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Thursday, October 7, 2021

अम्मा

बनारस में अपनी पढ़ाई के दिनों को अम्मा (कमच्छा, सायरी माता या निमिया माई के तिराहे पर लाल मकान वाली आशा सिंह) अक्सर याद किया करती थीं। पहला नाम कमलिनी (मेहता) बहनजी का होता फिर ‘आज‘ प्रेस वाले शिव प्रसाद गुप्त जी के परिवार की अपनी सहपाठी का, जो नगवां से बग्घी पर स्कूल आती थीं। पड़ोस की मिथिलेश और सरला शाह (मोहनलाल शाह जी की पुत्री) अन्य सहपाठी सत्या मालवीय (मालवीय जी की पोती) को तथा अपने देहांत के पिछली रात मुकेश का गीत ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई...‘ सुनते हुए रूप माथुर (पार्श्व गायक मुकेश जी की भांजी?) को याद करते हुए कहा- पता नहीं कहां होगी।

मिथिलेश मौसी से हम सब बराबर मिलते रहे। कमलिनी बहनजी से मैं मिला हूं, जानता हूं, वे अब नहीं रहीं। अन्य की खोज-खबर शायद अब इस माध्यम से मिल सके। अम्मां अब नहीं है, किसी का पता लगने पर भी अम्मां को बताया नहीं जा सकता, लेकिन जिन्हें वे आखिर तक याद करती रहीं, हमारे लिए मातृतुल्य, उन्हें खबर हो सके, सोच कर...

अम्मा ने अपने बचपन की एक स्मृति को अभिव्यक्त किया था, इन शब्दों में- भारत में कई महान विभूतियां है, जिन्होंने भारत को विश्व में विशेष स्थान दिलाया, वे सभी विभूतियां श्रद्धापूर्वक स्मरण व नमन करने योग्य हैं। परन्तु उनमें से ऐसे व्यक्तित्व से, किसी माध्यम से साक्षात हो जाये, उसका जीवन में अविस्मरणीय स्थान बन जाता है। ऐसी महान विभूति, जिनके विषय मुझे कुछ स्मरण है- पू. महामना (मदन मोहन मालवीय जी) हैं।

वैसे तो बाल्य काल की कुछ स्मृतियां कभी मिटती नहीं वे चलचित्र के दृश्य के समान मानस पटल पर उभरती रहती हैं। जब यह घोषणा की गई थी कि पू. महामना व पू. अटल बिहारी वाजपयेयी जी को भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया जायगा, तब से महामना की स्मृति बार-बार मानस पटल पर उभर रही है।

भगवान विश्वनाथ जी व मां गंगा की कृपा से मेरी शिक्षा बनारस के केन्द्रीय हिन्दू बालिका विद्यालय में हुई। यह विद्यालय बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय का ही था। सौभाग्यवश महामना की पौत्री, जिसका नाम सत्या मालवीय था मेरी कक्षा में थी, और मेरी अच्छी सहेली थी। उस समय मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। एक दिन उसने बात ही बात में कह दिया मेरे घर चलो, मुझे कुछ अंदाज नहीं था कि उसका घर कुछ दूरी पर है। हम लोग स्कूल बस से उसके घर चले गये। वहां सत्या ने अपने दादाजी को दिखाया, जो दूसरे कमरे में बैठे थे। उनके गौर वर्ण और सौम्य मुखाकृति, मन में ऐसी अंकित हो गई जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाई हूं। उस समय बस इतना ही था कि सत्या के दादा जी हैं।

जैसे-जैसे बड़े होते गए तब यह पता लगा कि वे कैसे महान व्यक्ति हैं। कोई विश्वविद्यालय के विशेष समारोह में स्कूल की तरफ से ले जाया जाता था, तब धीरे-धीरे उनके महान व्यक्तित्व के बारे में समझ आया। अब उनको भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गई है, परन्तु उपाधि को लेने कौन उपस्थित था नाम का पता नहीं लगा है, हो सकता है उस समय के मेरे परिचित लोगों में से ही कोई हो। मैं उन महान विभूति को बारम्बार श्रद्धापूर्वक प्रणाम करती हूं, जिसका बाल्यवस्था में प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनको शत् शत् प्रणाम।

अम्मा की कुछ बातें, जो मुझे याद आती हैं, कहतीं- दिला देंगे, तुम्हें मिल जाएगा। बस लगता कि मुझे मिल गया, कुछ दिन बीत जाने पर भूल भी जाता कि मुझे क्या चाहिए था।

प्राथमिक कक्षा की किताब में छपा होता था- ‘यह पुस्तक --- --- --- की है।‘ तब बस अपना नाम लिखना ही सीखा था, खाली स्थान में अपना नाम भरने लगा, तो अम्मां ने टोका, जिल्द लगा कर उस पर अपना नाम लिखना, यह किताब अगले साल किसी और के काम आएगी। जब इतना लिखना सीख लिया कि अपने नाम की किताब छप गई, उस पर किसीने नाम लिख कर देने को कहा तो अम्मां की बात याद आई।

अम्मा का जन्म 21 अगस्त 1933 को और देहांत 8 सितंबर 2017 को हुआ। हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र और चित्रकला, विषयों के साथ उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.ए. किया था। उनके गांव रूपपुर और भभुआ, मोहनिया, मुंडेश्वरी और हरसू बरम जाना याद है। उनके पास अन्तर्देशीय पत्र नियमित आता जिसके पीछे लिखा होता था ‘महुली से‘ उनका बताया याद आता है, उनकी बुआ हैं, जिनसे हम कभी नहीं मिले। गिद्धौर वाले रावणेश्वर प्रसाद सिंह के छोटे भाई राव साहब महेश्वरी प्रसाद सिंह के पुत्र चन्द्रशेखर सिंह उनके फूफा थे, जिनसे इन बुआ का विवाह हुआ था।

शारदा चरण उकील, बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के उल्लेखनीय चित्रकार और साथ ही अभिनेता भी थे। 1925 की मूक फिल्म ‘प्रेम संन्यास‘ में वे राजा शुद्धोदन की भूमिका में थे। उनके छोटे भाई रनदा उकील ने बनारस में उकील्स स्कूल ऑफ आर्ट स्थापित किया। अम्मां ने स्नातक पढ़ाई के चित्रकला विषय के लिए अभ्यास इसी स्कूल से किया और पारंगत हुईं। अब देख पाता हूं कि उनके जीवन, संस्कार-विचार और पसंद में बनारस, बंगाल और बुद्ध का प्रभाव रहा।



अम्मा के बनाए कुछ चित्र

बंगाल स्कूल की चित्रकला में शिक्षित-प्रशिक्षित अम्मा को बेहद धैर्य और सावधानी वाली वॉश पेंटिंग बनाने में आनंद आता था। 1956 में भैया राजेश का और उनके बाद 1958 में मेरा जन्म हुआ। मेरे नाम राहुल का एक अर्थ बाधा भी होता है। 
मेरे जन्म के पहले वे अजंता गुफा में चित्रित, मां यशोधरा के साथ राहुल वाला चित्र उतार रही थीं, जिसमें बुद्ध से दाय मांगते दिखाया गया है। मेरे जन्म के बाद उनकी चित्रकारी बाधित हुई, वे तब उसी धैर्य और आनंद से, गृहस्थी और हमें रचने-गढ़ने लगीं।

1972-73 की बात होगी। बनारस में भेलूपुर दमकल यानि फायर ब्रिगेड स्टेशन परिसर के लगभग सामने एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज और बगल वाली गली के दूसरी तरफ पहली मंजिल पर वायलिन वादक पूर्णेन्दु दा रहते थे। आसपास अन्य कई बंगाली परिवार थे। मैं कुछ समय पूर्णेन्दु दा से वायलिन सीखा करता था। बातों-बातों में पता चला कि रनदा उकील जी का परिवार भी वहीं रहता है। हम अम्मा के साथ उनके परिवार से मिलने गए। उस मुलाकात की कुछ बातों की धुंधली याद है, बंगाली विधवा महिलाएं, पत्थर के बर्तन-कुंडी के भीतरी तल पर कलात्मक नक्काशी जैसी अन्य कलाकृतियां और रनदा परिवार से संबंधित किसी सदस्य, शायद दामाद की एंग्लो बंगाली कॉलेज परिसर में जल कर मृत्यु।

अम्मा ने एक कापी में कुछ सूक्तियां उतारी थीं, उनमें से पहले पेज पर-
भारतवर्ष कौन? सम्पूर्ण भारत के उद्धार का भार बिना कारण सिर पर मत लो। अपना निज का ही उद्धार करो, इतना भार काफी है। सब कुछ अपने व्यक्तिगत पर ही लागू करना चाहिए। हम स्वयं ही भारतवर्ष हैं, बस यही मानने में बड़प्पन है। तुम्हारा उद्धार ही भारतवर्ष का उद्धार है, शेष सब व्यर्थ है, ढोंग है। - गांधी
मनुष्य को अपने कार्य का स्वामी बनना चाहिए, कार्य को अपना स्वामी नहीं बनने देना चाहिए। - सूक्ति

आज नवरात्रि पर नवाचाची, जबलपुर चाची; स्व. बड़ी अम्मां, स्व. छोटी चाची, स्व. बीना दीदी, स्व. मम्मी और स्व. अम्मां के साथ सभी मातृकाओं का पुण्य स्मरण।

Sunday, June 26, 2016

अस्सी जिज्ञासा

जिज्ञासा, मौलिक हो तो निदान के लिए किसी और की मदद ही ली जा सकती है, क्योंकि समाधान तो तभी होता है, जब जवाब खुद के मन में आए। इसीलिए प्रश्नों के उत्तर तो दूसरा कोई दे सकता है, लेकिन जिज्ञासा शांत नहीं कर पाता। संस्कृत का किम् या हिन्दी ‘ककारषष्ठी’ यानि कौन, कब, कहां, क्या, कैसे, किस इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर भी जानना बाकी रहे, वही जिज्ञासा है। फिर भी प्रश्नोत्तरी होती है, कभी स्वाभाविक, लेकिन अक्सर गढ़ी हुई। नचिकेता, यक्ष-प्रश्न, मिलिन्द पन्ह, विक्रम-वेताल, जेन गुरु-शिष्य वार्तालाप से हिन्द स्वराज तक। सवाल का जवाब न हो फिर भी उसका चिंतन-सुख समाधान से कम नहीं। गुड़ गूंगे का और जुगाली चुइंगम सी। यह हुआ विषय प्रवेश, अब प्रसंग...

पिछले दिनों बनारस-प्रवास का एक सबेरा अस्सी घाट पर बीतना था, बीता। गंगाजी और काशी। प्रकृति और संस्कृति का प्रच्छन्न, सभ्यता-प्रपंच के लिए अब भी सघन है, सब कुछ अपने में समोया, आत्मसात किया हुआ। मन-प्राण सहज, स्व-भाव में हो तो यहां माहौल में घुल कर, सराबोर होते देर नहीं लगती। अनादि-अनंत संपूर्ण। समग्र ऐसा कि कुछ जुड़े, कुछ घटे, फर्क नहीं, उतना का उतना। बदली से सूर्योदय नहीं दिख रहा, बस हो रहा है, रोज की तरह, रोज से अलग, सुबहे-बनारस का अनूठा रंग। कहा जाता है, अवध-नवाब के सूबेदार मीर रुस्तम अली बनारस आए और अलस्सुबह जो महसूस किया वह लौट कर नवाब सादात खां को बयां किया। अब की नवाब साहब बनारस आए, सुबह हुई और बस, नवाब साहब फिदा-फिदा। उन्हीं की ख्वाहिश से शामे-अवध के साथ सुबहे-बनारस जुड़ गया। इस बीच शबे-मालवा छूटा रह जाता है, लेकिन इस भोर में महाकाल का अहर्निश है, सब समाहित, घनीभूत लेकिन तरल, प्रवहमान। और यहां घाट पर नित्य सूर्योदय-पूर्व से आरंभ। संगीत, योग, आरती-हवन।

मंच के बगल में मेज पर कुछ पुस्तकें लेकर युवक बैठा है। मैं किताबें अलट-पलट रहा हूं। ग्राहक हूं या दर्शक, वह निरपेक्ष। संगीत सम्पन्न हुआ और योग आरंभ। अनुलोम-विलोम और भस्त्रिका के बीच वह युवक मेरे सवालों का जवाब भी दे रहा है। कुछ किताबें छांट लेता हूं, वह प्राणायाम अभ्यास करते बिल बनाता है। व्यवधान, मेरे-उसके न लेन में, न देन में। सहज जीवन-व्यापार। और खरीदी किताबों के साथ में ‘बुढ़वा मंगल 2016, वाराणसी का अप्रतिम जलोत्सव’ स्मारिका मिल जाती है, 'कम्प्लीमेंट्री'।

स्मारिका में 'अज्ञ-विज्ञ संवादः' है, जिसे ‘बुढ़वा मंगल पर आम आदमी से बातचीत’ कहा गया है। कुछ अलग तरह की प्रश्नोत्तरी, उलटबासी। इसमें विज्ञ प्रश्नकर्ता है, अज्ञ जवाब दे रहा है। विज्ञ, हर सवाल के जवाब में तात्कालिक-कामचलाऊ निष्कर्ष निकालता है और अज्ञ उसे खारिज-सा करता आगे बढ़ता है। आखिर बुढ़वा मंगल की रस सराबोर, इतिहास-निरपेक्ष लंबी सांस्कृतिक परंपरा को शब्दों से मूर्त कर किसी विज्ञ (अरसिक प्रश्नकर्ता) को समझाना कैसे संभव हो। वार्तालाप में अज्ञ, बुढ़वा मंगल में क्या-क्या होता था गिनाते हुए यह भी कहता है, 'जाने क्या-क्या होता था।' फिर विज्ञ पूछता है 'इसके अलावा भी कुछ होता था?', अज्ञ जवाब देता है- 'अरे भाई, असली चीज तो वही 'कुछ' है।' आखिरी सवाल के बाद अज्ञ को इतनी बातें बताने के लिए विज्ञ धन्यवाद देता है, इस पर अज्ञ जवाब देता है- 'अरे हम क्या बतायेंगे, आप पत्रकार, पूछकार से ज्यादा जानते हैं क्या?, खैर चलते हैं' ...। चलन यही हो गया है, स्थानीय जानकार सूचक-अज्ञ है और चार लोगों से पूछ, इकट्ठा कर सजाई सूचना को परोस देने वाला विज्ञ-विशेषज्ञ। एक सूचना अपनी तरफ से जोड़ते चलें, बनारसियों को शायद खबर न हो कि रीवांराज-बघेलखंड में भी बुढ़वा मंगल का उत्साह कम नहीं होता।

अस्सी पर औचक मिली इस स्मारिका को तीर्थ का दैवीय-प्रसाद मान, जिज्ञासा ले कर लौटा हूं। विषय-क्रम में इस ‘अज्ञ-विज्ञ संवादः’ के साथ किसी का नाम नहीं दिया गया है। जिज्ञासा हुई, यह संवाद किसने रचा है, किसका कमाल है, ऐसी योजनाबद्ध बनारसी बारीकी और सूझ का छोटा-सा, लेकिन चकित कर देने वाला नमूना, बतर्ज होली प्रसंग पर भारतेन्दु रचित 'संडभंडयोः संवादः'। संपादक-मंडल से संपर्क का प्रयास किया, जवाब गोल-मोल मिला। अनुमान हुआ कि यह भंगिमा डा. भानुशंकर मेहता जैसी है, लेकिन वे तो अब रहे नहीं, किसी ने सुझाया राजेश्वर आचार्य हो सकते हैं या कोई और शायद अजय मिश्र या धर्मशील चतुर्वेदी या...। मनो-व्यापार इसी तरह भटकता चलता है, चल रहा है। अमूर्त दैवीय जिज्ञासा, जिसमें ठीक-ठीक यह भी पता न हो कि जानना क्या है- इस संवाद का रचयिता? बुढ़वा मंगल? या अस्सी घाट पर काशी-भोर की बदराई धुंधलकी स्मृति से झरते रस और उसमें डूबते-उतराते अहम् को? चुइंगम-जुगाली, गूंगे का गुड़। यथावत कायम जिज्ञासा। दुहरा कर पढ़ता हूं आंवला चबाए जैसा, और चिंतन-सुख, बार-बार पानी की घूंट की तरह, फिर समाधान की परवाह किसे।

लौटकर आया तो किसी ने पूछा, कैसा है मोदी जी का बनारस?, क्या जवाब दूं, इस नजर से देखना तो रह गया, ऐसे सवाल के जवाब के लिए अगली बार चक्कर लगा तो भी बात शायद ही बन पाए।

सूझ, नासमझी की उपज है और सूझ जाए तो अपनी नासमझी पर हंसी आती है, लेकिन ज्यों ही माना कि सूझ गया, बस और कुछ समझने की गुजाइश खत्म... ... ... यह जिज्ञासा, मेरी समझी नासमझी का लेखा।

यों ही सा-
बनारस निवासी एक परिचित मुझसे पूछ रहे हैं कि मेरा शहर बनारस से कितनी दूर है। समझ नहीं पाया कि वह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, क्योंकि ठीक यही सवाल उनसे मेरा भी हो सकता है, या मेरा सीधा जवाब, जो उन्हें आहत कर सकता है, कि बनारस से मेरा शहर उतनी ही दूर है, जितना मेरे शहर से बनारस। मजे की बात, यह जानते हुए कि हम बस फोन पर बात कर रहे हैं, करते रहेंगे, हम दोनों को कहीं आना-जाना नहीं है। फिर भी सोचता हूं कि बनारसी बंधु इस तरह सवाल क्यों कर रहे हैं, शायद यह सोचते कि तथ्य-आंकड़े ही सब कुछ नहीं होते, या ऐसा भी नहीं कि गूगल का भरोसा कर कभी कोई रास्ता न भटका हो। यह भी याद आता है कि मैंने कभी उस इलाके में किसी स्थान की दूरी पूछी थी, तो बताया गया था- बत्तीस रुपिया टिकट, मानों दूरी की इकाई रुपिया हो। तो शायद बंधु पूछ रहे हैं कि रास्ता कैसा है। ट्रेन सुविधाजनक होगा या बस। सड़क की हालत कैसी है और लूटमार वाली खबरें आती रहती हैं, वह क्या है। कितना समय लगेगा और टिकट कितना। या फिर बनारस को वे अपना 'शून्य मील का पत्थर', जो लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने लगा होता है, क्योंकि दूरियों का विस्तार-संकोच, सड़कों की रचना, यहीं से शुरू होती है। इसी पर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा...।' मानों सृष्टि का आरंभ बनारस से, प्रत्येक जीव का विश्राम गृह।

Wednesday, September 9, 2015

बनारसी मन-के

एक समय था, जब कस्बे से कोई शहर जाता, खासकर लंबी दूरी पर, तो इसकी खबर सब को हो जाती और लोगों की फरमाइश आने लगती कि उनके लिए शहर से क्या‍ लाना है, और यह न सिर्फ सम्मान देने का ढंग होता, बल्कि लगभग अनिवार्य औपचारिकता भी होती कि पूछा जाए- आपके लिए क्या‍ लाना हैॽ (न कि आपके लिए कुछ लाना हैॽ) इसी क्रम में मेरे बनारस जाने की खबर सुन कर हमारे एक रिश्तेदार ने कह दिया कि उन्हें हल्दी की माला चाहिए। काम एकदम आसान था, विश्वनाथ गली जाना ही है, किसी पहली दुकान से माला खरीद लूंगा और हल्दी की माला..., कीमत क्या होगी, दो-पांच रुपए। बनारस पहुंचकर विश्वनाथ गली का पहला ही दिन था, सोचा काम निबटा लूं, दुकानदार से पूछा- माला, हल्दी कीॽ दुकानदार ने सपाट जवाब दिया, नहीं। मैंने ध्यान नहीं दिया, एकाध जगह और पूछा, माला नहीं मिली तो घूमते-फिरते आगे निकल गया, सोचा फिर किसी दिन।

यही सब अगले दिनों में बार-बार हुआ, किसी दुकानदार से दुबारा भी टकराया, उसने जरा चिढ़कर कहा, बताया तो, नहीं है, अब मेरा ध्यान गया कि दुकानदारों का जवाब सामान्य नहीं होता, वे अजीब नजरों से घूरते हुए जवाब देते हैं, कभी चिढ़े से, मैं ठीक समझ न सका, कि क्या हो रहा है। मैं गली से गुजरता, तो माला दुकान वाले मुझे जिस नजर से घूरते उससे लगता, सब को खबर है कि मैं हल्दी माला वाला वही ‘अजूबा’ ग्राहक हूं। समझ में आया कि जो दुकानदार नजरअंदाज कर गुजरते को आवाज देकर बुलाते हैं उनसे नजर मिलने पर भी आमंत्रण नहीं मिलता, यूं ही राह चलते पूछ लेने के बजाय मैं खबरदार सा गुजरता। आसान लगने वाली वह फरमाइशी माला, अब मुसीबत गले पड़ने सी लगने लगी तो यह मेरे लिए खरीद से ज्यादा खोज की चीज बन गई।

ढुंढिराज गणेश से ज्ञानवापी की ओर आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ अविमुक्‍तेश्‍वर महादेव वाले नक्‍काशीदार मंदिर के सामने दुकान है, जिसके लिए मैं आश्वस्त था कि वहां अब तक नहीं पूछा है, उस दिन पूरी सावधानी से मैंने बुजुर्ग दुकानदार से संभलकर बात छेड़ी, माला चाहिए, फिर कुछ पल चुप रहा, उसने मेरी ओर ध्यान से देखा और पूछा, हल्दी की, पहले तो लगा कि मन वांछित मिल गया फिर मैं सहम सा गया, उसे कैसे पता, उसने बात पूरी की, तुम्हीं हल्दी की माला के ग्राहक हो, मैं सन्न... पूरी गली में शायद बात फैली थी कि कोई हल्दी की माला खोज रहा है। मैं दुकान के पाटे पर गुंजाइश बना कर बैठ ही गया।

दुकानदार ने पूछा, तुम्हें क्यों चाहिएॽ क्या करोगे इसकाॽ मैं आश्वस्त कि अब सही ठिकाना मिल गया, यह अपना माल खपाएगा ही, मैंने तन कर जवाब दिया, कितने की होगीॽ लेकिन उसने फिर अपनी बात दुहराई, उसकी गंभीरता से मैं जरा ढीला पड़ा और बताया कि मैं बाहर से आया हूं, किसी ने कहा कि बनारस जा रहे हो तो वहां से हल्दी की माला ले आना, वहीं सही चीज मिलेगी। मैंने यह बता कर दुकानदार का विश्वास जीता और उकसाने की कोशिश की- विश्वनाथ गली की कितनी ही दुकानें, लेकिन यह कहीं नहीं मिल रही। जानना चाहा कि माजरा क्या है, मामूली सी हल्दी माला की खरीद और यह झमेला।

धीरे-धीरे बात आगे बढ़ी। ठेठ बनारसी (वैसे बनारसी के साथ ठेठ, विशेषण के दुहराव जैसा है) तमीज वाला शास्त्रीय ज्ञान। आपको दिलचस्पी दिखाने की देर है, गुण-ग्राहक पाकर बनारसी अपना काम छोड़कर..., किताब, मिठाई और बनारसी साड़ी दुकानदारों की तो बात ही नहीं, लस्सी वाला दही जमाने की सावधानियों और तरीके, पान दुकान वाला, कत्था-चूना तैयार करने और मगही पत्ते को पकाने-सहेजने की विधि तो रिक्शे वाला काशी के नये-पुराने भूगोल और ठौर-ठिकानों की सूचना, गूगल वाली सपाट नहीं, बल्कि अपने खास इन-पुट सहित वाली जानकारियों से लबालब कर सकता है। सहज शास्त्र धारित-आभूषित लोक, लोक विराजित शास्त्र।

यूनिवर्सिटी गेट से लंका चौमुहानी की ओर बढ़ते हुए बायीं ओर गली के दोनों ओर हिस्‍से वाली लस्सी की दुकान। अब बराय नाम 'मालवीय कुंज' की गली में दोनों ओर चौकोर स्तंभों में से दाहिने वाले पर मटमैली सी संगमरमर पट्टिका लगी होती थी, जिस पर आद्याक्षर-हस्ताक्षर वाले तीन अक्षर म.मो.मा. खुदे थे, किसी बैठे ठाले ने इन अक्षरों को मदन मोहन मालवीय बताते मेरे लिए कई रहस्य खोले। इसी के आगे एक खास दुकान होती थी, टिकठी-गोटेदार चुनरी सजी। पहले-पहल ध्यान जाने पर कभी वहां ठिठका था। अंतिम संस्कार की सजी दुकान, बस एक मुरदे की कमी। ‘मौत और ग्राहक का कोई भरोसा नहीं, कब आ जाए’, लेकिन यहां तो ग्राहक आएगा किसी मौत के साथ, मौत का ही भरोसा। मेरे मन में ‘किं आश्चर्यम्’। ठलुए दुकानदार ने मेरी निगाहें पढ़ लीं और फिर दुकान-सरंजाम, संस्कार, मुमुक्षु भवन, जीवन-मरण का सफर कहां-कहां से यहां तक, हरिश्चन्द्र-मणिकर्णिका, वरुणा से अस्सी के बीच की काशी का महात्‍म्‍य और उसका अविस्मरणीय पाठ पढ़ाया, अब उसका यही याद/असर रहा कि बनारस ‘इन्टेलेक्चुअल्स’ की हो न हो, शास्त्रियों की नगरी है।... अटके-भटके-बहके बिना कैसा बनारस ...

बहरहाल, यह दुकानदार पूरे माला-शास्त्री निकले। कितने तरह की माला, किस काम की, कैसे बनती है, ग्राहक कैसे-कैसे, फिर आए हल्दी की माला पर, बताया कि वह इस तरह दुकानों में नहीं मिल जाती, जिसे जरूरत होती है, साधना करनी हो वह खुद या उसका अपना कोई खास ही इसे बनाता है। इसका भारी विधि-विधान है, सौराष्‍ट्र... हरिद्रा झील... बगलामुखी... अष्‍टक-पूर्ण-स्थिर... फिर कहा कि इसका उपयोग शत्रु-विनाश के लिए भी होता है और यदि बनाने में चूक हुई तो खुद के जान पर बन आती है।

मैं सन्न... फिर उसने आगे कहा कि एक बड़े राजनेता के लिए मारण मंत्र का प्रयोग किया गया था, पीताम्‍बरा पीठ, दतिया में और उसके लिए हल्दी की माला बनारस से बन कर गई थी। मैं इस तिलस्म में डूबता-उतराता रहा, वापस आ कर उन रिश्तेदार से दुकानदार वाला सवाल दुहराया, उन्होंने जवाब दिया कि वे पीताम्बरा देवी के भक्त हैं, माला देवी के लिए चाहिए थी, नहीं मिली..., कोई बात नहीं...।

हल्दी माला की इस खोज का हासिलॽ यों तो आनंद पहेली सुलझ जाने का ही होता है, लेकिन कभी बात की बात पहेली बन जाए और वह भी कई परतों वाली, तो उसे जस के तस सहेजे रखना भी मन का मनका सी जमा-पूंजी है। एक फरमाइश किसी ने की थी, हेमाद्रि 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' के व्रत खंड की। और इसकी खोज में चौक स्थित चौखम्बा प्रकाशन की दुकान पर गया, वहां मेरी अबोधता का सम्मान कुल्हड़ वाली चाय और पान से किया गया था, बावजूद इसके कि मैंने वहां से कुछ भी खरीद-फरोख्त नहीं की थी, यह किस्सा फिर कभी।

शीर्षक ‘बनारसी मन-के’ शब्द, छत्तीसगढ़ी मन में आए तो आशय ध्वनित होगा- ‘बनारस के लोगों का’।