जिला जांजगीर-चांपा, पुरातात्विक दृष्टि से विशिष्ट और अत्यंत महत्वपूर्ण भू-भाग है। यहां सर्वाधिक उल्लेखनीय अवशेष ‘गढ़’ हैं, इन गढ़ों की चर्चा के पूर्व दो बिन्दुओं पर स्पष्टीकरण आवश्यक है। पहला, गढ़ का शाब्दिक अर्थ- किला, दुर्ग, कोट, घेरा या गड्ढा, जिसके अनुरूप परिखा-खाई और वप्र-प्राकार युक्त भौतिक आकार स्वरूप वाले गढ़ हैं। पुष्ट जानकारी है कि ऐसे गढ़ों की संख्या छत्तीसगढ़ अंचल के इस जिले के सीमित भू-भाग में ही 36 पूरी हो जाती है-
(1) बछौद (2) कोटगढ़ (3) कोटमी (सुनार) (4) कोनार (5) कोसा (6) जेवरा (7) पामगढ़ (8) डोंगा कोहरौद (9) कोड़ाभाठ (10) कोसला (11) खरौद (12) हथनेवरा (13) पिसौद (14) धुरकोट (जांजगीर) (15) अंवरीद (16) भैंसदा (17) सिऊंढ़ (18) टुरी (19) नवागढ़ (20) खपराडीह (21) केरा (22) बाराद्वार (23) सरहर (24) लखुर्री (25) कोटेतरा (26) कांसीगढ़ (27) ओड़ेकेरा (28) अड़भार (29) पोता (30) सिंघरा (31) डभरा (32) धुरकोट (33) बघौत (34) कोटमी (35) सपोस (36) तरौद (अकलतरा)।
इसके अतिरिक्त संलग्न क्षेत्र में बिलासपुर जिले का मल्हार और विजयपुरगढ़, खरसिया के निकट तेलीकोट, सारंगढ़ के निकट उलखर और भेड़वन (तथा कोसीर?), दुर्ग जिले का मारो तथा रायपुर जिले के गढ़ सिवनी, छातागढ़, लीलर आदि स्थान भी गढ़ ग्राम है। इसके साथ ही जांजगीर-चांपा जिले के सर्वेक्षण तथा स्थानीय सूचनाओं द्वारा गढ़ ग्रामों के पहचान की प्रबल संभावना है।
चर्चा का दूसरा बिन्दु या दूसरे प्रकार के गढ़, वस्तुतः केन्द्र का अर्थ प्रकट करते हैं, जो इस अंचल में प्रचलित लगभग 15 वीं सदी ईस्वी के भू-राजस्व व्यवस्थापन से संबंधित है। इस प्रचलन का प्रथम लिखित प्रमाण 15 वीं सदी ईस्वी के अंत में आता है तथा सोलहवीं सदी ईस्वी के मध्य में कलचुरि शासक कल्याणसाय की जमाबन्दी पुस्तक में सर्वप्रथम इन छत्तीस गढ़ों (वस्तुतः 48 प्रशासनिक इकाईयों) या राजस्व व्यवस्थापन केन्द्रों का नाम पृथक-पृथक उल्लेखित है। इसी क्रम में प्राचीन केन्द्रीय सत्ता के उपक्रम, जो भीतरी और दुर्गम भौगोलिक भागों में स्थित जमीन्दारियों के रूप में स्थापित हुए, इनके मुख्यालय की गढ़ नाम से जाने गए।
इस प्रकार यहां गढ़ों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- प्रथम भौतिक स्वरूप वाले प्राचीन गढ़ एवं दूसरे मध्ययुग के बाद कलचुरि काल में राजस्व केन्द्रों के रूप में विकसित गढ़। इनमें खरौद, कोटगढ़ जैसे कुछ उदाहरण हैं, जो दोनों वर्गों में सम्मिलित हो सकते हैं, अर्थात् इन प्राचीन भौतिक स्वरूप वाले गढ़ों में ही कलचुरि और बाद में मराठा प्रशासनिक व्यवस्था में भी केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किया गया है, यही कारण है कि कोटगढ़ जैसे गढ़ में प्राचीन अवशेषों के साथ-साथ कलचुरि अभिलेख व प्रतिमाएं तथा मराठाकालीन स्थापत्य के अवशेष भी विद्यमान है।
प्रसंगवश यह उल्लेख भी आवश्यक है कि अंचल के कई ग्रामों में दशहरा पर्व पर मिट्टी के स्तंभ बनाकर उसके ऊपर पहुंचने की प्रतियोगिता और गढ़ विजय का प्रचलन है। खरौद में शबरी मंदिर के निकट ऐसा स्तंभ है तथा सारंगढ़ में यह आयोजन धूमधाम से होता आया है। गढ़ों की पहचान में इस परम्परा के गढ़ों से भ्रम की स्थिति बनती हैं।
जांजगीर-चांपा जिले के संदर्भ में भी भौतिक स्वरूप वाले गढ़ विशेष उल्लेखनीय है। इन गढ़ों की प्राचीनता महाजनपद काल में उत्तर कोसल से भिन्न कोसल (दक्षिण कोसल या महाकोसल जनपद) से सम्बद्ध की जा सकती है। रतनपुर के हैहय (कलचुरि या चेदि) राजाओं की परम्परागत सूची कलियुग संवत् 3958 अर्थात् ईसवी पूर्व 857 से आरंभ होती है। पुराण कथाओं में यादवों द्वारा विजित देशों में नर्मदा-मेकल, शुक्तिमती और ऋक्षवत् के साथ मृत्तिकावती का नामोल्लेख है, जिसका तात्पर्य संभवतः मृद्दुर्ग का सघन क्षेत्र, वर्तमान छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिला अंचल से है।
प्राचीन साहित्य जातक कथाओं, रामायण, कौटिल्य अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में नगर के चारों और परिखा और वप्र बनाय जाने का उल्लेख मिलता है पुरातत्वीय अवशेषों में तक्षशिला में ईसा पूर्व की सदियों में नगर के चतुर्दिक बनाई गई मिट्टी की दीवार मिली है, जिसे स्थानीय लोग धूलकोट कहते हैं। इसी प्रकार अन्य प्राचीन नगरों में मुख्यतः मथुरा और शिशुपालगढ़ में नगर रक्षा के प्राकृतिक साधन के रूप में नदी, जल, पर्वत, प्रस्तर समूह, मरूभूमि तथा अरण्य एवं कृत्रिम साधनों में परिखा, प्राकार और रोपित अरण्य का उल्लेख है। शुक्र नीति के शिल्पकारों की सूची में दुर्गकारिणः नाम आया है। जातक कथाओं में परिखायुक्त मृद्दुर्गों का उल्लेख है, जिनमें जल परिखा या उदक अथवा तोयपूर्ण परिखा, पंक परिखा और रिक्त परिखा, ये तीन प्रकार बताये गये हैं। अर्थशास्त्र मंे घड़ियालयुक्त ग्राहवती परिखा का उल्लेख है। इन उल्लेखों से अनुमान होता है कि ईसवी पूर्व की तीसरी-चौथी सदी में मृद्दुर्गों की व्यवास्थित अवधारणा का पर्याप्त विकास हो चुका था।
जिले व संलग्न क्षेत्रों में मृद्दुर्गों से संबंधित ज्ञात पुरावशेष भी इन गढ़ों की प्राचीनता प्रमाणित करते हैं। कोटगढ़-महमंदपुर तथा आसपास के अन्य गढ़ ग्रामों बछौद, मल्हार आदि से मौर्यकालीन आहत सिक्के प्राप्त होने की जानकारी मिलती है और कोटमी (सक्ती) में किसी साधु द्वारा अपने कमंडल में बिच्छू डालकर चांदी के चौकोर सिक्के निकालने की कथा बताई जाती है, इस तारतम्य में बिच्छू का चांदी के सिक्के में परिवर्तित होना तथा प्राचीन गड़े धन-सिक्कों का बिच्छू के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रचलित मान्यता का अध्ययन रोचक और महत्वपूर्ण हो सकता है। बछौद और कोटगढ़ में बड़े आकार की ईंटें प्राप्त होती है। कोटगढ़ तथा अन्य गढ़ क्षेत्रों से भी नवपाषणयुगीन उपकरण प्राप्त होते हैं।
सागर विश्वविद्यालय के सर्वेक्षणों में खरौद तथा मल्हार से महाजनपद युगीन प्रमाण विशिष्ट मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। कोटमी सुनार की खाई और तालाबों में अब भी मगर विद्यमान हैं। अड़भार तथा बाराद्वार क्रमशः अष्टद्वार और द्वादशद्वार के अपभ्रंश माने जा सकते हैं। स्थान नामों की दृष्टि से धुरकोट, कोटमी, कोटगढ़ कोटेतरा जैसे नाम तथा ‘उद्’ अन्त वाले ग्राम नाम, जहां उद् का तात्पर्य ‘जल’ से है, ऐसे कई ग्रामों से मिट्टी के गढ़ की जानकारी मिलती है, इसी प्रकार ग्राम नामों में गढ़ या कोट शब्द महत्वपूर्ण है, संक्षेप में भाषाशास्त्र की दृष्टि से स्थान नामों के अध्ययन के माध्यम से भी इन गढ़ों संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है। अन्य संकेतों में रहौद और सिऊंढ़ जैसे गढ़ क्षेत्रों में 4-5 मीटर तक मोटे जमाव हैं। कोनार में अट्टालक (बुर्ज) व्यवस्था के अवशेष व मान्यता है। गढ़ों की वर्तमान स्थिति में इन्हें प्राकार युक्त और प्राकार रहित, वर्गाकार, वृत्ताकार, अण्डाकार, षटकोणीय, अष्टकोणीय आकार-प्रकार और स्वरूप के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
इन गढ़ों में से चूंकि किसी स्थल का वैज्ञानिक पुरातत्वीय उत्खनन नहीं हुआ है अतएव इनकी पृष्ठभूमि तथा व्याख्या के लिए अनुमान का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। यह तार्किक अनुमान किया जा सकता है कि तत्कालीन स्थितियों में छत्तीसगढ़ का यह समतल मैदानी भू-भाग घनी जनसंख्या वाला क्षेत्र रहा होगा। गढ़ों की संख्या, उनका आपस में सामीप्य तथा गढ़ों का विशाल आकार देखते हुए भी यह अनुमान पुष्ट होता है कि गढ़ निर्माण के कार्य हेतु भी बड़ी तादाद में मानव श्रम प्रयुक्त हुआ होगा। इन गढ़ों की सघन निकटता को देखते हुए प्रत्येक गढ़ के साथ किसी शासक या गढ़ों के सामरिक प्रयोजन मात्र का अनुमान उपयुक्त नहीं होता है बल्कि इन्हें छोटे-छोटे नगर राज्य मानना उचित हो सकता है। संभवतः मैदानी भू-भाग में बसने वाली तत्कालीन आबादी को प्राकृतिक एवं राजनैतिक-सामरिक आपदाओं में ‘गढ़’ सुरक्षा प्रदान करने वाली संरचनाएं रही होंगी। इस प्रकार जिले में गढ़ों के पुरातात्विक उत्खननों से भविष्य में आने वाले परिणामों के पूर्व भी इस अंचल के गढ़ शोध अध्ययन संभावनायुक्त, देश के पुरातत्वीय मानचित्र में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं।
अगले चरण में लगभग दो हजार साल पहले लकड़ी पर लिपि उत्कीर्ण करने का प्रयोग भी इसी जिले में घटित हुआ है, जो पूरी दुनिया में अपनी तरह का अनूठा नमूना है। किरारी (चन्द्रपुर) से प्राप्त अभिलिखित काष्ठ स्तंभ लेख का सुरक्षित अंश, अब रायपुर संग्रहालय में प्रदर्शित है। हीराबंध (अब लगभग पट चुके तालाब) से निकले इस लकड़ी के खंभे पर खुदे अक्षरों को महत्वपूर्ण समझकर स्थानीय पंडित लक्ष्मीधर उपाध्याय ने इसकी यथादृष्टि नकल उतार ली थी और तत्कालीन पुरालिपि विशेषज्ञों ने जांचकर इसे प्रामाणिक पाकर, उसी के आधार पर लेख का अध्ययन किया जिसमें तत्कालीन राज पदाधिकारियों के पदों का उल्लेख कुछ इस प्रकार है - ’नगररक्षी वीरपालित और चिरगोहक, सेनापति वामदेव ... भटकेशव वीथिदकामिक...प्रतिहार खिपत्ति, गणक नाग हेअसि, गृहपतिक धरिक, भाण्डागारिक असाधिय... हस्त्यारोह, अश्वारोह, देवस्थानक, पादमूलिक रथिक सिसार खाखिमल आदि।
इसी प्रकार सक्ती के निकट दमऊदहरा अथवा गुंजी, लगभग दो हजार साल पहले ऋषभतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था। दक्षिण कोसल के इस तीर्थ का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। यहां राजा कुमारवरदत्तश्री, अमात्य गोडछ के नाती अमात्य मातृजनपालित और वासिष्ठी के बेटे अमात्य, दण्डनायक और बलाधिकृत बोधदत्त ने दो बार एक-एक हजार गायों का दान किया। यह अभिलिखित प्रमाण भी अपनी प्राचीनता के कारण दुर्लभ जानकारी और क्षेत्र की सम्पन्नता का द्योतक है तथा यह स्थान आज भी जिले के महत्वपूर्ण धार्मिक तथा प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त प्राचीन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है।
जिले का ग्राम अमोदा प्राचीन अभिलेखों की प्राप्ति का महत्वपूर्ण स्थान है, इस ग्राम से सन 1924 एक घर की नींव खोदते हुए रतनपुर कलचुरि शासकों के तीन ताम्रपत्र सेट प्राप्त हुए थे, जो पृथ्वीदेव प्रथम, पृथ्वीदेव द्वितीय और जाजल्लदेव द्वितीय के काल अर्थात् ग्यारहवीं-बारहवी सदी ईस्वी के हैं। पृथ्वीदेव प्रथम के ताम्रपत्र में तुम्माण में वंकेश्वर मंदिर की चतुष्टिका निर्माण व ग्राम दान का उल्लेख है। पृथ्वीदेव द्वितीय के अभिलेख में वंकेश्वर ग्राम दान का उल्लेख है तथा जाजल्लदेव द्वितीय के ताम्रपत्र में राजा पर पड़ी विपत्ति व उससे छुटकारा पाने पर ग्राम दान किए जाने का विवरण आया है।
इसी प्रकार कोटगढ़ (अकलतरा) से प्राप्त शिलालेख भी विशेष उल्लेखनीय है, जिनमें पृथ्वीदेव द्वितीय के शासन काल में उसके मंत्री वल्लभराज के धार्मिक व अन्य कार्य, दान आदि का विवरण मिलता है, जिसके अनुसार उसने वल्लभसागर नामक तालाब खुदवाया तथा शिव एवं रेवन्त के मंदिरों का निर्माण कराया इससे अनुमान होता है कि तत्कालीन कलचुरि राज में वल्लभराज महत्वपूर्ण और लोकप्रिय मंत्री रहा होगा।
जिले के महत्वपूर्ण स्थापत्य उदाहरणों में सर्वप्रमुख जांजगीर का विष्णु मंदिर है, जिसे स्थानीय जन भीमा मंदिर या नकटा मंदिर के नाम से पुकारते हैं। दन्तकथाओं में कहा जाता है कि छोटा मंदिर (वस्तुतः शिव मंदिर) बड़े मंदिर का शिखर है, यह शिखर मंदिर के ऊपर रखा जाता, तभी निर्धारित अवधि रात पूरी हो गई, चिड़िया चहचहाने लगी, पौ फटने लगी और मंदिर अधूरा रहा गया। जांजगीर नगर, रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम द्वारा बसाया गया माना जाता है और संभवतः इन मंदिरों का निर्माण भी इसी काल में अर्थात 11-12 वीं सदी ईस्वी में निर्मित हुआ होगा।
शिखर रहित विष्णु मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से पूर्ण विकसित एवं तत्कालीन कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। मानवाकार प्रतिमाओं युक्त विशाल जगती (चबूतरे) पर मंदिर निर्मित है। चबूतरे पर देव प्रतिमाओं के साथ-साथ कृष्ण कथा एवं रामकथा के कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों का अत्यंत रोचक अंकन है। जगती का अलंकरण व पूरे आकार की प्रतिमाओं की दृष्टि से यह मंदिर संभवतः भारतीय स्थापत्य कला का एकमात्र उदाहरण है। पूर्वाभिमुख मंदिर की बाहरी दीवार पर विष्णु, अवतार, रूप, वैष्णव कथाओं के अंकन के साथ-साथ ब्रह्मा, सूर्य, शिव, देवियां, अष्ट दिक्पाल, मिथुन, अप्सरा व व्याल प्रतिमाओं के अतिरिक्त विभिन्न मुद्राओं में वैष्णव योगियों का महत्वपूर्ण प्रतिमाएं हैं। प्रवेश द्वार पर त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ त्रैलोक्यभ्रमण (गरुड़ासीन) विष्णु, नदी देवियां, द्वारपाल तथा पार्श्व अर्द्धस्तंभों पर कुबेर अंकित हैं।
अन्य मंदिर (छोटा मंदिर) शिव का है, जिसका मूल स्वरूप नवीनीकरण संरक्षण से प्रभावित है किन्तु प्रवेश द्वार यथावत सुरक्षित है। यहां सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक अंकन हैं द्वार शाखाओं में उभय पार्श्वों पर नदी देवियों और द्वारपाल की प्रतिमाएं रूपायित हैं। बाहरी दीवार पर अपेक्षाकृत कम संख्या में किन्तु शास्त्रीय व कलात्मक सूर्य, हरिहर-हिरण्यगर्भ, शिव-नटराज, गणेश, सरस्वती आदि प्रतिमाएं है। एक अन्य महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर की जानकारी पिछली सदी के भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण के प्रतिवेदन से प्राप्त होती है, जिसके अनुसार यह विशाल मंडपयुक्त अंलकृत मंदिर शिव को समर्पित था, किन्तु वर्तमान में इस मंदिर का अस्तित्व विद्यमान नहीं है।
जिले में प्राचीन स्थापत्य का विशेष महत्वपूर्ण केन्द्र खरौद है। यह छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। खरौद के ईंट निर्मित ताराकृति मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें शबरी मंदिर चबूतरे पर निर्मित है, गर्भगृह का प्रवेश द्वार आकर्षक है, जिसमें नाग युग्म अलंकरण अभिकल्प का संतुलन देखते ही बनता है। प्रवेश द्वार के बीचों बीच ललाट-बिंब पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है, जिसमें मंदिर मूलतः वैष्णव होना संभावित है। प्रवेश द्वार पर दो नारी आकृतियों की पहचान नदी देवी गंगा-यमुना के रूप में की जा सकती है। मंदिर का मंडप पुनर्सरचित है, किन्तु अर्द्धस्तंभों पर शिवगण, द्वारपाल, सिंहवाहिनी दुर्गा तथा मकरवाहिनी गंगा की पहचान की जा सकती है। शेष तीन प्रतिमाएं, जिनमें दो पुरुष व एक नारी प्रतिमा है, की पहचान राम, लक्ष्मण व सीता के रूप में की जाती है, किन्तु इन प्रतिमाओं मे वक्ष पर कवच तथा पैर उपानहयुक्त (जूतों से ढके) दिखाई पड़ते हैं, जिससे इन प्रतिमाओं का सौर परिवार से संबद्ध किया जाना अधिक न्याय संगत है। मंदिर के बाहर एक अन्य महत्वपूण्र अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा है, जिसे शास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप अलंकृत तथा व्याघ्रचर्मधारी प्रदर्शित किया गया है।
इन्दल देउल मंदिर की योजना भी ताराकृति है, यह मंदिर ईंटों से निर्मित है, किन्तु बाह्य भित्ति के आलों में गणेश, नृसिंह आदि आकृतियां प्रदर्शित हैं। मंदिर का विशेष उल्लेखनीय अंग प्रवेश द्वार पर स्थापित गंगा-यमुना की प्रतिमाएं है, मानवाकार इन नदी देवी प्रमिाओं की भंगिमा, अलंकरण तो कलात्मक, सुरूचिपूर्ण व संतुलित है ही, इनका आकार भी द्वारशाखा के बराबर पूर्ण है, यह भारतीय मंदिर वास्तु का विशिष्ट लक्षण है। नदी देवी प्रतिमाओं के पार्श्व से बाहर की आरे प्रदर्शित भित्ति के चिह्न, गर्भगृह के समक्ष मंडप जैसे किसी अंग का अनुमान कराते हैं। खरौद का लक्ष्मणेश्वर मंदिर संरक्षण-सर्वधन कार्यों से अत्यधिक प्रभावित है, किन्तु गर्भगृह में स्थापित मूल अष्टकोणीय शिवलिंग के अवशिष्ट है। यहां प्रवेश द्वार को शाखाएं दो भागों में विभक्त हैं, जिसमें निचले भाग पर द्वारपाल व उपरी आधे भाग पर गंगा-यमुना को उनके वाहनों क्रमशः मकर व कच्छप पर स्थित दिखया गया है। मंदिर के मंडप में राम कथानक युक्त स्तंभ तथा दो प्राचीन शिलालेख भी जड़े है। धार्मिक दृष्टि से इस मंदिर की सर्वाधिक मान्यता है। खरौद के मंदिरों का काल ईस्वी सातवी-आठवीं सदी निर्धारित किया जा सकता है।
अड़भार, जिले का एक महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल है, जहां ईस्वी सातवीं-आठवीं सदी के शिव मंदिर के अवशेष तथा अन्य पुरातशेश प्रकाश में आये हैं। अड़भार का मंदिर अष्टकोणीय ताराकृति योजना वाला मंदिर था, जिसमें प्रवेश हेतु दो द्वार अब भी मूलतः विद्यमान हैं। इसमें बाह्य अलंकृत द्वार पर नाग-गरूड़, कार्तिकेय व उमा-महेश का अंकन है। मंदिर परिसर में अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी देवी महिषमर्दिनी तथा देगन गुरू के नाम से ज्ञात जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। मंदिर के सामने नंदी मंडप है, जिसमें अष्टकोणीय नृत्त शिव की प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा मानी जा सकती है।
शिवरीनारायण, खरौद से संलग्न महानदी के तट पर स्थित प्रसिद्ध केन्द्र है, जहां शबरीनारायण, केशवनारायण और चन्द्रचूड़ मंदिर प्राचीनता की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें केशवनारायण ईंट-पाषाण मिश्रित ताराकृति संरचना है, जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चौबीस रूपों का अंकन अत्यधिक सफाई से किया गया है, अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। शबरीनारायण या मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार के पार्श्व में शंख पुरूष व चक्र पुरूष की आदमकद मूर्तियां है, द्वारशाखा पर बारीक उकेरन और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है साथ ही मंडप में रखी परवर्तीकालीन गरूड़ासीन लक्ष्मी-नारायण प्रतिमा भी उल्लेखनीय है। चंद्रचूड़ मंदिर में अत्यंत महत्वपूर्ण सूचना युक्त कलचुरि कालीन शिलालेख जड़ा है।
यह जिला प्राचीन सिक्कों की प्राप्ति की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस क्रम में सर्वप्रथम ठठारी से प्राप्त चांदी के आहत सिक्के हैं, जिनका काल तीसरी-चौथी सदी ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है, कुछ अन्य स्थानों से इस प्रकार के सिक्के प्राप्त होने की अपुष्ट सूचना प्राप्त होती है। बालपुर से प्राप्त एक सिक्का अपिलक (सालिलुक) का माना जाता है, जिसका काल ईस्वी की आंरभिक सदी है। यह सिक्का आन्ध्र शासकों के सिक्कों के समरूप है, बालपुर से ही स्थानीय शासकों के कुछ अन्य तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनमें गज तथा देवी अथवा नाग का अंकन है। इसके साथ ही रोम, कुषाण शासकों आदि सिक्के भी जिले के संलग्न क्षेत्र व अंचल से प्राप्त हुए हैं। लगभग पांचवीं-छठीं सदी ईस्वी के शासकों प्रसन्नमात्र और महेन्द्रादित्य के 81 सिक्के बाराद्वार के निकट ग्राम तलवा से प्राप्त हुए हैं, ये सभी स्वर्ण सिक्के ठप्पांकित प्रकार के हैं और इस प्रकार के सिक्कों की यह सर्वाधिक संख्या निधि है। तीन चांदी और एक तांबे का चीनी सिक्का भी बालपुर से प्राप्त हुआ है। रतनपुर के कलचुरि शासकों का भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह केरा से प्राप्त हुआ था।
इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ अंचल के जांजगीर-चांपा जिले के मैदानी भू-भाग ने इतिहास में सभ्यता के प्रत्येक चरण में मानव को आकर्षित किया है और नैसार्गिक सम्पदा से परिपूर्ण इस जिले का वैविध्य सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक व कलात्मक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, वर्तमान में अवशिष्ट हमारे अतीत के ये धरोहर हमें आत्म गौरव का बोध कराते हुए उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर रहने की प्रेरणा देते हैं।
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