क्योंकि बेजान हैं, अपेक्षारहित
परवाह नहीं करनी पड़ती
उनकी कोई पसंद या नापसंद।
उनके साथ मनमानी हो सकती है
कर सकते हैं खिलवाड़
स्मृति में अटके, अड़े-जड़े
और कभी पिघल कर
साबित हो जाता है उनसे
लेख, कहानी, कविता
और न बन सके तो
अकहानी, अकविता
पारंपरिक, आधुनिक, उत्तर आधुनिक
पूर्वज-वंशज मुक्त!
सबसे अलग, अनूठी, अनहोनी।
बातें, कभी बेतुकी, तुक बिठाकर
बहकने लगे, न संभले
तो कभी विराम से रोक कर
जान फूंकने की कोशिश
तुमसे ही,
कभी मार डाले जाते तुमसे ही तुम
सीखने की चाह में
अक्षर-अक्षर तोड़े गए
फिर से शब्द-शब्द जुड़ते तुम।
शब्द
गूढ़ गंभीर मंत्र, ऋचाएं, स्तुति, सूक्तियां
करुणा-सागर, क्रोध की ज्वाला, प्रेम का दरिया
नारे, भाषण, आश्वासन
इन्हीं बेजान निरर्थक शब्दों से
कोई पैदा कर देता है भरोसा
किसी और के पैदा किए उसी भरोसे के भरोसे
कितने नाजायज, पलते-बढ़ते, फलते-फूलते हैं।
बेजान ही होते हैं,
वरना घबरा कर पूछ बैठते
क्या हो गया हूं, कौन अब हूं।
तड़पते नहीं कोशों में जिल्दबंद,
न छटपटाते व्याकरण में लिपटे-बंधे, सहेजे
रस, छंद, अलंकार में सजे
मरी हुई भाषाओं में ही शब्द
ज्यों के त्यों
जिन्दा रह सकते हैं।
जिन्दा भाषाओं में बदलते रहते हैं
घिसते, पनपते
कभी उच्चारण, ध्वनि, भाव,
मुद्रा, भंगिमाएं
पूरा उलट-फेर कभी।
आवारा, बेगाने, निरर्थक
अर्थ पाने भटकते
बेवजह यहां-वहां टकराते
तुम टकसाली और ये
तुम्हारे जात-भाई
वे भी कैद होने वाले हैं
इन्हीं जिल्दों में तुम्हारे साथ
जन्मना शूद्र, संस्कारित द्विज
झूठ को सच बनाते कभी सोचा है
तुम तो सच को भी सच नहीं बना पाते।
शब्दों के साथ किया गया खिलवाड़
कविताई की आड़ में
सम्मानित नहीं हो सकता
अक्सर
माफ करने लायक भी नहीं होता।
सारा कुछ
कहा, बोला, लिखा, सुना गया
आखिर
उसी अव्यक्त के लिए ही तो है
इन बेजान शब्दों के बीच
कितना सार्थक हो जाता है मौन।
ईश्वर
अपने सभी समानार्थियों सहित
पसंद किया जाता है ऐसे ही
शब्दों की तरह।
यह रचना, कविता की प्रौढ़ समझ वालों के लिए है। अच्-हल् सूत्र, अपरा-परा-पश्यन्ती, क्षर-अक्षर, अक्षमालिकोपनिषद, नागकृपाणिका-सर्पबंध परमार शिलालेखों से सरसरी परिचय अपेक्षित है।
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