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Saturday, September 18, 2021

सिरपुर-1956

यह पोस्ट मुख्यतः जनवरी-फरवरी 1956 में प्रगति पत्रिका में प्रकाशित एम.जी. दीक्षित के लेख को उपलब्ध कराने के लिए है। सरल भाषा में आम पाठक के लिए लिखा गया यह लेख आमतौर पर उपलब्ध नहीं है। प्रसंगवश उनके अन्य लेख का अंश, उस दौर के सिरपुर तक पहुंचने और ग्राम का उल्लेख और सिरपुर से धातु-प्रतिमाओं की प्राप्ति से संबंधित महत्वपूर्ण संदर्भ जैसी कुछ अन्य बातें भी प्रस्तुत है।

सिरपुर में उत्खनन कार्य मोरेश्वर गंगाधर दीक्षित द्वारा 1954-55 में सागर विश्वविद्यालय से इसके बाद मध्यव्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग की ओर से कराया गया। उत्खनन का विस्तृत प्रतिवेदन प्रकाशित नहीं हुआ, किन्तु अगस्त 1955 में प्रकाशित श्री रविशंकर शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ में श्री दीक्षित का लेख ‘सिरपुर में उपलब्ध प्राचीन अवशेष‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। लेख का रोचक आरंभिक पैरा इस प्रकार है- ‘‘सिरपुर, प्राचीन श्रीपुर, रायपुर से ३७ मील उत्तर पूर्व में रायपुर जिले की महासमुंद तहसील में महानदी के दाहिने किनारे पर अवस्थित है। वर्तमान सिरपुर नदी और रायकेड़ा तालाब के मध्यवर्ती स्थान में बसा हुआ है। इसमें लगभग ४५ झोपड़ियां हैं, जिनमें लगभग १५० प्राणी रहते हैं; जो अधिकतर खेती तथा धान की फ़सल पर गुजर-बसर करते हैं। प्रतिवर्ष माघ महीने में पूर्णिमा के दिन गांव में एक बड़ा मेला होता है, जिसमें पास-पड़ोस के ५,००० व्यक्ति एकत्र होकर पवित्र महानदी में स्नान करते हैं।‘‘ इसी लेख में बताया गया है कि सन 1929 के वर्ष में सिरपुर में एक टीले की खुदाई करते समय कांस्य पदार्थों का एक बड़ा दफीना अकस्मात ही उपलब्ध हो गया था। इसका विवरण श्री मुनि कान्तिसागर ने अपने ग्रन्थ ‘खण्डहरों का वैभव‘ में दिया है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि इन मूर्तियों की प्राप्ति का स्थान अब पता लगा लिया गया है और अब इस स्थान की व्यवस्थित खुदाई की जाएगी।

सिरपुर उत्खनन के कालक्रम निर्धारण की दृष्टि से इस लेख में जानकारी आई है कि 1954 के ग्रीष्मकाल में लक्ष्मण मंदिर के उत्तर में एक बड़े उंचे टीले की खुदाई में पंचायतन शिव मंदिर मिला और 1955 के प्रारंभिक शीतकालीन महीनों में गांव की दक्षिणी सीमा पर कुछ अधिक व्यापक कार्य आरंभ किया गया (यह लेख अगस्त 1955 में प्रकाशित हुआ है, इससे पता लगता है कि प्रारंभिक कार्य पूर्व में कराया जा चुका था)। लक्ष्मण मंदिर से एक मील दक्षिण में सुरक्षित जंगल के मध्य में अवस्थित मलबे में से उभरी हुई द्वारपालों की दो मूर्तियों के मिलने से यह परिणाम निकाला गया था कि यहां पर भग्नावशेषों में बड़ा मठ (वर्तमान आनंदप्रभकुटी विहार) भूमिगत हुआ है।

प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम बुलेटिन नं. 5, 1955-57 में सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं पर मोरेश्वर जी. दीक्षित का लेख प्रकाशित हुआ था। इस लेख में बताया गया है कि 1939 में (उपर यह तिथि 1929 बताई गई है।) लक्ष्मण मंदिर के पास पत्थर के लिए खुदाई करते हुई कामगारों को तीन बास्केट में साठ से अधिक मूर्तियां मिली थीं, जो व्राप्तकर्ता के पास छह साल रहीं और इसके बाद 1945 में सिरपुर के स्थानीय मालगुजार को सौंप दी गई। इस विस्तृत लेख के साथ 12 कांस्य प्रतिमाओं के चित्र भी प्रकाशित हैं।

प्रसंगवश मुनि कांतिसागर की पुस्तक ‘खण्डहरों का वैभव‘, जिसका उल्लेख श्री दीक्षित ने भी किया है, में लेखक ने बताया है कि वे पैदल यात्रा करते 16 दिसंबर 1945 को सिरपुर पहुंचे। उन्होंने लिखा है कि- ‘‘रायपुर से सम्बलपुर जाने वाले मार्ग पर कउवांझर नामक ग्राम पड़ता है। यहां से तेरहवें मील पर सिरपुर अवस्थित है। घनघोर अटवी को पार कर जाना पड़ता है। महानदी के तीर पर बसा हुआ यह सिरपुर इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से कई मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत करता है। सिरपुर की धातु प्रतिमाओं की प्राप्ति संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी मुनि जी के शब्दों में- ‘‘वर्तमान में यह सब धातु-मूर्तियां वहां के भूतपूर्व मालगुजार श्यामसुन्दरदासजी (खंडूदाऊ) के अधिकार में हैं। वे बता रहे थे कि सिरपुर में सरोवर के तीर पर एक मन्दिर है, उसमें खुदाई का काम चल रहा था, जब ज़मीन में सब्बल लगते ही खनखनाहट भरी ध्वनि हुई, तब वहां के पुजारी भीखणदास ने कार्य रुकवाकर नौकरों को बिदा किया और स्वयं खोदने लगा। काफ़ी खुदाई के बाद, कहा जाता है कि एक बोरे में से ये मूर्तियां निकलीं और उसने उपर्युक्त मालगुजार को सौंप दीं। ... ... ... मुझे बताया गया कि मूर्तियां बोरे में से मिलीं। इसमें सत्यांश कम है; क्योंकि कुछ मूर्तियों पर मिट्टी का जमाव व कटाव ऐसा लग गया है कि शताब्दियों तक भू-गर्भ में रहने का आभास मिलता है, जब कि बोरा इतने दिनों तक भूमि में रह ही नहीं सकता। संभव है किसी बड़े बर्तनों में ये मूर्तियां निकली हों, क्योंकि कभी-कभी बर्तन व सिक्के, वर्षाकाल के बाद साधारण खुदाई करने पर निकल पड़ते हैं।

पुनः शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशित श्री दीक्षित का लेख जिसके अंत में टीप है- ‘‘सिरपुर के पुरातत्वीय अवशेषों का उत्खनन मध्यप्रदेश शासन के तत्वावधान में सागर विश्वविद्यालय की ओर से लेखक ने सम्पन्न किया है। इस कार्य के श्रीगणेश एवं सम्पन्न करने में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री पं. रविशंकर शुक्ल ने व्यक्तिगत दिलचस्पी दिखलायी है।

बताया जाता है कि मध्यप्रान्त और बरार से मध्यप्रदेश बनने के क्रम में सिरपुर खुदाई का काम बाधित होते दिखा। श्री दीक्षित इस संबंध में लेख प्रकाशित कराते हुए प्रयासरत रहे कि काम बाधित न हो। इसी क्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के रायपुर प्रवास के दौरान श्री दीक्षित ने उनसे समय ले कर सिरपुर भ्रमण का कार्यक्रम तय कराया और विभिन्न स्मारकों के साथ नव-उत्खनित आनंदप्रभकुटी विहार का अवलोकन भी कराया, काम की आवश्यकता, महत्व और प्राथमिकता का स्वयं आकलन कर मुख्यमंत्री जी ने सिरपुर खुदाई का काम अबाधित निरंतर रखने के लिए आवश्यक व्यवस्था करा दी।


उपर का चित्र उसी अवसर का है। स्वाभाविक है कि श्री दीक्षित ने शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ वाले अपने लेख के अंत में पं. शुक्ल की व्यक्तिगत दिलचस्पी का उल्लेख किया है और ‘प्रगति‘ में प्रकाशित अपने लेख का आरंभ पं. शुक्ल के प्रोत्साहन उल्लेख के साथ किया है। पूरा लेख इस प्रकार है-

सिरपुर की खुदाई

बौद्ध संस्कृति की झलक
(डॉ. मो. गं. दीक्षित, विशेषाधिकारी पुरातत्व विभाग, म.प्र.)

राज्य के मुख्य मंत्री तथा सागर विश्वविद्यालय के कुलपति पण्डित रविशंकर शुक्ल के प्रोत्साहन से मध्यप्रदेश में रायपुर से ४७ मील दूर महानदी के तीर पर बसे प्राचीन राजधानी के स्थान सिरपुर ग्राम में विगत दो सालों से खुदाई का काम चल रहा है. इस साल काम शासन द्वारा नव-संगठित पुरातत्व विभाग के तत्वाधान में किया जाएगा.

गये साल की खुदाई में सिरपुर ग्राम से लगी एक बड़ी टेकड़ी में एक विशाल बौद्ध मंदिर करीब करीब अच्छी हालत में जमीन के नीचे दबा हुआ मिला. इस चौरस मंदिर के अग्रभाग में एक मंडप (पोर्च) उसके पीछे कपाटों में स्थापित एक सुंदर कुबेर की मूर्ति, मध्यभाग में चौरस १८ खंभों का एक भव्य सभामंडप और बिलकुल पार्श्वभाग के गर्भ में अति सुंदर सिंहासन पर विराजमान करीब ७ १/२ फुट ऊंचाई की पद्मासन पर आरूढ़ भूमिस्पर्श मुद्रा की एक भव्य बुद्ध प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई. इस मूर्ति के बांयें भाग में प्रायः प्रस्तर आकार की अवलोकितेश्वर पद्मपाणि बुद्ध देव की एक छ: फुटी प्रतिमा, गर्भगृह के प्रवेश द्वार से मकररूपी वाहन पर खड़ी गंगा की एक बड़ी मूर्ति संपूर्ण अवस्था में मिली. इसके सिवाय मुख्य प्रवेशद्वार के पास ८ १/२ फुट ऊंची दो विशालकाय द्वारपाल और उसी तरह की यक्ष आदि की दूसरी अनेक प्रतिमायें मिलीं. इस मंदिर में सभामंडप के आसपास बौद्ध-भिक्षुओं के निवास के लिए १३ कमरे बने हुए हैं. इन कमरों की खुदाई के समय, तत्कालीन जीवन की झांकी देने वाले बर्तन, दिये, ताले, पूजा की मूर्ति, पूजापात्र आदि करीब ५,००० के ऊपर चीजें भी यहां प्राप्त हुईं. इसके सिवाय वहीं प्राप्त १४ पंक्तियों के एक सुंदर लेख से ज्ञात हुआ है कि यह मंदिर आनंदप्रभ नामक बौद्ध-भिक्षु ने बालार्जुन नामक राजा के समय बनवाया था और उसमें रहनेवाले भिक्षुओं के लिये उसने एक अन्नछत्र भी चलाया था. यह लेख करीब आठवीं सदी याने १२०० वर्ष पहिले का है.

सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में इतना बड़ा और सुसज्जित बौद्ध मंदिर अभी तक कहीं नहीं मिला. इस कारण हम कह सकते हैं कि हमारे प्राचीन वैभव का एक गौरवस्थान हमें फिर से प्राप्त हुआ.

‘जमीन में गड़ी हुई वस्तु प्राचीन दर्शन हमें इस खुदाई में मिले'-- बस इतनी सी सीमित दृष्टि से इस कार्य को देखना गलत होगा. इतिहास की परिभाषा, राजाओं का वंश, उनका राज्यकाल, उनके जमाने में हुई लड़ाइयां, उनकी जय-पराजय ही नहीं है. इतिहास के बारे में हमारी यह अपेक्षा रहती है कि तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक वैचारिक परिस्थितियों का यथातथ्य चित्रण होना चाहिए. कागज-पत्र जल्दी नष्ट हो जानेवाली चीजें हैं अतः उपलब्ध चीजों पर से तत्कालीन मानव जीवन की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का क्रमानुगत इतिहास तय करना खुदाई का प्रमुख उद्देश्य है. खुदाई का मतलब होता है-मानव संस्कृति का वास्तविक अध्ययन. सिरपुर की खुदाई में एक मंदिर की प्राप्ति के सिवाय हमें और भी अनेक प्रकार के फायदे हुए हैं. सिरपुर में उत्खनित बुद्ध प्रतिमा से मानने में अड़चन नहीं होती कि प्राचीनकाल में सिरपुर बौद्ध धर्मावलंबियों का एक केन्द्र था. चीनी यात्री हयूएनसांग सातवीं शताब्दी में जब भारत आया तो उसने कोशल देश की राजधानी को भेंट दी. वहां का राजा हिन्दू था. फिर भी वह बौद्ध धर्मावलवियों का समर्थक था. उह राजधानी में कुछ बौद्धमठ थे यह जानकारी उसने अपने यात्रा वर्णन में दी है. इस वर्णन में राजधानी का नाम नहीं दिया गया है, परन्तु प्रस्तुत खुदाई से ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है कि यह राजधानी सिरपुर (श्रीपुर) ही है. हयूएनसंग ने अपने वर्णन में कहा है कि यहां महानुयायी बौद्ध रहते थे. इसकी पुष्टि खुदाई में प्राप्त मूर्तियों से होती है. सिरपुर की खुदाई में मिली सभी मूर्तियों पर वज्रयान पंथियों प्रभाव दिखाई देता है तथा ये मूर्तियां तंत्रवाद का प्रतिनिधित्व करती है. हयूएनसांग खुद “सर्वास्तिवादिन" अर्थात् बौद्ध धर्म के कर्मठ अनुयायियों में से थे अतः बौद्ध धर्म में आ मिलने वाले वज्र, तंत्र आदि पर उन्हें कैसे विश्वास होता?

यदि धार्मिक बातों को छोड़ भी दिया जाये तो अन्य आधिभौतिक शास्त्रों की महाकोशल के लोग उस काल में कितने उन्नत थे, यह बात सिरपुर की खुदाई से अच्छी मालूम होती है. शिल्पकला में वे उत्तम अभियन्ता थे, इस बात की पुष्टि इमारत का कण कण करता है. पानी के निकास के लिये चारों ओर से पत्थरों से बनाई गई नालियां काफी मजबूत थीं और उनका ढाल भी काफी व्यवस्थित था. १२०० साल के बाद खुदाई कर इनका सफलतापूर्वक उपयोग किया गया. इस संबंध में उत्खनित चीजों की सुरक्षा के लिये अलग से संबंध करने की जरूरत महसूस नहीं हुई. ईटों की दीवारों को उभारते समय उसकी नींव खूब गहराई तक ले जाई गई दीख पड़ी. उसकी मजबूती के लिये सभी स्थानों में एक दो फुट तक की गहराई में पक्के पत्थरों से दीवार बनाने का परिपाठ उन्होंने रखा था. यह बात नींव की जांच के समय मालूम हुई. जिन पत्थरों की चौखट पर भारी वजन के पत्थर का खम्भा खड़ा करना है वहां छ: फुट ऊंचाई के काम के लिये छ: फुट से भी ज्यादा गहरा भारी भरकम पत्थर की दीवार का नींव में इस्तेमाल किया गया है. इसके सिवाय अलग से दोनों बाजुओं से आड़ी दीवारें बनाकर उसमें मजबूती लाई गई है पत्थर के गुण अवगुण की ओर भी उन्होंने ध्यान दिया है. दरवाजे की पथरीली चौखट से सहज ही खिल्पी निकाली जा सके ऐसा काला कड़ापा जाति का पत्थर पायरी और जमीन के लिये कभी खराब न होनेवाला लालसर रंग के विंध्य प्रस्तर से बना हुआ दिखता है. महीन कलाकारी के लिये उन्होंने पास के नदी के कछार में दिखाई देनेवाले अत्यंत नरम गठिया नामक पत्थर का इस्तेमाल किया है. कलाकारी के बारीक काम के लिये यह पत्थर उस समय बहुत उपयुक्त जंचने पर भी कालांतर में अनेक सालों तक पानी सोखते रहने पर वह बहुत ज्यादा नरम होकर नष्ट हो गया है, ऐसा खुदाई में मिले अवशेष से मालूम होता है. इन पत्थरों के शिल्प अब तक अच्छी स्थिति में है. सिंह के अयाल का प्रत्येक बालु कुछ मूर्तियों के गलों के हार की नक्शियां बिलकुल ज्यों की त्यों है. इससे यह कहा जा सकता है कि कलाकारी के काम में भी ये लोग पिछड़े हुए नहीं थे.

सिरपुर की कला के संबंध में एक बात का उल्लेख करना बहुत जरूरी मालूम होता है. वह है बौद्ध मंत्र अंकित छोटी छोटी मुद्रायें. ये मुद्रायें मिट्टी के लोंदे पर उलटे अक्षरों से अंकित पत्थर को दबाकर बनाई गई है. इनमें से कुछ मुद्राओं पर तीन अथवा चार पक्तियों में ''धर्म हेतु प्रभवा--" मंत्र अंकित है. परंतु सबसे आश्चर्य की बात है साधारण रुपये के आकार को इस एक मुद्रा पर १७ पंक्तियो में ३४६ अक्षर अंकित किये जा सके. इतना विस्तृत “धारिणी मंत्र" लिखा हुआ है और इसे आज भी पढ़ा जा सकता है. इन मुद्राओं को देखने पर कोई भी आदमी कह उठेगा, “धन्य है वे कलाकार और उनकी कला". यह मुद्रा प्राचीन महाकोशल के उत्कृष्ट कलाकौशल का एक अच्छा नमूना है.

सिरपुर की खुदाई में और एक उल्लेखनीय बात नजर आई. स्वर्णकारों का धातु प्रतिमायें ढालने का कौशल बहुत अप्रतिम है. बरसों पहिले सिरपुर में धातु मूर्तियों का एक संग्रह प्राप्त हुआ था. इसमें की कुछ मूर्तियां आज भी नागपुर और रायपुर के संग्रहालय में विद्यमान हैं. इसे महाकोशल की धातु मूर्तिकला का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है. खुदाई के पहिले ऐसी कल्पना भी नहीं थी कि इसे सिरपुर में ही बनाया गया होगा. परन्तु इस खुदाई में मठ के एक दालान में जिन हथियारों की सहायता से ये मूर्तियां बनाई गई होंगी, वे सुनारी हथियार भी उपलब्ध हो गये.

धातु का सांचा, तार काटने की कैंची, तार पकड़ने का चिमटा, तिपाई, छोटी छोटी हथौड़ियां, सुनार को लगनेवाले सब औजार, सोना परखने का कसौटी पत्थर जिस पर सोने के रेशे लगे हुए हैं, ज्यों का त्यों प्राप्त हुआ है. इसके सिवाय असमाप्त टूटी-फटी मूर्ति के अंतरंग को बनाते समय डाली गई रेत वैसी ही चिपटी हुई है. इससे मालूम हुआ है कि मूर्ति की ढलाई का काम इसी मंदिर में होता रहा है. इन मूर्तियों में एक विशिष्ट प्रकार की शैली के दर्शन होते हैं. इन विविध वस्तुओं ने हमारे हाथ में महाकोशल की प्राचीन संस्कृति को समझने की अनेक महत्वपूर्ण कड़ियां उपलब्ध कराई है.

कुछ अपनी भी-
सिरपुर खुदाई और एम.जी. दीक्षित जी के बारे में सुनता-पढ़ता रहा था। अपनी शासकीय सेवा के दौरान कोई 30 साल पहले महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर से संलग्न कहंत सर्वेश्वरदास सार्वजनिक ग्रंथालय के भौतिक सत्यापन का काम मुझे सौंपा गया, साथ वेदप्रकाश नगायच जी भी थे। इस दौरान मुझे पता लगा कि इस ग्रंथालय के मुख्यतः तीन हिस्से हैं, सार्वजनिक ग्रंथालय, सी.आर. लाइब्रेरी और ओ.एस.डी. लाइब्रेरी। सार्वजनिक ग्रंथालय के दो भाग थे, जिनमें से एक संदर्भ खंड की पुस्तके सदस्यों को इशू नहीं की जाती थीं, उसे ग्रंथालय, जो वाचनालय भी था, में बैठ कर पढ़ा, संदर्भ लिया जा सकता था। दूसरे खंड की पुस्तकें सदस्यों को इशू हो सकने वाली थीं। सी.आर. लाइब्रेरी, अर्थात क्यूरेटर्स रेफरेन्स, इसी ग्रंथालय में शामिल था, यह संग्रहालय के प्रभारी अधिकारी के लिए होता था। ओ.एस.डी. लाइब्रेरी, अर्थात आफिसर आन स्पेशल ड्यूटी वाली पुस्तके का हिस्सा, वस्तुतः सिरपुर उत्खनन के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी, जिन्हें तब विशेषाधिकारी कहा गया है, दीक्षित जी के उपयोग के लिए थी। भौतिक सत्यापन के दौरान सिरपुर खुदाई और एम.जी. दीक्षित जी से स्वयं को करीबी जुड़ा हुआ महसूस करता रहा।

Friday, September 17, 2021

सिरपुर उत्सव-1985

4 मई 1985 को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में सिरपुर उत्सव का आयोजन हुआ था। इसका एक हासिल‘Source Materials on Sirpur‘ संकलन था। यह कार्य तत्कालीन मध्यप्रदेश के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के रायपुर पदस्थ प्रतिनिधि, संग्रहाध्यक्ष सलीमुद्दीन जी के माध्यम से लक्ष्मीशंकर निगम जी द्वारा तैयार किया गया था।

इसमें सिरपुर के पुरातत्व से संबंधित महत्वपूर्ण प्रकाशित अंश एकत्र किए गए हैं, इसलिए यह एक स्थायी महत्व का संदर्भ-संकलन है। संसाधनों की सीमा के अनुरूप 280 पेज की सामग्री की छायाप्रति के इस संग्रह की सीमित प्रतियां ही तैयार कराई गई थीं। श्री निगम की गंभीर शोध-दृष्टि, छत्तीसगढ़ के पुरातत्व, कला-संस्कृति के प्रति स्वयं के उत्तरदायित्व और उद्यम का यह एक उदाहरण है।

इस संकलन के लिए श्री निगम द्वारा लिखा आमुख उल्लेखनीय, अतएव यहां शब्दशः प्रस्तुत है। आमुख में आशा व्यक्त की गई है कि यह संकलन दक्षिण कोसल की कला संस्कृति, और खास कर सिरपुर में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी होगा। इस संकलन के प्रविष्टियों की सूची शोधार्थियों, अध्येताओं और सिरपुर में गंभीर रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी होगी, प्रस्तुत है।

SOURCE MATERIAL ON SIRPUR

PREFACE

Sirpur is a one of the most important site of ancient Dakshina Kosala (roughly covering the area of present Chhattisgarh) region. It was capital of Dakshina Kosala during the period of Sarabhapuriya and Somavansis dynasties (5th-7th Cent. A.D.) and was known as Sripur evidentiy proved by the inscriptions. During the rule of Somavamsis King Mahasivagupta Balarjuna, it became a famous centre of Art and Culture. Mahasivagupta, himself was follower of Saivism but all other religious sects such as Vaisnavism, Saktism, Buddhism and Jainism flourished during his reign and an atmosphere of religious harmony and coordination was created. Thus this period may be considered as a "Golden Age" in the history of Chhattisgarh. The famous Lakshman temple was constructed by the mother queen Vasata, who was thedaughter of King Suryavarma of Magadha, during the rule of Mahasivagupta. Lakshman temple is one of the finest example of ancient brick temple architecture and having the influence of Gupta art. Renouned art critic and scholar Dr. A.K. Coomarswamy says, "No sharp line of division can be drawn between late Gupta Art and that of early seventh century. The brick temple of Lakshman at Sirpur, Raipur District, however, One of the most beautiful in all India, may perhaps be assigned to the reign of the Harsh." (Indian and Indonesian Art, P.93). Another important art treasure of Sirpur is its Bronzes", which are best example of the workmanship ofKosalan Art. These bronzes have been exhibited in various national and international festivals and exhibitions as the representative art of India.

The archeological wealth of Sirpur, thus attracted the attention of State Government and an excavation was conducted in the years 1953, 54 and 55 under the supervision of (late) Dr. M.G. Dikshit. By these excavations, one Saiva temple, two Buddhist monasteries and large number of archeoloical materials, are came into light.

After a quite long period, this place has again attracted the attention of people when the Directorate of Archaeology and Museum, Madhya Pradesh, has decided to celebrate "SIRPUR UTSAV" at M.G.M. Museum, Raipur on Buddha Jayanti, 4th May, 1985. It has been observed that materials on Sirpur are quite a 1arge but scattered, therefore it is not easily available to the young scholars and person interested in the subject. Therefore it is decided to collect all published material at one place and work should be completed before the Sirpur Utsav. Certainly it was a quite tedious task. We have tried our best to include all published references in present volune, "SOURCE MATERIALS ON SIRUR" but due to shortage of time and certain limitations, we have no option to leave some original source materials. We could not include materials even on Polity, Society, and Religion etc. Actually these aspects may be studied through the original sources. So far the inscriptions are concerned, we have included, only those inscriptions which are found at Sirpur itself. Thus, we are aware with incompleteness of this volume and feel regret for the same. Even then we are hopeful that this volume will be useful for the persons who are interested on the Art and Culture of Dakshina Kosala in general and on Sirpur in particular.

At the last we express our thanks to Mr. S.P. Bajpai, I.A.S. Director, Archaeolog y and Museum, Madhya Pradesh, for sanctioning the grant for Utsav. We also acknowledge our thanks to Mr. Ranbir Singh, I.A.S., Collector, Raipur who has taken keen interest in this volume.

(L.S. Nigam)
Buddha Jayanti,
4th May, 1985.

CONTENTS

(A) GENERAL / SURVEY REPORTS:
(1) A.S.I.R., Vol. VII By J.D. Beglar
(2) A.S.I.R., Vol. XVII By A.Cunnigham
(3) Antiquarian Remains in Central Province and Berar by H,Cousens
(4) Progress Report, A.S.I. W.C.103-04 By H. Cousens
(5) Ancient Brick Temples in the Central Provinces By-A.H. Longhust in A.R; A.S.I. 1909-10
(6) Mukhalingam Temple, Sirpur and Rajim Temples By-Douglas Barratt Moreshwar G. Dikshit
(7) Raiur District Gazetteer, Ed. R. Verma
(8) रायपुर रश्मि, गोकुल प्रसाद
(9) खण्डहरों का वैभव, मुनि कांतिसागर
(10) मध्यप्रदेश के कला मण्डप, जगदीशचन्द्र चतुर्वेदी

(B) EXCAVATION AND EXPLORATION:
(1) Indian Archaeology, 1953-54, A Review
(2) Indian Archaeology 1954-55 A Review
(3) Indian Archaeology, 1955-6 A Review
(4) "Excavation at Sirpur by S.L. Katare in I.H.Q, Vol. XXXV
(5) Indian Archaeology, 1960-61, A Review
(6) "Three centuries of Sirpur Revealation by excavation" by A.P. Singhal in Prachya- Pratibha,Vol. V, No. I.
(7) ‘‘सिरपुर की खुदाई: बौद्ध संस्कृति की झलक‘‘, मोरेश्वर गं. दीक्षित, प्रगति, जनवरी-फरवरी 1956
(8) ‘‘सिरपुर में उपलब्ध प्राचीन अवशेष‘‘, मोरेश्वर गं. दीक्षित, शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ
(9) मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, राजकुमार शर्मा

(C) EPIGRAPHY AND NUMISATIC:
(1) "Sirpur stone Inscription of the time of Mahasivagupta" by Hiralal in E.I, Vol. XI
(2) "Senakapat Inscription of the time of Sivagupta Balarjuna" by M,G. Dikshitt D.C.Sircar in E.I. Vol. XXXI
(3) "Sirpur Inscription of the time of Balarjuna", by M.G.Dikshit in E.L, Vol. XXXI.
(4) "Sirpur Plates of Mahasudevaraja year:7 by S.L.Katare, in E.I.Vol. XXXI
(5) Sirpur Gandhesvara Temple Inscription by S.L,Katare in I.H.Q., Vol. XXXIII
(6) "Sirpur Inscription of Acharya Buddhaghosha" by B,C.Jain in E.I., Vol. XXXVIII
(7) Other Inscriptions from Sirpur by L.S.N.
(8) "Coins from Sirpur" by L.S.N.

(D) ART AND ARCHITECTURE:
(1) "Some Buddhist Bronzes from Sirpur, Madhya Pradesby M,G.Dikshit in Prince of Walse duseum Bulletin, No.5
(2) Indian Architecture (Buddhist Hindu) by percy Brown.
(3) Lakshman Temple at Sirpur by Kishna Deva in J.M.P.I.P. Vol, IL.
(4)The Art of Gupta India, Empire Province by Jonna Gottfried Williams.
(5) म.घा.स्मा.संग्रहालय, रायपुर, पुरातत्व उपविभाग में संग्रहित वस्तुओं का सूचीपत्र, भाग-3, धातु प्रतिमाएं, ले. बालचन्द्र जैन
(6) ‘‘शिव नटराज की विलक्षण कृति‘‘ एस.एस.यादव, प्राच्य प्रतिभा, अंक-11

(E) MISCELLANEOUS:
(1) 5000 Years_Art from India Villa Hugel Essen.
(2) Catalouge, 2500th Buddha Jayanti Celebration, 1956 Exhibition on Buddhist art.
(3) In the image of man, Festival of India, Great Britain. 1982.
(4) Historical Geography of Madhya Pradesh by P.K. Bhattacharya.
(5) दक्षिण कोसल का ऐतिहासिक भूगोल, लक्ष्मीशंकर निगम

कहना आवश्यक नहीं, फिर भी कहना है कि इस पूरे संकलन का प्रकाशन कर, सार्वजनिक किये जाने की आवश्यकता, उपयोगिता समय के साथ बढ़ गई है।

इसी अवसर पर तत्कालीन रजिस्ट्रीकरण अधिकारी (पुरातत्व), श्री एस. एस. यादव द्वारा सिरपुर पर छोटी सी मार्गदर्शिका तैयार की गई थी, जिसका प्रकाशन जिला पुरातत्व संघ, रायपुर द्वारा किया गया था। पुस्तिका में श्री रणबीर सिंह, कलेक्टर एवं डिस्टिृक्ट मजिस्ट्रेट का संदेश दिनांक 23.4.1985 तथा दिनांक 17.4.1985 को रायपुर प्रवास पर आए डॉ. प्रमोदचन्द्र, बिकफोर्ड प्रोफेसर आफ इंडियन आर्ट, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी एवं पुरातात्विक सलाहकार, संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश शासन का संदेश है।

इस मार्गदर्शिका के परिशिष्ट-3 में आई सूची उपयोगी है, इस प्रकार है-

संदर्भ - ग्रंथ सूची
१. कटारे - एक्सकेवेशन एट सिरपुर, ई. हि. क्वा. १९५९.
२. कनिंघम ए. - आकिलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया वाल्यूम-७, देहली-१९६९
३. गुप्त, परमेश्वरी लाल - भारतीय वास्तुकला, वाराणसी, १९७७
४. जैन, बालचन्द्र - उत्कीर्ण लेख, रायपुर, १९६२
५. जैन, बालचन्द्र - धातु प्रतिमाएं, रायपुर, १९६०
६. जैन, बालचन्द्र - पाषाण प्रतिमाएं, रायपुर, १९६०
७. ठाकुर, डॉ. विष्णु सिंह - राजिम, भोपाल, १९७२
८. दीक्षित, एम. जी.- मुखलिंगम.
९. ब्राऊन परसी - इन्डियन आर्किटेक्चर, भाग-१, बम्बई, १९७६
१०. मिश्र डॉ. रमानाथ- भारतीय मूर्तिकला, देहली, १९७७
११. मुनि कान्तिसागर- खण्डहरों का वैभव.
१२. शर्मा, डॉ. राजकुमार- म.प्र. के पुरातत्व का संदर्भ ग्रन्थ, भोपाल, १९७४
१३. शुक्ल अभिनन्दन ग्रन्थ - म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन
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१५. हीरालाल रायबहादुर - इन्सक्रिप्सन्स इन दि सेन्ट्रल प्रोविन्सेस एण्ड बरार, नागपुर, १९५२
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२१. रायपुर रश्मि, रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर - १९२५

Friday, December 14, 2012

बुद्धमय छत्तीसगढ़

सोलहवें नक्षत्र विशाखा के मास में, षोडश कला युक्त चन्द्रमा की तिथि- वैशाख पूर्णिमा; बुद्ध के जन्म के साथ-साथ, सम्बोधि और निर्वाण की तिथि भी मानी गई है। इस तिथि पर आज हम बुद्ध का सामूहिक स्मरण करने के लिये एकत्र हैं। समाप्ति-आसन्न इस शताब्दी की परिस्थितयां, आशा और उल्लास के बदले गहन तिमिर निशा को उन्मुख हैं, तब इस बुद्ध पूर्णिमा की निर्मल, शीतल आभा, प्रेरणा की ऐसी किरण बन सकती है, जिसने पचीस सौ साले पहले भी मानव सभ्यता का मार्ग प्रशस्त किया था।

गौतम बुद्ध के लिये एक प्राच्य अध्येता की टीप है- ''यदि उनके मरणोपरान्त, उनके वैश्विक प्रभावों का ही मूल्यांकन किया जाय, तब भी वे निश्चय ही भारत में जन्मे महानतम व्यक्ति थे।'' इस प्रभाव के आंकलन हेतु छत्तीसगढ़ अंचल से प्रकाश में आये पुरावशेष सक्षम हैं, किन्तु इसके पूर्व बुद्ध समग्र के प्रति बट्रेंड रसेल और अल्बर्ट आईन्सटीन के कथन उल्लेखनीय हैं। रसेल के शब्दों में- बुद्धिमता और गुणवत्ता की जिस ऊंचाई पर क्राइस्ट हैं, क्या इतिहास में वहां कोई और है - मुझे बुद्ध को इस दृष्टि से, क्राइस्ट से ऊपर रखना होगा। आइन्सटीन का विचार है कि यदि कोई धर्म आधुनिक विज्ञान के साथ समन्वय स्थापित कर सकता है, तो वह बौद्ध धर्म ही है। यही दृष्टिकोण आज बुद्ध स्मरण की वास्तविक प्रासंगिकता है।

बौद्ध पुरावशेष, विशेषकर बुद्ध प्रतिमाएं, आरंभिक काल में और हीनयान सम्प्रदाय में तो संभव नहीं हुई, किन्तु महायान और वज्रयान से लेकर जेन और नव-बौद्ध तक, जो कहीं न कहीं बुद्ध शिक्षा की मूल परम्परा का ही विकास है, इन सभी ने अपनी रचनात्मकता से भारतीय कला और परंपरा को सम्पन्न बनाया है। इसलिये बौद्ध प्रतिमाएं मात्र कलावशेष न होकर बौद्ध धर्मशास्त्र को भी रूपायित करती है। इनका निर्माण बौद्ध दर्शन और सम्प्रदाय के विचारों पर आधारित और विकसित बौद्ध प्रतिमा शास्त्र के मानदण्डों के अनुरूप हुआ है।

छत्तीसगढ़ में बौद्ध पुरावशेषों की चर्चा का आरंभ नेपाली परम्परा के एक अपेक्षाकृत परवर्ती ग्रन्थ ''अवदान शतक'' के उल्लेख से किया जाना उपयुक्त होगा, जिसके अनुसार बुद्ध की चरण-धूलि से दक्षिण कोसल अर्थात्‌ वर्तमान छत्तीसगढ़ की भूमि भी पवित्र हुई है। एक अन्य महत्वपूर्ण विवरण प्रसिद्ध चीनी यात्री युवान-च्वांग (व्हेनसांग) का है, जिसने सातवीं सदी ईस्वी में सोलह वर्ष भारत में व्यतीत करते हुये प्रमुख बौद्ध केन्द्रों का भ्रमण किया था। उसने कलिंग (उड़ीसा) होते हुए उत्तर-पश्चिमी दिशा में पहाड़ों और जंगलों के रास्ते किआओ-सा-लो अर्थात्‌ (दक्षिण) कोसल में प्रवेश किया। वह लिखता है कि यहां के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और ऐसे भी लोग हैं जो बौद्ध धर्म को नहीं मानते। आगे विवरण मिलता हे कि यहां का राजा बौद्ध धर्म का आदर करता है। उसके आंकड़ों के अनुसार यहां के सौ बौद्ध विहारों में महायान सम्प्रदाय के लगभग दस हजार भिक्षु निवास करते हैं। उसने करीब सत्तर देव मंदिर भी देखे, जिनमें भक्तों की बड़ी भीड़ होती थी। तत्कालीन पुरावशेषों और इतिहास का उल्लेख करते हुये उसका कथन है कि राजधानी की दक्षिण दिशा में एक प्राचीन स्तूप था, जिसे अशोक ने निर्मित कराया था, इस स्थान पर तथागत ने अविश्वासियों को चमत्कार दिखाकर वश में किया था। बाद में इस विहार में नागार्जुन ने निवास किया था, तब इस देश का राजा सातवाहन था। युवान-च्वांग कोसल से आंध्र, कांचीपुरम्‌ की ओर आगे बढ़ा। वैसे तो युवान-च्वांग के कोसल और उसकी राजधानी पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है, किन्तु सिरपुर के पुरावशेषों से उसके विवरण का सर्वाधिक साम्य प्रतीत होता है। प्रसंगवश सिरपुर की खुदाई से आठवीं सदी ईस्वी के चीनी शासक काई-युवान के सिक्के की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है।
सिरपुर स्‍तूप

लगभग सातवीं सदी ईस्वी के शासक भवदेव रणकेसरी के भांदक (?) शिलालेख में शाक्य मुनि बुद्ध के मंदिर निर्माण की जानकारी है। इसी पाण्डुवंश के प्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन के मल्हार ताम्रलेख में बौद्ध संघ को कैलासपुर नामक गांव दान में दिये जाने का उल्लेख है। बालार्जुन के काल में ही बौद्ध विहार, मंदिर और भिक्षुओं का उल्लेख सिरपुर से प्राप्त एक शिलालेख में आया है। युवान-च्वांग का कथन कि यहां का राजा बौद्ध धर्म का आदर करता था, शैव धर्मावलम्बी बालार्जुन के अभिलेखों और तत्कालीन निर्माण से मेल खाता है और उसकी धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के परिचायक हैं।

कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख के अनुसार रूद्रशिव स्वयं के व अन्य धर्म सिद्धातों के अतिरिक्त दिग्नाग के प्रामाणिक कार्य का भी ज्ञाता था। पृथ्वीदेव द्वितीय के कोनी शिलालेख प्रशस्ति का रचयिता काशल बौद्ध आगमों का ज्ञाता था। इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि बारहवीं सदी ईस्वी तक निश्चय ही छत्तीसगढ़ अंचल में बौद्ध धर्म का अध्ययन व उसका पर्याप्त सम्मान होता था। इसीलिये बौद्ध धर्म का ज्ञान किसी व्यक्ति के गुणों में विशेष रूप से उल्लेख किये जाने योग्य कारक होता था।

बौद्ध स्थापत्य अवशेषों की दृष्टि से अंचल के सिरपुर, मल्हार तथा भोंगापाल (बस्तर, नारायणपुर से 30 किलोमीटर) महत्वपूर्ण स्थल है। सिरपुर में 1954-55 में आरंभ हुई खुदाई से मुख्‍यतः आनंदप्रभकुटी विहार, स्वस्तिक विहार एवं कुछ अन्य बौद्ध विहार अवशेष प्रकाश में आये। आनंदप्रभकुटी विहार में मुख्‍य संरचना के साथ संलग्न पक्के धरातल वाले विशाल प्रांगण के चारों ओर कोठरियों की क्रमहीन पंक्तियां हैं। मुख्‍य संरचना की योजना वर्गाकार है, जिसमें उत्तर की ओर नक्काशीदार तोरण द्वार तथा द्वारपाल, यक्षों की प्रतिमाओं का स्थान निर्धारित है। सभामण्डप सोलह स्तंभ पीठिकायुक्त है। पृष्ठवर्ती कोठरियों की पंक्ति के मध्य भूस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की अतिमानवाकार प्रतिमा स्थापित है।

स्वस्तिक विहार का नामकरण उसकी विशिष्ट आकार की योजना के कारण निर्धारित हुआ। यहां मध्य में खुले आंगन के चारों ओर तीन-तीन कोठरियों की पंक्ति के साथ प्रमुख कक्ष में विशाल आकार की भूस्पर्श बुद्ध प्रतिमा है। दोनों विहारों में बुद्ध के साथ पद्‌मपाणि भी स्थापित हैं, जबकि स्वस्तिक विहार की खुदाई से लाल बलुए पत्थर की हारीति प्रतिमा भी प्राप्त हुई थी। स्वस्तिक विहार के निकट ही पांच अन्य विहारों के अवशेष भी उद्‌घाटित हुए, जिनमें सामान्यतः खुला आंगन, चारों ओर कोठरियां और मध्य में उपास्य देव की स्थापना के लिये प्रधान कक्ष की योजना होती थी। इनमें से एक विशेष उल्लेखनीय विहार में विशाल मात्रा में कांच एवं सीप की चूड़ियां प्राप्त हुई हैं, जिससे अनुमान होता है कि यह भिक्षुणियों का विहार रहा होगा। इन्हीं विहारों में एक लघु स्फटिक स्तूप, सुनहला वज्र तथा बौद्ध मंत्र लेख युक्त मिट्‌टी की पकी मुहरों के साथ अभिलिखित बौद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।

मल्हार में 1975 से आरंभ हुए उत्खनन के तृतीय काल (ईस्वी 300 से ईस्वी 650 तक) स्तर में शिव मंदिर, आवासीय अवशेषों के साथ वज्रयान सम्प्रदाय का बौद्ध मंदिर और चैत्य के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मंदिर के बीच ईंट रोड़े का धरातल बनाकर, उस पर पकी ईंटों का फर्श है। यहां हेवज्र की प्रतिमा स्थापित थी। मंदिर की योजना में प्रदक्षिणा पथ, बरामदा और पांच कक्षों का भी प्रावधान है। मल्हार उत्खनन की एक अन्य संरचना के पश्चिमी भाग में अर्द्धवृत्ताकार ऊंचे चबूतरे के संकेत मिले, जिस पर मुख्‍य प्रतिमा स्थापित रही होगी। यहीं चार द्वार स्तंभ, एक बड़े स्तूप संरचना की संभावना और बौद्ध प्रतिमाओं के साथ ही बौद्ध मंत्र अंकित विविध मृण्मुद्राएं तथा स्तूपाकार स्फटिक खंड भी प्राप्त हुआ।

बस्तर में बौद्ध स्थापत्य अवशेषों-स्तूप आदि का अनुमान पूर्व से किया जाता रहा, किन्तु बौद्ध स्थापत्य के पुष्ट प्रमाण 1990 की खुदाई से उजागर हुये। भोंगापाल नामक ग्राम में लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के शैव व शाक्त मंदिरों के साथ एक विशाल आकार (36×34×5.5 मीटर) के टीले से ईंट निर्मित चैत्य के अवशेष प्रकाश में आए, जिस पर पूर्व से ही पद्‌मासन ध्यानी बुद्ध की प्रतिमा अवस्थित थी। अर्द्धवृत्ताकार पृष्ठ वाले सर्वांग चैत्य की योजना में चबूतरा, मंडप, प्रदक्षिणा पथ, गर्भगृह, बरामदे एवं पार्श्वकक्ष है। दुर्गम महाकान्तार की तत्कालीन स्थितियों में नल शासकों के काल में हुए इस चैत्य का निर्माण धार्मिक समन्वय व सद्‌भाव के साथ बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का प्रबल प्रमाण है।

हीनयान की मूर्तिकला में मुख्‍यतः जातक कथाओं, यक्ष-यक्षिणियों और लोक जीवन के दृश्यों के साथ बुद्ध को उनके प्रतीकों, यथा- चक्र, छत्र, बोधिवृक्ष, चरण चिन्ह आदि अंकनों से प्रदर्शित किया गया है, जबकि महायान और वज्रयान की कला के माध्यम से बौद्ध देवकुल के ध्यानी बुद्ध मानुषी बुद्ध, शाक्य मुनि गौतम और बोधिसत्वों के साथ ही बुद्ध और बोधिसत्वों की शक्तियां तारा की अवधारणा और प्रतिमा शास्त्र के अनुरूप प्रतिमाओं का निर्माण आरंभ हुआ। ध्यानी बुद्धों में अमिताभ, अक्षोम्य, वैरोचन, अमोघसिद्धि और रत्नसंभव क्रमशः पांच अधिभौतिक तत्वों संज्ञा, विज्ञान, रूप, संस्कार और वेदना का रूपांकन है। शाक्य मुनि गौतम को मुख्‍यतः ध्यान, भूस्पर्श और धर्मचक्र मुद्रा में प्रदर्शित किया जाता है। बोधिसत्वों में प्रमुख मैत्रेय, पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और वज्रपाणि हैं। इनमें मैत्रेय, भावी बोधिसत्व होते हुए भी बोधिसत्व के रूप में मान्य हैं। पद्मपाणि, बोधिसत्वों में प्रधान और दयापूर्ण है। मंजुश्री, बुद्धि को प्रखर कर, मूल और मिथ्या का नाश करने के लिये खड्‌ग धारण करते हैं और अपेक्षाकृत कठोर बोधिसत्व, वज्रपाणि पाप और असत्‌ के शत्रु हैं। तारा के साथ अन्य देवियों, व्यन्तर देवताओं और हिन्दू देवताओं के वज्रयानी स्वरूप की निर्माण परम्परा भी ज्ञात होती है।

छत्तीसगढ़ अंचल से प्राप्त बौद्ध प्रतिमाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिरपुर की धातु प्रतिमाएं हैं। लगभग सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी में सिरपुर धातु प्रतिमा निर्माण का केन्द्र था। यहां प्रतिमाओं को टुकड़ों में अलग-अलग ढालकर जोड़ लिया जाता था इसके वस्त्राभूषण गढ़कर उस पर सोने का मुलम्मा कर, आंखों में चांदी का जड़ाव, बालों में काला रंग, ओंठ पर ताम्बे का रंग चढ़ाकर अंत में असली रत्नों सहित आभूषण से अलंकृत किया जाता था। सिरपुर से लगभग 25 धातु प्रतिमा की दुर्लभ निधि 1939 में अनायास श्रमिकों के हाथ लगी (कहीं कहीं यह संखया 44 और 60 भी बताई गई है), जिसमें से छः मूर्तियां तत्कालीन मालगुजार ने विभिन्न लोगों को भेंट में दे दी। दो प्रतिमाएं मुनि कांतिसागर को प्रदान की गई, उनमें से एक सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली तारा की प्रतिमा को मुनि ने भारत विद्या भवन, मुम्बई को सौंप दिया, किन्तु यह प्रतिमा आजकल लास एंजिलिस, अमरीका के काउन्टी म्यूजियम में प्रदर्शित है। इस निधि की ग्यारह प्रतिमाएं रायपुर संग्रहालय में है जिसमें तीन प्रतिमाएं बुद्ध की, चार पद्मपाणि की, एक वज्रपाणि की, दो मंजुश्री की तथा एक तारा की है। इसके साथ ही खुदाई से प्राप्त भूस्पर्श बुद्ध की लघु प्रतिमा कला प्रतिमान की दृष्टि से उच्च कोटि की है। सिरपुर की यह निधि न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि संपूर्ण भारतीय कला की अनुपम निधि है।

सिरपुर से प्राप्त पाषाण बौद्ध प्रतिमाओं में कनिंघम को प्राप्त विशाल प्रतिमा शीर्ष, विहारों से प्राप्त प्रतिमाओं के अतिरिक्त गंधेश्वर मंदिर की भूस्पर्श बुद्ध की लगभग डेढ़ मीटर ऊंची प्रतिमा उल्लेखनीय है। प्रतिमा पार्श्व में पारंपरिक सिंह व्याल के स्थान पर मेष व्याल का अंकन है। प्रतिमा के साथ मोर व सर्प का भी अंकन है अतएव इसकी पहचान अक्षोभ्य से भी की गई है। गंधेश्वर मंदिर की एक अन्य प्रतिमा पर उड़ीसा कला शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है इस प्रतिमा के उष्णीश-शीर्ष पर बौद्ध मंत्र अभिलिखित है। प्रतिमा का सौम्य भाव मुग्ध करने में सक्षम है। रायपुर संग्रहालय में भी सिरपुर से प्राप्त बौद्ध पाषाण प्रतिमाएं सुरक्षित है, जिनमें पद्मपाणि एवं तारा के साथ स्थानक बुद्ध प्रतिमा महत्वपूर्ण है। कमलासन पर स्थित तीनों प्रतिमाएं लय और भंगिमा की दृष्टि से अत्यंत आकर्षक है, जिसमें कलाकार के सुदीर्घ कलाभ्यास से विकसित उत्कर्ष के सहज दर्शन होते हैं। इसके अतिरिक्त सिरपुर के स्थानीय संग्रह में भी कुछ आकर्षक बौद्ध प्रतिमाएं सुरक्षित हैं।

मल्हार में बुद्ध की भूस्पर्श प्रतिमा, ध्यानी बुद्ध, हेवज्र, पद्मपाणि, तारा तथा विशेष उल्लेखनीय बोधिसत्व प्रतिमा है। इस चतुर्भुजी आसनस्थ प्रतिमा का अलंकरण चक्राकार कुंडल, ग्रैवेयक, कटिबंध, केयूर आदि से किया गया है। प्रतिमा के ऊपरी भाग में विभिन्न मुद्राओं में पांच ध्यानी बुद्ध तथा तारा व मंजुश्री अंकित है। मल्हार स्थानीय संग्रहालय के एक स्तंभ पर बुद्ध के जीवन चरित का अंकन किया गया है। ग्राम के एक निजी भवन में प्रयुक्त, प्राचीन अलंकृत स्तंभ भी उल्लेखनीय है, जिस पर कच्छप और उलूक जातक के कथानकों का दृश्यांकन है। मल्हार से संलग्न ग्राम जैतपुर से विविध बौद्ध प्रतिमाएं ज्ञात हैं। मल्हार के स्थानीय संग्रह तथा ग्राम में विभिन्न स्थानों पर भी बौद्ध प्रतिमाएं देखी जा सकती है। कला शैली के आधार पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि मल्हार सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी से बारहवीं सदी ईस्वी तक बौद्धों का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है और यहां हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों का जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के साथ सह-अस्तित्व था। तत्कालीन यह वातावरण वर्तमान के लिये प्रेरक होकर अधिक प्रासंगिक हो जाता है।

छत्तीसगढ़ अंचल के अन्य स्थलों, यथा-हथगढ़ा (रायगढ़), राजिम, आरंग, तुरतुरिया आदि से भी महत्वपूर्ण बौद्ध प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। एक विशेष प्रतिमा खैरागढ़ विश्वविद्यालय के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मानवाकार बुद्ध प्रतिमा के परिकर में बुद्ध के जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा परिनिर्वाण का दृश्यांकन है। रतनपुर से प्राप्त बुद्ध की भूस्पर्श मुद्रा की एक प्रतिमा, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। छत्तीसगढ़ में बौद्ध पुरावशेषों के साथ अंचल की परम्परा का संक्षिप्त उल्लेख समीचीन होगा। जिला गजेटियर की सूचना के अनुसार तुरतुरिया में बौद्ध भिक्षुणियों का मठ था। सरगुजा के मैनपाट की आधुनिक संरचनाओं में विद्यमान वहां के धार्मिक वातावरण को आत्मसात करते ही बौद्ध धर्म की काल निरपेक्ष पवित्रता का आभास सहज सुलभ हो जाता है और अन्ततः बिलासपुर में भी वार्ड क्रमांक 33 में एक आधुनिक किन्तु उपेक्षित मंदिर है, जहां बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है।

बौद्ध पुरावशेषों की चर्चा करते हुए यह स्वाभाविक स्मरण होता है कि इस भूमि से प्रारंभ और विकसित यह धर्म देश में पुरावशेषों के अनुपात में अत्यल्प अवशिष्ट रह गया था। 1951 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 2487 बौद्ध मतावलम्बी थे, किन्तु 1961 की जनगणना में बौद्ध धर्मावलंबियों की संख्‍या 32,50,227 हो गई। निश्चय ही यह बौद्ध धर्म के पुनरूद्धार का दौर है। आज के इस वक्तव्य को रंजीत होसकोटे के उद्धरण से विराम देता हूं। धर्म-दर्शन विषय के टीकाकार होसकोटे ने हाल के वर्षों में बौद्ध धर्म के नैतिक एवं राजनैतिक पक्षों पर भारत के दलित वर्ग के विशेष संदर्भ में व्यापक कार्य किया है। होसकोटे का बुद्धवचन का निरूपण है- ''बुद्ध के लिये आनंद हमसे घृणा करने वालों से घृणा करने में नहीं अपितु ऐसी भावनाओं से दूषित होने के नकार में है- जो घातक सोच के दबाव से मुक्ति है।''



सम्यक विचार मंच, बिलासपुर द्वारा बुद्ध जयंती दिनांक 30 अप्रैल 1999 को ''अतीत-वर्तमान'' श्रृंखलान्तर्गत प्रेस क्लब बिलासपुर में आयोजित कार्यक्रम में प्रस्तुत मेरा आलेख। यह व्याख्‍यान, आधार वक्तव्य बन गया और इसके बाद बौद्ध परम्परा पर लंबी चर्चा हुई थी, जिसमें भाग लेने वाले चित्र में दिखाई दे रहे हैं- आयोजक सर्वश्री कपूर वासनिक, राजेश तिवारी, डा. चन्द्रशेखर रहालकर, आनंद मिश्र, नंद कश्यप, प्रदीप पाटिल, शाकिर अली, सी के खाण्‍डे, रत्‍नाकर पहाड़ी, डा. हेमचन्‍द्र पांडे, डा. आर जी शर्मा, उदय प्रताप सिंह चंदेल, रोहिणी कुमार बाजपेयी आदि।


हाल के वर्षों में, जिसका विवरण यहां नहीं है, मुख्‍यतः सिरपुर उत्‍खनन से महत्‍वपूर्ण बौद्ध अवशेष, यहां विहार व स्‍तूप के चित्र लगाए गए हैं, प्रकाश में आए हैं।