राजनीति में सक्रिय रामेश्वर शर्मा जी, मध्यप्रदेश में सिंचाई मंत्री रहे। भोपाल और दिल्ली में भी निवास था। उनके नाक के पास बड़ा सा मस्सा था, बताते थे कि यह अच्छा तो नहीं लगता, लोग कहते है कि निकलवा दूं, मगर मैडम (श्रीमती इंदिरा गांधी) मुझे इसी से पहचानती हैं। उनसे मिलने जाता हूं तो मस्से पर उंगली फिराता रहता हूं, उनकी नजर इस ओर जाती है और पूछती हैं, कैसे हैं शर्मा जी? 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में चुनाव लड़कर फिर किस्मत आजमाना चाहते थे और टिकिटार्थी बने रहे।
मुलाकात होने पर मुझे मेरे परिवार-जन से जुड़े किस्से और अपने बारे में ढेरों बातें बेलाग बताया करते थे। 1967 का विधानसभा चुनाव, आज का बेलतरा, इसके पहले सीपत और उससे भी पहले बलौदा विधानसभा क्षेत्र था, जहां वे प्रत्याशी थे। याद करते हुए बताते कि वोटों की गिनती के दौरान पिछड़ते जा रहे थे। जीतने की संभावना न के बराबर थी। मतगणना स्थल छोड़ कर जाने लगे तो मेरे पिता 'संत बाबू' ने ढाढस बंधाया कि अभी हमारे प्रभाव वाले मतदान केन्द्रों की गिनती बाकी है। आप देखिएगा कि यह अंतर आसानी से न सिर्फ कवर हो जाएगा, बल्कि हम जीतेंगे भी। ऐसा ही हुआ और मामूली अंतर से, मगर जीत हुई।
यहां प्रसंग सीपत वाले उनके भाई रामाधीन शर्मा जी से जुड़ा है। अनुमान होता था कि दोनों भाई के बीच रिश्ते सहज नहीं हैं। रामाधीन महराज, भक्त-साधक किस्म के व्यक्ति थे। गांव-समाज में आना-जाना कम। बिलासपुर न्यायालय में अक्सर आते। 1985-90 के बीच का दौर। पेशी से समय निकलता तो सीपत वाला शिलालेख पता करते, अन्य मूर्तियां देखने जिला पुरातत्व संग्रहालय आ जाते। संग्रहाध्यक्ष रहते हुए, मैं लगभग हर हफ्ते संग्रहालय की दर्शक पंजी देखता था। रामाधीन जी से इसी माध्यम से संपर्क हुआ। पंजी में उन्होंने टिप्पणी की थी कि उनके घर में कुछ प्राचीन अवशेष हैं, जिसे वे संग्रहालय को देना चाहते हैं। हमलोग, यानि मैं रायकवार जी के साथ सीपत उनसे मिलने गए।
पहली, दूसरी, तीसरी फिर मुलाकातों में उनकी नेकदिली और आत्मीयता देखने को मिली। हमलोगों को उनके घर में अंदर तक आवाजाही की छूट मिल गई, चाय-पान कराते। सहज भाव से कहते यह जीवन व्यर्थ जा रहा हे। ईश्वर की भक्ति न कर सका। मोह माया में पड़ा रह गया। मनाता हूं अगला जन्म मिले तो भगवान में मन रमे। बताते कि इस जीवन में तंत्र-मंत्र-यंत्र सब आजमाया है। वेंकटेश स्टीम प्रेस या ऐसे ही किसी अच्छे प्रकाशक से किताब मंगाया। उसमें मंत्र दिए थे। परीक्षण के लिए मोहन-मारण आजमाने लगा। सभी मंत्र सच्चे निकले, सध गए। आजमाने के लिए जिस पर मोहन का प्रयोग किया था, उसे किसी तरह समझा-बुझा कर बच गए। मारण मंत्र, आजमाने के लिए आह्वान कर लिया, मगर अपराध-बोध हुआ, बात खुद पर आने लगी, जान छुड़ना मुश्किल हो गया। तब हनुमान चालीसा से काम नहीं बना, हनुमान बाहुक और बजरंग बाण से बात बनी। पेशी से लौटते हुए आफिस आते। मधुमेह, मगर शक्कर वाली चाय और एक सिगरेट पीते। फिर गांव वापस। हम छेड़ते- लइका मन, महराजिन गम पाहीं त हमन बर रिस करिहीं, सदा गंभीर मुख-मुद्रा, मगर यह सुन कर चेहरे पर दुर्लभ मुस्कान आती।
संग्रहालय के लिए स्वयं पहल कर मूर्तियां दीं ही, साथ सीपत गांव में पड़े प्राचीन अवशेषों को दिखाया। गांव के बाहर खेतों में, तालाब के पास के अवशेष और तब मंदिर के बच रहे ढांचे को भी दिखाया, जो बाद में ढह गया। उन्होंने ही खबर दी कि मंदिर गिरने के कुछ देर पहले ही शिव-भक्त उनके ज्येष्ठ पुत्र वहां से लौटे थे। इस ढांचे से कलचुरि मंदिर-स्थापत्य समझने का अवसर मिला। जानकारी मिलती थी कि इस काल के मंदिरों की जंघा दो परतों में होती है। बाहिरी परत में मूर्तियां और भीतरी परत सादी चिनाई वाले पत्थर। और इन दोनों के बीच पत्थर के कत्तल-टुकड़े भरे होते हैं। इस संरचना में मंदिर के अंदर वाली परत बची रह गई थी और इसके विपरीत बिल्हा के पास स्थित किरारी गोढ़ी मंदिर में बाहिरी मूर्ति वाली परत है, अंदर की परत नहीं है।
रामाधीन जी ढेरों ज्ञान-विज्ञान, धर्मशास्त्र की बातें बताते। जाते-आते हमलोगों ने अनुभव किया कि सीपत में चाय का स्वाद अलग ही होता है। इस आसपास में ऐसा स्वाद हमारे अनुभव में सिर्फ गतौरा के दूध में है। रामाधीन महराज ने बताया कि मवेशी के चरने के लिए खुले मैदान, उपयुक्त वनस्पति हो तो दूध का स्वाद अच्छा होता है। रायकवार जी ने पुष्टि की, जिसे बाद में मैंने स्वयं भी अनुभव किया कि बनगवां राज में चैत-बैसाख, महुए के दिनों में दूध-चाय में महुए का स्वाद आ जाता है। पास के गांव नरगोड़ा के बारे में पता चला था कि वहां भी तालाब के किनारे कुछ पुरावशेष हैं। नाम भी रोचक लगा। पास-पास गांव, गुड़ी और (नर)गोड़ा। गुड़ी के पुरावशेषों के बारे में भी रामाधीन जी ने बताया।
अब आते हैं गुड़ी। छत्तीसगढ़ के मैदानी गांवों में गलियों का मेल, केंद्र, जहां सामान्यतः बीच बस्ती वाले ग्राम देवता का स्थान होता है, गुड़ी कहा जाता है। बस्तर का गुड़ी-गुड्डि, इससे मिलता-जुलता मगर कुछ अलग होता है। यहां गांव का नाम ही गुड़ी है और रोचक कि जिस टीले के कारण हमलोगों का ध्यान आकर्षित हुआ वह जिस तालाब के किनारे है, उस तालाब का नाम ‘चौड़ा‘ है। इस टीले के अवलोकन से संभावित काल, संरचना स्पष्ट हुई थी, जिसका प्रतिवेदन तब मेरे द्वारा तैयार किया गया था। इसके साथ स्व. सीतेश जी की याद।
खरौद निवासी सीतेश द्विवेदी जी मेरे परिचितों में, वास्तविक अर्थों में ‘श्रमजीवी‘ पत्रकार थे। बिलासपुर नवभारत की नींव की मजबूती में उनका नाम अविस्मरणीय रहेगा। जीवन में निरंतर मुश्किलों से जुझते हुए भी बाल-जिज्ञासु और प्रौढ़ रचनाशील बने रहे। हमलोगों के अभिन्न थे ही।
यहां उनके नाम से नवभारत, रायपुर, संपादकीय पृष्ठ पर 4 सितंबर '90 को प्रकाशित यह अंश, जिसे उन्होंने हमारे कार्यालयीन प्रतिवेदन के तथ्यों को यथावत रखते हुए, उसके आधार पर तैयार किया था।
टीले से निकलेगा प्राचीन विष्णु मंदिर अवशेष
बिलासपुर जिले के सीपत समीप ग्राम गुड़ी के टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पुरातत्वविदों का मानना है कि १२वीं-१३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित इस कलचुरी कालीन मंदिर के अवशेष का छत्तीसगढ़ (म.प्र.) के लिये विशेष महत्व का है। क्योंकि विष्णु मंदिरों की संख्या यहां न्यून है। टीले के नीचे दबे पुरावशेष को जानने सभी उत्सुक हैं।
यूं तो 'गुड़ी' से तात्पर्य किसी ग्राम का वह स्थान होता है जहां पंचायत बैठती है, पर यह उस ग्राम का नाम है जो बिलासपुर से २२ किलो मीटर दूर सीपत-बलौदा मार्ग पर स्थित है। जनसंख्या लगभग ढाई हजार है। अन्य ग्रामों की भांति यह भी सामान्य है। इसके उत्तर पश्चिम बाहरी भाग में ठरकपुर जाने वाली सड़क के किनारे वृक्ष एवं छोटी झाड़ियों से आच्छादित एक टीला है। यह टीला दूर से सामान्य व साधारण प्रतीत होता है। इसके आसपास कुछ पत्थर बिखरे पड़े है। इस टीले के समीप पहुंचने एवं बिखरे पत्थरों को देखने से उसके महत्व का आभास होता है।
ये पुरावशेष हैं, जो इतिहास की धरोहर हैं। बिखरे पत्थरों में से एक पर चतुर्भुजी विष्णु भगवान की प्रतिमा है, दूसरे पर हंस पंक्ति, तीसरे पर भी हंस पंक्ति, चौथे पर मिथुन युगल, पांचवें पर अश्वारोही, छठवें पर मंदिर शीर्ष, सातवें पर नारी आदि। टीले का दक्षिणी भाग अंशतः स्पष्ट है। ये सब विष्णु मंदिर के अवशेष. हैं। कालकम से प्रभावित होकर यह टीले के रूप में बदल चुका है। मिट्टी एवं पेड़-पौधों से ढंके इस टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पत्थरों पर की गई कलाकारी से इसका निर्माण १२वी-१३वीं शताब्दी के आसपास होने का अनुमान होता है। इनसे कलचुरि शैली स्पष्ट परिलक्षित होता है।
यह टीला एवं पुरावशेष लगभग १००० वर्ग मीटर में फैला है तथा अक्षांश मा २०-१० उत्तर एवं देशांश ८२-२० पूर्व पर स्थित है। गुड़ी ग्राम से होते नियमित निजी यात्री बसें चलती है। ग्रामीण बरसों से इस टीले को सिद्ध बाबा एवं देउर के रूप में दशहरा के समय विशेष पूजा करते आ रहे हैं। इस स्थल को प्राचीन व पवित्र मानते हैं। ग्राम देवता स्थान भी माना जाता है। यह पर्व त्यौहारों पर यहां धार्मिक कार्यक्रम यथा नवधा रामायण, कथा पारायण, प्रवचन आदि का आयोजन किया जाता है। प्राचीन काल से मंदिर होने की बात भी प्रचलित है।
यह टीला भू-सतह से लगभग ८ मीटर, ऊंचा, पूर्व पश्चिम में २३ मीटर लंबा एवं उत्तर-दक्षिण में लगभग १.? मीटर चौड़ा है। टीले पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां उग आई है। इन वनस्पत्तियों और मिट्टी पत्थर से टीला पर्याप्त रूप से ढंक चुका है। किन्तु दक्षिणी पार्श्व का एक भाग उघड़ा हुआ है जिससे अधिष्ठान की संरचना अंशतः परिलक्षित होती है।
टीले के पूर्व में चौड़ा तालाब है, पश्चिम में एक नहर प्रवाहित है, जबकि अन्य ओर यह खेतों से घिरा हुआ है। समीप ही गुड़ी से ठरकपुर जाने वाली सड़क है। यह मैदांनी भू भाग है। इस टीले में ध्वस्त मंदिर होने की बात ग्रामीण बरसों से पुरखों से सुनते आ रहे हैं। पर पुरातत्वीय और ऐतिहासिक महत्व के इस स्थल का विवरण अब तक अप्रकाशित रहा।
इस टीले पर पड़े अवशेषों एवं दक्षिणी खुले भाग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ध्वस्त मंदिर १२वीं सदी ईस्वी में बनाया गया रहा होगा। मंदिर के पूर्वाभिमुख तथा सप्तरथ तल विन्यास योजना (चतुरंग) में होने का अनुमान स्पष्ट किया जा सकता है। वैसे छत्तीसगढ़ में विष्णु मंदिरों की संख्या न्यून है। जांजगीर एवं शिवरीनारायण में अवश्य इसके अच्छे प्रमाण हैं। अतः इस स्थल का विशेष महत्व है।
यह स्थल छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर से पूर्व दिशा की ओर लगभग १६ कि.मी. सीपत जूना शहर-शिव मंदिर से, आठ कि.मी. एवं बछौद गढ़ से लगभग १४ कि.मी. दूर स्थित है। ये तीनों प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। रतनपुर राजधानी, सीपत शिव मंदिर एवं बछौद गढ़ तीनों ध्वस्त हो गया है। समीपवर्ती इन तीनों प्राचीन स्थलों के बीच यह टीला विद्यमान है।
काल के किसी अज्ञात क्रम में ध्वस्त हुये, गिराये या दबाये गये इस मंदिर के अवशेषों को मिट्टी एवं पेड़ पौधों ने ढंक लिया है। कुछ अवशेषों को ग्रामीण अपने घरों में द्वार, सीढ़ी या दीवाल बनाने ले गये है, कुछ ने पनघट एवं श्मशान घाट में पुरावशेषों का उपयोग किया है। तो कुछ सिंघरी तालाब एवं चौड़ा तालाब के किनारों पर पड़े हैं। प्रकृति की बारहमासी मार को चलते ये अवशेष नष्ट भ्रष्ट होने जा रहे हैं। बलुआ पत्थरों से बनी अधिकतर पाषाण प्रतिमायें खंडित है इसलिये इनका क्षरण दर भी अधिक है।
सतह पर पड़ी कुछ प्रतिमाओं में प्रमुख ये है जिनमें प्रायः सभी बलुआ पत्थरों पर बनी खंडित एवं क्षरित है-
(१) सिरदल में खंडित नवग्रह पटल मध्य चतुर्भुजी विष्णु।
(२) मिथुन युगल प्रतिमा- जिसकी भंगिमा और कलात्मक सौंदर्य विशेष उल्लेखनीय है।
(३) अर्द्ध स्तम्भ पर नारी की खंड़ित प्रतिमा यह संभवतः किसी मुख्य देव प्रतिमा के पार्श्व उत्कीर्ण परिचारिका या पार्श्व देवी का अंश है।
(४) हंस पंक्ति-पंक्तिवार उत्कीर्ण हंस अत्यंत संतुलित और नियमित है।
(५) एक और पाषाण पटल में हंस पंक्ति है जिनमें पूर्व की भांति साम्यता एवं हंसों के उकेरण में लयात्मकता और व्यतिक्रम उल्लेखनीय है।
(६) एक पाषाण फलक पर तीन अश्वारोही हैं। संभवतः किसी वीर सैनिक या सती की स्मृति में यह बनाया गया होगा।
(७) टीले के नीचे पड़े दो पत्थर मिले है जो गर्भगृह एवं सभा मण्डप में ऊपर लगने वाले शीर्ष पत्थर है।
(८) टीले के ऊपर दो विशाल पत्थर भी रखे है संभवतः ये तरासकर मंदिर सभा मंडप के खंभे बनाये जाते।
टीले पर से खड़े होकर देखने पर चारों ओर का वातावरण मनमोह लेता है। दो ओर खेत, पास में बहती नहर, एक ओर तालाब, दूसरी ओर हरा-भरा मैदान। खेतों के पार दूर पहाड़ियों की श्रृंखला।
१२वीं- १३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित पूर्वाभिमुख विष्णु मंदिर के ध्वंसावशेष की पूर्ण प्राप्ति, स्थल मलबा सफाई एवं उत्खनन से संभव है। हालांकि दो वर्ष पूर्व शासन ने इस स्थान को संरक्षित स्थल घोषित कर दिया है। पर अभी तक कोई रक्षक यहां नियुक्त नहीं किया गया है। निर्जन स्थान पर मैदानी भाग में टीले व आसपास बिखरे पुरावशेषों की सुरक्षा के लिये चौबीसों घंटे सुरक्षा आवश्यक है। स्थल मलबि सफाई एवं उत्खनन से मुख्य विष्णु प्रतिमा सहित अन्य पुरा-प्राप्तियां मिलने की संभावना है। तभी मंदिर की शेष संरचना एवं इतिहास का पता चल पायेगा। प्रकृति एवं विभिन्न कारणों से खंडित व क्षरित हो रही प्रतिमाओं की सुरक्षा के लिये पत्थरों का रासायनिक उपचार भी आवश्यक है।
पुरातत्व विभाग का कहना है कि आदेश की प्रतीक्षा में हैं। पर आसपास के ग्रामीण सहित स्वयं पुरातत्व विभाग टीले में दबे मंदिर अवशेषों को जानने अविकल है।
- सीतेश कुमार द्विवेदी
बहुत ही ज्ञानवर्धक, जानकारी युक्त। इसमें सीतेश भाई को स्वर्गीय लिखा है आपने, मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। ये कब हो गया ? शायद २०१५ से २०१७ के बीच जब मैं बस्तर में था ?
ReplyDeleteठीक तिथि ध्यान में नहीं, मगर संभवतः करोना काल में ही। उनके पुत्र की भी आकस्मिक मृत्यु कार दुर्घटना में हो गई।
Deleteपुरातात्विक महत्व के नवीन स्थल का ज्ञान हुआ |
ReplyDeleteसर सादर प्रणाम