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Tuesday, April 22, 2025

कथा-कहानी

पचीसवां साल लगते इस सदी में पढ़ी पसंद आई कहानियां, जिनकी याद सबसे पहले आए, जिन्हें बार-बार कभी-भी दुहरा लेना चाहता हूं, यहां सहेज रहा हूं। (प्रेमचंद, रेणु, देथा से ले कर चेखव, ओ. हेनरी, पिछली सदी के पढ़े, इसलिए सूची में नहीं हैं।)- 

1 - कैलाश में प्रतिदिन संध्या समय शिवजी साधु-संतों और देवताओं को प्रवचन सुनाते थे। एक दिन पार्वती ने कहा कि इन साधु-संतो को ठंडी हवा और ओस से बचाने के लिए एक हाल का निर्माण किया जावे। किंतु शिव का यह संकल्प नहीं था फिर भी पार्वती का आग्रह बना रहा। अतः ज्योतिषियों को बुलाकर मंडप निर्माण के लिए उनकी सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि ग्रहों के अनुसार शनि की प्रतिकूलता के कारण यह भवन अग्नि के द्वारा भस्म हो जायगा। फिर भी मंडप का निर्माण किया गया। अब शिव-पार्वती के लिये यह एक समस्या थी। शिव ने विचार किया कि शनि से अपना कोप शांत करने की प्रार्थना की जाय, यद्यपि इसकी उन्हें आशा नहीं थी क्योंकि शनि का कोप प्रसिद्ध था। इससे पार्वती को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने निश्चय किया कि उस नन्हें से दुष्ट ग्रह को वे अपने द्वारा निर्मित मंडप के नाश का कारण नहीं बनने देंगी। उन्होंने यह तय किया कि यदि शनि न माने और मंडप को नष्ट ही करना चाहे तो इससे पूर्व वे स्वयं ही उसे नष्ट कर देंगी। शिव ने शनि से की गई प्रार्थना का उत्तर पाने तक रुकने को कहा। शनि के पास वे स्वयं जाने को तैयार हुए और कहा कि यदि शनि मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं तो मैं वापस आकर ही यह शुभ समाचार तुम्हें दूँगा। किन्तु यदि वे न मानें तो मैं यह डंका (डमरू?) बजाऊंगा। तब तुम उसे सुनकर इस मंडप को आग लगा देना ताकि शनि को इसे जलाने का श्रेय न मिल सके। पार्वती मशाल जलाकर तत्पर थी कि डंका बजे तो वे तत्काल अपना कार्य करें। और उस दुष्ट ग्रह को अपनी दुष्ट योजना सफल बनाने का क्षणमात्र भी अवसर न दें। वहाँ शिव की प्रार्थना को शनि ने स्वीकार कर लिया। अतः जब शनि ने शिव से प्रार्थना की कि वे उसे अपने प्रसिद्ध तांडव नृत्य को दिखावें तो शिव इन्कार न कर सके। उसकी प्रार्थना के अनुसार शिव डंका बजाकर तांडव नृत्य करने लगे। इस डंके का शब्द सुनकर यहाँ पार्वती ने मंडप में आग लगा दी और वह शिव संकल्प के अनुसार जलकर राख हो गया। चाहे जो हो दैवी संकल्प पूरा होना ही चाहिये। शनि तो दैवी योजना में निमित्त मात्र था। 
(श्री सत्य सांई वचनामृत 17-10-61) 

2 - ‘अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ...‘ पितरों ने कहा- ब्राह्मण श्रेष्ठ! इसी विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, उसे सुनकर तुम्हें वैसा ही आचरण करना चाहिये। पहले की बात है, अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मज्ञ, सत्यवादी, महात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त इस पृथ्वी को जीतकर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम कर दिखाया था। इसके पश्चात् उनका मन सूक्ष्मतत्त्व की खोज में लगा। महामते! वे बड़े-बड़े कर्मों का आरम्भ त्यागकर एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और सूक्ष्म तत्त्व की खोज के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे। 

अलर्क कहने लगे- मुझे मन से ही बल प्राप्त हुआ है, अतः वही सबसे प्रबल है। मन को जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय प्राप्त हो सकती है। मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, इसलिये बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण सभी मनुष्यों से तरह-तरह के कर्म कराता है, अतः अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा। मन बोला- अलर्क। तुम्हारे ये बाण मुझे किसी तरह नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे और मर्मस्थानों के चीरे जाने पर तुम्हारी ही मृत्यु होगी; अतः तुम अन्य प्रकार के बाणों का विचार करो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर थोड़ी देर तक विचार के बाद वे नासिका को लक्ष्य करके बोले। मेरी यह नासिका अनेक प्रकार की सुगन्धियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है, इसलिये इन तीखे बाणों को मैं इस नासिका पर ही छोड़ूंगा। जो मन ने बोला, वही बात नासिका ने कही- तुम दूसरे प्रकार के बाणों का अनुसंधान करो। 

अलर्क ने क्रमशः जिह्वा को लक्ष्य करके कहा- यह रसना स्वादिष्ट रसों का उपभोग करके फिर उन्हें ही पाना चाहती है। इसलिये अब इसी के ऊपर अपने तीखे सायकों का प्रहार करूँगा। ... वही जवाब पाकर त्वचा पर कुपित होकर बोले। यह त्वचा नाना प्रकार के स्पर्शाें का अनुभव करके फिर उन्हीं की अभिलाषा किया करती है, अतः नाना प्रकार के बाणों से मारकर इस त्वचा को ही विदीर्ण कर डालूँगा। उससे भी वही बात सुन कर श्रोत्र को सुनाते हुए कहा- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। पुनः वैसी ही बात श्रोत ने कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ सोच-विचारकर नेत्र को सुनाते हुए कहा- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुनः उन्हीं को देखना चाहती है। अतः मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने वैसा ही कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद बुद्धि को लक्ष्य करके यह बात कही- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अतः इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि भी वही बोली। 

ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उससे मन-बुद्धिसहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राजा एकाग्रचित्त होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने-विचारने के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यानयोगरूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यानयोग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यानयोग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है‘। 

पितामहों ने कहा- बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओ, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान् सौभाग्यशाली जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई। 
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक तीसवाँ अध्याय) 

3 - शिकारी का सिर था या नहीं? तीन शिकारियों को यह पता चला कि गांव से थोड़ी ही दूर दर में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह क़िस्सा इस तरह याद है। 

शिकारियों से बचने के लिये भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाते का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था-सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गये, अपनी बन्दूकें उन्होंने गुफा के मुंह की तरफ़ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इन्तजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहां बैठा रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इन्तजार करते-करते पहले ऊब जायेगा। 

एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी न किसी तरह गुफा में घुसने और वहां से भेड़िये को निकालने का फ़ैसला किया। गुफा के मुंह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाक़ी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ़ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता। आखिर वे भी इन्तजार करते-करते तंग आ गये। उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि उसका सिर नहीं है। 

अब वे यह सोचने लगे गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था। 

सिर के बिना धड़ को वे गांव में लाये, लोगों को घटना सुनायी। एक बुजुर्ग ने कहा- इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहां तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ़ करने के लिये वे उसकी विधवा हो गयी बीवी के पास गये। 

‘‘मैं क्या जानूं कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिये नयी टोपी का आर्डर देता था।‘‘ 
(रसूल हमज़ातोव मेरा दाग़िस्तान पेज-42) 

4 - शक्करपारे 
रोज़ की तरह, सात साल का गुट्टू मुन्ना अपनी हमउम्र पड़ोसिन चुनमुन के पास खेलने पहुँचा। चुनमुन उसे अपने मकान के दालान में खड़ी मिली। वह बड़े चाव से कुटुर-कुटुर शक्करपारे खा रही थी। गुट्टू मुन्ना उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया, मगर न जाने क्यों चुनमुन ऐसी बन गई, जैसे उसने उसे देखा ही न हो। गुट्टू मुन्ना फिर ठीक चुनमुन के सामने आकर खड़ा हो गया, मगर चुनमुन ने तब भी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। 

‘यह चुनमुन बड़ी शान ही में मरी जा रही है!‘ गुट्टू मुन्ना ने सोचा और कहा, मत बोलो तो मत बोलो, हम भी नहीं बोलेंगे। 

फिर उसका ध्यान शक्करपारों की ओर गया। नरम पड़ते हुए वह बोला, चुनमुन! ओ चुनमुन! मुझसे क्यों बोल रहा है? चुनमुन बोली, याद नहीं. कल शाम तेरी-मेरी कुट्टी हो गई थी। 

गुट्टू मुन्ना को याद आया, कल शाम उसका और चुनमुन का झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में सारा दोष चुनमुन ही का था। हाँ, घोड़ा-घोड़ा खेलने में गिर ही जाते हैं, उसने चुनमुन को जानकर थोड़े ही गिराया था। और फिर स्वयं वह भी तो गिरा था, उसके भी तो घुटने छिल गए थे। अब चुनमुन बेकार में अगर इस झगड़े को बढ़ाए तो चुनमुन की ग़लती है। कुट्टी तो फिर कुट्टी ही सही! 

लेकिन इस तर्क से चुनमुन को पराजित करने के बजाय, गुट्टू मुन्ना ने शक्करपारों पर दृष्टि जमाकर प्रस्ताव रखा, अच्छा चुनमुन, अब तेरा-मेरा सल्ला, हैं भाई? चुनमुन कुछ नहीं बोली। उसके दाँत कुटुर-कुटुर करते रहे। गुट्टू मुन्ना ने उसकी चुप्पी को खामोशी-ए-नीम-रज़ा समझकर उत्साह से कहा, अच्छा, अब तेरा-मेरा सल्ला हो गया; है ना चुनमुन ? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई; है ना चुनमुन? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई। 

गुट्टू मुन्ना चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। 

कुटुर-कुटुर-कुटुर! चुनमुन ने उत्तर दिया। 

गुट्टू मुन्ना घोर आशावादी था, इस उत्तर से तनिक भी निराश न हो, उसने बड़े ही प्रसन्न स्वर में कहा, अब मेरा-तेरा सल्ला हो गया, है ना? अब मैं और तू खूब मिलकर खेलेंगे, है ना? संग बाज़ार घूमने जाएँगे, है ना? खूब चीजें खाएँगे, है ना? तू मुझे शक्करपारे खिलाएगी, है ना? 

मगर इन शांति-घोषणाओं का चुनमुन पर कोई असर न हुआ। वह मज़े से एक शक्करपारे को अँगुलियों में थामकर चूसती रही। उसके चेहरे का हर हिस्सा बतलाता रहा कि शक्करपारे गुट्टू मुन्ना के वायदों से कहीं ज़्यादा मीठे हैं। हारकर गुट्टू मुन्ना दालान की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसे विचार आया कि क्यों न वह चुनमुन के शक्करपारे छीन ले। और उन्हें छीनना उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। वह चुनमुन से तगड़ा जो था। लेकिन चुनमुन से शक्करपारे छीनने का अर्थ था, चुनमुन का रोना और उसकी माँ का भीतर से निकलकर आना। और गुट्टू मुन्ना अगर किसी से डरता था तो चुनमुन की माँ से। संक्षेप में यह कि छीनकर शक्करपारे मिल तो सकते थे, पर बड़े ही महँगे दामों में। कुछ समझ में न आता देख गुट्टू मुन्ना ने चुनमुन की ओर देखा, इस आशा से कि शायद उसकी मनःस्थिति में इस बीच कोई परिवर्तन आ गया हो। लेकिन स्थिति पूर्ववत् थी। चुनमुन की जेब से एक के बाद एक निकलकर शक्करपारे उसके मुँह में गायब होते जा रहे थे। 

गुट्टू मुन्ना ने देखा कि मौक़ा कुछ कर दिखाने का है, खाली बैठने से काम नहीं चलेगा। 

बादशाह फ़ोट्टी थ्री फ़ोर फ़ोट्टी फोर। मुहल्ले के शराबी की नक़ल करते हुए वह ज़ोर से चीखा। 

चुनमुन ने पलटकर उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और उसे लगा जैसे शक्करपारे उसके मुँह में आ गए हों। फ़ोटी फ़ोटीरी फ़ोर काला आदमी! उसने अपना अभिनय जारी रखा। 

चुनमुन ने एक शक्करपारा अपने होंठों में दबा लिया और उसे होंठों से ऊपर-नीचे हिलाती रही। गुट्टू मुन्ना के अभिनय पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। गुट्टू मुन्ना के मुँह में आए हुए शक्करपारे गायब हो गए, वहाँ केवल लार बची रही। 

गुट्टू मुन्ना फिर यूँ ही बेमतलब ज़ोर से हँसा। लेकिन इस हँसी का चुनमुन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। मगर गुट्टू मुन्ना चुनमुन की जिज्ञासा प्रबल होने पर आस लगाए रहा और अपनी हँसी को तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए कोई मज़ेदार बात सोचने लगा। परंतु उसका ज़रखेज दिमाग भी आज कोई मज़ेदार बात न उपजा सका। इस मज़ेदार बात की कमी से तनिक भी हतोत्साह न हो गुट्टू मुन्ना पुनः जी खोलकर हँसा। 

काफ़ी हँस चुकने के बाद उसने हँसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ओहो, बड़े मज़े की बात, ओ हो हो हो! और वह फिर हँसने लगा। 

चुनमुन उसकी ओर से मुँह फेरती हुई बोली, कोई भी बात नहीं है। 

बात है। गुट्टू मुन्ना ने तैश में आकर कहा, लेकिन चुनमुन ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की और बात वहीं रह गई। 

गुट्टू मुन्ना की इच्छा हुई कि जाकर चुनमुन की चोटी खींच दे। शक्करपारे के मामले में वह सरासर बेईमानी कर रही थी। चोटी खींचने से तो शक्करपारे मिल नहीं सकते थे। गुट्टू मुन्ना ने खींचकर एक कंकड़ उठाया और पास ही सोए हुए पिल्ले को दे मारा। पिल्ला किकियाता हुआ उठकर भागा। गुट्टू मुन्ना की आँखें भागते हुए पिल्ले को संतोष-भरी नज़र से देखती रहीं। पिल्ला एक फलवाले के खोंचे के क़रीब टाँगों में दुम दबाए खड़ा हो गया। 

फलवाला आवाज़ लगा रहा था, आम लो, लँगड़े आम! 

गुट्टू मुन्ना को एक मज़ाक सूझा, उसने ज़ोर से पुकारा, ए लँगड़े! 

चुनमुन उसकी इस बात पर हँस दी। गुट्टू मुन्ना तुनककर बोला, मेरी बात पर क्यों हँस रही है? 

चुनमुन चबाया हुआ शक्करपारा निगलती हुई बोली, कोई भी नहीं हँस रहा। गुट्टू मुन्ना कुछ देर चुप रहा, फिर उसने एलान किया, मुझे और भी बहुत-सी बातें आती हैं। और चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन चुनमुन ने उसकी हँसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इधर गणितज्ञ गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क ने उसे बताया, जिस रफ़्तार से ये शक्करपारे खाए जा रहे हैं, उससे वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अगर उसने अभी कुछ नहीं किया तो फिर उसकी शक्करपारे खाने की आशाएँ मात्र आशाएँ ही रह जाएँगी। 

फिर गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क के भीतर कहीं एक लाल बत्ती जली और उसके विचारों ने आश्चर्यप्रद फुर्ती से काम करना शुरू किया। इतनी फुर्ती से कि पलक मारते ही उनका कार्य समाप्त भी हो गया। गुट्टू मुन्ना को अपनी सबसे ज़बर्दस्त तरक़ीब सूझ गई। वह छलाँगें भरता हुआ अहाते के दरवाज़े पर जा पहुँचा। 

अब मेरा हवाई जहाज़ चलेगा! उसने बुलंद स्वर में घोषणा की और लपककर दरवाज़े पर चढ़ गया। उसके भार से दरवाज़ा चरमराता हुआ आगे-पीछे घूमने लगा। 

घर घर घर ढर्र ढर्र ढर्र ऊँ ऊँ ऊँ! गुट्टू मुन्ना का हवाई जहाज़ चल पड़ा। धीरे-धीरे, जैसे बिना किसी विशेष मतलब के, टहलते हुए चुनमुन हवाई जहाज़ के पास आकर खड़ी हो गई। 

जो हवाई जहाज़ पर चढ़ना चाहे चढ़ सकता है, लेकिन उसे सल्ला करना होगा और शक्करपारे खिलाने होंगे। 

चालक ने आकाश में उड़ते-उड़ते ही एलान किया। 

चुनमुन चुप रही। हवाई जहाज़ फौरन ज़मीन पर उतर आया और चालक ने एक बार फिर से एलान किया, हवाई जहाज़ पर जिसे चढ़ना हो, आ जाए! 

घर्र घर्र घर्र। हवाई जहाज़ स्टार्ट हो चुकने पर काफी देर यात्री की प्रतीक्षा करता रहा। फिर यात्री न आता देख चालक ने हवाई जहाज़ बिना यात्री के उड़ा दिया। 

ऊँ ऊँ ऊँ ऽऽऽ हवाई जहाज़ वायु को चीरता हुआ तेज़ी से उड़ने लगा और चालक ने एक बार फिर एलान किया, जिसे हवाई जहाज़ में आना हो, आ जाए! फिर विज्ञापन के हथकडे प्रयोग करता हुआ बोला, बड़ा ही मज़ा आ रहा है हवाई जहाज़ में। ओ हो! ओ हो! अहा! ओ हो! अहा! ओ हो! जिसे आना हो, आ जाए! 

लेकिन शायद उस दिन गुट्ट मुन्ना बिल्ली का मुँह देखकर उठा था, वरना क्यों हवाई जहाज़ की बेहद शौकीन चुनमुन ने अपनी कल्पनाप्रियता को ताक पर रख एक रूखा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, बड़ा हो रहा है यह हवाई जहाज़ ऐसे हवाई जहाज़ में कौन बैठे? ये हवाई जहाज़ थोड़े है, यह तो दरवाज़ा है! 

हवाई जहाज़ की रफ्तार धीमी पड़ने लगी, फिर सहसा वह तेज़ चलने लगा और चालक चीखने लगा, ओ हो! बड़ा मज़ा! ‘ओ हो! बड़ा मज़ा! ओ हो‘ 

चुनमुन कुछ देर हवाई जहाज़ को देखती रही और फिर, दरवाज़ा टूट जाएगा! कहकर सीढ़ियों पर बैठ गई। 

उसके सीढ़ियों पर बैठते ही हवाई जहाज़ ज़मीन पर उतर आया। चालक उसमें से कूदकर उतरा और चुनमुन के पास आकर खड़ा हो गया। 

उसने चुनमुन को ‘देती है या नहीं‘ वाली खूँख्वार नज़र से देखा। चुनमुन ने झट से जेब से चार शक्करपारे निकाल मुँह में एक साथ ठूँस लिए और हथेलियाँ झाड़ती हुई बोली, अब हैं ही नहीं, खतम! अब हैं ही नहीं, खतम! 

इस बात ने जैसे गुट्टू मुन्ना के गालों पर दो करारे चाँटे जड़ दिए। 

गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और उसका मुँह निराशा की कड़वाहट से भर आया। उसने फिर आव देखा न ताव, धड़ाधड़ चुनमुन के दो-तीन घूँसे जड़ दिए। चुनमुन रोने लगी। उसके रोते ही गुट्टू मुन्ना को ध्यान आया कि वह कितनी बड़ी भूल कर बैठा। मत रो चुनमुन! उसने कहा, मत रो! फिर कुछ रुककर, मत रो! 

मगर चुनमुन थी कि ‘पैं-पैं‘ लगाती ही रही और फिर हुआ वही जो होना था। चुनमुन की माँ घर से निकलकर आई और अपनी पिसे मसाले से सनी हथेलियाँ गुट्टू मुन्ना और चुनमुन के गालों पर जमा गई। फिर उसने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया और चुनमुन को संबोधित कर चीखी, अब देख, कौन तुझे भीतर आने देता है। 

मार खाकर दोनों बच्चे सीढ़ियों पर बैठे रोते रहे, फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे। डबडबाती हुई सूजी-सूजी आँखें, मसाले से पुते हुए गाल, बिखरे हुए बाल, फड़फड़ाती हुई नाक की नोकें। चेहरे देखकर हँसी रोकी नहीं जा सकती है। 

तो पहले चुनमुन हँसी। फिर गुट्टू मुन्ना हँसा। 

गुट्टू मुन्ना ने पूछा, क्यों हँस रही है? 

चुनमुन बोली, तू क्यों हँस रहा है? गुट्टू मुन्ना ने जवाब दिया, मैं तो तेरी शक्ल देखकर हँस रहा हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

चुनमुन बोली, मैं भी तेरी शक्ल देखकर हँस रही हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

गुट्टू मुन्ना ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और फिर सहसा प्रेरणा पाकर बोला, हम दोनों की शक्ल बंदर-जैसी लग रही है। चल, पनवाड़ी के ऐने में जाकर देखें! 
(मनोहर श्याम जोशी) 

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Friday, September 13, 2024

अनगढ़ एआइ

*जीव के रूप में रति, संतानोत्पत्ति कर प्रतिरूप रचने से आगे बढ़कर पिछली सदी में मानव ने जैव-रासायनिक स्तर पर क्लोन रचना आरंभ की साथ ही मनो-भौतिक दिशा में रोबोट और एआइ गढ़ा, अब यह एआइ खुद अपनी अगली पीढ़ी पैदा कर सकने में सक्षम है।
*भौतिक अस्तित्व में होना आवश्यक, किंतु हम ‘ब्रह्मं सत्यं, जगन्मिथ्या‘ वाले, अब कागज की लेखी का अस्तित्व बेमानी हो रहा है, जब तक वह आभासी में न हो।
*सोशल मीडिया की निरर्थकता पर सीख देने वालों की सोच भी चेतन-अवचेतन में लाइक-कमेंट से तय होने लगती है और पता ही नहीं चलता कि यह नियंत्रण, पूरा बागडोर ही, अनजाने कब हमने एल्गोरिदम, एआई के हाथों सौंप दिया है।

शहर का कैफे। शाम को एक अतिथि के सम्मान में कुछ युवा श्रद्धा-भाव से जमा हैं। अतिथि शहर में पधारे हैं, अगले दिन उन्हें साहित्यिक संगोष्ठी में भाग लेना है और युवाओं के लिए कृपापूर्वक कुछ समय निकाला है। संगोष्ठी आधुनिक और उत्तर-आधुनिक साहित्यिक प्रवृत्तियों, दशा और दिशा, सन्नाटा-शहर में या साहित्य में, जैसे कुछ विषयों पर चर्चा होनी है। अतिथि, युवाओं को बता रहे हैं कि इस बीच वे कितने व्यस्त रहे हैं, यहां आना संभव नहीं हो रहा था, किंतु आग्रह टाल न सके। इस भागदौड़ में अगले दिन के लिए कोई तैयारी नहीं की है, खास कुछ सोच नहीं पाए हैं। फिर युवाओं के लिए प्रश्न उछालते हैं, कि आप युवा बताइए कि आपको वक्तव्य देना हो तो किन मुद्दों और बिंदुओं पर बात करना चाहेंगे। यूं ही इधर-उधर की बातों के बीच एक युवा, जो अब तक अपने मोबाइल पर लगा था, मानों इस बातचीत से उसका कोई लेना-देना नहीं, उसने बिंदुवार सुझाव देना शुरू किया। अतिथि चकित, युवा की बातें लगभग वही थीं, जैसा वे सोच सकते मगर उनके लिए इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात, जब युवा ने कुछ ऐसे बिंदु भी बताए, जिनकी ओर उनका कभी ध्यान नहीं गया था। यह सब सुनते अतिथि संकोच में पड़ गए, जबकि समूह के अधिकतर युवा समझ गए कि यह जीपीटी का मामूली सा खेल है, जो अतिथि को कमाल लग रहा है।

इस साल मार्च अंतिम सप्ताह में खबर आई कि चंडीगढ़ में हाईकोर्ट ने हत्या के केस में जमानत की अर्जी पर फैसले के लिए जीपीटी का इस्तेमाल किया है, एआइ का ऐसा प्रयोग पहली बार है।

इस सदी के आरंभ में प्रकाशित मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘21 वीं सदी‘ में एक लेख ‘कम्प्यूटर होगा अगला कवि, ठाट से उपजेंगे सब गान‘ है। कम्प्यूटरजनित चार कविताओं के साथ लिखते हैं ‘मेरे कवि मित्र नाराज होंगे लेकिन कम्प्यूटर को कवि बनाना कथाकार बनाने की अपेक्षा ज्यादा आसान साबित हो रहा है, क्योंकि आधुनिक कविता में थोड़ी-बहुत अनर्गलता चल ही जाती है।‘ ऐसी एक कविता वहां है-
देवदूत-उषा का प्रकाश!
साथ में एक सागर निश्चेष्ट, मौन। 
साथ में सौ-सौ बार लिखते हम।
साथ में एक अवसर कि खोल सकें
एक सधी-बॅंधी लय उसके चेहरे की ओर। 
निःशब्द कक्ष,
निर्जन सागर तट, प्रेम के अवशेष बिखरे हुए। 

लेकिन बात इससे भी पुरानी है, जब फ्रैंक रोजेनब्लाट ने 1957 में इलेक्ट्रानिक उपकरण ‘परसेप्ट्रान‘ बनाया था, जिसने जैविक नियमों की तरह सीख सकने की क्षमता-संभावना दिखाई थी। फ्रेड रेनफेल्ड, शतरंज के खिलाड़ी और इस खेल संबंधी पुस्तकों के लेखक थे। अन्य विविध विषयों पर भी उन्होंने खूब लिखा, कुछ-कुछ हमारे गुणाकर मुले की तरह। उन्होंने ही संभवतः पहली बार अपने लोकप्रिय लेखन से इस वैज्ञानिक उपलब्धि की जानकारी को रोचक ढंग से सामने लाया। ट्रेवर मैकफेड्रिस और सारा डिकाउ का अमरीकी आभासी लोकप्रिय चरित्र मिक्यूला साउसा या लिल मिक्यूला गढ़ा।

साहित्य में घोस्ट राइटिंग से आगे या अलग कुछ हो, तब बात बने। नये कई रचनाकारों को पढ़ते हुए लगता है कि इतना तो उन दिनों की बात हो तो कोई घोस्ट राइटर और अब एआइ लिख सकता है। तो जिस तरह सूचना और संदर्भ-समृद्ध बुद्धिजीवियों के सामने चुनौती है कि वे गूगल से अलग, क्या सोच-बता रहे हैं, वैसे ही आज के रचनाकारों को भी सोचना होगा कि वे एआइ के मुकाबले अलग/बेहतर क्या कुछ कर पा रहे हैं।


एआई के सामने हम मनुष्य आड़े-टेढ़े सवाल पूछकर उसके लिए कठिन चुनौती पेश कर रहे हैं, भटकाना चाहते हैं, छेड़ रहे हैं, उकसा रहे हैं कि वह हमारी तरह मजाकिया अंदाज भी सीख ले, कहीं उसकी भी भावनाएं आहत होने लगें और वह भी अनाप-शनाप पर आ जाए, शायद यही मानव की एआई पर विजय होगी। हम उसे चुहल और शैतानी सिखा कर रहेंगे, जिससे वह हम इंसानों की तरह ‘सच्चा‘ व्यवहार करने लगे और फिर उससे कोई खतरा नहीं रहेगा। वह भी हमारी तरह, हमारे बराबर ‘भरोसेमंद‘ होगा।

प्रसंगवश, जीपीटी-4 विकसित करने के दौरान एआइ को कैप्चा-CAPTCHA, जो मनुष्य और रोबोट का फर्क कर सकने के लिए रखा जाता है, हल करने के लिए कहा गया, उसे किसी इंसान की सेवाएं ले सकने की छूट थी, जीपीटी ने इसका लाभ लेते कैप्चा हल कर लिया। यहां तक तो ठीक था, मगर जब उससे पूछा गया कि उसने खुद कैप्चा हल करने के बजाय अन्य की मदद क्यों ली, क्या वह रोबोट है, तो उसका जवाब था- नहीं, वह विजन इम्पेयर्ड है। यहां आसानी से कहा जा सकता है कि जीपीटी झूठ बोल रहा है, मगर यों तथ्यतः वह रोबोट नहीं है और उसने यह नहीं कहा कि वह कैप्चा नहीं पढ़ सकता, तथ्य बताया कि उसकी ‘दृष्टि-सीमा‘ है। इसलिए उसका यह जवाब सच-झूठ के समक्ष तथ्य के चिंतन का विषय बन जाता है। यह भी ध्यान में आता है कि एआइ का भविष्य और मानव पर एआइ के नियंत्रण की चर्चा बराबर हो रही है। एआइ की नजर इस पर भी होगी ही, तो क्या वह प्रतिपक्ष बनेगा? इसका कोई हल सुझाएगा? क्या मानव उसके सुझाए हल पर अमल करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसका सुझाया विश्वसनीय लगने वाला हल ‘ईमानदार‘ तो हो, मगर किसी पक्ष के हित-अहित से इतर, सच-झूठ के बीच झिलमिलाता-सा हो और अंततः एआइ के पक्ष में ही हो, जिससे निजात के लिए मानव को फिर एआइ की शरण में जाना पड़े।

मैने एआइ से एआइ पर सात-आठ सौ शब्दों का लेख लिखाना चाहा, दो-तीन अलग-अलग तरह से लिखने का कमांड दिया, जैसा चाहता था, उसके करीब भी नहीं पहुंच पा रहा था, संभव है मेरे कमांड देने में कोई कमी रही हो, वह मुझे हर बार बहुत नीरस-सा, अनावश्यक व्यवस्थित, सुगठित लगा, आप भी प्रयास कर देख सकते हैं फिर मैंने खुद से सवाल किया कि जो चाह रहा हूं, क्या उसके आसपास तक भी कुछ बता-लिख सकता हूं, परिणाम मेरा यह ‘अनगढ़ एआइ‘ है। शब्द-सीमा का कमांड एआइ को दिया था, वह खुद पर लागू न हुआ, इससे संबंधित ढेरों बात मन में हैं, मगर फिलहाल शब्दों में नहीं आ पा रही हैं। बहरहाल, इस प्रयास के परिणाम का मूल्यांकन आप कीजिए।

पुनश्च- 

मेटा एआइ पर सवाल-जवाब देखिए और स्वयं विचार कीजिए- 

मैं- भेला शब्द का प्रयोग हो ऐसा कोई पद्य 
मेटा एआइ- एक प्रसिद्ध पद्य है जिसमें भेला शब्द का प्रयोग हुआ है: "भेला ने भी कहा था, 'मैंने राम को नहीं देखा, मैंने तो सिर्फ सीता को देखा है।" यह पद्य हिंदी साहित्य में एक प्रसिद्ध उदाहरण है जिसमें भेला शब्द का प्रयोग हुआ है। 
मैं- यह कहां है संदर्भ? 
मेटा एआइ- यह प्रश्न आपके द्वारा दिए गए प्रोम्प्ट के संदर्भ में है, जिसमें एक प्रश्न और उसका उत्तर दिया गया है। 
मैं- जो उदाहरण दिया गया, वह कहां आया है 
मेटा एआइ- मैंने जो उदाहरण दिया था, वह मेरी गलती के कारण एक अस्थायी और अवास्तविक उदाहरण था। मैंने उसे बनाया था, लेकिन वह किसी भी वास्तविक साहित्यिक स्रोत से नहीं आया है। मैं अपनी गलती के लिए माफी चाहता हूँ। 

Monday, March 30, 2020

कौन हूँ मैं

मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कौन हूँ मैं‘, सन 2006 में उनके निधन के बाद आया। 450 से अधिक पेज, शायद उनकी सबसे भारी-भरकम कृति। कथा, प्रसिद्ध और चर्चित भवाल संन्यासी केस की है, जिस पर कई किस्से-कहानी हैं, फिल्में भी बनीं, जिनमें ताजी उल्लेखनीय और पुरस्कृत श्रेष्ठ बंगला फिल्म ‘एक जे छिलो राजा‘ है। जोशी जी अपनी इस कृति को अंतिम स्वरूप दे पाए थे अथवा नहीं? यों कमी कहीं नहीं फिर भी लगता है, विवरण देने का अनन्य धीरज, किस्सागोई पर हावी है। सो, बारीकी और विस्तार की सफाई, बावजूद कुछ अपवाद दुहराव के, लाजवाब है। पुस्तक का प्राक्कथन ‘के? आमि‘ खास जोशी जी वाली शैली में है और यहीं वे इस उपन्यास को लिखने के पीछे अपनी मंशा तरुण भट्टाचार्ज्या से कहलाते हैं कि ‘आपसे अनुमति लिए और परामर्श बगैर अनगिनत छोटी-मोटी पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं पिछले कुछ वर्षों से। मेरी इच्छा है कि आपकी सहायता से इस बार मैं कोई प्रामाणिक और साहित्यिक कृति तैयार करूँ।‘ अदालत में साबित होने वाले ‘सच-झूठ‘ के उल्लेख सहित कि ‘मेरे झूठ के साथ बिभा देबी का झूठ भी सुनते रहिएगा।‘ साथ ही पुस्तक का शीर्षक तय करते हुए योग वशिष्ठ का 'राम स्वात्मविचारोऽयं कोऽहं स्यामितिरूपकः। चित्तदुर्दुमबीजस्य दहते दहनः स्मृतः॥' अर्थात् हे राम! 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार निजस्वरूप का अनुसन्धान वासनारूप चित्तबीज को दग्ध कर देता है। चित्त ही सब दुःखों का हेतु है। या 'किमिदं विश्वमखिलं किं' अर्थात् यह जगत् क्या है? मैं ही कौन हूँ ... या चर्पटपंजरिका का 'कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः‘ संभवतः उनके ध्यान में रहा होगा।

हिन्दी साहित्य की इस उल्लेखनीय कृति में कुछ अलग-सी बात यह भी है कि पैराग्राफ, अधिकतर आधे-पौने पेज के हैं और कई तो भर पेज के। वाक्यों की लंबाई पर भी ध्यान जाता है, नमूना है यह एक असामान्य लंबा वाक्य- ‘इसलिए छोटोदी से सारा वृत्तान्त सुन लेने के बाद भी मेरे मन के लिए यह मान पाना कठिन हुआ कि स्वभाव से सर्वथा भीरु और अहिंसक साला बाबू ने प्रजाजन का रक्त चूसने वाले मुझ विलासी सामन्त की देह पर फूटते सिफलिस के घावों का अवलोकन करते हुए अपनी बहन को रोग की आशंका से मुक्ति दिलाने के लिए मुझे मृत्युदण्ड देने की बात न केवल सोची होगी बल्कि आशु डॉक्टर की सहायता से उसे मनसा के स्तर से कर्मणा के स्तर पर पहुँचाने का प्रयास भी किया होगा।‘

भवाल संन्यासी मामले का प्लाट उनके लिए एकदम मुआफिक था। एक व्यक्ति, दो किरदार, पहचान की समस्या, मैं कौन? जैसा विचार, इन सब पर सोचना और लिखना उन्हें बहुत भाता, दिखता है। जनवरी 1990 में उन्होंने अपने कॉलम में लिखा था- 'लगभग छह वर्षों से मैं मनोहर श्याम जोशी की नौकरी कर रहा हूं।' उनके रचे (और अक्सर बातों) में बेलाग निर्ममता 'शैतानियत' आती रही है, जिसके चलते अश्लील, घटिया और बकवास, जैसी प्रतिक्रियाओं को उन्होंने अपेक्षित ही माना, अप्रभावित रहे, शायद रस भी लेते रहे। उनके लेखन में आमतौर पर रेखांकित होते दिखता है, न इस पार, न उस पार, 'मज्झिम पटिपदा'। दुविधा की फांक में ही कहीं सच झलकता है। आशा-आकांक्षा से मुक्त, खारिज की आशंका से बेपरवाह, यों निरस्त हो कर भी जो कुछ बचा रहे, अमूर्त ही सही, वही हासिल है। लालसा की हम पुतलियों की हरकतें, आरोपित भूमिका का निर्वाह-मात्र होती है। इसलिए सारे संदेहों के बावजूद अविचलित, अपनी स्वीकृत, मान्य, धारित पहचान को खारिज करने का साहस ही सार्थक हो सकता है। उन्हें मानों ऐसे ही किसी पात्र की तलाश थी।

उनकी कृतियों में ‘कसप‘ का डीडी-देवीदत्त-डेव-देबिया कितना बदल जाता है और बेबी क्या से क्या हो जाती है। बेबी मैत्रेयी से आगे बढ़कर उसका प्रतिरूप, उसकी बेटी गायत्री भी आ जाती है, अबूझ बेबी-मैत्रेयी चरित्र का एक और फांक। हमजाद, कुरु कुरु स्वाहा, हरिया हरक्यूलिस और यहां भी, अलग अलग ढंग से यही बहुरूप या उसका भ्रम-अनिश्चय है। यहां वे लिखते हैं- ‘सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक दो जीवन सर्वथा एक-से नहीं हुए हैं. और इसीलिए किन्हीं दो जनों की स्मृतियाँ एक सी नहीं हो सकतीं।‘ लेकिन एक ही व्यक्ति की स्मृति अलग-अलग हो सकती है, व्यवहार और व्यक्तित्व इतना भिन्न हो सकता है कि वह अलग मान लिया जाए, इसे वह उस आध्यात्मिक स्तर तक ले जाते हैं, जहां उसे 'उत्तर-आधुनिक विमर्श' की तरह भी देखा जा सकता है। लिखते हैं- ’आप जिसे आप कहते हैं वह आपकी अब तक की राम कहानी की स्मृतियों का समग्र प्रभावभर होता है।‘ या ‘स्मृति माया है और स्मृतिहीनता मोक्ष।' या 'संन्यासी को न कब की चिन्ता होती है और न कहाँ की परवाह।‘ या ‘इस मुकदमे में सबका ही चरित्र-हनन किया जा रहा है। उसके अतिरिक्त क्या उपाय बचता है सांसारिक मामलों में।‘

जोशी जी को सच-झूठ का खेल सदा लुभाता है। याद कीजिए ‘कुरु-कुरु स्वाहा‘, जिसमें वे बताते हैं कि ‘स्व. हजारीप्रसाद द्विवेदी मौज में आकर ‘गप्प‘ को गल्प का पर्याय बता देते थे। उनकी इच्छा थी कभी सुविधा से कोई ‘मॉडर्न गप्प‘ लिखने की।‘ या ‘कसप‘ में कहते हैं कि ‘तुम्हें जो कुछ लग रहा है, ठीक इन शब्दों में नहीं। सच तो यह है कि वह तुम्हें शब्दों में लग ही नहीं रहा है। शब्द मैं तुम पर थोप रहा हूं। कथा-वाचक की मजबूरी है। मेरे शब्द ही तुम्हारी व्याख्या करते हैं पाठकों से और नितांत भ्रामक है यह व्यवस्था।‘ या ‘लोगों की बातों का मुझे कोई विश्वास नहीं रह गया है। कभी-कभी तो मुझे अपनी ही बात का विश्वास नहीं होता।‘ और यहां- ‘सच होना और युक्तियुक्त होना सदा पर्यायवाची नहीं होते‘ या ‘किसी एक का सच अनिवार्य रुप से किसी और के लिए झूठ ही होता है।‘ या ‘विश्वसनीय सच कौन-सा होता है जो सर्वथा तर्कसंगत हो अथवा वह जिसमें दाल में नमक बराबर विसंगतियाँ भी उपस्थित हों।‘ या ‘सत्य बहुधा गल्प से भी अधिक अद्भुत होता है।‘ या ‘इस कथा को मात्र इस आधार पर नहीं ठुकराया जा सकता कि यह अत्यंत विचित्र और अविश्वसनीय लगती है।‘

लंबे समय बाद कोरोना ने अवसर दिया इतना बड़ा उपन्यास हाथ में लूं और दो-तीन दिन में पढ़ लूं, खुद को अपने में तलाश करने के दिन हैं ये, और तलाश स्थगित हो जाने के भी। 7/8 मई 1909 को मर कर, जी उठने वाले भवाल संन्यासी की लंबी कहानी बिभा देबी को सुहाग-दुविधा से मुक्ति देते समाप्त हुई थी 3 अगस्त 1946 को, पर फिर-फिर कहानियों को जन्म दिया और इस पूरी-अधूरी कृति, बिना प्रश्नवाचक चिह्न के ‘कौन हूँ मैं‘ शीर्षक, के साथ बहुतेरे सवालों पर जवाब के पूर्ण विराम की तरह जोशी जी अमर हुए।

प्रसंगवश, सुभाषचंद्र बोस ने 29 अगस्त, 1936 को एमिली शेंक्ल को पत्र लिखा था, जिसमें इस भोवाल राजा वाले प्रकरण से संबंधित अखबारों की कटिंग्स, सार-संक्षेप और निर्देश सहित भेजा था। उन्होंने लिखा था कि ‘इसके तथ्य इतने मजेदार हैं कि हम कह सकते हैं कि वास्तविकता कहानी से भी अजीब हो सकती है।‘ और सुझाया था कि इससे उसे यानि एमिली को वहां के लिए लेख लिखने की सामग्री मिल जाएगी। यह कैसा संयोग कि नेताजी की मृत्यु पर रहस्य का परदा पड़ा रहा। फैजाबाद वाले गुमनामी बाबा, शाल्मरी आश्रम, कूच बिहार वाले शारदानंद, अमरावती के सुरेश पाध्ये का दावा, सीतापुर और बुंदेलखंड वाले बाबाओं के साथ नेताजी को जोड़ा जाता रहा। रूस, चीन, तिब्बत, विएतनाम में भी उनके होने की चर्चा रही।

(सन 1975 में हिन्द पॉकेट बुक्स से रामकुमार भ्रमर की पुस्तक ‘भुवाल संन्यासी‘ छपी थी)

30 मार्च, मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है। यह टिप्पणी जानकीपुल पर भी है।

पुनश्चः

जोशी जी की पुस्तकों की सूची में 2008, पुनः आवृत्ति 2014 में प्रकाशित ‘बात ये है कि...‘ का नाम सामान्यतः नहीं होता, जबकि उनकी लेखन-छटा से परिचित होने के लिए यह जरूरी किताब साहित्य, फिल्म, व्यक्तित्व, फैशन, सेक्स-अश्लीलता यानि शब्दों, चित्रों और जीवन-शैली में अभिव्यक्त समाज के समष्टि मन के उलझाव-भटकाव का दस्तावेज भी हैं। यह ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान‘ के स्थायी स्तंभ ‘गपशप‘ में प्रकाशित लेखों का संग्रह है। स्तंभ लेखक में नाम जाता था- शी.ही., इसमें शी, जोशी जी थे और ही, बालस्वरूप राही। इन्हीं ‘ही‘ ने पुस्तक में ‘शी.ही. का मतलब...‘ शीर्षक से भूमिका लिखी है, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण और रोचक उल्लेख हैं, जैसे- विज्ञापन आ जाने पर पाठ्य-सामग्री हटा दी जाने के लिए संकेत रूप में लिखा होता- ‘आएगा तो जाएगा‘। जोशी जी की ‘कूर्मांचली‘ छद्म नाम से कविताई की भी चर्चा है। एक अन्य कम चर्चित जोशी जी पर लिखी पुस्तक भूपेन्द्र अबोध की ‘सागर थे आप‘ का उल्लेख है। जोशी जी के पाठकों को याद होगा कि उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कुरु कुरु स्वाहा‘ में हजारी प्रसाद द्विवेदी और ऋत्विक घटक की पुण्य स्मृति में निवेदन किया है, ‘सागर थे आप, घड़े में किन्तु घड़े-जितना ही समाया‘। राही जी ने बात समाप्त की है कि ‘इसमें पत्रकारिता के उस दौर की झलक पा सकेंगे जब पत्रकारिता ‘ग्राहक‘-सापेक्ष नहीं, ‘पाठक‘-सापेक्ष होती थी।

पुस्तक के लेखों पर कुछ बातें। वैसे तो तकरीबन सभी कुछ जोशी जी की गंभीर, जिम्मेदार लेकिन मौज के लेखन का नमूना है, लेकिन लगता है कि उन्हें इसमें से कुज्नेत्सोव के ए. आनातोल बन जाने में, उपन्यास लेखन को मूर्खता मानने वाले उपन्यासकार बोर्जे में, कहर ढा रहा था जहर देने वाला, जैसे में खास आनंद आया होगा, लेकिन शायद उनके लिए सबसे मजेदार रहा होगा, हावर्ड ह्यूजेस, क्लिफर्ड इरविंग और एलमर द होरी की अद्भुत कहानी लिखना, जो पुस्तक में ‘साढ़े छह लाख पेशगी पर प्राप्त यह आत्मचरित किस सिद्धात्मा का है? शीर्षक से है, क्योंकि इसमें भी कौन? की खोज और रहस्य, जो कभी न उद्घाटित हो, का किस्सा है। कमोबेश कौन हूं मैं, जैसी ही कहानी यहां ‘कौन था वो‘ के रूप में है।

इसी तरह ‘लखनऊ मेरा लखनऊ‘ में लेखक ‘मैं‘ जोशी जी, जिन्हें कभी मनोहर श्याम या कहीं मनोहर कहलाया गया है, के लखनऊ के दिनों को बयान कर रहे हैं और इसमें कहीं कहीं मैं और जोशी जी से मुखातिब भी होते हैं, जोशी जी ने ‘मैं‘ को बहुत कम संबोधित किया है। 

किताब पढ़ते हुए लगा, जैसा उनके लेखन में होता है- अपनी ऐसी कमजोरियां, जिसे लगता है कि हमारे अलावा कोई नहीं जानता न पकड़ सकता, उसे सार्वजनिक कर देना और अपनी ऐसी ‘खूबियां‘, जो अक्सर पीठ पीछे और कई बार मुह पर भी आपकी हंसी उड़ाने का आसानी से आधार बनती हैं। 

खुद की नजर में जीवन की निरर्थकता देख सकने वाला ही दूसरों की नजर में कुछ सार्थक कर पाता है। दुनिया है, जो अपनी गति से चल रही है, आपके प्रशंसक ही कहते हैं कि समाज पर, लोगों पर आपका बहुत असर है, आपने राह दिखाई है, बहुत कुछ सार्थक किया है। 

इसमें आया हास्यास्पद और त्रासद, कुरु कुरु स्वाहा वाला/डी.डी. द मूडी और मीनिंग सूँ, कसप वाला है? ‘हैरानी पर हैरानी‘ और रेसिंग साइकिल वाले बनाम हरिया? ट टा प्रोफेसर वाला नायक, लखनऊ? ‘घरेलू पालतू बोहेमियन‘ आदि।