75 पार कर चुके बढ़ई बबा रामनराएन यानि रामनारायण जी पहले कपड़ा बुनते थे, कारखाना में नागकन्या बीड़ी बनाते थे, कमरीद में, तब वही मार्का चलता था। पिता, दरजी थे, मशीन सिलाई का काम करते थे, वह भी सीखा। बाबा बैद थे, लोगों की आयु गणना, ज्योतिष भी करते थे। कहते हैं- हमलोग मरार नहीं, मेहर हैं। मरार-पटेल हमसे उंची जात है। प्रयागराज से ब्राह्मणों के गुरु आते थे, चौड़ी-मोटी शिखा वाले, वे ब्राह्मणों का दान स्वीकार करते थे, अन्य किसी का नहीं, लेकिन पानी ब्राह्मणों के हाथ का भी नहीं पीते थे। खुद का भरा या मरार-पटेल के हाथ का ही पानी पीते थे, इसलिए मरार हमसे उपर हैं।
बचपन में कुछ समय मामा के यहां कमरीद में रहे, उसी समय कोरबा का पावर हाउस चालू हुआ था। वहां खरसिया से आ कर सोनार बसा था, बकरी पाला था और दीगर जात की दो पत्नियां थीं। बकरी के लिए पत्ते तोड़ कर, चारा ले जाते थे। उसके पास चांदी का मोटा काम करना सीखा। सोनार, बड़ा जालिम जुआरी था। हमेशा जीतता था। ताश के पीठ पर बुंदकी होती है, उसे बारीक सफाई से रेजर से मिटा देता था, यह काम समझा कर मुझे दिया, इससे ताश पत्ते को पीठ की ओर से भी वह पहचान लेता था। उसकी यह कलाकारी कोई नहीं पकड़ पाया। हसदेव के बाईं ओर शराब का प्रचलन बहुत था लेकिन दाहिनी ओर इक्का-दुक्का होते थे, वह भी कभी-कभार।
कमरीद में 14-15 साल की उमर में डेढ़-दो साल रहा, पीना खाना सब चलता था, लेकिन वापस गांव भैंसदा आ कर सब अपने आप छूट गया और साधु संगत भी मिल गया। टाटानगर के धनेश्वर गिरि नागा साधु आए। हमारे गांव भैंसदा आए तो जांजगीर से पुलिस उनके साथ आई, बड़े महात्मा थे। हमारे गांव में यज्ञ हुआ था। उनके बहुत से चेले थे। उनसे फिर शंभूगिरि से प्रभावित, लौ लगी तो संत-संगत करने लगे। वे भी यज्ञ कराते थे। उनके यज्ञ के लिए, मिट्टी की मूर्ति-पुतरी बनाने बनाने लगे। महादेव, पार्वती, कृष्ण भगवान। गणेश पुतरी बनाते थे तो उसके पेट में नारियल की भेली डालना होता था। खड़ाउ बनाते थे, खंजेरी ‘खोलते‘ तो उनके माटी के चोले वाली काठी तबला बजाते, लकड़ी में रमने लगी। ‘मिट्टी‘ देना या मौत-मिट्टी और काठी में जाना की ‘माटी-काठी‘ के अलग अर्थ गढ़ते, जीवन से अभिन्न इस ‘तत्व‘-ज्ञान के औजार से पत्थर, कांच, लोहा की उनकी समझ में बारीकी आने लगी।
बलौदा सोंठी में दक्खल मानिकपुरी थे। तबला खोलने के वस्ताज। 17 इंच के बीजा का टुकड़ा रखते थे। एक दिन में दो तबला खोल देते थे, उनका काम देख कर तबला खोलना सीख लिया, लेकिन एक पूरा करने में दो दिन लग जाता था। तबला खोलने में रेशा को आड़ा काटना कठिन होता है। भैंसदा के बुधु सूर्यवंशी खराद का बहुत साफ काम करते थे। चिकारा बनाते थे। निसंतान थे। उनका मिट्टी का मकान अच्छे-खासे पक्के मकान को मात देने वाला था। बढ़ईगिरी का और काम भी करते थे। कोई जात-पांत हो, सब उनकी इज्जत करते थे। किस्सागोई-क्राफ्ट के भी वे माहिर हैं। लोकनायकों और प्रसंगों का अकूत भंडार है उनका। जाति-परंपरा, विशिष्टता, गांव बसाहट और व्यवहार के अनगिन चित्र, कभी एकदम साफ और कई अमूर्त से। जैसे- पचेड़ा के दो भाई बघवा-चितवा, कुरमीपारा के। बघवा बारूद-गोला का काम जानता था, कहता कि गांव वाले परेशान करेंगे तो पूरे गांव को गोला मार कर उड़ा दूंगा। एक बार गोला बनाते हुए उसका दाहिना हाथ उड़ गया।
लकड़ी की गरम-सरद तासीर बताते हैं। लकड़ी देखकर पहचान तो कर ही सकते हैं। छोटा टुकड़ा हो तो छिलकर, आरी चलाकर, बुरादे से अनुमान कर लेते हैं; कौन सा पेड़, किस उम्र का, नदी किनारे, पहाड़ पर, रेतीली, पथरीली, मटासी, कैसी जगह के पेड़ की लकड़ी है। काम के लिए लकड़ी के पलसा, गठान, सार, रेशा, तेल, रुई की जांच-परख करते चयन करते हैं। और फिर उसका उपयोग और उसके साथ किया जाने वाला बर्ताव तय करते हैं। आरी, बसूला, रम्दा, झरी, कोरी, पटासी, बिंधना, सुम्बा, बरमा, कटरेती, रेती, सकिंजा, जमूरा, जमुक, खसखस, गिरमिट, गरारी, बदगुनिया, गुनिया; साज कर काम शुरू करते हैं। औजार में धार लगाते देख, लगता है कि मानों मधुर संगीत-सृष्टि के लिए साज मिला रहे हों। उनसे सीखी बातों में से दो खासकर याद रखता हूं, ‘खसखस नाप, पक्का नाप‘ और ‘गुनिया-बदगुनिया दोनों जरूरी‘। मेरे लिए गुरु-तुल्य हैं वे।
काम शुरू करने के लिए बिना स्नान, औजार को हाथ नहीं लगाते और बीच में पानी-पिंडुल के लिए जाना हो तो हाथ-पैर धो कर काम में बैठते हैं। ‘उत्ती मुंह थूकना भी पाप।‘ मैंने कहा, ऐसा तो रामायण में भी लिखा है, यह आपको किसी ने बताया? उन्होंने कहा, रामायण में तो ऐसा नहीं लिखा है। मैंने कहा, तुलसी मानस में नहीं, ऐसा वाल्मीकि रामायण में है। इस पर उनका जवाब था, संस्कृत ठीक से समझ नहीं पाता, इसलिए वह नहीं देखा है। उत्ती मुंह वाला नियम पालन न हो तो अच्छा नहीं लगता, इसलिए करते हैं और याद नहीं कि कब से कर रहे हैं। औजार को कोई छुए, उन्हें पसंद नहीं। कभी मीठी, कभी तल्खी से झिड़की देते, समझाते हैं, ‘तेज धार है, कट जाएगा, चोट लग जाएगी।‘ शायद ऐसा वह औजार छूने वाले के लिए नहीं, औजार के लिए सोचते हैं।
कहते हैं- कटने-चिराने और सीझ जाने के बाद भी लकड़ी में जान बची रहती है। दरवाजा बनाने पर वह पहले तो चौखट में फिट कर दिया जाता है, लेकिन कुछ समय बाद अंट-टंट होता है, सुधारना पड़ता है। दो-तीन साल में उसे समझ में आ जाता है कि अब इसी चौखट में रहना है। ऐसा ढेरों शास्त्र और अनंत लोक, उनमें जीवंत-जाग्रत है।
दूसरे चित्र में बिना जोड़, कील-कांटे वाले ‘व्यास‘ के साथ, जिसे आसनी या रहल कहते हैं और उच्चारण रहर, रेहर, रेहल, रहील, राही भी होता है। ऐसे काम में उन्हें खास आनंद होता है। तारीफ करने पर कहते हैं कि बना तो कोई भी ले, लेकिन हिसाब बिठाना होता है कि खोलते-लपेटते न ढीला पड़े, न अटके।
उनकी किश्त-किश्त बातों को याद रखते, भूलता भी रहा, कभी लिखा, फिलहाल उसमें से कुछ-
गजब ! लकड़ियों का मेटाफिज़िक्स
ReplyDeleteअति उत्तम, बहुत सुंदर
ReplyDeleteNwoodpedia!! Jamun not mentioned?
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