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Saturday, August 22, 2015

राजा फोकलवा


'राजा फोकलवा', नाटक के केन्द्रीय पात्र फोकलवा के राजा बन जाने की कहानी है। पूरे नाटकीय पेंचो-खम के साथ इस लोक कथा का प्रवाह महाकाव्यीय परिणिति तक पहुंचता है। फोकलवा अलमस्त, बेलाग और फक्कड़ है, दीन बेबस-सी लेकिन ममतामयी, स्वाभिमानी मां का इकलौता सहारा। इस चरित्र में राजसी लक्षण आरंभ से हैं, नेतृत्व, चुनौतियों का सामना करने का साहस, अपने निर्णय के क्रियान्वयन की इच्छा-शक्ति और उसके बालहठ में राजहठ की आहट भी। उसमें कुटिल चतुराई है तो बालमन की नादानी और निर्भीकता के साथ खुद को धार में झोंक देने का दुस्साहसी आत्मविश्वास भी। आम इंसानी कमी-खूबियों वाले इस चरित्र में विसंगत ट्रिगर होने वाला व्यवहार, कहानी में नाटक के रंग भरता है और यह चरित्र आत्मीय न बन पाने के बावजूद दर्शक की सहानुभूति नहीं खोता।

एक दिव्य सुंदर साड़ी और आभूषण- 'तोड़ा' जोड़े के प्रपंच में बार-बार नाटकीय मोड़ बांधे रखता है, दर्शक जैसे ही राग-विभोर होता है, 'सीन' में डूबता है, लय बदल जाती है। मधुरता कैसी और कितनी भी हो, देर तक बने रहने पर एकरसता बन जाती है। कहा जा सकता है कि कहानी में 'हू मूव्ड' वाले 'चीज' का ध्यान रखना, नाटककार के लिए भी अच्छा होता है। नाटक में अप्रत्याशित मोड़, बार-बार चमत्कृत करता है, रिमोट से चैनल-बदल के इस दौर की शायद एक आवश्यकता यह भी है, लेकिन पिछले प्रिय के छूट जाने पर नया बेहतर पाने की चाह दर्शक में जगाना और इस चाहत को पूरा कर पाना, नाटककार के लिए चुनौती होती है और यहां इसे बखूबी निभा लिया गया है।

अभिनेता की सब से बड़ी सफलता है, यदि लगे कि नाटक का चरित्र, उसे देख कर गढ़ा गया है, नायक हेमंत का 'अभिनय' इतना ही स्वाभाविक होता है, कि लगता है, वह इस पात्र से अलग कुछ हो ही नहीं सकता। यवनिका पात पर लगभग प्रत्येक दर्शक प्रशंसा भाव सहित फोकलवा को मंच-परे, उसकी वास्तविकता में देखना, देखे पर विश्वास-अविश्वास के द्वंद्व से उबरना चाहता है। इस चरित्र में नाचा के जोक्कड़ की छाप तो है ही, लेकिन यह हंसाने वाला विदूषक-मात्र नहीं, जिम्मेदार व्यंगकार जैसा भी है। छत्तीसगढ़ी की पहली और उस पूरे दौर की सबसे लोकप्रिय वीडियो फिल्म राकेश तिवारी की ही 'लेड़गा ममा' के नायक की झलक भी इस फोकलवा में है। पारंपरिक लोक-नाट्‌य के कलाकारों की सहजता, प्रत्युत्पन्न-मति और प्रतिभा, नाटक में सहज प्रवाहित है। वैसे भी आरंभिक मंचनों में इस नाटक की व्यवस्थित और पूरी लिखित कोई स्क्रिप्ट नहीं थी, शायद अब भी नहीं है, इससे नाटक की अनगढ़ता कभी इसकी कमजोरी लगती है तो कभी मजबूती और इसी से यह संभव होता है कि लगभग एक घंटे के इस नाटक की अवधि घटाई-बढ़ाई जा कर आसानी से आधी-दूनी हो जाती है।

गीत-संगीत, नाटक का प्रबल पक्ष है। पारंपरिक धुनों और गीतों का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। परम्परानुकूल गणेश-वंदना के साथ करमा, ददरिया, बिहाव-भड़ौनी, राउत, देवार गीतों का प्रसंगानुकूल संयोजन, एक ओर दृश्य-स्थापन में सहायक होता है, नाटक को गति देता है, वहीं छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा की झलक भी दे देता है। 'फोकलवा के फो फो' शीर्षक गीत मन में बस जाने वाला है और नाटक पूरा होने के बाद भी कानों में गूंजता रहता है। यह सब इसीलिए संभव हुआ है कि लोककथा पर आधारित इस नाटक का लेखन, गीत, संगीत, गायन, निर्देशन एक ही व्यक्ति का है।

नाटक की भाषा की बात करें तो इस छत्तीसगढ़ी नाटक का प्रदर्शन दिल्ली में कुछ विदेशी दर्शकों के सामने हुआ, कलकत्ता के पास धुर बंगला दर्शकों ने भी इसे देखा और अन्य भाषा-भाषियों ने भी, लेकिन नाटक पूरा होने के बाद की प्रतिक्रिया ने हर बार तय किया कि इस नाटक की छत्तीसगढ़ी, अन्य को भी सहज ग्राह्य है। इस नाटक के किसी प्रदर्शन में मेरे साथ एक दर्शक, छत्तीसगढ़ी-अपरिचित, ठेठ हिन्दीभाषी थे, उन्होंने इस नाटक का पूरा आनंद उठाया। दो-तीन महीने बाद छत्तीसगढ़ी के सुगम-सुबोध होने की बात पर वे असहमत हुए तो मैंने राजा फोकलवा का जिक्र किया, उन्होंने याद करते हुए मानों खुद से सवाल किया- अच्छा, वह नाटक छत्तीसगढ़ी में था। इस संदर्भ में स्वाभाविक ही नया थियेटर और हबीब तनवीर याद आते हैं। नाचा शैली के उनके कई छत्तीसगढ़ी नाटकों ने भाषाई हर सीमा लांघते हुए देश-विदेश में धूम मचाई थी। यह भी उल्लेखनीय है कि इस नाटक के शुरुआती दौर में अपने रायपुर प्रवास के दौरान हबीब जी ने एक विशेष आयोजन में इसे देख कर, निर्देशक राकेश और नायक हेमंत की पीठ थपथपाई, आंखों में प्रशंसा-भाव की चमक थी लेकिन लगा कि उनके मन में है- काश, यह मैं खेलता।

यह कृति तिवारी जी की बहुमुखी प्रतिभा का सक्षम प्रतिनिधि है। इसकी कहानी मैंने पहले-पहल उन्हीं से सुनी थी और जब उन्होंने बताया कि वे इसे नाटक रूप देने वाले हैं, उनकी प्रतिभा का कायल होने के बावजूद, तब यह मुझे असंभव लगा था, लेकिन नाटक की पहली प्रस्तुति देखने के बाद मेरे लिए तय करना मुश्किल हो गया कि वे बेहतर नाटककार हैं या किस्सागो। संगीतकार, गीतकार, गायक या निर्देशक। इसके बाद मैंने इसकी दसियों प्रस्तुतियां देखी हैं, हर बार उतनी ही जिज्ञासा और रोमांच के साथ। राजा फोकलवा की सौवीं प्रस्तुति होने वाली है, इस मौके पर अब बस इतना कि इसकी शतकीय प्रस्तुति को तो देखना ही चाहूंगा और शायद आगे भी सौ बार देखना मेरे लिए अधिक न होगा।

टीप- 'राजा फोकलवा' नाटक का 100 वां मंचन, महंत घासीदास संग्रहालय परिसर, रायपुर में आज 22 अगस्‍त 2015 को. इस अवसर पर प्रकाशित स्‍मारिका में मेरा लेख.

Thursday, February 28, 2013

विजयश्री, वाग्‍देवी और वसंतोत्‍सव

शुक्र मनाया जाता, यदि वसंत पंचमी शुक्रवार को न होती, लेकिन हर साल तो ऐसा नहीं हो सकता, इस साल भी नहीं हुआ, यानि वसंत पंचमी हुई 15 फरवरी, ऐन शुक्रवार को। ऐसा हुआ नहीं कि मालवा और पूरे देश की निगाहें धार की ओर होती हैं। यहां सरस्‍वती-पूजन और नमाज पढ़ने की खींचतान में हमारी विरासत के रोचक पक्ष ओझल रह जाते हैं।

मालवा के परमार राजाओं की प्राचीन राजधानी धारानगरी यानि वर्तमान धार के कमालमौला मस्जिद को प्राचीन भोजशाला की मान्‍यता मिली है। उल्लेख मिलता है कि राजा भोज द्वारा संस्कृत शिक्षा के लिए स्थापित केन्द्र के साथ सरस्वती मंदिर भी था। धार के पुराने महल क्षेत्र के मलबे से प्राप्त तथा ब्रिटिश म्यूजियम में संग्रहित वाग्देवी सरस्वती की अभिलिखित प्रतिमा की पहचान भोज की सरस्वती के रूप में हुई। यहां से व्याकरण नियम, वर्णमाला के सर्पबंध शिलालेख प्राप्त हुए हैं और यह भोज का मदरसा भी कहा जाने लगा।

सन 1902-03 में यहां कमालमौला मस्जिद के मेहराब से खिसककर निकले, औंधे मुंह लगे 5 फुट 8 इंच गुणा 5 फुट का अभिलिखित काला पाषाण खंड मिला। 82 पंक्तियों के संस्कृत और प्राकृत भाषा वाले शिलालेख में 76 श्लोक तथा शेष भाग गद्य है। लेख, वस्तुतः चार अंकों वाली नाटिका 'पारिजात मंजरी' या 'विजयश्री', जो दो पत्‍थरों पर अभिलिखित थी, का पहला हिस्‍सा है। इसके साथ ऐसा ही एक और शिलालेख मिला लेकिन वह इसका जोड़ा नहीं बल्कि 'कूर्मशतक' प्राकृत काव्‍य उकेरा पत्‍थर है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उदार अफसोस जताया था- ''अनुमान किया गया है कि बाकी के दो अंक भी निश्चय ही उसी इमारत में कहीं होंगे, यद्यपि मस्जिद के हितचिंतकों के आग्रह से उनका पता नहीं चल सका।'' बहरहाल, नाटिका 13 वीं सदी ईस्‍वी के राजगुरु मदन उर्फ बाल सरस्वती की रचना है।
शिलालेख के आरंभ और अंत की चार-चार पंक्तियां
नाटिका के पात्र सूत्रधार, नटी, राजा अर्जुनवर्मन, विदूषक विदग्ध, रानी सर्वकला, उसकी सेविका कनकलेखा, राजमाली कुसुमाकर, उसकी पत्नी वसंतलीला तथा नायिका पारिजात मंजरी या विजयश्री है। नाटिका में राजा, सूत्रधार और कुसुमाकर संस्कृत बोलते हैं, अन्य पात्र गद्य में प्राकृत-शौरसेनी एवं पद्य में महाराष्ट्री इस्‍तेमाल करते हैं। नेपथ्य गायन की भाषा प्राकृत, लेकिन अंतिम अंश में संस्‍कृत है। उल्लेख है कि नाटिका, वसंतोत्सव (चैत्रोत्सव, मधूत्सव, चैत्रपर्व) के अवसर पर धारा नगरी में सरस्वती मंदिर (शारदा देवी सदन, भारती भवन) में खेली गई। नाटिका के पहले अंक का शीर्षक 'वसंतोत्‍सव' तथा दूसरे का 'ताडंकदर्पण' है।

परमार वंश के शासक भोजदेव के वंशज अर्जुन को लेख में भोज का अवतार कहा गया है और वही नाटिका के नायक और इस प्रशस्ति के राजा अर्जुनवर्मन हैं। अर्जुनवर्मन द्वारा जयसिंह को पराजित करने की ऐतिहासिक घटना नाटिका का कथानक है। पराजित राजा गुजरात के चालुक्‍य भीमदेव द्वितीय का उत्‍तराधिकारी ऐतिहासिक जयसिंह, अभिनव सिद्धराज है। बताया गया है कि युद्ध में विजय प्राप्त गजारूढ़ अर्जुनवर्मन पर पुष्प वर्षा होती है और पारिजात मंजरी उन्हें छूते ही एक सुन्दर युवती में परिणित हो जाती है, आकाशवाणी होती है कि भोजतुल्य ओ धार के स्वामी इस विजयश्री को स्वीकार करो। यह युवती, चालुक्य राजा की पुत्री है, जो देवी जयश्री की अवतार है। नाटिका में नटी से कहलाया जाता है- कैसी दिव्य मानुषी कथा है।

अर्जुनवर्मन, इस नायिका विजयश्री को माली कुसुमाकर व उसकी पत्नी वसंतलीला की निगरानी में धारागिरि के आमोद उद्यान में रखता है। रानी सर्वकला द्वारा आयोजित आम वृक्ष और माधवी लता का विवाह आयोजन देखने राजा, विदूषक के साथ आमोद उद्यान में जाता है। वसंतलीला और नायिका पेड़ की आड़ से आयोजन देखते रहते हैं। रानी के कर्णाभूषण में राजा नायिका की छवि देखता है। रानी को संदेह होता है। वह आयोजन छोड़कर अपनी सेविका के साथ चली जाती है। इधर जाऊं या उधर जाऊं, मनोदशा में अपराध-बोधग्रस्‍त किंकतर्व्‍यविमूढ़ राजा को विदूषक सुझाता है ''एक हो या अधिक, अपराध तो अपराध है'' यह सुनकर राजा विदूषक के साथ नायिका के पास जाता है। कनकलेखा रानी के कर्णाभूषण सहित व्यंगात्मक संदेश लाती है। राजा नायिका को छोड़कर रानी के पास वापस लौटता है। नायिका प्राण त्‍यागने की बात कहती है। मध्‍यांतर।

संस्‍कृत साहित्‍य में चित्रकाव्य की लाजवाब समृद्ध परम्‍परा रही है। यहां भी श्लेष, रूपक, शब्‍द साम्‍य और संयोग के चमत्‍कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। इतिहास और दंतकथाओं दोनों में एक समान महान और लोकप्रिय शायद राजा भोज जैसा कोई और नहीं। राजा भोज के साथ प्रयुक्‍त गंगू, माना जाता है कि उससे युद्ध में पराजित राजा गांगेयदेव है और तेली को कल्‍याणी के चालुक्‍य राजा तैल (तैलप) के साथ समीकृत किया जाता है। इस शिलालेख में भोज को कृष्‍ण और अर्जुन भी कहा गया है और गांगेय में श्‍लेष है, त्रिपुरी के कलचुरि राजा गांगेयदेव और अर्जुन से पराजित गंगा पुत्र भीष्‍म का। अर्जुनवर्मन अपने जिस मंत्री पर पूरा भरोसा करते हैं, उसका नाम (नर-) नारायण है। कवि मदन उर्फ बाल सरस्‍वती की रचना यह नाटिका सरस्‍वती मंदिर में, सरस्‍वती पूजा वाले वसंतोत्‍सव या मदनोत्‍सव पर खेली जा रही है। नाटिका के पात्रों में विदूषक विदग्ध है। रानी सर्वकला, कुंतल की है और उसकी सेविका का नाम कनकलेखा है। राजमाली कुसुमाकर है तो उसकी पत्नी का नाम वसंतलीला है। नायिका 'पारिजात मंजरी' (स्‍मरणीय- 'पारिजात' समुद्र मंथन का रत्‍न, दिव्‍य पुष्‍प है) या विजय से उपलब्‍ध गुर्जर 'विजयश्री' है। होयसल राजकुमारी सर्वकला और चालुक्‍य राजकुमारी विजयश्री का द्वंद्व और इनसे परमारों के राग-द्वेष के कई कोण उभरते हैं। लगता है कि पूरी नाटिका वसंत ऋतु, फूल-फुलवारी और मदनोत्‍सव का रूपक है। नटी का कथन पुनः उद्धरणीय- ''कैसी दिव्‍य-मानुषी कथा है।''

नाटक के क्‍लाइमेक्‍स जैसा मध्‍यांतर। आगे दो अंकों में क्‍या होगा, दूसरे पत्‍थर के मिलने तक थोड़ा सिर खुजाएं, सोचें-सुझाएं। शायद मान-मनौवल के साथ विजयश्री की स्‍वीकार्यता हो और फिर वसंत उत्‍सव के साथ सुखांत समापन। नाटिका में स्त्री एवं पुरुष पात्रों के कामभाव से समृद्ध श्रृंगाररसात्मक व्यापार वाली ‘कैशिकी‘ वृत्ति होती है, जिसमें स्त्री-पात्रों की अधिकता और श्रृंगार प्रधान रस होता है। नायिका का नायक के अंतःपुर से सम्बद्ध होना तथा नवानुरागवती कन्या होना अपेक्षित होता है, इसमें नायक राजा का नायिका के प्रति रतिभाव देवी अथवा राजमहिषी के भय से अनुविद्ध रूप से प्रकाशित किया जाता है, यहां देवी से अभिप्राय राजकुल में उत्पन्न किंवा प्रगल्भा प्रकृति वाली राजरानी से है जो कि पग पग पर मान करती चित्रित की जाती है तथा जिसकी अनुकम्पा पर ही नायक और नायिका का प्रेम मिलन वर्णित हुआ करता है। यहां भी नाटिका और प्रशस्ति की परतों में श्लेष, रूपक, शब्द साम्य और संयोग के चमत्कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। यह नाटिका है ही, प्रशस्ति भी, सूचना सहित कि यह 'नवरचित नाटिका की पहली प्रस्‍तुति है', इस तरह उसका प्रतिवेदन भी। शिलालेख के पहले भाग, इस पत्‍थर के अंतिम श्लोक 76 पर लेख है, जैसा आम तौर पर अभिलेखों के अंत में होता है, कि यह प्रशस्ति रूपकार सीहाक के पुत्र शिल्पी रामदेव द्वारा उत्कीर्ण की गई, मानों आशंका हो कि दूसरा पत्‍थर मिले न मिले।

दर्शक कौन रहे होंगे इस नाटिका के? इसका जवाब मिल जाता है नाट्यशास्‍त्र से, जिसमें बताया गया है कि द्रष्‍टा को उहापोह में पटु (क्रिटिकल?), होना चाहिए। अच्‍छा प्रेक्षक सद्गुणशील, शास्‍त्रों और नाटक के छः अंगों का जानकार, चार प्रकार के आतोद्य वाद्यों का मर्मज्ञ, वेशभूषा और भाषाओं का ज्ञाता, कला और शिल्‍प में विचक्षण, चतुर और अभिनय-मर्मज्ञ हो तो ठीक है (बात शास्‍त्रों की है जनाब! यह) हिसाब लगा रहा हूं आधे से दूने का, कि नाटक अब छपे तो कितने पेज की पुस्‍तक होगी और खेला जाए तो उसकी अवधि कितनी होगी। न मिले उसे बैठै-ठाले खोजने का भी अपना ही आनंद होता है। कभी लगता है कि शिलाखंड पर उत्‍कीर्ण इस साहित्‍य को वैसा सम्‍मान नहीं मिला, शायद इसका जोड़ा, दूसरा हिस्‍सा इसीलिए अभी तक रूठा, मुंह छिपाए है। शिलालेख का पत्‍थर मिला था यहां के शिक्षाधिकारी 'के.के. लेले' को, यह नाम भी कम अनूठा नहीं।

इस नाटिका के बारे में पहले-पहल हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध से जाना, फिर एपिग्राफिया इण्डिका में प्रो. हुल्‍त्‍श का विस्‍तृत लेख और त्रिवेदी जी वाला कार्पस इंस्क्रिप्‍शनम इंडिकेरम देखा। इसकी फिर से चर्चा पिछले दिनों भिलाई-कोलकाता वाली डॉ. सुस्मिता बोस मजूमदार ने की, बताया कि वे इस पर गहन अध्‍ययन कर रही हैं, उन्‍हें संस्‍कृत-प्राकृत का अभ्‍यास भी है। मैंने पुराने संदर्भ फिर से खंगाले, कुछ मिला, कुछ नहीं। इस मामले में मैं पक्‍का खोजी हूं, जिसे सच्‍चा सुख खोजने में मिलता है, कुछ मिल जाए तो वाह, न मिले तो वाह-वाह। इससे संबंधित कुछ महत्‍वपूर्ण अध्‍ययन और टीका सुस्मिता जी ने उपलब्‍ध करा दी। भोज विशेषज्ञ उज्‍जैन वाले डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी ने फोन पर बताया है कि पद्मश्री वि.श्री. वाकणकर के चाचा इतिहास अधिकारी श्री अनन्‍त वामन वाकणकर ने पारिजात मंजरी का हिन्‍दी अनुवाद किया था, जो वाकणकर शोध संस्‍थान से प्रकाशित है, इसकी प्रति अब तक मिली नहीं, प्रयास कर रहा हूं।

महीने में चार पोस्‍ट का अपना नियम टूटा, क्‍योंकि डेढ़ महीने से पारिजात मंजरी के साथ वसंत मना रहा हूं और फागुन तक जारी रखने का इरादा है। कुछ तो होंगे जो वसंत में मदन-दग्‍ध न हों, वे इस सूचना से ईर्ष्‍या-दग्‍ध हो कर वसंतोत्‍सव मना सकते हैं।
20 फरवरी 2013 को नवभारत के संपादकीय पृष्‍ठ 4 पर प्रकाशित

Monday, October 8, 2012

शेष स्मृति

2 अक्टूबर, नाटक और खास कर बिलासपुर से जुड़े लोगों के लिए, डॉ. शंकर शेष की जयंती के रूप में भी याद किया जाता है (यही यानि 2 अक्‍टूबर डॉ. शेष की पत्‍नी श्रीमती सुधा की जन्‍मतिथि है) और यह बीत जाए तो अक्टूबर की ही 28 तारीख उनकी पुण्यतिथि है। डॉ. शेष (1933-1981) के साथ बिलासपुर के नाटकीय इतिहास-थियेटर की यादें भी दुहराई जा सकती हैं।
डॉ. शंकर शेष
भागीरथी बाई शेष
बिलासपुर से जुड़ा बिलासा का किस्सा इतिहास बनता है, भोसलों और भागीरथी बाई शेष (1857-1947) के नाम के साथ। पति पुरुषोत्तम राव के न रहने पर निःसंतान मालगुजारिन भागीरथी बाई को उत्तराधिकारी की तलाश थी। बात आसान न थी लेकिन पता लगा कि उन्हीं के परिवार के भण्डारा निवासी विनायक राव पेन्ड्रा डाकघर में कार्यरत हैं। वसीयतनामा तैयार हो गया। कहानी, इतिहास बनी।

1861 में पृथक जिला बने बिलासपुर में रेल्वे के लिए जमीन की जरूरत हुई। उदारमना भागीरथी बाई जमीन दान देने को तैयार हुई, किन्तु अंगरेजों को 'देसी का दान' मंजूर नहीं हुआ और बताया जाता है कि 1885 में तत्कालीन मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर सर चार्ल्स हाक्स टॉड ने बिलासपुर रेलवे स्टेशन और रेलवे कालोनी के लिए 139 एकड़ जमीन के लिए 500 रुपए मुआवजा दे कर बिक्रीनामा लिखाया।

विनायक राव की पत्नी सीताबाई थीं, उनके तीन पुत्रों में बड़े नागोराव हुए, जो उसी बिक्रीनामा के आधार पर भू-वंचित माने जा कर रेलवे में क्लर्क नियुक्त हुए। नागोराव की पहली पत्नी जानकीबाई और दूसरी पत्नी सावित्री बाई थीं।
सावित्री बाई नागोराव शेष
दूसरी पत्नी के पुत्रों में बड़े बबनराव, फिर बालाजी, तीसरे (डॉ.) शंकर (शेष), उसके बाद विष्णु और सबसे छोटे गोपाल हुए। नागोराव (निधन- 17 दिसम्‍बर 1960), जिनके नाम पर जूना बिलासपुर का पुराना स्कूल है, रेलवे में क्लर्क रहे, लेकिन सोहराब मोदी का थियेटर अपने शहर में देखने-दिखाने की धुन थी, नतीजन 1929 में श्री जानकीविलास थियेटर बना, जिसके लिए हावड़ा की बर्न एंड कं. लि. से सन '29 तिथि अंकित नक्शा बन कर आया था।
पारसी नाटकों, मूक फिल्मों और फिर बिलासपुर फिल्म इतिहास के लंबे दौर का साक्षी, दसेक साल से बंद यह थियेटर मनोहर टाकीज कहलाता है। हुआ यह कि पेन्‍ड्रा के जाधव परिवार के मंझले, मनोहर बाबू वहां सिनेमा का काम करते रहे, छोटे डिगू बाबू ने दुर्ग में तरुण टाकीज का काम संभाला और बड़े भाई, दत्‍तू बाबू बिलासपुर आ कर इसका संचालन करने लगे। इस तरह श्री जानकीविलास थियेटर का नया नाम 'मनोहर' भी पेन्‍ड्रा से आया और पेन्‍ड्रा वाले ही विनायक राव के पुत्र, बिलासपुर में थियेटर के पितृ-पुरुष नागोराव शेष हुए और हुए उनके पुत्र डॉ. शंकर शेष।
मनोहर टाकीज - श्री जानकी विलास थियेटर के साथ डॉ. गोपाल शेष
तब 'सारिका' में डॉ. शेष का कथन छपा था- ''सन 1979 की बात है। मैं भोपाल में था। उन दिनों विनायक चासकर ने मेरा नाटक 'बिन बाती के दीप' उठाया था। मुझे भी नाटक में एक भूमिका दी गई। कैप्टन आनंद की भूमिका। दो दिन रिहर्सल हुई फिर चासकर को लगा कि अगर शेष को कैप्टन आनंद बनाया गया तो और कुछ हो या ना हो, नाटक पिट जाएगा। तो लेखक की नाटक से छुट्‌टी हो गई। इस घटना के बाद मुझे एहसास हुआ और मैंने नियति की तरह इसे स्वीकार किया कि अभिनय करना मेरे बस की बात नहीं।'' यह संक्षिप्त किन्तु रोचक अंश डॉ. शेष की भाषा-शैली सहित उनकी प्रभावी सपाटबयानी का समर्थ उदाहरण है।
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डॉ. शंकर शेष की रचनाओं की व्यवस्थित सूची-जानकारी मिली नहीं, अलग-अलग स्रोतों से एकत्र कर डा. शेष की कृतियों को विधा और रचना वर्ष के क्रम में रखने का प्रयास किया है, जिसमें संशोधन संभावित है, इस प्रकार है-

नाटक
1955- मूर्तिकार, रत्नगर्भा, नयी सभ्यताःनये नमूने, विवाह मंडप (एकांकी)
1958- बेटों वाला बाप, तिल का ताड़, हिन्दी का भूत (एकांकी)
1959- दूर के दीप (अनुवाद)
1968- बिन बाती के दीप, बाढ़ का पानीःचंदन के दीप, बंधन अपने-अपने, खजुराहो का शिल्पी, फन्दी, एक और द्रोणाचार्य, त्रिभुज का चौथा कोण (एकांकी), एक और गांव (अनुवाद)
1973- कालजयी (मराठी व हिन्दी), दर्द का इलाज (बाल नाटक), मिठाई की चोरी (बाल नाटक), चल मेरे कद्‌दू ठुम्मक ठुम (अनुवाद)
1974- घरौंदा, अरे! मायावी सरोवर, रक्तबीज, राक्षस, पोस्टर, चेहरे
1979- त्रिकोण का चौथा कोण, कोमल गांधार, आधी रात के बाद, अजायबघर (एकांकी), पुलिया (एकांकी), पंचतंत्र (अनुवाद), गार्बो (अनुवाद), सुगंध (एकांकी), प्रतीक्षा (एकांकी), अफसरनामा (एकांकी)

पटकथा
1978- घरौंदा,1979- दूरियां, सोलहवां सावन (संवाद)

कहानी
1979 से 1981- ओले, एक प्याला कॉफी का, सोपकेस

उपन्यास
1956- तेंदू के पत्ते 1971- चेतना, खजुराहो की अलका, धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे (अपूर्ण)

अनुसंधान
1961- हिन्दी और मराठी तथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन
1965- छत्तीसगढ़ी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
1967- आदिम जाति शब्द-संग्रह एवं भाषाशास्त्रीय अध्ययन

जानकारी मिलती है कि उपन्यास ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ 1956 में लिखा जा रहा था, मगर अपूर्ण रहा। इसका पुस्तकाकार प्रथम संस्करण जगतराम एण्ड सन्ज, दिल्ली से 1990 में प्रकाशित हुआ। सिर्फ 91 पृष्ठों में देवव्रत-भीष्म के जन्म की पृष्ठभूमि से धृतराष्ट्र के गांधारी से विवाह की पृष्ठभूमि तक, महाभारत की कहानी के अंश की सारी नाटकीयता को जिस तरह मनोभावों के चित्रण और संवाद के साथ लिखा गया है, वह अपने अधूरेपन में भी पूरे जैसा महत्वपूर्ण है। यह भी देखा जा सकता है कि यह कहानी जहां छूटती है वह ‘कोमल गांधार‘ में जुड़ जाती है, मानों उन्होंने उपन्यास-नाटक का जोड़ा रचा हो। 

डॉ. शेष नाटक प्रेमियों में जिस तरह स्‍वीकृत थे, फिर उनके सम्‍मान-पुरस्‍कार का उल्‍लेख बहुत सार्थक नहीं होगा, लेकिन एक जिक्र यहां आवश्‍यक लगता है- नागपुर के प्रसिद्ध धनवटे नाट्य गृह का शुभारंभ 1958 में डॉ. शेष के नाटक 'बेटों वाला बाप' से(?) होने की सूचना मिलती है।
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''इस बार तुमको अरपा नदी दिखाएंगे और अरपा नदी के पचरी घाट,'' बम्बई से चलने के पहले डॉ. शंकर शेष ने तय किया कि अपनी पत्नी को अपने पुराने शहर के सारे ठिकाने, जिनके साथ उनका पूरा बचपन और बचपन की कितनी-कितनी कथाएं जुड़ी हैं, जरूर दिखाकर लाएंगे।

उपरोक्त अंश पैंतीसेक साल पहले 'रविवार' में छपी, सतीश जायसवाल की कहानी ''मछलियों की नींद का समय'' का है। कहानी के नायक डॉ. शंकर शेष हैं और एक पात्र सतीश (कहानी के लेखक स्वयं) भी है। पूरी कहानी डॉ. शेष के बिलासपुर, समन्दर-नदी-तालाब-हौज के पानी, जलसाघर-थियेटर-संग्रहालय-किला-मछलीघर और मछलियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है। पंचशील पार्क की अहिंसक मछलियां। मामा-भानजा तालाब (शेष ताल) की बड़ी-बड़ी मछलियां। कहानी में वाक्य है- ''श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष के इस शहर में कुछ भी गैर-सांस्कृतिक नहीं हो सकता।'' और यह भी- ''डॉ. साहब, अरे मायावी सरोवर और अपने मामा-भानजा तालाब के बीच क्या कोई संबंध है?''

सतीश जी की इस कहानी के बहाने कुछ और बातें। बिलासपुर के साथ मछुआरिन बिलासा केंवटिन का नाम जुड़ा है।... ... ... श्रीकान्त वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और डॉ. शंकर शेष, बिलासपुर के चार ''एस'' कहे जाते हैं। ... ... ... आंखों पर पट्‌टी बांधी गांधारी का डॉ. शेष का नाटक 'कोमल गांधार' और सत्यदेव दुबे के 'अन्धा युग' की अदायगी के साथ यहां संयोग बनता है कि डॉ. शंकर तिवारी ने 1958-59 में खोजा कि कांगेर घाटी, बस्तर की कुटुमसर गुफाओं में दो-ढाई इंच लंबी बेरंग मछलियां हैं, उजाले के अभाव में इनकी आंखों पर झिल्लीनुमा पर्दा भी चढ़ गया है। साथ ही उनके द्वारा 15-20 सेंटीमीटर मूंछों वाले अंधे झींगुर 'शंकराई कैपिओला' Shankrai Capiola की खोज प्रकाशित की गई। यह भी कि इस कहानी के बाद सतीश जी यदा-कदा बिलासपुर के पांचवें ''एस'' गिने गए।

कहानी ''मछलियों ...'' का अंतिम वाक्य है- इस बार, बम्बई से साथ आई हुई पत्नी ने पहली बार आपत्ति की, ''यह मछलियों की नींद का समय है और लोग शिकार पर निकले हैं।''
थियेटर के भीतर अब अंधेरा-परदा
प्रमिला काले, जिनका शोध (1986) है
''नव्‍य हिन्‍दी नाटकों के संदर्भ में
डॉ. शंकर शेष के नाटकों का शिल्‍पगत अनुशीलन
सभी ऐतिहासिक पात्र, नामों के प्रति आदर।

Sunday, March 27, 2011

तीन रंगमंच

ब्रज की सी यदि रास देखना हो प्यारों।
ले नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारो॥
यदि लखना हो सुहृद! आपको राघवलीला।
अकलतरा तो चलो, मत करो मन को ढीला॥
शिवरीनारायण जाइये, लखना हो नाटक सुग्घर।
वहीं कहीं मिल जाएंगे जगन्नाटक के सूत्रधर॥

रामकथा, कृष्णकथा, महाभारत और पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं के साथ मंचीय प्रयोजन हेतु नाट्‌य साहित्य को तो छत्तीसगढ़ ने आत्मसात किया ही रामलीला, रासलीला-रहंस से लेकर पारसी थियेटर तक का चलन रहा, जिसमें आंचलिक भाषाई-लोक और संस्कृत, ब्रज, अवधी, उर्दू के साथ हिन्दी के 'शिष्ट' नागर मंचों की सुदीर्घ और सम्पन्न परम्परा यहां दिखती है। लीला-नाटकों के पेन्ड्रा, रतनपुर, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, बलौदा,  राजिम, कवर्धा, बेमेतरा, राहौद, कोसा जैसे बहुतेरे केन्द्र थे, लेकिन पंडित शुकलाल पाण्डेय के 'छत्तीसगढ़ गौरव' की उक्त पंक्तियों से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन तीन प्रमुख रंगमंचों- नरियरा की कृष्णलीला, अकलतरा की रामलीला और शिवरीनारायण (तीनों स्थान वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला में) के नाटक की प्रसिद्धि का सहज अनुमान होता है। इन पंक्तियों का संभावित रचना काल 1938-1942 के मध्‍य है।

शिवरीनारायण में पारंपरिक लीला मंडली हुआ करती थी, लगभग सन 1925 में मंडली के साथ संरक्षक के रूप में मठ के महंत गौतमदास जी, लेखक पं. मालिकराम भोगहा और निर्देशक पं. विश्वेश्वर तिवारी का नाम जुड़ा। इस दौर में भोगहा जी के लिखे नाटकों- रामराज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना की जानकारी मिलती है, जिनका मंचन भी हुआ। मठ के अगले महंत लालदासजी हुए और पं. विश्वेश्वर तिवारी के पुत्र पं. कौशल प्रसाद तिवारी के जिम्मे मुख्तियारी आई। आप दोनों की देख-रेख में सन 1933 से 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के नाम से शिवरीनारायण में नियमित और व्यवस्थित नाट्‌य गतिविधियों का श्रीगणेश हुआ।

शिवरीनारायण में मनोरमा थियेटर, कलकत्ता के संगीतकार मास्टर अब्दुल शकूर और के. दास, परदा मंच-सज्जा सामग्री के लिए खुदीराम की सेवाएं ली जाती थीं। जबकि स्थानीय अनेकराम हलवाई और बनगइहां पटेल को संगीत प्रशिक्षण के लिए विशेष रूप से कलकत्ता भेजा गया था। नाटक और 'पात्र-पात्रियां' सहित उसकी जानकारी छपा कर, परचे पूरे इलाके में बांटे जाते। यहां मंचित होने वाले भक्त ध्रुव, हरिश्चंद्र तारामती, कंस वध, दानवीर कर्ण, शहीद भगत सिंग, नाटकों के नाम आज भी लोगों के जुबान पर हैं। दिल की प्यास, आदर्श नारी, शीशे का महल जैसे प्रसिद्ध और चर्चित नाटक का भी मंचन यहां बारंबार हुआ।

कलकत्ता के जमुनादास मेहरा का कृष्ण सुदामा और सूरदास, पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' देहलवी का महाभारत, नई जिंदगी, भारत रमणी, आगा हश्र कश्‍मीरी का यहूदी की लड़की, आंख का नशा, दगाबाज दोस्त, पंडित राधेश्याम रामायणी कथावाचक का ऊषा अनिरुद्ध, वीर अभिमन्यु और किशनचंद जेबा का जब्तशुदा नाटक भक्त प्रह्लाद आदि भी यहां खेले गए। तब नाटकों की स्क्रिप्ट मिलना सहज नहीं होता। बताया जाता है कि नये नाटक के स्क्रिप्ट के लिए रटंत-पंडितों और शीघ्र-लेखकों की पूरी टीम कलकत्ता जाती और सब मिल कर बार-बार नाटक देखते हुए चुपके से पूरे संवाद उतार लेते। यह भी बताया जाता है कि चर्चित नाटकों के कलकत्ता में हुए प्रदर्शन के महीने भर के अंदर वही नाटक यहां खेलने को तैयार होता। इस तरह कलकत्ते के बाद पूरे देश में कहीं और प्रदर्शित होने में शिवरीनारायण बाजी मार लेता।

अभिनेताओं में केदारनाथ अग्रवाल और विश्वेश्वर चौबे को विशेषकर शिव-पार्वती की भूमिका के लिए, कृपाराम उर्फ माठुल साव को भीम, गुलजारीलाल शर्मा को हिरण्यकश्यप, गयाराम पांडेय को अर्जुन, मातादीन केड़िया को दुर्योधन, लादूराम पुजारी को द्रोण व शंकर, तिजाउ प्रसाद को राणा प्रताप तथा श्यामलाल शर्मा व बनमाली भट्‌ट को हास्य भूमिकाओं के लिए याद किया जाता है। इसके अलावा तब के कुछ प्रमुख कलाकार झाड़ू महराज, कृपाराम साव, लक्ष्मण शर्मा, रामशरण पांडेय, बोटी कुम्हार, रुनु साव, नंदकिशोर चौबे, बसंत तिवारी, भालचंद तिवारी, श्यामलाल पंडित आदि थे। शिवरीनारायण में खेले जाने वाले जयद्रथ वध नाटक में धड़ से सिर का अलग हो जाना, शर-शय्या और पुष्पक विमान जैसे अत्यन्त जीवन्त और चमत्कारी दृश्यों की चर्चा अब भी होती है। यहां पं. शुकलाल पांडेय की कुछ अन्य पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-

हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़! किसी प्रान्त से कम नहीं॥

अमरीका के पोर्टलैंड, ओरेगॉन में लगभग सन 1920 में निर्मित Eilers & Co.  का पियानो शिवरीनारायण के नाटकों की शोभा हुआ करता था, जिसका संगीत न सिर्फ सुनने योग्य होता था, बल्कि लोग इस पियानो को बजता देखने को भी बेताब रहते। इस पियानो को संरक्षित करने की दृष्टि से अत्यंत जर्जर हालत में अकलतरा के सत्येन्द्र कुमार सिंह ने लगभग 30 साल पहले खरीदा और स्थानीय स्तर पर ही उसकी मरम्मत कराई और बजने लायक बनाया। शिवरीनारायण के नाटकों के प्रदर्शन की भव्यता और स्तर का अनुमान नाटक में संगीत के लिए इस्तेमाल होने वाले इस पियानो को देखकर किया जा सकता है।

महानद थियेट्रिकल कम्पनी 1956 तक लगातार सक्रिय रही, लेकिन 1958 में महंतजी के निधन के साथ संस्था ने भी दम तोड़ दिया। अंतिम दौर में 'गणेश जन्म' नाटक की तैयारी जोर-शोर से हो रही थी। तत्कालीन परिस्थितियों के चलते इस नाटक का प्रदर्शन न हो सका और यह कौशल प्रसाद तिवारी जी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और तिवारी जी पर आक्षेप करते हुए पोस्टर छपे- 'गणेश-जन्म कब होगाॽ' इस दौर के घटना-क्रम से आहत तिवारी जी ने जीवन भर के लिए न सिर्फ नाटकों से रिश्ता बल्कि अपना पूरा सामाजिक सरोकार ही सीमित कर लिया। अपने अंतिम दिनों में वे जरूर नाटकों और पारसी थियेटर के ऐतिहासिक विश्लेपषण के साथ अपनी तथा-कथा लिख रहे थे, लेकिन क्या और कितना लिख पाये पता नहीं चलता। शिवरीनारायण में भुवनलाल भोगहा की 'नवयुवक नाटक मंडली' एवं विद्याधर साव द्वारा संचालित 'केशरवानी नाटक मंडली' के साथ कौशल प्रसाद तिवारी के 'बाल महानद थियेट्रिकल कम्पनी' की जानकारी मिलती है, जिससे यहां 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के समानान्तर और उसके बाद भी नाटक मंडलियों और मंच की परम्परा होना पता लगता है।

नरियरा में रासलीला की शुरुआत प्यारेलाल सनाढ्‌य ने लगभग 1925 में की थी, जिसे नियमित, संगठित और व्यवस्थित स्वरूप दिया कौशल सिंह ने। तब से यह प्रतिवर्ष माघ सुदी एकादशी से आरंभ होकर 15 दिन चलती थी। यहां के पं. रामकृष्ण पांडेय के पास 60-70 साल पुराने हस्तलिखित स्क्रिप्ट में वंदना के बाद कृष्णकथा के विभिन्न प्रसंगों को लीला शीर्षक दिया गया है जो मानचरित, बैद्य, गोरे ग्वाल, खंडिता मान, दान, जोगन, चीर हरन, होरी, राधाकृष्ण विवाह, यमलार्जुन, उराहनो, माखन चोरी, गोचारण, पूरनमासी, चन्द्रप्रस्ताव, गोवर्धन गोप, मालीन और प्रथम स्नेह लीला नाम से है।
सन उन्‍नीस सौ तीसादि दशक का नरियरा लीला संबंधित चित्र 
कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत ग्राम नरियरा की प्रतिष्ठा छत्तीसगढ़ के वृन्दावन की रही है। यहां मंचित होने वाली लीला में गांव के गोकुल प्रसाद दुबे, राजाराम, कुंजराम के अलावा आसपास के भी अभिनेता होते, जिनमें जनकराम, सैदा, कपिल महराज, अमोरा, रामवल्लभदास, प्रभुदयाल, मदनलाल, श्यामलाल चतुर्वेदी और गउद वाले दादूसिंह रासधारी, प्रमुख नाम हैं। संगीत पक्ष का दायित्व बिशेषर सिंह पर होता था, जिनकी जन्मजात प्रतिभा में निखार आया, जब वे नासिक जाकर पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के भतीजे चिन्तामन राव और सेमरौता, उत्तरप्रदेश के उस्ताद मुरौव्वत खान से प्रशिक्षित हुए। लीला के स्थानीय कलाकारों को भी तालीम के लिए वृन्दावन भेजे जाने का जिक्र आता है।
ऊपर गोल घेरे में ठाकुर कौशल सिंह
नीचे गोल घेरे में ठाकुर विशेषर सिंह
नरियरा से जुड़े अन्य संगीतज्ञ होते थे तबला वादक पं. गोकुल प्रसाद दुबे और सारंगी वादक भारत प्रसाद, बाजा मास्टर पचकौड़ प्रसाद, भानसिंह- तबला, सुखसागर सिंह- इसराज, अफरीद के रामेश्वरधर दीवान और साहेबलाल- बांसुरी, भैंसतरा के रघुनंदनदास वैष्णव- चिकारा, जैजैपुर के महेन्द्र प्रताप सिंह पखावजी के साथ बेलारी के बसंतदास, कुथुर के शिवचरन, मेहंदी के काशीराम तथा कोसा के पुर्रूराम। इस प्रकार नरियरा ऐसा केन्द्र बन गया था, जहां पूरे अंचल के संगीत प्रतिभाओं की सहभागिता होती थी। विक्रम संवत्‌ 2000 समाप्त होने के उपलक्ष में बहुस्मृत श्री विष्णु स्मारक महायज्ञ का आयोजन रतनपुर में हुआ। यज्ञ में माघ शुक्ल 8, मंगलवार, 1 फरवरी 1944 को नरियरा कृष्णलीला आरंभ हुई, जो इसके अंतिम यादगार और प्रभावी प्रदर्शन के रूप में याद किया जाता है।

प्रसंगवश थोड़ी चर्चा रतनपुरिहा गम्मत अथवा गुटका यानि कृष्ण लीला की। छत्तीगसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर में लीला की समृद्ध परम्परा डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुरानी है। गणेशोत्सव पर आयोजित होने के कारण यह भादों गम्मत के नाम से भी जाना जाता है। इस लीला की ब्रज, अवधी, मराठी, छत्तीसगढ़ी और संस्कृत, पंचमेल रूपरेखा-स्क्रिप्ट बाबू रेवाराम ने तैयार की। कहा गया है- 'कृष्ण चरित यह मह है जोई, भाषित रेवाराम की सोई।' रतनपुरिहा गम्मत की परम्परा के संवाहकों में लक्ष्मीनारायण दाऊ का नाम बहुत सम्मान से याद किया जाता है। लीला के प्रति उनका समर्पण किस स्तर तक था, इसका अनुमान पूरे इलाके में प्रचलित संस्मरणों-किस्सों से होता है। खैर! इसके बावजूद नरियरा के लीला का 'क्रेज' अलग ही था।

लक्ष्मीनारायण दाऊ
हुआ कुछ यूं कि रतनपुर विष्णु महायज्ञ में नरियरा की लीला का प्रदर्शन कराए जाने की बात आई, लेकिन अड़चन थी कि नरियरा कृष्णलीला का मंचन गांव के ही मंदिर के साथ बने मंच पर होता था, इसके अलावा कहीं और नहीं। जिम्मेदारी ली, श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी समिति के पदाधिकारी- कोषाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण दाऊ ने। नरियरा वालों को संदेश भेजा गया, जो खर्च लगे दिया जाएगा, लेकिन यज्ञ में लीला होनी ही चाहिए। नरियरा वाले अड़े रहे कि किसी कीमत पर लीला, मंदिर के मंच से इतर कहीं नहीं होगी। बताया जाता है कि तब दाऊजी स्वयं नरियरा गए और एक नारियल, कौशल सिंह के हाथ में देकर कहा कि श्री विष्णु महायज्ञ का न्यौता है, नरियरा रासलीला मंडली को, कृपया स्वीकार करें। बस बात सुलझ गई। गाड़ा (भैंसा गाडि़या) रतनपुर रवाना होने लगे और नरियरा वालों ने यज्ञ समिति को भोजन-छाजन में भी एक पैसा व्यय नहीं करने दिया।

नरियरा मंच की परम्परा ने पचासादि के दशक में करवट ली और वल्लभ सिंह इस दौर के अगुवा हुए। अब लीला के साथ धार्मिक और सामाजिक नाटकों का मंचन होने लगा। पुरानी पीढ़ी के प्रसिद्ध संगीतकार, हारमोनियम वादक और गायक बिशेषर सिंह ने व्यास गद्‌दी संभाली। इसराज पर आपका साथ देते थे सुखसागर सिंह, तबले पर भानसिंह और बाद में उनके पुत्र वीरसिंह। बांसुरी और सितार हजारी सिंह बजाते थे। नाटकों के प्रमुख अभिनेता कृष्ण कुमार सिंह, मेघश्याम सिंह, भरतलाल पांडे, बिसुन साव, रामदास, पं. गीता प्रसाद, धनीराम विश्वकर्मा, दयादास, ननकी बाबू होते थे।
कृष्ण कुमार सिंह एवं भरतलाल पांडे
इस दौर में खेले जाने वाले नाटकों में सती सुलोचना, भक्त प्रह्‌लाद, वीर अभिमन्यु, बिल्व मंगल, वीर अभिमन्यु, हरिश्चन्द्र, ऊषा अनिरुद्ध, मोरध्वज, दानवीर कर्ण, चीरहरण आदि प्रमुख थे। 'राजेन्द्र हम सब तुम पर वारि जाएं, हिल-मिल गाएं खुशियां मनाएं' और 'मिला न हमको कोई कद्रदां जमाने में, ये शीशा टूट गया देखने दिखाने में' जैसे नृत्य-गीतों के बोल सबके जबान पर होते थे। नरियरा में नाटकों का यह दौर लगभग 30 साल पहले तक चलता रहा, लेकिन व्यतिक्रम के साथ ही सही यह परम्परा अगली पीढ़ी तक बनी रही।

अकलतरा में बैरिस्टर साहब ने रामलीला मंडली की स्थापना की, जिसकी शुरुआत 1919 से हुई। लेकिन 1924 के बाद दूसरी बार 1929 से 1933 तक होती रही। अकलतरा के रंगमंच में पारम्परिकता से अधिक व्यापक लोक सम्पर्क तथा अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध अभिव्यक्ति का उद्‌देश्य बताया जाता है। यहां प्रदर्शित होने वाले नाटकों की दस्तावेजी जानकारी लाल साहब डा. इन्द्रजीत सिंह की निजी डायरी से मिली कि सन्‌ 1931 में 23 से 26 अप्रैल यानि वैशाख शुक्ल पंचमी से अष्टमी तक क्रमशः लंकादहन, शक्तीलीला, वध लीला और राजगद्दी नाटकों का मंचन हुआ।

सर्कस कंपनियों के साथ आर्कलैम्प जलाकर घुमाया जाता था, ताकि दूर-दूर के लोग जान सके कि सर्कस आया है और शो शुरू होने वाला है। इसी तरह का, लेकिन कुछ अलग इंतजाम अकलतरा रामलीला के लिए किया जाता था। इसके लिए एक पोरिस (पुरुष प्रमाण) गड्ढा खोदा जाता, जिसमें लीला शुरू होने के घंटे भर पहले, लाल साहब अपनी 500 ब्लैक पाउडर एक्सप्रेस बंदूक दागते थे, जिसकी आवाज एक-डेढ़ कोस तक सुनाई देती और आस-पास के गावों में पता चल जाता कि अकलतरा में रामलीला शुरू होने वाली है। कुछ ऐसे दर्शक रोज होते जो इस दृश्‍य को भी लीला की आस्‍था लिए देखने पहुंच जाते।

अकलतरा रामलीला मंडली के एक अन्य दस्तावेजी स्रोत से पता चला कि चैत माह में नारद मोह, राम जन्म, विश्वामित्रागमन, फुलवारी लीला, धनुष यज्ञ, राम विवाह, कैकई मंथरा संवाद, राम बनवास, भरत मनावनी, सीताहरण, बालिवध, लंका दहन, रामपयान, सेतुबंध, शक्तीलीला, सुलोचना सती, रावण वध, रामराज्याभिषेक लीलाएं होती थीं। यह जानकारी ''बी.एल. प्रेस- 1/2 मछुआबाजार स्ट्रीट, कलकत्ता में छपे 'विज्ञापन' परचे से मिलती है, जिसमें अभिनयकर्ताओं की सूची में चन्दन सिंह, हमीर सिंह, सम्मत सिंह 1 व 2, ननकी सिंह 1 व 2, रामाधीन, शिवाधीन, गुनाराम, मुखीलाल, चुन्नीलाल आदि 40 अभिनेताओं के नाम हैं। इस परचे में ठाकुर दलगंजन सिंह को प्रधान व्यास, ठाकुर स्वरूप सिंह को व्यास और पंडित पचकौड़प्रसाद (बाजा मास्टर के नाम से प्रसिद्ध) को हारमोनियम माष्टर लिखा गया है, जबकि विनीत के स्थान पर ठाकुर छोटेलाल, मैनेजर का नाम है।''

मथुरा, लखनऊ तथा वृंदावन के साथ-साथ अल्फ्रेड और कॉरन्थियन नामक कलकत्ता की दो थियेटर कम्पनियों का प्रभाव इस अंचल के रंगमंच पर विशेष रूप से था और इन्हीं कम्पनियों के सहयोग से परदे, नाटक सामग्री व अन्य व्यवस्थाएं की जाती थी। छत्तीसगढ़ में हिन्दी नाटकों के आरंभिक दौर का यह संक्षिप्त विवरण राष्ट्री य परिदृश्यत के साथ जुड़ कर, यहां रंग परम्परा की मजबूत पृष्ठभूमि का अनुमान कराता है।

• यहां आए परम्परा के संवाहक और संरक्षक प्रतिनिधियों का नाम उल्लेखनीय और स्मरणीय होने के साथ आदरणीय है।
• इस विषय पर शोधपरक व्यापक संभावनाएं हैं, आरंभिक सर्वेक्षण और वार्तालाप में संबंधित तथ्यात्मक जानकारी तथा दस्तावेजी व अन्य सामग्री जैसे वाद्य यंत्र, वेशभूषा, परदे आदि की ढेरों सूचनाएं प्राप्त हुई हैं।

डा. रामेश्वर पांडेय
इस लेख को तैयार करने में सर्वश्री श्यामलाल चतुर्वेदी, कोटमी-बिलासपुर, डा. बी.के.प्रसाद, बिलासपुर, बस्‍तर बैंड वाले अनूप रंजन, कोसा-रायपुर, शिवरीनारायण के कलाकार, कवि व संगीतज्ञ डा. रामेश्वर पांडेय 'अकिंचन' (जो कहते हैं- 'मेरा जन्म 83 साल पहले तब हुआ जब कृष्ण-सुदामा नाटक खेला जा रहा था'), विश्वनाथ यादव, डा. आलोक चंदेल, डा. अश्विनी केशरवानी, पूर्णेन्द तिवारी, बृजेश केशरवानी, अकलतरा के रवीन्द्र सिसौदिया, रविन्द्र सिंह बैस, सौरभ सिंह, नरियरा के पं. रामकृष्ण पांडेय, देवभूषण सिंह, कृष्ण कुमार सिंह, पं. भरतलाल का सहयोग लिया गया।

मूलतः, सन 2008 में विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च के अवसर पर रायपुर से प्रकाशित संकलन 'छत्तीसगढ़ हिन्दी रंगमंच' के लिए मेरे द्वारा तैयार किया गया आलेख।