रहंगी, चकरभाटा कैम्प वाले डॉ. बसंतलाल शर्मा, आयुर्वेद चिकित्सक थे, रससिद्ध। उनकी रसिकता, शास्त्र और साहित्य-साधना में उनकी पैठ के साथ थी।
मेनका की कन्याओं में शकुंतला (और दुष्यंत) की कथा प्रचलित है। मेनका की एक और कन्या प्रमद्वरा की कथा महाभारत के आदि पर्व में है। यही प्रमद्वरा डॉ. बसंतलाल शर्मा से मेरे लगाव की कड़ी बनी। सन 2007 में वे इसी ‘प्रमद्वरा‘ शीर्षक से खण्ड काव्य रच रहे थे। इस विशिष्ट पात्र की कथा का कम प्रचलन है, जीवन-रक्षा और यौवन के लिए भी आयु देने लेने के कई प्रसंग पुराने आख्यानों में हैं, किंतु यहां बताया जाता है कि सांप काटने से मृत प्रमद्वरा के जीवन के लिए पति रूरू ने अपनी आधी आयु दे दी थी। इस कथा के अन्य उल्लेख और पहलुओं की रोचक व्याख्या शर्मा जी किया करते थे।
पता लगा कि उनकी साधना निरंतर है, किन्तु उन्हीं के शब्दों में ‘अरसिकेषु काव्यानिवेदनम्‘ करना नहीं चाहते थे, इसलिए प्रकाशन में रुचि नहीं ली। इसी बातचीत में उनके ‘मेघदूत पद्यानुवाद‘ की चर्चा हुई, जिस पर मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करने वाले साहित्य-मनीषी पं. मुकुटधर पाण्डेय जी ने 11.11.1979 को सम्मति-आशीर्वाद दिया था, इन शब्दों में-
श्रीराम
श्री डॉ. बसंत शर्मा कृत ‘मेघदूत‘ का पद्यानुवाद मुझे पढ़ने सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यों तो हिन्दी में इसके अनेकानेक अनुवाद हो चुके है पर जो सहजता ओर सरसता इस अनुवाद में पाई जाती है- वह ब्रजभाषा के पूर्ण कवि कृत अनुवाद को छोड़ मैने कहीं नहीं पाया।
-अनुवाद की विशेषता यही है कि भाषा मौलिक सी जान पड़े।
शर्माजी की भाषा से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। यह अनुवाद यदि छप पाता है तो इससे हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि होगी, यह मेरा विश्वास है।
इत्यलम्!
2007 में पुस्तक छपी। रचनाकार के अनुसार ‘‘अब तक कुछ मन से, कुछ बेमन से कहने वाले मिलते थे। अब जा कर मन से कहने और कहने वाला मिला- उसके ही सार्थक प्रयास से यह प्रकाशित हो सका है।‘‘ शर्माजी के आग्रह का मान रखते, इस कृति पर अपनी भावना मैंने व्यक्त की थी, इस तरह-
उमड़ते-घुमड़ते मेघ से कोंपलें फूटने लगती हैं और उनकी गति, भाव-आलंबन बन कर अभिव्यक्त होती रही है, इस क्रम में महाकवि कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ व्यापक देश-काल-पात्र की बात बनकर कालजयी है। इसमें आदिम मनोभावों का स्पंदन, वैदिक ऋक् द्रष्टाओं की सौंदर्यानुभूति और विरह संदेश-संप्रेषण की चिरंतनता है। मेघ, दूत के रूप में आकुल-व्याकुल मन की भावाभिव्यक्ति को दिशा देकर, राहत पहुंचाने के लिए ई-मेल से अधिक कारगर रहा है और रहेगा।
मेघदूत के रचनात्मक रूपान्तरणों में मेरे लिए स्मरणीय पद्मश्री पं. मुकुटधर पांडेय का छत्तीसगढ़ी ‘मेघदूत’ तो है ही, एक पुराना फिल्मी गीत भी यादगार है-
‘‘ओ वर्षा के पहले बादल, मेरा संदेशा ले जाना,
असुंवन की बूंदन बरसा कर, अलका नगरी में तुम जाकर,
खबर मेरी पहुंचाना, ओ वर्षा के.....’’
खैर! किसी कृति के रसास्वादन का एक तरीका यह भी है कि उसे पढ़ते हुए आत्मसात् कर, अपने अधिकार की भाषा-शैली में पुनः अभिव्यक्त किया जाय। दूसरे शब्दों में यह एक प्रकार का अनुवाद ही है, किन्तु इसका सौन्दर्य और महत्व इसकी रचनात्मकता में होती है, इसलिए यह भाषान्तरण या अनुवाद से आगे निकल जाता है। कुछ ऐसी ही रचना डॉं. बसन्त शर्मा जी की यह कृति ‘पद्यानुकृत मेघदूत’ है।
डॉ. शर्मा का यह उद्यम रसास्वाद का अपना तरीका है, ऐसा इसलिए भी माना जा सकता है कि सन् 1979 में यह कार्य किया जाकर इसके प्रकाशन के लिए उनके द्वारा तब से कोई प्रयास नहीं किया गया, प्रयास तो उनके द्वारा अभी भी नहीं किया गया, किन्तु संयोगवश यह अब हो रहा है और इस क्रम में मुझे भी डॉ. शर्मा और उनके कृतित्व से परिचित होने का अवसर मिला, यह मेरे लिए सुखद है।
डॉ. शर्मा की साधना, उनके ‘स्वान्तः सुखाय’ से बाहर निकल कर कितनी सीमाएं पार कर लेगी, यह तो सुधी पाठकों से तय होगा, किन्तु साहित्य भण्डार को समृद्ध करती रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।
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