आज ‘कविता दिवस‘ पर मन का मैल-मलाल।
कला, साहित्य, संस्कृति- एक होती है समझ में आने वाली और दूसरी समझने-समझाने वाली। अमूर्त कला, कुछ खास संगीत और अधिकतर कविता के लिए मेरी संकीर्ण सीमा है कि वह व्याकरण, नियम, सिद्धांत के आग्रह बिना सहज बोध से समझ में आए। इसलिए रथन्तर-मार्गी के बजाय वृहत्साम-देशी तक सीमित रहना भाता है। छंद-लय तो स्वाभाविक होता है, मात्रा गिन की गई (अजीब, चौंकाने वाली बेतुकी) तुकबंदी या जोड़-तोड़ कर बिठाए गए शब्दों से, कविता नहीं हो जाती। अपरा से भ्रम होता है कि जीवन की कविता के परा को, उसके व्याकरण और विन्यास सहित सीख-समझ/पा लिया है।
बकौल प्लेटो, सुकरात का संवाद है- ‘ये (कवि) उन दिव्यदर्शी तथा भविष्यवक्ताओं जैसे ही हैं, जो बहुत-सी गूढ़ बातें कहते हैं, परन्तु स्वयं उनका अर्थ नहीं जानते।‘ या दूसरे शब्दों में ‘कवि ऐसी महान और ज्ञान भरी बातें कहते हैं जो वो खुद नहीं समझते।‘ यह कम रोचक नहीं कि स्वयं ‘कवि‘ प्लेटो कहता है कि आदर्श गणतंत्र में कवियों का कोई स्थान नहीं है। दूसरी तरफ प्लेटो के प्रति अरस्तू की अनेक शिकायतों में एक यह भी थी कि प्लेटो कवि था।
रेणु, त्रिलोचन में शमशेर-नागार्जुन के जोड़-घटाव का हिसाब बिठाते हैं, मगर यह भी कहते हैं कि- 'मुझे यह कबूल करने में कभी लाज-शर्म नहीं आयी कि मैं कविता नहीं समझता। मेरे लिए कविता समझने की चीज कभी नहीं रही। इसीलिए अपने मन में उठनेवाले इस सवाल का जवाब- शमशेर-त्रिलोचन-नागार्जुन की कविताओं में मैं कभी नहीं ढूँढ़ता।'
यों तो तुलसी स्वयं के लिए ‘कबि न होउं ...‘ और ‘कबित बिबेक एक नहीं मोरें ...‘ कहते हैं, शायद यही कारण है कि कभी न अबूझ लगे, न कठिन। तब भी जब शिव से कहलाते हैं- ‘सत हरि भजनु जगत सब सपना।‘ यह भी कहा गया है कि ‘शास्त्र केवल इंगित-भर करते रहते हैं। स्वयं तो वे केवल शब्दजाल हैं। . . . अपनी कल्पनाओं को ही तार्किक लोग ‘शास्त्र‘ माना करते हैं।‘ प्रस्थान-त्रयी में ‘स्मृति‘ महाभारत युद्ध के आरंभ में कही गई गीता है। युद्ध के पश्चात आश्वमेधिक पर्व में गीता से भी विस्तृत अनुगीता है, जिसकी भूमिका रोचक है। अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि आपने ज्ञान का उपदेश दिया था, वह भूल गया, अतः पुनः सुना दीजिए। कृष्ण कहते हैं कि तुमने अपनी नासमझी के कारण उसे याद नहीं रखा, यह मुझे अप्रिय है, तुम श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मंद जान पड़ती है। फिर मानों स्वयं भी स्वीकार कर रहे हों, कहते हैं- अब पूरा-पूरा स्मरण होना संभव नहीं जान पड़ता। उसको ज्यों का त्यों नहीं कह सकता, फिर से दुहरा देना मेरे वश की बात भी नहीं है। यहां अर्जुन का स्मृति-प्रस्थान श्रीमद्भगवतगीता का उपदेश भूल जाना, उसे कृष्ण का न दुहरा पाना, मानों ज्ञान का रहस्य रचते, श्रुति-स्मृति-न्याय की परतें भी खोल देता है।
महाभारत के एक प्रसंग में गंधर्व चित्रांगद, शांतनु पुत्र चित्रांगद से कहता है- राजकुमार! तुम मेरे सदृश नाम धारण करते हो, . . . नाम की एकता के कारण ही मैं तुम्हारे निकट आया हूं। मेरे नाम द्वारा व्यर्थ पुकारा जाने वाला मनुष्य मेरे सामने से सकुशल नहीं जा सकता। इस प्रसंग में व्यक्ति के अहम् और नाम-रूप को दुहरे चरित्र के सहज सूत्र से उजागर किया गया है। वाल्मीकि रामायण में केकय नरेश समस्त प्राणियों की बोली समझते हैं, तिर्यक् योनि में पड़े हुए प्राणियों की बातें भी उनकी समझ में आ जाती थीं। मेरे लिए इसका मर्म भी सहज ग्राह्य है, मगर . . .
अधिकतर आदरणीय कवियों से ले कर आधुनिक वालखिल्य-व्यास-वाल्मीकियों के मुझ प्रमाता-पाठक को कई बार ऐसा लगता है कि अजीब सी गुलजारनुमा बातें कहने का आत्मविश्वास भी कविताओं को जन्म दे सकता है। प्रेमचंदों को तो कोई ऐरा-गैरा भी पढ़ लेता है मगर मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल ऐसे नाम हैं, जिनका पाठक हो कर ही गौरवान्वित महसूस करता हूं, पसंद हैं ही, उनके प्रति आदर है, किंतु कई-कई बार आतंकित भी कम नहीं करते। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ की वक्रता मेरे लिए आज तक ज्यों की त्यों है, क्योंकि वहां ‘लटकी है पेड़ पर/ कुहासे के भूतों की सॉंवली चूनरी-/ चूनरी में अटकी है कंजी ऑंख गंजे सिर/ टेढ़े-मुॅंह चॉंद की।‘ चांद की सुंदरता में रोटी, हंसिया, बुढ़िया, खरगोश देखा जाता रहा है, मगर मुंह टेढ़ा यानि चांद को कुछ नापसंद है, मानव के चंद्र अभियान से रूसा-फूला है, या उसकी बनावट में ही कुछ गड़बड़ हो गई है, सीधे मुंह वाला चांद कैसा होता है! यह प्लास्टिक सर्जरी वाले डॉक्टर का विज्ञापन तो नहीं या ...! ‘कोसल में विचारों की कमी है‘ पढ़ कर सोच में पड़ जाता हूं कि विचारों में कमी की नाप कैसे संभव हुई होगी, क्या यह समूचे कोसलवासियों के लिए कही गई है या नियंता-नायकों के लिए। उस दौर में कहीं काशी, मगध, अवंती में विचारों की अधिकता भी रही होगी? क्या विचारों की कमी घातक होती है, तो विचारों की अधिकता कर्मनाशा तो नहीं हो जाएगी, फिर विचारों का सम क्या है? विचारों का सम, क्या सभ्यता को जड़ न कर देगा!
कई कवि और उनकी कुछ कविता, आपको रसिक पाठक होने की खुशफहमी से वंचित कर देने के लिए पर्याप्त होती हैं। ऐसी कविताओं का रस, समीक्षक ले पाते हैं या उनका जात-भाई, कोई अन्य कवि। कविता को हमारे शरीर जैसा होना चाहिए। शरीर में जिगर, गुर्दा न जानने वाला भी स्वस्थ, आनंदित रह सकता है और जानकार डाक्टर भी अपने शरीर के लिए समस्या पैदा कर लेता है। इसलिए बिंब, प्रतीक, रस, छंद, व्याकरण के शास्त्र से अनभिज्ञ, सामान्य समझ के पाठक भी रस पा ले वही सच्ची कविता अन्यथा एलीट साहित्य।
अपनी कविता ‘नासमझी‘ के सिलसिले मे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता याद आती है। ‘धीरे-धीरे रे मना ...‘ और ‘शनैः कंथा शनैः पंथा ...‘ के साथ कैसा लगेगा जब पढ़े-
'धीरे-धीरे'
मुझे सख़्त नफ़रत है
इस शब्द से।
धीरे-धीरे ही घुन लगता है
अनाज मर जाता है,
धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं
साहस डर जाता है।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है
संकल्प सो जाता है।
इसी तरह कुँवर नारायण के लिए मन में बात आती है कि ‘यह भी कोई कविता है महराज‘-
कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ
बाज़ारों की तरफ़ भी:
नहीं, कुछ ख़रीदने के लिए नहीं,
सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फ़ैशन में क्या है आजकल।
समझ नहीं पाता कि शमशेर बहादुर की इन पंक्तियों में आह-वाह वाली क्या बात है-
‘‘वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो।
नहीं तो जाओ
मरो।‘‘
बहरहाल, विचारों के साथ यह भी होता है कि ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह‘, जहां आदमी के धब्बे के अंदर आदमी है, पेड़ का धब्बा बिलकुल पेड़ की तरह है और रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा रद्दी नस्ल के घोड़ा की तरह, पढ़ कर घबराहट होती है मगर ‘हताशा से बैठ गया व्यक्ति‘ और ‘अपनी भाषा में शपथ‘ जैसी सीधी बात, पसंद आती है। अज्ञेय और नागार्जुन जैसे दिग्गज शब्दों से खेल-खिलवाड़ करते रहे हैं, उससे आगे निराला की कवितानुमा ‘उटपटांग‘ पंक्तियों को माना जाता है कि मानसिक असंतुलन का परिणाम है, जबकि मुझे लगता है कि निराला ऐसी रचना से बताना चाहते थे कि कई बार वैसा ही प्रलाप, कविता मान ली जा सकती है।
अब, मेरी ऐसी कुछ पंक्तियां, जिन्हें कविताई के दावे की तरह रख रहा हूं-
निन्यानबे के अधूरेपन
और एकसौएक के पूरेपन के दौरान
सदी, शतक, सौ, 'K' का सपना।
आभासी क्षितिज सा
सपना-
अपूर आकांक्षा का,
अधमुंदी स्मृति का और
आगत-अनागत के बीच
आशा का।
***
पेड़, चिड़िया, तितली
नदी, बच्चे, मछली
बादल, चांद
आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यक
दलितों, तुम्हें मालूम न होगा
क्या बेमानी और बेहूदा
खपाई जाती हैं तुम्हारे नाम पर
रूपक, बिंब, प्रतीक के साथ
कविता और विमर्श कह कर
रोटी, गरीब, भूख
शोषण, दोहन, उत्पीड़न का छौंक
कितना लजीज बनाता है।
कविता की तरह पेश
चटखारेदार बलात्कार
सैनिक, देशप्रेम और मां हो तो,
लिजलिजी सी बात के भी क्या कहने
किसकी मजाल है कि
आह-वाह न करे।
***
वृक्षारोपण!
पेड़!
कैसे जंगली हो,
फैलते हो मनमाना, बेतरतीब
जहां चाहे उग जाते हो
इसीलिए कटते हो
माना कि बोल नहीं सकते,
मगर हो तो चेतन
सोच सकते होगे,
फिर भी दोयम दर्जे के,
मजबूर अपनी जड़ों से बंधे
उसी के भरोसे पलते-बढ़ते
देखो और कुछ तो सीखो
अपने कुल के परजीवियों से
मनमर्जी उग आते हो,
कहीं भी काबिज हो जाते हो
अड़ते हो अपनी जगह
और एहसान जताते कि
फल, छाया, लकड़ी देते हो।
नहीं चलने देंगे तुम्हारी मनमानी
हम रोपेंगे तुम्हें, पोसेंगे,
प्लांटेशन, ट्रांसप्लांटेशन,प्लांटनेशन
तुम्हें वहां उगना होगा, वैसा रहना है, जैसा हम चाहें, तय करें।
'निशुकरे' कहीं के,
क्यों नहीं समझते कि
तुम्हारे लिए ही है,
यह वृक्षारोपण महाअभियान।
(मानते हुए कि पेड़, बच्चे, चिड़िया, नदी पर कुछ भी लिख मारो, कविता बन जाती है।)
गुरुओं की नसीहत है, जो पसंद हैं, जिनके प्रति आदर हो, उन्हें प्रश्नातीत नहीं मान लेना चाहिए। सवाल और संदेह करते अपने समझ की धूल-गर्द साफ करते रहना चाहिए। यहां इसी का पालन करते हुए छत्तीसगढ़ के तीन कवि, जिनमें दिवंगत मुक्तिबोध और श्रीकांत वर्मा ने कविता के साथ पत्रकारिता और विविध, विपुल गद्य लेखन किया है। रचना-सक्रिय विनोद कुमार शुक्ल, अपने गद्य में भी कवि हैं, तीनों के प्रति आदर सहित यह ‘काव्यशास्त्र विनोदेन‘, कभी केदारनाथ सिंह ने भी प्रश्नाकुल किया था।
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