Showing posts with label रामगढ़. Show all posts
Showing posts with label रामगढ़. Show all posts

Monday, July 4, 2022

रामगढ़ की रंगशाला

जानकारी मिलती है कि ‘धर्मयुग‘ साप्ताहिक पत्रिका के 23 मार्च और 30 मार्च 1969 के अंकों में कुंतल गोयल जी का लेख छपा था, जिसका शीर्षक था- ‘रामगढ़ की पहाड़ियां जिनमें एशिया की अतिप्राचीन नाट्यशाला आज भी विद्यमान है‘। यहां प्रस्तुत लेख के कुछ तथ्य और स्थापनाएं यद्यपि भिन्न हैं, फिर भी इसका महत्व स्वयं स्पष्ट है। इसी विषय पर ‘रामगढ़ की रंगशाला‘ शीर्षक से यह लेख ‘रायपुर सम्भाग लघु समाचार पत्र सम्पादक संघ‘ की, हरि ठाकुर, रमेश नय्यर, शरद कोठारी के सम्पादन में 1980 में प्रकाशित स्मारिका में छपा था, यथावत-

भारत की लोक नाट्य संस्कृति का प्रागैतिहासिक केन्द्र
रामगढ़ की रंगशाला
- डा. कुन्तल गोयल
मनीषा भवन, न्यू कालोनी, अंबिकापुर, (सरगुजा) (म. प्र.)

भारतीय नाट्य कला के विकास में मध्यप्रदेश का योगदान विशिष्ट रहा है। यहां की संगीत-नाट्य परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्धिशाली रही है। महाकवि कालिदास, भवभूति, धनंजय आदि ने इस कला को समृद्धि के शिखर पर पहुंचाया है। कवि कालिदास के पूर्व के आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रंगशालाओं तथा प्रेक्षागृहों का जो वर्णन किया है, वह आज भी सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर सुरक्षित है और यह विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं एकमात्र नाट्यशाला के रूप में प्रसिद्ध है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र रूपकों (नाटकों) के शास्त्रीय अध्ययन का सर्वप्रथम ग्रन्थ माना जाता है जिसमें कहा गया कि ऋग्वेद से शब्द, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से गान तथा अथर्ववेद से रस लेकर ब्रह्मा ने ललित-कलात्मक ‘नाट्य वेद‘ की सृष्टि की। इस तरह नृत्य, नाट्य एवं संगीत एक दूसरे से मिले-जुले हैं। नाट्य कला का मूल स्रोत ऋग्वेद ही है। इस आधार पर कहा जाता है कि रंगमंच को अभिनय कला से सम्बद्ध करने का श्रेय भारत को ही है। रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी, कामसूत्र, पतंजलि महाभाष्य आदि ग्रन्थों के आधार पर भी इसकी पुष्टि होती है कि भारतीय वांङमय से ही नाट्य कला का जन्म हुआ है। पाश्चात्य विद्वानों ने इस कला के उन्नयन का श्रेय यूनान को दिया है तथा नाच को नाटक का पूर्व रूप माना है। उन्होंने संस्कृत के नट तथा नाटक शब्द को नट् धातु से उद्भूत कहा है। किन्तु नाटककार धनंजय ने अभिनय के द्वारा रस-सृष्टि को ही नाट्य कहा है। उनकी दृष्टि में अभिनय द्वारा भाव-प्रदर्शन, नृत्य, ताल एवं लय के साथ हस्त-पाद संचालन नृत्य है। इस तरह नाट्य कला विशुद्ध रूप से भारतीय संस्कृति की धरोहर है। सरगुजा के रामगढ़ पर्वत की गुफायें नाट्यशाला के रूप में व्यवहत हुई हैं।

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में दक्षिण-पश्चिम की ओर अंबिकापुर से लगभग ५० किलोमीटर दूर बिलासपुर मार्ग में उदयपुर ग्राम के निकट स्थित रामगढ़ पर्वत प्राकृतिक वन-सुषमा से सम्पन्न रामायण एवं महाभारत कालीन स्मृतियों का ही धनी नहीं है वरन् मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में सबसे अधिक प्राचीन है। यह स्थान सुन्दर मनोहारी वनों एवं पहाड़ियों से घिरा हुआ है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई ३२०२ फुट तथा धरातल से २००० फुट है। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर, गुफाओं एवं भित्ति चित्रों से प्राचीन एवं वैभवपूर्ण भारतीय संस्कृति का आभास मिलता है। यूं पहाड़ी पर अनेक मंदिरों के खण्डहर, गुफायें तथा अनेक दर्शनीय मूर्तियां हैं किन्तु सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण हैं, पहाड़ी के शिखर पर स्थित ‘सीता बोंगरा‘ और ‘जोगीमारा गुफा‘। इन गुफा तक पहुँचने के लिए १८० फुट लम्बी एक पथरीली, विशाल, प्राकृतिक सुरंग पार करनी पड़ती है यह सुरंग इतनी ऊंची है कि हाथी भी इसमें बड़ी सरलता से प्रवेश कर सकता है। संभवतः इसी से इसे ‘हाथीखोह‘ या ‘हाथीपोल‘ कहा गया है। इसी सुरंग के ऊपर सीताबोंगरा और जोगीमारा की अद्वितीय कलात्मक गुफायें हैं। ये गुफायें पहाड़ी के उत्तरी भाग और पश्चिमी ढलान पर स्थित उत्तर से दक्षिण तक फैली हैं। उत्तरी गुफा ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से जानी जाती है और दक्षिणी गुफा ‘जोगीमारा‘ गुफा कहलाती है। कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने वनवास काल के समय इसी रामगढ़ पर्वत पर निवास किया था तथा सीता जी ने जिस गुफा में आश्रय लिया था, वह ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई। बाद में यही गुफायें रंगशाला के रूप में कला प्रेमियों का स्थल बनीं। कर्नल औसले ने सन् १८४८ में तथा जर्मन विद्वान डा. ब्लाख ने सन् १९०४ में सर्वप्रथम इन गुफाओं के संबंध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला। इस तरह इन विद्वानों के द्वारा ही सरगुजा की इस विश्व प्रसिद्ध लोक नाट्य परम्परा के प्राचीन इतिहास का एक गौरवमय पृष्ठ सबके सम्मुख आया।

सीताबोंगरा: सबसे प्राचीन रंगशाला

“सीताबोंगरा“ एशिया की ही नहीं वरन् विश्व की सबसे प्राचीन एकमात्र रंगशाला है। इसकी बनावट नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता भरत मुनि द्वारा वर्णित नाट्य मण्डप जैसी है। कुछ विद्वानों के अनुसार सीताबोंगरा का निर्माण मौर्यकालीन लोमश ऋषि-गुफा के पूर्व का है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व यह सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि पहले पर्वत-गुफाओं में ही नाटक खेले जाते थे। इसके आधार पर ही भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ में गुफाकृति वाले नाट्य मण्डप की व्यवस्था दी। यही नहीं नाट्यशास्त्र में मण्डप के बाह्य तथा आंतरिक भित्ति पर कलात्मक अलंकरण तथा भित्ति लेख का जो वर्णन मिलता है, उसे देखते हुये सीताबोंगरा तथा जोगीमारा की गुफायें भारतीय रंगमंच के सबसे प्राचीन उदाहरण कहे जा सकते हैं।

सीताबोंगरा की यह गुफा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काटकर बनाई गई है। यह ४४ फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। दीवालें सीधी हैं तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई ६ फुट है जो भीतर की ओर केवल ४ फुट रह जाती है। मुख्य द्वार के सम्मुख शिला निर्मित चन्द्राकार सोपान सदृश्य संयोजित पीठें हैं जो कि बाहर की ओर हैं। इन पर बैठकर दर्शकगण नाटकीय दृश्यों, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द लिया करते थे। इन पीठों पर लगभग ५० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी। प्रवेश द्वार के समीप ही भूमि कोनों की पीठों की उपेक्षा कुछ निचाई पर है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें दो छिद्र हैं जिन्हें प्रवेश द्वार के निकट फर्श को काटकर बनाया गया है। इनका उपयोग खम्भे गाड़कर पर्दे लगाने के लिए किया जाता था। नाट्य मण्डप में इस तरह के पर्दा या तिरस्कारिणी की व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन है। शीत या वर्षां ऋतु से बचने के लिये दर्शकगण अन्दर चौड़ी पीठों पर बैठ जाया करते थे और पर्दे के बगल में खड़े होकर कलाकार अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। इस रंगशाला की तुलना यूनानी ऐंफो-थियेटर से की जाती है।

डा. कटारे के अभिमत से यह रंगशाला मुख्यतः नाट्य और नृत्य के लिये उपयोग में लाई जाती थी और इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति के इतिहास में इसे अद्वितीय तथा अति प्राचीन समझना चाहिए। प्राचीन काल में भारत में गुफाओं का उपयोग नृत्यशाला के लिए किया जाता था। ऐसी कुछ गुफायें मिली हैं जिनमें पीठों की व्यवस्था से यह कहा जा सकता है कि ये नृत्य एवं नाट्य के लिए उपयोग में लाई जाती थीं। प्राचीन लोग ‘शोभिका‘ (गुहा सुन्दरी) का संबंध उनसे मानते हैं जो नृत्य और हैं नाट्य के लिए थीं। संभवतः आज के अशिक्षित आदिवासी अपने लोक नृत्यों द्वारा इसी हजारों वर्ष पुरानी लोक अभिनय की परम्परा को ही दोहराते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। सरगुजा ऐसे ही लोक नृत्यों की भूमि है।

नाट्यकला के विद्वानों की राय में महाकवि भवभूति का ‘‘उत्तर रामचरित‘‘ नाटक इसी सीताबोंगरा नाट्यशाला में यशोवर्मन के काल में अभिनीत किया गया था। पाली भाषा में उत्कीर्ण लेखों के अनुसार काशी के कलाकार देवदीन ने इस नाटक में भाग लिया था और उनके साथ नाट्यशाला की देवदासी सुतनुका ने अभिनय किया था।

सीताबोंगरा के प्रवेश द्वार के उत्तरी हिस्से पर गुफा की छत के ठीक नीचे मगधी भाषा में ३ फुट ८ इंच लम्बी दो पंक्तियाँ उत्कीर्णं हैं जिनके अक्षरों का आकार प्रकार ढाई इंच है। वे अब अस्पष्ट हैं:-
आदिपयति हृदय। सभावगरू कवयो ये रातयं........ दुले वसंतिया। हासावानुभूते। कुदस्पी तं एवं अलगेति।

इन पंक्तियों का आशय यह है- ‘हृदय को आलोकित करते हैं। स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में ...... वासंती दूर है। हास्य और संगीत से प्रेरित। चमेली के पुष्पों की मोटी माला को ही आलिंगन करता है।‘

इससे यह स्पष्ट है कि यह गुफा सांसारिकता से पृथक साधु-संतों की तपोस्थली ही नहीं थी वरन् यह एक कलात्मक एवं सांस्कृतिक आयोजनों का स्थान था जहां कविता का सस्वर पाठ होता था, प्रेम गीत गाये जाते थे तथा नाटकों का अभिनय किया जाता था। इसका संबंध किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से न होकर मानवीय गुणों एवं अनुभूतियों से था सीताबोंगरा की यह रंगशाला ग्रीक थियेटर के आकार की बनी होने के कारण ही कतिपय विद्वान भारतीय नाट्य कला पर ग्रीक नाट्य कला का प्रभाव मानते हैं। किन्तु अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का यह अभिमत है कि यह कला विशुद्ध रूप से भारतीय परिवेश में ही अम्युदित हुई है तथा विकसित हुई है। असित कुमार हलधर का यह मत है कि प्राचीन भारतीय प्रेक्षागृह का एकमात्र यही उदाहरण उपलब्ध है।

जोगीमारा गुफा: नृत्यांगनाओं का विश्राम कक्ष 

‘सीताबोंगरा‘ के निकट ही ‘जोगीमारा‘ गुफा है जो ३० फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। गुफा का द्वार पूर्व की ओर है। भारत की चित्रकला में इसे ‘वरूण का मंदिर‘ कहा गया है। यहाँ सुतनुका देवदासी रहती थी जो वरूण देव को समर्पित थी। कहा जाता है कि सुतनुका देवदासी ने सीताबोंगरा नृत्यशाला में नृत्य करने वाली नृत्यांगनाओं के लिये विश्राम कक्ष के रूप में इसे बनवाया था। सुतनुका जितनी सुन्दर थी, उतनी ही संगीत, नृत्य एवं अभिनय कला में दक्ष थी। यह सुतनुका देवदासी एक प्रेम-कथा की नायिका कही गई है। गुफा की उत्तरी भित्ति पर ये पांच पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं:-
पहली पंक्ति - शुतनुक नाम
दूसरी पंक्ति - देवदार्शक्यि।
तीसरी पंक्ति - शुतनुक नम। देवदार्शक्यि।
चौथी पंक्ति - तं कमयिथ वलन शेये।
पांचवीं पंक्ति - देवदिने नम। लुपदखे।

इन पंक्तियों का आशय है- सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में) सुतनुका नाम की देवदासी उसे प्रेमासिक्त किया। मूर्खतावश ( बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के रूपदक्ष ने।

इस संबंध में आचार्य कृष्णदत्त वाजपेयी का मत है कि लेखों से ध्वनि निकलती है कि सुतनुका नाम की नर्तकी थी जिसके लिए देवदासी तथा रूपदर्शिका इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है इसके प्रेमी का नाम देवदत्त था। संभवतः इसी देवदत्त के द्वारा गुफाओं में उक्त लेख अंकित कराये गये ताकि उस स्थान पर उसकी नाट्य प्रिया सुतनुका का नाम अजर-अमर हो जाये।

इस पृष्ठभूमि मे सुतनुका तथा देवदत्त (देवदीन) की एक प्रणय-कथा उभरती है जिसका नायक है देवदीन जो रंगशाला का रूपदक्ष था और नायिका सर्वांग सुन्दरी सुतनुका देवदासी थी। इस श्रेष्ठ रूपदक्ष देवदीन ने देवदासी को प्रेम-आसक्त करने का मूर्खतापूर्ण कार्य किया। देवदीन रंगीन चित्रकारी में पटु था। उसका कार्य सुतनुका तथा नाटक के अन्य पात्रों को नृत्य एवं नाट्य कला के अनुरूप रूप देकर सज्जित करना था। देवदीन ने सुननुका की रूपश्री पर मोहित होकर उसे अपने प्रेमपाश में आबद्ध कर लिया। सुन्दर, सुडौल, कलामयी, सरल हृदया सुतनुका देवदीन की चेष्टाओं में उलझ गई। नाट्यशाला के अधिकारियों ने उनकी इस प्रणय लीला का विरोध किया और भविष्य में लोगों को सचेत करने के लिए इस प्रणयकथा को गुफा की भित्ति पर अंकित करवा दिया। सीताबोंगरा की भित्ति पर जो अभिलेख उत्कीर्ण है, उससे यह भी स्पष्ट होता है कि सुतनुका के वियोग में व्यथित देवदीन ने अपने प्रेम को स्थायित्व देने के लिए उद्गार स्वरूप इसे अंकित किया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा में भारतीय भित्ति चित्रों के सबसे प्राचीन नमूने अंकित हैं। भित्ति चित्रों के अधिकांश भाग मिट गए हैं और सदियों की नमी ने भी उन्हें काफी हद तक प्रभावित किया है। कला की दृष्टि से यद्यपि ये श्रेष्ठ नहीं कहे जा सकते फिर भी उनकी प्राचीनता के संबंध में संदेह नहीं किया जा सकता। इन चित्रों को पृष्ठभूमि धार्मिक है। भारत में शिलाखण्डों को काट कर चैत्य विहार तथा मंदिर बनाने की प्रथा थी और उनकी भित्तियों पर पलस्तर लगाकर चूने जैसे पदार्थों से चिकना कर जो चित्र बनाये जाते थे, उन्हीं के अनुरूप यह जोगीमारा गुफा है। विद्वानों ने इसकी चित्रकारी ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की मानी है। ये भित्ति चित्र अजन्ता तथा एलोरा के गुफा मन्दिरों की भाँति हैं जो यहां के पुरातन सांस्कृतिक सम्पन्नता का प्रतीक हैं। डा. हीरालाल ने इन भित्ति चित्रों को बौद्ध धर्म से संबंधित कहा है तथा रायकृष्णदास की राय में ये जैन धर्म से सम्बद्ध हैं जिन्हें कलिंग नरेश खारवेल ने बनवाया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा कवि कुलगुरू कालिदास से भी संबंधित कही जाती है। उनके ‘मेघदूत‘ का यक्ष इसी जोगीमारा गुफा में निर्वासित था जहां से उसने अपनी प्रिया को प्रेम का पावन सन्देश दिया था। यहां के अप्रितम प्राकृतिक वन-सौन्दर्य एवं जल-कुण्ड का वर्णन कालिदास ने अपने ‘मेघदूत‘ में किया है। यहीं पर सघन सुशीतल छायादार वृक्ष हैं तथा सीताजी द्वारा पवित्र किया गया जल-कुण्ड है। यही वह स्थान है जहां श्रीरामजी ने सीताजी सहित अपने वनवास काल में विश्राम किया था।

रामगढ़ की इन गुफाओं में उत्कीर्ण शिलालेखों से ‘मेघदूत‘ के कथानक की पर्याप्त सादृश्यता है। एक ओर वसंत के पूनम की खिली मादक रात्रि, गायन, वादन एवं नाट्य का मनोरंजक सम्मेलन, विरह कातर प्रेमी अपनी प्रिया के अभाव में चमेली की मादक गंध वाली माला में ही अपनी प्रिया की समीपता का अनुभव करता है और दूसरी ओर ‘मेघदूत‘ में कजरारे बादल, शीतल मंद बयार से उद्वेलित विरह कातर प्रेमी, प्रिया की स्मृति में सन्तप्त रहता है। उक्त शिलालेख कवि कालिदास के पूर्व का होने में कारण सम्भावित है कि कवि ने इसी से अपने ‘मेघदूत‘ के कथानक की प्रेरणा ग्रहण की हो। इस तरह स्पष्ट है कि रामगढ़ पहाड़ी पर स्थित ‘सीताबोंगरा‘ और ‘जोगीमारा‘ की ये गुफायें सरगुजा के वन-बीहड़ अंचल में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सांस्कृतिक आयोजनों, संगीत, नृत्य, नाटक एवं कविता-पाठ के द्वारा यहां के जन-मानस का मनोरंजन करती रही हैं तथा दर-दर के कलाप्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रही हैं। उस समय भी यहाँ के निवासी इतने सुसंस्कृत एवं कलाप्रिय थे कि अपनी कलाप्रियता की स्पष्ट छाप यहाँ के जन-मानस पर सदैव के लिए अंकित कर गये हैं।

डॉ. कुन्तल गोयल का परिचय एवं चित्र उनके एक अन्य लेख के साथ इस लिंक पर है।

Monday, March 28, 2022

सरगुजा - कुन्तल

डॉ. श्रीमती कुन्तल गोयल का जन्म 31.12.1935 (देहांत 25 अक्टूबर 2015) को बैकुण्ठपुर, कोरिया में साहित्यिक अभिरुचि वाले परिवार में हुआ। आपके पिता स्व. बाबूलाल जैन ‘जलज‘ स्वयं द्विवेदी कालीन कवियों में थे। आपके चार भाइयों में डॉ. कान्ति कुमार जैन प्रतिष्ठित साहित्यकार हुए। आपका विवाह निबंधकार प्रोफेसर उत्तम चन्द्र जैन गोयल से हुआ। आपने सन 1971 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से 'नृतत्व एवं समाजशास्त्र के आधार पर छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के लोकगीतों का अध्ययन‘ विषयक शोध-उपाधि, डॉ. महावीरसरन जैन के निर्देशन में प्राप्त की। यह शोध-प्रबंध पुस्तक रूप में ‘काले कंठों के श्वेत गीत‘ शीर्षक से प्रकाशित है। आपके कहानी संग्रह, संस्मरण, ललित निबंध और छत्तीसगढ़ की लोक कथाएँ प्रकाशित हैं। विभिन्न सम्मान पुरस्कारों के साथ आपको छत्तीसगढ़ शासन का प्रतिष्ठित ‘पं. सुंदरलाल शर्मा साहित्य सम्मान-2009‘ प्राप्त है।

सरगुजा अंचल की संस्कृति परउनका लेखन महत्वपूर्ण रहा है। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। यहां प्रस्तुत उनका लेख ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ पत्रिका (10 अप्रैल 1983) में प्रकाशित हुआ था। लेख के साथ परिचय दिया गया है कि ‘‘प्रस्तुत लेख में सरगुजा जिले की वन-सम्पदा पर विस्तार से जानकारी दी है. वहीं वृक्षारोपण की ओर भी संकेत किया है. इसके साथ ही सरगुजा जिले का ऐतिहासिक संदर्भ भी प्रस्तुत किया है.“


इतिहास के पृष्ठों को समेटे
सरगुजा की वनश्री

सरगुजा जिले का प्राकृतिक एवं सुरम्य सौन्दर्य सदैव से प्रकृति प्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है. आकाश छूते हरे-भरे पत्तों से लकदक सघन साल वन और उनसे झरती रोशनी का सम्मोहन, खिलते हुए पलाश, रस भरे महुये और दूर-दूर तक फैली उनकी मधुर मादक गंध, खिल-खिल करते गुलमोहर, गगनचुम्बी वृक्षों की सघन पातें, मध्य में हरियाली से आच्छादित पर्वत श्रेणियों से घिरे वर्तुलाकार समतल भूरे मैदान, कहीं-कहीं एक भयावह मायाजाल की अनुभूति देता अभिनव सौन्दर्य, वन्य पशुओं की गर्जन-तर्जन के बेधक स्वर- सचमुच ही सरगुजा जिले के ऊंघते अनमने वनों को एक निराली रहस्यमयता प्रदान करते हैं. साथ ही सुरम्य और रमणीक साल वन ने उनकी रूप-छवि में श्रीवृद्धि कर उसे “स्वर्ग“ बना दिया. वर्ष में संभवतः कुछ ही दिन ऐसे होते हैं जब साल वृक्ष पत्रविहीन होता है. जब इन वृक्षों में नये पुष्प खिलते हैं तब लालिमायुक्त फूलों का आकर्षण दूर से ही हमारी दृष्टि-परिधि को बांध लेता है और मन तरंगित हो उठता है. इन वनों के कारण ही सरगुजा का ग्रीष्मकाल अत्यन्त शीतल रहता है और उसकी रातें बड़ी सुहावनी और मादक होती है. स्वर्गिक विलास के ये अभिन्न सहचर सरगुजा के ये सघन वन और उसका सौन्दर्य अपने आप में एक ऐसा तिलस्म है जिसे देख पाना आसान नहीं है.

यहां की धरती अरबों टन कोयला से समृद्ध है जो इन्हीं वनों की देन है. सरगुजा यदि लम्बे काल तक बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा तो उसका एक प्रमुख कारण यही रहा कि सघन साल वनों की ढाल ने उस पर शत्रुओं की नजर नहीं लगने दी. महाकान्तर कहलाने वाले जिस सघन और विशाल वन का उल्लेख उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक विभाजक रेखा के रूप में प्राचीन काल से स्वीकार किया जाता रहा है, सरगुजा के वन उसी का अभिन्न अंग हैं. यद्यपि महाकान्तर जैसी गहनता अब नहीं रह गई है तथापि सरगुजा का सौन्दर्य उसके सघन वनों और उनमें विचरण करने वाले विविध वन्य प्राणियों में आज भी सुरक्षित है.

सरगुजा के साल वन अनेक चिर-स्मरणीय घटनाओं के साक्षी रहे हैं. वे अपने क्रोड़ में न केवल धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों को संजोये हुए हैं वरन् पौराणिक आख्यानों के साक्ष्य भी प्रस्तुत करते हैं. पीढ़ियों से इन वनों ने जन-जीवन की गतिविधियों को प्रभावित किया है तथा भारतीय संस्कृति के उन्नयन में उनका प्रेरक योगदान रहा है.

प्राचीन काल में सरगुजा अंचल “दण्डकारण्य“ के अंतर्गत समाविष्ट था. दण्डक के नामकरण के संबंध में यहां एक किंवदन्ती प्रचलित है- कहा जाता है कि एक बार भारी दुर्भिक्ष पड़ने पर सभी ऋषियों ने अपने आश्रमों का त्याग कर महर्षि गौतम के आश्रम में शरण ली. दुर्भिक्ष की समाप्ति पर जब ऋषिगण प्रस्थान हेतु उनसे विदा मांगने आये तो महर्षि ने उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया. ऋषियों ने यह स्वीकार तो कर लिया पर उन्होंने मुक्त होने के लिये एक मायावी गाय की रचना की और उसे एक खेत में खड़ा कर दिया. जब महर्षि उसे भगाने के लिये गये तो वह गिर कर मर गई. ऋषियों ने अनुकूल अवसर पाकर गौ-हत्या का पाप लगाया. महर्षि ने अपने योग बल से वस्तु स्थिति की सत्यता भांप ली और ऋषियों को यह श्राप दिया- तुम जहां भी जाओगे, वह स्थान नष्ट-भ्रष्ट होकर वनस्पतियों से विहीन हो जायेगा. तभी से यह स्थान “दण्डकारण्य“ या “दण्डक वन“ नाम से विख्यात हुआ. कहा जाता है कि भगवान राम के दण्डकारण्य में प्रवेश करने पर उनके चरण-स्पर्श से यह क्षेत्र श्रापमुक्त होकर पुनः सौन्दर्यश्री से समृद्ध हुआ.

भगवान राम ने अपने वनवास की कुछ अवधि सरगुजा के इन्हीं सघन वन कांतरों में व्यतीत की थी. जिस पर्वत पर उन्होंने आश्रय लिया था वह पर्वत आज भी उनके कारण “रामगढ़“ या “रामगिरि“ के नाम से विख्यात है. उनके चरण-स्पर्श से यह स्थल हरितिमायुक्त सौन्दर्यश्री से मण्डित हुआ. इसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों में भी हुआ है-“दंडक पुहुमि माय परस पुनीत भई उकटे विटप लागे फूलन फलन.“ यहीं पर वह मतंग वन जो अपनी गोद में मातिन पर्वत को समाये हुए है. बाल्मीकि रामायण में भी अनेक स्थलों पर साल वनों का उल्लेख मिलता है. भगवान राम की विशाल मनोहर पर्णकुटी साल पत्तों से ही आच्छादित की गई थी. प्रयाग से चित्रकूट जाने वाला मार्ग भी साल वनों से ही सुशोभित था. कहा जाता है कि भरत की सेना को देखने के लिये लक्ष्मण पुष्पित साल वृक्ष पर चढ़े थे. ये सभी प्रसंग सरगुजा के साल वनों की समृद्धि को रेखांकित करते हैं. यह एक आश्चर्य है कि इस अंचल में आज भी 120 फुट तक आकाश की ऊंचाई छूने वाले साल वृक्षों का सौन्दर्य नितान्त उनका अपना ही है।

सरगुजा के इन्हीं साल वनों में आर्य संस्कृति के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अनेक आर्य ऋषियों ने अपने आश्रमों की स्थापना की थी और आजीवन वहां निवास किया था. रामगढ़ पर्वत पर विद्यमान महामुनि वशिष्ठ का आश्रम आज भी दर्शनीय है. शरभंग, सुतीक्ष्ण आदि ऋषियों के आश्रम भी इन्हीं वनों में थे जहां भगवान राम ने ऋषियों को संत्रस्त करने वाले क्रूर राक्षसों के विनाश की कठोर प्रतीज्ञा ली थी. राक्षसों के बध का प्रमाण यहां का “रकसगण्डा“ नामक वह स्थल है जो राक्षसों की हड्डियों के ढेर के कारण अपने नाम को सार्थक करता है.

महाभारत काल में पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास इन्हीं सघन वनों में व्यतीत किया था. उन्हें खोजते हुए कौरव भी इस जनपद में आये थे. कहा जाता है कि कौरवों और पाण्डवों के सम्पर्क से यहां की स्त्रियों को जो सन्तानें उत्पन्न हुई, वे आज भी अपने को “कौरवा“ और “पाण्डो“ कहती हैं तथा कौरव-पाण्डवों को अपना वंशज मानती हैं. ये जातियां बड़ी धनुर्विद, युयुत्सु और दर्पीली हैं कुछ वर्षों पूर्व सरगुजा रियासत में कौरव जाति का इतना आतंक था कि बाहर से पाने वाले यात्री को वे सहज ही लूट लिया करते थे. इस संबंध में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि यदि शेर से वे बच भी गये तो कोरवों से बच पाना उनके लिये नितान्त असम्भव था. यहां एक दिलचस्प बात यह है कि ये जातियां भारत के किसी अन्य स्थान में नहीं पाई जाती. यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि महाभारतकालीन विराट नगर सरगुजा के सीमावर्ती शहडोल जिले में स्थित सोहागपुर क्षेत्र है जहां से उन्होंने सरगुजा के सघन वनों में प्रवेश कर अपने को अज्ञात रखा था.

जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव भी इस वन्यांचल पर कम नहीं पड़ा. यहां की जोगीमारा गुफा में प्राप्त तीर्थकर का भित्ति चित्र तथा पहाड़ी पर स्थित मंदिर में जैन तीर्थकरों के चिन्ह जैन धर्म के प्रभाव के साक्ष्य हैं. कहा जाता है कि ये कलिंग नरेश खारवेल के समय के हैं जो जैन धर्मावलम्बी था. सरगुजा में प्राप्त बौद्धकालोन अवशेषों की अपनी कहानी है. भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायियों को अपने जीवन काल में पांच वृक्ष लगाने और उनका पांच वर्ष तक संरक्षण करने का उपदेश दिया था. इसके पीछे यह व्यावहारिक सत्य था कि जहां वन हैं वहां जल है, जहां जल है वहां अन्न है और जहां अन्न है वहां जीवन है. डा. शूमाखर ने भी अपने “बौद्ध अर्थशास्त्र“ में लिखा है- “जब तक भारत में पेड़ लगाने और उनका पोषण करने की बौद्ध परम्परा प्रचलित रही, न कभी अकाल पड़ा, न कभी सूखा. बाढ़ें भी नहीं आती थी.“ इस कथन की सत्यता इस काल में यहां चरितार्थ हुई. आज भी सरगुजा में बौद्धकालीन अवशेष सघन वनों के मध्य पाये जाते हैं. प्राकृतिक वैभव से सम्पन्न यहां का मैनपाट बौद्धकालीन गुफाओं एवं मठों के लिये सर्वप्रसिद्ध है. कहा जाता है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत यात्रा के दौरान कुछ समय यहां भी व्यतीत किया था. यहां के हरचौका, ग्राम में बौद्ध भिक्षुत्रों के जो 18 मठ मिले हैं. वे सब सुरम्य वनों के मध्य ही स्थापित हैं. सरगुजा के बौद्धकालीन अवशेष वनों के प्रति अपने आत्मीय भाव का परिचय देते हुए यहां की प्राकृतिक सम्पदा को श्रीवृद्धि ही नहीं कर रहे वरन् अपनी बौद्ध परम्परा का भी निर्वाह कर रहे हैं.

सरगुजा के इन वन प्रान्तरों ने हमारी बौद्धिक चेतना को जाग्रत कर हमारी अनुभूतियों का भी सिंचन किया है. आदिकवि बाल्मीक ने अपनी रामायण में सरगुजा के साल वनों की महिमा गाई है. महाकवि कालिदास ने रामगढ़ पर्वत के चारों ओर प्राकृतिक सुषमा और अभिनव सौन्दर्य से प्रभावित होकर राम की विरहावस्था का संकेत लेकर अपनी अमर कृति “मेघदूत“ की रचना की. उन्होंने अपनी प्रिया के विरही यक्ष को सघन छायादार सुशीतल वृक्षों से शोभित इसी रामगिरि में निवास कराया है. भवभूति का “उत्तर रामचरित“ भी यहां की वनश्री के विविध सौन्दर्य छवियों से रूपायित है.

सरगुजा के इन्हीं वनांचलों ने बड़े स्नेह से पशु-पक्षियों को भी आश्रय दिया है. यहां के आदिवासी वृक्षों के ही नहीं वनचरों के भी सहचर रहे हैं. देशी राज्य सरगुजा अपने राज्य काल में विविध वन्य पशुओं का समृद्ध आश्रय स्थल था. यहां के वन शेर, हाथी, चीता, गेंडा, जंगली भैंसा, हिरण, बारहसिंगा, बराह तथा विभिन्न प्रकार के मनोरम पशु-पक्षियों से सुशोभित रहे हैं. शेरों की यहां कई जातियां उपलब्ध थीं. विश्व प्रसिद्ध सफेद शेर मोहन सबसे पहले सीधी-सरगुजा क्षेत्र में ही देखा गया था. चीता नामक शेर की जो नस्ल समाप्त हो गई है, वह यहां 1932 तक जीवित रूप में देखा गया था. कहा जाता है कि रियासत काल में यहां शेरों को संख्या इतनी अधिक थी कि प्रवासियों का इनसे बचकर पा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था. इस संबंध में यह लोकोक्ति अत्यन्त प्रचलित थी- “जहर खाय न माहुर खाय, मरे का होय तो सरगुजा जाय.“ आशय यही है कि मरने के लिये जहर खाने की आवश्यकता नहीं है. सरगुजा के हिंस्र पशु ही इसके लिये पर्याप्त है.

सरगुजा के वन प्रान्तर गज-यूथों के लिये भी सुप्रसिद्ध रहे हैं. यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के अवसर पर हाथियों का भव्य जुलूस निकाला जाता था, ऐसी भव्यता कम ही रियासतों में देखने को मिलती होगी. स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दिनों में महाराजा रामानुजशरण सिंह देव ने अपनी सेना से 100 हाथी महात्मा गांधी के आयोजन को सफल बनाने के लिये रांची भिजवाये थे. महाराजा द्वारा यहां के हाथी पन्ना, छतरपुर, ग्वालियर, झांसी, आदि बुन्देलखण्ड के महाराजाओं को भेंट स्वरूप भी दिये जाते थे.

सरगुजा के महाराजा विश्व के माने हुए शिकारियों में से एक थे. उन्हें जिम कार्बेट से भी सौ गुना बड़ा शिकारी माना जाता है. वनराज के लिये उनका एक ही अचूक निशाना पर्याप्त होता था. उन्होंने अपने जीवन काल में 1300 शेरों का शिकार कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया था. आज भी महाराजा द्वारा शिकार किये गये अनेक नखी एवं खूंखार वन्य प्राणियों के अवशेष “सरगुजा पैलेस“ में देखे जा सकते हैं. रियासत काल में यहां प्रति वर्ष 20 से 30 शेर मारे जाते थे और 40 वर्षों तक निरन्तर शेरों का इस तरह शिकार किये जाने पर भी उनकी संख्या कम नहीं हुई. इसका एक कारण यही रहा है कि यहां के सघन वनों में उतने शेरों की परवरिश करने की क्षमता थी. यहां कभी मनोरंजन के लिये निरीह पशुओं का शिकार नहीं किया गया. यही वह क्षेत्र है जहां लुप्तप्राय पैंथर का अंतिम शिकार 1932 में किया गया था. इन वन्य पशुओं के अतिरिक्त यहां के वन मयूर नृत्यों से शोभित, कोकिलों की कूक से गुंजित विविध मनोहारी पक्षियों से ही दर्शनीय नहीं है वरन् यहां के लोक गीतों में वे संस्कृति के समृद्धशाली तत्वों के रूप में भी अवतरित हुए है.

सरगुजा एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है और यहां के आदिवासी बीहड़ एवं घने वनों क मध्य स्थित छोटे-छोटे ग्रामों में निवास करते ह यहां की आदिवासी संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति है. गौंड, शबर, निषाद, उरांव आदि जातियां यहां के वनों से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं. ये वन इनके सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन का आधार हैं. वृक्षों से इनके जीवन का लालन-पालन होता है. इनके फल-फूल इनके जीवनयापन के ही नहीं इनकी श्रृंगारिक अभिरुचियों को भी सन्तुष्टि प्रदान करते हैं. इस तरह वन, वन्य पशु और वनवासी प्राकृतिक समग्रता के अंग हैं. वृक्षों में ये अपने कुल देवता के में निवास मानते हैं. अपने शांत, सुखद और समृद्धपूर्ण जीवन के लिये वे इनकी विधिवत पूजा अर्चना करते हैं. अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण ये देवी-देवताओं को भेंट करने के लिये छोटे-छोटे उपवन लगाते हैं जिन्हें “सरना“ कहा जाता है. यह स्थान अत्यंत पवित्र और पूज्य माना जाता है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसे सुरक्षित रखा जाता है. सरगुजा में सरना प्रथा प्रचलित होने के कारण यहां के वनों को अनजाने संरक्षण मिलता रहा है. साल, महुआ, बड़, पीपल, आंवला आदि वृक्ष इनके जीवन में इतने रच बस गये हैं कि ये उनके लिये उपास्य देव बन गये है. आर्य संस्कृति से प्रभावित इनकी मान्यता के अनुसार वट तथा पीपल की जड़ में ब्रह्म देवता का निवास माना जाता है. सन्तान प्राप्ति के लिये स्त्रियां वट तथा आंवला वृक्ष की पूजा करती हैं. महुआ में महुआ देव का में निवास माना जाता है तथा नीम वृक्ष में आदि शक्ति देवी का पवित्र निवास मानकर बड़ी श्रद्धा से उसकी पूजा-अर्चना की जाती है. नीम, पीपल, वट आदि पवित्र वृक्षों के चारों ओर चबूतरा बनाकर ध्वजा स्थापित कर बड़े विधि-विधान के साथ आदिवासी स्त्री और पुरुष अपनी भावनाओं को अर्पित करते हैं. और इनसे आशीर्वाद की कामना करते हैं. ये वृक्ष, ये वन इन वनवासियों के लिये अपने ही जैसे सजीव और हितकारी हैं. इन वृक्षों की महत्ता इनके लिये सामाजिक कार्यों में भी कम नहीं है. जिस लड़की के विवाह अधिक कठिनाई आती है या जिसका विवाह होता ही नहीं है, उसका विवाह कपड़े में लिपटी महुये की लकड़ी से कर दिया जाता है. इसके बाद उस लकड़ी को वन में किसी वृक्ष से बांध दिया जाता है. जो भी व्यक्ति सर्वप्रथम प्राकर उसे बन्धन मुक्त करता है, उससे उस लड़की का विवाह कर दिया जाता है.

हमारे वेदों और ऋषि मुनियों ने वृक्ष संवर्द्धन को “स्वर्ग का द्वार“ निरूपित किया है. इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर के धनी सरगुजा के ये साल वन आज संकट के दौर से गुजर रहे हैं. हम आज उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब हर सरगुजावासी साल वनों के गौरवपूर्ण इतिहास से गुजर कर सम्राट अशोक की तरह कह सकेगा- “रास्ते पर मैंने वट वृक्ष रोप दिये हैं जिससे मनुष्यों और पशुओं को छाया मिले. अमराइयां लगाई हैं जो फल दें.“ यदि हम ऐसा कर सके जो निश्चित ही सरगुजा कल की तरह आज भी स्वर्ग की सार्थकता सिद्ध कर सकता है.
डॉ. कुंतल गोयल पर डॉ. रेखा दुबे ने
शोध किया, जो पुस्तक रूप में
2013 में प्रकाशित हुआ।