Saturday, November 6, 2021

समरस बस्तर

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद अशांत बस्तर को समरस करते, वहां स्वाभाविक विकास और शासकीय योजनाओं के क्रियान्वयन में सांस्कृतिक दृष्टि से संभावना पर नये सिरे से विचार होने लगे। छत्तीसगढ़ शासन के तत्कालीन प्रमुख सचिव डा. के.के. चक्रवर्ती और संचालक श्री प्रदीप पंत के मार्गदर्शन और निर्देश पर श्री जी.एल. रायकवार और मेरे द्वारा इससे संबंधित एक नोट बीसेक साल पहले तैयार किया गया था। इस पर कोई विचार हुआ, उपयोगी हुआ, कार्यवाही हुई अथवा नहीं, हमें पता नहीं लगा। शासन में आपको अधिकतर, कर्तव्य-भाव से, निष्काम से आगे अनासक्त रहते, कार्य संपादन करना होता है, मगर मानवीय स्वभाव, इस कच्चे नोट की प्रति मैंने अपने पास रख ली थी। इसे प्रासंगिक मानते यहां प्रस्तुत है-

बस्तर, सांस्कृतिक संरक्षण-उन्नयन

पृष्ठभूमि
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर प्राकृतिक दृश्यों, नैसर्गिक संपदा तथा जनजातीय पंरपराओं की दृष्टि से एक जीवित रंगमंच है। बस्तर जिले की भौगोलिक संरचना का इसमें विशेष योगदान है। बस्तर जिले की जीवन रेखा, जल प्रवाह में इंद्रावती तथा उसकी सहायक नदियां शबरी, नारंगी, शंखिनी-डंकनी आदि नदियां महत्वपूर्ण हैं। इंद्रावती, बस्तर तथा महाराष्ट्र राज्य की सीमा बनाती हुई भोपालपट्टनम तहसील मुख्यालय के भद्रकाली ग्राम के निकट गोदावरी में मिलती है। बस्तर जिले के मध्य से प्रभावित इंद्रावती नदी तथा उसके तटवर्ती प्रदेश के प्रागैतिहासिक काल के पाषाण उपकरण अनेक स्थलों से ज्ञात हुए हैं। पौराणिक काल के सूत्र का परिचय वाल्मीकी रामायण में है, जिसमें राम के वनवास अवधि में कुछ काल तक दण्डकारण्य में विचरण एवं निवास का उल्लेख है। महाभारत में कर्ण तथा सहदेव के दिग्विजय के अंतर्गत कौसल का उल्लेख मिलता है। ऐतिहासिक काल में पांचवी शती के गुप्तवंशीय राजा समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ विजय में कोसल तथा महाकांतार का उल्लेख है। दक्षिण कोसल तथा महाकांतार की समानता वर्तमान छत्तीसगढ़ के मैदानी भू-भाग तथा बस्तर क्षेत्र का गोदावरी पर्यंत भू-भाग से है।

ऐतिहासिक काल के प्रमुख राजवंशों में नल, चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल तथा नाग विशेष उल्लेखनीय हैं। बस्तर जिले में ऐतिहासिक काल में अंतिम राजवंश, काकतीयों (चालुक्य) का आधिपत्य रहा है। नागपुर के भोंसले शासकों के काल में बस्तर भी ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत सम्मिलित हो गया तथा यह स्थिति स्वतंत्रता प्राप्त होने तक, सन 1947 तक बनी रही। बस्तर के काकतीय (चालुक्य) राजवंश के अंतिम शासक प्रवीरचन्द्र भंजदेव थे, जिनका निधन वर्ष 1966 में हुआ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ देशी रियासतों के संविलियन के पश्चात, बस्तर देश का अंग बन गया। बस्तर का भू-भाग 1956 तक मध्य प्रांत और बरार में सम्मिलित रहा तथा छत्तीसगढ़ के अन्य हिस्सों की तरह 1 नवंबर 1956 से 31 अक्टूबर 2000 तक मध्यप्रदेश में शामिल रहा। 1 नवंबर 2000 से छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ बस्तर, छत्तीसगढ़ राज्य का भू-भाग है। भारत के सबसे बड़े तीन जिलों में लद्दाख, कच्छ तथा बस्तर हैं, परन्तु लद्दाख तथा कच्छ जनसंख्या की दृष्टि से न्यून रहे हैं। मध्यप्रदेश में बस्तर क्षेत्रफल में सबसे बड़ा जिला है। इसका क्षेत्रफल केरल राज्य से बड़ा है। प्रशासनिक दृष्टि से बस्तर जिले के वृहत् क्षेत्र को कांकेर, बस्तर, तथा दंतेवाड़ा जिले में विभाजित किया गया है।

आदिवासी बहुल बस्तर जिले के विकास के लिए केन्द्रीय शासन द्वारा प्रवर्तित तथा राज्य शासन के द्वारा अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया, जिनके अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, सड़क, वनोपज तथा कृषि पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। इसमें एनएमडीसी-नेशनल माइनिंग डेवलपमेंट कारपोरेशन तथा विशाखापटनम-बैलाडीला रेल मार्ग विशेष उल्लेखनीय है। बस्तर जिले के लिये स्वीकृत योजनाओं में बोधधाट परियोजना विशेष रूप से चर्चित रहा है, यह योजन के प्रारंभिक चरण के क्रियान्वयन के बाद रुक गई है। इसी प्रकार के इंचमपल्ली बांध परियोजना भी विचाराधीन है।

बस्तर में नक्सलवाद
बस्तर जिले की भौगोलिक सीमा महाराष्ट्र, आंध्र तथा उड़ीसा से संलग्न है। सघन वन के कारण यहां कृषि का क्षेत्र सीमित है। साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य तथा संचार, परिवहन एवं प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से दुर्गम रहा है। वन आधारित कृषि संस्कृति होने के कारण कठिन जीवन स्थितियां रही हैं। दुर्गम क्षेत्र के कारण यहां भाषा, धर्म, परंपरा, जीवन-यापन के तौर तरीके आदि सदियों से अप्रभावित रहा है। परंपरागत रीति-रिवाज, जातीय संगठन, ग्राम प्रशासन आदि लगभग वैसा ही बना रहा, जैसा सदियों से चला आया है।

बस्तर में नक्सलवाद घटनाहीन ढंग से पिछली सदी के सातवें दशक में हुआ और तीन दशकों में इस समस्या ने विकराल रूप ले लिया। नक्सलवाद पनपने के मूल कारणों में प्रमुख बिंदु हैं- 1. शोषण 2. स्थानीय नेतृत्व और सबल संगठन 3. पड़ोसी सीमा राज्यों की समाजशास्त्रीय स्थितियां 4. औद्योगीकरण के दुष्प्रभाव 5. गैर पारंपरिक शासकीय नीतियां 6. समसामयिक राजनैतिक उदासीनता।

इन बिंदुओं पर विचार करते हुए सांस्कृतिक गतिविधियों और अनाक्रामक हस्तक्षेप से इस समस्या को नियंत्रित किया जाना संभव हो सकता है। यह कार्य दीर्घकालीन, जनजातीय समुदाय की परंपरा, आस्था, जीवन-शैली और पारस्थितिकी के अनुरूप होगा। इस दृष्टि से ऐसे रचनात्मक कार्यों का भी समावेश करना होगा, जो लोकधारा से जुड़े और लक्ष्य की पूर्ति में परोक्षतः सहायक होंगे। अतः शासकीय कार्यक्रमों के अंतर्गत स्थानीय निवासियों के सहयोग से निम्नलिखित कार्य आरंभ करने पर विचार किया जा सकता है-

1. ग्राम के समीप की रिक्त भूमियों में वनोपज वाले पौधों का रोपण।
2. ग्राम में स्थित आस्थामूलक पेड़, वनस्पतियों, सरना आदि तथा पंडुम जैसी परंपरा के सकारात्मक पक्षों का संवर्द्धन एवं विकास।
3. ग्राम में स्थापित जनजातीय आस्था के केन्द्र देवगुड़ी, मातागुड़ी आदि का जीर्णाेद्धार एवं संवर्द्धन।
4. ग्राम में स्थित जलस्रोतों, तालाब, तरई, मुडा का पार (मेड़) मरम्मत एवं गहरीकरण।
5. जलस्रोतों के आसपास स्वच्छतामूलक निर्माण एवं संवर्द्धन।
6. अंदरूनी वन क्षेत्रों में स्थित अवशेषों का संवर्द्धन।
7. ग्रामों में आयोजित होने वाले मेला, मड़ई, तीज-त्यौहार के आयोजन को प्रोत्साहन।
8. पारंपरिक नृत्य, गीत, उत्सव के अवसरों पर सामूहिक प्रोत्साहन।
9. ग्रामीण क्षेत्रों में आयोजित साप्ताहिक अथवा विशेष अवसरों पर आयोजित होने वाले मेला, मड़ई, हाट-बाजार कर (टैक्स) पुनरीक्षण।
10. ग्रामीण क्षेत्रों में शाला भवन की स्थापना, अधूरे शाला-भवनों को पूर्ण करना तथा आवश्यकतानुसार मरम्मत, रख-रखाव।
11. आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में स्थानीय युवकों की नियुक्ति।
12. पुरातत्वीय धरोहर, पर्यटन स्थल, प्राकृतिक स्थलों, जैसे- चित्रकोट, कुटुमसर, बारसूर आदि के व्यवस्थापन में स्थानीय सहभागिता। ग्रामीण मेला, मड़ई एवं स्थानीय खेलों, स्थानीय नृत्य, संगीत, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित नाट (नाट्य), रामलीला मंडली आदि को उनके मंचन तथा कार्यक्रम का आयोजन एवं प्रोत्साहन।
13. स्थानीय परंपराओं के अनुकूल ग्रामीण संस्था के पदाधिकारी जो सामाजिक एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते थे उसी प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करना।
14. बस्तर जिले की स्थानीय बोलियों में शिक्षात्मक सचित्र बाल साहित्य का मुद्रण एवं वितरण।
15. जनजातीय सामुदायिक इतिहास से संबंधित मौखिक साहित्य का संकलन कर सचित्र प्रकाशन।
16. जनजातीय मौखिक परंपराओं का संकलन कर उनमें वर्णित लोक देवता, ग्राम देवता, व्यक्ति आदि की मान्यताओं को पुनर्स्थापित करना।
17. ग्रामीण प्रतिभाओं के उच्च शिक्षा तथा व्यवसाय के लिए आकर्षक सुविधायुक्त अनुदान सहयोग।
18. शिक्षित तथा बेरोजगार ग्रामीण युवकों को योग्यतानुसार जीविकोपार्जन के कार्य में व्यवस्थापन।
19. शिल्पियों एवं कारीगरों को उनके पारंपरिक उद्योग व्यवसाय के लिये कच्चे सामग्री के क्रय में छूट तथा उत्पादन के विपणन में विशेष सहयोग।
20. प्रशासनिक स्तर पर अधिकारों का विकेन्द्रीकरण।
21. लोकभाषा में राष्ट्रीय चरित्र को उजागर करने वाले राष्ट्रीय गौरव के परिचायक महापुरूषों तथा शहीदों संबंधी साहित्य स्थानीय भाषा में तैयार कर उपलब्ध कराना।
22. पुरातत्वीय महत्व के स्थल-स्मारक के संरक्षण एवं अनुरक्षण पर त्वरित ध्यान देते हुए ऐसे स्थलों का सचित्र विवरणत्मक इतिहास, महत्व आदि को लोकभाषा में प्रकाशन। 
23. जनजातीय परंपराओं पर आधारित एवं शिल्पकला में रूपायित प्रतिमाओं के धार्मिक, अनुष्ठानिक एवं विचारधारा को मान्यता प्रदान करना।
24. शिल्पकर्मियों, शासकीय सेवकों, विद्यार्थियों तथा विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रोत्साहन।
25. ग्रामीण क्षेत्रों में विस्तृत सर्वेक्षण कर जनजातीय परंपराओं, ज्ञान-विज्ञान, सामुदायिक इतिहास, चिकित्सकीय ज्ञान आदि का प्रलेखन तथा प्रकाशन।

संक्षेप में कार्ययोजना को निम्नानुसार निर्धारित किया जा सकता है-
  • देवगुड़ी, मातागुड़ी, सरना आदि पारंपरिक आस्थामूलक स्थलों का संवर्द्धन।
  • पारंपरिक जलस्त्रोतों के स्थल तालाब, मुडा, तरई, झिरिया आदि का रखारखाव एवं संवर्द्धन।
  • लोककला, लोकशिल्प, लोकनृत्य एवं संगीत के विशेष आयोजन एवं प्रोत्साहन।
  • हल्बी, गोंड़ी, भतरी आदि लोकभाषाओं में महाकाव्यों के चयनित अंश, महापुरूषों, लोकनायकों के जीवन गाथाओं पर आधारित सचित्र साहित्य का प्रकाशन।
  • स्थानीय मेला-मड़ई, उत्सवों के आयोजन में सहयोग तथा राष्ट्रीय विकास से संबंधित प्रदर्शनियों का आयोजन।
  • पुरातत्वीय और आस्थामूलक स्मारक-स्थलों का सर्वेक्षण, आवश्यकतानुसार स्थानीय सहभागिता सुनिश्चित करते हुए चिन्हांकन, प्रकाशन एवं विकास।
  • पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान एवं कला को मान्यता प्रदान करने के लिए सहयोग एवं संरक्षण।

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