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Saturday, November 5, 2022

गुड़ी-सीपत

गुड़ी से पहले सीपत, जिसने यह राह दिखाई। अब एनटीपीसी के लिए जाने गए सीपत के साथ बीच के दौर में पं. रमाकांत मिश्र, पं. बद्रीधर दीवान, अरुण तिवारी, चंद्रप्रकाश बाजपेयी का नाम जुड़ा रहा। पचासेक साल पहले तक रामेश्वर शर्मा के नाम से जाना जाता था, मगर शर्मा जी का नाम उर्फ ‘सूचीपत्र‘ के साथ पूरा होता था। बताया जाता है कि उन्हें यह नाम बैरिस्टर साहब यानि ठाकुर छेदीलाल जी ने दिया था, इसलिए कि उनसे कुछ पूछने पर वे व्यक्तियों, वस्तुओं के नामों को सरपट गिनाते थे, इस पर बैरिस्टर साहब, हंसी में कहते- ‘महराज, तूं तो पूरा सूचीपत्तर आव‘। यही आगे उनका उपनाम बन गया। बैरिस्टर साहब के दिए कुछ नाम, इसी तरह ऐसे प्रचलित हुए कि लोग वास्तविक नाम भूल से गए, जिनमें एक नंदेली वाले बाजा मास्टर हैं। बैरिस्टर साहब के पिता का नाम पचकौड़ सिंह था, जो बाजा मास्टर का भी नाम था। पिता के हमनाम, नंदेली वाले संगीतज्ञ का नाम न लेना पड़े इसलिए ‘बाजा मास्टर‘ पुकारने लगे और यही नाम प्रचलित हो गया।

राजनीति में सक्रिय रामेश्वर शर्मा जी, मध्यप्रदेश में सिंचाई मंत्री रहे। भोपाल और दिल्ली में भी निवास था। उनके नाक के पास बड़ा सा मस्सा था, बताते थे कि यह अच्छा तो नहीं लगता, लोग कहते है कि निकलवा दूं, मगर मैडम (श्रीमती इंदिरा गांधी) मुझे इसी से पहचानती हैं। उनसे मिलने जाता हूं तो मस्से पर उंगली फिराता रहता हूं, उनकी नजर इस ओर जाती है और पूछती हैं, कैसे हैं शर्मा जी? 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में चुनाव लड़कर फिर किस्मत आजमाना चाहते थे और टिकिटार्थी बने रहे।

मुलाकात होने पर मुझे मेरे परिवार-जन से जुड़े किस्से और अपने बारे में ढेरों बातें बेलाग बताया करते थे। 1967 का विधानसभा चुनाव, आज का बेलतरा, इसके पहले सीपत और उससे भी पहले बलौदा विधानसभा क्षेत्र था, जहां वे प्रत्याशी थे। याद करते हुए बताते कि वोटों की गिनती के दौरान पिछड़ते जा रहे थे। जीतने की संभावना न के बराबर थी। मतगणना स्थल छोड़ कर जाने लगे तो मेरे पिता 'संत बाबू' ने ढाढस बंधाया कि अभी हमारे प्रभाव वाले मतदान केन्द्रों की गिनती बाकी है। आप देखिएगा कि यह अंतर आसानी से न सिर्फ कवर हो जाएगा, बल्कि हम जीतेंगे भी। ऐसा ही हुआ और मामूली अंतर से, मगर जीत हुई।

यहां प्रसंग सीपत वाले उनके भाई रामाधीन शर्मा जी से जुड़ा है। अनुमान होता था कि दोनों भाई के बीच रिश्ते सहज नहीं हैं। रामाधीन महराज, भक्त-साधक किस्म के व्यक्ति थे। गांव-समाज में आना-जाना कम। बिलासपुर न्यायालय में अक्सर आते। 1985-90 के बीच का दौर। पेशी से समय निकलता तो सीपत वाला शिलालेख पता करते, अन्य मूर्तियां देखने जिला पुरातत्व संग्रहालय आ जाते। संग्रहाध्यक्ष रहते हुए, मैं लगभग हर हफ्ते संग्रहालय की दर्शक पंजी देखता था। रामाधीन जी से इसी माध्यम से संपर्क हुआ। पंजी में उन्होंने टिप्पणी की थी कि उनके घर में कुछ प्राचीन अवशेष हैं, जिसे वे संग्रहालय को देना चाहते हैं। हमलोग, यानि मैं रायकवार जी के साथ सीपत उनसे मिलने गए।

पहली, दूसरी, तीसरी फिर मुलाकातों में उनकी नेकदिली और आत्मीयता देखने को मिली। हमलोगों को उनके घर में अंदर तक आवाजाही की छूट मिल गई, चाय-पान कराते। सहज भाव से कहते यह जीवन व्यर्थ जा रहा हे। ईश्वर की भक्ति न कर सका। मोह माया में पड़ा रह गया। मनाता हूं अगला जन्म मिले तो भगवान में मन रमे। बताते कि इस जीवन में तंत्र-मंत्र-यंत्र सब आजमाया है। वेंकटेश स्टीम प्रेस या ऐसे ही किसी अच्छे प्रकाशक से किताब मंगाया। उसमें मंत्र दिए थे। परीक्षण के लिए मोहन-मारण आजमाने लगा। सभी मंत्र सच्चे निकले, सध गए। आजमाने के लिए जिस पर मोहन का प्रयोग किया था, उसे किसी तरह समझा-बुझा कर बच गए। मारण मंत्र, आजमाने के लिए आह्वान कर लिया, मगर अपराध-बोध हुआ, बात खुद पर आने लगी, जान छुड़ना मुश्किल हो गया। तब हनुमान चालीसा से काम नहीं बना, हनुमान बाहुक और बजरंग बाण से बात बनी। पेशी से लौटते हुए आफिस आते। मधुमेह, मगर शक्कर वाली चाय और एक सिगरेट पीते। फिर गांव वापस। हम छेड़ते- लइका मन, महराजिन गम पाहीं त हमन बर रिस करिहीं, सदा गंभीर मुख-मुद्रा, मगर यह सुन कर चेहरे पर दुर्लभ मुस्कान आती।

संग्रहालय के लिए स्वयं पहल कर मूर्तियां दीं ही, साथ सीपत गांव में पड़े प्राचीन अवशेषों को दिखाया। गांव के बाहर खेतों में, तालाब के पास के अवशेष और तब मंदिर के बच रहे ढांचे को भी दिखाया, जो बाद में ढह गया। उन्होंने ही खबर दी कि मंदिर गिरने के कुछ देर पहले ही शिव-भक्त उनके ज्येष्ठ पुत्र वहां से लौटे थे। इस ढांचे से कलचुरि मंदिर-स्थापत्य समझने का अवसर मिला। जानकारी मिलती थी कि इस काल के मंदिरों की जंघा दो परतों में होती है। बाहिरी परत में मूर्तियां और भीतरी परत सादी चिनाई वाले पत्थर। और इन दोनों के बीच पत्थर के कत्तल-टुकड़े भरे होते हैं। इस संरचना में मंदिर के अंदर वाली परत बची रह गई थी और इसके विपरीत बिल्हा के पास स्थित किरारी गोढ़ी मंदिर में बाहिरी मूर्ति वाली परत है, अंदर की परत नहीं है।

रामाधीन जी ढेरों ज्ञान-विज्ञान, धर्मशास्त्र की बातें बताते। जाते-आते हमलोगों ने अनुभव किया कि सीपत में चाय का स्वाद अलग ही होता है। इस आसपास में ऐसा स्वाद हमारे अनुभव में सिर्फ गतौरा के दूध में है। रामाधीन महराज ने बताया कि मवेशी के चरने के लिए खुले मैदान, उपयुक्त वनस्पति हो तो दूध का स्वाद अच्छा होता है। रायकवार जी ने पुष्टि की, जिसे बाद में मैंने स्वयं भी अनुभव किया कि बनगवां राज में चैत-बैसाख, महुए के दिनों में दूध-चाय में महुए का स्वाद आ जाता है। पास के गांव नरगोड़ा के बारे में पता चला था कि वहां भी तालाब के किनारे कुछ पुरावशेष हैं। नाम भी रोचक लगा। पास-पास गांव, गुड़ी और (नर)गोड़ा। गुड़ी के पुरावशेषों के बारे में भी रामाधीन जी ने बताया।

अब आते हैं गुड़ी। छत्तीसगढ़ के मैदानी गांवों में गलियों का मेल, केंद्र, जहां सामान्यतः बीच बस्ती वाले ग्राम देवता का स्थान होता है, गुड़ी कहा जाता है। बस्तर का गुड़ी-गुड्डि, इससे मिलता-जुलता मगर कुछ अलग होता है। यहां गांव का नाम ही गुड़ी है और रोचक कि जिस टीले के कारण हमलोगों का ध्यान आकर्षित हुआ वह जिस तालाब के किनारे है, उस तालाब का नाम ‘चौड़ा‘ है। इस टीले के अवलोकन से संभावित काल, संरचना स्पष्ट हुई थी, जिसका प्रतिवेदन तब मेरे द्वारा तैयार किया गया था। इसके साथ स्व. सीतेश जी की याद।

खरौद निवासी सीतेश द्विवेदी जी मेरे परिचितों में, वास्तविक अर्थों में ‘श्रमजीवी‘ पत्रकार थे। बिलासपुर नवभारत की नींव की मजबूती में उनका नाम अविस्मरणीय रहेगा। जीवन में निरंतर मुश्किलों से जुझते हुए भी बाल-जिज्ञासु और प्रौढ़ रचनाशील बने रहे। हमलोगों के अभिन्न थे ही।

यहां उनके नाम से नवभारत, रायपुर, संपादकीय पृष्ठ पर 4 सितंबर '90 को प्रकाशित यह अंश, जिसे उन्होंने हमारे कार्यालयीन प्रतिवेदन के तथ्यों को यथावत रखते हुए, उसके आधार पर तैयार किया था।

टीले से निकलेगा प्राचीन विष्णु मंदिर अवशेष

बिलासपुर जिले के सीपत समीप ग्राम गुड़ी के टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पुरातत्वविदों का मानना है कि १२वीं-१३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित इस कलचुरी कालीन मंदिर के अवशेष का छत्तीसगढ़ (म.प्र.) के लिये विशेष महत्व का है। क्योंकि विष्णु मंदिरों की संख्या यहां न्यून है। टीले के नीचे दबे पुरावशेष को जानने सभी उत्सुक हैं।


यूं तो 'गुड़ी' से तात्पर्य किसी ग्राम का वह स्थान होता है जहां पंचायत बैठती है, पर यह उस ग्राम का नाम है जो बिलासपुर से २२ किलो मीटर दूर सीपत-बलौदा मार्ग पर स्थित है। जनसंख्या लगभग ढाई हजार है। अन्य ग्रामों की भांति यह भी सामान्य है। इसके उत्तर पश्चिम बाहरी भाग में ठरकपुर जाने वाली सड़क के किनारे वृक्ष एवं छोटी झाड़ियों से आच्छादित एक टीला है। यह टीला दूर से सामान्य व साधारण प्रतीत होता है। इसके आसपास कुछ पत्थर बिखरे पड़े है। इस टीले के समीप पहुंचने एवं बिखरे पत्थरों को देखने से उसके महत्व का आभास होता है।

ये पुरावशेष हैं, जो इतिहास की धरोहर हैं। बिखरे पत्थरों में से एक पर चतुर्भुजी विष्णु भगवान की प्रतिमा है, दूसरे पर हंस पंक्ति, तीसरे पर भी हंस पंक्ति, चौथे पर मिथुन युगल, पांचवें पर अश्वारोही, छठवें पर मंदिर शीर्ष, सातवें पर नारी आदि। टीले का दक्षिणी भाग अंशतः स्पष्ट है। ये सब विष्णु मंदिर के अवशेष. हैं। कालकम से प्रभावित होकर यह टीले के रूप में बदल चुका है। मिट्टी एवं पेड़-पौधों से ढंके इस टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पत्थरों पर की गई कलाकारी से इसका निर्माण १२वी-१३वीं शताब्दी के आसपास होने का अनुमान होता है। इनसे कलचुरि शैली स्पष्ट परिलक्षित होता है।

यह टीला एवं पुरावशेष लगभग १००० वर्ग मीटर में फैला है तथा अक्षांश मा २०-१० उत्तर एवं देशांश ८२-२० पूर्व पर स्थित है। गुड़ी ग्राम से होते नियमित निजी यात्री बसें चलती है। ग्रामीण बरसों से इस टीले को सिद्ध बाबा एवं देउर के रूप में दशहरा के समय विशेष पूजा करते आ रहे हैं। इस स्थल को प्राचीन व पवित्र मानते हैं। ग्राम देवता स्थान भी माना जाता है। यह पर्व त्यौहारों पर यहां धार्मिक कार्यक्रम यथा नवधा रामायण, कथा पारायण, प्रवचन आदि का आयोजन किया जाता है। प्राचीन काल से मंदिर होने की बात भी प्रचलित है।

यह टीला भू-सतह से लगभग ८ मीटर, ऊंचा, पूर्व पश्चिम में २३ मीटर लंबा एवं उत्तर-दक्षिण में लगभग १.? मीटर चौड़ा है। टीले पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां उग आई है। इन वनस्पत्तियों और मिट्टी पत्थर से टीला पर्याप्त रूप से ढंक चुका है। किन्तु दक्षिणी पार्श्व का एक भाग उघड़ा हुआ है जिससे अधिष्ठान की संरचना अंशतः परिलक्षित होती है।

टीले के पूर्व में चौड़ा तालाब है, पश्चिम में एक नहर प्रवाहित है, जबकि अन्य ओर यह खेतों से घिरा हुआ है। समीप ही गुड़ी से ठरकपुर जाने वाली सड़क है। यह मैदांनी भू भाग है। इस टीले में ध्वस्त मंदिर होने की बात ग्रामीण बरसों से पुरखों से सुनते आ रहे हैं। पर पुरातत्वीय और ऐतिहासिक महत्व के इस स्थल का विवरण अब तक अप्रकाशित रहा।

इस टीले पर पड़े अवशेषों एवं दक्षिणी खुले भाग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ध्वस्त मंदिर १२वीं सदी ईस्वी में बनाया गया रहा होगा। मंदिर के पूर्वाभिमुख तथा सप्तरथ तल विन्यास योजना (चतुरंग) में होने का अनुमान स्पष्ट किया जा सकता है। वैसे छत्तीसगढ़ में विष्णु मंदिरों की संख्या न्यून है। जांजगीर एवं शिवरीनारायण में अवश्य इसके अच्छे प्रमाण हैं। अतः इस स्थल का विशेष महत्व है।

यह स्थल छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर से पूर्व दिशा की ओर लगभग १६ कि.मी. सीपत जूना शहर-शिव मंदिर से, आठ कि.मी. एवं बछौद गढ़ से लगभग १४ कि.मी. दूर स्थित है। ये तीनों प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। रतनपुर राजधानी, सीपत शिव मंदिर एवं बछौद गढ़ तीनों ध्वस्त हो गया है। समीपवर्ती इन तीनों प्राचीन स्थलों के बीच यह टीला विद्यमान है।

काल के किसी अज्ञात क्रम में ध्वस्त हुये, गिराये या दबाये गये इस मंदिर के अवशेषों को मिट्टी एवं पेड़ पौधों ने ढंक लिया है। कुछ अवशेषों को ग्रामीण अपने घरों में द्वार, सीढ़ी या दीवाल बनाने ले गये है, कुछ ने पनघट एवं श्मशान घाट में पुरावशेषों का उपयोग किया है। तो कुछ सिंघरी तालाब एवं चौड़ा तालाब के किनारों पर पड़े हैं। प्रकृति की बारहमासी मार को चलते ये अवशेष नष्ट भ्रष्ट होने जा रहे हैं। बलुआ पत्थरों से बनी अधिकतर पाषाण प्रतिमायें खंडित है इसलिये इनका क्षरण दर भी अधिक है।

सतह पर पड़ी कुछ प्रतिमाओं में प्रमुख ये है जिनमें प्रायः सभी बलुआ पत्थरों पर बनी खंडित एवं क्षरित है-
(१) सिरदल में खंडित नवग्रह पटल मध्य चतुर्भुजी विष्णु।
(२) मिथुन युगल प्रतिमा- जिसकी भंगिमा और कलात्मक सौंदर्य विशेष उल्लेखनीय है।
(३) अर्द्ध स्तम्भ पर नारी की खंड़ित प्रतिमा यह संभवतः किसी मुख्य देव प्रतिमा के पार्श्व उत्कीर्ण परिचारिका या पार्श्व देवी का अंश है।
(४) हंस पंक्ति-पंक्तिवार उत्कीर्ण हंस अत्यंत संतुलित और नियमित है।
(५) एक और पाषाण पटल में हंस पंक्ति है जिनमें पूर्व की भांति साम्यता एवं हंसों के उकेरण में लयात्मकता और व्यतिक्रम उल्लेखनीय है।
(६) एक पाषाण फलक पर तीन अश्वारोही हैं। संभवतः किसी वीर सैनिक या सती की स्मृति में यह बनाया गया होगा।
(७) टीले के नीचे पड़े दो पत्थर मिले है जो गर्भगृह एवं सभा मण्डप में ऊपर लगने वाले शीर्ष पत्थर है।
(८) टीले के ऊपर दो विशाल पत्थर भी रखे है संभवतः ये तरासकर मंदिर सभा मंडप के खंभे बनाये जाते।

टीले पर से खड़े होकर देखने पर चारों ओर का वातावरण मनमोह लेता है। दो ओर खेत, पास में बहती नहर, एक ओर तालाब, दूसरी ओर हरा-भरा मैदान। खेतों के पार दूर पहाड़ियों की श्रृंखला।

१२वीं- १३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित पूर्वाभिमुख विष्णु मंदिर के ध्वंसावशेष की पूर्ण प्राप्ति, स्थल मलबा सफाई एवं उत्खनन से संभव है। हालांकि दो वर्ष पूर्व शासन ने इस स्थान को संरक्षित स्थल घोषित कर दिया है। पर अभी तक कोई रक्षक यहां नियुक्त नहीं किया गया है। निर्जन स्थान पर मैदानी भाग में टीले व आसपास बिखरे पुरावशेषों की सुरक्षा के लिये चौबीसों घंटे सुरक्षा आवश्यक है। स्थल मलबि सफाई एवं उत्खनन से मुख्य विष्णु प्रतिमा सहित अन्य पुरा-प्राप्तियां मिलने की संभावना है। तभी मंदिर की शेष संरचना एवं इतिहास का पता चल पायेगा। प्रकृति एवं विभिन्न कारणों से खंडित व क्षरित हो रही प्रतिमाओं की सुरक्षा के लिये पत्थरों का रासायनिक उपचार भी आवश्यक है।

पुरातत्व विभाग का कहना है कि आदेश की प्रतीक्षा में हैं। पर आसपास के ग्रामीण सहित स्वयं पुरातत्व विभाग टीले में दबे मंदिर अवशेषों को जानने अविकल है।

- सीतेश कुमार द्विवेदी

Saturday, July 17, 2021

होली

होली की उमंग
मस्ती के रंग
फाग के संग

खेत खलिहान गर्व से भरे हैं, टेसू के फूल प्रकृति की सुन्दरता द्विगुणित कर रहे हैं, आम के बौर की भीनी सुगंध वातावरण को मादक बना रही है, बसंती झोंके तन मन को गुदगुदा रहे हैं, मदन देवता के धनुष पर पंचशर चढ़े हैं और प्रत्यंचा खिंची हुई है, धूप में कुनकुनाहट आ गई है इन सबका मूक संदेश है- होली आ रही है। होली मस्ती का त्यौहार, फाग का त्यौहार, बड़े-बूढ़े बच्चे सबका त्यौहार, आल्हादकारी और भेदभाव रहित त्यौहार।

होली के स्वरूप में अंतर भले ही हो किन्तु होली का उत्साह और उन्माद भारत भर में सब पर समान रहता है। होली का उन्माद सब पर एक सा क्यों न हो, किसके अंग न कसमसायेंगें इस मौसम में-
अंग-अंग कसमस हुए, कर फागुन की याद। आंखों में छपने लगे फिर मन के अनुवाद।।

होली की स्वरूपों की बात चल पड़ी है तो आइये कुछ प्रमुख और चर्चित होली देखते चलें- होली की चर्चा में पहला नाम फालैन का याद आता है। फालैन में होली मनाने का तरीका कोई विशेष अनोखा नहीं है, चर्चा का कारण है एक पण्डा परिवार। इस परिवार का कोई एक सदस्य हर होली के अवसर पर धधक चुकी होली के अग्निकुंड में से नंगे पांव निकला करता है। इसके लिये उसे अग्निकुंड पर 10-12 कदम चलने होते हैं, जिसमें लगभग आधे मिनट का समय लगता है। और इस समय होली की लपटें कम से कम 4-5 फीट ऊपर उठती रहती हैं। होली के अवसर पर फालैन का यह कार्यक्रम अत्यधिक अनूठा और आश्चर्य का विषय है।

चर्चित होलियों में पहला नाम नंदगांव और बरसाने की लठमार होली का है। फागुन के कृष्ण पक्ष की नवमीं को नंदगांव के हुरिहार और बरसाने की गोपिकायें इस कार्यक्रम का रूप संजोते हैं। नारियां घूंघट की आड़ में पुरुषों पर लाठी का प्रहार करती हैं और नंदगांव के हुरिहार उस प्रहार को ढाल पर रोकते हैं। बरसाने की होली के दूसरे दिन नंदगांव में भी ऐसी ही लठमार होली होती है। फर्क इतना है कि इस होली में बरसाने के गुसाईं हुरिहार होते हैं और नंदगांव की गोपियां प्रहार करती हैं।

मथुरा के निकट एक स्थान है, दाऊजी, यहां के हुरंगा अर्थात वृहद होली का अपना ही अंदाज है। पुरुष पिचकारी से महिलाओं पर टेसू का रंग डालते हैं और रिश्ते के इन देवर पुरुषों के कपड़े फाड़कर स्त्रियां कोड़े बनाती है, पानी में भीगे इन कोड़ों का प्रहार देवरों की पीठ लाल कर डालता है और स्त्री पुरुषों की टोली विदा होते समय पुरूष गाते हैं-
हारी रे गोरी घर, चाली रे कोई जीत चले हैं, ब्रज ग्वाल। स्त्रियों का प्रत्युत्तर कथन होता है- हारे रे रसिया, घर चाले रे कोई जीत चली है, ब्रजनार।

राजस्थान के एक नगर बाड़मेर की होली की अब सिर्फ यादें रह गई हैं। बाड़मेर की 60-70 वर्ष पूर्व की होली पत्थरमार होली हुआ करती थी। धुलेंडी अर्थात होलिका दहन की अगली प्रभात से ही 15 दिन पूर्व से की गई तैयारी वाली पत्थरबाजी प्रारंभ हो जाती थी। किन्तु न तो इसमें वैमनस्यता रहती थी न ही दुश्मनी का भाव। रस्सी अथवा कपड़े के कोड़ो से देवरों की पिटाई का प्रचलन यहां अब भी है। साथ ही एक परंपरा ईलाजी की प्रतिमा बनाने की है, मान्यता है कि ईलाजी बांझ महिलाओं को पुत्र प्रदान करते हैं।

वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में कहीं भी होली का उल्लेख नहीं है, किंतु अन्य गीतकारों ने अपने प्रिय देवताओं के होली का वर्णन किया है। फाग में होली अवध में राम भी खेलते हैं प्रजाजन और देवी सीता के साथ। शिव खेलते हैं गौरा के साथ, अपनी ही मस्ती में और ब्रज की होली नटवर कृष्ण का क्या कहना वह तो सखाओं, गोप-ग्वालों, राधा सभी के साथ खेलता है। होली के अवसर पर जितने फाग गीत गाये जाते हैं उतने गीत शायद ही किसी अन्य त्यौहारों में गाये जाते होगें। फाग के राम सीता की यह होली देखिये-
होरी खेले रघुबीरा अवध में।
केकरा हाथ कनक पिचकारी, केकरा हाथ अबीर।
राम के हाथ कनक पिचकारी, सीता के हाथ अबीर।

सूर सागर की बसंत लीला का राधा कृष्ण का फाग है-
मैं तो, खेलूंगी, कान्हा तोसे होरी बरजोरी।
हम घनश्याम बनब मथुरा में, तोहे नवल ब्रज वनिता बनाई।
मोर मुकुट कुंडल हम पहिरब, तोहे लला बेनूली पहनाई।
मुरली मधुर लेबि हम अपना, चूड़ी पहनाइब, कान्हा तोहरी कलाई।

बीकानेर में फाग ‘रम्मत‘ के रूप में प्रचलित है। रम्मतों में सास-बहू का ख्याल, देवर-भाभी की रम्मत, बूढ़े बालम की रम्मत और अमर सिंह राठौर की, आदि रम्मत होती है। रम्मत न के बराबर साज-श्रृंगार के बाद मंच पर खेली जाने वाली काव्य नाटिका है। मारवाड़ के गांव में जहां ढोला-मारू की प्रेमगाथा की बहुतायत है वहीं पेशवाओं के महाराष्ट्र में ‘तमाशे‘ का अपना रंग है। तमाशे के लिये मराठी शाहीर खास गीत रचा करते हैं और नर्तकियां उसे गाकर प्रेक्षकों का अनुरंजन करती हैं। एक तमाशे के गीत में मदनविद्ध नायिका अपने प्रेमी से कहती है-
सख्या चला बागामधिं रंग खेलू जरा, सब शिमम्याचा करा गुलाल गोटा घ्यावा
लाल हाती फेकू न मारा छाती, रंगभरी पिचकारी माझपाहाती
हरी करीन या रिती जसा वृन्दावनी खेले श्रीपति गोपी धेऊनी संगानी

कृष्ण प्रेमिका, बाजबहादुर की बेगम रूपमती ने लगभग 1637 विक्रम संवत में अपनी प्रेम कविता को फाग के रूप में लिखा है इसका माधुर्य दृष्टव्य है-
मोर मुकुट कुंडल को अतिछवि आंखन नैन अंजन धरे कोना। ‘रूपमती‘ मन होत बिरागी बाज बहादुर के नन्द दिठौना।।

मध्यप्रदेश में लगभग पूरे बुदेलखंड में प्रचलित चौकड़िया फाग ही गाया जाता है जो ईसुरी कवि की रचनायें मानी जाती हैं। छत्तीसगढ़ के हिस्से में भी विशेषकर श्रृंगारिक फाग का अत्यधिक प्रचलन है किन्तु कभी-कभी यह अश्लील दहकी गीतों की सीमा तक पहुंच जाता है। छत्तीसगढ़ी फागों में होली के त्यौहार को कुंवारों के लिये अनुपयुक्त माना गया है। एक ऋतु गीत की कुछ पंक्तियां उल्लेखनीय है-
माघ महिना राड़ी रोवय होत बिहनियां नहाय हो जाय
नहा खोर के घर म आवय अउ तुलसी हूम जलाय
फागुन महिना डिडवा रोवय गली-गली में खेले फाग।

नवभारत, रायपुर के होली परिशिष्ट, मुख्य लेख के रूप में, पृष्ठ-3 पर रविवार, दिनांक 11 मार्च 1979 को यह प्रकाशित हुआ था। संभवतः यही मेरा पहला लेख है, जिसके लिए समाचार पत्र के रामअधीर जी ने मौखिक रूप से अनुबंधित करते हुए, कुछ संदर्भ-सामग्री पढ़ने को दी। तब गूगल नहीं था। कुछ अपने पुराने नोट्स और याददाश्त काम आया। पारिश्रमिक भी मिला, लेकिन तब नवभारत के ऐसे परिशिष्ट में रविवार को मुख्य लेख छप जाना, छत्तीसगढ़ स्तरीय पुरस्कार से कम न था। अब लेख पढ़ते हुए लगा कि इस लेखक में थोड़ी सांस्कृतिक, साहित्यिक रुचि तब से है और उससे भविष्य में कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती थी।

Friday, July 16, 2021

कठपुतलियां

आइये-आइये आपके शहर में कठपुतलियों का नाच सिर्फ दस पैसे में आइये जल्दी आइये- माधव की बेजान सी आवाज एक पिचके चोंगे से विस्तारित हो रही थी। आज ही इस बस्ती में ये कठपुतली वाले आए, दिन भर जुटकर इन्होंने यह एक खेमा तैयार किया था और इस खेमे के आसपास ही इस बस्ती की लगभग सारी आबादी केन्द्रित थी।

रघु खेमे के अंदर टूटे से तख्ते पर बैठकर कठपुतलियां ठीक कर रहा था। यही तख्ता खेल शुरू होने पर मंच के काम आता था। इनकी बूढ़ी मां खेमे के पीछे आसपास से लकड़ियां चुनकर आग जला चुकी थी और उस पर भात की तैयारी में एक अल्यूमीनियम की पिचकी देगची में पानी रख रही थी। बाहर दरवाजे पर माधव और रमली दस-दस पैसे लेकर दर्शकों को अंदर भेजते जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माधव ने अंदर झांककर देखा। भीड़ काफी हो चुकी थी अतः खेल शुरू करने के लिये अंदर जाते जाते रमली से उसने कहा- ‘भाभी खेल शुरू होते होते दरवाजा बन्द कर देना।

अंदर जाकर उसने ढोलक संभाल ली और रघु डोरियों का फंदा अपनी ऊंगलियों में फंसाने लगा। ढोलक पर अब माधव के हाथ चलने लगे। दर्शकों का शोर थम गया और एक एक करके कठपुतलियां मंच पर आती गईं, रघु सीटी बजा बजाकर कठपुतलियां नचाता रहा और माधव तेज आवाज में दृश्य समझाता गया, कभी दर्शक दम साध लेते तो कभी बच्चों के खिलखिलाने की आवाज आने लगती और रघु के हाथों का दर्द तेज हो जाता, रघु के हाथों का बढ़ता हुआ दर्द डोरियों के सहारे उतर कर कठपुतलियों को जीवंत बना रहा था और मानों वे कठपुतलियां रघु की प्राण शक्ति को लेकर ही नाच रही थीं। अंततः ढोलक की एक तेज आवाज के साथ रघु की ऊंगलियों में तनी डोरियां ढीली पड़ गई, कठपुतलियों का यह खेल खत्म हो गया।

रोज ही हरेक तमाशे के बाद रघु और माधव के स्थान परिवर्तित हो जाया करते थे अब रघु बैठ रहा था ढोलक पर और डोरियां थी माधव के जिम्मे। अगले खेल में माधव के साथ ठीक वही हुआ जो पिछले खेल में रघु के साथ हुआ था इस बार खेल के अंतिम दौर में माधव कराह उठा था और उसकी कराह को बड़ी चतुराई से रघु के ढोलक की तेज थापों से दर्शकों तक न पहुंचने दिया था।

तीसरे दिन भी हर दिन की भांति दो खेल हो चुके थे। तीसरा खेल शुरू होना था काफी दर्शक आ चुके थे कुछ लोग तमाशा देखने के लिये आसपास के पेड़ों पर चढ़कर बैठे थे। माधव के मना करने पर उसे धमकी भी दे चुके थे। थोड़ी देर बाद ही खेल शुरू हुआ था। यह क्या हुआ? कठपुतलियों के मरने का दृश्य पांच मिनट बाद ही मंचित हो गया। माधव ने झांककर पर्दे में देखा। रघु ऊंगलियों से डोरियों का फंदा उतार चुका था और मंच के पिछले भाग पर दोनों हाथ, पैरों के नीचे दबाये हुए बैठा था।

माधव यह देख कर समझ गया कि रघु को फिर वही पुराना दौरा आया है, जो पहिले कभी महीनों में आया करता था, किन्तु फिर बीच के दिन कम होते गये और यदि रघु दिन में दो तमाशा दिखाना जारी रखे तो शायद रघु के हाथों का तमाशा ही खत्म हो जाये एक दिन। अचानक दर्शकों का शोर तेज हो गया, दर्शक समूह चूंकि पैसे देने के बाद भी पूरा खेल नहीं देख पाया था अतः उत्तेजित हो रहा था तो कुछ कठपुतलियों मर जाने पर उदास थे किन्तु अन्य सभी चिल्ला रहे थे- स्साले पैसे वापस करो नहीं तो सब पर्दे फाड़कर फेंक देंगे।

माधव ने रघु की सलाह से निर्णय लिया कि पैसे वापस कर दिए जाये नहीं तो हमारी खैर नहीं है। सभी दर्शकों को उनके पूरे पैसे वापस हो गए; इन्हें चिंता हुई दूसरे दिन की, रघु की नसें फूल आई थीं और माधव एक खेल ही दिखा सकता था, दिन में।

दूसरे दिन शाम इनमें फिर वही उल्लास था, नियति ने इनकी समस्या हल कर दी थी। रघु के हाथों की मांसपेशियां ठीक हो गई थीं। रघु सोच रहा था कि शायद आज वह तमाशा दिखाना शुरू करें तो फिर वही कल सा तमाशा न हो जाये खैर। कल पैसे भी कम मिले थे इन कठपुतली वालों को, फिर ऊपर से रघु के तेल पानी का खर्च। आज खाने को इन्हें आधा पेट ही मिल पाता अगर बुढ़िया बीमार न हो जाती। लगातार पिछले दिनों से बुढ़िया का ताप तेज था, फिर भी खाना बनाकर वह लेट रही थी किन्तु आज तो मानों उसका शरीर जल रहा था, खाना नहीं खाया गया उससे और ये तीनों फिर उसी तरह चावल की लेई मिर्च के साथ निगलकर तमाशे की तैयारी में लग गए।

रघु बड़ा प्रसन्न हो रहा था। आज फिर वह दो खेल सकुशल दिखा चुका था। लाख लाख दुआयें दे रहा था ईश्वर को। किन्तु उसकी वह प्रसन्नता टिकी न रह सकी। दूसरे दिन उसका पुराना दौरा पहले ही खेल के अंत में आ गया, उस दिन भी दो ही खेल हो पाये। पेट आज फिर न भर पाया था उनका, यह स्थिति देखकर रघु ने माधव से दो खेल दिखाने को कहा। माधव भी स्वीकृति देने के सिवा और क्या कर सकता था। अब किसी तरह माधव दो खेल दिखाया करता। रघु के हाथों को तो इस दौरे ने मानों नाकाम ही कर दिया था।

जीवन के एक दो दिन फिर शांति से गुजर गए इन यायावरों के किन्तु अब दर्द उठा माघव के हाथों में।

किसी तरह उसी लीक पर इनका जीवन पागे बढ़ता गया, माधव के हाथों ने रघु के हाथों की तेजी ले ली। अब वह किसी तरह दिन में दो खेल दिखा लिया करता था, कभी कमाई अच्छी हो जाती तो वे कुछ पैसे भविष्य के लिये बचा लेते। किन्तु कितने नादान थे ये। इनके भविष्य में कुछ भी तो नही था, आज ऐसी दुर्घटना घटी जिसने इनके जीवन के स्थायित्व को फिर से तितर बितर कर दिया। सबेरे उठकर उन्होंने देखा कि बुढ़िया के मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं। उनके परिवार की इस कठपुतली का नाच खत्म हो चुका था। बुढ़िया की दवा दारू से जो कुछ पैसे बचे रह गए थे उससे इन्होंने दाह संस्कार की सामग्रियां जुटाई। शवयात्रा में कुछ और लोग भी शामिल हो गए थे किन्तु उनमें कोई भी एक दूसरे से परिचित न था। रघु, माधव और इन्हें परिचय का एक ही सेतु जोड़ता था- गरीबी।

शवयात्रा में मनहूस शांति छाई थी। उन्हें अपने खेल की चिंता थी तो किसी को साहूकार के कर्ज की। कोई उस दिन के खाने के इन्तजाम के बारे में सोच रहा था तो किसी को बेटी की शादी की चिंता खाए जा रही थी।

बुढ़िया को जलाकर वे वापस आ गए, और खेमे में वहीं दायरा सा बना कर बैठ गए। तीनों के चेहरों पर कोई भाव न थे, न वे आपस में कुछ बोल ही पा रहे थे। काफी देर तक वे इसी तरह बैठे रहे, फिर तीनों की आंखें मानों आपस में सलाह करने लगीं। अचानक तीनों उठ खड़े हुए, रघु पर्दे गिराने लगा। रमली और माधव बांस पर कठपुतलियां बांधकर और ढोलक पीटते निकल गए।

रात को लोगों ने सुना, माधव की आवाज भोंपू से और तेज आ रही है- आइये आइये आपके शहर में कठपुतलियों का...।

सच्ची घटना पर आधारित, मेरी लिखी यह कहानी, समाचार-पत्र ‘नवभारत‘ रायपुर, दिनांक 13 मई 1979 के पृष्ठ 4 पर प्रकाशित हुई थी। अब इस कहानी का मूल्यांकन करते हुए कह सकता हूं कि प्रयास अच्छा है, किंतु इस लेखक में कहानीकार के लक्षण विरल हैं।