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Saturday, November 13, 2021

सिंहावलोकनःकृष्णकुमार

आदरणीय डा. कृष्णकुमार त्रिपाठी जी ने पिछले साल यह समीक्षा की थी, आभार सहित प्रस्तुत-

पुस्तक-समीक्षा

पुस्तक का शीर्षकः सिंहावलोकन (संचित-क्रियमाण-प्रारब्ध)
लेखकः राहुल कुमार सिंह
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली, पिन 110032
मूल्यः एक सौ पचहत्तर रुपये मात्र
पृष्ठ संख्याः एक सौ पंद्रह


सुप्रसिद्ध एवं सुपरिचित इतिहासकार, साहित्य-समीक्षक, प्रगतिशील लेखक, रचनाकार, प्रशासनिक पद पर प्रतिष्ठित, डॉ. राहुल कुमार सिंह (उपसंचालक, संस्कृति विभाग, राज्य-शासन, रायपुर, छत्तीसगढ़) की प्रकाशित पुस्तक ‘सिंहावलोकन’ को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मेरे परम स्नेही मित्र श्री जी.एल. रायकवार जी (सेवा-निवृत्त उपसंचालक, संस्कृति विभाग, रायपुर) ने मेरे अनुरोध पर विवेच्य शीर्षक पुस्तक मुझे उपलब्ध कराने का कष्ट किया है।

‘सिंहावलोकन’ पुस्तक की समग्र संरचना का अनुक्रम छब्बीस उप-शीर्षकों में संयोजित किया गया है, ये यथा- ठाकुरदेव, पर्यावरण, रविशंकर, शेष-स्मृति, शुक-लोचन, पुरातत्त्व सर्वेक्षण, बिगबॉस, बस्तर पर टीका-टिप्पणी, रूपहला छत्तीसगढ़, तीन रंग-मंच, अक्षय-विरासत, भूल-गलती, मेला-मड़ई, अनूठा छत्तीसगढ़, अजायबघर, अस्मिता की राजनीति, छत्तीसगढ़-वास्तु, बुद्धमय छत्तीसगढ़, देवार, एक ताल, गणेशोत्सव-1934, टाइटेनिक, सिरजन, ‘इमर’, मगर सुनहला छत्तीसगढ़। इन सभी शीर्षकों को बड़े धैर्य एवं ध्यानपूर्वक हृदयंगम करने की आवश्यकता मुझे प्रतीत हुई है। गागर में सागर, नीर-क्षीर विवेक एवं लेखन की सुस्पष्टता आदि विशेषताएँ इस पुस्तक मंे विद्यमान हैं।

‘ठाकुर देव’ की पूजा-अर्चना ग्रामीण अंचलों में ‘ग्राम्य-देवता’ के रूप में किसी न किसी प्रकार सामाजिक जन-जीवन में अद्यतन प्रतिष्ठित दिखायी देती है। दैविक आपदाओं एवं सुरक्षात्मक दृष्टि से ठाकुर बब्बा, डौंडियावीर तथा लेख में उल्लेखित अन्यान्य आंचलिक ग्राम्य-देवों के रूप में दृष्टिगत होती है। परम्परागत हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य के संवर्द्धन में ये सभी लोक-देवता हमारे संरक्षक हैं। छत्तीसगढ़ के सुविस्तृत भू-भाग तथा अरण्य-संस्कृति मंे सु-स्थापित लोक-देवों का ज्ञानपरक तथा गवेषणापूर्ण विवरण ‘ठाकुरदेव’ लेख में प्रतिबिंबित है। जन-आस्था के प्रतीक ये सभी लोक देवी-देवता पूजनीय एवं वंदनीय हैं।

‘पर्यावरण’ का संरक्षण करना वर्तमान समय में अत्यावश्यक है। ‘आरे’ (यंत्र) के प्रयोग ने वनों के पेड़ों को अधिकाधिक क्षति पहुँचाई है, जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है। लेखक ने पर्यावरण-संरक्षण पर अपने उपयोगी सुझाव दिये हैं, साथ ही चिंता व्यक्त की है कि ‘‘बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिये कोई ऐसी मशीन न ईज़ाद हो जाये, जिसका उत्पादन बहु-राष्ट्रीय कम्पनियाँ करने लगें और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाये।’’ पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन के लिये लेखक की चिंता स्वाभाविक एवं विचारणीय है। हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति आत्मावलोकन के लिए यह लेख उत्प्रेरित करता है।

‘रविशंकर’ जी की रचना-धर्मिता तथा छत्तीसगढ़ को आंचलिक संस्कृति मंे ‘नाचा-गम्मत’ को लोक-मंच के रूप में प्रतिष्ठित एवं सुप्रचारित करने में उनकी कर्मठता एवं योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ी लोक-साहित्य की संरचना, थियेटर-परम्परा, नाचा-गम्मत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से सुपरिचित कराने में यह लेख विशेषरूप से उपयोगी प्रतीत होता है। लेख के अंत में प्रस्तुत किये गये मानव-जीवन परक लोकगीत अत्यन्त प्रासंगिक और मार्मिक हैं। (स्व.) डॉ. शंकर शेष (बिलासपुर) के जीवन-वृत्त को अंतरंग रूप में समझने में ‘शेष-स्मृति’ लेख सर्वथा जानकारियों से परिपूर्ण एवं तथ्यात्मक है। (स्व.) डॉ. शंकर शेष एक शीर्षस्थ कोटि के प्रखर साहित्यकार एवं अनुसंधानकर्ता थे। उनके द्वारा की गई साहित्यिक-सर्जना, नाटक, पटकथा, कहानी, उपन्यास, गवेषणापूर्ण मौलिक-लेखन से सुपरिचित कराने में लेखक ने श्रम-साध्य प्रयास कर हमें उपकृत किया है। साहित्यिक परंपरा में यह लेख ‘शेष-स्मृति’ प्रेरणास्पद है। 

छत्तीसगढ़ी भाषा के मूर्धन्य साहित्यकार स्वनामधन्य पंडित शुकलाल पाण्डेय जी के साहित्यिक अवदान एवं प्रांजल संस्कृत-भाषा से संपुटित छत्तीसगढ़ के पुराविद् एवं साहित्य-सृजनकर्ता वरेण्य पण्डित लोचन प्रसाद पाण्डेय को प्रेषित पत्र की विशुद्ध भाषा एवं विषय-वस्तु वैदुष्य से परिपूर्ण है। पण्डित शुकलाल पाण्डेय जी की हिन्दी साहित्य-साधना, रचना-धर्मिता तथा आंशिक रूप से उनके समकालीन परिवेश, जीवन-चर्या तथा सौहार्द्र का स्नेहिल स्वरूप पाठकों के अन्तर्मन को गहराई तक संस्पर्श करता प्रतीत होता है।

‘पुरातत्त्व-सर्वेक्षण’ के अन्तर्गत पुरातत्त्व को परिभाषित करते हुये पुरातात्त्विक महत्त्व के प्राचीन मंदिरों की स्थापत्यगत विशेषताओं तथा प्रचलित शैलियों में प्रयुक्त शब्दों- बुद्धकालीन, खजुराहो शैली के स्थान पर प्राचीन मंदिरों तथा मूर्तियों के कलात्मक स्वरूप, शिल्पियों की शिल्प-संधारणा का शिल्प-शास्त्रीय विवेचन करना तथ्यात्मक रूप से अधिक श्रेयस्कर होगा, जिसे सामानय दर्शक तथा पर्यटक भी सुरुचिपूर्ण ढंग से आत्मसात् कर सकें। प्राचीन स्थलों में पुरातात्विक ‘उत्खननों के फलस्वरूप’ कोयला, हड्डी, अन्नकण इत्यादि की तिथियों के निर्धारण में कार्बन-14 डेटिंग्स की प्रविधि यद्यपि अधिक विश्वसनीय नहीं है। प्राचीन सिक्कों, अभिलेखों, मृण्मूर्तियों, मृद्भाण्डों आदि समकालीन स्तरों से प्राप्त विविध पुरावशेषों की तिथि-निर्धारण प्रक्रिया में कार्बन-14 डेटिंग महत्त्वहीन है। विशेषतः सापेक्ष विधि ही अधिक उपयुक्त है। पुरा-स्थलों के सर्वेक्षण में सावधानियाँ, पुरा-स्थलों की पहचान, संरक्षण, पंजीकरण इत्यादि ऐतिहासिक महत्त्व की प्रदत्त जानकारी सहज रूप में प्रस्तुत की गई है, जिससे उत्खनन तथा पुरास्थलों के सर्वेक्षण करने में विशेष सहायता मिल सकती है। पुरातत्त्व विषयक् रुचि रखने वाले सामान्यजनों से लेकर पुराविदों के लिये भी प्रदत्त विवरण सार्थक एवं उपयोगी है।

एक पुरावेत्ता, उत्खननकर्ता तथा सर्वेक्षणकर्ता को नवीन स्थलों तथा अरण्य-क्षेत्रों में कार्य करने में अनेक सुरक्षात्मक सतर्कता का ध्यान सदैव रखना होता है। आंचलिक लोगों के रचनात्मक सहयोग से ही वह अपना कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न कर सकता है। बिग बॉस (स्थानीय गुरुजी) तथा अन्य समझ रखने वाले स्थानीय लोग कठिन परिस्थितियों से सुपरिचित कराने एवं उसके निवारण में अधिक सहायक होते हैं। कई उद्धरणों के साथ ‘बिग-बास’ की सार्थकता एवं पारदर्शिता का ताना-बाना लेखक ने अपने आत्मिक अनुभवों के साथ संयोजित किया है, जो हृदय-स्पर्शी एवं मार्मिक हैं।

‘‘दुनियां रंगमंच, जिन्दगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र ऊपर वाले (बिग-बॉस) के हाथों की कठपुतलियाँ’’ को अनेक उद्धरणों के साथ प्रस्तुत कर अपने कथोपकथन को जटिल रूप से अभिव्यक्त कर ‘‘परदा संदेह का कारण, तो पारदर्शिता विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।’’ इसमें लेखक के गाम्भीर्य चिंतन की झलक दृष्टिगत होती है। परन्तु सामान्य पाठकगण इसे कितना आत्मसात् कर पाते हैं, यह विचारणीय है।

‘बस्तर पर टीका-टिप्पणी’ शीर्षक के अन्तर्गत ‘बस्तर-क्षेत्र’ पर प्रकाशित चार पुस्तकों- ‘क्यों जाऊँ बस्तर मरने’? (अनिल पुसदकर); दण्ड का अरण्य (ब्रह्मवीर सिंह); भूलन-कॉदा (संजीव बख्शी); आमचो बस्तर (राजीव रंजन प्रसाद)। इन चारों साहित्यिक रचनाओं में बस्तर-क्षेत्र में व्याप्त असंतोष, हिंसा, जंगल कानून इत्यादि के कारण शांत, संस्कृति-सम्पन्न, उत्सव-धर्मी आंचलिक जन-जीवन कितनी मानो-व्यथा के साथ अपना संकटापन्न जीवन-निर्वाह कर रहा है। लेखक की टिप्पणियों पर चर्चा करना अपेक्षित नहीं है, परन्तु वन-वासियों के सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना हमारा सामाजिक दायित्व एवं चिंतन का विषय अवश्य ही है, जिससे बस्तर-क्षेत्र की तिमिराछन्न सामाजिक स्थिति को उज्जवल स्वरूप में यथा संभव शीघ्र सुस्थापित किया जा सके। बस्तर की सांस्कृतिक, साहित्यिक, लोक-कलाओं, धार्मिक आस्थाओं इत्यादि से परिपूर्ण जन-जातीय परंपरायें अत्यन्त समृद्ध हैं। इस दिशा मंे विभिन्न संस्थाओं ने रचनात्मक कार्य भी किया है, जिसकी चर्चा लेख में की गई है।

‘रूपहला छत्तीसगढ़’ में नाट्य-परंपरा एवं छत्तीसगढ़ी गीत तथा लोकमंचों की व्यापक चर्चा है। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एवं विकास के बहु-आयामी तत्त्व इस लेख में वर्णित है, जिससे पाठकगण अवश्य ही लाभान्वित होंगे। छत्तीसगढ़ी माटी की सुरभि हमारे मनोभावों को सदैव अपनी ओर आकृष्ट करती रही है।

‘तीन रंगमंच’ - ब्रज की रास-लीला (नरियराग्राम), राघवलीला (अकलतरा) तथा सुंदर नाटक (शिवरीनारायण) के साथ-साथ रामकथा, कृष्णकथा, महाभारत के आख्यान, ऐतिहासिक कथानकों के साथ मंचीय प्रदर्शन इत्यादि छत्तीसगढ़ी संस्कृति के मूल तत्त्व हैं, जो अद्यतन आंचलिक जन-जीवन में प्रतिष्ठित हैं। लेखक ने गवेषणापूर्ण ढंग से छत्तीसगढ़ की रंगमंच-परम्परा को सुरुचिपूर्ण विवरणों के साथ प्रस्तुत किया है।
आदरणीय डॉ. सुशील त्रिवेदी जी को अपने पिता सम्मान्य पण्डित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी (तत्कालीन वरिष्ठ पत्रकार एवं जर्नलिस्ट) से अक्षय-विरासत के रूप में लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में अदम्य उत्साह के साथ कार्य करने की दक्षता प्राप्त हुई है। डॉ. सुशील त्रिवेदी जी अग्रिम पंक्ति के जर्नलिस्ट्स के रूप में समादृत हैं। उन्होंने अपने पिताजी से प्रेरणा प्राप्त कर छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता एवं सम-सामयिक लेखन में कीर्तिमान स्थापित किया है। मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में रचना-धर्मिता, साहित्यिक लेखन, कला-समीक्षा एवं सांस्कृतिक कार्य-कलापों के वे अग्रणी माने जाते है। यह आलेख तथ्यात्मक तथा ज्ञान-वर्धक है।

‘भूल-गलती’ में इतिहास और कला-मर्मज्ञ डॉ. भगवत शरण उपाध्याय जी की ‘भारत की नदियों की कहानी’ पुस्तक की समीक्षा सुस्पष्ट रूप से ‘नीर-क्षीर-विवेक’ से की गई है तथा कतिपय गम्भीर त्रुटियों की ओर भी लेखक का ध्यान आकर्षित किया गया है। 

‘मेला-मड़ई’ छत्तीसगढ़ी लोकोत्सव के प्रमुख अंग है। विवेच्य लेख में बस्तर सहित सुदूर अंचलों में स्थित विभिन्न मेला-मड़ई, यज्ञ-अनुष्ठान इत्यादि की सार-गर्भित जानकारी एकत्रित करना अत्यन्त ही श्रम-साध्य प्रयास है। यह लेख छत्तीसगढ़ के प्रमुख स्थलों में सम्पन्न होने वाले मेला-मड़ई, तिथि-त्यौहारों एवं अन्यान्य अवसरों पर आयोजित लोकोत्सवों की जानकारियों से परिपूर्ण है। इतनी दुर्लभ जानकारी लेखक के अथक प्रयास एवं ज्ञान-संवर्धन का परिचायक है। उत्सव-धर्मिता छत्तीसगढ़ के विविध अचंलों में अद्यतन दृष्टिगत होती है, जिससे सामाजिक तथा धार्मिक जन-जीवन की अन्तरात्मा में व्याप्त सौहार्द्र, आमोद-प्रमोद परिलक्षित होता है।

छत्तीसगढ़ के सुविस्तृत भू-भाग में प्रागैतिहासिक तथा ऐतिहासिक काल के पुरावशेष यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। पाषाणकालीन, महाश्म-शवागार संस्कृति, प्राचीन सिक्के, अभिलेख, ताम्रपत्र, अभिलिखित मृण्मुद्रांक, प्राचीन मंदिर, प्रमुख पंचदेवों के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं, अप्सराओं, राम-कृष्ण कथानकों से परिपूर्ण कलात्मक शिल्प-पट्ट, जैन-बौद्धों के चैत्य-विहार, स्तूप, प्रतिमायें, जातक कथानक, शिल्प-पट्ट इत्यादि पुरावशेष अपलक दर्शनीय हैं। पुराविद् की दृष्टि से लेखक ने सभी महत्त्वपूर्ण शिल्पावशेषों की विशद् विवेचना काल-क्रमानुसार प्रस्तुत किया है। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व को परिभाषित करने में यह लेख ‘अनूठा छत्तीसगढ़’ पुरा-स्थलों के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। सिरपुर, राजिम, मल्हार, ताला, अड़भार, रतनपुर सहित अन्यान्य कला-केन्द्रों से ज्ञात सांस्कृतिक-तत्त्वों की सूक्ष्मतम ऐतिहासिक चर्चा की गई है। अनेक राजवंशों पर रोचक तथ्य सप्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, जो पाठकगणों के लिए उपयोगी प्रतीत होते हैं। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक अस्मिता को जानने के लिए इसमें सार-गर्भित विवरण है।

‘अजायबघर’ शीर्षक लेखक भारत में पुरातत्त्व संग्रहालयों की स्थापना के स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। संग्रहालयों की उपादेयता, रायपुर-स्थित महन्त घासीदास स्मारक संग्रहालय की स्थापना की कहानी अत्यन्त रोचक है। विवेच्य संग्रहालय में प्रदर्शित अभिलिखित काष्ठ-स्तम्भ, अभिलेख, ताम्रपत्र, शिलालेख, पाषाण-प्रतिमाओं की कलात्मकता इत्यादि का सारगर्भित विवेचन उत्कृष्ट कोटि का है। संग्रहालयों में छत्तीसगढ़ की अतीत कालीन सांस्कृतिक गौरव-गाथा प्रदर्शित है, जिनका अवलोकन कर कोई भी दर्शक मुक्त कंठ से सराहना किये बिना नहीं रह सकता है। यह कथन सर्वथा सच है- ‘‘संग्रहालय और स्मृति: वस्तुयें कहें तुम्हारी कहानी’’। यद्यपि देश के सभी संग्रहालय आकर्षण के केन्द्र हैं, परन्तु रायपुर स्थित ‘महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय’ अपने आंचलिक कलात्मक वैभव से परिपूर्ण है, जो दर्शकों, पर्यटकों, शोधकर्ताओं तथा कला-समीक्षकों को अपनी ओर सहज़ ही आकर्षित करने में सक्षम है। अनेक वीथिकाओं में नेचुरल हिस्ट्री - लोकवाद्य, लोक-कलायें, वस्त्रालंकरण, आदिम कलाओं आदि का परिदृश्य अपलक दर्शनीय है।

‘अस्मिता की राजनीति’ समीक्षात्मक लेख है। छत्तीसगढ़ राज्य में हो रहे कतिपय प्रकाशनों पर लेखक ने अपनी प्रखर एवं प्रांजल दृष्टि से छत्तीसगढ़ की अस्मिता एवं राजनीतिक स्वरूप को अभिव्यक्त करने का सार्थक प्रयास किया है।

‘छत्तीसगढ़ वास्तु’ आलेख के अन्तर्गत छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों के प्रकार, वास्तु-विन्यास की विशिष्टताओं सहित रोचक एवं शैलीगत तत्त्वों को सुस्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिर, आंचलिक वास्तुगत कला-शैली को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपनी विशालता तथा कलात्मकता से परिपूर्ण प्रतीत होते हैं। अपने वैभव-काल में प्राचीन मंदिरों की संरचना अत्यन्त आकर्षक रही होगी। शिल्पियों की कलात्मक प्रतिभा के साथ-साथ शिल्प-शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप निर्मित विभिन्न देवालय, स्थापत्य-कला के प्रामाणिक साक्ष्य हैं।

‘बुद्धमय छत्तीसगढ़’ लेख में ‘छत्तीसगढ़ में बौद्धमत’ के व्यापक स्वरूप को रेखांकित किया गया है। बौद्धमत के उद्भव और विकास, बौद्ध-दर्शन, बौद्ध-कला केन्द्र (सिरपुर, मल्हार), हथगढ़ा (रायगढ़), राजिम, आरंग, तुरतुरिया आदि प्रमुख थे।

छत्तीसगढ़ के ‘देवार’, एकताल, गणेशोत्सव-1934, टाइटेनिक, सिरजन, इमर, मगर, सुनहथा छत्तीसगढ़ आदि रोचक आलेखों में लेखक के गाम्भीर्य चिंतन का भाव परिलक्षित होता है। ‘सुनहला छत्तीसगढ़’ आलेख में ‘स्वर्णमयी छत्तीसगढ़’ के अतीतकालीन वैभव की सम्पन्नता के मिथक (प्रचलित दंत-कथायें) आज भी छत्तीसगढ़ के ‘स्वर्णिममय युग’ का उद्घोष करती हैं।

सारांशतः लेखक (डॉ.) राहुल सिंह जी ने सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रखते हुये छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विरासत को हृदयंगम कर आत्मावलोकन के पश्चात् जो तथ्यात्मक घटनायें चिर-साधना के साथ उनके मानस पटल को आंदोलित करती रही हैं, उन्हीं का सुफल ‘सिंहावलोकन’ पुस्तकाकार में हमारे समक्ष विद्यमान है। प्राचीन तथा आधुनिक छत्तीसगढ़ के तथ्यात्मक ऐतिहासिक विवरणों का ‘सिंहावलोकन’ करने पर सुधी-पाठकों को यह प्रकाशन रुचिकर एवं ज्ञान-संवर्धन से ओतप्रोत करेगा, ऐसी मेरी शुभेच्छा है। ‘सिंहावलोकन’ पुस्तक का रंगीन आकर्षक आवरण-चित्र ‘कीर्तिमुख’, साज़-सज्ज़ा, प्रस्तुतीकरण, प्रखर भाषा-शैली सहज़ और स्वाभाविक है। एतदर्थ विवेच्य पुस्तक लेखक, साहित्यिक-समीक्षक एवं पुराविद् को मेरी ओर से हार्दिक शुभ-कामनायें।

(डॉ. कृष्ण कुमार त्रिपाठी) जे-3, पद्माकर नगर, सागर (म.प्र.) पिन 470004, मो. 7389244110

यह समीक्षा संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर के शोध जर्नल ‘कोसल-12‘ वर्ष 2021 में Book-review में पेज 233-237 पर प्रकाशित है। समीक्षक आदरणीय कृष्ण कुमार जी एवं संपादक मंडल के प्रति सादर आभार।

Sunday, July 4, 2021

कोरोना में किताबें

12 जून 2020 की वार्ता पर आधारित।

यश पब्लिकेशंस, दिल्ली के फेसबुक लाइव पर मैं राहुल सिंह, रायपुर, छत्तीसगढ़ से उपस्थित हूं। आप मुझे देख-सुन पा रहे होंगे। मुझे इस दौर में पढ़ी पुस्तकों पर बात करनी है। ऐसे लाइव में अक्सर कहा जाता है, थोड़ा इंतजार करें, कुछ लोग और आ जाएं, यह बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि जो समय पर आ गए हैं उनका समय क्यों खराब हो। तो मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं।

थोड़ी सी पृष्ठभूमि रख देना चाहूंगा। याद कर रहा हूं पंडित माधवराव सप्रे को, उनकी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ हिन्दी की पहली कहानी के रूप में जानी जाती है। पत्रकारिता और स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका नाम है। सन 1905 में उनकी पुस्तक आई थी ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट‘। यह छोटी सी, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। यहां उनकी चर्चा एक अलग संदर्भ में कर रहा हूं। 1901 में उनके पास समीक्षा के लिए पुस्तक आई, ‘ढोरों का इलाज‘। नाम से स्पष्ट है कि पशु चिकित्सा की पुस्तक थी, किसी अंगरेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद। उन्होंने इस पर टिप्पणी की है कि- डॉक्टर, दवाइयां या इस तरह की पुस्तकें, समालोचना के लिए भेजी जाती हैं। जिस विषय की जानकारी नहीं, उसमें क्या समालोचना कर सकते हैं और संपादक महोदय भी हमको ऐसी पुस्तकें दे देते हैं। उन्होंने चुटकी लेते हुए आखिर में यह भी लिखा है कि- यह विषय मुझे आता नहीं तो आप मान सकते हैं कि एक तरह से इस पुस्तक का यहां विज्ञापन है। यह छपा तो संपादक की नजरों से गुजरा ही होगा।

इसी में एक शब्द आया है- सालोतरी। मेरे लिए यह नया शब्द था। संभव है, आपमें से भी कुछ के लिए यह नया हो। अंग्रेजी और हिंदी के आम शब्दकोशों में यह शब्द नहीं मिलता। गूगल करेंगे तो जरूर मिल जाएगा। यह, पशु चिकित्सक या घोड़ों का इलाज करने वाले डॉक्टरों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है। घोड़ों का सामरिक और सफर, यातायात के साधन के रूप में उपयोग था, इसलिए घोड़ों का इलाज करने वाले महत्वपूर्ण होते थे, और इस खास शब्द सालोतरी से जाने जाते थे। सालोतरी की तलाश करते हुए ध्यान, अश्विनी कुमारों की ओर गया। वहां से नकुल और सहदेव तक, जो माद्री के जुड़वा पुत्र थे। माद्री, अश्विनी कुमार का ध्यान करती हैं और नकुल-सहदेव पैदा होते हैं। महाभारत की कथा में पांडव, अज्ञातवास के लिए विराट देश में जाते हैं तो वहां नकुल-सहदेव अश्वशाला का काम देखते हैं, पशुओं के चिकित्सक होते हैं। उन्हें इसका ज्ञान, उनकी विशिष्टता होती है (नाम में ही अश्व है)। अश्विनी कुमार, वैदिक देवता हैं, उनकी भी प्रतिष्ठा इस रूप में रही है। उल्लेख मिलता है कि वे यौवन के लिए भी दवाएं दिया करते थे। आंखों का इलाज करते थे, और बनावटी हाथ-पैर का उल्लेख मिलता है, जिसमें उन्होंने किसी के लिए लोहे का पैर बनाया था।

कोरोना के दौर में लाइव आने लगे, वेबिनार होने लगे। बच्चों की ऑनलाइन क्लास होने लगी मैंने पता करने की कोशिश की, कुछ पैरेंट्स से, बच्चों से, कि यह कैसा अनुभव है। उनमें किसी की मजेदार किंतु तात्विक टिप्पणी थी कि बच्चे को क्लास की पढ़ाई में तो समझ में नहीं आता, मन नहीं लगता तो इस तरह में कितनी पढ़ाई कर पाएंगे। ठीक उसी तरह वेबिनार की बात है कि सेमिनार में, पोस्ट लंच सेशन में लोग झपकी लेते हुए दिख जाते हैं। फिर भी यह परिवर्तन का दौर है जब धीरे-धीरे हम उस काल की ओर बढ़ रहे हैं। जैसे परिवर्तन की संभावनाएं भविष्य में हैं, उसको इस कोरोना संकट ने कुछ करीब ला दिया है। इस माध्यम से अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन यह भविष्य की झांकी है इससे कहीं, किसी को इंकार नहीं हो सकता।

अपनी पढ़ाई की बात पर आते हैं। यश, छत्तीसगढ से जुड़े साहित्य और लेखकों की किताबें छापते रहे हैं। मैं भी जुड़ा रहा, बात हुई तो शर्त रख कर बचना चाहा कि संभव है इसमें आपके द्वारा प्रकाशित किसी पुस्तक, अपनी भी पुस्तक का नाम न लूं, फिर भी वे तैयार हो गए। वार्ता के विषय की बातें होने लगी तो एक बात आई, कि अब पढ़ने के लिए अधिक समय है और इसमें क्या पढ़ रहा हूं। निसंदेह यह दौर अलग किस्म से बीत रहा है। दिनचर्या बदल गई है, यह फर्क समय दे रहा है, आपके पास समय होता है। अन्य दिनों की तुलना में मुझे भी खाली समय अधिक मिला, लेकिन कुछ न कुछ गतिविधियां दूसरे तरह की, कुछ कोरोना रिलीफ के कामों से जुड़ी, कुछ अपने छूटे और नियमित काम, यानि खालीपन नहीं रहा।

यह भी लगता है कि समय निकलना, मानसिक होता है। मैंने महसूस किया कि साढ़े चार-पांच सौ पेज वाली किताब शुरू नहीं कर पाता था, अब ऐसा मौका मिला, खाली समय को अपने ढंग से इस्तेमाल की अधिक संभावना बनी तो मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘कौन हूं मैं‘, हाथ में ली। ज्यादातर लोग परिचित होंगे, बहुत प्रसिद्ध केस था बंगाल का भवाल संन्यासी प्रकरण। ‘कौन हूं मैं‘ शीर्षक दिखता है कि सेल्फ एक्सप्लोरेशन, आत्म संधान है। पुस्तक का प्रारंभिक परिचय का हिस्सा देखते ही बनता है कि वे किस आध्यात्मिक, साहित्यिक ऊंचाई तक उसे ले गए हैं। कोऽअहं की बात हमारी परंपरा में, शास्त्रों में है, वह किस तरह यहां घट रही है। भवाल संन्यासी पर अलग-अलग, संन्यासी राजा, एक जे छिलो राजा, फिल्में भी बन चुकी हैं, बांग्ला में कई पुस्तकें लिखी गई हैं। फिर भी यह एक भारी भरकम किताब आई, जिसे शायद जोशी जी पूरी नहीं कर पाए थे। यह उनके अंतिम दिनों की, शायद छपकर निधन के बाद आई थी। लगता है कि उन्होंने ढेर सारे नोट लिए थे और इस स्वरूप के बजाए कुछ और काम करना चाहते, लेकिन स्वास्थ्यगत या जो भी परिस्थितियां रही हों, यह स्वरूप बना। बहरहाल, पुस्तक की पृष्ठभूमि का, उसी बीज का विस्तार, भवाल राजा का आधार ले कर किया गया है, वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण और अनूठा है।

इस बीच पढ़ी पुस्तकों को एक साथ मिला कर याद करता हूं तो इसमें दो तरह की किताबें हैं। एक सेल्फ एक्सप्लोरेशन की, स्वयं की तलाश वाली और दूसरी, यात्रा-वृत्तांत, खासकर नदियों के यात्रा-वृतांत। इस संयोग में देख सकते हैं कि घुमक्कड़ी में देश को एक्सप्लोर करते हुए, भूगोल को एक्सप्लोर करते हुए, अपनी तलाश भी होती है। अपने संदर्भों से अलग हो कर, यात्रा में, अनजान जगहों पर, अपने तलाश की बेहतर संभावना होती है। अपने संदर्भों में रहते हुए, हमारे संदर्भ ही हावी हो जाते हैं।

क्षेपक- इस दौर में खोजा-पाया करते हुए मियां की मस्जिद, गूगल है। इसलिए वास्तविक खोज तो वही है, जो गूगल से संभव न हो। गूगल करते हुए हम कितनी भी गहराई में उतर जाने की सोचें वह वस्तुतः सतही विस्तार ही होता है। पैरोडीनुमा बात कुछ यूं हो सकती है- जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं नादां देखूं इंटरनेट, लिए लैपटाप बैठ।। इसलिए लगता है कि अब कुछ खोजना-पाना रह गया है तो वह है, खोजी-जानी वस्तुओं और शब्दों का स्वयं अनुभूत बोध और इस रास्ते आत्मबोध।

इस क्रम में अमृतलाल बेगड़ को छिटपुट पढ़ता रहा था। बेगड़ जी ने नर्मदा पर किताब लिखी है, ज्यादातर लोग उससे परिचित हैं। अब एक जिल्द में आ गई है ‘तीरे तीरे नर्मदा‘, तो इस दौर में वह सिलसिलेवार पढ़ने का मौका मिला। इसका तो कहना ही क्या, बहुत सारी अनूठी और रोचक बातें हैं। नर्मदा की परिकम्मा, परिक्रमा करने वालों में एक ऐसा भी है, जो कहता है कि मैंने अपनी गाय के साथ परिक्रमा शुरू की थी। गाय का नाम नर्मदा है, रास्ते में उसकी बछिया पैदा होती है, उसका नाम रेवा है और वह बहुत भाव से बताता है कि परिक्रमा का संकल्प तो इस नर्मदा का, गाय का है। मैं इसके साथ परिक्रमा कर रहा हूं। हां! संकल्प जरूर इसके लिए मैंने किया था। नदी के साथ आस्था के रंग हैं, हमारा जीवन है और इस क्रम में आत्म-संधान है, नदी की जीवंत धारा के साथ बहते हुए जिस तरह खुद को देख पाते हैं, वह यों संभव नहीं होता।

एक तरफ इस तरह की आस्था है उससे कुछ अलग ढंग की पुस्तक अभय मिश्र और रामेंदु जी की गंगा यात्रा की है ‘दर दर गंगे‘। पूरी पुस्तक पत्रकार नजरिए से लिखी गई है। एक तरफ जहां तीरे तीरे नर्मदा में आस्था का भाव है, वहां भी यह बात तो बार-बार आती है कि समय बदल रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, बांध बन रहे हैं, प्रोजेक्ट्स आ रहे हैं तो भविष्य किस तरह का होगा, लेकिन फिर भी उसमें बहुत मजबूत आस्था है। वही यहां टूटते हुए दिखती है, गंगा जैसी आस्था की नदी के साथ यात्रा करते हुए लिखी ‘दर-दर गंगे‘ का, एक तो स्वरुप बहुत अच्छा है। अलग-अलग जगहों की बातें हैं, वहां अलग-अलग पात्र हैं, और उन पात्रों के साथ जो कहानियां कही गई हैं वह मूलतः रिपोर्ताज है। पत्रकारिता का शब्द ‘स्टोरी फाइल करना‘, यानि जो खबरों से आगे की बात होती है, खबरों से ज्यादा गहरी बात, यहां उस तरह की कहानियां है।

नदी यात्रा संस्मरणों में बहुत पहले पढ़ी किताब है देव कुमार मिश्र की ‘सोन के पानी का रंग‘। नदियों पर लिखी गई किताबें और यात्रा संस्मरण में सोन, जो सिंधु या ब्रह्मपुत्र की तरह नद माना गया है, उसकी परिक्रमा उन्होंने की थी। परिक्रमा का हाल-अहवाल इस किताब में जिस तरह से वे कहते हैं, अपने आप में ऐसा सांस्कृतिक दस्तावेज है, मुझे लगता है कि नदियों पर और यात्राओं पर लिखी गई पुस्तकों में जिसकी भी रुचि है अगर वह इस पुस्तक को नहीं पढ़ पाया है तो वह बहुत अमूल्य रीडिंग से वंचित है। इस पुस्तक को जरूर देखना चाहिए।

नदी यात्रा की एक और पुस्तक हमेशा याद आती है। यह बाकी से एकदम अलग ढंग की, राकेश तिवारी जी की लिखी पुस्तक है। और पुस्तक, वह तो कहने ही क्या, नाम है ‘सफर एक डोंगी में डगमग‘। वे भी गंगा यात्रा करते हैं मगर नदी-नदी, धारों-धार और मजे की बात कि डोंगी, चप्पू खुद चलाते हुए यात्रा करते हैं, इस संकल्प के साथ कि वे पूरा सफर, सफर के दौरान रात्रि विश्राम, डोंगी में ही करेंगे। शायद 62 दिन की वह यात्रा है और किस तरह से यात्रा होती है, अनूठा विवरण है। इस किताब की, इसके लेखन की, अभिव्यक्ति की खास बात यह है कि यों पुराविद राकेश जी, उस तरह साहित्यकार नहीं है। कई बार स्थापित साहित्यकारों में ताजगी का अभाव होता है। राकेश जी को जब पढ़ें, भाषा की, भाव की, अभिव्यक्ति की, दृष्टि की ताजगी और कितना ज्यादा वह इन चीजों में इन्वॉल्व हैं, मगर जितने ज्यादा शामिल, उतने ही तटस्थ हैं। उनका ‘मैं‘ कहीं भी लेखन में हावी नहीं होता और इस कारण उनके लिखे से आत्मीय होने में पाठक को देर नहीं लगती।

‘पवन ऐसा डोलै‘ उनकी दूसरी किताब है वह भी मैंने इस बीच पढ़ी, काफी समय से मेरे पास रखी थी। भाषा को ले कर, लोक को, पुरातत्व को, विभिन्न प्रकार के ऐसे क्षेत्रों को ले कर, एक अलग तरह की पुस्तक और जितने विषयों को, जितने क्षेत्रों को एक साथ और जिस क्रम से पिरोया गया है वह पूरी सभ्यता का उद्भव, गुफावासी मानव, आदिमानव, वहां से लेकर सभ्यता के विकास की भी कहानी है, लोक जीवन की भी कहानी है, पुरातत्व के खोज, शोध और उसके विकास की कहानी है तो कहीं न कहीं, जो सबसे कम दिखाई पड़ती है, अंतर्निहित है, वह पूरी पुस्तक राकेश जी के स्वयं की जीवन यात्रा भी है। बहुत महत्वपूर्ण है।

इस सफरनामे की दो पुस्तकें मैंने और पढ़ीं। एक अजय सोडाणी की, वे पेशे से डॉक्टर हैं। घूमने के शौकीन, वह अपने रोजमर्रा से इतर जिन चीजों को देखते हैं, संस्कृति के जिन पक्षों और आयामों को देखते हैं, उन्हें उनकी देख पाने की, पकड़ पाने की और उसे डॉक्यूमेंट करने की, अभिव्यक्त करने की, जैसी उनकी शैली है और उनके पास अपना, अपने पढ़े का, परंपराओं को, लोक को, जीवन को देखने का, अपना नजरिया है, अपनी शैली है। उसके साथ जब ‘दऱकते हिमालय पर दरबदर’ में अपनी बात कहते हैं तो वह कुछ अलग ही, कुछ खास बन जाती है। ठीक वैसी ही एक किताब मनीषा कुलश्रेष्ठ की है। वे जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं, उससे जुड़ी ‘होना अतिथि कैलाश का‘ पुस्तक लिखी है। मनीषा जी जैसी लेखिका है, जैसी साहित्यकार हैं, वैसी ही घुमक्कड़ भी। प्रोजेक्ट का प्रतिवेदन लिखते हुए यह वृतांत, कहां तथ्यात्मक विवरण और कब साहित्य, कब यात्रा संस्मरण, चीजें इतने सुंदर ढंग से एक दूसरे में शामिल होती जाती हैं और वह पूरा का पूरा कैलाश मानसरोवर की उनकी यात्रा में जो भाव उभरा है, उन्होंने गढ़ा है, पढ़ने में रोमांच होता है और रोचक तो है ही।

युवा लेखकों में कुछ मुझे बहुत प्रिय हैं। सिर्फ मुझे प्रिय नहीं है वे इस दौर के गंभीर, उम्र के चौथे दशक वाले, 40 साल से कम उम्र के लेखक हैं, उनमें आशुतोष भारद्वाज हैं। उनकी पुस्तक ‘पितृ-वध‘ आई, वह इस बीच मुझे पढ़ने का मौका मिला। पुस्तक में जितने गंभीर ढंग से हिंदी साहित्य के अलग-अलग लेखकों की, विचारों की विवेचना है, इसे खास बनाती है और जरूरी भी। पितृ-वध शीर्षक ही अपने आप में बहुत रोचक है, उसे रूपक के बतौर देखें तो दरअसल अपनी ऐसी परंपराओं से मुक्त होने का प्रयास, जिससे कुछ नया-ताजा सृजन संभव होता है। यह पितृ वध कंसेप्ट है, चाहे वह अस्तित्ववाद हो, यह आरंभिक काल से चला आता है। हमारे शास्त्रों में भी दिखता है, आधुनिक लेखन में भी है। उसे पीढ़ियां अपने ढंग से अपनाती हैं।

दूसरे युवा व्योमेश शुक्ल हैं। बनारस को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं हैं, रंगमंच पर तो वे हैं ही, कवि हैं, ‘काजल लगाना भूलना‘ और ‘कठिन का अखाड़ेबाज‘ उनकी दो पुस्तकें आई हैं। बनारस वाला अंश दोनों पुस्तकों में है। काजल लगाना भूलना, अपने आप में वह कविता है, गद्य है, गद्य-कविता है या पद्य-गद्य है, कुछ इस तरह की है, लेकिन है पठनीय, गंभीरता की मांग करती। उसमें आपको सोचने की खुराक मिलेगी, उसमें दृष्टि है। और तीसरे युवा लेखक सुशोभित, जिनको इस बीच पढ़ता रहा हूं, उनके लिखे गांधी से बहुत प्रभावित हुआ हूं। यह तीन ऐसे युवा लेखक हैं जिनके किसी भी लिखने पर नजर रहती है, प्रयास करता हूं कि इसमें से कुछ ना छूटे।

दो अनुवाद की चर्चा करूंगा। आप मानें कि नसीहत दे सकने जितना बुजुर्ग हो गया हूं तो खासकर युवा साथी अगर यहां है, यह देख सुन रहे हैं तो कहूंगा कि कोई न कोई एक क्लासिक, किसी विदेशी लेखकों की रचना, अन्य भाषाओं की रचना, कुछ पुराना साहित्य, पारंपरिक और समकालीन, इनका काम्बिनेशन अपने पढ़ने में जरूर रखिए। रस्किन बॉन्ड को, अंग्रेजी में छिटपुट पढ़ता रहा था लेकिन इस बीच स्वाति अर्जुन जी वाले हिंदी अनुवाद से जो रस्किन बॉन्ड आए हैं, मूल की तरह स्वाभाविक। उनका हास्य, आपने देखा होगा, अलग तरह का, बड़ा निर्मल हास्य होता है। हमारे भारतीय हास्य से अलग, पाश्चात्य हास्य है, जो मार्क ट्वेन में, जेम्स थर्बर में देख सकते हैं। इस बीच मैंने फकीर मोहन सेनापति को पढ़ा। उन्हें भी छिटपुट ही पढ़ा था, उनके अनुवाद का एक संग्रह मिला। पढ़ कर लगता है कि उस युग में साहित्यकार, अपने को कितना जिम्मेदार मानता था और रोचकता के साथ, समाज सुधार की भावना के साथ, जो बुराइयां है समाज की उसके साथ, वह किस सुंदर ढंग से बातें कहते हैं।

पुराने क्लासिक है भारतेंदु हरिश्चंद्र, गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, यह कुछ ऐसे लेखक हैं जो हमेशा मेरे आस-पास अगल-बगल होते हैं और किसी भी संदर्भों के लिए मैं उन्हें देखता रहता हूं। अंत में युवा साथियों के लिए दुहरा कर कहूंगा कि पढ़ने में, अन्य भाषाओं की अनूदित चीज, अन्य भाषाओं का अभ्यास हो तो कोई विदेशी भाषा, देश की अन्य भाषा, कुछ क्लासिक, शास्त्रीय रचनाएं, पुराने लेखकों की रचनाएं, कुछ समकालीन, गद्य-पद्य, इस तरह काम्बिनेशन रखें। इस तरह पढ़ना मानसिक स्वास्थ्य के लिए मददगार होगा।

यह पढ़ाई, मैं कर इसलिए पाया क्योंकि मानसिक रूप से लगा कि इस बीच मेरे पास समय है, वरना जिंदगी तो इसी तरह होती है, बस लगता है कि समय नहीं है। आप सब, जो यहां देख रहे हैं, मुझे सुन रहे हैं, शुक्रिया और यश पब्लिकेशन, जिन्होंने मुझे अपने पेज पर जगह दी, उनका भी बहुत-बहुत आभार, धन्यवाद।