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Monday, July 1, 2013

भाषा-भास्कर

शीर्षक तो अनुप्रास-आकर्षण से बना, लेकिन बात सिर्फ दैनिक भास्कर और समाचार पत्र के भाषा की नहीं, लिपि और तथ्यों की भी है। समाचार पत्र में 'City भास्कर' होता है, इसमें एन. रघुरामन का 'मैनेजमेंट फंडा' नागरी लिपि में होता है। 'फनी गेम्‍स में मैंनेजमेंट के लेसन' भी नागरी शीर्षक के साथ पढ़ाए जाते हैं।
लेकिन नागरी में 'हकीकत कहतीं अमृता प्रीतम की कहानियां' पर रोमन लिपि में 'SAHITYA GOSHTHI' होती है।
हिन्दी-अंगरेजी और नागरी-रोमन का यह प्रयोग भाषा-लिपि का ताल-मेल है या घाल-मेल या सिर्फ प्रयोग या भविष्य का पथ-प्रदर्शन। ('भास्‍कर' 'चलती दुकान' तो है ही, इसलिए मानना पड़ेगा कि उसे लोगों की पसंद, ग्राहक की मांग और बाजार की समझ बेहतर है।)

बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्‍कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्‍तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्‍तविक तथ्‍य और उनकी दो कहानियों में आए छत्‍तीसगढ़ के स्‍थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्‍यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्‍तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्‍पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्‍तीसगढ़ के रिश्‍ते के लिए।
पहले समाचार पत्रों में यदा-कदा भूल-सुधार छपता था, अब खबरों को ऐसी भूल की ओर ध्‍यान दिलाया जाना भी कठिन होता है, फोन पर संबंधित का मिलना मुश्किल और मिले तो नाम-परिचय पूछा जाता है, धमकी के अंदाज में। एक संपादक जी कहते थे, ''अखबारों की बात को इतनी गंभीरता से क्‍यों लेते हो, अखबार की जिंदगी 24 घंटे की और अब तो तुम तक पहुंचने के पहले ही आउटडेट भी'' क्‍या करें, बचपन से आदत है समाचार पत्रों को 'गजट' कहने की, और मानते जो हैं कि गजट हो गया, उसमें 'छापी हो गया' तो वही सही होगा, गलती कहीं हमारी ही न हो, लेकिन यह भी कैसे मान लें। पूर्व संपादक महोदय की बात में ही दम है शायद।

पुनश्‍चः 3 जुलाई 2013 के अखबार की कतरन
शीर्षक की भाषा और 'PREE' हिज्‍जे (स्‍पेलिंग) 
ध्‍यान देने योग्‍य है.

Monday, April 9, 2012

छत्तीसगढ़ी

बोली और भाषा में क्या फर्क है, लगभग वही जो लोक और शास्त्र में है। या कहें ज्‍यों कला का सहज-जात स्‍वरूप और मंचीय प्रस्‍तुतियां/आयोजन में या परम्‍परा-अनुकरण से सीख लिये और स्‍कूली कक्षाओं में सिखाए गए का फर्क। और यह उतना अनिश्चित भी माना जाता है, जितना नदी और नाला का अंतर। भाषा, मंदिर में पूजित विग्रह-मूर्ति का संग्रहालय में सज्जित और सम्मानित कर दिये जाने जैसा है, जबकि बोली ग्राम और लोक-देवताओं की तरह, जो कई बार अनगढ़, अनाकार, अनामित, मगर पूजित, श्रद्धा केंद्र होते हैं। श्रद्धालु अपनी गति-मति से अपना रिश्ता बनाए रखता है।

भाषा के लिए लिपि और व्याकरण अनिवार्य मान लिया जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह पृथक लिपि हो और व्याकरण के बिना तो सार्थक अभिव्यक्ति, बोली हो या भाषा, संभव ही नहीं। हां! भाषा के लिए बोली की तुलना में मानकीकरण, शब्द भंडार और साहित्य अधिक जरूरी है। भाषा की आवश्‍यकता शास्‍त्र-रचना के लिए होती है। अभिव्‍यक्ति तो बोली से हो जाती है, साहित्‍य भी रच जाता है। वास्तव में बोली मनमौजी और कुछ हद तक व्‍यक्तिनिष्‍ठ होने से अधिक व्यापक होती है, वह संकुचित, मर्यादित और निर्धारित सीमा का पालन करते हुए भाषा के अनुशासन में बंधती है। बोली-भाषा की अपनी इस मोटी-झोंटी समझ में यह मजेदार लगता है कि अवधी, ब्रज 'भाषा' हैं और हिन्दी की पूर्वज, खड़ी 'बोली'। बोली, अधिक लोचदार भी होती है, शायद यह खड़ी-ठेठनुमा कम लोच वाली बोली, अपने खड़ेपन के कारण आसानी से भाषा बन गई।

फिलहाल यहां मामला छत्तीसगढ़ी का है और मैं चाहता हूं कि यह, भाषा के रूप में तो प्रतिष्ठित हो लेकिन उसका बोलीपन खो न जाए। पिछले दिनों खबर छपी- लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव-अनुरोध छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से प्राप्त हुआ है। इसी तरह अंगिका, बंजारा, बजिका/बज्जिका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखंडी, धात्की, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोंडी, गुज्जर/गुज्जरी, हो, कच्चाची, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोदवा (कूर्ग), कोक बराक, कुमांउनी (पहाड़ी), कुरक, कुरमाली, लेपचा, लिम्‍बू, मिजो (लुशाई), मगही, मुंडारी, नागपुरी, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, संबलपुरी/कोसली, शौरसेनी (प्राकृत), सिरैकी, तेंयिदी और तुलु भाषा के लिए भी प्रस्ताव मिले हैं। स्पष्ट किया गया है कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कोई मानदंड नहीं बताए गए हैं और इन्हें अनुसूची में शामिल करने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है। इस तारतम्‍य में छत्तीसगढ़ी बोलते-लिखते-पढ़ते-सुनते-देखते रहा, उनमें से कुछ उल्लेखनीय को एक साथ यहां इकट्‌ठा कर देना जरूरी लगा।

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने 'छत्‍तीसगढ़ परिचय' में लिखा है- सरगुजा जिले के कोरवा और बस्‍तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्‍तीसगढ़ीयता का स्‍वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्‍न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!

दंतेश्‍वरी मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्‍तर वाला 23 पंक्तियों का शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है। शासक दिकपालदेव के इस लेख में संवत 1760 की तिथि चैत्र सुदी 14 से वैशाष वदि 3 अंकित है, गणना कर इसकी अंगरेजी तिथि समानता 31 मार्च, मंगलवार और 4 अप्रैल, शनिवार सन्‌ 1702 निकाली गई है। लेख की भाषा को विद्वान अध्‍येताओं द्वारा हिन्‍दी कहीं ब्रज और भोजपुरी प्रभाव युक्‍त, छत्‍तीसगढ़ी मिश्रित हिन्‍दी तो कहीं बस्‍तरी भी कहा गया है। यह मानना स्‍वाभाविक लगता है कि छत्‍तीसगढ़ में भी ब्रज का प्रभाव कृष्‍णकथा (भागवत और लीला-रहंस) से और अवधी का प्रभाव रामकथा (नवधा, रामसत्‍ता) परम्‍परा से आया है और लिखी जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी अपने पुराने रूप में अधिक आसानी से पूर्वी हिन्‍दी समूह के साथ निर्धारित की जा सकती है।

यह भी उल्‍लेख रोचक होगा कि लेख वस्तुतः साथ लगे संस्कृत शिलालेख का अनुवाद है, इस तरह अनुवाद वाले उदाहरण भी कम हैं और लेख में कहा गया है कि कलियुग में संस्‍कृत बांचने वाले कम होंगे इसलिए यह 'भाषा' में लिखा है। लेख का अन्य संबंधित विषय स्वयं स्पष्ट है -
शिलालेख का फोटो और उसी का छापा 
दंतावला देवी जयति॥ देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरही हैं ते पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिखे है। ... ... ... ते दिकपालदेव विआह कीन्हे वरदी के चंदेल राव रतनराजा के कन्या अजवकुमरि महारानी विषैं अठारहें वर्ष रक्षपाल देव नाम जुवराज पुत्र भए। तव हल्ला ते नवरंगपुरगढ़ टोरि फांरि सकल वंद करि जगन्नाथ वस्तर पठै कै फेरि नवरंगपुर दे कै ओडिया राजा थापेरवजि। पुनि सकल पुरवासि लोग समेत दंतावला के कुटुम जात्रा करे सम्वत्‌ सत्रह सै साठि 1760 चैत्र सुदि 14 आरंभ वैशाष वदि 3 ते संपूर्न भै जात्रा कतेकौ हजार भैसा वोकरा मारे ते कर रकत प्रवाह वह पांच दिन संषिनी नदी लाल कुसुम वर्न भए। ई अर्थ मैथिल भगवान मिश्र राजगुरू पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।

रायपुर के कलचुरि शासक अमरसिंघदेव का कार्तिक सुदि 7 सं. 1792 (सन 1735) का आरंग ताम्रपत्रलेख का सम्‍मुख और पृष्‍ठ भाग, जिससे छत्‍तीसगढ़ की तत्‍कालीन दफ्तरी भाषा का अनुमान होता है।
यह ध्‍यान में रखते हुए कि लिखने और आम बोल-चाल की भाषा में फर्क स्‍वाभाविक है, संदर्भवश मात्र उल्‍लेखनीय है कि पुरानी छत्‍तीसगढ़ी के नमूनों में कार्तिक सुदी 5 सं. 1745 (सन 1688) का कलचुरि राजा राजसिंहदेव के पिता राजा तख्‍तसिंह द्वारा अपने चचेरे भाई रायपुर के राजा श्री मेरसिंह को लिखे पत्र (जिसकी नकल पं. लोचनप्रसाद पांडेय ने कलचुरि वंशज बड़गांव, रायपुर के श्री रतनगोपालसिंहदेव के माध्‍यम से प्राप्‍त की थी) और संबलपुर के दो ताम्रपत्रों (दोनों में 80 वर्ष का अंतर और जिसमें पुराना सन 1690 का बताया जाता है) का जिक्र होता है।

उज्‍ज्‍वल पक्ष है कि छत्‍तीसगढ़ी का व्‍यवस्थित और वैज्ञानिक व्‍याकरण सन 1885 में तैयार हो चुका था। जार्ज ग्रियर्सन ने भाषाशास्‍त्रीय सर्वेक्षण में इसी व्‍याकरण को अपनाते हुए इसके रचयिता हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय के उपयुक्‍त नामोल्‍लेख सहित इसे सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में अनूदित और सम्‍पादित कर प्रकाशित कराया। पं. लोचन प्रसाद पाण्‍डेय द्वारा, रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्‍याकरण को, सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार शासन के आदेश से सन 1921 में पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराया गया।

छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन के बाद न्यायालय श्रीमान न्यायाधिपति उच्च न्यायालय, जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के विविध क्रिमिनल याचिका क्र. 2708/2001 में याचिकाकर्ता श्रीमति हरित बाई, जौजे श्री मेमलाल, उम्र लगभग 30 वर्ष, साकिन ग्राम कुर्रू, थाना अभनपुर तह/जिला रायपुर (छ.ग.) विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन, द्वारा - थाना अभनपुर, तहसील व जिला रायपुर (छ.ग.) अपराध क्रमांक- 210/2001 में आवेदन पत्र अन्तर्गत धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता - 1973 अग्रिम जमानत बाबत, निम्नानुसार आदेश हुआ-
दिनांक 8.1.2002
आवेदिका कोति ले श्री के.के. दीक्षित अधिवक्ता,
शासन कोति ले श्री रणबीर सिंह, शास. अधिवक्ता
बहस सुने गइस। केस डायरी ला पढ़े गेइस
आवेदिका के वकील हर बताइस के ओखर तीन ठन नान-नान लइका हावय। मामला ला देखे अऊ सुने से ऐसन लागत हावय के आवेदिका ला दू महिना बर जमानत मा छोड़ना ठीक रही।
ऐही पायके आदेश दे जात है के कहुँ आवेदिका ला पुलिस हर गिरफ्तार करथे तो 10000/- के अपन मुचलका अऊ ओतके के जमानतदार पुलिस अधिकारी लंग देहे ले आवेदिका ला दू महीना बर जमानत मे छोड़ देहे जाय।
आवेदिका हर ओतका दिन मा अपन स्थाई जमानत के आवेदन दे अऊ ओखर आवेदन खारिज होए ले फेर इहे दोबारा आवेदन दे सकथे।
एखर नकल ला देये जाये तुरन्त

यहां एक अन्य शासकीय दस्तावेज, संयोगवश यह भी अभनपुर तहसील के कुर्रू से ही संबंधित है। इस अभिलेख में कानूनी भाषा और अनुवाद की सीमा के बावजूद बढि़या छत्‍तीसगढ़ी इस्‍तेमाल हुई है। यह तारीख 10/12/2007 बिक्रीनामा है, जिसे ''बीकरी-नामा'' लिखा गया है। इसी अभिलेख से-
बेचैया के नावः- 1/ चिन्ताराम उम्मर 65 बछर वल्द होलदास जात सतनामी रहवैया गांव जेवरा डाकघर- जेवरा थाना बेमेतरा अउ तहसील बेमेतरा जिला- दुरूग (छ.ग.)

परचा के नं -पी-202328

लेवाल के नावः- 1/ फेरूलाल उम्मर 65 बछर वल्द भकला जात -सतनामी रहवैया गांव पचेड़ा डाकघर - कुर्रू अउ तहसील - अभनपुर जिला- रायपुर (छ.ग.)।

बीकरी होये भुईंया के सरकारी बाजारू दाम बरोबर चुकाय गे हाबय। पाछु कहु बाजारू दाम कोनो कारन कम होही ते लेवाल ह ओला देनदार रईही बीकरी नामा मा सब्बो बात ल सुरता करके ईमान धरम से लिखवाये हावन लबारी निकले मा मै लेवाल देनदार रईही। बीकरी होय भुईंया हा शासन द्वारा भु दान म दे गे भुईंया नो हय। छ0ग0भू0रा0सं0 मा बनाये कानुन के धारा 165/6 अउ 165/7 के उलंघन नई होवत हे। सिलिंग कानुन के उलंघन नई होवत हे। बीकरी करे गे भुईंया हा- सीलींग अउ सरकारी पट्‌टा दार भुईंया नो है , बीकरी करे भुईंया मा कोनो जात के एकोठन रूख नईये। निमगा खेती किसानी के भुईंया आय। बीकरी करेगे भुमि मा तईहा जमाना से ले के आज तक खेती किसानी ही करे जावत हे। बीकरी शुदा भुईंया हा आज के पहीली कखरो मेर रहन या गहन नहीं रखे गेहे।

छत्तीसगढ़ी की वैधानिक स्थिति की चर्चा के पहले उसके मरम-धरम में रंगे-पंगे बद्रीसिंह कटरिया जी जैसे कुछ सुहृद-बुजुर्गों से सुनी बातें याद आती हैं-

ससुर खाना खाने बैठे, पानी-पीढ़ा जरूरी। बहू पहेली बुझाते अनुमति चाहती है-
‘बाप पूत के एके नांव, नाती के नांव अवरू।
ए किस्सा ल जान ले ह, तओ उठाह कंवरू।।
ससुर उसी तरह जवाब देते हैं-
जेकर पिए महिंगल होय, अउ चलावै घानी।
ए किस्सा ल जान ले ह, त ओ जाह पानी।
आशय कि खाना परोसते बहू देखती है कि पानी नहीं है, कहती है बाप और पूत का नाम एक (महुआ) मगर पोते का और कुछ (डोरी/टोरी- महुआ का फल), यह बूझ लें, तब कौर उठावें। ससुर जवाब में पहेली का हल उसी तरह बताते हुए पानी ले कर आने की अनुमति देते हैं कि जिसके पीने से व्यक्ति हाथी की तरह मतवाला हो जाता है (महुआ) और उसके लिए घानी चलती है (महुआ का फल-डोरी), यह बूझते पानी ले आओ।

बरसात, पनिहारिन और पानी पर बुझौवल है, जो कामुक नायक-नायिका के बीच हुए संवाद की तरह जान पड़ता है-
जात रहें तोर बर, भेंट डारें तो ला (छेंक ले हे मो ला)।
जाए दे तैं मो ला, ले आहंव तो ला।
बात कुछ इस तरह कि तुम्हारे लिए (पानी लेने के लिए) जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए, (बरसात ने) रास्ता रोक लिया, मुझे जाने दो गे, तो तुम्हें ले आऊंगी।

एक सवाल-जवाब इस तरह होता है-
‘दोसी अस न दासी, तैं का बर लगे फांसी।
नाचा ए न पेखन, तैं का ल आए देखन।
जिव जाही मोर, फेर मांस खाही तोर।‘
शिकारी ने बगुला फंसाने के लिए फिटका (फंदा) लगाया है और उसमें बतौर चारा, घुंइ को बांध रखा है। बगुला घुंइ को खाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, उसके मन में कुछ संदेह भी है, घुंइ से पूछता है कि तुम न दोषी हो न दासी, फिर इस तरह क्यों बंधी-फंसी हो। घुंइ जवाब देती है, यहां नाचा हो रहा है न पेखन (प्रेक्षण, कोई प्रदर्शन), फिर तुम क्या देखने चले आए और आगाह करती है, तुम मुझे खाना चाहते हो तो मेरी जान जाएगी, मगर (शिकारी) तुम्हारा मांस खाएगा।

शिकारी के जाल और पक्षियों का एक मार्मिक प्रसंग यह भी-
तीतुर फंसे, घाघर फंसे, तूं का बर फंस बटेर।
मया पिरित के फांस म आंखी ल दिएं लड़ेर।
शिकारी ने चिड़िया फंसाने के लिए जाल बिछाया। वापस आ कर देखता है कि उसमें तीतर, घाघर जैसी सामान्य आकार की चिड़िया फंस गईं हैं, मगर छोटे आकार का बटेर भी है, जो आसानी से जाल के छेद से बाहर निकल सकता था तो बटेर से पूछता है, तीतर-घाघर फंसे, लेकिन तुम कैसे फंस गए हो। साथ-साथ चरने वाले बटेर का जवाब कि तुम्हारे बिछाए जाल में नहीं, मैं तो साथी चिड़ियों के प्रेम-प्रीत में (कैसे साथ छोड़ दूं) आंखें बंद कर पड़ गया हूं।

छत्‍तीसगढ़ विधान सभा में शुक्रवार, 30 मार्च, 2001 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत छत्‍तीसगढ़ी बोली को छत्‍तीसगढ़ राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में शासकीय मान्‍यता दी जाए।'' तथा पुनः शुक्रवार, 13 जुलाई, 2007 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि छत्‍तीसगढ़ प्रदेश में बोली जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी भाषा को संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में मान्‍यता दी जाय।''

छत्‍तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम, 1957 (क्रमांक 5 सन् 1958), (मूलतः मध्‍यप्रदेश राजभाषा अधिनियम, जो अनुकूलन के फलस्‍वरूप इस तरह कहा गया है) में ''राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए राजभाषा'' में लेख है कि ''एतद्पश्‍चात् उपबंधित के अधीन रहते हुए हिन्‍दी, उन प्रयोजनों के अतिरिक्‍त, जो कि संविधान द्वारा विशेष रूप से अपवर्जित कर दिये गये हैं, समस्‍त प्रयोजनों के लिए तथा ऐसे विषयों के संबंध में, के अतिरिक्‍त जैसे कि राज्‍य-शासन द्वारा समय-समय पर अधिसूचना द्वारा उल्लिखित किये जाएं, राज्‍य की राजभाषा होगी।''
इसी राजपत्र में यह भी उल्‍लेख है कि ''मध्‍यप्रदेश आफिशियल लैंगवेजेज एक्‍ट, 1950 (मध्‍यप्रदेश की राजभाषाओं का अधिनियम, 1950) (क्रमांक 24, सन् 1950 तथा मध्‍यभारत शासकीय भाषा विधान, संवत् 2007 (क्रमांक 67, सन् 1950) निरस्‍त हो जाएंगे।''

छत्तीसगढ़ विधानसभा में 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी राजभाषा विधेयक पारित हुआ, इसके पश्‍चात शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 के छत्‍तीसगढ़ राजपत्र में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2007 को और संशोधित करने हेतु अधिनियम आया कि ''छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्‍त की जाने वाली भाषा के रूप में हिन्‍दी के अतिरिक्‍त छत्‍तीसगढ़ी को अंगीकार करने के लिए उपबंध करना समीचीन है.'' और इसके द्वारा मूल अधिनियम में शब्‍द ''हिन्‍दी'' के पश्‍चात् ''और छत्‍तीसगढ़ी'' अंतःस्‍थापित किया गया। इसमें यह भी स्‍पष्‍ट किया गया है कि- ''छत्‍तीसगढ़ी'' से अभिप्रेत है, देवनागरी लिपि में छत्‍तीसगढ़ी।'' सन 2013 में 11 जुलाई को ही शासन ने अधिसूचना जारी कर प्रतिवर्ष 28 नवंबर को ‘‘छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस‘‘ घोषित किया है।

तीन-एक साल पहले प्रकाशित पुस्‍तक, जिसमें ''दंतेवाड़ा के छत्‍तीसगढ़ी शिलालेख'' बताते हुए कोई अन्‍य चित्र, 1703 (शिलालेख का काल?, जो वस्‍तुतः सन 1702 है) अंक सहित छपा है।

नन्‍दकिशोर शुक्‍ल जी, पिछले चार-पांच साल में अपने निजी संसाधनों और संगठन क्षमता के बूते, लगातार सक्रिय रहते 'मिशन छत्‍तीसगढ़ी' के पर्याय बन गए हैं, कुछ गंभीर असहमतियों के बावजूद उनके ईमानदार जज्‍बे और जुनून का मैं प्रशंसक हूं।

दक्षिण भारत के मेरे एक परिचित ने मुझे अपने परिवार जन से छत्‍तीसगढ़ी में बात करते सुना तो यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्‌घोषणा के माध्यम से हुआ जितना ही है तब लगा कि अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम, अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है। विनोद कुमार शुक्‍ल जी की कहावत सी पंक्ति में- ''छत्‍तीसगढ़ी में वह झूठ बोल रहा है। लबारी बोलत है।'' तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्‍तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।

पुनश्‍चः
लगता है अखबार (16 अप्रैल 2012) की नजर इस पोस्‍ट पर पड़ी है।

इसका मुख्‍य अंश मेरी सहमति से, 19 अप्रैल 2012 को जनसत्‍ता, नई दिल्‍ली के संपादकीय पृष्‍ठ पर ब्‍लाग के उल्‍लेख सहित प्रकाशित हुआ है।

Tuesday, September 6, 2011

भाषा

सितम्‍बर का महीना। 14 तारीख आने में अभी समय है। हिन्‍दी दिवस पर कुछ बात कहने की पृष्‍ठभूमि में फिलहाल अन्‍य भाषाओं (और लिपि) से संबंधित फुटकर कुछ नोट, अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी (सन 1952) को बांग्ला युवाओं की शहादत का स्मरण करते हुए-

# ककहरा से शुरू करें। अंगरेजी (रोमन) अल्‍फाबेट के सभी 26 अक्षरों से बना छोटा सा सार्थक वाक्‍य, जो अब अधिकतर दिखता है, फान्‍ट के नमूने के लिए, पहले इसी वाक्‍य से टाइपराइटर सुधार के बाद ट्रायल होता था, आप परिचित जरूर होंगे लेकिन हमेशा मजेदार लगता है- The quick brown fox jumps over the lazy dog. ऐसा ही एक अन्‍य लोकप्रिय वाक्‍य है- Pack my box with five dozen liquor jugs और बिना दुहराव के, ठीक 26 अक्षरों वाला वाक्‍य- Mr. Jock, TV quiz PhD, bags few lynx है। टाइपराइटर कुंजीपटल की एक पंक्ति के अक्षरों को मिला कर सबसे लंबा सार्थक शब्द TYPEWRITER ही बनता है और उल्‍टा-सीधा एक समान के प्रचलित उदाहरण हैं- WAS IT A CAR OR A CAT I SAW. या A NUT FOR A JAR OF TUNA. इसी तरह हिन्‍दी में 'कोतरा रोड में डरो रात को।' (कोतरा रोड, रायगढ़, छत्‍तीसगढ़ में है.)

# संस्‍कृत में भाषा के कितने ही कमाल हैं, पहले पहल रामरक्षास्‍तोत्र के ''रामो राजमणिः सदा विजयते...'' से अकारांत पुल्लिंग कारक रचना का एकवचन याद करने का आइडिया जोरदार लगा था, उसी तरह एक अन्‍य प्रयोग जिसमें सवाल ही जवाब हैं-
प्रश्‍न- का काली अर्थात् काली वस्‍तु क्‍या है?
उत्‍तर- काकाली (काक+आली) कौओं की पंक्ति।
प्रश्‍न- का मधुरा अर्थात् मधुर क्‍या है?
उत्‍तर- काम धुरा (काम+धुरा) अर्थात् कामदेव का अनुग्रह वहन।
प्रश्‍न- का शीतलवाहिनी गंगा अर्थात् शीतलवाहिनी गंगा कौन है?
उत्‍तर- काशी-तल-वाहिनी गंगा अर्थात् काशी तल में प्रवाहित गंगा शीतल है।
प्रश्‍न- कं संजघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने किसको मारा?
उत्‍तर- कंसं जघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने कंस को मारा।
प्रश्‍न- कं बलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् किस बलवान को शीत नहीं बाधता?
उत्‍तर- कंबलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् कंबल वाले को शीत नहीं बाधता।

# कुछ नमूने देखिए-
हम बचपन में 'का ग द ही ना पा यो' का खिलवाड़ करते हुए का, काग, गदही, कागद, दही, ना, हीना, नापा, पायो, यो जैसे शब्द तोड़-मरोड़ करते थे। निराला जी ने 'ताक कमसिनवारि' को ताक कम सिन वारि, सिनवारि, ता ककमसि, नवारि, कमसिन, कमसिननारि आदि में तोड़ने का प्रयोग किया है। THE PEN IS MIGHTIER THAN THE SWORD वाक्य के शब्द PENIS, THIS, WORD, TEAR, SWARD, MIGHTY, EARTHEN, बन कर कई अर्थछटाएं बनती हैं। यह उद्धरण ऐसी-वैसी जगह से नहीं, अज्ञेय के संग्रह शाश्‍वती में ऐसे और भी नमूनों सहित यह VARIORUM शीर्षक से है।

# एक नमूना यह भी-
i cdnuolt blveiee taht I cluod aulaclty uesdnatnrd waht I was rdanieg. The phaonmneal pweor of the hmuan mnid, aoccdrnig to a rscheearch at Cmabrigde Uinervtisy, it dseno't mtaetr in waht oerdr the ltteres in a wrod are, the olny iproamtnt tihng is taht the frsit and lsat ltteer be in the rghit pclae. The rset can be a taotl mses and you can sitll raed it whotuit a pboerlm. Tihs is bcuseae the huamn mnid deos not raed ervey lteter by istlef, but teh wrod as a wlohe. Azanmig huh? yaeh and I awlyas tghuhot slpeling was ipmorantt! can you raed tihs?

अंगरेजी में स्‍पेलिंग और प्रूफ की गलतियों के लिए और क्‍या कहें? हां! याद आ रहा है, 1980 के दौरान 'हिंदी एक्‍सप्रेस' पत्रिका निकलनी शुरू हुई, जिसके पहले अंक का एक उद्धरण- 'पत्रिका में सबकी रुचि का ध्‍यान रखा गया है, प्रूफ की भूलें भी हैं, क्‍योंकि कुछ लोगों की रुचि सिर्फ इसी में होती है।'

# मोड़ी या मुडि़या लिपि के उदाहरण एक वाक्‍य में 'सेठजी अजमेर' को 'सेठजी आज मर', 'रुई ली' को 'रोई ली' और 'बड़ी बही' को 'बड़ी बहू' पढ़ने की बात बताई जाती है। तात्‍पर्य ''सेठजी का अजमेर शहर जाना, रुई लेना-खरीदना और बही-खाता भेजना'' का समाचार सेठ जी के मरने, रो लेने और बड़ी बहू को भेजने का संदेश बन जाता है। कहा जाता है कि यह गड़बड़ मात्रा न लगाने या कम लगाने के कारण होती थी, अगर रोमन के उदाहरण से अनुमान लगाएं तो ए, ई, आई, ओ, यू का इस्‍तेमाल किए बिना लेखन की तरह।

# सन 1880 में यूरोप और एशिया से हजारों लोग 'हवाई' के शक्‍कर कारखानों में काम करने के लिए लाए गए। अप्रवासियों में अधिकांश चीनी, जापानी, कोरियाई, स्‍पेनी व पुर्तगाली थे, जो न तो मालिकों की अंगरेजी समझ पाते थे न ही मूल हवाई निवासियों की भाषा। पुरुष काम में तो महिलाएं चूल्‍हा-चौकी में लगी रहतीं। भाषा के लिए किसी के पास समय कहां?, लेकिन बच्‍चों का काम कैसे चले। आपसी समझ के लिए पहले तो अशुद्ध खिचड़ी अंगरेजी प्रयुक्‍त होती रही लेकिन 25-30 साल बीतते, नई पीढ़ी आ जाने पर, विशिष्‍ट अजनबी सी भाषा विकसित हो गई। इस भाषा, वर्तमान हवाई क्रिओल में द्वीपवासियों की सभी मूल भाषाओं के शब्‍द हैं किन्‍तु इसके व्‍याकरण की साम्‍यता अन्‍य से किंचित ही है।

हवाई विश्‍वविद्यालय के भाषाशास्‍त्र के प्रो. डेरेक बिकर्टन ने इस भाषा के तीव्र विकास का अध्‍ययन किया है और वे अपनी पुस्‍तक Roots of Language में इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह भाषा पूरी तरह से बच्‍चों के खेल की उपज है। बिकर्टन के अनुसार उनके पालकों के पास भाषा समझने-सीखने का वक्‍त नहीं था और वह जबान भी नहीं जिसे वे अगली पीढ़ी को दे सकते। वे यह भी इंगित करते हैं कि निश्‍चय ही आरंभ में पालक भी इस नई भाषा को समझ सकने में असमर्थ रहे, उन्‍होंने भी यह भाषा अपनी नई पीढ़ी से सीखी। दुनिया की एकमात्र ज्ञात भाषा, जो बड़ों ने बच्‍चों से सीखी। भाषा हमेशा किसी की बपौती हो, जरूरी नहीं। वैसे भी भाषा तो मातृभाषा होती है।

दूसरी तरफ भाषाशास्‍त्री गणेश देवी का कथन- 'हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है, जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं।' और वेरियर एल्विन 1932-35 की अपनी डायरी में तटस्‍थ दिखते हुए फिक्रमंद जान पड़ते हैं, इन शब्‍दों में- 'मंडला जिले के गोंड, बड़ी सीमा तक अपना कबीलापन खो चुके थे। वे अपनी भाषा खो चुके थे।'

एक और बात, पापुआ-न्यू गुयाना की, लगभग 452000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में निवास करने वाली कोई 70 लाख आबादी, 850 से अधिक भाषाएं इस्तेमाल करती है, जिसमें एक इशारों वाली 'भाषा' भी है। भाषाई विविधता की दृष्टि से इसके मुकाबले और कोई नहीं।

# शायद नवनीत पत्रिका में कभी प्रकाशित हुआ- भाषावैज्ञानिक अध्‍ययन का एक निष्‍कर्ष, सामान्‍यतः माता-गृहिणी का शब्‍द भंडार 4000 शब्‍दों का होता है। टिप्‍पणी- "इतनी कम लागत और इतना बड़ा कारोबार।"

महिलाओं से क्षमा सहित, आशय कि सोच रहा हूं- ब्‍लागरों के मामले में यह बात किस तरह लागू होगी। क्षमा पर्व का माहौल है, ब्‍लागरों से क्षमा सहित।

Monday, April 4, 2011

चाल-चलन

शास्‍त्र वचन चरैवेति, चलते रहो... को अपनाया गांधीजी ने, दाण्‍डी यात्रा की और उनकी चाल ने कितने ही कमाल किए। उन्‍होंने कहा- पैदल चलना कसरतों की रानी है। बाद में यही बात शुभचिंतकों ने कही, फिर डॉक्‍टरों ने। अब तो शुरू करना ही होगा, सोचकर लेने गए टी-शर्ट और जूता। लेकिन यह क्‍या, प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः। 'थीम टी-शर्ट' धारण करने से पहले ही किसी ने टोक दिया- सतजुगी चरैवेति और एकला चलो के दिन लद गए, अब एसी जिम के ट्रेडमिल पर वॉक का जमाना है। 'कीप वॉकिंग' का तर्ज, गांधी का ही क्‍यों न हो, अब 'राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला' हो गया है। आप खु्द समझदार हैं, आगे चले चलिए ...

गांधी और नशे से जुड़ी एक और बात। छत्‍तीसगढ़ में गुणवत्‍तापूर्ण विदेशी शराब का व्‍यापार और सरकार के लिए राजस्‍व अर्जन के उद्देश्‍य से गठित इकाई का एक समाचार था- मुख्यमंत्री ने छत्तीसगढ़ स्टेट बेवरेजेस कार्पोरेशन के नशा मुक्त जीवन जीने का संदेश देने वाले पोस्टरों का विमोचन किया।

समाचार में आगे है- वाणिज्यिक कर मंत्री ने मुख्यमंत्री को बताया कि पिछले वित्तीय वर्ष में कार्पोरेशन को 29 करोड़ रूपए का लाभ अर्जित हुआ है। शराब से राजस्‍व/लाभ अर्जन वाली संस्‍था द्वारा नशा मुक्ति के विज्ञापन का विपर्यय, अनूठा प्रयास है।

इस इकाई का काम विदेशी शराब से जुड़ा है, नाम भी अंगरेजी है। इसका हिंदी नाम शायद है नहीं, होगा तो प्रचलित कतई नहीं। कारण जान पड़ता है कि दारू या शराब के बजाय मदिरा/मादक पेय/बेवरेज कहना शालीन लगता है, जैसे गुप्‍तांग और उससे जुड़ी क्रिया-प्रक्रियाओं के लिए ठेठ बानी को अश्‍लील, अमर्यादित और भदेस मान कर इसके बजाय संस्‍कृत, उर्दू या अंगरेजी के पर्यायवाची का इस्‍तेमाल किया जाता है।

टी-शर्ट से आगे बढ़े, चाल बहकी लगे तो माफ करें और आएं 'वॉक' के लिए जरूरी जूते पर। पढ़े-लिखों की तरह अब हम भी समझदार हो गए हैं। हां, बचपन की बात कुछ और थी, ज‍ब कहीं किसी कापी-किताब या कागज के टुकड़े पर भी पैर पड़ जाए, उस पर अक्षर हों, कुछ लिखा-छपा हो तो उसे माथे से लगाते थे। अब बचपना नहीं रहा हम पढ़े-लिखे समझदार हो गए, मुक्‍त कर लिया है अपने को इन रूढि़यों और संस्‍कारों से। देखिए यह जूता, चप्‍पल या कह लें पादुका और 'वेलकम' से स्‍वागत करता पांवदान।

बाल मन परेशान है, जो जूता पसंद आ रहा है, उस पर देश का नाम, अक्षर-भाषा और पूरी राष्‍ट्रीयता यानि हमारे राष्‍ट्र ध्‍वज जैसा ही तिरंगा भी बना है। फिर 'वेलकम' पांवदान और एक प्‍यूमा इंग्‍लैण्‍ड चप्‍पल ही नहीं यहां तो पूरी श्रृंखला है।

पढ़ाई-लिखाई सब जूती की नोक पर और सारी राष्‍ट्रीयता पैरों तले। समझदार मन ने जमा-नामे शुरू किया। क्‍या इंग्‍लैण्‍ड प्‍यूमा चप्‍पल हमारी कुंठा को राहत देने के लिए है। यह भी जुड़ रहा है कि प्‍यूमा, जर्मन बहुराष्‍ट्रीय कंपनी है। वही जर्मनी, जिसके इतिहास से आप परिचित हैं ही, याद कीजिए, जर्मन कुत्‍ते की नस्‍ल इंग्‍लैण्‍ड आई तो जर्मन शेफर्ड नाम तक से परहेज हुआ और नामकरण हुआ अलसेशियन।

समझदार मन, बाल मन को अपने साथ चला ले रहा है- सुबह-सबेरे पैदल चल कर स्‍वस्‍थ्‍य बने रहने के बजाय शहर के अंदेशे से काजी जी ही क्‍यों दुबले हों, पंडित विचार करें, क्‍या चरैवेति का अर्थ 'सब चलता है' नहीं निकाला जा सकता।

उत्‍पादों और उनमें समानता की जानकारी अनुपम से और कुछ चित्र गूगल से साभार

पुनश्‍चः

इस संदर्भ में मई 2011 के पहले सप्‍ताह में आस्‍ट्रेलियन फैशन वीक में लीसा बुर्क के लक्ष्‍मी चित्रांकित स्विम सूट प्रदर्शित करने की ताजी घटना, सन 2005 में राम के चित्र वाले मिनेली जूतों के विवाद की याद दिलाती है।