राजनीति जैसे इतिहास भी, और कविता तो अवश्य ही शब्दार्थ पर आश्रित प्रविधियां हैं। कविता को हम इससे विलग करके कला कहते हैं, लेकिन इसकी समानता इसी बिन्दु पर समाप्त हो जाती है। छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग के तत्वावधान में ‘विरासत वार्ता‘ की इस माह की वैचारिक गोष्ठी में डा. शिरीष ढोबले ने ‘कविता, राजनीति और इतिहास‘ पर स्थानीय राघवेन्द्र राव वाचनालय में अपना वक्तव्य रखा।
पेशे से हृदय शल्य चिकित्सक डा. ढोबले, हिन्दी कविता तथा गद्य में एक स्थापित नाम हैं। उन्होंने कविता, राजनीति और इतिहास के आपसी संबंधों को स्पष्ट करने के लिए विशिष्ट दृष्टिकोण और उदाहरणों को आधार बनाया। डा. ढोबले ने मानव शरीर विज्ञान कबीर, गीता, तिलक और विदेशी विचारक-साहित्यकारों के उद्धरणों के प्रकाश में अपनी बात रखी और कहा कि राजनीति और राजकारण के पास अर्थों का एक निराला संग्रह है, इतिहास के पास एक ऐसा संग्रह जो यथाशक्ति तथा यथाबुद्धि, राजकारण और कविता से बुद्धि उधार लेता रहता है। शब्दों की खड़िया से कौन किस समय क्या लिखता है, यह बहुधा उपलब्ध अर्थसंसार पर निर्भर करता है। यह कोष किस मनस् से, किस मानसिकता से और किस अभीष्ट से विभिन्न प्रविधियां या कलाएं चुनती है, विशेषतः किस अभीष्ट से राजनीति, इतिहास और कविता इन्हें चुनती है, इसकी पड़ताल में देखें कि किस तरह देखना था, न देखना एक मुद्दा बनता है।
गोष्ठी के चर्चा सत्र में उपस्थित नगर के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों ने वक्तव्य पर अपनी जिज्ञासाएं और शंकाएं रखी। डा. कमलेश मिश्र ने पूछा कि, क्या वे कविता, राजनीति और इतिहास को भैषजिक दृष्टिकोण से देखते हैं? डा. ढोबले ने स्पष्ट किया कि किसी भी अनुशासन के उदाहरण से इन तीनों के अंतसंबंधों की पड़ताल संभव है। सामाजिक विज्ञान का व्यक्ति इसके उदाहरण पारिवारिक स्थितियों में भी घटाकर देख सकता है। रामकुमार तिवारी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जैसे-जैसे ऐतिहासिक चेतना आती है, अपने बने रहने के लिए हम रिड्यूस होते जाते हैं, इस पर डा. ढोबले ने कहा कि इतिहास की प्रविधियां, राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन लिखा गया हर टेक्स्ट, गास्पेल नहीं होता। उसे गास्पेल की तरह न लें। राजनीति के बारे में आगे डा. ढोबले ने कहा- इसकी परिणिति दो जगह होती है, या तो चकाचौंध भरे वातावरण में या कन्संट्रेशन कैम्पों में, राजनीति में हमारे निर्णय लेने का अधिकार दूसरों के पास होता है और एक ऐसा समूह, जिसमें व्यक्ति की पहचान खो जाती हो, उन्हें मान्य नहीं। किंतु डा. हेमचंद्र पाण्डेय से चर्चा में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि इसके मायने तंत्र अथवा व्यवस्था की खिलाफत नहीं, बल्कि वे उसकी कमी की ओर संकेत कर रहे हैं। श्री विकास शर्मा ने पूछा कि क्या आप ऐसे इतिहास की बात कर रहे हैं, जो ईर्ष्या पैदा न करें? उत्तर में डा. ढोबले ने कहा कि इतिहास से सीख लेनी चाहिए। वैज्ञानिक तथ्यों को जांचा जा सकता है लेकिन इतिहास को नहीं।
गोष्ठी में पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, नंदकिशोर तिवारी, बल्लू दुबे, कपूर वासनिक, शाकिर अली, डा. चन्द्रशेखर तथा सुश्री अलका व शुभदा रहालकर, अंजू पासी, डा. बी.के. प्रसाद, मधुकर गोरख, डा. घनश्याम वाई.पी. डडसेना, एन.के. वर्मा, राकेश सिंह, बद्रीसिंह कटहरिया, राजेश तिवारी, सुरेश चन्द्राकर, नथमल शर्मा, एजाज कैसर, विवेक जोगलेकर, राकेश खण्डेलवाल आदि सम्मिलित हुए कार्यक्रम का संचालन श्रीमती शुभदा जोगलेकर ने किया। गोष्ठी के आरंभ में वक्ता का परिचय तथा कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन पुरातत्व अधिकारी राहुल सिंह ने किया।
यह समाचार नवभारत, बिलासपुर में 3 अक्टूबर 2002 को प्रकाशित हुआ था। ऐसी गोष्ठियां हर महीने राज्य के प्रमुख नगरों में आयोजित किए जाने की योजना थी, हुई भी, लेकिन संभवतः बिलासपुर में और वह भी नियमित न रह सकी। गोष्ठी के लिए वक्ता से अपेक्षा होती थी कि वह परचा तैयार करे, जिसकी प्रतियां गोष्ठी में उपस्थित होने वालों को दो-तीन पहले वितरित कर दी जाती थी। खासियत कि थोड़े प्रयास और व्यक्तिगत रुचि के कारण विभिन्न वर्गों के बुद्धिजीवी श्रोता, प्रतिभागी बन कर उपस्थित होते। व्यय भी नाममात्र होता। इसी प्रकार ‘पाठक मंच‘ की गोष्ठियां आयोजित होती थी, इसकी एक गोष्ठी के लिए मुझे विजयदान देथा की ‘सपनप्रिया‘ के आधार वक्तव्य का जिम्मा दिया गया था। एक अन्य गोष्ठी का समाचार, दैनिक भास्कर, बिलासपुर 29 जुलाई 2003 में इस प्रकार प्रकाशित हुआ था-
‘कोई लेखन तभी कालजयी होता है, जब उसमें लेखक की निज पीड़ा सार्वजनिक संघर्ष के सुर में तब्दील होकर समकालीन समय की सत्ता की क्रूरता व दमनात्मकता के विरुद्ध न सिर्फ आवाज मुखर करती है, बल्कि भविष्य की लड़ाइयों के लिए सूत्र भी छोड़ती है।‘ बेबी हालदार लिखित बहुचर्चित पुस्तक ‘आलोआंधारी‘ पर चर्चा के दौरान पाठक मंव की गोष्ठी में यही बात सामने आई।
वकील कनक तिवारी के कार्यालय में आयोजित नवगठित पाठक मंच की पहली गोष्ठी में ‘आलोआंधारी‘ पर चर्चा करते हुए वकील कनक तिवारी ने इस पुस्तक को एक स्त्री की जिजीविषा का, उसकी दृढता व संघर्ष यात्रा की गाथा बतलाते हुए कहा कि इसे पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है मानों हमारी अपनी बच्ची अपनी गाथा हमारे सामने कह रही हो। उन्होंने कहा कि इस गाथा की प्रमुख पात्र सातवीं कक्षा तक पढ़ी घर में कामकाज करने वाली नौकरानी है। वह अपने सपाट बयानी लहजे में अपने कष्टों, अपनी पीड़ा की कहानी सुनाती है। रिश्तों के प्रति उसकी बैलेंसिंग गजब की है। पुस्तक में बंगला संस्कृति और परंपरा की झलक है। पुस्तक का आधार वक्तव्य पढ़ते हुए शोभित बाजपेई ने कहा कि पुस्तक की प्रमुख पात्र बेबी के वर्गीय चरित्र को बखूबी नहीं उभारा गया है। बेबी की अपने ऊपर होने वाले अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध की चेतना के स्वर मुखर नहीं हो पाते।
चर्चा में भाग लेते हुए राहुल सिंह ने बेबी हालदार की सपाटबयानी को ही उनका धारदार हथियार बतलाते हुए कहा कि यद्यपि यह दिखता है कि बेबी में प्रतिरोध के स्वर नहीं हैं, लेकिन यदि उसकी पीड़ा पढ़कर हमें ऐसे स्वर की अपेक्षा होती है तो यह भी एक तरीका होता है अपनी निज की पीड़ा को सार्वजनिक संघर्ष में बदलने का।
रुपरंजन घोष ने बेबी के वर्गीय चरित्र पर सवाल उठाते हुए कहा कि यद्यपि बेबी बाद में निम्न वर्ग में दिखती है परंतु उसका प्रारंभिक लालन-पालन मध्यम वर्ग में हुआ, इसलिए उसकी चेतना में मध्यवर्गीय सस्कार हावी रहेंगे। कपूर वासनिक ने कहा कि आशापूर्णा देवी और दया पवार दोनों एक्टिविस्ट हैं और विशिष्ट उद्देश्य से लेखन कार्य करते हैं। अतः दोने से बेबी हालदार की तुलना करना अप्रासंगिक है। क्योंकि बेबी के पास ऐसी कोई पृष्ठभूमि नहीं है।
नमिता घोष ने कहा कि यह उस स्त्री की व्यथा-कथा है, जो एक स्त्री होने के मर्म और स्त्री होने की पीड़ा दोनों से वाकिफ है। विवेक जोगलेकर ने कहा कि किसी भी रचना का मूल्यांकन करते समय अपनी सोच व रचनाकार की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें व उसके बाद रचना या रचनाकार का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। रफीक खान ने कहा कि बेबी अपनी रचना के पीछे सवाल छोड़ जाती है, जो पाठक के मन में पीड़ा उत्पन्न करते हैं। यही लेखन की सफलता है।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए पुष्पा तिवारी ने कहा- कि आलोआंधारी एक स्त्री को निज बयानी है और इससे भी अधिक व भयावह अनुभव वाली स्त्रियां देश में हैं पर उनके पास लेखन के लिए प्रोत्साहन है न छप जाने लायक सुविधाएं।
गोष्ठी में प्रख्यात चिंतक राजेश्वर सक्सेना, कवि रामकुमार तिवारी, प्रो. बृजकिशोर प्रसाद सिंह, डा. चंद्रशेखर रहालकर, प्रताप ठाकुर, कालीचरण यादव आदि उपस्थित थे। पाठक मच की अगली बैठक नौ अगस्त को दोपहर तीन बजे वकील कनक तिवारी के कार्यालय में आयोजित की गई है।
रायपुर और फिर बिलासपुर में प्रभा खेतान फाउंडेशन के ‘कलम‘ का आयोजन होने लगा। इसके सूत्रधार गौरव गिरिजा शुक्ला ‘कलम‘ में प्रत्यक्ष उपस्थिति और आयोजन में परोक्ष सहयोग का अवसर मुझे देते हैं, उन्हें अब तक यह ठीक-ठीक अनुमान नहीं कि ऐसे आयोजन मेरे लिए सहज और प्रिय क्यों है।
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