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Saturday, April 17, 2021

अद्वैत का द्वंद्व

‘हैट टांगने के लिए कोई भी खूंटी काम दे सकती है। उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है।‘ जी हां, यह पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के प्रसिद्ध निबंध ‘क्या लिखूं?‘ में आया है। उन्होंने इसमें कहा है कि यह निबंध नमिता के आदेश और अमिता के आग्रह पर लिखा गया, जिन्हें क्रमशः ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ और ‘समाज-सुधार‘ पर आदर्श निबंध लिखना था। इसी तरह हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ आरंभ होता है- ‘बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देने वाले प्रश्न कर बैठते हैं। ... मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि ...‘। बच्चों की फरमाइश या सवाल के जवाब में ऐसे कुछ अनमोल निबंध आए। बड़े लोगों की बड़ी बातें। मगर, कहा जाता है कि आपकी बात 5-6 साल के औसत बच्चे को समझ में आ जाए, समझा सकें, तभी जानिए कि आपने खुद ठीक समझ लिया है।

दो घटनाएं याद आती हैं। पहली, कार्डेटा और नान-कार्डेटा। दो बच्चों में से एक, बड़े को स्कूल में पाठ पढ़ाया गया था, वह छोटे को समझा रहा था, छोटा समझने को तैयार नहीं। मैंने मदद करनी चाही, कहा कि हड्डी वाला, कड़ा हो वह कार्डेटा और मुलायम, लिजलिजा, गिजगिजा है वह नान-कार्डेटा। आई बात समझ में। बच्चे ने अपनी समझ का सबूत देते हुए, मेरे समझाने को ध्वस्त करते हुए उदाहरण से बताया- घोंघी, कार्डेटा और छिपकिली, नान-कार्डेटा। सुधार हुआ, जो उपर मुलायम अंदर कड़ा वह कार्डेटा और उपर कड़ा अंदर मुलायम वह नान कार्डेटा। मजबूत आदमी भी अक्सर बाहर से मुलायम तो, खैर ...। दूसरी कि बच्चों को स्वर और व्यंजन में फर्क बताने का प्रयास किया जा रहा था, और बात बमुश्किल उदाहरणों अ, आ, इ, ई और ए, ई, आई, ओ, यू पर आ कर अटक जा रही थी। एक बच्चे को सूझा, मतलब यह कि जो आवाज गले से आए वह स्वर और जिसमें जीभ और होंठ के साथ दांत और तालू में भी हरकत हो वह व्यंजन।

बच्चों के प्रश्नों में जिज्ञासा, तर्क और समझ की तलाश के लिए होती है। कभी इसलिए भी कि स्वाभाविक सी क्रिया, परिस्थिति, घटनाओं में भी कार्य-कारण संबंध तो होता है, लेकिन वह अक्सर स्पष्ट-प्रकट नहीं होता, बच्चे उसे जानना-समझना चाहते हैं। प्रसंगवश बाथरूम सिंगिंग और टायलेट थिंकिंग की तरह एक अदा होती है, प्लेटफार्म चिंतन। ऐसा तब होता है, जब स्टेशन पर पहुंचने के बाद पता लगे कि गाड़ी लेट है और लेट होती जा रही है। ऐसा ही कुछ हुआ, जिसमें बच्चे की पार्श्व सोच यानि लैटरल थिंकिंग का एक उदाहरण आया।

एक सज्जन बताने लगे कि उनकी बच्ची जब भी स्टेशन से वापस लौटती, तो पूछती कि हर गाड़ी सड़क के ऊपर चलती है, लेकिन रेलगाड़ी क्यों नहीं। उसे समझाया जाता कि रेलगाड़ी की सड़क पटरी है, वह पटरी पर चलती है, लेकिन उसकी जिज्ञासा शांत नहीं होती। बात आई गई। प्लेटफार्म चिंतन में चर्चा होने लगी कि बच्ची ऐसा क्यों पूछती थी। बच्ची अब युवती थी और खुद भी यह भूल चुकी थी। अलग-अलग संभावनाओं पर विचार होता रहा और उसे सुझाया जाता रहा, बात नहीं बनी। एक बात आई, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह प्लेटफार्म को सड़क मानती थी और सोचती थी कि यही एक ऐसी गाड़ी है जो सड़क के ऊपर नहीं, नीचे चलती है। युवती ने सुना और दस साल बाद जिज्ञासा के उसी उम्र में पहुंच गई, चहक पड़ी, यूरेका।

आगे बातों की राह तो सूझ रही है किंतु बहकने-भटकने की मान्य सीमा तक छूट लेते हुए ...। कहा जाता है कि पैडगरी (पांव-पांव रास्ता), सीधी-सरल हो तो वह मवेशी के चलने का रास्ता और टेढ़ी-मेढ़ी हो तो मानुस की। उसमें भी राह राह कपूत और राह छोड़ सपूत। तो, याद आ रहा है कि एक मास्टर साहब के पुत्र ने प्रथम श्रेणी में भौतिकशास्त्र स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की, साहबजादे यानि मास्टरजादे फूले नहीं समाते, मानों सब कुछ पा लिया। लेकिन पिता को उनके रोजगार की चिंता सताती रहती। पीढ़ी की सोच और यों भी पिता-पुत्र का रिश्ता सार्थक तभी होता है, जब शाश्वत मतभेद सतह पर आने लगे। पुत्र, अपनी प्रथम श्रेणी स्नातकोत्तर उपाधि की शान में रहते, पिता से भिड़ गए। पिता ने कहा- घर का पंखा बिगड़ा हुआ है, बना सकता है तो सुधार, नहीं तो कम से कम मिस्त्री ही बुला ला।

इसी तरह दो व्यवसायी पिता, जिनमें एक का साबुन कारखाना था और दूसरे का बर्तन की दुकान। संयोग से दोनों के बच्चे पढ़ाई में तेज निकले। बी स्कूल और एम स्कूल का जमाना नहीं आया था। अच्छे नंबर आए तो इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिल गया। बात आई ब्रांच की। पिता-पुत्र ‘द्वन्द्व समास‘ के ‘शाश्वत भाव‘ को प्राप्त न हुए थे। पुत्र, अब तक आज्ञाकारी थे, पिता से आदेश मांगा। साबुन वाले पिता ने समझा कि केमिकल ब्रांच सही होगा और बर्तन वाले ने ताड़ा कि मेटलर्जी ब्रांच हो तो खरीदी-बिक्री में कोई ठग न सकेगा। आगे की कहानी है दर्दनाक, लेकिन लोग उनकी हंसी उड़ाते ‘ट्रेजिकॉमेडी‘, इसलिए यहीं रुक कर, वापस पटरी पर।

जशपुर की अंकिता जैन लेखिका हैं। फेसबुक पर उनकी रोचक पोस्ट यहां खूंटी बनी, जिसमें उनके लाड़ले अद्वैत ने जिज्ञासा की- ‘सब्जी और फल में क्या अंतर होता है?‘ अंकिता जी ने समझने की कोशिश करते, समझा, समझाया, बहलाया। लेकिन बात नहीं बनी। फिर टाला मौसी पर। मौसी का वनस्पतिशास्त्रीय जवाब कि लौकी, कद्दू आदि भी तकनीकी रूप से फल ही हैं। मगर अंकिता जी की समस्या बनी हुई है, कहती हैं- फिलहाल उसे समझाकर सुला दिया है कि ‘सब्जी मतलब जो किसी के साथ खाते हैं, और फल मतलब जो अकेले खा लेते हैं‘।

कुछ गफलत है, खेंढ़ा, इसके पत्ते, तना और जड़ को भी पका कर खाया जाता है और इस तरकारी को सिर्फ ‘जड़ी या जरी‘ भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी गीतों में खान-पान और साग-सब्जी के कई गीत हैं, इनमें एक मजेदार गीत है- ‘रमकेरिया म राजा राम बिराजे, जरी म/सेमी म सीता माई।‘ छत्तीसगढ़ में महिलाओं के आपसी मुलाकात पर औपचारिक आरंभिक वाक्य होता है- का साग रांधे, दीदी/गोई?

सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘ग्राम श्री‘ के अंश, जिसमें फल-सब्जियों को, बिना भेदभाव एक साथ समेटा है, को याद कर लेने का यहां अवसर बना है-

अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
लद गईं आम्र तरु की डाली।
झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली।
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली।
फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैंगन, मूली।

पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं,
पक गये सुनहले मधुर बेर,
अँवली से तरु की डाल जड़ीं।
लहलह पालक, महमह धनिया,
लौकी औ' सेम फली, फैलीं,
मख़मली टमाटर हुए लाल,
मिरचों की बड़ी हरी थैली।

फिर भी कह सकते हैं कि अधिकतर सीधे खाने वाले फल के बहुवर्षीय वृक्ष होते हैं जबकि सब्जी वाले फलों के मौसमी, कम आयु वाले पौधे होते हैं। खाने वाला फल सामान्यतः मीठा होता है। पकने के पहले कसैला, खटमिट्ठा फिर मीठा, या खटमिट्ठा या खट्टा। लेकिन पका कर सब्जी के रूप में खाए जाने वाले फल फीके स्वाद वाले होते हैं। खाने वाले फल सामान्यतः सीधे, बिना नमक-शक्कर, मसाले के खाया जाता है या खाया जा सकता है, उन्हें पकाने यानि कुक करने की आवश्यकता नहीं होती। सीधे खाने वाले फल और सब्जी पका कर (यानि राइप नहीं कुक) खाए जाने वाले फल में यह अंतर भी बताया जा सकता है कि ऐसे दोनों फलों का आकार तो बदलता है लेकिन सीधे खाने वाले फल का रंग और स्वाद बदल जाता है, जबकि सब्जी वाले फलों का रंग और स्वाद लगभग वैसा ही बना रहता है। कुछ खास उदाहरणों में टमाटर, जो चटनी, प्यूरी, केचप या सपोर्ट, टेस्ट मेकर होता है, स्वयं पूरी तरह स्वतंत्र सब्जी नहीं। इसी तरह नीबू, करौंदा, मिर्च आदि सब्जी के बजाय मुख्यतः शर्बत, अचार, चटनी, मुरब्बा बनते हैं, उन्हें खींच-तान कर सब्जी बनाया जा सकता है और कान पकड़ कर किसी को खिलाया भी जा सकता है, लेकिन ये सब टमाटर की तरह स्वतंत्र और बिना सहयोगी के, आत्मनिर्भर सब्जी में शामिल नहीं हो सकते।

खान-पान की बात हो तो मुंह में पानी आ जाता है, मगर सब फीका, बात तब तक नहीं बनती, जब तक मीठा-नमकीन न हो। ध्यान रहे कि मीठा यानि नमकीन? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘मिठात नइ ए, नून बने नइ जनाए हे।‘ मारवाड़ी में नमक फीका होने पर कहने का प्रचलन है- थोड़ा मीठा (जी हां, यानि नमक) और डालो। गुजरात का मीठापुर तो नमक उत्पादक है ही। वस्तुतः मीठा यानि स्वाद, स्वाद यानि षटरस का संतुलन। हमारी जिह्वा, स्वाद इंद्रिय ही ऐसी है, जो जन्म के साथ सक्रिय हो कर मृत्यु तक क्षीण नहीं होती। यह व्यक्ति के संयम-अनुशासन की सहज और सबसे विश्वसीय चुगली भी कर सकती है।

बात की बात, यह कि अंकिता जी की किसानों पर एक पुस्तक ‘ओह रे! किसान‘ है। अब फल-सब्जी पर कम से कम पूरा लेख उनकी ओर से आना रोचक होगा। आवश्यकता अविष्कार की जननी है और ऐसी जिज्ञासा, जहां सुई अटक जाए फिर तो देर-सबेर बात बननी ही है। उनकी एक पुस्तक ‘ऐसी-वैसी औरत‘ है, लेकिन वे ऐसी वैसी नहीं, समर्थ जीवन साथी वाली, अद्वैत की जननी और ‘मैं से मां तक‘ पुस्तक की भी लेखिका हैं।