Thursday, October 7, 2021

अम्मां

बनारस में अपनी पढ़ाई के दिनों को अम्मां (कमच्छा, सायरी माता या निमिया माई के तिराहे पर लाल मकान वाली आशा सिंह) अक्सर याद किया करती थीं। पहला नाम कमलिनी (मेहता) बहनजी का होता फिर ‘आज‘ प्रेस वाले शिव प्रसाद गुप्त जी के परिवार की अपनी सहपाठी का, जो नगवां से बग्घी पर स्कूल आती थीं। पड़ोस की मिथिलेश और सरला शाह (मोहनलाल शाह जी की पुत्री) अन्य सहपाठी सत्या मालवीय (मालवीय जी की पोती) को तथा अपने देहांत के पिछली रात मुकेश का गीत ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई...‘ सुनते हुए रूप माथुर (पार्श्व गायक मुकेश जी की भांजी?) को याद करते हुए कहा- पता नहीं कहां होगी।

मिथिलेश मौसी से हम सब बराबर मिलते रहे। कमलिनी बहनजी से मैं मिला हूं, जानता हूं, वे अब नहीं रहीं। अन्य की खोज-खबर शायद अब इस माध्यम से मिल सके। अम्मां अब नहीं है, किसी का पता लगने पर भी अम्मां को बताया नहीं जा सकता, लेकिन जिन्हें वे आखिर तक याद करती रहीं, हमारे लिए मातृतुल्य, उन्हें खबर हो सके, सोच कर...

अम्मां ने अपने बचपन की एक स्मृति को अभिव्यक्त किया था, इन शब्दों में- भारत में कई महान विभूतियां है, जिन्होंने भारत को विश्व में विशेष स्थान दिलाया, वे सभी विभूतियां श्रद्धापूर्वक स्मरण व नमन करने योग्य हैं। परन्तु उनमें से ऐसे व्यक्तित्व से, किसी माध्यम से साक्षात हो जाये, उसका जीवन में अविस्मरणीय स्थान बन जाता है। ऐसी महान विभूति, जिनके विषय मुझे कुछ स्मरण है- पू. महामना (मदन मोहन मालवीय जी) हैं।

वैसे तो बाल्य काल की कुछ स्मृतियां कभी मिटती नहीं वे चलचित्र के दृश्य के समान मानस पटल पर उभरती रहती हैं। जब यह घोषणा की गई थी कि पू. महामना व पू. अटल बिहारी वाजपयेयी जी को भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया जायगा, तब से महामना की स्मृति बार-बार मानस पटल पर उभर रही है।

भगवान विश्वनाथ जी व मां गंगा की कृपा से मेरी शिक्षा बनारस के केन्द्रीय हिन्दू बालिका विद्यालय में हुई। यह विद्यालय बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय का ही था। सौभाग्यवश महामना की पौत्री, जिसका नाम सत्या मालवीय था मेरी कक्षा में थी, और मेरी अच्छी सहेली थी। उस समय मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। एक दिन उसने बात ही बात में कह दिया मेरे घर चलो, मुझे कुछ अंदाज नहीं था कि उसका घर कुछ दूरी पर है। हम लोग स्कूल बस से उसके घर चले गये। वहां सत्या ने अपने दादाजी को दिखाया, जो दूसरे कमरे में बैठे थे। उनके गौर वर्ण और सौम्य मुखाकृति, मन में ऐसी अंकित हो गई जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाई हूं। उस समय बस इतना ही था कि सत्या के दादा जी हैं।

जैसे-जैसे बड़े होते गए तब यह पता लगा कि वे कैसे महान व्यक्ति हैं। कोई विश्वविद्यालय के विशेष समारोह में स्कूल की तरफ से ले जाया जाता था, तब धीरे-धीरे उनके महान व्यक्तित्व के बारे में समझ आया। अब उनको भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गई है, परन्तु उपाधि को लेने कौन उपस्थित था नाम का पता नहीं लगा है, हो सकता है उस समय के मेरे परिचित लोगों में से ही कोई हो। मैं उन महान विभूति को बारम्बार श्रद्धापूर्वक प्रणाम करती हूं, जिसका बाल्यवस्था में प्रत्यक्ष दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनको शत् शत् प्रणाम।

अम्मां की कुछ बातें, जो मुझे याद आती हैं, कहतीं- दिला देंगे, तुम्हें मिल जाएगा। बस लगता कि मुझे मिल गया, कुछ दिन बीत जाने पर भूल भी जाता कि मुझे क्या चाहिए था। 

प्राथमिक कक्षा की किताब में छपा होता था- ‘यह पुस्तक --- --- --- की है।‘ तब बस अपना नाम लिखना ही सीखा था, खाली स्थान में अपना नाम भरने लगा, तो अम्मां ने टोका, जिल्द लगा कर उस पर अपना नाम लिखना, यह किताब अगले साल किसी और के काम आएगी। जब इतना लिखना सीख लिया कि अपने नाम की किताब छप गई, उस पर किसीने नाम लिख कर देने को कहा तो अम्मां की बात याद आई।

अम्मां का जन्म 21 अगस्त 1933 को और देहांत 8 सितंबर 2017 को हुआ। हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र और चित्रकला, विषयों के साथ उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.ए. किया था। उनके गांव रूपपुर और भभुआ, मोहनिया, मुंडेश्वरी और हरसू बरम जाना याद है। उनके पास अन्तर्देशीय पत्र नियमित आता जिसके पीछे लिखा होता था ‘महुली से‘ उनका बताया याद आता है, उनकी बुआ हैं, जिनसे हम कभी नहीं मिले। गिद्धौर वाले रावणेश्वर प्रसाद सिंह के छोटे भाई राव साहब महेश्वरी प्रसाद सिंह के पुत्र चन्द्रशेखर सिंह उनके फूफा थे, जिनसे इन बुआ का विवाह हुआ था।

शारदा चरण उकील, बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के उल्लेखनीय चित्रकार और साथ ही अभिनेता भी थे। 1925 की मूक फिल्म ‘प्रेम संन्यास‘ में वे राजा शुद्धोदन की भूमिका में थे। उनके छोटे भाई रनदा उकील ने बनारस में उकील्स स्कूल ऑफ आर्ट स्थापित किया। अम्मां ने स्नातक पढ़ाई के चित्रकला विषय के लिए अभ्यास इसी स्कूल से किया और पारंगत हुईं। अब देख पाता हूं कि उनके जीवन, संस्कार-विचार और पसंद में बनारस, बंगाल और बुद्ध का प्रभाव रहा।



अम्मां के बनाए कुछ चित्र

बंगाल स्कूल की चित्रकला में शिक्षित-प्रशिक्षित अम्मां को बेहद धैर्य और सावधानी वाली वॉश पेंटिंग बनाने में आनंद आता था। 1956 में भैया राजेश का और उनके बाद 1958 में मेरा जन्म हुआ। मेरे नाम राहुल का एक अर्थ बाधा भी होता है। 
मेरे जन्म के पहले वे अजंता गुफा में चित्रित, मां यशोधरा के साथ राहुल वाला चित्र उतार रही थीं, जिसमें बुद्ध से दाय मांगते दिखाया गया है। मेरे जन्म के बाद उनकी चित्रकारी बाधित हुई, वे तब उसी धैर्य और आनंद से, गृहस्थी और हमें रचने-गढ़ने लगीं।

1972-73 की बात होगी। बनारस में भेलूपुर दमकल यानि फायर ब्रिगेड स्टेशन परिसर के लगभग सामने एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज और बगल वाली गली के दूसरी तरफ पहली मंजिल पर वायलिन वादक पूर्णेन्दु दा रहते थे। आसपास अन्य कई बंगाली परिवार थे। मैं कुछ समय पूर्णेन्दु दा से वायलिन सीखा करता था। बातों-बातों में पता चला कि रनदा उकील जी का परिवार भी वहीं रहता है। हम अम्मां के साथ उनके परिवार से मिलने गए। उस मुलाकात की कुछ बातों की धुंधली याद है, बंगाली विधवा महिलाएं, पत्थर के बर्तन-कुंडी के भीतरी तल पर कलात्मक नक्काशी जैसी अन्य कलाकृतियां और रनदा परिवार से संबंधित किसी सदस्य, शायद दामाद की एंग्लो बंगाली कॉलेज परिसर में जल कर मृत्यु।

अम्मां ने एक कापी में कुछ सूक्तियां उतारी थीं, उनमें से पहले पेज पर-
भारतवर्ष कौन? सम्पूर्ण भारत के उद्धार का भार बिना कारण सिर पर मत लो। अपना निज का ही उद्धार करो, इतना भार काफी है। सब कुछ अपने व्यक्तिगत पर ही लागू करना चाहिए। हम स्वयं ही भारतवर्ष हैं, बस यही मानने में बड़प्पन है। तुम्हारा उद्धार ही भारतवर्ष का उद्धार है, शेष सब व्यर्थ है, ढोंग है। - गांधी
मनुष्य को अपने कार्य का स्वामी बनना चाहिए, कार्य को अपना स्वामी नहीं बनने देना चाहिए। - सूक्ति

आज नवरात्रि पर नवाचाची, जबलपुर चाची; स्व. बड़ी अम्मां, स्व. छोटी चाची, स्व. बीना दीदी, स्व. मम्मी और स्व. अम्मां के साथ सभी मातृकाओं का पुण्य स्मरण।

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