्थापत्य परम्परा का सातत्य भी अधिक मदद नहीं करता। डीपाडीह किसी दिशा से प्रवेश करें, पहुंच कर हर बार लगता है, ये कहां आ गए हम! यहां भौगोलिक-ऐतिहासिक दृष्टि से पाल वंश और शिल्प परम्परा-साम्यता की दृष्टि से शरभ-सोमवंशी और त्रिपुरी कलचुरियों की साफ-साफ छाप जरूर पहचानी जा सकती है।

Saturday, May 19, 2012

देंवता-धामी

टांगीनाथ

जैसे लोगों ने टांगीनाथ-टांगीनाथ कहते है, उसमें एक जन्दगनी मुनी का आसरम था, उसका एक लड़का परशुराम था। जन्‍दगनी मुनी ने पूरे बिस्‍वा का राजा लोगों को या प्रजा तन्त्र को पार्टी में बुलाया और राजा महाराजा लोग एवं प्रजा तन्त्र को भोजन खिलाया पिलाया। उस समय राजा महाराजा लोग सोचने लगे कि इस छोटी सी कुटिया में कहां से इतना भोजन पानी की बेओस्था कि इतना आदमी को कहां से खिलाया पिलाया। हम लोगों से नहीं होने पाता। ऐसा सोचने लगे। उसके बाद जन्दगनी मुनी से पूछने लगे। मुनी ने बताया कि मेरे पास एक यही साधन है कि मेरे पास एक कामधेनु गाय है। उसी के जरिये से ए सब बेओस्था हुआ है, ऐसा कहा। उस समय राजा महाराजा लोग जन्दगनी मुनी से उस गाय को मांगने लगे तो जन्दगनी मुनी ने उस गाय को देने में इन्कार कर दिया। उस समय राजा महाराजा लोग जन्दगनी मुनी से युद्ध करके गाय को ले गये। लेकिन राजाओं के पास गाय नहीं रहा। गाय सिधे स्वर्ग चला गया। इस के पश्चात मुनी ने गाय के शोक से 21 बार जमीन और छाती को छु कर अपना प्राण को त्याग दिया। इसके पश्चात उनके पुत्र परशुराम जी ने तपस्या से घर लौट कर आया। घर आकर अपनी मां से पूछा कि मां पिता जी कहां है। मां बोली- पुत्र, पिताजी स्वर्ग सिधार गये, तो फिर से दुबारा पूछा तो मां बोली 21 बार जमीन एवं छाती को छूकर प्रणाम किया, उसके बाद प्राण त्याग दिया, ऐसा उत्तर दी। उस समय परशुराम जी ने सोचने लगा की ए छत्रियों का काम है। तब परशुराम जी ने अपना फरसा द्वारा राजाओं का संघार किया। जिसमें सामंत राजा भी सम्मलित था। सामंत राजा का छती ग्रस्त हो गया। उस समय उनके रानियां बावड़ी में डूब कर प्राण त्याग कर दिये।
प्राचीन रानी बावड़ी, डीपाडीह, सरगुजा 

गुरूमंत्र

1. सात मोर, मैं धरती, ग्रबधारी, परस पखारी। शेष नाग, बासु नाग। दियारानी, भुकू रानी। जलईर फुलइर, जलयांजइन, जल चितावइर, परस्साआंजइन। भले भूकूर मान। गुरू के दोहाई। अकाश पताल, नौ खण्ड, नौ दिन। पावन पानी, ब्रम्हा बिशनु, मुड़ महेशर। भाभी भगवान, हलुमान सिंग के हलके लागे, भिमसिंग के बल लागे, तन जागे, मन जागे। गुरू के दोहाई ।
2. डेगन गुरू, माधो मंत्री, भंइफर गुरू, सोखा गुरू, ढिंठा गुरू, भोजा गुरू, बाप गुरू, बाघु गुरू, धन्नु गुरू, मंगरा गुरू, डेगन गुरू, डेगन गुरूवाईन। पंडा गुरू, नउंरा गुरू, कोतका गुरू, लाउर गुरू, भाउर गुरू, जगत गुरू, भगत गुरू। तन जागे, मन जागे, गुरू जागे, गुरूवाइन जागे, जल जागे, थल जागे, जागे जागे, चेला का पिड़ जागे।
3. गुरू-गुरू, कोन गुरू। गुंगा गुरू, करेरा, घुमेरा, दस गुरू बाजल गुरू। मनोझा, भुत लंडी के मनाइदे, सिखाइदे, पढाई दे। दिन के घोंख, राईत के सापन दे।

हाकनी मंत्र

1. सामंत राजा, सामंत रानी। गढ़ राजा, गढ़ रानी। कोठी मंजगांव, टांगीनाथ, कारू सुन्दर, गाजीसींग करिया, दानो दइता। मरगा के भइसासुर, खटंगा के खटांगी दरहा, सिरकोट के भलवारी चंडी, रांची के रंजीत दरहा, मायन पाठ के जोड़ा दरहा, ससरवा के गेन्दा दरहा, जमुरा के जमदरहा, कुसमी के जोंजों दरहा। भुलसी के जन्ता पाठ, बकसपुर के गढ़वा पाठ, हर्री के गर्दन पाठ। चैनपुर के अंधारी देवता, मंगाजी के चांवर चंडी, सिधमा चंडी, पाठ चंडी, पलयारिन चंडी। केंवटा गुरू, सिता बंदुरवा, डिल्ली गोरया। लंका के हलुमाबिर, कोठली के दुवरिया देंवता, छोटे पवई के सतबहीनी, बोड़ो के घोड़ा देंवता, करासी के सुपढाका, भलुत के कोही खोह। सराइडीह के घिरयालता, साधु सनयासी, गम्हारडीह के बेनवाआरख, बेनवा देवता।
2. उदरापुर, जनकपुर, रामगढ़ के बहियां ठेंगाबन, बिजलीबन, लोहेकबान चक्रे मारे, खपरे डाले। लागे बन, भागे भुत। हमर बान ना लागे। राजा दशरथ का बान, संख बाजे काल भागे, लोहे के तारी बाजे।
3. मना गड़ा, मनाजित हिरी, तोरा बीरी, तोरा पितरमा, सुरमख चंडी। सेसे टुटे, भंइसी फुटे, टुइट परबा, गोहाइर परबा। छांई देबा, छत्र देबा, बल देबा, सहाय देबा।
4. महरी के तातापानी, मुरघुट्टा कांटू के मचंगा। बिरदांचल भवानी। आई तोला, काईला कोरवा। अनमाझी, धाइनमाझी, उसंगमाझी, हाटी माझी। धावलागढ़ के नौमन का टंगा भंजइया, सोरोमन के पृथवी छुवइया, देवतन के हंकार होथय।
5. पलामु के इराईचंडी, बादनचंडी, शेंसचंडी, पाइल झाईल, ईजंलचंडी। कुइलीसारी, कुइली माता, घांट चंडी, घुमर चंडी, रोस्दाग चंडी, डोल चंडी, दिल्ली चंडी, पटना के चोरहा चंडी। जैसे गुन बान चोराले, तइसे गुन बान चोराई के, भंजाइके लानले, तइसे चेला के, चौरीया के, पढ़ाई ले, सिखाइ ले।
6. बरवे के छोरी पाठ, भोज पाठ, छत्तर पाठ। डामे-डमुवा, लोहाडा पियांगुर। दस भौजी, महामाई, पांउरा पंवरी, पंउरा दरहा। गांगपुर गंगलाही, रतनपुर रतनाही, केसलपुर केसलाही, हेगलाजमुती, फुलमुती, सदा भवानी के जोहाइर।
7. सुरगुजा के नाथलदेवी, परतापपुर के गादे गिरदा, पाटनपुर के पाटन देवी, रूसदाग के बाउरा, टिम्पु के बछड़ा।
8. उचमोर, चान्द माई, गोवालीन, उगेडाइन, छपित होय। चलेराम के बेरा, धरम के घेरा। बाग छला, डासल है, आसन माई बईठल है। धरी धरा, लगन धरा, लगन बछा। आइज-बाइज लागल है। तावन के लाई निकास करा।
9. सांगिन धरा। सिंगितोरा, गांव साजा, बनफोरा। दिल्लीसाजा, परवत साजा। अनरानी धनरानी, हिरारानी, काजररानी, बाजरानी, काजररानी, अनराजा, धनराजा, हिराराजा।
10. पईलकोट, पाईलपानी, कोड़ाहाक, डांड़राजा। छतिसो, राम लक्ष्मण के छड़ीधर, धरती को सेवकदार, सेवा बरदारी, कईर के, ठोंईक ठठाई के, निकास करा। बापा धारा, पुतर न छोड़ाबे।
11. चलगली के लोंगा पोखईर, घांठ दरदा, घुम्मर दरहा, रोको दरहा, पोको दरहा, झांपी दरहा, पिटी दरहा, गुंगा बीर, डोंगा दरहा, अंधाइर सिकर दरहा। सन्मुट के जोड़ा दरहा, बोखा तला के हिरा दरहा, कवांई के जमदरहा, चलिमां के मना दरहा, कुसमी के जोंजो दरहा, जमुरा के जाम दरहा।
12. चलगली के बेसरा पाठ, रानी छोड़ी जनता पाठ, अयारी के धनुक पाठ। बिरया के सालो भवानी, सरिमा के सागर, पटना के जादो बिर, काउडूमाकड़। जोरी के जारंग पाठ, अनाबिरी, हर्रइया पाठ, भिंजपुर के छत्र पाठ, लोहाडांक, पियांगुर। दस भावजी, महामाई। पांउरा-पांउरी, पांउरा दरहा। गांगपुर गंगलाही, निर पांगुर, परियादेव। नेयाय करे, पत्थल फारे, करा पत्थर। बहींया केसरगढ़ बहींया, भंइसी नागपुर, पांचो बीर, पांचो बहान। कल्यक के राकस पाठ, मैनी के अरगर पाठ, डेमसुला मुटकी के धोवा पाईन। झगराखण्ड, खंड़ो के भलुवारी। देवड़ी के जोड़ा सराई, जशपुर के गाजीसिंग करिया, दिल्ली के गोरया, लंका के हलिमानबिर, मदगुरी के गोरेया। महादानी, छोटे महादान, बडे़ महादान। चेंग-बेंग, डमगोड़ी, डंगाही, नपरगढ़ चन्दागढ़, झिली-मिली। डोंगा दरहा, डोंगादाई, चौंराभांवरा, टुइट परबा। छांई देबा, छत्तरदेबा, बलदेबा, सहायदेबा।
13. कोरम के माछिन्दर नाग। तेज नाग, भोज नाग, कमल नाग, बिशेसर नाग, टांगी नाग। जय-जय भवानी, सिंग सवारी। धानी मुण्डा, जागरित करो, अन्याय। आईद भवानी, करस कलयानी, तीनोंमाता, दुखा डन्डा, काटाहीं, जबकी फन्दा बैठाहीं। गढ़हे राजा, जोपरानी। गढ़हे परी, सुमरते सुमरते, सकल छकल पड़ी। पोक सारती, बिजकपुरी, रमाईन, पहालाद गुरू के सुमरते सुमरते, अपर भवानी, जापर भवानी। टकटकी मलमली, बथाबाई, पिराबाई, लंगड़ी देवी, ठोठी देवी, चपका माता, खुरहा माता।
14. पुर्ब के शोखा, पछिम के भगत, नौलक देवी, नौलक भवानी, अबरी भवानी, छबरी भवानी, चान्द भवानी, सुरज भवानी, हस्सामुखी भवानी, पंड़वा भवानी। सियादम्मा, खिखी माता, लोकखण्डी, जगती भवानी। कलकत्ता के काली मांई, बनारस के बुढ़ी भवानी, उदरगढ़ के उदरगढ़नी माता, सारंगगढ़ के सारंगगढ़नी माता, चलगली के महामइया, डिपाडीह के समलाई देवी, चम्मुण्डा देवी।

गुरूवट

1. गुरू गुरू हंकारालो। गुरू नाहीं सुने रे। गुरू मोरे कहां चली गेल। माये गुरवाईन मोर, गुरू मोरे कहां चाली गेल।
2. तोय नाहीं जानले। चेला ना बेटा मोर। तोरे गुरू बन्खंडा सेवे के गेल। चेला ना बेटा मोर तोरे गुरू बन्खंडा सेवे के गेल।
3. बारो बारिसा गुरू बन्खंडा सेवाय रे। तेरो बारिसा गुरू घर फिरी आय। गुरू गोसाइया मोर तेरो बारिसा गुरू, घर फिरी आय।
4. धरमा का बिदिया के हेरदय समाय रे। पापी का बिदिया के गंगा धंसाय। चेला ना बेटा मोर, पापी का बिदिया के गंगा धंसाय।
5. गुना कारणने बेटा गेलो हरादीपुर, तबो बेटा गुन नाहीं पालो। चेला ना बेटा मोर। ताबो बेटा गुन नाहीं पालो।

टीप

टांगीनाथ, किस्‍सा सरगुजा के कुसमी-झारखंड सीमा में प्रचलित, यहां यथासंभव उन्हीं शब्दों में प्रस्तुत है।
गुरू मंत्र और हांकनी मंत्र, ओझाई काम के लिए मन में पढ़े-दुहराए जाते हैं।
गुरूवट, गीत हैं, जिसे सूप में चावल लेकर, उससे ताल देते हुए गुरू गाता है और शिष्‍य दुहराते हैं, इसका प्रभाव रोमांचक, सम्‍मोहक होता है।

सन 1988 से 1990 के बीच मेरा काफी समय सरगुजा में बीता, इसी से जुड़ी मेरी पिछली तीन पोस्‍ट डीपाडीह, टांगीनाथ और देवारी मंत्र की यह एक और कड़ी है इसलिए वहां आ चुके संदर्भों को यहां नहीं दुहरा रहा हूं। इसमें कुछ याद से, कुछ नोट्स से और कुछ फिर से पुष्टि करते हुए दुरुस्‍त किया है। वर्तनी और भाषा, यथासंभव वैसा ही रखने का प्रयास है, जिस तरह यहां प्रयोग में आती है। इस क्रम में सब देवों, गुरुओं के साथ कुछ अन्‍य स्‍मृति-उल्‍लेख आवश्‍यक हैं- डीपाडीह के पड़ोसी गांव करमी के सुखनराम भगत, पिता श्री सरदारराम, दादा श्री ठाकुरराम की व्‍यापक युग-दृष्टि से मुझे प्रेरणा मिलती रही, तब उनकी आयु 100 वर्ष से अधिक बताई जाती थी और वे विधान सभा के प्रथम आम चुनाव के अपने चिह्न के कारण सीढ़ी छाप वाले के रूप में भी जाने जाते थे। यहां आई सामग्री का अधिकांश, उरांव टोली, डीपाडीह के मनीजर राम से प्राप्‍त हुआ। यहीं के निरमल, पल्टन, कलमसाय जैसे कई सहयोगी मेरी इस रुचि के पोषक बने। तेजूराम और जगदीश ने इसे दुरुस्‍त करने में मदद की है। सभी के प्रति आदर-सम्‍मान।

Friday, December 16, 2011

टांगीनाथ

''मोर मन बसि गइल
चल चली सरगुजा के राजि हो''

उड़ान भरने वाले बताते हैं कि सरगुजा का हिस्सा, मध्य भारत का सुंदरतम हवाई दृश्य है और आरंभिक परिचय में ही कहावत सुनने मिल जाती है- ''मत मरो मत माहुर खाओ, चले चलो सरगुजा जाओ'' यानि हालात मरने जैसे बदतर हैं, जहर खाने की नौबत आ गई है, तो सरगुजा चले जाओ। आशय यह कि जहर खाने और मरने की बात क्यों, सरगुजा जा कर जीवन मिल जाएगा, लेकिन इसकी अन्य व्याख्‍या है कि मरना हो तो जहर खाने की जरूरत नहीं, सरगुजा चले जाओ काम तमाम हो जाएगा, ''जहर खाय न माहुर खाय, मरे के होय तो सरगुजा जाये।''

खिड़की के शीशे से पार आसमान और क्षितिज देखते, टेलीविजन से होते हुए मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सिमटती दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का दौर है, तब इस जमीनी हकीकत का अनुमान मुश्किल हो सकता है कि अंबिकापुर से राजपुर-रामानुजगंज की ओर बढ़ते ही जैसे नजारे होते हैं उनके लिए आंखों के 180 अंश का फैलाव भी कम पड़े, अकल्पनीय दृश्य विस्तार, व्यापक अबाधित क्षितिज रेखा से दृष्टि-सीमा का अनूठा रोमांच होने लगता है। मौसम खरीफ का हो तो जटगी और उसके बाद राई-सरसों के पीले फूल के साथ अमारी-लकरा भाजी के पौधों की लाली से बनी रंगत शब्दों-चित्रों से बयां नहीं हो सकती और फिर बीच-बीच में पवित्र शाल-कुंज, सरना की घनी हरियाली...
प्राकृतिक-भौगोलिक दृष्टि से सरगुजा, मोटे तौर पर पूर्व रियासतों कोरिया-बैकुण्ठपुर, चांगभखार-भरतपुर, सरगुजा-अम्बिकापुर और जशपुर या वर्तमान संभाग सरगुजा का क्षेत्र है। यह अंचल पठारी भौगोलिक विशिष्टता पाटों- मुख्‍यतः सामरीपाट, जोंकापाट, जमीरापाट, लहसुनपाट, मैनपाट, पंडरापाट, जरंगपाट, और कुछ अन्‍य तेंदूपाट, छुरीपाट, बलादरपाट, अखरापाट, सोनपाट, लंगड़ापाट, गरदनपाट, महनईपाट, सुलेसापाट, मरगीपाट, बनगांवपाट, बैगुनपाट, लाटापाट, हरीपाट से भी जाना जाता है। ढोढ़ी जलस्रोत और खासकर कोरिया जिले में धरातल तक छलकता भूमिगत प्रचुर जल है तो तातापानी जैसा गरम पानी का स्रोत और सामरी पाट का उल्टा पानी जैसा दृष्टि भ्रम है। कोयला और बाक्साइट जैसे खनिज और वन्य जीवन-वन्य उत्पादों से भी यह भूभाग जाना गया है।

जनजातीय समाज, जिसमें सभ्यता के विकासक्रम की आखेटजीवी, खाद्य-संग्राहक, कृषक, गो-पालक से लेकर सभ्य होते समूहों में प्रभुत्व के लिए टकराव की स्मृति और झलक एक साथ यहां स्पष्ट है। रियासती दौर, 'टाना बाबा टाना, टाना, टोन, टाना' वाले ताना भगत, इसाई मिशनरी, कबीरपंथी, तिब्बती, गहिरा गुरू, राजमोहिनी देवी और एमसीसी जैसी धाराओं के समानान्तर सरगुजा में हाथियों की आमद-रफ्त व प्रकृति के असमंजस को माइक पांडे ने 'द लास्‍ट माइग्रेशन' ग्रीन आस्‍कर पुरस्‍कृत फिल्‍म में, मिशनरी गतिविधियों को तेजिन्‍दर ने 'काला पादरी' उपन्‍यास में, अकाल और जीवन विसंगतियों को पी साईंनाथ ने 'एव्रीबडी लव्‍स अ गुड ड्राउट' रपटों के संग्रह पुस्‍तक में तो याज्ञवल्‍क्‍य जी ने एक रपट में यहां और समग्र रूप में समर बहादुर सिंह जी, डा. कुंतल गोयल, डा. बजरंग बहादुर सिंह ने लेख/पुस्‍तकों में दर्ज किया है।

इस अंचल की सांस्कृतिक अस्मिता, समष्टि में सोच और घटनाओं को स्मृति में संजोए, झीने आवरण की पहली तह के नीचे अब भी वैसी की वैसी महसूस की जा सकती है, मानों उसमें हजारों साल घनीभूत हों। बस जरूरत होती है खुले गहरे कानों की, फिर आसानी से आस-पास के कथा-स्रोत सक्रिय हो कर उन्मुख हो जाते हैं, सहज बह कर उसी ओर आने लगते हैं।

उत्तर दिशा में बहता बर्फ से ठंडे पानी वाला पुल्लिंग नद कन्हर, बायें पाट से आ कर मिलती गुनगुनी-सी सूर्या (सुरिया) और कुछ आगे चल कर गम्हारडीह में बायें ही डोंड़की नाला और दायें पाट पर गलफुला (माना जाता है कि इस नदी का पानी लगातार पीते रहने वालों का 'घेंघा' रोग से गला फूल जाता है) का संगम। इनके बीच कन्हर के दायें तट पर शंकरगढ़-कुसमी के बीच बसा डीपाडीह।

सन 1988 में यहीं, ठंड में अलाव पर जुटे, जसवंतपुर निवासी कोरवा समाज के मंत्री श्री जगदीशराम, तथा श्री थौलाराम, कोषाध्यक्ष, दिहारी द्वारा देर रात तक सुनाई गई कहानी, जिसमें बताया गया कि कोल्हिन सोती में बारह रुप वाला देवी का पुत्र पछिमहा देव, बैल का रूप धरकर, जशपुर की उरांव लड़की को छिपा दिया फिर लखनपुर जाकर 700 तालाब खुदवाया फिर ब्राह्मणी पुत्र टांगीनाथ ने उसका पीछा किया तो वह भागकर सक्ती होकर कुदरगढ़ पहुंचा, वहां बूढ़ी माई ने उसकी रक्षा की। पछिमहा देव ने दियागढ़, अर्जुनगढ़, रामगढ़ आदि देव स्थानों को सांवत राजा सहित आना-जाना किया, लेकिन कन्हर से पूर्व न जाने की कसम के कारण रुक गया।

पछिमहा देव और टांगीनाथ की कथा कुसमी क्षेत्र, छत्तीसगढ़ सहित महुआडांड-नेतरहाट क्षेत्र, झारखंड में तीन-चार प्रकार से सुनाई जाती है, जिनमें पछिमहा देव को टांगीनाथ का पीछा करते हुए जशपुर या सक्ती की सीमा तक पहुंचने का जिक्र आता है। पछिमहा देव को इसी क्षेत्र में विवाहित या यहां की स्त्री से संबंधित किया जाता है। पछिमहा देव और टांगीनाथ की पहले मित्रता बाद में अनबन बताई जाती है। पछिमहा देव को सांवत राजा द्वारा सहयोग देना और फलस्वरूप टांगीनाथ द्वारा सांवत राजा को नष्ट करना तब पछिमहा देव का विभिन्न देवी-देवताओं की शरण में जाकर सहयोग की याचना और अंततः नदी के किनारे लखनपुर में पछिमहा देव का प्रवास तथा नदी (रेन?) पार न करने की कसम दिये जाने से कथा समाप्त होती है।

सांवत राजा या सम्मत राजा छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व सरगुजा अंचल में स्थित ग्राम डीपाडीह के प्राचीन स्मारक-स्थल का नाम है। यह पारम्‍परिक पवित्र शाल वृक्ष-कुंज, सामत-सरना कहा जाता है। सांवत राजा के रूप में परशुधर शिव की प्रतिमा दिखाई जाती है, प्रतिमा में वस्तुतः शिव, परशु पर दाहिना पैर रखकर खड़े प्रदर्शित थे, किन्तु वर्तमान में दाहिने पैर का निचला भाग टूटा होने से माना जाता है कि टांगीनाथ ने इस सांवत राजा के पैर काट दिए हैं और टांगी यहीं छूट गई है।

परशु-टांगी धारण की सामान्‍य मुद्रा, उसे कंधे पर वहन कि‍या जाना है, आज भी सरगुजा और बस्‍तर के अन्‍दरूनी हिस्‍सों में प्रचलन है। लेकिन यहां परशु आयुध, विजयी मुद्रा शिव की इस भंगिमा में 'फुट-रेस्‍ट' है (हिंस्र शक्तियों पर विजय का प्रतीक?) सामत राजा के सेनापति- सतमहला का मोती बरहियां कंवर और झगराखांड़ बरगाह ने टांगीनाथ से बदला लेने का प्रयास किया। (सतमहला के पुजारी रवतिया जाति के हैं) रेन पार न करने की कसम, किसी संधि-प्रस्ताव का परिणाम है?

टांगीनाथ (परशुराम या शिव का कोई रूप, किसी स्थानीय प्राचीन शासक या जनजाति समूह के नायक की स्मृति?) नामक ईंटों के प्राचीन शैव मंदिर युक्त पहाड़ी पर स्थित स्थल, ग्राम-मंझगांव, थाना-डुमरी, तहसील-चैनपुर, जिला-गुमला, झारखण्ड में हैं। यहां के श्री विश्वनाथ बैगा ने भी इसी तरह की कहानी बताई। इस कहानी में त्रिपुरी कलचुरियों के किसी आक्रमण की स्मृति है? त्रिपुरी (जबलपुर) जो डीपाडीह से सीधी रेखा में पश्चिम में है (पछिमहा देव) या परवर्ती काल के सामन्त शासकों, अंगरेजों, जनजातीय कबीलों या सामंत और कोरवाओं से संघर्ष की स्मृति है? ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर कथा-क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम, पलामू-छोटा नागपुर और बघेलखंड की 18-19 वीं सदी की घटनाओं का स्‍मृति-प्रभाव भी संभव जान पड़ता है।

धनुष-बाण, कोरवाओं की जाति-उत्पत्ति कथा के साथ उनसे सम्बद्ध है। अंगरेज दस्तावेजों से पता चलता है कि टंगियाधारी कोरवा और कोरकू जनजाति का अहीर गो-पालकों के साथ तनाव बना रहता। ताना भगत आंदोलन में कुसमी क्षेत्र के जन-नायक भाइयों लांगुल-बिंगुल के लिए भी बस्तर के आदिवासियों की तरह प्रसिद्ध है कि वे बंदूक पर मंत्र मारते देते थे, जिससे नली से गोली की जगह पानी निकलता था (क्या यह पानी लाल होता, यानि लहू के धार के लिए कहा जाता होगा?) इंडियन इंस्टीट्‌यूट आफ एडवांस स्टडी, शिमला में टांगीनाथ पर हुई केस स्टडी पुस्तकाकार प्रकाशित है।

इसी बातचीत में प्रसंग आ जाने पर, मैं अकेला श्रोता रह गया हूं, टांगीनाथ के साथ सामत राजा से मिलते-जुलते नाम समती और सामथ याद आ रहे हैं, जनजातीय वर्गों के एक्का, दुग्गा, तिग्गा और बारा उपनामों में अटक-भटक रहा हूं। किस्सा सुन रहे लोग बिना अटके-ठिठके इस अंचल के देवी-देवताओं का नाम कथावाचक के साथ उचारने लगते हैं-

डीपाडीह में सामत राजा रानी, काटेसर पाठ, चैनपुर में अंधारी जोड़ा नगेरा, हर्री में गरदन पाठ, चलगली में महामईया, सरमा में सागर, अयारी में धनुक पाठ, रानी छोड़ी, खुड़िया रानी में मावली माता, कुसमी में जोन्जो दरहा, सिरकोट में भलुवारी चण्डी, बरवये, मझगांव में टांगीनाथ, जशपुर में गाजीसिंग करिया, मरगा में भैंसासुर, कलकत्ता में काली माई, कुदरगढ़ में सारासोरो, सनमुठ में दरहा दरहाईन, गम्हारडीह में घिरिया पाठ, साधु सन्यासी, जोरी में जारंग पाठ और ''गांवन-गांवन करे पयान, चहुं दिस करे रे सथान, भले हो घमसान'' वाले दाऊ घमसान या घमसेन देव। जबकि पहाड़ी कोरवाओं के देवकुल में खुड़िया रानी, सतबहिनी, चरदेवा-धन चुराने वाला देव, खुंटदेव, परम डाकिनी, दानोमारी, दाहा डाकिन, दरहा-दुष्ट शक्तियों से बचाव करने वाला, हरसंघारिन, धनदनियां, अन्नदनियां, महदनिया, सुइआ बइमत, धरती माई, रक्सेल, डीहवा, सोखा चांदी गौरेया, बालकुंवर आदि नाम गिनाए जाते हैं।

अलग-थलग अपने को बेगाना महसूस करता मैं, मन ही मन तैंतीस कोटि का सुमिरन करते, सबके साथ शामिल रहने की योजना बना लेता हूं, सूची पूरी होते ही जोड़ता हूं..., अब इसमें हम सब का स्वर समवेत है, ''... की जै हो।''

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और देवारी मंत्र

सरगुजा में रुचि हो तो वी. बाल, ए. कनिंघम, जे. फारसिथ, एमएम दादीमास्‍टर की रिपोर्ट्स और देवकुमार मिश्र की पुस्‍तक 'सोन के पानी का रंग' देखना उपयोगी होगा।