Tuesday, October 5, 2021

गणेश

‘ओम्’ और ‘सिद्धम्’ भारतीय परम्परा में शुभारंभ का प्रतीक है, बीज मंत्र है और यही मंत्र आगे चलकर ‘श्री गणेशाय नमः’ बना। किसी कार्य के आरंभ के लिए ‘श्री गणेश करना’ पर्यायवाची ही बन गया। अब प्रचलित ‘श्री गणेशाय नमः’ में ‘ओम’और ‘सिद्धम्’ के तत्व विद्यमान हैं। यद्यपि कहीं-कहीं अभी भी ‘ओम नमः सिद्धम्’ का मंत्र अपभ्रंश रूप में ‘ओड़ा मासी ढम’कहा जाता है। 

हमारी परम्परा के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में से एक ‘गाणपत्य सम्प्रदाय’ है। गणेश से संबंधित परम्परा की प्राचीनता के प्रमाण वैदिक साहित्य से मिलना प्रारंभ होता है, जहां उनका ‘वक्रतुण्ड’ नाम उनके गजानन, गजकर्ण होने का तथा ‘दन्ती’ नाम उनके एकदन्त होने का स्पष्ट संकेत देता है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर उन्हें वक्रतुण्ड और दन्ती के साथ-साथ कराट और हस्तिमुख नाम से भी पुकारा गया है, इससे स्पष्ट होता है कि वैदिक काल से ही गणेश का गजानन अर्थात् हाथी के सिर वाला रूप प्रचलित था और इसके साथ इस आशय के उद्धरण भी मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि गणेश के भिन्न-भिन्न रूपों की उपासना तथा गणेश उपासकों के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय प्राचीन काल से विद्यमान हैं।

गणेश का नाम स्मरण वैसे तो प्रत्येक अवसर पर किया जाना चाहिए, किन्तु विद्यारंभ, विवाह, नगर अथवा नवनिर्मित भवन में प्रवेश, यात्रादि, संग्राम पर जाते हुए अथवा किसी भी प्रकार की विपत्ति के समय गणेश के द्वादश नाम के स्मरण की विशेष महत्ता बताई गई है। ये बारह नाम इस प्रकार हैं- सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशन, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। वस्तुतः गणेश के ये बारह नाम, उनकी विशेषताओं के भी द्योतक हैं।

भारतीय कला में गणेश प्रतिमाओं का प्रारंभिक रूप और उपासना में ‘यक्ष’ और ‘नाग’ परम्पराओं का समावेश माना गया है। गणेश के रूप-आकार में ठिंगना कद, छोटी टांगें, बड़ा पेट तथा हाथी का मुॅंह और मस्तक विशेष रूप से दिखाई पड़ती हैं। यह लक्षण यक्ष प्रतिमाओं के अत्यंत निकट है, चूॅंकि सभी यक्षों के मुख अनिवार्यतः मानव के नहीं होते, बल्कि पशुओं जैसे गोमुख, अश्वमुख आदि भी होते हैं। भारतीय कला के मर्मज्ञ-चिंतक आनंद कुमारस्वामी ने गणेश प्रतिमा का मूल अमरावती स्तूप से मिले एक उष्णीश पर अंकित गज-मुख यक्ष में दिखलाया है। प्रख्यात प्रतिमाशास्त्री जे.एन. बैनर्जी ने गणेश का विद्या से संबंध उनके वैदिक ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति के नाम-साम्य के कारण प्रतिष्ठित होने की संभावना व्यक्त की है। 

गणेश के प्रतिमाशास्त्रीय लक्षणों में उन्हें गजमुख के साथ अन्य प्रतिमा भेदों में हेरम्ब रूप में पंचमुखी दिखाये जाने का उल्लेख शास्त्रों में प्राप्त होता है इसी प्रकार गणेश की सामान्य द्विनेत्र वाली प्रतिमाओं के अतिरिक्त, उनके त्रिनेत्र रूप वाली प्रतिमाओं का विधान भी शास्त्रों में उपलब्ध है। गणेश की प्रतिमाएं सामान्यतः चतुर्भुजी प्राप्त होती हैं, किन्तु द्विभुजी, षट्भुजी, अष्टभुजी, दशभुजी और अष्टादशभुजी गणेश प्रतिमाओं के उदाहरण भारतीय कला के साथ-साथ आंचलिक कलाकृतियों में उपलब्ध हुए हैं। उनकी भुजाओं में दंत, परशु, पद्म और मोदक दिखाए जाने का विधान है साथ ही पाश, अंकुश, मुद्गर के अतिरिक्त उन्हें मूली लिए भी दिखाये जाने का विधान और उदाहरण है। मंगलकारी रूप में उनके हाथ वरद और अभय मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। वाहन के रूप में मूषक दिखाया जाता है, जो धर्म का प्रतीक है। उन्हें अधिकतर करण्ड मुकुटधारी दिखाया गया है। गणेश की प्रतिमाएं आसन, स्थानक, नृत्य मुद्रा में, मातृकाओं के साथ अथवा युगल रूप में शक्ति वैनायिकी के साथ प्राप्त होती हैं।
मल्हार के पंचमुखी हेरम्ब गणेश

छत्तीसगढ़ का क्षेत्र विपुल पुरातात्विक प्राप्तियों से सम्पन्न क्षेत्र है। इस अंचल से इतिहास के मौर्य, शुंग-सातवाहन, कुषाण, गुप्त-वाकाटक युगों के समकालीन तथा क्षेत्रीय राजवंशों में राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय, नल, पाण्डु-सोम, नाग, कलचुरि आदि के विविध पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें बिलासपुर के मल्हार, रतनपुर, ताला, खरौद, रायगढ़ के पुजारीपाली (सरिया), सरगुजा के डीपाडीह, महेशपुर, बेलसर, कलचा-भदवाही, रायपुर के राजिम, सिरपुुर, आरंग, दुर्ग-राजनांदगांव के भोरमदेव, बिरखा घटियारी, देव बलौदा, नगपुरा, बस्तर के बारसूर, दंतेवाड़ा, भैरमगढ़ जैसे प्रमुख स्थान हैं।

छत्तीसगढ़ क्षेत्र में शैव परिवार के देवताओं में शिव के विभिन्न रूपों के साथ भैरव, कार्तिकेय, गौरी-पार्वती और नंदी के साथ गणेश की प्रतिमाएं भी प्राप्त होती हैं। इस अंचल से गणेश की स्वतंत्र प्रतिमाएॅं भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। इसके साथ ही गणेश की प्रतिमाएं प्रवेश द्वार पर तथा सिरदल के मध्य अंकित किये जाने की परंपरा रही है, जिसके फलस्वरूप सिरदल को गणेश पट्टी तथा मुख्य द्वार को गणेश-द्वार के नाम से अभिहित किया गया है। छत्तीसगढ़ अंचल से प्राप्त गणेश प्रतिमाओं का काल लगभग छठवीं सदी ईस्वी से तेरहवीं सदी ईस्वी तक है।

गणेश की आरंभिक प्रतिमाओं में ताला के देवरानी मंदिर के सोपान क्रम के उत्तर में स्थित विशाल आकार की गणेश प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। यह प्रतिमा परवर्ती संरचना के कारण ढंकी हुई थी, जिसे मलबा-सफाई के दौरान प्राप्त किया गया। प्रतिमा अपने मूल प्राप्ति स्थान पर साफ किये गए निम्नतलीय स्थल पर अब भी विद्यमान और दर्शनीय है। अंचल के प्रसिद्ध पुरातात्विक स्थल मल्हार से गणेश की विभिन्न काल और प्रकार की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, जिसमें पातालेश्वर मंदिर परिसर में रखी पंचमुखी हेरम्ब गणेश का विशाल प्रतिमा खंड, अपने कला-सौंदर्य और विशिष्ट प्रतिमा लक्षण के कारण उल्लेखनीय है। पातालेश्वर मंदिर के प्रवेश द्वार में एक अन्य विशिष्ट विग्रह शक्ति सहित गणेश विद्यमान है। रतनपुर की गढ़ी में भी एक विशाल किन्तु खंडित प्रतिमा के भाग अवशिष्ट हैं।

बारसूर के मामा-भांचा मंदिर के सामने स्थापित गणेश की प्राचीन प्रतिमा आकार की दृष्टि से संभवतः प्रदेश की विशालतम प्रतिमा है। आकार की विशालता के साथ-साथ प्रतिमा का कलात्मक सौंदर्य और दक्षिण भारतीय अलंकरण परम्परा का प्रभाव भी विशेष उल्लेखनीय है। सरगुजा क्षेत्र से भी गणेश की विभिन्न प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, इनमें डीपाडीह से प्राप्त नृत्य-गणेश की प्रतिमा अत्यंत आकर्षक है। प्रतिमा को उत्कीर्ण करने में कलाकार को गति, लय, लास्य और संतुलन के साथ हस्त और पादमुद्रा के प्रदर्शन में जो सफलता प्राप्त हुई है वह सुदीर्घ परम्परा और उसके कौशल की सीमा स्पष्ट कर सकने में सक्षम है। इसी स्थान से प्राप्त एक अन्य गणेश प्रतिमा का शुण्ड दक्षिणावर्त प्रदर्शित किया गया है, जो तांत्रिक परम्पराओं के प्रभाव का अनुमान कराता है।

छत्तीसगढ़ अंचल के जिन अन्य स्थानों से गणेश की प्रतिमाएं ज्ञात हैं, उनमें से कुछ प्रमुख स्थानों के नाम इस प्रकार हैं- जांजगीर, पाली, खरौद-शिवरीनारायण, सरगांव, गोढ़ी-किरारी, देवगढ़, बेलसर, पुजारीपाली, सिरपुर, राजिम, पलारी, तुमान, भोरमदेव, देव बलौदा, गंडई, घटियारी, कांकेर, दन्तेवाड़ा, भैरमगढ़ आदि। इसके अतिरिक्त बिलासपुर, रायगढ़, खैरागढ़, रायपुर आदि संग्रहालयों और तुमान, मल्हार आदि स्थानों के स्थल संग्रह में भी गणेश प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।

गणेश की पूजा परम्परा के प्रमाण न केवल भारत, बल्कि अन्य देशों यथा जावा, सुमात्र, अफगानिस्तान, बाली, बर्मा, थाईलैण्ड, कम्बोडिया आदि देशों में भी प्राप्त होती है। गणेश की लोकप्रियता में जहां एक और उनके गण अधिपति, बुद्धि के देवता, विघ्न विनाशक, नृत्य-प्रवीण और तांत्रिक शक्तियों के इष्ट के रूप में मान्यता है वहीं दूसरी ओर पुराणों में कार्तिकेय के साथ उनके बालसुलभ विवाद तथा इस प्रकार के अन्य कई मनोरंजक प्रसंग भी प्राप्त होते हैं, जिनका अंकन प्राचीन मूर्तिकला के साथ ऐतिहासिक चित्रों में भी किया गया है।

इस अंचल के शिलालेखों में भी गणेश की वंदना की गई है, इनमें वाहर के कोसगईं शिलालेख में अत्यंत साहित्यिक ढंग से उनकी क्रीड़ा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे लंबोदर आपकी रक्षा करें, जो बालक होने पर भी अपनी मति का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मदेव के रायपुर शिलालेख में गणेश की वन्दना इन शब्दों में की गई है-वे गणेश आपकी रक्षा करें, जो विघ्न रूपी अंधकार दूर करने के लिए एक ही सूर्य हैं, विघ्नरूपी अटवी को जलाने वाले अग्नि हैं, विघ्नरूपी सांपों के कुल को नष्ट करने वाले गरूड़ हैं, विघ्नरूपी हाथियों के लिए सिंह हैं, विघ्नरूपी ऊंचे पर्वतों को फोड़ डालने के लिए वज्र हैं, विघ्नों के समुद्र को सोखने के लिए बड़वाग्नि सदृश हैं और विघ्नरूपी मेघों को उड़ा देने के लिए प्रचण्ड वायु हैं।

इस प्रकार की ऐतिहासिक, साहित्यिक रचनाओं और प्रतिमा के रूप में उत्कीर्णित गणेश के विभिन्न रूपों में, छत्तीसगढ़ अंचल की महान सांस्कृतिक और कलात्मक धरोहर की स्पष्ट और सम्पन्न परम्परा के दर्शन होते हैं।

यह आलेख मूलतः बिलासपुर आकाशवाणी के लिए तैयार किया गया था, ‘छत्तीसगढ़ के पुरातत्व में उत्कीर्णित गणेश प्रतिमाएं‘ शीर्षक वार्ता का प्रसारण 26.08.1998 को हुआ था। 2019 में प्रकाशित डॉ. कामताप्रसाद वर्मा जी की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ का पुरातत्व एवं प्रतिमाएं तथा अन्य स्रोतों से मिली गणेश प्रतिमा-स्थलों की जानकारियां यहां जोड़ी गई है।
कहा जाता है कि के.ए. अंसारी ने संकल्प किया कि
शंकर नगर-अनुपम नगर, रायपुर में न बिकने वाले प्लाट का
जल्दी सौदा हो जाए तो गणेश मंदिर बनवाएंगे।
संकल्प के बाद उनकी मनोकामना शीघ्र पूरी हुई और
उन्होंने 1985 में इस गणेश मंदिर का निर्माण कराया।

बस्तर- इस दौरान फरसपाल गांव के पास, लगभग 2100 फुट की दुर्गम उंचाई पर स्थित, छिंदक नागवंशकालीन ढोलकल गणेश की महत्वपूर्ण प्रतिमा प्रकाश में आई और लगातार चर्चा में रही। इसके अलावा बारसूर स्थल संग्रह में, सिंघईगुड़ी में, छिंदगांव में, दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के मंडप में काले पत्थर की विशाल प्रतिमा। बड़े डोंगर- कोंडागांव से 50 किलोमीटर दंतेश्वरी मंदिर के पास बालाजी मंदिर के गर्भगृह और प्रांगण में तीन प्रतिमाएं। कांकेर के शीतला मंदिर में एक तथा बालाजी मंदिर में दो प्रतिमाएं।

सरगुजा- डीपाडीह, सामत सरना मुख्य मंदिर मंडप में, तथा अन्य दो, चामुंडा मंदिर, स्थल संग्रह में। महेशपुर और देवटिकरा में, कोरिया सोनहत में।

अन्य- फिंगेश्वर, धमधा। किरारी गोढ़ी, बिल्हा। सिद्धेश्वर मंदिर, पलारी। खपरी तथा कपिलेश्वर मंदिर बालोद । कर्णेश्वर मंदिर, सिहावा, सिहावा से 15 कि.मी. गढ़ डोंगरी पर रखी प्रतिमा। धमतरी से 15 किलोमीटर देवपुर और डोंगा पथरा के बीच तालाब के पास रखी प्रतिमा। भोरमदेव मंदिर में, शिव मंदिर, घटियारी। राजनांदगांव संग्रहालय में, कटंगी और खैरागढ़ संग्रहालय में। धमतरी जिले के दुधावा बांध के डुबान में देवखुट, शिव मंदिर के सामने रखी प्रतिमा। देव बलौदा शिव मंदिर के मंडप में गर्भगृह के दोनों ओर दो प्रतिमाएं। गुरुर तालाब के किनारे चतुर्भुजी प्रतिमा। राजिम, राजीव लोचन मंदिर के वाह्य द्वार पर तथा रामचंद्र मंदिर के मंडप में अष्टभुजी प्रतिमा। सिरपुर, सुरंग टीला के पांच में से एक मंदिर में स्थापित तथा लक्ष्मण मंदिर परिसर में खुदाई से प्राप्त।

पत्रकार साथियों का आभार कि पर्व-त्यौहारों पर पूछते-
 छत्तीसगढ़ में क्या परंपरा रही है,
उनके जवाब की तैयारी में
इस बहाने पढ़ना-लिखना हो जाता था।


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