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Sunday, March 20, 2022

मंगत रवीन्द्र

साहित्य अकादेमी का भाषा सम्मान, गैर-मान्यता प्राप्त भाषाओं में साहित्यिक रचनात्मकता के साथ ही शैक्षिक अनुसंधान को स्वीकार और बढ़ावा देने के लिए स्थापित है। छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए अब तक यह एकमात्र मंगत रवीन्द्र को सन 2003 में दिया गया था। मंगत जी की उपलब्धियां और साधना की चर्चा कभी-कभार ही होती है। यह सम्मान मिलने पर सन 2004 में नन्दकिशोर तिवारी के संपादन में छत्तीसगढ़ साहित्य परिसद, बिलासपुर द्वारा पुस्तिका का प्रकाशन किया गया था, जिसमें मंगत रवीन्द्र की साहित्यिक यात्रा का परिचय, उनकी कहानी ‘बेटी‘ तथा कुछ कविताएं थीं। पुस्तिका का अंश यहां प्रस्तुत है- 

मंगत रवीन्द्र के साहित्य जात्रा 
-संजीव चंदेल 

जरूरत ले ज्यादा सांवर, छः फुटिया, मध्यम सोर के आंखी, कतिकुन लम्बा फेर चपटे असन नाक, सांकर माथा, घुंघरालू असन दीखत चुंदी अऊ मुचमुचात चेहरा वाला मनखे ल देख के दुरिहा ले चिन्ह डारे असन मुँह ले भाखा फूट परथे “आव भाई मंगत"। मंगत रवीन्द्र ल एक छिन म पहिचाने जा सकत हे। वोखर आंखी अउ ओंठ दुनों म एक अज़ीब किसिम के मुस्कान खेलत दिखथे, जाना-माना वो ह अपन जिनगानी मं जउन कुछू पाए हे वोमा संतुष्ट हे। सुख-दुःख दूनो ल ईस्वर के किरपा मान के एके बरोबर झेल लेथे। अइसनहे आदमील कर्मवीर कहे जाथे। मंगत रवीन्द्र कर्मवीर ऑय।

मंगत रवीन्द्र के जनम 4 अप्रेल सन् 1959 म गिधौरी (कोरबा) म होइस। उंकर ददा के नॉव मुनीराम अउ दाई के नॉव समारिन आय। ददा के इंतकाल होगे। दाई-ददा के आमदनी के साधन मजदूरी रहिस। अइसन आर्थिक बेवस्था म लइका मन ला पढ़ाना लिखाना कठिन होथे। तब्भो ले मंगत के ददा ओला स्कूल म पढ़ेबर भेज दिस। पहली कक्षा में भरती होय के बाद मंगत पहिलीच् दिन हिन्दी के स्वर अउ व्यंजन सिलहेट म लिख दिस। मंगत के गियान ल येतरा धरई ल देखके मंगत के गुरू जी मंगल ल रपोट लिस अउ पीठ ल थप-थपा के आसिर वाद दिस। मंगत के ऊमर के साथ पढ़ाई के दर्जा भी बाढ़त गिस। कठिन परिसरम आर्थिक तंगी के संघर्स म मेहनत के जीत होगे। मंगत रवीन्द्र ले दे के सन् 1977 म हायर सेकेण्डरी के परीच्छा पास करिस।

हायर सेकेण्डरी के परीच्छा ल पास करे के बाद सन् 1978 म आयुर्वेद रत्न, 1991 मं स्नातकोत्तर के डिग्री हासिल करिन। ये तरा हायर सेकेण्डरी के परीच्छा अउ एम. ए. के डिग्रीधारी आदमी बने मं तेरा साल लगिस।

ये तेरा बरिस ह मंगत रवीन्द्र के तेरा जुग के कथा असन हे। मेट्रिक पास करतेच् मंगत के बिहाव होगे। अपन बोझा ल संभाले के होस नइ आय रहिस के गृहस्थी सजगे। का करतिस मंगत। मेट्रिक के पढ़ते-पढ़ते गांव के जड़ी-बूटी के गियान ल सीख ले रहिस। उही ह अब ओखर आमदनी के जरिया बनगे। उही समें मंगत के जरी-बूटी के गियान के कारन करतला (कोरबा) के अस्पताल म पचास रूपया मानदेय म जनस्वास्थ्य रक्छक के नौकरी वोला मिल गे। पढ़ना अउ गियान ल बांटना मंगत रवीन्द्र के सौक आय। इही सौक ह सन् 1990 म मंगत ल विग्यान सहायक सिक्छक बना दिस। मंगत के पोस्टिंग अकलतरा तीर के गांव कापन म होइस। तबले मंगत रवीन्द्र कापन म रहिके स्कूल के लइका मन ल पढ़ाथें। खुद पढ़थें अउ सकेले गियान ल कागज मं लिखके बगराथे।

कापन म गुरुजी के नौकरी ह मंगत ल आरथिक संकट ले उबार-दिस । अब मंगत के दिन चर्या म साहित्य ह जुरगे। 
मंगत रवीन्द्र तरूण साहित्य परिसद, जांजगीर, दलहा साहित्य विकास परिसद, अकलतरा, भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर के संपर्क म आइस। लेखक मन संग लेखक मिलिस अउ मंगत रवीन्द्र के रचना मन आकार पाय लगिन।

कापन मंगत रवीन्द्र के साधना स्थली ए। इहां वोहा 'काव्य-हंस सेवा सदन' नाम के संस्था बनाइस अउ छोट-छोट किताब छापना सुरु करिस। ये संस्था हं कईठों किताब छापिस जेमा - नव रात्रि गीत (1993) दोहा-मंजूषा (1994) होली के रंग गोरी के संग (1995) प्रमुख ए। 

गंवई गांव के रहइया लेखक के सामने प्रकासन के जबर समस्या रथे। एती-ओती करत मंगत रवीन्द्र के संपर्क सरदार त्रिलोचन सिंह, बुक सेलर्स, इन्दौर, अउ पंकज प्रकासन, मथुरा करा होइस। असली बात आय के इन प्रकासक मन के किताब छत्तीसगढ़ के मेला-ठेला म बेचाय बर आथे। मंगत रवीन्द्र अइसने चरचा करिस। प्रकासक मन मुंह खोलेच् रहिन अउ झट मंगत रवीन्द्र के किताब ल रख लिन। सबे अधिकार प्रकासक के। लिखना भर मंगत के। मंगत खुस। प्रकासक मन के सोंसन ल घलो अपन भाग्य मान के किताब उपर किताब देत गइस अउ प्रकासक छाप के पइसा कमात गइस। अइसने विपत्त ल सहत मंगत रवीन्द्र के छपे किताब मन के विवरण नीचे दिए जा रहे हे -

1. नवरात्रि गीत 1993 
2. दोहा मंजूषा - 1993 
3. छत्तीसगढ़ी व्याकरण - 1994 
4. होली के रंग गोरी के संग - 1995 
5. माता सेवा - 1997 
6. गीत-गंगार - 1998 
7. मयारू बर मया - 1999 
8. छत्तीसगढ़ी बियाकरण - 2000 
9. आधुनिक विचार ज्ञान गंगार - 2000 
10. सुगंध धारा - 2001 
11. सद्गुरू चालीसा - 2002 
12. रतन जोग - 2002 
13. चमेली डारा - 2004 
14. गुड़ ढिंढा - 2004 

उपर लिखे जमों किताब के समोखा लिए म अड़बड़ जघा अउ समय चाही। ये सेती मंगत रवीन्द्र के तीन गुन के चर्चा करना ही काफी होही। एक उंकर लिखे 'छत्तीसगढ़ी बियाकरण' के बारे में ये कहत निक् लागथे के छत्तीसगढ़ी बियाकरन के आने लिखइया मन के अधार ग्रियर्सन के छत्तीसगढ़ी बियाकरन हर आय। ओमा जमीनी पकड़ नइये। मंगत रवीन्द्र के बियाकरन छत्तीसगढ़ के भुईंया अउ ओखर भासा के चिन्हारी करत लिखे गय हे। 'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर' के बिद्वान समीक्छक डॉ. जागेन्द्र कुमार कुलमित्र लिखे हें - 

“बियाकरन के संबंध भासा ले होथे। बियाकरन के पढ़े अउ पढ़ाये के उद्देस्य भासा के सुद्ध रुप ल सीखना होथे। भासा म कई ठन कारन ले परिवर्तन होत रइथे। बियाकरन भासा के कानून-कायदा तको आय। बियाकरन ले हमन जान सकथन के कोन भासा के कउन रुप ह सुद्ध आय अउ कउन रुप ह असुद्ध। हिन्दी भासा म “मैने सब्जी खरीदा" जेमा 'क्रिया' के खरीदा रुप असुद्ध हावय काबर के 'सब्जी' स्त्रीलिंग के संग क्रिया के रुप 'खरीदी' होही। येखर सेती येमेर ओखर सुद्ध रुप 'मैंनें सब्जी खरीदी' होहय। अइसन कानून के बरनन बियाकरन मं करे जाथे। जेखर सेती हमन कह सकथन के बियाकरन वो सास्त्र आय जेखर ले हमला भासा के सुद्ध असुद्ध रुप के चिन्हारी मिलथे।

वोही बात ल गुन के भाई मंगत रवीन्द्र ह 'छत्तीसगढ़ी बियाकरन' पुस्तक ल लिख के हमर बहुत बड़े कमी ल पूरा करिन हे। ये बियाकरन पुस्तक ह लेखक के गहन चिंतन-मनन अउ मिहनत के फल आय। लेखक अपन कती ले भरपूर कोसिस करे हावय। छत्तीसगढ़ी बियाकरन म संग्या, सर्वनाम, क्रिया, विसेसन, क्रिया विसेसन, कारक, लिंग, वचन अउ काल ल समझाये बर। बड़ उदीम कर-करके समझाय हवंय। फेर मोला पर्यायवाची सब्द, लोकोक्ति, मुहावरा, जनउला अउ किसिम-किसिम के जानो जिनिस के छत्तीसगढ़ी नांव ह खुब्बेच भाईस। येखरो ले आगर ये पुस्तक के सब ले बड़े महात्तम छत्तीसगढ़ी सब्द कोस ले बाढ़थे। 

जेखर ले छत्तीसगढ़ी भासा के जनवइया अउ नई जनइया दूनों ल फायदा होहय। संगें संग स्कूल-कॉलेज के पढ़वइया लइका, सोध करइया मनखे अउ जम्मों छत्तीसगढ़िया मन के गियान के बढ़ोत्तरी मं पंदोली देहय।

आखिर मं कहे ल परही के 'छत्तीसगढ़ी बियाकरन' किताब संहराय के लाईक हावय। जेला पढ़के अपन गियान मं बढ़ोतरी अउ सुधार करे जा सकत हे।" 

दूसर बात छत्तीसगढ़ी कहानी के सम्बन्ध म हे। छत्तीसगढ़ कहानी म छत्तीसगढ़ी संस्कार जेला लोक कहे जा सकत हे, तउन सैली म कहानी लिखने वाला अकेल्ला मंगत रवीन्द्र हे। गांव के कथा, गांव के सैली म। ये सैली के विसेसता आय कथा कहत-कहत पद्य म कथा ल जोड़ना। कभू-कभू पद्य (दोहा) कूट भासा म भी हो जाथे फेर अइसना करे म सुनइया/पढ़इया के धियान हर टूटथे। थोकुन विसराम पाथे, फेर कथा के संग जुरथे। अइसे म कथा के आनंद दून हो जाथे। ये कथा सिल्प छत्तीसगढ़ी कहनी के प्रान तत्व ये। येखरे सेती छत्तीसगढ़ी के समीक्छक नन्दकिशोर तिवारी जी मंगत रवीन्द्र ल छत्तीसगढ़ी कहिनी के नवा सिल्प के प्रवर्तक मानथें।

तीसर मुख्य बात मंगत रवीन्द्र के लोक-साहित्य कोती रूझान होना हे। येखर उदाहरन उनकर 'माता-सेवा' गीत के किताब आय। ये किताब म गांव मं जेंवारा बैठारे के विधि, पूजा पाठ के कर्म कांड अउ गाए जानेवाला जसगीत मन ल सकेल के छपवाय गय हे। धनुआ भगत के पूरा गीत ये पुस्तक म हे। 

ये जम्मो गोठ के समोखा करके मंगत रवीन्द्र के बारे म कहे जा सकत हे के मंगत रवीन्द्र छत्तीसगढ़ी साहित्य के गौरव धन यें। उन भासा, साहित्य अउ लोक के संग्राहक यें। मंगत रवीन्द्र आयुर्वेदिक दवाई के ग्याता, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला घलो म विसेसग्यता रखथे। येला देख के कतकोन संस्था मन उनला सम्मानित करे हैं। जेमा प्रमुख हें - 

सम्मान अउ पुरस्कार : 

1. सम्मान : दल्हा साहित्य विकास परिषद अकलतरा/18.09.1999 
2. ऋतम्भरा साहित्य मंच कुम्हारी, जिला दुर्ग प्रशस्ति पत्र/21.08.02 
3. कार्यालय कलेक्टर राष्ट्रीय कार्यक्रम शाखा जांजगीर, सहभागिता प्रमाण पत्र/ 28.02.02 
4. सेवाजलि संस्था अकलतरा द्वारा सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र/ 26.01.03 
5. आस्था कलामंच अकलतरा द्वारा सम्मान एवं अभिनंदन पत्र/ 29.01.03 
6. बिलासा कलामंच बिलासपुर द्वारा “बिलासा साहित्य सम्मान"/13.06.03 
7. श्री लखनलाल गुप्त स्मृति पुरस्कार छत्तीसगढ़ साहित्य विकास परिषद, रायपुर/01-07-03 
8. छत्तीसगढ़ लोकाक्षर के कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार प्राप्त / सन् 2001 
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Tuesday, September 29, 2020

राजस्थानी

राजस्थानी लोक-गद्य, बिज्जी-विजयदान देथा, साहित्य अकादेमी होते हुए ‘गवाड़‘ तक।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार, संविधान की आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं और अंग्रेजी के अलावा राजस्थानी में दिया जाता है। अंग्रेजी के लिए कारण साफ है, इसमें कई अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में कहीं अधिक स्तरीय साहित्य प्रतिवर्ष रचा जाता है। किंतु राजस्थानी क्यों? के जवाब में यही सूझा कि कारण कोई भी रहा हो, एक प्रमुख कारक देथा का कथा-संसार ‘बातां री फुलवारी‘ अवश्य रहा होगा, जिसे 1974 में पहला राजस्थानी, साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया था।

पिछले दिनों पुस्तक हाथ में आई ‘गवाड़‘। साहित्य अकादेमी द्वारा सन 2015 के लिए पुरस्कृत राजस्थानी ‘उपन्यास‘। मधु आचार्य ‘आशावादी‘ की कृति का नीरज दइया द्वारा हिंदी में अनुवाद साहित्य अकादेमी से 2018 में प्रकाशित हुआ है। यह 42 शीर्षकों में बंटी 88 पेजी, चौबीस-पचीस हजार शब्दों वाली पुस्तक है।
 
गवाड़, यानि मुहल्ला, पुस्तक में पात्र की तरह है। ऐसा पात्र जिसे बोलचाल में ‘चार लोग‘ क्या कहेंगे या ‘समाज‘ क्या सोचेगा, कहा जाता है। पुस्तक के आरंभिक शीर्षकों में कोई नामजद पात्र नहीं है, ‘घर‘ में बिना नाम लिए शुनःशेप की कथा है। ‘पहचान लें!‘ का आरंभिक वाक्य है- ‘‘गवाड़ में ‘वह‘ रहता है। उसे नाम से कोई नहीं पुकारता था।‘‘ बाद के शीर्षकों के अंतर्गत नाम वाले पात्र रऊफ साहब, भूरा, रामली, भूरिया-भूराराम, जीवणिये, सनिये, हरिया, भोलिये, सुखिया, मगन, लक्की कुमार तक आते हैं।

बीच में शीर्षक ‘डर‘ जैसा व्यतिक्रम है, जहां गवाड़ बस नाम को है फिर ‘लेखक‘ शीर्षक के साथ अंतिम पांच में गवाड़ सिर्फ ‘विकलांगता‘ में ही और नाममात्र को आता है। तब लगता है कि कृति को वांछित ‘उपन्यास‘ आकार में लाने की निर्देश-पूर्ति किसी अनाड़ी द्वारा की गई हो, और उसने बेमन से काम पूरा कर दिया हो। पूरा लेखन अपने विवरण में आस्था-अनास्था के द्वंद्व से मुक्त तटस्थ, किंतु शुभाकांक्षी है। पढ़ते हुए लगता है किसी अखबार के लिए साफ्ट स्टोरी निकालनी हो, जिसमें पत्रकारिता वाले व्यंग-फतवा शैली की छौंक हो, का पालन किया गया है या रिपोर्टर को संपादकीय लिखनी हो और वह अखबार के आमोखास पाठक का ध्यान रखते हुए ज्यों खुलासा करता चले- ‘इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि ...‘। अनुवाद में राजस्थानी छांह रह गई है, इतनी कि इसे आंचलिकता के साथ न्याय कह सकते हैं या चाहें तो अनुवाद (कुछ स्थानों पर प्रूफ) की कमजोरी कह लें।

यह तो हुआ इस कृति का परिचय। इस पर मेरी टिप्पणी यह भी- पहली कि, जिस तरह संख्याओं के साथ यहां पुस्तक के बारे में बात शुरू की गई है, इस तरह किसी कृति का माप-तोल उचित न मानने के बावजूद भी इस ‘उपन्यास‘ के लिए यही उपयुक्त लगा।
दूसरी कि इस टीप को रचना के मूल्यांकन के बजाय साहित्य अकादेमी, दैनिक भास्कर, राजस्थानी साहित्य, मेरे लिए अब तक अनजान एक स्थापित लेखक और अनुवादक पर आक्षेप न माना जाय, क्योंकि इन किसी से मेरा कोई राग-द्वेष कतई नहीं है।
तीसरी कि क्या मेरे मन में विजयदान देथा और विवेकी राय बसे हुए हैं?
चौथी बात, कहने को तो और भी कुछ-कुछ है, लेकिन छोटी सी किताब पर और कितना कहा जाय, ‘बाबू ले बहुरिया गरू‘ होने लगेगा, इसलिए...

अंतिम बात कि बतौर पाठक यह समझना मुश्किल है, और गवाड़ी अंदाज में ही पूछा जा सकता है, कि यह उपन्यास क्यों माना गया? और इसे यानि ‘गवाड़‘ को साहित्य अकादेमी पुरस्कार क्यों? राजस्थानी में 2015 में पुरस्कार लायक इससे बेहतर कुछ नहीं रचा गया, और प्रतिवर्ष पुरस्कार दिया जाना आवश्यक है?

हासिल, निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि ‪मुझे साहित्य, उपन्यास की अपनी समझ को दुरुस्त करने की जरूरत है। साथ ही भाषा सम्मान, जो पुरस्कार को गैर-मान्यता प्राप्त भाषाओं में साहित्यिक रचनात्मकता के साथ ही शैक्षिक अनुसंधान को स्वीकार और बढ़ावा देने के लिए स्थापित है, और छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए अब तक एकमात्र मंगत रवीन्द्र को सन 2003 में दिया गया था, इस पर जिज्ञासा कि क्या मंगत जी की किसी रचना का प्रकाशन साहित्य अकादमी ने किया है।