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Saturday, September 6, 2025

टैगोर का छल

रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर/ठाकूर या पूर्वज ‘कुशारी‘) का जन्म 6 मई 1861 को, उनकी पत्नी भवतारिणी उर्फ मृणालिनी देवी (विवाह पश्चात नाम) का जन्म 1 मार्च 1874 को, विवाह 9 दिसंबर 1883 को हुआ। उनकी संतानों क्रमशः मधुरिलता-बेला, रथीन्द्रनाथ-रथी, रेणुका-रानी, मीरा-अतासी तथा शमीन्द्रनाथ-शमी (बंगाली परंपरा का भालो-डाक नाम) का जन्म 1886 से 1896 के बीच हुआ, इसके बाद मृणालिनी देवी अस्वस्थ होती रही, 22 दिसंबर 1901 को ब्रह्म विद्यालय (शांति निकेतन स्कूल) की स्थापना के बाद गंभीर रूप से अस्वस्थ हुईं और 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हुई। 1902 से 1907 के बीच पत्नी मृणालिनी के अलावा पुत्री रेणुका, पिता देवेन्द्रनाथ, छोटे पुत्र शमीन्द्रनाथ की तथा इसके बाद 1918 में बड़ी पुत्री मधुरिलता की मृत्यु हुई।

मृणालिनी की मृत्यु के अगले दिनों में पत्नी की याद में टैगोर ने लगभग प्रतिदिन कविताएं लिखीं, इन 27 कविताओं का संग्रह मोहितचन्द्र सेन के सम्पादकत्व में, रवीन्द्र काव्यग्रन्थ के छठे भाग में और ‘स्मरण‘ शीर्षक से स्वतंत्र काव्यग्रन्थ के रूप में मृणालिनी की मृत्यु के बारह वर्ष बाद 1914 में प्रकाशित हुईं। इस क्रम में टैगोर का अन्य संग्रह ‘पलातका‘ 1918 में प्रकाशित हुआ, लगभग 146 पंक्तियों, 11 पैरा और 830 शब्दों की लंबी, संग्रह की चौथी कविता ‘फाँकि‘ है। इस कविता में पात्र बीनू की अस्वस्थता, उसके साथ ‘मैं‘ की रेलयात्रा और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन, झामरु कुली की पत्नी हिन्दुस्तानी लड़की रुक्मिनी का उल्लेख है। कविता में ‘बिलासपुर स्टेशन‘ नाम तीन बार इस तरह आता है। कविता ‘फाँकि‘ लगभग 45 साल पहले इन पंक्तियों- ‘बिलासपुर स्टेशन से बदलनी है गाड़ी, जल्दी उतरना पड़ा, मुसाफिरखाने में पड़ेगा छः घंटे ठहरना‘ के साथ चर्चा में आई।

26 दिसंबर 1983 को ए.के. बैनर्जी मंडल रेल प्रबंधक, बिलासपुर के पद पर आए। वे साहित्य में रुचि रखने वाले और प्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी के दामाद थे। बिलासपुर पदस्थापना के साथ उन्हें टैगोर की कविता ‘फाँकि‘ याद आई और उन्होंने बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के मुख्य प्रवेश के बाईं ओर प्लेटफार्म 1 पर, वीआइपी वेटिंग लाउंज के साथ कविता की इन पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ खास फलक बनवा कर समारोह पूर्वक स्थापित किया। यह आकर्षण का कारण बना और इसकी चर्चा बिलासपुर और खासकर पेंड्रा में होने लगी, जिसमें टैगोर के बिलासपुर होते पेंड्रा जाने, वहां पत्नी का इलाज, पेंड्रा में ही उनकी पत्नी की मृत्यु और उसके बाद अकेले वापस लौटने की बात होने लगी, जिसका आधार यह कविता थी। कविता में आए नाम बीनू को टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी और ‘मैं‘ को साहित्यिक अभिव्यक्ति के पात्र प्रथम पुरुष के बजाय टैगोर स्वयं के साथ निर्मित और घटित स्थिति मान लिया गया। 


वेब पर मीडिया के विभिन्न यूट्यूब रिपोर्ट/स्टोरी तथा महीनों पेंड्रा में इलाज और इस दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी-बीनू का देहांत हो गया ... इसी सैनेटोरियम में रविंद्रनाथ की पत्नी के शरीर को मिट्टी दी गई और समाधि बनाई गई ... जैसी ढेरों खबरें मिल जाती हैं। अब बिलासपुर स्टेशन पर पूरी बांग्ला कविता हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद सहित लगाई गई है, जिस पर अंकित है- ‘यह कविता कविगुरु श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन 1918 में बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में लिखी गई।

और फिर 10.12.2012 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 5 रुपये का डाक टिकट, बिलासापेक्स, विशेष आवरण सहित जारी हुआ, जिसमें अंकित है- ‘रविन्द्र नाथ टैगोर एवं उनकी धर्म पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी सन् 1900 में अपनी एक यात्रा के दौरान बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में छः घंटा रुके। उन्होंने इसका वर्णन अपनी एक कविता में किया है।‘ एक कविता में किया है।‘ जिला अस्पताल सैनेटोरियम परिसर परिसर में रविन्द्र नाथ टैगोर वाटिका, संग्रहालय निर्माण एवं गुरुदेव की मूर्ति का अनावरण, दिनांक 07.05.2023 को होने का शिलान्यास शिलापट्ट लगा है और जुलाई 2023 में परिसर के बरगद के पेड़ को काटने का विरोध हुआ कि टैगोर इस पेड़ के नीचे बैठते थे।

कविता के रचना काल, स्थान और बिलासपुर यात्रा के वर्ष की विसंगतियों के बावजूद यह बात चल पड़ी। मगर इसके पहले 2008 में ही ऐसा माना जाने लगा था, इसी साल रमेश अनुपम संपादित ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै‘ पुस्तक का पहला संस्करण आया, जिसकी तीसरी आवृत्ति, 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तक के प्रवासी खंड में रवींद्रनाथ टैगोर की कविता फॉकि (बांग्ला), उत्पल बॅनर्जी के हिंदी अनुवाद ‘छलाना‘ (न कि छलना या छलावा) सहित प्रकाशित है, साथ ही लंबी पाद-टिप्पणी है, जिसमें बताया गया है कि कविगुरु मृणालिनी देवी को लेकर छत्तीसगढ़ आये। छत्तीसगढ़ का पेंड्रारोड उस समय क्षय रोग चिकित्सा के लिए संपूर्ण एशिया में विख्यात था।‘ ... उस जमाने में (सन 1901) में ... वे पेंड्रारोड में दो महीने तक रुके ... मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में कविगुरु को अकेले छोड़कर अनंत में विलीन हो गईं। पेंड्रारोड का विश्वविख्यात टी.बी. सैनेटोरियम तथा यहां की जलवायु भी मृणालिनी देवी को मृत्यु के चंगुल से नहीं बचा सका।

यहां भी पेंड्रा यात्रा-प्रवास का वर्ष 1901, तथा ‘मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु‘ जैसी विसंगति है। मगर इन सबके बीच यह मान लेना कि बीनू, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का नाम हैं (जो किसी स्रोत से पुष्ट नहीं होता), ‘फाँकि‘ कविता का ‘मैं‘ स्वयं कवि है और यह संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति है, के औचित्य पर विचार करने के लिए टैगोर से संबंधित अधिकृत और विश्वसनीय स्रोतों को देख लेना आवश्यक है, ऐसे स्रोतों में आए संबंधित कुछ उल्लेख आगे दिए जा रहे हैं-

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘ऑन द एजेस ऑफ टाइम‘ के विश्व-भारती द्वारा प्रकाशित जून, 1981 के द्वितीय संस्करण, पेज-52 पर मृणालिनी देवी को शांति निकेतन से इलाज के लिए कलकत्ता लाने, डॉक्टरों द्वारा आशा छोड़ देने के साथ मां मृणालिनी देवी की मृत्यु के दौरान सभी पांच संतानों का वहां होने का उल्लेख है।

कृष्ण कृपलानी (टैगोर की तीसरी बेटी मीरादेवी की बेटी नंदिता के पति) की बहु-प्रशंसित ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर, ए बॉयोग्राफी‘ 1980 का संस्करण विश्व-भारती कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। पेज 201 पर उल्लेख है कि शांति निकेतन में नया निवास मिलने के कुछ माह बाद ही मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार हुईं और उन्हें कलकत्ता लाया गया, जहां 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।

विश्व भारती द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्र-व्यवहार के प्रथम खंड (तीसरा संस्करण बंगाब्द 1400 यानि 1993-94) में मृणालिनी देवी को लिखे पत्र हैं, इस पुस्तक के अंत में मृणालिनी देवी के जीवन की प्रमुख तिथियां-घटना दी गई हैं, जिसके अनुसार उन्हें 12 सितम्बर 1902 इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। 23 नवम्बर 1902 जोरासांको महर्षि भवन में निधन हो गया।

1998 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय जीवनचरित श्रृंखला में कृष्ण कृपलानी की पुस्तक का अनुवाद रणजीत साहा प्रकाशित ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी‘ में पेज 116-117 पर ‘शांतिनिकेतन में, अपना नया घर पाने के कुछ ही दिनों के अंदर रवीन्द्रनाथ की पत्नी मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं । उन्हें कलकत्ता ले जाया गया और जहां 23 नवंबर 1902 को उनका निधन हो गया। ... ‘किसी पेशेवर नर्स को बहाल न कर उन्होंने लगातार दो महीने तक रात और दिन उनकी सेवा की। उन दिनों बिजली के पंखे नहीं हुआ करते थे और उनके समकालीन साक्ष्यकारों ने इस बात को दर्ज करते हुए बताया है कि हर घड़ी कैसे उनके सिरहाने उपस्थित रवीन्द्रनाथ हाथ में पंखा लिए हुए लगातार धीरे धीरे झलते रहे थे। जिस रात को उनका निधन हुआ, वे पूरी रात अपनी छत की बारादरी के ऊपर नीचे घूमते रहे और उन्होंने सबसे कह रखा था कि उन्हें कोई परेशान न करे।‘

रंजन बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ‘ का शुभ्रा उपाध्याय द्वारा किया हिंदी अनुवाद ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी‘ (मृणालिनी की गोपन आत्मकथा) प्रकाशित हुई है। पुस्तक के परिचय (2013) में स्पष्ट किया गया था- ‘मृणालिनी अपनी गोपन आत्मकथा में क्या लिखतीं? इस उपन्यास में वही सोचने की कोशिश की गई है।‘ मगर इस पुस्तक का ‘उपसंहार‘ उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि मृणालिनी देवी को चिकित्सा के लिए 12 सितंबर 1902 को कलकत्ता ला कर जोड़ासाँको में रवीन्द्रनाथ की लालबाड़ी के दूसरे तल पर एक कमरे में रखा गया। ... मृणालिनी की स्थिति 17 नवंबर को आशंकाजनक हो गई। 23 नवंबर, 1902 को जोड़ासाँको की बाड़ी में मृणालिनी के जीवन का अवसान हुआ। दो महीने ग्यारह दिन उन्हें कलकत्ता में मृत्युशैया की यंत्रणा भोगनी पड़ी।

विकीपीडिया तथा द स्कॉटिश सेंटर आफ टैगोर स्टडीज के वेबपेज के अनुसार- मृणालिनी देवी 1902 मध्य में बीमार पड़ गईं, जबकि परिवार शांतिनिकेतन में एक साथ रहता था। इसके बाद, वे और रवींद्रनाथ 12 सितंबर को शांतिनिकेतन से कलकत्ता चले गए। डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान करने में विफल रहे और 23 नवंबर की रात को 29 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे रथिंद्रनाथ ने बाद में अनुमान लगाया कि उनकी मां को एपेंडिसाइटिस था।

रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित रवीन्द्रनाथ टैगोर के सत्तरवें जन्मदिन पर 1931 में प्रकाशित ‘द गोल्डन बुक आफ टैगोर‘ में ‘ए टैगोर क्रानिकल: 1861-1931‘ में मृणालिनी देवी से विवाह और उनकी मृत्यु का उल्लेख है, मगर मृत्यु का स्थान नहीं दिया गया है। इसी तरह 1961 में सत्यजित राय ने फिल्म्स डिवीजन के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 51 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसमें उनके विवाह तथा पत्नी की मृत्यु का उल्लेख है, स्थान का नहीं। इन स्रोतों में मृत्यु के स्थान का उल्लेख न होने का कारण यही हो सकता है कि मृणालिनी देवी की मृत्यु उनके मूल स्थान के अलावा कहीं अन्य नहीं हुई थी।

इस तारतम्य में पेंड्रा रेल लाइन और सैनेटोरियम संबंधी तथ्यों की पड़ताल प्रासंगिक होगी, इनमें-

1910 के बिलासपुर जिला गजेटियर पेज 336 पंडरीबन या पेंड्रा, जमींदारी में सैनेटोरियम का उल्लेख नहीं है, मगर पेज 248 पर मेडिकल शीर्षक के अंतर्गत पेंड्रा अस्पताल में पुरुष एवं महिला के लिए दो-दो बिस्तर वाले अस्पताल की जानकारी है। पेज 69 पर क्षयरोग का उल्लेख है, मगर सैनेटोरियम का नहीं, जबकि मुंगेली और चांपा के कुष्ठ आश्रम का उल्लेख है। पेज 338 पर उल्लेख है कि एक जोगी और उसके दो विशाल सर्पों ने ‘खोडरी टनल‘ काटने पर आपत्ति की और उनके शापवश बड़ी संख्या में मजदूर रोगग्रस्त हो कर मर गए।

1923 के ‘बिलासपुर वैभव‘ पेज 73 पर व्यापार के अंतर्गत उल्लेख है कि ‘सन् 1891 में जबसे कटनी लाइन खुली है ...‘ पेज 105 पर पेंडरा शीर्षक के अंतर्गत उल्लेख है कि गौरेला और पेंडरा के बीच मिस लांगडन का क्षयरोगाश्रम है। पुनः पेज 136 पर ‘पेंडरा जमींदारी का जलवायु शीतल है। इसे बिलासपुर जिले की पंचमढ़ी समझिये। गौरेला और पेंडराके बीच मिस लांगडनका क्षयरोगाश्रम देखने योग्य है।‘

1978 के बिलासपुर जिला गजेटियर में पेज 244 बिलासपुर रायपुर सेक्शन 1881 में, बिलासपुर रायगढ़ सेक्शन 1890 में, बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन 1861 में (!) आरंभ होने का उल्लेख है। साथ ही पेज 519 पर क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित तथा मध्यप्रदेश सरकार और प्रादेशिक रेड क्रास सोसाइटी से सहायता प्राप्त सैनेटोरियम तथा टी.बी. के इलाज के लिए माकूल जलवायु का उल्लेख है।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के वेबपेज की जानकारी के अनुसार देश का पहला ओपन एयर सैनेटोरियम अजमेर के पास तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 में स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में पेंड्रा में आबोहवा बदलने के लिए मरीजों का आना संभव है मगर उपरोक्त उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष आसानी से निकालता है कि सैनेटोरियम 1910 से 1923 के बीच (वस्तुतः 1916) बना।

कटनी रेलखंड पर गाड़ी परिचालन 1891 में आरंभ होने की जानकारी मिलती है, मगर इसके साथ दुविधा रह जाती है कि रेलवे रिकार्ड्स में 1907 में पहले-पहल भनवारटंक टनेल डाउन का निर्माण हुआ तथा इस खंड में रेल लाइन के दोहरीकरण का कार्य 1960-65 के बीच हुआ और भनवारटंक टनेल अप यानि इस लाइन पर नये दूसरे बोगदा का निर्माण 1965-66 में होना, पता चलता है। ऐसी स्थिति में 1907 के पहले बिलासपुर से पेंड्रा का रेल लाइन संपर्क कैसे संभव हुआ होगा?

अंततः ‘फाँकि‘ कविता की पहली पंक्ति ‘बिनुर बयस तेइश तखन‘ यानि नाम बीनू और उसकी उम्र तेइस कहा गया है, यह दोनों ही बातें टैगोर की पत्नी मृणालिनी से मेल नहीं खातीं, क्योंकि भवतारिणी उर्फ मृणालिनी का अन्य नाम बीनू था ऐसा पुष्ट नहीं होता (अन्य संबोधन ‘छोटो बोउ‘, ‘छूटी‘ या ‘छुटि‘ जैसा पत्रों में संबोधन है) और इस समय यानि 1902 में मृणालिनी (जन्म 1874, कहीं 1872/1876 मिलता है) की उम्र 23 वर्ष भी नहीं बैठती। पत्नी के निधन की कविताएं ‘स्मरण‘ में हैं और ‘फाँकि‘ कविता 1918 में प्रकाशित संग्रह ‘पलातका‘ में शामिल है, और इस कविता की रचना तिथि न होने से इसे 1918 या उसके कुछ पहले की रचना मानना उचित होगा।

संजुक्ता दासगुप्ता, टैगोर साहित्य की गंभीर अध्येता और अंगरेजी अनुवादक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन मेमोरियम स्मरण एंड पलातका‘ 2020 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है, जिसमें मृणालिनी देवी की याद में टैगोर द्वारा लिखी ‘स्मरण‘ की 27 कविताएं का तथा ‘पलातका‘ की 15 कविताओं का अंगरेजी अनुवाद है। पलातका की कुछ अन्य कविताओं सहित फांकी के लिए अनुवादक की टिप्पणी प्रासंगिक और मारक है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था आजीवन कठोर कारावास की तरह प्रतीत होती है जहाँ घरेलू श्रम और प्रजनन श्रम को आश्रित महिलाओं के वांछित लक्ष्य और मिशन के रूप में महिमामंडित किया जाता है। मुक्ति, चिरादिनेर दागा, फांकी, निष्कृति, कालो मेये, हारिये जाओ जैसी कविताएँ लैंगिक मुद्दों के प्रति मुखर अभिव्यक्ति हैं।‘

कविता में बिलासपुर स्टेशन का नाम है, मगर वहां से गाड़ी बदल कर आगे जाने की बात के साथ पेंड्रा का नाम नहीं आया है। 1902 में पेंड्रा में अस्पताल जरूर था, जैसा कि 1909-10 के गजेटियर से पता लगता है। साथ ही देश का पहला सैनेटोरियम तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 स्थापित होने का तथ्य असंदिग्ध है। ‘द इंडियन मेडिकल गजट, जुलाई 1945, पेज 369 से निश्चित जानकारी मिल जाती है कि पेंड्रा सैनेटोरियम स्थापना वर्ष 1916 है, यह पेंड्रा के लोगों की स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज साधू बाबू अर्थात् मन्म्थनाथ बैनर्जी के साथ जुड़ा है, वे कलकत्ता, प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उपाधिधारी थे और पढ़ाई में सुभाषचंद्र बोस से एक कक्षा आगे होना बताया करते थे। टीबी के इलाज के लिए 1917 में सैनेटोरियम लाए गए बताए जाते हैं और फिर स्वस्थ हो कर पूरा जीवन यहां बिताया। साधू बाबू की मृत्यु 8 अगस्त 1982 को हुई। 16 जुलाई 1954 को शिलान्यास हुआ पेशेन्ट्स रिक्रिएशन हॉल अब उनके नाम पर साधू हॉल नाम से जाना जाता है।

पेंड्रा निवासी एक अन्य बुद्धिजीवी डॉ. प्रणब कुमार बैनर्जी लगभग 25 वर्ष की उम्र में 1961 में यहां आए, 2018 में उनकी मृत्यु हुई। वे साधू बाबू से नियमित संपर्क में रहे थे, उन्होंने ही अविवाहित रहे साधू बाबू को मुखाग्नि दी थी। डॉ. प्रणब जी से व्यक्तिगत संपर्क के दौरान मैंने टैगोर के पेंड्रा प्रवास के बारे में जिज्ञासा की थी, उन्होंने स्वयं अपनी तथा साधू बाबू से होने वाली उनकी चर्चाओं में ऐसी किसी बात को अपुष्ट माना था, अब पुनः डॉ. प्रणब के पुत्र प्रतिभू जी ने भी बताया कि ऐसी कोई बात अपने पिता से उन्होंने नहीं सुनी।

कटनी रेलखंड पर 1891 में रेल परिचालन की जानकारी मिलती है साथ ही बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन, जिसके बीच बोगदा और पेंड्रारोड स्टेशन है, 1861 (!) में आरंभ होने का उल्लेख मिलता है किंतु बोगदा निर्माण 1907 में होने का तथ्य, विसंगतियों के कारण पहले पेंड्रा-बिलासपुर के रेल से से जुड़ा होना स्पष्ट नहीं होता और संदेह का कारण बनता है।

इस तरह टैगोर का पत्नी के इलाज के लिए 1902 में पेंड्रा आना और यहां उनकी पत्नी की मृत्यु की बात, मात्र एक काव्य रचना के आधार पर स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता और विशेषकर तब, जब सारे प्रामाणिक स्रोतों में इसके विपरीत तथ्य हैं। यों यह रचना विवरण-मूलक है किंतु ‘मैं‘ बीनू के साथ, बिलासपुर स्टेशन पर गाड़ी बदल कर कहां जा रहा है या वापसी में ‘मैं‘ के अकेले होने का कारण, बीनू को कहीं छोड़ आना है या बीनू की मृत्यु? यह कुछ कविता में नहीं आता, इसलिए भी इसे आत्मकथ्यात्मक यात्रा-विवरण मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और जैसा कहा जाता है- ‘साहित्य का ‘मैं‘ सदैव बहुवचन ही होता है।‘ इस कविता के ‘मैं‘ को भी इसी तरह देखना चाहिए। 

मेरा अनुमान है कि किसी व्यक्ति ने बिलासपुर हो कर आगे जाने की ‘फाँकि‘ कविता से मिलती-जुलती अपनी रामकहानी टैगोर को सुनाई होगी, उसकी पीड़ा को अपने अनुभवों के साथ जोड़ कर टैगोर ने इस कविता को रचा होगा, जिसमें ‘मैं‘ के कारण इसे स्वयं उनका संस्मरण मान कर, पत्नी के इलाज के लिए स्वयं उनके बिलासपुर होते पेंड्रा आने और यहां पत्नी के निधन की बात प्रचलित हो गई, जो पूरी तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए, क्योंकि तथ्यों से मेल नहीं खाती।

प्रसंगवश-

0 कविता ‘फाँकि‘ में बिलासपुर का नाम आया है। यों छत्तीसगढ़ में ही एकाधिक बिलासपुर हैं, अन्य प्रदेशों के इस स्थान-नाम में हिमांचल का जिला मुख्यालय बिलासपुर प्रमुख है, मगर पुराना जंक्शन वाला रेल्वे स्टेशन होने के कारण छत्तीसगढ़ का यही बिलासपुर होना निश्चित किया जा सकता है। इसके साथ कविता में रुक्मिणी के चले जाने के संदर्भ में तीन अन्य स्थान-नाम ‘दार्जिलिंग, खसरुबाग और आराकान‘ आए हैं। उसका यह प्रवास संभवतः मजदूरी के लिए हुआ। बिलासपुर अंचल से श्रमिक पुराने समय से प्रवास पर ‘कमाने-खाने‘ जाते रहे हैं, उनमें कुछ लौट कर आ जाते हैं और बड़ी संख्या है, जो प्रवास के बाद वहीं टिक जाते हैं। इस क्षेत्र से कालीमाटी अर्थात जमशेदपुर, जहां अब सोनारी में छत्तीसगढ़ियों की बड़ी बस्ती है, ‘कोइलारी-कलकत्ता के अलावा कंवरू-कौरूं यानि असम प्रवास होता रहा है। संभव है उस दौर में अधिकतर प्रवास कविता में आए तीनों स्थान-नामों में होता रहा होगा।

0 कविता ‘फाँकि‘ में रुक्मिनी को ‘हिन्दूस्तानि मेये’ कहा गया है। जैसा बांग्ला-जन द्वारा गैर-बांग्ला भारतीय के लिए सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है, जो सहज प्रवाह में यहां भी आया है। बिलासपुर स्टेशन पर लगे अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी लड़की‘, संजुक्ता दासगुप्ता के अंगरेजी अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी गर्ल‘ है, मगर उत्पल बॅनर्जी ने इसका ‘गैर बंगाली लड़की‘ किया है। इस पर विचार करें- गैर बंगाली यानि जो पूर्व-पश्चिम बंगाल निवासी या बांग्लाभाषी न हो, होगा। यों हिंदुस्तानी का अर्थ बंगाल से इतर हिंदुस्तान निवासी ध्वनित होता है किंतु हिंदुस्तानीभाषी अर्थ नहीं निकलेगा, क्योंकि ‘बंगाल से इतर ‘हिंदुस्तान‘ में हिंदुस्तानी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। इस संदर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंध ‘धुरीमन बनाम परिधिमन‘ का एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- ‘बंकिम ने ‘वन्देमातरम्‘ में केवल सप्तकोटि बंगालियों की बंगमाता को ही गरिमा से अभिषिक्त किया। जब इस गीत का अखिल भारतीय उपयोग होने लगा तो ‘सप्त‘ को बदल कर ‘त्रिंशकोटि-कण्ठ-निनाद-कराले‘ कर दिया गया।‘

0 इस कविता में एक पंक्ति है- ‘बिनुर येन नतुन करे शुभदृष्टि हल नतुन लोके‘- बीनू शादी के बाद ससुराल से पहली बार रेल यात्रा पर निकली है, पति से कभी-कभार मुलाकातें, दबी-घुटी हंसी और बातें ही हो पाती थीं, अब उन्मुक्त माहौल और मानों ‘शुभदृष्टि‘, यानि वह ‘दृश्य‘ जिसमें नववधू विवाह के अवसर पर पान के पत्तों से चेहरा ढकी होती है, फेरों के बाद पहली बार पत्ते हटा कर, अपने होने वाले पति को पहली बार देखती है। ‘शुभदृष्टि- इस कविता में आई बांग्ला संस्कृति का नाजुक संवेदनापूर्ण मर्मस्पर्शी अर्थपूर्ण शब्द-प्रयोग।

0 ‘स्मरण‘ की दो कविताओं का हिंदी अनुवाद-

जीवित रहते उसने मुझे
जो कुछ दिया,
उसका बदला चुकाऊँगा, लेकिन 
अभी समय नहीं है।
उसके लिए रात सुबह हो गई है,
हे प्रभु, तूने आज उसे ले लिया है।
मैंने उसे तेरे चरणों में,
कृतज्ञतापूर्वक भेंट किया है।
मैंने उसके साथ जो भी बुरा किया है,
जो भी गलतियाँ की हैं,
उसकी क्षमा मैं आपसे माँगता हूँ,
आपके चरणों में डालता हूँ।
जो कुछ उसे नहीं दिया गया,
जो कुछ मैं उसे देना चाहता हूँ,
उसे आज प्रेम के हार के रूप में
आपकी पूजा की थाली में रखता हूँ।
- - -
एक दिन इसी दुनिया में,
तुम एक नवविवाहिता के रूप में मेरे पास आईं,
अपना काँपता हुआ हाथ मेरे हाथों में रख दिया। 
क्या यह भाग्य का खेल था, क्या यह संयोग था?
यह कोई क्षणिक घटना नहीं है,
यह अनादि काल से चली आ रही योजना है। 
दोनों के मिलन से भर जाऊँगा मैं,
युगों-युगों से इसी आशा में हूँ मैं।
मेरी आत्मा का कितना हिस्सा तुमने लिया है,
कितना दिया है इस जीवन धारा को?
कितने दिन, कितनी रातें, कितनी शर्म, कितनी हानि, कितनी जय-पराजय
मैं लिखता रहा हूँ,
मेरे थके हुए साथी क्या करेंगे,
सिवाय मेरे अपने शब्दों के!

0 सस्ता साहित्य मंडल द्वारा इन्द्र नाथ चौधुरी के प्रधान संपादकत्व में 2013 में प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली का खण्ड-42, ‘मेरी आत्मकथा‘ है, जिसमें मुख्यतः टैगोर के जीवन के आरंभिक वर्षों की विदेश यात्रा व प्रवास तथा साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख है। इसमें पेज 209-210 पर ‘स्त्री‘ कह कर अपनी पत्नी से संबंधित रोचक जिक्र आया है- एक तरुण, जो कहता है कि आपकी स्त्री पूर्वजन्म की मेरी माता है, ऐसा मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ा है ... इतना ही नहीं कुछ दिनों बाद ‘एक लड़की का (मेरी स्त्री के पूर्व जन्म की लड़की का) एक पत्र मिला ...।‘ इस संदर्भ में उल्लेखनीय कि पता लगता है टैगोर प्लेन्चिट से मृत आत्माओं का आह्वान किया करते थे।

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शब्द-कौतुक

0 बांग्ला पलातका, जैसा मिलता-जुलता मराठी शब्द पळपुटा है, जिसका अर्थ वैसा ही है और छत्तीसगढ़ी का पल्ला भागना, पल्ला तान देना वही अर्थ देता है, इससे लगता है कि शब्द का मूल एक ही होगा।

0 1910 के बिलासपुर गजेटियर में पेंड्रा के साथ ‘पंडरीबन‘ नाम आया है, यह रोचक संकेत का आधार है। सामान्यतः पेंड्रा या पेन्डरा, पिंडारियों से संबंधित शब्द माना जाता है, यह उपयुक्त नहीं जान पड़ता। पंडरीबन शब्द का बन स्पष्टतः वन, वृक्ष-बहुलता का शब्द है और पंडरी को रायपुर के पंडरीतलई, पेंडरवा, पेंड्री, पंर्री, पांडातराई, पंडरीपानी जैसे शब्दों के साथ समझने के प्रयास में इसका अर्थ सफेद (पांडुर) या स्वच्छ-उजला निकलेगा। छत्तीसगढ़ से संबंधित ‘गोरे‘ फादर लोर या वेरियर एल्विन को और अन्य विदेशी पादरियों आदि को पंडरा साहब कहा जाता रहा है। इस आधार पर संभव है कि इस क्षेत्र में सफेदी लिए तना-छाल वाले वृक्ष- धौंरा, केकट या कउहा की अधिकता रही हो, यों कुरलू या कुल्लू, कुसुम, अकोल, मुढ़ी, कलमी, सिरसा, करही, परसा, सेमल, खम्हार, पीपल, पपरेल का तना भी सफेदी लिए होता है, मगर जंगली नही और झुंड में नहीं होता। पंडरा, चूने का संकेत भी देता है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ी में सामान्यतः धौंरा (धवल) शब्द है, जिससे धौंराभांठा, धवलपुर, धौरपुर जैसे स्थान-नाम बनते हैं। पंडरभट्ठा स्थान-नाम स्पष्ट ही चूना पत्थर का खदान है। पेंड्रा से चूना निर्यात की जानकारी भी मिलती है, यह दूर की कौड़ी मानी जा सकती है फिर भी ... और इसी तरह गौरेला को गौ-रेला, यानि गायों की पंक्ति-झुंड या रेला बताया जाता है तो इसे गौर (वर्ण), चूने या सफेदी से जोड़ कर भी देखा जा सकता है।

0 इसी क्रम में भनवारटंक, का भनवार बहुत अजनबी शब्द है, और हिंदी में उच्चारित होने वाला टंक अंगरेजी में ‘टी-ओ-एन-के‘ लिखा जाता है। संभावना बनती है कि यह भंवर यानि बड़ी मधुमक्खी से आया हो और अंगरेजी स्पेलिंग के कारण इस तरह बदल गया हो। खोडरी, स्पष्ट ही खड्ड, खोड़रा, अर्थात गड्ढा का अर्थ देता है और खोंगसरा, जैसा एक अन्य स्थान -नाम खोंगापानी है, इसमें सरा-पानी, स्पष्ट है और खोंग का आशय व्यवधान-रुकावट या गहराई के लिए है।

टीप- इस मसौदे को तैयार करने में उपरोक्त उल्लेखित के अतिरिक्त रायपुर, भिलाई के महानुभावों और कोलकाता, विश्वभारती से संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। साथ ही इससे संबंधित आपत्ति, आलोचना, संदेह पैदा करने और स्थानीय तथ्यों की जानकारी-सामग्री जुटाने में रायपुर, बिलासपुर और पेंड्रा से जुड़े बुद्धिजीवियों, मीडिया-परिचितों से सहयोग मिला।

Friday, December 2, 2022

बिलासपुर भास्कर: कल, आज और कल

सितंबर 2022, पहला हफ्ता। रात साढ़े दस बज गए हैं, फोन आता है। यह अक्सर अखबार वालों के फोन का समय होता है, फोन पर बात पूरी करने के बाद बता-दुहरा दिया करता हूं कि नींद से उठकर बात कर रहा हूं और ‘जागते रहो‘ वाला रिटर्न गिफ्ट दूंगा, कल सुबह-सुबह फोन कर के। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। फोन बिलासपुर वाले हर्ष पांडेय जी का था, दुआ-सलाम और एकाध औपचारिक बातों के साथ, बिलासपुर भास्कर प्रकाशन के 29 वर्ष पूरे होने पर पांचेक सौ शब्द में बिलासपुर कल, आज और कल, जैसा कुछ लिख कर देने का आग्रह।


बिलासपुर भास्कर के 1993 वाले आरंभिक दिनों को याद करता हूं। हमारे दफ्तर और संग्रहालय के बीच रास्ते, रेस्ट हाउस के सामने, तहसील चौक पर भास्कर प्रेस होता था। हर दूसरे चौथे दिन हमलोग, बिलासपुर के आयोजन पुरुष रामबाबू सोनथलिया जी और प्रेस के लोगों से मिलने वहां ठहर जाते। बिलासपुर भास्कर से इस तरह का पड़ोसी रिश्ता तब भी बना रहा, जब वह नार्मल स्कूल-हाई कोर्ट के सामने आ गया। यह मेरे निवास का पड़ोस था। मेरे लिए श्री बुक डिपो और कोचिंग के रास्ते के बीच। यह करीबी रिश्ता बना रहा। सुशील पाठक जैसे तब के कुछ साथी अब नहीं रहे। भास्कर परिवार के दिवाकर मुक्तिबोध, संजय द्विवेदी, अविनाश कुदेशिया, मनीष दवे से मोल-जोल बना रहा।

प्राण चड्ढा जी से लगभग रोज की मुलाकात थी। वे बरास्ते फोटोग्राफी और वन्य-जीवन, शौकिया अखबारों से जुड़े और भास्कर के संपादक रहे, सेवानिवृत्ति के बाद भी भास्कर परिवार से जुड़े रहे। छत्तीसगढ़ राज्य बनने की आहट थी, उनके और प्रेस परिवार के मशविरे पर योजना बनी कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता पर भास्कर के लिए लिखूं। शीर्षक तय हुआ ‘छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया‘। छत्तीस दिनों में छत्तीस नोट तैयार करने थे। इनमें से बीस नोट 9 से 29 मई 1998 के बीच प्रकाशित हुए। भास्कर के प्रवीण शुक्ला जी, सुनील गुप्ता जी जैसे साथी अब संपादक हैं। इस दौरान खबर मिली की हर्ष जी ने भी सिटी चीफ से संपादक तक का सफर तय कर लिया है, उन्हें बधाई।

हर्ष जी की बात पर लगा कि इस दौरान थोड़ी आमदरफ्त और लिखना-पढ़ना हाथ में लिया हुआ है कि तुरंत नहीं कर पाया तो यह पक्का लटका रह जाएगा। इसलिए उनसे फोन पर हुई बात का ही सूत्र पकड़ कर ब्रह्म मुहूर्त में नोट्स लेने लगा। यह ध्यान में था कि लोग सामान्यतः विवरणात्मक लिखेंगे, इसलिए दुहराव न हो, कुछ अलग हो। अलग इतना भी न हो कि अप्रासंगिक हो कर, हास्यास्पद हो जाय, सहज पठनीय प्रवाहमय, अपना-अपना सा लगे। नोट पूरा करते हुए देखा कि यही 500 शब्द हो गए हैं तो बस सुबह-सुबह साढ़े छह बजे, फोन आने के आठ घंटे बाद, जिसमें लगभग सात घंटे नींद के थे, जो रिटर्न गिफ्ट वाट्सएप पर भेजा वही यहां-

बिलासपुर: कल आज और कल

छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख शहर, रायपुर और बिलासपुर से मेरा ताल्लुक लगभग बराबर रहा है। शहरों का अपना मिजाज होता है, अपनी पहचान होती है और वह सिर्फ भवनों, सड़कों, प्रतिष्ठानों से ही नहीं, शहर के निवासियों से अधिक होती है। बिलासपुर के आत्मीय स्वभाव और रायपुर के कामकाजी-व्यावसायिक स्वभाव को फोन पर होने वाली बात से समझने का प्रयास करें। रायपुर में अभिवादन और कुशल-क्षेम के बाद फोन करने वाला, फोन करने के प्रयोजन पर न आए तो अगला उससे पूछ लेता है, ‘अच्छा, ठीक है, बताओ फोन कैसे किया?‘ दूसरी तरफ ठेठ बिलासपुर के फोन वार्तालाप में दो-चार मिनट देश-दुनिया, आगत-विगत की बात होती है और कई बार तो विदा भी, तब दूसरी बार फोन आता है कि ‘असल में फोन इसलिए किया था ...‘। यह पहचान किसी व्यक्ति-विशेष के गुण-दोष से नहीं, समय के साथ, अपने-आप, शहर की अपनी पहचान-‘सिगनेचर‘ जैसा विकसित होता है। मेरे लिए बिलासपुर, एक ऐसा ही आत्मीय शहर है।

शहरों के साथ इतिहास का वैसा आग्रह उचित नहीं होता कि उसके शिलान्यास और लोकार्पण की तिथि और मुख्य अतिथि निर्धारित करने लगें। उसका तो वैसा ही होना फभता है, जैसा बिलासपुर के साथ है, यानि आस्था और विश्वास से सराबोर मान्यता-दंतकथा। बिलासपुर, रतनपुर राज का कैम्प रहा, वहां जाजल्लदेव जैसे राजा भी हुए, जिनके नाम पत्थर पर खुदे हैं, प्राचीन राजधानी महामाया मंदिर के साथ वाहरसाय के नाम का शिलालेख है, मगर वह पत्थरों पर खुदी इबारत बन कर जड़ है। दूसरी तरफ, गोपालराय बिंझिया या गोपल्ला वीर और कल्याण साय का नाम, लोगों के मन-प्राण और जबान पर रहा, अमूर्त, और चला आ रहा है। कह सकते हैं- तू कहता पत्थर की लेखी, मगर आंखों की देखी हो न हो, मन में तो बसी और कायम है, ऐसा ही जीवन-स्पंदन नाम है ‘बिलासा‘, जिससे बिलासपुर शहर की धड़कन और असल पहचान है।

अरपा और जवाली नाले का संगम बसाहट का मंच बना। अरपा के दाहिने और जवाली के दाहिने, जुना बिलासपुर के साथ किला वार्ड, तो जवाली के बांयें शनिचरी पड़ाव। पहले-पहल तीन मालगुजारी गांव- बिलासपुर, चांटा और कुधुरडांड, यानि अब के जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड मिलकर आधुनिक बिलासपुर बने। रेलवे के साथ पेट्रोलियम डिपो, डीपूपारा बना, रेलवे की ही सीमा पर तार-घेरा के दूसरी ओर तारबाहर और चहारदीवारी सीमा के बाहर देवालबंद या दयालबंद। कतियापारा, गोंडपारा, तेलीपारा, घसियापारा, करबला, टिकरापारा, मसानगंज पर नगर, वार्ड, कॉलोनी की परतें चढ़ने लगीं और एसईसीएल, रेल-जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी नई पहचान बनी। मगर शहर के दिल की आदिम धड़कन, जो जुना बिलासपुर और गोलबाजार-गोंडपारा में थी, सरकंडा तक फैल गई अब भी उसी तरह यहीं धड़कती है। खांटी बिलसपुरिहा भाषा और लहजे से जान लेता है कि अगला गोंडपारा वाला है या नदी पार का। शहर का मिजाज, उसकी नब्ज आज भी यहीं आसानी से टटोली जा सकती है। फैलते शहर में शामिल होते गांव, कॉलोनी और सोसाइटी में बदलते जा रहे हैं, बदलते जाएंगे, मगर शहर की पहचान, उसकी अंतर्धारा, उसकी आत्मीय उष्मा जस की तस बनी रहे।

Sunday, October 31, 2021

बिलासपुर अंचल में पर्यटन

पचीसेक साल पहले समाचार-पत्र के लिए मेरे द्वारा लिखा गया लेख
बिलासपुर अंचल का विस्तृत भू-भाग प्राकृतिक विविधताओं से सम्पन्न है। इस अंचल की सीमा पर एक ओर छोटी-बड़ी, ऊंची-नीची पहाड़ी श्रृंखला है, तो वहीं दूसरी ओर अंचल का मध्यभाग छत्तीसगढ़ के विशाल मैदान का हिस्सा है जिसमें महानदी और उसकी मुख्य सहायक नदी शिवनाथ के साथ-साथ हसदेव, लीलागर, आगर, हांफ, मांद जैसी छोटी नदियां प्रवाहित होती है। इस अंचल के प्राकृतिक वैविध्य में घने वन विकसित हुए और धरती की कोख में खनिज संसाधन भरा है अंचल की यह विशिष्ट स्थिति, कन्दरावासी हमारे पूर्वज आदिमानव से लेकर आधुनिक औद्योगिक विकास तक के हर पड़ाव पर, सम्यता को आकर्षित करती रही है, और उस क्रम में हमारी प्राचीन सभ्यता के चिह्न अंचल की गौरवशाली धरोहर है।

प्राकृतिक विविधताओं के रंग से सराबोर इस अंचल में इतिहास के कला-प्रमाण मिलकर, यहां पर्यटन की प्रबल संभावना का स्पष्ट संकेत देते है। पर्यटन संभावनायुक्त क्षेत्रों स्थलों को मुख्यतः प्राकृतिक दृश्य यानि नदी, झील, झरने, पहाड़, और पठार, वन-सम्पदा और वन्य जीवन, पुरातात्विक-ऐतिहासिक स्थल और स्मारक, धार्मिक तीर्थ, और आधुनिक औद्योगिक तीर्थ- कल-कारखाने, इन भागों में विभक्त किया जा सकता है। बिलासपुर जिले के अंतर्गत और सीमावर्ती अंचल में ऐसे विभिन्न महत्वपूर्ण स्थान है, जो दर्शनीय और पर्यटन संभावनायुक्त है।

प्राकृतिक सौंदर्य के स्थलों में इस अंचल का प्रसिद्ध तीर्थ अमरकंटक, जिला-सीमा से संलग्न शहडोल जिले में स्थित हैं। यहां पुण्य सलिला नर्मदा का उद्गम है, जोहिला आदि कुल अन्य नदियों के उद्गम के साथ-साथ महत्वपूर्ण नदी सोन उद्गम की मान्यता, इस स्थल से संबद्ध है, सुरम्य प्राकृतिक, दृश्यावली के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्यप्रद जलवायु, वन और खनिज संसाधनों की सम्पन्नता, प्राचीन मान्य पुण्य क्षेत्र नर्मदा कुण्ड, प्राचीन कर्णेश्वर मंदिर समूह के अतिरिक्त विभिन्न धर्म संप्रदायों के निर्माणाधीन तीर्थ, मठ और आश्रम, प्रत्येक रूचि के पर्यटकों का मन मोह लेने में सक्षम हैं।

बिलासपुर जिले के अंतर्गत खूंटाघाट, खुड़िया जलाशय, बांगो-हसदेव परियोजना, केन्दई प्रपात, दमऊदहरा-गुंजी-ऋषभतीर्थ आदि स्थल विशेष उल्लेखनीय हैं, खूंटाघाट और खुड़िया मूलतः प्राकृतिक सरोवर है, जिन्हेें लोक कल्याणकारी सिंचाई व अन्य योजनाओं के अंतर्गत विकसित किया गया हैं। खूंटाघाट, इस अंचल की प्राचीन राजधानी रतनपुर के निकट है और प्राचीन अभिलेखों में रतनपुर के पूर्व में पर्वत और उसके तल में बांध निर्मित कराये जाने की चर्चा है, अर्थात यह स्थल लगभग ढाई सौ वर्ष पहले चतुर्थाश में वर्तमन रूप दिया गया हैं। बांगो-हसदेव परियोजना स्थल तहसील मुख्यालय कटघोरा के निकट स्थित हैं। यहां हसदेव नदी की मनोरम-प्राकृतिक धारा को बांधकर जिले की मुख्य सिंचाई योजना को आकार देकर कृषि विकास के माध्यम से हरित-क्रांति का स्वप्न मूर्त हो रहा है। जहां खुड़िया और खूंटाघाट में विशाल जलराशि नयनाभिराम दृश्य उपस्थित होता है वहीं बांगो-हसदेव में नदी तट की ऊंचाई, तटबंध और संकरी हो गई नदी की गहराई दर्शकों का मन बांध लेती है।

बिलासपुर-अंबिकापुर सड़क मार्ग पर निजी वाहनों से यात्रा करने वालों का प्रिय स्थान हसदेव नदी का सड़क पुल और आगे चलकर नदी-प्रपात केन्दई है। वर्षाऋतु में केन्दई प्रपात की चौड़ी धारा और पानी की उड़ती बूंदे चित्र-सदृश्य प्रतीत होती है तथा ऊंचाई से गिरती जलराशि का गर्जन दर्शकों को मौन दृश्य रसपान के लिए विवश करता हैं। अन्य ऋतुओं को जलधारा पतली हो जाने से स्थल का सामान्य आकर्षण तो कम हो जाता है, किंतु वर्षाऋतु में यहां से गुजरा दर्शक, स्थिति विपर्यय का आकर्षण जरूर महसूस करता है।

दमऊदहरा, सक्ती तहसील मुख्यालय के निकट स्थित महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धार्मिक व प्राकृतिक-सौंदर्य पूर्ण स्थल पर सघन वनस्पति और पहाड़ी के साथ, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, दहरा अर्थात् प्राकृतिक जल भराव का कुंड है। ऐतिहासिक ऋ़षभ तीर्थ की धार्मिक महत्ता का उल्लेख महाभारत में हैं और ईसा की आरंभिक सदी का चट्टान लेख भी यहां है, जिससे स्थल पर सहस्रों गायों के दान दिये जाने की जानकारी शिलांकित हैं। जिला सीमा से संलग्न रायगढ़ जिले में एक अन्य आकर्षण पर्यटन स्थल रामझरना है। जो सौ कि.मी. से भी अधिक दूरी के पर्यटकों में पिकनिक के लिये लोकप्रिय स्थल है। राम-झरना में प्रस्तावित ‘राम-गार्डन’ विकसित होने से, स्थल का महत्व अधिक हो जावेगा।

वन और वन जीवन की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत सम्पन्न रहा है। इस अंचल धन के कटोरे का मैदानी समतल चारों ओर पहाड़ियों और वन से परिवेष्टि है। वर्तमान में जंगल विरल हो जाने से वन्य जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है, किंन्तु शासन द्वारा वनों की हरीतिमा बनाए रखने और उसे पुनर्जीवित करने के पुरजोर प्रयास किए जा रहे हैं । वन और वन्य जीवन अन्योन्याश्रित है, और इस अंचल में प्रचलित ‘आरे’ के निषेध की मान्यता में, संभवतः वन-पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से, इस परम्परा में, आधुनिक विचार के बीज दिखाई देते है। कुछ अशासकीय संस्थाओं ने भी वन, पर्यावरण तथा वन्य जीवन संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है।

इस अंचल का केन्दा क्षेत्र पिछली सदी तक हाथियों के लिये पूरे देश में प्रसिद्ध था और हाथियों के तत्कालीन सामरिक राजनैतिक महत्व के कारण पूर्व राजधानी रतनपुर की पहचान थी। वर्तमान मंर जिले के अंतर्गत एकमात्र महत्वपूर्ण वनक्षेत्र, अचानकमार अभयारण्य हैं, अन्य वन क्षेत्रों की वानिकी तथा वन्य-जीवन की संख्या व विस्तार सीमित है। अचानकमार अभयारण्य हैं, अन्य वन क्षेत्रों की वानिकी तथा वन-जीवन की संख्या का विस्तार सीमित है। अचानकमार अभयारण्य क्षेत्र में शेर, चीता, भालू, सांभर, चीतल आदि प्राणियों के साथ-साथ सामान्य पशु-पक्षियों से यह वन क्षेत्र परिपूर्ण है, इसके अतिरिक्त यहां कुछ विलक्षण ‘एल्बिनोज’ की जानकारी भी मिलती हैं।

पक्षियों की दृष्टि से शीतऋतु के प्रवासी पक्षी, इस अंचल में विशेष उल्लेखनीय हैं, अंचल के बहुसंख्य सरोवर शीतऋतु में इन आगन्तुक सालाना मेहमानों से भर जाते हैं। प्रवासी पक्षी शीत क्षेत्रों से अत्याधिक लंबी उड़ान भर कर यहां गुनगनी धूप सेंकने आते हैं महानदी की रेत में शिवरीनारायण और चंद्रपुर-बालपुर क्षेत्र में प्रसिद्ध विशाल कुररी, विचरण करने प्रवास पर आते है, इनका आगमन, उड़ान और रेत पर उतरना, मानो सम्मोहन कर देता है।

स्थानीय पर्यटन संभावना की दृष्टि से बिलापुर शहर के निकट के स्थल कानन पेंडारी और स्मृति वन का उल्लेख किया जा सकता हैं यह दोनों स्थल शासकीय, अर्धशासकीय योजनाओं के अंतर्गत विकसित वनोद्यान क्षेत्र है। कानन पेंडारी में शहर के निकट वन के वातावरण की अनुभूति और वन्य जीवों का दर्शन आकर्षण है। स्मृति वन शहर के मध्य से गुजरती अरपा नदी के बायें तट पर विकसित होते शहर का छोर है, जहां, शहर में प्रवास पर आये प्रमुख व्यक्तियों द्वारा वृक्षारोपण कराया गया है, यहां विकासशील बच्चों का पार्क, मछली घर आदि निकट भविष्य में स्थानीय पर्यटक महत्व का स्थान प्राप्त कर लेंगे।

पर्यटन संभावनायुक्त ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थलों की सूची इस अंचल में पर्याप्त लंबी है, इसमें विशेष महत्व के स्थलों में संक्षिप्त विवरण क्रम में जिला सीमा से संलग्न रायगढ़ जिले का स्थल सिंघनपुर है, जहां हमारे पूर्वज गुफावासी आदि मानव के बर्बर स्थितियों से अगल अपनी कलाप्रियता का प्रमाण अंकित किया है। सिंघनपुर के चित्रित शैलाश्रयों का रंग अब धुंधला पड़ता जा रहा है, किंतु यहां पहंुच कर आदिम जीवन स्थितियों की कल्पना और उसका रोमांच महसूस होता है और प्रागैतिहासिक आदि मानव से अपनी समाष्टिगतता के सूत्र जुड़ने की प्रच्छन्न किंतु सहज अनुभूति में दुर्लभ क्षणों की जीवन स्मृति सुरक्षित रह जाती है।

जिले की सक्ती तहसील में सातवीं सदी इस्वी के अवशेषयुक्त प्राचीन स्थल अड़भार है, जिसकी पहचान पुराने अभिलेखों के ‘अष्टद्वार’ नामक स्थल व क्षेत्र से की गई है। यहां विशिष्ट तारकानुकृति प्रकार के शैव स्थापत्य अवशेष तथा जैन धर्म से संबंधित प्रतिमाएं भी ज्ञात है। मंदिर स्थल पर रखी प्रतिमाओं में महिषासुरमर्दिनी की भव्य विशाल प्रतिमा, लास्य व शास्त्रीय भंगिमा युक्त नटराज शिव तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की सप्त सर्पफण छत्र युक्त प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। यहां से ऐतिहासिक महत्व के प्राचीन अभिलेख व प्राचीन मृजिका दुर्ग या गढ़ भी प्रकाश में आया है। 

जांजगीर तहसील में खरौद सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी के पुरावशेषों से सम्पन्न हैं। यहां प्राचीन लक्ष्मणेश्वर मंदिर पुनर्सरचित स्मारक है, जिसमें मूल शिवलिंग स्थापित है। द्वार शाख पर नदी देवियां व द्वारपाल मूलतः विद्यमान है। मंडप में रामकथा अंकित स्तंभ तथा दो शिलालेख है। मंदिर परिसर में हिंदू धर्म से संबंधित प्रतिमाएं, जैन तोरण खंड तथा पंडित दामोदर की अभिलिखित प्रतिमा हैं। यहां दो अन्य ईट निर्मित मंदिर इन्दल देउल तथा शबरी मंदिर विशिष्ट प्रकार के शिल्प व तत्कालीन मूर्तिकला की दृष्टि से आकर्षण दर्शनीय उदाहरण है। खरौद के निकट स्थित शिवरीनारायण महानदी के बायें तट पर स्थित अंचल का प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां के प्राचीन मंदिरों और प्रतिमाओं में शिल्पगत सौंदर्य-अलंकरण की कलचुरिकालीन कला की विशिष्ट छाप है। शिवरीनारायण मेें विभिन्न भक्त-श्रद्धालुओं और जाति समाजों के बनावाए आधुनिक मंदिर भी है इन स्थलों पर क्रमशः शिवरात्रि व माघ पूर्णिमा के अवसर पर विशाल मेला भरता है। जांजगीर का विष्णु मंदिर अधूरा होने के बावजूद स्थापत्य की दृष्टि से संपूर्ण विकसित शैली एवं तत्कालीन कला का समर्थ प्रतिनिधि हैं।

बिलासपुर तहसील में स्थित ताला पंाचवीं-छठीं सदी ईस्वी के कलावशेषों तथा विशेषकर रूद्र-शिव की विस्मयकारी प्रतिमा के कारण विश्वविख्यात हैं। यहां स्थित दो शिव मंदिर- स्थानीय नामों देवरानी व जिठानी मंदिर से जाने जाते हैं। जेठानी मंदिर का भव्य अभिकल्प और विशिष्ट स्थापत्य योनजा में विशाल अलंकृत स्तंभ, विभिन्न मुद्राओं में भारवाहक गण, वरूण, अर्द्धनारीश्वर, शिव मस्तक, महिषमर्दिनी, उपासक आदि प्रतिमाएं हैं। स्थल से लघु प्रतिमा फलकों और प्राचीन मुद्राओं की प्राप्ति विशेष उल्लेखनीय है। देवरानी मंदिर का प्रवेश द्वार मुग्धकारी है। यहां गणेश, मेष मुख गण, सूर्य, उपासक आदि प्रतिमाएं हैं, द्वार शाख के अंकन में कथानकों की जीवन्नता और कीर्तिमुखों की प्रभावोत्पादकता, अपनी सानी नहीं रखता, मनियारी तट के इस पलाश क्षेत्र का वसंत में दर्शन आल्हादित करता है।

मल्हार अंचल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल कहा जाता है, क्योंकि यहां ईस्वी पूर्व आठवीं सदी से तेरहवीं सदी ईसवीं और उसके बाद के विभिन्न राजवंशों, कला शैलियों से संबंधित जैन, बौद्ध व हिंदू धर्म संप्रदायों की प्रतिमाएं, सिक्के, अभिलेख आदि बहुलता से प्राप्त है। स्मारकों में पातालेश्वर, देउर व डिडिनेश्वरी देवी का मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण का स्थल संग्रह भी देखने योग्य है। रतनपुर, सुदीर्घकाल तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है, यहां पुरावशेषों के साथ-साथ धार्मिक दर्शननार्थियों की बड़ी संख्या पूरे वर्ष भर पहंुचती है और पर्वो के अवसर पर विशाल मेला भर जाता है। यहां प्रत्येक तीसरे साल बसना के निकट गिधली ग्राम से पैदल आने वाले यादव परिवार की निष्ठा अद्वितीय है, जो इस लंबी दूरी को लगभग छः माह में पूर्ण करके समलाई की भेंट उसकी बहन महामाई से कराते हैं।

कटघोरा तहसील में प्राचीन महादेव मंदिर पाली के निर्माण व उद्धार में क्रमशः बाणवंशी शासक विक्रमादित्य प्रथम के पुत्र मल्लदेव तथा कलचुरि नरेश जाजल्लदेव का नाम अभिलिखित है। विभिन्न प्राचीन अभिलेख युक्त यह मंदिर शिव, सरस्वती, चामुण्डा, सूर्य, अष्ट दिगपाल, योगी, नर्तकी, व्याल तथा मिथुन प्रतिमाओं से सज्जित है। लाफा का चैतुरगढ़ तथा कोसगई अथवा गढ़ कोसंगा, अंचल के दो पर्वत दुर्ग हैं, चैतुरगढ़ की गणना क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में की गई है। किले में तीन प्रवेश द्वार हैं, किंतु लाफा बगदरा होकर मुख्य प्रवेश अपेक्षाकृत आसान बना दिया गया है किले के भीतर परवर्ती कलचुरिकालीन महिषमर्दिनी का मंदिर है। मंदिर के निकट ही तालाब है जिसमें सदैव जल रहता है। यही पहाड़ी श्रृंखला जटाशंकरी-अहिरन नदी का उद्गम है।

बिलासपुर नगर में संस्कृति विभाग का पुरातत्व संग्रहालय हैं। संग्रहालय में पांचवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी तक का प्रतिमाएं है जो जिले के ताला, रतनपुर, गनियारी, पंडरिया, मदनपुर, सेतगंगा, सीपत आदि स्थानों से एकत्र की गई है। संग्रह में कुछ महत्वपूर्ण और दुर्लभ शिलालेख-ताम्रपत्र तथा प्राचीन सिक्के भी है। अन्य प्रदर्शित सामग्रियों में मुख्यतः शिलालेख एवं मानचित्र, सारिणी, चित्र, प्रादर्श आदि है।


Saturday, February 20, 2021

बिलासपुर की त्रिवेणी-1966

छत्तीसगढ़ की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था ‘भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर द्वारा पुस्तक प्रकाशन माला के पंचदश पुष्प के रूप में साहित्यिक त्रिमूर्ति अभिनंदन समारोह पत्रिका का प्रकाशन महाशिवरात्रि सं. 2022 यानि 18 फरवरी 1966 को किया गया था।
इसमें जिन तीन साहित्यिक विभूतियों का अभिनंदन हुआ, उनके बारे में पुस्तिका के आरंभ में कहा गया है-
जिन तीनों ने किया पल्लवित साहित्यिक उद्यान।
वे तीनों हैं ‘विप्र‘ के काव्य रसिक भगवान।।

इस पुस्तिका में छपा छायाचित्र और स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी का लेख प्रस्तुत है। पुस्तिका, प्रातःस्मरणीय हरि ठाकुर के संग्रह से उनके पुत्र आशीष सिंह द्वारा उपलब्ध कराई गई है।


।। बिलासपुर की त्रिवेणी ।।

[द्वारा- स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी]

बिलासपुर की साहित्यिक त्रिवेणी का यह सम्मान लगता है कि जैसे पुण्य तीर्थराज प्रयाग यहां साकार हो उठा है। आदरणीय मधुकर जी, प्यारेलाल जी गुप्त तथा यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव ने अपनी अकथ तपस्या और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत का सदैव ही पथ प्रदर्शन किया है।

आदरणीय मधुकर जी को काव्य शक्ति तो पैतृक विरासत में मिली है। मुझे स्मरण है कि मधुकर जी के पुण्य स्मरणीय पिता जी बिलाईगढ़ में चाकरी की अवधि में रायपुर आकर जब अपने सहयोगी के यहाँ जो मेरे किरायेदार थे, ठहरते थे तब हम बालकों का मनोरंजन यह कहकर किया करते थे “पुरानी है पुरानी है। मेरी डिबिया पुरानी है। जमाने भर की नानी है” आदि आदि। वयस्क होने पर जब मुझे ज्ञात हुआ कि वे मधुकर जी के पिता श्री थे तो मेरा मन अकस्मात ही उनके प्रति श्रध्दावनत हो गया। ऐसे मधुकर जी ७५ वर्ष पार कर साहित्य साधना में यदि आज भी युवकों को मात दे रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। 

आदरणीय गुप्त जी कवि, आलोचक, पुरातत्वज्ञ, इतिहासकार आदि क्या नहीं है? को-आपरेटिव्ह बैंक की सेवा करते हुए जमा खर्च के शुष्क आंकड़ों में व्यस्त रहते हुए भी उनका हृदय साहित्य की अमृतधारा से परिपूरित है। 

और यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव तो “कलम के जादूगर“ हैं ही। अपनी सशक्त लेखनी के द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में तथा अपनी वाणी और सक्रियता के द्वारा राजनीति के क्षेत्र में उनका योगदान स्मरणीय रहेगा। 

आज उनके अभिनन्दन के अवसर पर इस त्रिवेणी-स्वरूपा त्रिमूर्ति की सेवा में पुष्पान्जलि अर्पित कर कौन अपने को धन्य नहीं समझेगा?

Monday, October 8, 2012

शेष स्मृति

2 अक्टूबर, नाटक और खास कर बिलासपुर से जुड़े लोगों के लिए, डॉ. शंकर शेष की जयंती के रूप में भी याद किया जाता है (यही यानि 2 अक्‍टूबर डॉ. शेष की पत्‍नी श्रीमती सुधा की जन्‍मतिथि है) और यह बीत जाए तो अक्टूबर की ही 28 तारीख उनकी पुण्यतिथि है। डॉ. शेष (1933-1981) के साथ बिलासपुर के नाटकीय इतिहास-थियेटर की यादें भी दुहराई जा सकती हैं।
डॉ. शंकर शेष
भागीरथी बाई शेष
बिलासपुर से जुड़ा बिलासा का किस्सा इतिहास बनता है, भोसलों और भागीरथी बाई शेष (1857-1947) के नाम के साथ। पति पुरुषोत्तम राव के न रहने पर निःसंतान मालगुजारिन भागीरथी बाई को उत्तराधिकारी की तलाश थी। बात आसान न थी लेकिन पता लगा कि उन्हीं के परिवार के भण्डारा निवासी विनायक राव पेन्ड्रा डाकघर में कार्यरत हैं। वसीयतनामा तैयार हो गया। कहानी, इतिहास बनी।

1861 में पृथक जिला बने बिलासपुर में रेल्वे के लिए जमीन की जरूरत हुई। उदारमना भागीरथी बाई जमीन दान देने को तैयार हुई, किन्तु अंगरेजों को 'देसी का दान' मंजूर नहीं हुआ और बताया जाता है कि 1885 में तत्कालीन मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर सर चार्ल्स हाक्स टॉड ने बिलासपुर रेलवे स्टेशन और रेलवे कालोनी के लिए 139 एकड़ जमीन के लिए 500 रुपए मुआवजा दे कर बिक्रीनामा लिखाया।

विनायक राव की पत्नी सीताबाई थीं, उनके तीन पुत्रों में बड़े नागोराव हुए, जो उसी बिक्रीनामा के आधार पर भू-वंचित माने जा कर रेलवे में क्लर्क नियुक्त हुए। नागोराव की पहली पत्नी जानकीबाई और दूसरी पत्नी सावित्री बाई थीं।
सावित्री बाई नागोराव शेष
दूसरी पत्नी के पुत्रों में बड़े बबनराव, फिर बालाजी, तीसरे (डॉ.) शंकर (शेष), उसके बाद विष्णु और सबसे छोटे गोपाल हुए। नागोराव (निधन- 17 दिसम्‍बर 1960), जिनके नाम पर जूना बिलासपुर का पुराना स्कूल है, रेलवे में क्लर्क रहे, लेकिन सोहराब मोदी का थियेटर अपने शहर में देखने-दिखाने की धुन थी, नतीजन 1929 में श्री जानकीविलास थियेटर बना, जिसके लिए हावड़ा की बर्न एंड कं. लि. से सन '29 तिथि अंकित नक्शा बन कर आया था।
पारसी नाटकों, मूक फिल्मों और फिर बिलासपुर फिल्म इतिहास के लंबे दौर का साक्षी, दसेक साल से बंद यह थियेटर मनोहर टाकीज कहलाता है। हुआ यह कि पेन्‍ड्रा के जाधव परिवार के मंझले, मनोहर बाबू वहां सिनेमा का काम करते रहे, छोटे डिगू बाबू ने दुर्ग में तरुण टाकीज का काम संभाला और बड़े भाई, दत्‍तू बाबू बिलासपुर आ कर इसका संचालन करने लगे। इस तरह श्री जानकीविलास थियेटर का नया नाम 'मनोहर' भी पेन्‍ड्रा से आया और पेन्‍ड्रा वाले ही विनायक राव के पुत्र, बिलासपुर में थियेटर के पितृ-पुरुष नागोराव शेष हुए और हुए उनके पुत्र डॉ. शंकर शेष।
मनोहर टाकीज - श्री जानकी विलास थियेटर के साथ डॉ. गोपाल शेष
तब 'सारिका' में डॉ. शेष का कथन छपा था- ''सन 1979 की बात है। मैं भोपाल में था। उन दिनों विनायक चासकर ने मेरा नाटक 'बिन बाती के दीप' उठाया था। मुझे भी नाटक में एक भूमिका दी गई। कैप्टन आनंद की भूमिका। दो दिन रिहर्सल हुई फिर चासकर को लगा कि अगर शेष को कैप्टन आनंद बनाया गया तो और कुछ हो या ना हो, नाटक पिट जाएगा। तो लेखक की नाटक से छुट्‌टी हो गई। इस घटना के बाद मुझे एहसास हुआ और मैंने नियति की तरह इसे स्वीकार किया कि अभिनय करना मेरे बस की बात नहीं।'' यह संक्षिप्त किन्तु रोचक अंश डॉ. शेष की भाषा-शैली सहित उनकी प्रभावी सपाटबयानी का समर्थ उदाहरण है।
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डॉ. शंकर शेष की रचनाओं की व्यवस्थित सूची-जानकारी मिली नहीं, अलग-अलग स्रोतों से एकत्र कर डा. शेष की कृतियों को विधा और रचना वर्ष के क्रम में रखने का प्रयास किया है, जिसमें संशोधन संभावित है, इस प्रकार है-

नाटक
1955- मूर्तिकार, रत्नगर्भा, नयी सभ्यताःनये नमूने, विवाह मंडप (एकांकी)
1958- बेटों वाला बाप, तिल का ताड़, हिन्दी का भूत (एकांकी)
1959- दूर के दीप (अनुवाद)
1968- बिन बाती के दीप, बाढ़ का पानीःचंदन के दीप, बंधन अपने-अपने, खजुराहो का शिल्पी, फन्दी, एक और द्रोणाचार्य, त्रिभुज का चौथा कोण (एकांकी), एक और गांव (अनुवाद)
1973- कालजयी (मराठी व हिन्दी), दर्द का इलाज (बाल नाटक), मिठाई की चोरी (बाल नाटक), चल मेरे कद्‌दू ठुम्मक ठुम (अनुवाद)
1974- घरौंदा, अरे! मायावी सरोवर, रक्तबीज, राक्षस, पोस्टर, चेहरे
1979- त्रिकोण का चौथा कोण, कोमल गांधार, आधी रात के बाद, अजायबघर (एकांकी), पुलिया (एकांकी), पंचतंत्र (अनुवाद), गार्बो (अनुवाद), सुगंध (एकांकी), प्रतीक्षा (एकांकी), अफसरनामा (एकांकी)

पटकथा
1978- घरौंदा,1979- दूरियां, सोलहवां सावन (संवाद)

कहानी
1979 से 1981- ओले, एक प्याला कॉफी का, सोपकेस

उपन्यास
1956- तेंदू के पत्ते 1971- चेतना, खजुराहो की अलका, धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे (अपूर्ण)

अनुसंधान
1961- हिन्दी और मराठी तथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
1965- छत्तीसगढ़ी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
1967- आदिम जाति शब्द-संग्रह एवं भाषाशास्त्रीय अध्ययन

जानकारी मिलती है कि उपन्यास ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ 1956 में लिखा जा रहा था, मगर अपूर्ण रहा। इसका पुस्तकाकार प्रथम संस्करण जगतराम एण्ड सन्ज, दिल्ली से 1990 में प्रकाशित हुआ। सिर्फ 91 पृष्ठों में देवव्रत-भीष्म के जन्म की पृष्ठभूमि से धृतराष्ट्र के गांधारी से विवाह की पृष्ठभूमि तक, महाभारत की कहानी के अंश की सारी नाटकीयता को जिस तरह मनोभावों के चित्रण और संवाद के साथ लिखा गया है, वह अपने अधूरेपन में भी पूरे जैसा महत्वपूर्ण है। यह भी देखा जा सकता है कि यह कहानी जहां छूटती है वह ‘कोमल गांधार‘ में जुड़ जाती है, मानों उन्होंने उपन्यास-नाटक का जोड़ा रचा हो। 

डॉ. शेष नाटक प्रेमियों में जिस तरह स्‍वीकृत थे, फिर उनके सम्‍मान-पुरस्‍कार का उल्‍लेख बहुत सार्थक नहीं होगा, लेकिन एक जिक्र यहां आवश्‍यक लगता है- नागपुर के प्रसिद्ध धनवटे नाट्य गृह का शुभारंभ 1958 में डॉ. शेष के नाटक 'बेटों वाला बाप' से(?) होने की सूचना मिलती है।
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''इस बार तुमको अरपा नदी दिखाएंगे और अरपा नदी के पचरी घाट,'' बम्बई से चलने के पहले डॉ. शंकर शेष ने तय किया कि अपनी पत्नी को अपने पुराने शहर के सारे ठिकाने, जिनके साथ उनका पूरा बचपन और बचपन की कितनी-कितनी कथाएं जुड़ी हैं, जरूर दिखाकर लाएंगे।

उपरोक्त अंश पैंतीसेक साल पहले 'रविवार' में छपी, सतीश जायसवाल की कहानी ''मछलियों की नींद का समय'' का है। कहानी के नायक डॉ. शंकर शेष हैं और एक पात्र सतीश (कहानी के लेखक स्वयं) भी है। पूरी कहानी डॉ. शेष के बिलासपुर, समन्दर-नदी-तालाब-हौज के पानी, जलसाघर-थियेटर-संग्रहालय-किला-मछलीघर और मछलियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है। पंचशील पार्क की अहिंसक मछलियां। मामा-भानजा तालाब (शेष ताल) की बड़ी-बड़ी मछलियां। कहानी में वाक्य है- ''श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष के इस शहर में कुछ भी गैर-सांस्कृतिक नहीं हो सकता।'' और यह भी- ''डॉ. साहब, अरे मायावी सरोवर और अपने मामा-भानजा तालाब के बीच क्या कोई संबंध है?''

सतीश जी की इस कहानी के बहाने कुछ और बातें। बिलासपुर के साथ मछुआरिन बिलासा केंवटिन का नाम जुड़ा है।... ... ... श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष, बिलासपुर के चार ''एस'' कहे जाते हैं। ... ... ... आंखों पर पट्‌टी बांधी गांधारी का डॉ. शेष का नाटक 'कोमल गांधार' और सत्यदेव दुबे के 'अन्धा युग' की अदायगी के साथ यहां संयोग बनता है कि डॉ. शंकर तिवारी ने 1958-59 में खोजा कि कांगेर घाटी, बस्तर की कुटुमसर गुफाओं में दो-ढाई इंच लंबी बेरंग मछलियां हैं, उजाले के अभाव में इनकी आंखों पर झिल्लीनुमा पर्दा भी चढ़ गया है। साथ ही उनके द्वारा 15-20 सेंटीमीटर मूंछों वाले अंधे झींगुर 'शंकराई कैपिओला' Shankrai Capiola की खोज प्रकाशित की गई। यह भी कि इस कहानी के बाद सतीश जी यदा-कदा बिलासपुर के पांचवें ''एस'' गिने गए।

कहानी ''मछलियों ...'' का अंतिम वाक्य है- इस बार, बम्बई से साथ आई हुई पत्नी ने पहली बार आपत्ति की, ''यह मछलियों की नींद का समय है और लोग शिकार पर निकले हैं।''
थियेटर के भीतर अब अंधेरा-परदा
प्रमिला काले, जिनका शोध (1986) है
''नव्‍य हिन्‍दी नाटकों के संदर्भ में
डॉ. शंकर शेष के नाटकों का शिल्‍पगत अनुशीलन
सभी ऐतिहासिक पात्र, नामों के प्रति आदर।

Thursday, January 19, 2012

भानु कवि

चालो री साहेल्यां म्हारा जगन्नाथ जी आया री।
जगन्नाथ जी आया वो तो कोई पदारथ लाया री।
निमाड़ क्षेत्र में प्रचलित रही गीत की ये पंक्तियां भगवान जगन्नाथ के लिए नहीं बल्कि राजस्व अधिकारी के रूप में वहां पदस्थ रहे जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के लिए है, जो गीत की अगली पंक्तियों से पता लगता है-
आगूं तो हम सौ-सौ देत, अब नौ दसक सुनाया री।
बाकी रुपया सबै छुड़ाया, हरखीना घर आया री॥
निमाड़ में पदस्थ रहते भानुजी ने लगान में कमी कर जनता का दिल जीत लिया था। भानुजी निमाड़ी किसानों के प्रेम का स्मरण कर कहा करते थे- 'इस छल-कपट से भरे हुए संसार में मुझे ग्रामीण जनता से जो प्रेम और प्रतिष्ठा मिली, वह देव-दुर्लभ है।'

हिन्दी साहित्य के इतिहास में छंदशास्त्र के सर्वप्रमुख विद्वान, छत्तीसगढ़ के गौरव पुरुष जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' का जन्म 8 अगस्त 1859 को तत्कालीन मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में हुआ। सैनिक सुकवि 'हनुमान नाटक' के रचयिता पिता बख्‍शीराम से साहित्यिक संस्कार, उन्हें घुट्‌टी में मिला। भानुजी का बचपन बिलासपुर में बीता, आरंभिक शिक्षा भी यहीं हुई और आपके जीवन का अधिकतम रचनाकाल भी बिलासपुर में ही व्यतीत हुआ। मेधावी बालक जगन्नाथ ने अपनी रुचि और स्वाध्याय से हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, उड़िया और मराठी भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। भाषा और गणित में उनकी विशेष रूचि थी।

साहित्य का अध्ययन करते हुए भानुजी ने महसूस किया कि हिंदी में 'छंद' विषय पर वैज्ञानिक और व्यवस्थित कार्य का अभाव है और उन्होंने इस दिशा में कार्य आरंभ किया। छह वेदांगों में शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त और ज्योतिष के साथ छंद भी है। सर्वप्रथम संस्कृत के छंद ग्रंथ 'पिंगलशास्त्र' की रचना पिंगलाचार्य ने की, जो भगवान शेष के अवतार माने गए हैं, किंतु हिंदी के छंद ग्रंथों में जगन्नाथ प्रसाद भानु कृत प्रथमतः सन 1894 में प्रकाशित 'छंदःप्रभाकर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सन 1939 में इसके नवें संस्करण प्रकाशन के बाद 1940 में उन्‍हें हिन्‍दी के प्रथम 'महामहोपाध्‍याय' उपाधि से विभूषित किया गया।
इस ग्रंथ का 10वां संस्करण जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, बिलासपुर से सन 1960 में प्रकाशित हुआ। इस संस्करण में ग्रंथ का परिचय इस प्रकार दिया गया है- 'छन्‍दःप्रभाकर' अर्थात भाषा पिंगल, सूत्र और गूढ़ार्थ सहित जिसमें छन्‍द शास्त्र की विशेष ज्ञानोत्पत्ति के लिए मात्राप्रस्तार, वर्णप्रस्तार, मेरु, मर्कटी, पताका प्रकरण, मात्रिकसम, अर्द्धसम, विषम और वर्णसम, अर्द्धसम और विषम वृत्त प्रकरणों का वर्णन बड़ी विचित्र और सरल रीति से लक्षण और उत्तम उदाहरणों सहित दिया है।

ग्रंथ की भूमिका में भानुजी ने सरल शब्दों में छंद का परिचय और महत्व इस प्रकार बताया था- 'छंद शास्त्र का थोड़ा ज्ञान होना मनुष्य के लिए परमावश्यक है। आप लोग देखते हैं कि हमारे ऋषि, महर्षि और पूर्वजों ने स्मृति, शास्‍त्र, पुराणादि जितने ग्रंथ निर्माण किये हैं वे सब प्रायः छन्‍दोबद्ध हैं। यहां तक कि श्रुति अर्थात वेद भी छंदस कहाते हैं। छंद का इतना गौरव और माहात्म्य क्यों? इसका कारण यही है कि कोई भी विषय छंदोबद्ध रहने से रमणीयता के कारण शीघ्र कंठस्थ हो जाता है और पाठकों और श्रोताओं दोनों को एक साथ ही आनंदप्रद होता है। इसके सिवाय उसका आशय गद्य की अपेक्षा थोड़े ही में आ जाता है। वे आगे लिखते हैं- 'इस ग्रंथ में हमने श्रीयुतभट्ट हलायुध के सटीक प्राचीन संस्कृत छन्‍द शास्त्र, श्रुतबोध वृत्तरत्नाकर, छन्‍दोमंजरी, वृत्तदीपिका, छंदःसारसंग्रह इत्‍यादि ग्रन्‍थों का आधार लिया है।' इस पुस्तक में सौ से अधिक पारिभाषिक शब्द, चार सौ से अधिक छंद नियम है तथा आठ सौ से अधिक शब्द नाम विषयसूची में सम्मिलित हैं।

यह न सिर्फ हिन्दी छंद शास्त्र का पहला ग्रंथ होने के कारण उल्लेखनीय है, बल्कि इसका महत्व इसलिए है कि इसमें मात्रा, वर्ण, प्रत्यय आदि का व्यवस्थित विश्लेषण किया गया है। बहुभाषाविद होने का लाभ लेते हुए भानु जी ने ग्रंथ में संस्कृत, मराठी तुलनात्मक उदाहरणों के साथ तुकान्त काव्य के उल्लेख सहित उर्दू-फारसी बहरों और अंगरेजी के मीटर का हिन्दी छंदों के साथ विवेचन किया है।

रामचरितमानस को आधार बना कर तैयार किया गया उनका ग्रंथ नव पंचामृत रामायण 1897/1924 में प्रकाशित हुआ, साथ ही उनकी श्री तुलसी तत्‍व प्रकाश (1931), रामायण वर्णावली (1936), श्री तुलसी भाव प्रकाश (1937) पुस्‍तकों के नाम मिलते हैं। इसके अतिरिक्त उनके अन्य ग्रंथ हैं- काव्य प्रभाकर (1905/1909), छंद सारावली (1917), अलंकार प्रश्नोत्तरी (1918), हिंदी काव्यालंकार (1918), काव्य प्रबंध (1918), काव्य कुसुमांजलि (1920), नायिका भेद शंकावली (1925), रस रत्नाकर (1927), अलंकार दर्पण (1936) आदि। उनकी अन्य काव्य कृतियां 'तुम्हीं तो हो' (1914), जय हरि चालीसी (1914) और शीतला माता भजनावली (1915) है। फैज उपनाम वाली उनकी दो उर्दू पुस्तकों, गुलजारे सखुन (1909) तथा गुलजारे फैज़ (1914) और सन 1927 में रचित अंग्रेजी तीन पुस्तिकाओं 'की टू परपेचुअल कैलेंडर बीसी', 'की टू परपेचुअल कैलेंडर एडी' तथा 'कांबिनेशन एंड परम्यूटेशन आफ फिगर्स' हैं। इसके साथ काल प्रबोध (1899), अंक विलास (1925) और काल विज्ञान (1929) सहित कई छत्तीसगढ़ी पुस्तिकाओं की रचना भी आपने की, जिसमें खुसरा चिरई के बिहाव सर्वाधिक लोकप्रिय हुई (वैसे इसी शीर्षक से खरौद के पं. कपिलनाथ मिश्र की प्रसिद्ध रचना भी है।) इसके अतिरिक्‍त भानुजी की कुछ अप्रकाशित रचनाओं की सूचना भी मिलती है।

सरकारी नौकरी के बाद सक्रिय सार्वजनिक जीवन बिताते हुए भानुजी ने सन 1913 मे बिलासपुर में जगन्नाथ प्रेस नामक छापाखाना आरंभ कर इस अंचल के एक बड़े अभाव की पूर्ति की। भानु जी की मित्र मंडली और परिचय का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। वे तत्कालीन सभी प्रमुख साहित्य मनीषियों और महापुरुषों के सतत संपर्क में रहते और सम्मान पाते थे। श्रीकृष्ण कन्या शाला के अध्यक्ष, बिलासपुर डिस्पेंसरी के सदस्य, सहकारी बैंक के संस्थापक, महाकोशल हिस्टोरिकल सोसाइटी कौंसिल के अध्यक्ष, मध्यप्रांतीय लिटरेरी एकेडमी के अजीवन सदस्य जैसी विभिन्न संस्थाओं से संबद्ध रहकर छत्तीसगढ़ में साहित्यिक और बौद्धिक वातावरण के निर्माण में अविस्मरणीय योगदान दिया। वे नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा महात्‍मा गांधी, जार्ज ग्रियर्सन, आचार्य महावीर प्रसाद दि्ववेदी, पं. गौरीशंकर ओझा, हरिऔध जी व बाबू श्‍यामसुंदर दास के साथ सम्‍मानित हुए थे। महामहोपाध्‍याय, साहित्‍य-वाचस्‍पति, साहित्‍याचार्य, रायबहादुर भानु जी का निधन 25 अक्टूबर 1945 को हुआ।

मेरे द्वारा तैयार यह आलेख, लगभग इसी रूप में प्रथमतः 25 अक्टूबर 2004 को समाचार पत्र दैनिक हरिभूमि, बिलासपुर के पृष्ठ-4 पर प्रकाशित।

15-20 साल पहले भानुजी के पोते श्री घनश्‍याम उर्फ मोहनकुमार कवि से मेरा मिलना-जुलना होता था, उनके चांटापारा स्थित निवास पर जाकर, भानुजी के अध्ययन कक्ष और संग्रह को भी देखने का अवसर मिला, किन्तु इस लेख के लिए जानकारियों की पुष्टि का प्रयास किया तो वहां वैसा कुछ भी शेष नहीं रहा था, मोहन जी से भी मुलाकात न हो सकी, न पता लगा सका इसलिए मात्र विभिन्न प्रकाशित स्रोतों और चर्चाओं को आधार बना कर यह लेख तैयार किया गया था। 

Wednesday, January 11, 2012

कवि की छवि

कवि के साथ छवि का तुक यहां संयोग से ही बैठ गया वरना कविता तो अतुकी-बेतुकी सी लगने वाली बातों में भी होती है- खुदबुदाते, मचलते भावों के सामने कब लाचार नहीं पड़ते शब्द, कभी जबान तोतली होने लगती है, तो कभी सघन मौन-चुप्पी। ... घना अंधेरा और तरल रोशनी ... ।
क्यों नदी खामोश है?
दहाड़ क्यों है, पहाड़ के चुप्प्प्प में
जंगल लील जाने को आतुर
चिड़िया टंगी सी, पेड़ अनमने!

कवि मन के भाव-बिंबों को समझने के प्रयास में यह बेतुकी सी बात बन गई। कविताओं के प्रति अपनी रुचि और समझ सीमा के कारण, ऐसा कुछ पढ़ते हुए असमंजस होता है, गद्यार्थी पाठक को घबराहट-सी भी होती है। लेकिन इस संकीर्णता में आसानी से समा जाए ऐसी भी कविता यदा-कदा मिल जाती है।

बात है बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़ के युवा रचनाकार मनीष श्रीवास्तव के काव्य संग्रह 'अवलंबन' की। 1974 में जन्मे मनीष नब्बे के दशक से लिख रहे हैं और इस संग्रह में सन 2006 तक की अनुक्रमित (सरल क्रमांक वाली), बिना शीर्षक वाली 1 से 109 तक रचनाएं शामिल हैं, जिनमें अधिकतर का रचना काल 1999 और 2000 दर्शाया है। (रचनाओं को यहां कोष्‍ठक में उनका अनुक्रम देते हुए उद्धृत किया गया है।)

संग्रह से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि रचनाकार फिलहाल अपनी कवि-छवि से मुक्त है, उसे पता नहीं है कि वह जो कुछ लिख रहा है, वह कविता है, यानि वह एक तरह से कुंवारा-कवि है। कवि (की छवि) बन जाने के बाद, ऐसा भान, अपनी यह पहचान उसे बनाए-बचाए रखने का जतन, रचना-प्रक्रिया के दौरान भी साथ बना रहा तो यह कविता पर भारी पड़ने लगता है। फिलहाल इससे लगभग मुक्त दिखते मनीष, संग्रह के आरंभ में कहते हैं- ''मैंने '97 से '07 तक काफ़ी कुछ कहा। चंद तो यूँ ही बातों में बह गया। जो कुछ मैंने याद रखा, जो कुछ कविता-स्वरूप था, वह संकलित है।''
लक्षण अच्छे कहे जा सकते हैं क्योंकि यह युवा कवि, शब्दों और भाषा को खिलौने की तरह खेलता दिखता है। काश, आकाश और अवकाश पर कविता (2) है तो एक रचना (12) में मोहन, वशीकरण, आकर्षण, द्रावण, उन्मोदन, दीपन, स्तंभन, जृम्भण, उच्चाटन, मारण शब्दों को अपनी तरह से व्यक्त किया है और द्योतक, मोदक, उद्‌घोषक, प्रेरक, धावक जैसे तुक मिले शब्दों के साथ रची गई कविता (26) भी है।

शब्दों से खेल, कहीं भाव से दर्शन तक पहुंच जाता है जैसे (54) एक क्षण, युति का // एक प्रहर, उल्लास का // एक दिवस, आवेगपूर्ण // संध्या एक, आह्लादमयी // एक पक्ष, सान्निध्यरत // एक मास, सहयोग का // एक ऋतु, प्रतीक्षा की // एक वर्ष, प्रयास का // एक दशक, संतुष्टि का // एक जीवन, पूर्णतः परिभाषित!!! और (105) प्रातः उठो, गाओ कुछ पंक्तियाँ, पूरा गीत नहीं // मध्याह्न तक, चलो कुछ कोस, पूरा पथ नहीं // संध्या बैठो, इक नदी किनारे, न, रोओ नहीं // रात सोने दो, आँखों को खेलने दो, एक नए सपन संग, न, खोलो नहीं // हर सुबह नवजीवन का आरंभ, हर रात इक ज़िंदगी ख़त्म, जीवन की अवधि, सिर्फ़ एक दिन!

इस कवि को अपनी बात कहने के लिए कामचलाऊ से लेकर अंगरेजी से भी परहेज नहीं है, लेकिन कमाल तो वहां दिखता है, जब वह शास्‍त्रीय संस्‍कृत के शब्‍द और मनोभूमि में विचरते हुए (15) मंत्रोपलों, ईक्षण, ष्‍ठीवन, लोय, जोय, प्रीत्‍योदधि, व्रण, बैंदव, त्रायमाण, विवक्षा, अमिष जैसे शब्‍दों का सहज इस्‍तेमाल करता है तब कुछ अन्य कविताओं की तरह यहां भी लगता है कि वह सिर्फ संस्कृत भाषा का अभ्यासी नहीं, बल्कि पौराणिक-औपनिषदिक मनोभाव का भी अभ्‍यस्‍त है। जब वह क्‍लासिक उर्दू को पकड़ कर बढ़ता है तो (28) ग़ज़ीर, मुबर्हन, तस्‍ख़ीर, शाबदा, रू-ए-तिला, लज़्ज़ते-गिर्या (77) यूज़क, मिक़्यासुलहरारा, सीमाब, मिक़्यासुलमौसिम, दिनाअत (78) बिफ़ज़िल्ही, चर्बक़ामत, नौख़ास्‍ता, रू-ए-शोरीदा, नैरंगसाज़े-शैदा लफ़्ज आते हैं और (79) में काफिया मिलान के शब्‍द हैं- शुस्‍तोशू, दू-ब-दू, मू-ब-मू, सू-ए-सू, ज़ुस्‍तजू, कू-ब-कू, जू-ब-जू, हू-ब-हू, रू-ब-रू के साथ शेर है- न होते अंग्रेज न 'यू-यू' होती, हिंदी होती तो तुम से तू होती।

आपकी जांच-परख के लिए इस संग्रह के कुछ नमूने-

7 शेरों वाली ग़ज़ल (6) में काफ़िया खींच कर मिलाया गया लगता है, लेकिन बात असरदार बनी है-
माशूक है रोटी यहाँ बच्चे रक़ीब हैं
चूल्हे की वस्लगाह के क़िस्से अजीब हैं
शायर के पेट दौड़ती बहती हुई शराब
कुर्ता-ए-ज़र की ज़ेब में मुद्दे ग़रीब हैं
ये प्यार काग़ज़ी है सो दो लफ़्ज़ हुए हम
मानी हैं जुदा शुक्र है हिज्जे करीब हैं

संग्रह की सबसे छोटी, स्वाभाविक कविता (18) है-
ज़िन्दगी की बिसात पे
जब भी शह देता हूँ...
...तुम मोहरे बदल देती हो!

15 अगस्त 2006 को लिखी कुछ अलग मिजाज की कविता (24) है-
शब्द-विवर में अर्थ-मंडूक // जब मौन व्रत धर लें // अंतरात्मा के झींगुर // परकोलाहलवश सुनाई न दें // चकाचौंध में भावों के मृदु तारागण // जब दिखाई न दें ...
... ... ... ... ... ... ... ... ...
(कहूँ सुप्रीम कोर्ट को इंप्यूडेंट, फिर भले भुगते मुआ ये आदिवासी
मैं और मेरा (लेस्बो) एडवेंचर तो मजे में हैं 'बस मॉस्किटो हैं')
जब कम्युनिज़म पटुओं की ललनाओं को हड़पने की
तानाशाही का जरिया बने, समाधिकार के नाम पर
जब कॅपिटलिज़म का ठेठ अर्थ ही हो जाए
अक्षम से भेदभाव या अपमान या उसे खर समझना
जब सेक्युलर का मतलब दाढ़ी
औ' नेशनलिस्ट सुसंस्कृत हो चले चोटी
सोशलिस्ट (यदि बचा हो) माने झोले में कट्टा
जब टॅररिज़म का मुकाबला करे जिंगोइज़म,
वो भी ख़ाली हाथ!
... ... ... ... ... ... ... ... ...
मौन-कंदरा में विचार शरभ निर्दोष // जब हिमनिद्रालीन हों अनिमेष ही // प्रीत्याभिषेक स्नात मृडमुख से // फूटे ''युद्धं शरणं गच्छामि!'' // कलाश्री के इक्षुचाप में दंत-अंकुश // सुमनशर बद्ध हों जब मायापाश में // तब, ममप्रिय हे अदिति, // तू मुझे अभीष्ट है!

संग्रह की एकदम सहज-स्वाभाविक सी कविता (50) है-

ओह, मैं अश्वमेध कर बैठा!

हृदय-तुरंग से ये कह बैठा
कि जा, जहाँ तक तू दौड़ेगा
वहाँ तक मेरा साम्राज्य होगा

इक नन्हीं बाला ने ऐसा पकड़ा
कि अश्व बेचारा अब तक
उसका बंदी है, वो लालन-पालन
करती है, सो ख़ुश भी है

अश्व छुड़ाने की कोशिश में
राजा से भिक्षु बन बैठा
सुनने में तो ये भी आया
कि उस हय ने संतति की है
दो बछेड़े विश्वास और संयम
और एक नन्हीं घोड़ी प्रतीक्षा
को भी जन्म दिया है!

क्यूँ नृप हारा, बाला जीती?
मैंने अश्व को दमन का अस्त्र बनाया
उसने उसे प्रेम-प्रतीक बना
जीना सिखलाया!

...धरा रह गया यज्ञ
मुझे अश्व की सेवा ही करने दो!

छोटे बहर और 29 शेरों वाली प्रयोगात्मक ग़ज़ल (27) का एक शेर है- खिलौना हूँ मैं दोनों का, करम उसका दुआ उसकी। ऐसी ही 28 शेरों वाली ग़ज़ल (59) शुरू होती है- मुझसे न लिखा जाएगा, ये वर्क़ सफ़ा जाएगा। एक शेर (34) में है- सुबू दो, इक खयाल, काफिए चार, मगर रदीफ बनाई नहीं जाती। एक और ग़ज़ल (38) के कुछ शेर देखते चलें-
भूत है वाचाल चंचल वर्तमान
क्यूँ है रहता लृटलकार मौन
गणपति, मुझ कंठकेतु पर कृपा हो
है तू सक्षम कर मेरा उद्धार मौन
तुझसे गतिमय है मेरी यौवनकथा
न रहेगा इस कथा का सार मौन।
कवि यह भी कहता है- (52) ''हां, मैं विशेषज्ञ नहीं पर, जीवन का हठी विद्यार्थी अवश्य हूँ!'' फिर यह कि- (10) ''सीख लेंगे लब ये जब क़िस्साबयानी, लस्म में, आँखों से तब इरशाद मिलेगी।'' और फिर मानों घोषणा कि- (23) ''ग़ज़लगोई ये चुप नहीं होगी, मुहब्बत तुंदख़ू से है।'' लेकिन बात यहां तक पहुंचती है- (76) ''तम्दीद-ए-ग़ज़ल में है महारत मुझे मगर, यीमन फ़ यौमन ख़ुद को घटाता रहूँ।''

रचनाओं में व्‍यापक भाव और समृद्ध बिंब का जैसा सहज प्रयोग हुआ है, वह कवि की अकूत संभावना का अनुमान कराने के लिए पर्याप्‍त है, लेकिन वह जिस भाषा का प्रयोग करता है, उसके लिए आम पाठक कवि के शब्दों में (37) ही कह सकता है-
... सुनूँ मैं तुम्हारे दिल की बात
और समझ भी पाऊँ! प्रिये यह सरल नहीं है!

राजकमल प्रकाशन की इस पुस्‍तक का आइएसबीएनः 978-81-267-1717-0 है।

Monday, January 31, 2011

बिलासा

जिसके नाम पर बसे बिलासपुर में वास करते हुए, बिलासा का जिक्र यदा-कदा और स्मरण तो अक्सर होता है, तब सदैव याद आती है, अपने बचपन की केंवटिन दाई। नियत समय पर, नियत स्थान पर हमारे गांव में नित्य-प्रति दंवरी और पर्रा में चना, मुर्रा, लाई, करी-लाड़ू लेकर आती थी। खाइ-खजेना (टिट-बिट) का पर्याय मेरे लिए आज भी यही है। पौराणिकता की चर्चा यहां अनावश्यक होगी, किन्तु जब सन्तोषी माता के प्रसाद में चना-गुड़ बांटा जाता, तो मुझे सदैव स्मरण होता, केंवटिन दाई के खाइ-खजेना का।

कभी चंदिया रोड के पास के गांव कौड़िया-सलैया जाते हुए, उसके अगले गांव बिलासपुर के कुछ लोग मिले, उस दिन मैंने हिमांचल प्रदेश के बिलासपुर के बाद तीसरे बिलासपुर का नाम सुना। चंदिया रोड से शहडोल वापस लौटते हुए रास्ते में वीरसिंहपुर पाली में बिरासिनी देवी की प्राचीन मूर्ति देखने के लिए रुका। वहां मंदिर के बाहर खाइ-खजेना लिए, एक केंवटिन दाई के भी दर्शन हुए। यों ओड़गी, बतौली, कुनकुरी, खरसिया और बिलईगढ़ वाले, इस तरह छत्तीसगढ़ में ही पांच अन्य बिलासपुर की जानकारी मिल गई।

इन स्फुट स्मृतियों को आपस में जोड़ने के प्रयास में अपनी प्रशिक्षित बौद्धिकता का सहारा लेता हूं तो बीच-बीच का अंतराल फैलने लगता है। लेकिन मन के स्वच्छंद विचरण में ऐसी परिकल्पना आसानी से बन जाती है कि यह सपाट और एकरूप मालूम पड़ता है। वही विरासिनी देवी, वही सन्तोषी माता, वही बिलासा केंवटिन, वही केंवटिन दाई। फिर बौद्धिक प्रतीत होने वाले कई निष्कर्ष उभरने लगते हैं, जिनमें से एक कि निषाद गृहणियां, अपने नाविक गोसइंया के लिए, जिसका यह भरोसा नहीं कि एक बार नदी में हेल जाने के बाद कितनी देर या कितने दिन बाद आए, भूंजा, खाइ-खजेना तैयार करती रही होंगी। सुधीजन और शोधार्थी परीक्षण कर खंडन-मंडन करें, उनका मन रखने के लिए उनके प्रत्येक मत का सम्मान, लेकिन अपने मन का मान कभी बदलेगा, ऐसा नहीं लगता। निष्कर्ष और भी हैं, लेकिन फिलहाल आगे बढ़ें।

इतिहास अपने को दुहराता है या यों कहें- नया कुछ घटित नहीं होता, काल, स्थान और पात्र बदलते रहते हैं और व्याख्‍याएं बदल जाती हैं। पौराणिक साहित्‍य में उल्‍लेख मिलता है कि पहले राजा, पृथु से भी पहले, सर्वप्रथम विन्‍ध्‍यनिवासी निषाद तथा धीवर उत्‍पन्‍न हुए। भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास भी निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट-मांझी समुदाय का डेरा बना। आग्नेय कुल का नदी किनारे डेरा। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का रूप लेने लगी। यहीं दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा केंवटिन।

इतिहास के तथ्य तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, लोक-गाथाओं की तरह सहज-स्वाभाविक नहीं, इसलिए इतिहास नायकों को चारण-भाट-बारोट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण का काव्य रच-गढ़ सकें, पत्थर-तांबे पर उकेरे जा सकें, लेकिन लोक नायकों के व्यक्तित्व की विशाल उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते, किंतु लोक नायकों का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है।

इसी तरह 'बिलासा केंवटिन' काव्य, संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक देवारों की असंदिग्ध गाथा है, जिसमें 'सोन के माची, रूप के पर्रा' और 'धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूंक मं लाड़ू बांधै' कहा जाता है। अपने पिता दशरथ की पंक्तियां गाते हुए कुकुसदा की रेखा देवार याद करती हैं– 'राजपुर रतनपुर, कंचो लगे कपूर तीन फूल बेनी म झूले बिलासा केंवटिन चार कुरिया जुन्‍ना बिलासपुर आज उड़त हे कबिलास।' उसका परिचय इस प्रकार भी दिया जाता है- 'बड़ सतवंतिन केंवटिन ए, कुबरा केंवट के डउकी ए, नाथू केंवट के पत्‍तो ए, धुर्रा के केंवटिन मुर्रा बनाए, सुक्‍खा नदी म डोंगा चलाय, भरे नदी म घोड़ा कुदाय।' केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है ही, केंवटिन की वाक्‌पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-

छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।

आगे सोलह प्रजातियों- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोंढ़िहा, लूदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, जटा चिंगरा, भेंड़ो, बामी, कारी‍झिंया, खोकसी, झोरी, सलांगी और केकरा- का मोल तत्कालीन समाज की अलग-अलग जातिगत स्वभाव की मान्यताओं के अनुरूप उपमा देते हुए, समाज के सोलह रूप-श्रृंगार की तरह, बताया गया है। सोलह प्रजातियों का 'मेल' (range), मानों पूरा डिपार्टमेंटल स्‍टोर। लेकिन जिनका यहां नामो-निशान नहीं अब ऐसी रोहू-कतला-मिरकल का बोलबाला है और इस सूची की प्रजातियां, जात-बाहर जैसी हैं। जातिगत स्वभाव का उदाहरण भी सार्वजनिक किया जाना दुष्कर हो गया क्योंकि तब जातियां, स्वभावगत विशिष्टता का परिचायक थीं। प्रत्येक जाति-स्वभाव की समाज में उपयोगिता, अतएव सम्मान भी था। जातिवादिता अब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति का हथियार बनकर, सामाजिक सौहार्द्र के लिए दोधारी छुरी बन गई है अन्यथा सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन, बहादुर कलारिन के साथ बिलासा केंवटिन परम्परा की ऐसी जड़ है, जिनसे समष्टि का व्यापक और उदार संसार पोषित है।

अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी 'चौरासी' की उपासना करते हैं और उसकी विशेष पूजा का दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी के साथ 'बिलासिनी' नाम मिलता है तो क्या देवी 'चौरासी' की तरह कोई देवी 'बिरासी', 'बिरासिनी' भी है या सतबहिनियों में से एक 'बिलासिनी' है, जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।

अरपा में पानी बहता रहा, लेकिन जवाली नाला का सहयोग-सामर्थ्य वैसा नहीं रहा। अब तो शायद संज्ञा में प्रोजेक्‍ट के चलते 'रोज मेरी' नाम स्थापित हो जाय (जवाली नाला शब्द में पुनः अग्नि-जल समन्वय का आभास है) और अरपा जानी जाए, स्‍टाप डैम से। अरपा को तब अन्तःसलिला जैसे शब्दाभूषणों की आवश्यकता (मजबूरी) नहीं थी। कलचुरियों की रतनपुर राजधानी पर सन 1740 के बाद मराठों का अधिकार हो गया, 1770 में नदी तट के आकर्षण से बिलासपुर में किले का निर्माण आरंभ हुआ, लेकिन 1818 तक मुख्‍यालय रतनपुर ही रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को रायपुर और बिलासपुर सुगम, सुविधाजनक प्रतीत हुआ। अंततः 1862 में बिलासपुर, जिला मुख्‍यालय के रूप में पूर्णतः स्थापित हो गया।

शुरुआत में नगर के अंतर्गत तीन मालगुजारी गांव थे- बिलासपुर, चांटा और कुदुरडांड (क्रमशः वर्तमान जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड)। नगर, किला वार्ड से शनिचरी होते हुए गोल बाजार होकर आगे पसरने लगा और इसके बाद रेल के आगमन से नगर की विकास-गति में मानों पहिए नहीं, पर लग गए। रेलवे की तार-घेरा वाली सीमा और दीवाल वाली सीमा क्रमशः तारबाहर और देवालबंद (वर्तमान दयालबंद) मुहल्‍ले कहलाए। दाढ़ापारा, दाधापारा हो गया। अब नगर-सीमा में समाहित अमेरी, तिफरा, चांटीडीह, सरकंडा, कोनी, लिंगियाडीह, देवरीखुर्द, मंगला जैसे गांव, पारा-मुहल्‍ला जाने जा रहे हैं। नगर पर एसइसीएल, रेल जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी की और गोंडपारा, कतियापारा, तेलीपारा, कुम्हारपारा, टिकरापारा, मसानगंज पर ...नगर, ...वार्ड, ...कालोनी की परत चढ़ने लगी है।

प्रगति के साथ, नगर की परम्परा का स्मरण स्वाभाविक है। कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है आस्था के मूल की ओर, कि गलती कहां हुई? और ऐसी प्रत्येक स्थिति में सम्बल बनता है, बिलासा केंवटिन दाई का स्मरण-दर्शन। नगर की गौरवशाली परम्परा का मूल बिन्दु- बिलासा केंवटिन, गहरी और मजबूत जड़ें है, जिसके सहारे यह नगर-वृक्ष आंधी-तूफान सहता पतझड़ के बाद बसंत में फिर से उमगने लगता है।

दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।