डॉ. श्रीमती कुन्तल गोयल का जन्म 31.12.1935 (देहांत 25 अक्टूबर 2015) को बैकुण्ठपुर, कोरिया में साहित्यिक अभिरुचि वाले परिवार में हुआ। आपके पिता स्व. बाबूलाल जैन ‘जलज‘ स्वयं द्विवेदी कालीन कवियों में थे। आपके चार भाइयों में डॉ. कान्ति कुमार जैन प्रतिष्ठित साहित्यकार हुए। आपका विवाह निबंधकार प्रोफेसर उत्तम चन्द्र जैन गोयल से हुआ। आपने सन 1971 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से 'नृतत्व एवं समाजशास्त्र के आधार पर छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के लोकगीतों का अध्ययन‘ विषयक शोध-उपाधि, डॉ. महावीरसरन जैन के निर्देशन में प्राप्त की। यह शोध-प्रबंध पुस्तक रूप में ‘काले कंठों के श्वेत गीत‘ शीर्षक से प्रकाशित है। आपके कहानी संग्रह, संस्मरण, ललित निबंध और छत्तीसगढ़ की लोक कथाएँ प्रकाशित हैं। विभिन्न सम्मान पुरस्कारों के साथ आपको छत्तीसगढ़ शासन का प्रतिष्ठित ‘पं. सुंदरलाल शर्मा साहित्य सम्मान-2009‘ प्राप्त है।
सरगुजा अंचल की संस्कृति परउनका लेखन महत्वपूर्ण रहा है। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। यहां प्रस्तुत उनका लेख ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ पत्रिका (10 अप्रैल 1983) में प्रकाशित हुआ था। लेख के साथ परिचय दिया गया है कि ‘‘प्रस्तुत लेख में सरगुजा जिले की वन-सम्पदा पर विस्तार से जानकारी दी है. वहीं वृक्षारोपण की ओर भी संकेत किया है. इसके साथ ही सरगुजा जिले का ऐतिहासिक संदर्भ भी प्रस्तुत किया है.“
इतिहास के पृष्ठों को समेटे
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सरगुजा की वनश्री
सरगुजा जिले का प्राकृतिक एवं सुरम्य सौन्दर्य सदैव से प्रकृति प्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है. आकाश छूते हरे-भरे पत्तों से लकदक सघन साल वन और उनसे झरती रोशनी का सम्मोहन, खिलते हुए पलाश, रस भरे महुये और दूर-दूर तक फैली उनकी मधुर मादक गंध, खिल-खिल करते गुलमोहर, गगनचुम्बी वृक्षों की सघन पातें, मध्य में हरियाली से आच्छादित पर्वत श्रेणियों से घिरे वर्तुलाकार समतल भूरे मैदान, कहीं-कहीं एक भयावह मायाजाल की अनुभूति देता अभिनव सौन्दर्य, वन्य पशुओं की गर्जन-तर्जन के बेधक स्वर- सचमुच ही सरगुजा जिले के ऊंघते अनमने वनों को एक निराली रहस्यमयता प्रदान करते हैं. साथ ही सुरम्य और रमणीक साल वन ने उनकी रूप-छवि में श्रीवृद्धि कर उसे “स्वर्ग“ बना दिया. वर्ष में संभवतः कुछ ही दिन ऐसे होते हैं जब साल वृक्ष पत्रविहीन होता है. जब इन वृक्षों में नये पुष्प खिलते हैं तब लालिमायुक्त फूलों का आकर्षण दूर से ही हमारी दृष्टि-परिधि को बांध लेता है और मन तरंगित हो उठता है. इन वनों के कारण ही सरगुजा का ग्रीष्मकाल अत्यन्त शीतल रहता है और उसकी रातें बड़ी सुहावनी और मादक होती है. स्वर्गिक विलास के ये अभिन्न सहचर सरगुजा के ये सघन वन और उसका सौन्दर्य अपने आप में एक ऐसा तिलस्म है जिसे देख पाना आसान नहीं है.
यहां की धरती अरबों टन कोयला से समृद्ध है जो इन्हीं वनों की देन है. सरगुजा यदि लम्बे काल तक बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा तो उसका एक प्रमुख कारण यही रहा कि सघन साल वनों की ढाल ने उस पर शत्रुओं की नजर नहीं लगने दी. महाकान्तर कहलाने वाले जिस सघन और विशाल वन का उल्लेख उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक विभाजक रेखा के रूप में प्राचीन काल से स्वीकार किया जाता रहा है, सरगुजा के वन उसी का अभिन्न अंग हैं. यद्यपि महाकान्तर जैसी गहनता अब नहीं रह गई है तथापि सरगुजा का सौन्दर्य उसके सघन वनों और उनमें विचरण करने वाले विविध वन्य प्राणियों में आज भी सुरक्षित है.
सरगुजा के साल वन अनेक चिर-स्मरणीय घटनाओं के साक्षी रहे हैं. वे अपने क्रोड़ में न केवल धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों को संजोये हुए हैं वरन् पौराणिक आख्यानों के साक्ष्य भी प्रस्तुत करते हैं. पीढ़ियों से इन वनों ने जन-जीवन की गतिविधियों को प्रभावित किया है तथा भारतीय संस्कृति के उन्नयन में उनका प्रेरक योगदान रहा है.
प्राचीन काल में सरगुजा अंचल “दण्डकारण्य“ के अंतर्गत समाविष्ट था. दण्डक के नामकरण के संबंध में यहां एक किंवदन्ती प्रचलित है- कहा जाता है कि एक बार भारी दुर्भिक्ष पड़ने पर सभी ऋषियों ने अपने आश्रमों का त्याग कर महर्षि गौतम के आश्रम में शरण ली. दुर्भिक्ष की समाप्ति पर जब ऋषिगण प्रस्थान हेतु उनसे विदा मांगने आये तो महर्षि ने उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया. ऋषियों ने यह स्वीकार तो कर लिया पर उन्होंने मुक्त होने के लिये एक मायावी गाय की रचना की और उसे एक खेत में खड़ा कर दिया. जब महर्षि उसे भगाने के लिये गये तो वह गिर कर मर गई. ऋषियों ने अनुकूल अवसर पाकर गौ-हत्या का पाप लगाया. महर्षि ने अपने योग बल से वस्तु स्थिति की सत्यता भांप ली और ऋषियों को यह श्राप दिया- तुम जहां भी जाओगे, वह स्थान नष्ट-भ्रष्ट होकर वनस्पतियों से विहीन हो जायेगा. तभी से यह स्थान “दण्डकारण्य“ या “दण्डक वन“ नाम से विख्यात हुआ. कहा जाता है कि भगवान राम के दण्डकारण्य में प्रवेश करने पर उनके चरण-स्पर्श से यह क्षेत्र श्रापमुक्त होकर पुनः सौन्दर्यश्री से समृद्ध हुआ.
भगवान राम ने अपने वनवास की कुछ अवधि सरगुजा के इन्हीं सघन वन कांतरों में व्यतीत की थी. जिस पर्वत पर उन्होंने आश्रय लिया था वह पर्वत आज भी उनके कारण “रामगढ़“ या “रामगिरि“ के नाम से विख्यात है. उनके चरण-स्पर्श से यह स्थल हरितिमायुक्त सौन्दर्यश्री से मण्डित हुआ. इसका उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों में भी हुआ है-“दंडक पुहुमि माय परस पुनीत भई उकटे विटप लागे फूलन फलन.“ यहीं पर वह मतंग वन जो अपनी गोद में मातिन पर्वत को समाये हुए है. बाल्मीकि रामायण में भी अनेक स्थलों पर साल वनों का उल्लेख मिलता है. भगवान राम की विशाल मनोहर पर्णकुटी साल पत्तों से ही आच्छादित की गई थी. प्रयाग से चित्रकूट जाने वाला मार्ग भी साल वनों से ही सुशोभित था. कहा जाता है कि भरत की सेना को देखने के लिये लक्ष्मण पुष्पित साल वृक्ष पर चढ़े थे. ये सभी प्रसंग सरगुजा के साल वनों की समृद्धि को रेखांकित करते हैं. यह एक आश्चर्य है कि इस अंचल में आज भी 120 फुट तक आकाश की ऊंचाई छूने वाले साल वृक्षों का सौन्दर्य नितान्त उनका अपना ही है।
सरगुजा के इन्हीं साल वनों में आर्य संस्कृति के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अनेक आर्य ऋषियों ने अपने आश्रमों की स्थापना की थी और आजीवन वहां निवास किया था. रामगढ़ पर्वत पर विद्यमान महामुनि वशिष्ठ का आश्रम आज भी दर्शनीय है. शरभंग, सुतीक्ष्ण आदि ऋषियों के आश्रम भी इन्हीं वनों में थे जहां भगवान राम ने ऋषियों को संत्रस्त करने वाले क्रूर राक्षसों के विनाश की कठोर प्रतीज्ञा ली थी. राक्षसों के बध का प्रमाण यहां का “रकसगण्डा“ नामक वह स्थल है जो राक्षसों की हड्डियों के ढेर के कारण अपने नाम को सार्थक करता है.
महाभारत काल में पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास इन्हीं सघन वनों में व्यतीत किया था. उन्हें खोजते हुए कौरव भी इस जनपद में आये थे. कहा जाता है कि कौरवों और पाण्डवों के सम्पर्क से यहां की स्त्रियों को जो सन्तानें उत्पन्न हुई, वे आज भी अपने को “कौरवा“ और “पाण्डो“ कहती हैं तथा कौरव-पाण्डवों को अपना वंशज मानती हैं. ये जातियां बड़ी धनुर्विद, युयुत्सु और दर्पीली हैं कुछ वर्षों पूर्व सरगुजा रियासत में कौरव जाति का इतना आतंक था कि बाहर से पाने वाले यात्री को वे सहज ही लूट लिया करते थे. इस संबंध में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि यदि शेर से वे बच भी गये तो कोरवों से बच पाना उनके लिये नितान्त असम्भव था. यहां एक दिलचस्प बात यह है कि ये जातियां भारत के किसी अन्य स्थान में नहीं पाई जाती. यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि महाभारतकालीन विराट नगर सरगुजा के सीमावर्ती शहडोल जिले में स्थित सोहागपुर क्षेत्र है जहां से उन्होंने सरगुजा के सघन वनों में प्रवेश कर अपने को अज्ञात रखा था.
जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव भी इस वन्यांचल पर कम नहीं पड़ा. यहां की जोगीमारा गुफा में प्राप्त तीर्थकर का भित्ति चित्र तथा पहाड़ी पर स्थित मंदिर में जैन तीर्थकरों के चिन्ह जैन धर्म के प्रभाव के साक्ष्य हैं. कहा जाता है कि ये कलिंग नरेश खारवेल के समय के हैं जो जैन धर्मावलम्बी था. सरगुजा में प्राप्त बौद्धकालोन अवशेषों की अपनी कहानी है. भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायियों को अपने जीवन काल में पांच वृक्ष लगाने और उनका पांच वर्ष तक संरक्षण करने का उपदेश दिया था. इसके पीछे यह व्यावहारिक सत्य था कि जहां वन हैं वहां जल है, जहां जल है वहां अन्न है और जहां अन्न है वहां जीवन है. डा. शूमाखर ने भी अपने “बौद्ध अर्थशास्त्र“ में लिखा है- “जब तक भारत में पेड़ लगाने और उनका पोषण करने की बौद्ध परम्परा प्रचलित रही, न कभी अकाल पड़ा, न कभी सूखा. बाढ़ें भी नहीं आती थी.“ इस कथन की सत्यता इस काल में यहां चरितार्थ हुई. आज भी सरगुजा में बौद्धकालीन अवशेष सघन वनों के मध्य पाये जाते हैं. प्राकृतिक वैभव से सम्पन्न यहां का मैनपाट बौद्धकालीन गुफाओं एवं मठों के लिये सर्वप्रसिद्ध है. कहा जाता है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत यात्रा के दौरान कुछ समय यहां भी व्यतीत किया था. यहां के हरचौका, ग्राम में बौद्ध भिक्षुत्रों के जो 18 मठ मिले हैं. वे सब सुरम्य वनों के मध्य ही स्थापित हैं. सरगुजा के बौद्धकालीन अवशेष वनों के प्रति अपने आत्मीय भाव का परिचय देते हुए यहां की प्राकृतिक सम्पदा को श्रीवृद्धि ही नहीं कर रहे वरन् अपनी बौद्ध परम्परा का भी निर्वाह कर रहे हैं.
सरगुजा के इन वन प्रान्तरों ने हमारी बौद्धिक चेतना को जाग्रत कर हमारी अनुभूतियों का भी सिंचन किया है. आदिकवि बाल्मीक ने अपनी रामायण में सरगुजा के साल वनों की महिमा गाई है. महाकवि कालिदास ने रामगढ़ पर्वत के चारों ओर प्राकृतिक सुषमा और अभिनव सौन्दर्य से प्रभावित होकर राम की विरहावस्था का संकेत लेकर अपनी अमर कृति “मेघदूत“ की रचना की. उन्होंने अपनी प्रिया के विरही यक्ष को सघन छायादार सुशीतल वृक्षों से शोभित इसी रामगिरि में निवास कराया है. भवभूति का “उत्तर रामचरित“ भी यहां की वनश्री के विविध सौन्दर्य छवियों से रूपायित है.
सरगुजा के इन्हीं वनांचलों ने बड़े स्नेह से पशु-पक्षियों को भी आश्रय दिया है. यहां के आदिवासी वृक्षों के ही नहीं वनचरों के भी सहचर रहे हैं. देशी राज्य सरगुजा अपने राज्य काल में विविध वन्य पशुओं का समृद्ध आश्रय स्थल था. यहां के वन शेर, हाथी, चीता, गेंडा, जंगली भैंसा, हिरण, बारहसिंगा, बराह तथा विभिन्न प्रकार के मनोरम पशु-पक्षियों से सुशोभित रहे हैं. शेरों की यहां कई जातियां उपलब्ध थीं. विश्व प्रसिद्ध सफेद शेर मोहन सबसे पहले सीधी-सरगुजा क्षेत्र में ही देखा गया था. चीता नामक शेर की जो नस्ल समाप्त हो गई है, वह यहां 1932 तक जीवित रूप में देखा गया था. कहा जाता है कि रियासत काल में यहां शेरों को संख्या इतनी अधिक थी कि प्रवासियों का इनसे बचकर पा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था. इस संबंध में यह लोकोक्ति अत्यन्त प्रचलित थी- “जहर खाय न माहुर खाय, मरे का होय तो सरगुजा जाय.“ आशय यही है कि मरने के लिये जहर खाने की आवश्यकता नहीं है. सरगुजा के हिंस्र पशु ही इसके लिये पर्याप्त है.
सरगुजा के वन प्रान्तर गज-यूथों के लिये भी सुप्रसिद्ध रहे हैं. यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के अवसर पर हाथियों का भव्य जुलूस निकाला जाता था, ऐसी भव्यता कम ही रियासतों में देखने को मिलती होगी. स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दिनों में महाराजा रामानुजशरण सिंह देव ने अपनी सेना से 100 हाथी महात्मा गांधी के आयोजन को सफल बनाने के लिये रांची भिजवाये थे. महाराजा द्वारा यहां के हाथी पन्ना, छतरपुर, ग्वालियर, झांसी, आदि बुन्देलखण्ड के महाराजाओं को भेंट स्वरूप भी दिये जाते थे.
सरगुजा के महाराजा विश्व के माने हुए शिकारियों में से एक थे. उन्हें जिम कार्बेट से भी सौ गुना बड़ा शिकारी माना जाता है. वनराज के लिये उनका एक ही अचूक निशाना पर्याप्त होता था. उन्होंने अपने जीवन काल में 1300 शेरों का शिकार कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया था. आज भी महाराजा द्वारा शिकार किये गये अनेक नखी एवं खूंखार वन्य प्राणियों के अवशेष “सरगुजा पैलेस“ में देखे जा सकते हैं. रियासत काल में यहां प्रति वर्ष 20 से 30 शेर मारे जाते थे और 40 वर्षों तक निरन्तर शेरों का इस तरह शिकार किये जाने पर भी उनकी संख्या कम नहीं हुई. इसका एक कारण यही रहा है कि यहां के सघन वनों में उतने शेरों की परवरिश करने की क्षमता थी. यहां कभी मनोरंजन के लिये निरीह पशुओं का शिकार नहीं किया गया. यही वह क्षेत्र है जहां लुप्तप्राय पैंथर का अंतिम शिकार 1932 में किया गया था. इन वन्य पशुओं के अतिरिक्त यहां के वन मयूर नृत्यों से शोभित, कोकिलों की कूक से गुंजित विविध मनोहारी पक्षियों से ही दर्शनीय नहीं है वरन् यहां के लोक गीतों में वे संस्कृति के समृद्धशाली तत्वों के रूप में भी अवतरित हुए है.
सरगुजा एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है और यहां के आदिवासी बीहड़ एवं घने वनों क मध्य स्थित छोटे-छोटे ग्रामों में निवास करते ह यहां की आदिवासी संस्कृति मूलतः वन्य संस्कृति है. गौंड, शबर, निषाद, उरांव आदि जातियां यहां के वनों से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं. ये वन इनके सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन का आधार हैं. वृक्षों से इनके जीवन का लालन-पालन होता है. इनके फल-फूल इनके जीवनयापन के ही नहीं इनकी श्रृंगारिक अभिरुचियों को भी सन्तुष्टि प्रदान करते हैं. इस तरह वन, वन्य पशु और वनवासी प्राकृतिक समग्रता के अंग हैं. वृक्षों में ये अपने कुल देवता के में निवास मानते हैं. अपने शांत, सुखद और समृद्धपूर्ण जीवन के लिये वे इनकी विधिवत पूजा अर्चना करते हैं. अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण ये देवी-देवताओं को भेंट करने के लिये छोटे-छोटे उपवन लगाते हैं जिन्हें “सरना“ कहा जाता है. यह स्थान अत्यंत पवित्र और पूज्य माना जाता है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसे सुरक्षित रखा जाता है. सरगुजा में सरना प्रथा प्रचलित होने के कारण यहां के वनों को अनजाने संरक्षण मिलता रहा है. साल, महुआ, बड़, पीपल, आंवला आदि वृक्ष इनके जीवन में इतने रच बस गये हैं कि ये उनके लिये उपास्य देव बन गये है. आर्य संस्कृति से प्रभावित इनकी मान्यता के अनुसार वट तथा पीपल की जड़ में ब्रह्म देवता का निवास माना जाता है. सन्तान प्राप्ति के लिये स्त्रियां वट तथा आंवला वृक्ष की पूजा करती हैं. महुआ में महुआ देव का में निवास माना जाता है तथा नीम वृक्ष में आदि शक्ति देवी का पवित्र निवास मानकर बड़ी श्रद्धा से उसकी पूजा-अर्चना की जाती है. नीम, पीपल, वट आदि पवित्र वृक्षों के चारों ओर चबूतरा बनाकर ध्वजा स्थापित कर बड़े विधि-विधान के साथ आदिवासी स्त्री और पुरुष अपनी भावनाओं को अर्पित करते हैं. और इनसे आशीर्वाद की कामना करते हैं. ये वृक्ष, ये वन इन वनवासियों के लिये अपने ही जैसे सजीव और हितकारी हैं. इन वृक्षों की महत्ता इनके लिये सामाजिक कार्यों में भी कम नहीं है. जिस लड़की के विवाह अधिक कठिनाई आती है या जिसका विवाह होता ही नहीं है, उसका विवाह कपड़े में लिपटी महुये की लकड़ी से कर दिया जाता है. इसके बाद उस लकड़ी को वन में किसी वृक्ष से बांध दिया जाता है. जो भी व्यक्ति सर्वप्रथम प्राकर उसे बन्धन मुक्त करता है, उससे उस लड़की का विवाह कर दिया जाता है.
हमारे वेदों और ऋषि मुनियों ने वृक्ष संवर्द्धन को “स्वर्ग का द्वार“ निरूपित किया है. इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर के धनी सरगुजा के ये साल वन आज संकट के दौर से गुजर रहे हैं. हम आज उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब हर सरगुजावासी साल वनों के गौरवपूर्ण इतिहास से गुजर कर सम्राट अशोक की तरह कह सकेगा- “रास्ते पर मैंने वट वृक्ष रोप दिये हैं जिससे मनुष्यों और पशुओं को छाया मिले. अमराइयां लगाई हैं जो फल दें.“ यदि हम ऐसा कर सके जो निश्चित ही सरगुजा कल की तरह आज भी स्वर्ग की सार्थकता सिद्ध कर सकता है.
डॉ. कुंतल गोयल पर डॉ. रेखा दुबे ने शोध किया, जो पुस्तक रूप में 2013 में प्रकाशित हुआ। |
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