डीपाडीह की बात, उसकी पृष्ठभूमि के साथ करने में आसानी होगी। सरगुजा का यह पूरा अंचल अपने आप में पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध क्षेत्र है। लेकिन इसकी विशेष प्रसिद्धि रामगढ़ की प्राचीन रंगशाला के लिए थी। यहां के अन्य पुरातात्त्विक स्थलों में डीपाडीह और महेशपुर दो ऐसे स्थल थे, जिनकी चर्चा फुटकर उल्लेख के रूप में जरूर होती थी। डीपाडीह के साथ एक तो टांगीनाथ का जिक्र आता था और दूसरी बात होती थी सामत राजा या सम्मत राजा से जुड़ी हुई।
इनमें पालवंशी प्रभाव का प्राचीन स्थल टांगीनाथ, छोटा नागपुर के महुवाडांड और नेतरहाट जाने वाले रास्ते में है। टांगीनाथ, यों नाम से लगता है कि यह परशुराम से संबंधित होगा, लेकिन उस टांगीनाथ और डीपाडीह को देखा तो पाया कि यहां जो सबसे ज्यादा प्रकट और विशाल मूर्ति है, वह परशुधर शिव, एकदम अलग प्रतिमाशास्त्रीय प्रतिमान, जो यों शिव का लोकप्रिय विग्रह नहीं है। शिल्पशास्त्रीय ग्रंथों में जरूर जिक्र आता है, यहां परशु लिए हैं, जो स्थानीय भाषा में टांगी या फरसा कहा जाता है। उस परशुधर शिव की मूर्ति को देखकर स्थानीय लोगों में यह धारणा बनी कि ये टांगीनाथ हैं, टांगी लिए हुए देव हैं, उसके साथ कहानी जुड़ी है, जिसमें एक सामत राजा हुआ करते थे और उनका टांगीनाथ से युद्ध हुआ। टांगीनाथ ने उनके पैर काट दिए। जिस विशाल प्रतिमा की यहां चर्चा है, उसका पैर टूटा हुआ है और वह पैर परशु पर टिका है, तो ऐसा लगता है कि उस परशु से उनका पैर काट दिया गया है।
एक रोचक बात आई कि सम्मत राजा क्या है? वास्तव में कोई सामंत राजा था? कोई अर्द्धसंप्रभु राजनैतिक शक्ति यहां हुआ करती थी और जिसका यह केन्द्र था? यहां चाव से सुनी-सुनाई जाने वाली कहानियों में एक पात्र पछिमहादेव भी है। संयोग कि जिस प्रकार पालवंशी राजाओं के नाम में अंत में पाल जुड़ा होता था, उसी तरह यहां से पश्चिम में स्थित त्रिपुरी के कई कलचुरि राजाओं के नाम के अंत में देव रहा है। कहानी में पछिमहादेव के बैल का रूप धर लेने की बात भी कही गई है, तब ध्यान जाता है कि यह ‘पच्छिम-महादेव‘ तो नहीं! अब स्थल उत्खनन से उजागर हुआ कि यह एक विस्तृत पुरातात्विक-धार्मिक स्थल है और यह केन्द्र किसी सबल राजनैतिक प्रभुत्व के अधीन रहा होगा।
स्थल के राजनैतिक इतिहास को देखने में मुश्किल होती है जब कोई अभिलेख न मिले या पुराने साहित्य में कोई स्पष्ट उल्लेख/संदर्भ न आए। इसी तरह दूसरे स्रोत- कोई ताम्रपत्र, कोई शिलालेख, जिससे स्थल की प्राचीनता को जोड़कर समझ सकें, ऐसा कुछ खास प्रमाण यहां नहीं मिला है। शिव इस स्थल के प्रमुख देवता हैं, लेकिन यहां देवी मंदिर भी मिले हैं। एक बहुत महत्वपूर्ण मंदिर देवी चामुण्डा का मिला है। स्थानीय लोगों में ‘बोरजो टीला‘ नाम से ज्ञात स्थल की खुदाई से उद्घाटित स्मारक और मूर्तियों से अनुमान हुआ कि वह सूर्य का मंदिर है, यहां द्वादश आदित्यों की मूर्तियां रही होंगी।
आरंभिक संरचना उरांव टोली का शिव मंदिर, आठवीं सदी ईसवी का है। यहां से आगे लगभग तेरहवीं शताब्दी तक लगातार स्थापत्य गतिविधियों के प्रमाण यहां दिखाई पड़ते हैं। इससे स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि यह एक धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक सक्रियता का केन्द्र रहा होगा। इस स्थल के चारों ओर पहाड़ियां हैं, बीच में सपाट मैदान है और सरगुजा की महत्वपूर्ण नदी, कन्हर यहां से गुजरती है। कन्हर नदी के बहाव की दिशा में उसके दाहिने तट पर यह स्थल स्थित है। यहां से एक किलोमीटर भी कम दूरी पर ऊपर बायीं ओर, सूर्या नाम की छोटी नदी, कन्हर में मिलती है। वहां से आधे-पौन किलोमीटर नीचे उतरते हैं तो गलफुल्ला नाम की दूसरी नदी दाहिनी ओर मिलती है। इस तरह भौगोलिक दृष्टि से यहां तीन नदियों का संगम है और यही स्थल के चयन के पीछे मुख्य कारण रहा होगा।
चइला पहाड़ पर उत्कीर्ण लेख ‘ॐ नमः विस्वकर्मायः।।‘ |
यहां का चइला पहाड़ उल्लेखनीय है, जहां से इन मंदिरों के निर्माण हेतु पत्थर लाए गए हैं, मंदिरों से बमुश्किल तीन किलोमीटर दूर है। चइला, छीलन को कहा जाता है, ऐसा स्थान जहां पाषाणखंड को छील कर कलाकृतियों का रूप-आकार दिया गया है। अब भी मौके पर आठवीं-नवीं सदी की लिपि में खुदे अक्षर और बड़ी तादाद में छीलन, अधबने उकेरे खंड बिखरे हुए हैं। प्रसंगवश, सरगुजा के एक अन्य महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल महेशपुर में भोजासागर-रनसागर जोड़ा तालाब के पास 'टांकीनारा' पत्थर खदान (टांका-टांकी शब्द सामान्यतः जोड़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन पत्थर को तोड़ने के लिए छेनी से चिह्न बनाने को, टांकी मारना कहा जाता है) भी इसी प्रकार का स्थान है।
आठवीं से तेरहवीं सदी तक, समाजार्थिक दृष्टि से या राजनैतिक दृष्टि से भी देखें तो यहां लगातार निर्माण का क्रम विद्यमान है। यहां छोटे-बडे, अलग-अलग देवी-देवताओं के मंदिर हैं और ढेरों अवशेष, इससे निष्कर्ष निकालने में कोई कठिनाई नहीं कि यहां धार्मिक सामंजस्य रहा है। यहां प्रभावी राजनैतिक शक्ति ने सभी को उदार स्वीकृति दी थी। सभी धर्म-सम्प्रदाय के मानने वालों के साथ उनकी सहमति थी कि वे वहां निर्माण करा सकें। डीपाडीह में रोचक एकाश्मीय लघु मंदिर भी है, जो संभवतः मंदिर निर्माण कराने की मान्यता-पूर्ति के लिए हैं।
माना जा सकता है कि इस पूरे दौर में डीपाडीह धार्मिक आस्था का केन्द्र बन गया था। स्वाभाविक ही, जो धार्मिक आस्था का केन्द्र होता है वहां ऐसी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां सक्रिय हो जाती हैं। डीपाडीह के लिए ऐसी मान्यताएं रही होंगी कि उस पुण्य क्षेत्र में मंदिरों का निर्माण कराया जाय और अपनी क्षमता, अपने सामर्थ्य के अनुसार मनौती पूरी होने पर, ऐसे छोटे मंदिर उस क्षेत्र में बनवाते रहे होंगे। स्पष्ट होता है कि हर आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक मान्यता के व्यक्ति के लिए यह ऐसा स्थल था, जो हर वर्ग-समुदाय की प्रबल आस्था का केन्द्र रहा और आज भी है।
इस स्थल के उत्खनन से उजागर तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि सोमवंशी, जिन्होंने लगभग सातवीं-आठवीं सदी में सिरपुर जैसा महत्वपूर्ण केन्द्र विकसित किया और इस काल के मंदिरों में सोमवंशियों की एक विशिष्ट शैली की छाप है। इस शैली की दो-तीन उल्लेखनीय लक्षण- तारकानुकृति (स्टेलेट या स्टार शेप्ड प्लान) भूयोजना और स्थापत्य में ईंटों का प्रयोग है, जो डीपाडीह के उरांव टोली, शिव मंदिर जैसे स्थापत्य के अलावा अन्य मंदिरों में भी है। यहां छत्तीसगढ़ के मध्य-मैदानी आरंभिक राजवंश सोम-पांडु काल के कला-प्रमाण है लेकिन परवर्ती काल में 11 वीं सदी ईस्वी के रतनपुर कलचुरियों का राजनैतिक और कला-प्रभाव क्षेत्र व्यापक होने के बावजूद यहां लगभग अनुपस्थित है। यहां की कला त्रिपुरी, जबलपुर के कलचुरि, जो रतनपुर कलचुरियों के पूर्वज हैं, से मेल खाती है। नक्शे में देखें तो त्रिपुरी, जबलपुर से शहडोल होते हुए डीपाडीह तक सीधी क्षैतिज रेखा खींची जा सकती है।
प्राचीन स्थलों से विशेषकर खुदाई से प्राप्त होने वाले अवशेषों की दशा देखकर अक्सर किसी दुर्घटना, आपदा की धारणा बना ली जाती है। इस दृष्टि से डीपाडीह में उजागर हुए पुरावशेषों, कलाकृतियों, संरचनाओं को समझने का प्रयास करें तो बहुत सारी अनकही कहानी साफ तौर पर समझी जा सकती है, जिसे यों समझ पाना शायद ही संभव हो।
सामत सरना मंदिर के मंडप के बाहिरी भाग में नन्दी की प्रतिमा है, वह अपनी मूल स्थिति से थोड़ा टेढ़ा, खिसका हुआ है, जो साल के बड़े पेड़ की जड़ों के कारण है। अंदर मंडप में दोनों तरफ आदमकद मूर्तियां हैं। जिसमें विष्णु, महिषासुरमर्दिनी, कार्तिकेय की बहुत सुंदर मूर्तियां साथ ही वराह अवतार की मूर्ति है। ये सभी मूर्तियां खुदाई के दौरान मुंह के बल पड़ी हुई मिलीं थीं, जिससे उनके मूल स्थान को समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई, इन मूर्तियों की साफ-सफाई और उपचार कर ठीक उसी जगह पर उनकी चौकी-पादपीठ, जो मूल स्थान पर सुरक्षित थी, पर खड़ा कर दिया। इसी तरह मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार के सामने दोनों द्वारशाखा और सिरदल, मुंह के बल पड़े मिले। एक ही पाषाणखंड वाले सिरदल पर गजलक्ष्मी के बगल का हिस्सा गहरा उकेरा हुआ है जिसकी वजह से वह हिस्सा टूटा और सिरदल के दो टुकड़े हो गये थे। उसे जोड़ने के लिए पत्थर में छेदकर सरिया और रसायनिक उपचार की मदद से दोनों हिस्सों को जोड़ा गया और इसके बाद उसे फिर वापस मूलरूप में खड़ा कर दिया गया।
डीपाडीह के लिए अनुमान किया जा सकता है कि 13वीं-14वीं सदी ईसवी के बाद स्थल की मान्यता वैसी नहीं रह सकी, जितनी 500 सालों में यानि 8वीं से 13वीं सदी ईसवी तक। धीरे-धीरे स्थल उपेक्षित होता गया, रखरखाव अभाव हुआ और संरचनाएं जर्जर होकर गिर गईं। डीपाडीह के लिए पूरे भरोसे से कहा जा सकता है कि वहां न कोई तोड़फोड़ हुई न भूकंप आया था।
डीपाडीह में पुरानी बावड़ियां हैं, एक छोटा सा रानी पोखर है, उसी तरह सामत-सरना मंदिर के पिछवाड़े एक बावली है। उस बावली को साफ करने की चर्चा बार-बार काम करने वालों और गांव वालों के बीच होती थी, काम शुरू हुआ तो आसपास के गांवों से लोग आने लगे तो पता लगा कि उस बावली में बहुत सारा धन गड़े होने की बात कही जाती है। बात का रस लेते हुए हमलोगों ने पूछा कि क्या मान्यता है, खजाना कितना नीचे है? किसी ने कहा एक पोरिस, पुरुष प्रमाण गहराई में, किसी ने कुछ और। पुरातत्वीय दृष्टि से जांच के लिए एक कोने पर ‘पिट’ लिया कि किसी तरह के पुरावशेष की क्या संभावना हो सकती है? वहां प्राकृतिक भराव वाली मिट्टी ही निकली, लोगों को भी इससे तसल्ली हो गई।
किसी अल्पज्ञात, नए-नवेले से पुरातात्विक स्थल पर बात करना, तब चुनौती जैसा होता है, जब आप विशेषज्ञ की भूमिका निर्वाह करने बैठे हों। डीपाडीह पर बात करते हुए मुझे यह महसूस हुआ था। यह स्थिति कुछ अन्य स्रोत-सामग्री का उदारता से इस्तेमाल करने की छूट मिलती है और स्थापना में पूर्व संदर्भों का दबाव नहीं रहता, उपलब्ध तथ्य-कारक और जानकारियों-प्रमाणों के आधार पर जिस अधिकतम स्तर तक तार्किक संभावना-स्थापना चाहें, प्रस्तुत की जा सकती है यहां ऐसा ही प्रयोग-प्रयास है , क्योंकि सरगुजा के इस अंचल का लिखित-अभिलिखित प्रमाण नहीं मिलता जिस आधार पर इससे अधिक कुछ तय किया जा सके। शिल्प-स्थापत्य परम्परा का सातत्य भी अधिक मदद नहीं करता। डीपाडीह किसी दिशा से प्रवेश करें, पहुंच कर हर बार लगता है, ये कहां आ गए हम! यहां भौगोलिक-ऐतिहासिक दृष्टि से पाल वंश और शिल्प परम्परा-साम्यता की दृष्टि से शरभ-सोमवंशी और त्रिपुरी कलचुरियों की साफ-साफ छाप जरूर पहचानी जा सकती है।
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