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Monday, December 19, 2022

पदुम-नलिन

सत्यं कटु न हो मगर प्रियं होने से अच्छा है कि वह सुंदरं हो और ऐसा तब होता है, जब सत्यं, सहजं हो। इसी सत्यं सहजं के दर्शन होते हैं 75 वर्षीय डॉ. नलिनी श्रीवास्तव में। 2007 में प्रकाशित, 8 खंडों और लगभग 5000 पृष्ठों वाले, ‘पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ग्रन्थावली‘ का संपादन आपने किया है। बख्शी जी के बड़े सुपुत्र महेंद्र कुमार बख्शी जी की ज्येष्ठ पुत्री नलिनी जी ने 1986 में अपने दादाजी पर पी-एच डी की, विषय था, ‘हिन्दी निबंध की परम्परा में बख्शी जी के योगदान का अनुशीलन‘।


बताती हैं किस तरह बख्शी जी की रचनाओं को एकत्र किया, तब जीवनसाथी, श्रीवास्तव जी (वही जैसा गायक का नाम था, यानि किशोर कुमार श्रीवास्तव जी) का सहयोग होता था। ‘यात्री‘ जैसी उनकी कुछ पुस्तकें बस देखने को मिलीं तो दिन-रात लग कर स्वयं कापी पेन नकल बनाई। अब भी सृजन-सक्रिय, सजग-स्मृति संपन्न हैं। फिटनेस की तारीफ को सहजता से स्वीकार करते कहती हैं, लिखती-पढ़ती रहती हूं, स्वास्थ्य ठीक रहा है, न शुगर न बीपी, सिरदर्द भी नहीं हुआ। 

बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष ललित कुमार जी के आमंत्रण पर अरविंद मिश्र जी, आशीष सिंह जी और राकेश तिवारी जी के साथ भिलाई गया। पूर्व अध्यक्षों में मध्यप्रदेश के दौरान गठित इस पीठ के पहले अध्यक्ष प्रमोद वर्मा जी, छत्तीसगढ़ गठन के बाद सतीश जायसवाल जी, बबन मिश्र जी, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र के कार्यकाल के साथ, पीठ के गठन के और इसके महत्वपूर्ण कारक कनक तिवारी जी की स्मृतियां ताजी होती रहीं। लंबे समय बाद सुअवसर बना नलिनी जी से प्रत्यक्ष मुलाकात का। फोन पर चर्चा जरूर होती रही। एक प्रसंग- बख्शी जी की एक रचना ‘कला का विन्यास‘ टटोल रहा था। ग्रन्थावली में न पा कर उन्हें फोन किया। पहले लगा कि उनका जवाब अनमना सा है- ‘देख लीजिए, निबंध वाले खंड में होगा‘ साथ ही पूरे भरोसे से यह भी कहा कि इस शीर्षक से तो उनका कोई निबंध नहीं है। 

मैंने निबंध का पहला पेज उन्हें वाट्सएप किया, फिर पहला पैरा पढ़ कर सुनाया कि शैली तो उन्हीं की है, वे सहमत हुईं, फिर कहा कि देख कर बताउंगी। मुझे बिलकुल अनुमान न था कि इस बात ने उन्हें कितना बेचैन कर दिया है। देर शाम हुई बात के जवाब में अगली सुबह ही फोन आ गया कि खंड 1, पेज 223 देखिए। फिर बताया कि मुझसे बात होने के बाद रात भर उन्हें नींद नहीं आई। सोचती रहीं कि यह रचना क्योंकर छूट गई होगी। ग्रन्थावली के संस्करण में इसे जोड़ना होगा, आदि। 

सहज सरल मास्टर जी यानि बख्शी जी के व्यक्तित्व की उदारता और सहजता, साहित्यिक जिम्मेदारी और आग्रह की परंपरा को नलिनी जी से मुलाकात कर जीवंत महसूस किया जा सकता है। प्रातः और नित्य स्मरणीय मास्टर जी को नलिनी जी के माध्यम से नमन।

Friday, August 27, 2021

देवबलौदा - लक्ष्मीशंकर

देवबलौदा का कलचुरि कालीन शिव मंदिर
लक्ष्मीशंकर निगम

रायपुर और भिलाई के मध्य स्थित एक छोटा सा रेल्वे स्टेशन है, ‘चरौदा देवबलौदा‘। चरौदा रेल्वे का विस्तृत यार्ड है, किन्तु देवबलौदा निकटस्थ स्थित एक ग्राम का नाम है। देव बलौदा का छत्तीसगढ़ के कला एवं स्थापत्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां एक छोटा, किन्तु अत्यंत कलात्मक कलचुरि कालीन शिव मन्दिर स्थित है। रायपुर-भिलाई मार्ग पर, चरौदा से २-३ किलोमीटर पहले दक्षिण की ओर रेल्वे मार्शलिंग यार्ड हेतु मार्ग है। इसी मार्ग से लगभग ३ किलोमीटर जाने पर देव बलौदा पहुंचा जा सकता है।

देव बलौदा के इस प्राचीन मन्दिर के निर्माण से सम्बंधित अनेक किवदन्तियां प्रचलित हैं। इस कथा के अनुसार देव बलौदा और आरंग का मन्दिर एक ही स्थपति (Architect) द्वारा निर्मित किया गया था। जब दोनों मन्दिरों का निर्माण पूर्ण हो गया तब एक मन्दिर के शिखर पर स्थपति चढ़ गया तथा दूसरे मन्दिर के शीर्ष-भाग में स्थपति की बहन। वस्तुतः एक औपचारिक अनुष्ठान की प्रक्रिया के अन्तर्गत मन्दिरों की शीर्ष भाग में निःवस्त्र होकर पहुंचना था। मन्दिरों की ऊंचाई के कारण दोनों ने एक दूसरे को निःवस्त्र देखा और शर्म एवं पश्चाताप के कारण दोनों मन्दिरों के शिखर से कूद पड़े तथा पाषण में परिवर्तित हो गये। इनमें से आरंग का मन्दिर जैन मन्दिर है तथा भाण्ड देवल के नाम से प्रसिद्ध है, दूसरा मन्दिर देव बलौदा का शिव मदिर है। दोनों मंदिर भिन्न-भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बंधित है, अतः एक स्थपति द्वारा निर्माण किये जाने का उल्लेख उपयुक्त प्रतीत नही होता।

उपरोक्त किवदन्ती के कथानक में थोड़ी सी विभिन्नता भी मिलती है। एक जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में वनसूकर उत्पात मचाया करते थे, यहां रहने वाले उक्त शिल्पी के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि इसे ‘शिव क्षेत्र‘ में परिवर्तित करना चाहिए। इस प्रकार वह शिव मंदिर के निर्माण में समर्पित हो गया, अन्ततः उसका लक्ष्य पूरा हुआ। निर्माण कार्य के समय, उसकी एक मात्र बहन उसकी सेवा में संलग्न रही। एक दिन उक्त स्थपति ने मंदिर के शिखर में कलश चढ़ाने का मुहूर्त निकाला। उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुए कि ईश्वर और उनके बीच पावनता में वस्त्र क्यों बाधक बनें। अतः वह निःवस्त्र होकर मंदिर के शिखर में स्वर्ण कलश सहित पहुंचा। इसी समय स्थपति की बहन, भाई के लिए भोजन लेकर पहुंची। तेज सूर्य रश्मियों के मध्य स्वर्ण कलश स्वयं सूर्य जैसा प्रकाशित हो रहा था उसके निकट कलश चढ़ाने को तत्पर शिल्पी खड़ा था। अचानक बहन को देख कर, अपनी निःवस्त्रता पर उसे ग्लानि हुई और मंदिर के निकट तालाब में वह कूद गया। एक मात्र भाई को मृत्यु का दुःख उसकी बहन सहन न कर पाई और वह भी तालाब में कूद पड़ी और दोनों पाषाण में परिवर्तित हो गए। एक अन्य जनश्रुति भी इस मंदिर के सम्बन्ध में प्रचलित है, जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण एक ही रात्रि में किए जाने का उल्लेख है।

स्थापत्य एव कला की दृष्टि से यह मन्दिर उत्तरी भारत के अन्य मंदिरों के सदृश्य है। भू-विन्यास (Ground Plan) के अंतर्गत मण्डप, अन्तराल एव गर्भगृह निर्मित है। गर्भगृह (जहां देव प्रतिमा अथवा शिवलिग स्थित रहता है), का बाह्य भाग वर्गाकार है तथा प्रत्येक ओर १३ फीट है। मण्डप, स्तभों पर आधारित है तथा खुला हुआ है, इसकी लम्बाई २२ फीट १ इन्च है। गर्भगृह और मण्डप के मध्य भाग को अन्तराल कहा जाता है, यह ३ फीट ५ इंच चौड़ा है। इस प्रकार मंदिर ३९ फीट लम्बा और २९ फीट चार इंच चौड़ा है। मंदिर का शिखर ध्वस्त हो चुका है, १८८१-८२ में यहां आये भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक अलेक्जेंडर कनिंघम ने इसकी ऊंचाई लगमग ४० फीट उल्लिखित की है। पुराने गजेटियर के एक चित्र में मंदिर का शिखर दिखाई पड़ता है। मंदिरों में सामान्यतः एक ही प्रवेश द्वार होता है जो पूर्व दिशा की ओर स्थित रहता है। सूर्य की प्रथम किरणें मदिर प्रवेश करें, यही इसका प्रमुख उद्देश्य होता है। यहां पूर्व दिशा में प्रवेश तो है ही, साथ ही एक अन्य प्रवेश द्वारमण्डप के उत्तर दिशा में निर्मित किया गया है जो संलग्न तालाब की ओर खुलता है। यह तालाब ६० फीट लम्बा तथा ५२ फीट चौड़ा है, जिसके चारों ओर पाषाण के सोपान बने हुए हैं।

मण्डप, भूमि सतह से ४,१/२ फीट ऊंचा है, जबकि मण्डप से अन्तराल होते हुए गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए चार सीढियां नीचे उतरना पड़ता है, इस आधार पर कनिंघम महोदय ने मत व्यक्त किया है कि मन्दिर का निर्माण दो चरणों में किया गया है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने गर्भगृह तथा मण्डप को वाह्य भित्तियों में अंकित कला वैष्णव और शैव देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई हैं। विष्णु के विभिन्न अवतारों में से नृसिंह, वाराह, वामन तथा कृष्ण का अंकन मिलता है। शिव का विविध रुपों में अंकन के साथ ही गणेश तया महिषासुर मर्दिनी का चित्रण भी मिलता है। इन प्रतिमाओं के अंकन में कलात्मकता के साथ प्रतिमा लक्षणों का प्रयोग सम्यक रुप से किया गया है। गर्भगृह को दक्षिणी दीवार में अंकित एक प्रतिमा का उल्लेख कनिंघम ने अष्टभुजी देवी के रुप में किया है। इस प्रतिमा को कनिंघम के मत का अनुकरण करते सभी विद्वानों ने अप्टभुजी देवी माना है। वस्तुतः यह देवी प्रतिमा नहीं बल्कि यहां शिव के गजासुर-वध का चित्रण किया गया है, जिसमें शिव को ऊपरी दो हाथों से हाथी को सिर के ऊपर उठाए हुए प्रदर्शित किया गया है।

मंदिर की बाह्य दीवारों में तत्कालीन जन-जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक दृश्यों का अंकन परिलक्षित होता है। शिकार से सम्बन्धित अनेक दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है। सूकर तथा हिरण पर कुत्तों द्वारा आक्रमण करने का चित्रण अत्यंत स्वाभाविक ढंग से किया गया है। नृत्य, और मिथुन मूर्तियां अत्यन्त सुन्दर उत्कीर्ण की गई हैं। एक स्थान पर राजकीय शोभा-यात्रा का चित्रांकन है, जिसमें राजा छत्र सहित प्रदर्शित है।

मंदिर के मण्डप में स्थित स्तंभ, अत्यन्त कलात्मक तथा चमकदार हैं। इसमें विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का चित्रण किया गया है। स्तंभों के कीर्तिमुखों को विशेष महत्व का कहा जा सकता है। विभिन्न स्तंभों में अंकित कीर्तिमुख, शिल्पी के प्रखर कल्पना-शक्ति तथा कला कौशल से परिचित कराती है। कीर्तिमुखों के चित्रण में किसी भी आकृति की पुनरावृत्ति परिलक्षित नहीं होती। गर्भगृह का द्वार पारम्परिक कला से युक्त है। इसके ऊपरी भाग के मध्य में गणेश के अंकन से ज्ञात होता है कि यह मंदिर शिव को समर्पित किया गया था।

मंदिर के सामने शिव मंदिरों की परम्परा के अनुसार नन्दी की एक प्रतिमा मिलती है, इसके अतिरिक्त कई लेखविहीन सती स्तंभ मिलते हैं, जो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व को प्रदर्शित करते हैं।

देवबलौदा की स्थिति छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण नगर रायपुर और औद्योगिक तीर्थ भिलाई के मध्य है, फिर भी सामान्यजनों को स्थापत्य के इस उत्कृष्ट उदाहरण के विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है। रायपुर-भिलाई के बीच तेजी से विकसित होते आवागमन एवं व्यापारिक सम्बन्ध के बीच यदि कुछ समय मनोरंजन एवं पर्यटन के लिए निकाला जावे तो उसमें इस मंदिर के भ्रमण को सम्मिलित किया जाना सर्वथा उपयुक्त कहा जा सकता है। रायपुर-भिलाई पर्यटन योजना बनाकर, उसमे नंदनवन, देवबलौदा, मैत्रीबाग और भिलाई इस्पात संयंत्र को सम्मिलित किया जा सकता है। वर्तमान में देव बलौदा का परिचय देते हुए एक बोर्ड जी.ई. रोड में लगाया जाना चाहिये, जिससे इसके विषय में लोगों को पर्याप्त जानकारी मिल सके।

मंदिर से लगे तालाब को विकसित एवं सुन्दर बनाने हेतु प्रयास के साथ ही, बैठने की व्यवस्था सहित एक छोटा सा उद्यान निर्मित किया जावे, तो यह स्थान एक ओर प्राचीन गौरव और वैभव को प्राप्त करेगा वहीं दूसरी ओर पर्यटकों को पर्याप्त रूप से आकर्षित भी करेगा।


यह लेख भिलाई की संस्था ‘समता‘ की स्मारिका, सन 1986 में प्रकाशित हुआ था।


Friday, October 19, 2012

रविशंकर

छत्तीसगढ़ के सजग जोड़ा शहर दुर्ग-भिलाई से पत्रकार कानस्कर जी का फोन आया, रविशंकर जी नहीं रहे। मेरे कानों में कुछ देर स्मृति में दर्ज उनकी खिलखिलाहट बजती रही। उनसे आमने-सामने का संपर्क बहुत पुराना नहीं था, मगर अपेक्षा-रहित उनके भरोसे का संबल मुझे अनायास मिलता रहा। ऐसे निरपेक्ष विश्वासी कम ही होते हैं।
पं. रविशंकर शुक्‍ल
21.01.1927-10.10.2012
उनका निवास भिलाई के सेक्टर-5 में था। पहली बार उनके घर गया। बात होने लगी, 'घर ढूंढने में कोई अड़चन तो नहीं हुई', मैंने कहा- आपने अपने घर के रास्ते का नामकरण जीते-जी करा लिया है 'पं. रविशंकर शुक्ल पथ' (वस्तुतः उनके हमनाम पूर्व मुख्‍यमंत्री)। धीर-गंभीर, प्रशांत, लगभग भावहीन चेहरा और खोई सी आंखें, लेकिन देखकर सहज पता लग जाता कि उनके मन में लगातार कुछ चल रहा है, रचा जा रहा है, मेरा जवाब सुनकर, थोड़ा ठिठके फिर खिलखिला पड़े थे, बालसुलभ-दुर्लभ अविस्मरणीय हंसी। उदार इतने कि आपके रुचि की पुस्तक या ऐसी कोई वस्तु उनके पास हो तो सौंपने को उद्यत होते।

छत्तीसगढ़ का पारम्परिक नाचा-गम्मत पचासादि के दशक में 'लोकमंच' में बदलने लगा। श्वसुर डॉ. खूबचंद बघेल और पृथ्वी थियेटर के नाटकों से प्रेरित दाऊ रामचंद्र देशमुख ने 1950 में 'छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल' स्थापना की, आरंभिक दौर में नाटक मंचित करते, लेकिन बड़ी और विशेष उल्लेखनीय प्रस्तुति 26 और 27 फरवरी 1953 को पिनकापार में हुई। यही मंच ऐतिहासिक 'चंदैनी गोंदा' की पृष्ठभूमि बना, जिसकी स्थापना 7 नवंबर 1971 को हुई।

दाऊजी के शब्दों में- ''भटकने की नियति आरंभ हुई। रात-रात भर गाड़ी में, कड़कती हुई धूप में, धूल भरे कच्चे रास्तों पर भटकना, गांवों में कलाकार ढूंढना ...।'' प्रतिभाएं तलाशी-तराशी गईं। लाला फूलचंद, लक्ष्मण दास, ठाकुरराम, भुलवा, मदन, लालू जुड़े। बांसुरी-संतोष टांक, बेन्जो-गिरिजा सिन्हा, तबला-महेश ठाकुर, मोहरी-पंचराम देवदास पर्याय बनते गए। टेलर मास्टर, कवि-गायक लक्ष्मण मस्तुरिया, राजभारती आर्केस्ट्रा के गायक-अभिनेता भैयालाल हेड़उ, कविता हिरकने-वासनिक, केदार यादव, अनुराग ठाकुर साथ हुए।

दाऊजी और संगीतकार खुमान साव के साथ कवि-गायक रविशंकर शुक्ल की त्रयी, चंदैनी गोंदा की सूत्रधार बनी। शुक्ल जी का रचा शीर्षक गीत- 'देखो फुल गे, चन्दैनी गोंदा फुल गे, चन्दैनी गोंदा फुल गे। एखर रंग रूप हा जिउ मा, मिसरी साही घुर गे।' छत्तीसगढ़ी लोक-जीवन के मिठास का प्रतिनिधि गीत बन गया।

रविशंकर जी की ज्यादातर रचनाएं लोकप्रिय हुई, इनमें से कुछ खास, जिन्होंने सभी के कानों में मिसरी घोली- 'झिमिर झिमिर बरसे पानी। देखो रे संगी देखो रे साथी। चुचुवावत हे ओरवांती। मोती झरे खपरा छानी।' फगुनाही गीत है- 'फागुन आ गे, फागुन आ गे, फागुन आगे, संगी फागुन आ गे, देखौ फागुन आ गे। अइसन गीत सुनाइस कोइली, पवन घलो बइहा गे।' और 'धरती मइया सोन चिरइया। देस के भुइयां, मोर धरती मइया।' जैसा गौरव-बोध का गीत। उनके रचे-गाए गीत बनारस की सरगम रिकार्ड कंपनी से बने पर स्‍वाभिमानी ऐसे कि गीत के बोल पसंद न आए, तो गीत गाने के फायदेमंद प्रस्‍ताव की परवाह नहीं करते।

आपने 'तइहा के बात ले गे बइहा गा' / 'फुगड़ी फू रे फुगड़ी फू' / 'सुन सुवना' / 'घानी मुनी घोर दे, पानी दमोर दे' जैसी पारम्परिक पंक्तियों को ले कर भी कई गीत रचे। उनकी लोरी 'सुत जा ओ बेटी मोर, झन रो दुलौरिन मोर। फेर रतिहा पहाही, अउ होही बिहनिया। आही सुरुज के अंजोर। सुत जा ...' में रात के मीठे सपने नहीं, बल्कि सुबह की आस का अनूठा प्रयोग है।
निधन के तीन दिन पूर्व का चित्र
सम्‍मानित हुए और इस अवसर पर गीत भी सुनाया
चित्र सौजन्‍य - आरंभ वाले श्री संजीव तिवारी, भिलाई

उनका पहला संग्रह 'धरती मइय्या' 2005 में चौथेपन में आया। अपनी बात में उन्होंने लिखा- ''चन्दैनी गोंदा, दौना पान, नवा बिहान व अनेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए मैंने गीत लिखे, किन्तु अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार न दे सकने का दुख छत्तीसगढ़ी साहित्य सम्मेलन, दुर्ग द्वारा मानस भवन में अपने साहित्य सम्मान के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में मैंने व्यक्त किया था। छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग के छोटे आर्थिक सहयोग से इस दुख से मुक्ति पा सका और यह संग्रह प्रस्तुत कर सका।'' इसी पुस्तक का अंतिम गीत है-

चल मोर संगी उसल गे बजार।
का बेंचे तॅंय हा अउ का बिसाये।
बड़े मुंधेरहा ले लेड़गा तॅंय आये॥

पिंजरा के धंधाये सोन चिरइ उड़ि गे।
माटी के चोला हा माटी म मिलि गे॥

तॅंय बइठे का देखत हावस आंखी फार-फार।
चल मोर संगवारी उसल गे बजार॥

एक दिन आए, बताया, अस्पताल से आ रहे हैं। कहा- तबियत ठीक है, बस एक कागज बनवाने गया था, आप भी इसकी प्रति अपने पास रखें, बिना कागज देखे मैंने अफसरी सवाल किया, ये बताइए कि करना क्या है, उन्होंने कहा, कुछ नहीं, बस अपने पास रखिए। तब मैंने कागज पर नजर डाली, वह था वसीयतनामा (मृत्‍योपरांत शरीर दान का घोषणा पत्र), मेरे और कुछ कहने से पहले रवानगी को तैयार हो गए।

अंतिम दिनों में अशक्त होने पर भी श्री जी संस्था के लिए सक्रिय रहे। भिलाई आ कर उनसे मिलने की बात हुई तो पते के लिए खास किस्‍म का 'विजिटिंग कार्ड' दिया। छपे हुए पते को 'बदल गया है' कहते हुए काट कर सुधारा।

अब उनका पता फिर बदल गया, लेकिन अपने गीतों में वे अभी भी हम सब के साथ हैं।

Monday, June 11, 2012

खुसरा चिरई

औद्योगिक तीर्थ भिलाई, दुर्ग के साथ मिलकर छत्‍तीसगढ़ का जुड़वा शहर और कला-संस्‍कृति तीर्थ भी है। आसपास ऐसे कुछ अन्‍य तीर्थ हैं- पद्मभूषण तीजनबाई का गांव गनियारी, बिसंभर यादव मरहा और दाउ रामचंद्र देशमुख का बघेरा, देवदास बंजारे का धनोरा, दाउ महासिंग चंद्राकर का मतवारी, फिदाबाई का सोमनी, झाड़ूराम देवांगन का बासिन, पद्मश्री पूनाराम निषाद और भुलवाराम का रिंगनी और खड़े साज नाचा का जोड़ा गांव दाउ मंदराजी का रवेली, देवार कलाकारों का डेरा, दुर्ग का सिकोलाभांठा, पचरीपारा, दुर्ग वाले गुरुदत्‍त-परदेसी (राम बेलचंदन) और दुर्ग के शहरी आगोश में समाया, लेकिन विलीन होने से बचा गांव पोटिया।

पोटिया (वरिष्‍ठ हास्‍य अभिनेता शिवकुमार दीपक भी इसी गांव के हैं) में केदार यादव के परम्‍परा की स्‍मृति है। अपने दौर से सबसे लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी गायक केदार की प्रतिभा ''चंदैनी गोंदा'' के मंच पर उभरी और उसके बाद ''नवा बिहान'' की शुरुआत हुई। उनसे ''तैं बिलासपुरहिन अस अउ मैं रयगढि़या'' और ''हमरो पुछइया भइया कोनो नइए ग'', जैसे रामेश्‍वर वैष्‍णव के गीत सुनना, अविस्‍मरणीय हो जाता। पहले गीत की मूल पंक्ति ''आज दुनों बम्‍बई म गावत हन ददरिया'' में बम्‍बई को बदलकर उस स्‍थान का नाम लिया जाता, जहां कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया जा रहा हो और इसी तरह दूसरे गीत में ''ए भांटो'' का महिला स्‍वर आते ही लोग झूम जाते। केदार के साथ पूरी परम्‍परा रही, जिसमें उनकी जीवनसंगिनी-सहचरी साधना, उनके भाई गणेश उर्फ गन्‍नू यादव और उनकी जीवनसंगिनी-सहचरी जयंती तथा अन्‍य कलाकार भाई पीताम्‍बर, संतोष रहे हैं।

झुमुकलाल जी की विरासत
  के साथ गन्‍नू यादव
पूरे परिवार को संगीत के संस्‍कार मिले पिता झुमुकलाल यादव से, जो परमानंद भजन मंडली के सदस्‍य थे। पचास-साठ साल पहले रायपुर-दुर्ग में सैकड़ों ऐसी मंडलियां थीं, जिनमें मुख्‍यतः बद्रीविशाल परमानंद के गीत गाए जाते थे। झुमुकलाल, बद्रीविशाल जी के साथी थे, उनकी औपचारिक शिक्षा की जानकारी नहीं मिलती, लेकिन जिस सजगता और व्‍यवस्थित ढंग से उन्‍होंने गीत-परम्‍पराओं का अभिलेखन कर उन्‍हें सुरक्षित किया, वह लाजवाब है। इस अनमोल खजाने में अप्रत्‍याशित ही ''खुसरा चिरई के ब्‍याह'' मिल गई। खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र की यह रचना, (ऐसे ही शीर्षक की रचनाकार के रूप में जगन्‍नाथ प्रसाद 'भानु' का नाम भी मिलता है) खूब सुनी-सुनाई जाने वाली, मेलों में बिकने वाली, लेकिन लगभग इस पूरी पीढ़ी के लिए सुलभ नहीं रही है। बिलासा केंवटिन के गीत में जिस तरह सोलह मछलियों से सोलह जातियों की तुलना है उसी तरह यहां कविता क्‍या, आंचलिक-साहित्यिक, परम्‍परा और पक्षी-विज्ञान की अनूठी आरनिथॉलॉजी है यह-

खुसरा चिरई के ब्याह

     टेक जांघ बांध जघेंला बांध ले, और केड़ के ढाला
     खुसरा चिरई के ब्याह होवत है, नेवतंव काला काला
1   एक समय की बात पुरानी, सुनियों ध्यान लगानी
     बड़े प्रेम से कहता हू मैं, खुसरा चिरई के कहानी
2   एक समय का अवसर था, सब चिड़ियों का मेला
     खुसरा बिचारा बैठे वहां पर, पड़ा बड़ा झमेला
3   बड़े मौज से घुसरा बैठे, घुघवा करे सलाव
     खुसरा भइया तैं तो डिड़वा, जल्दी करव बिहाव
4   कौन ल भेजय सगा सगाई, कौन ल बररौखी
     कौन ल पगरहित बनावंय, कौन सुवासा चोखी
5   नंउवा कौंवा करे सगाई, कर्रउवा बररौखी
     पतरेगिया ल पगरहित बनाइस, सुवा सुवासा चोखी
6   बामंन आवे लगिन धरावंय, मंगल देवय गारी
     आन जात ल नरियर देवय, जात ल पान सुपारी
7   बिल ले निकरय बिल पतरेगिया, हाथे में धरे सुपारी
     भरही चिरैया कागज हेरे, चांची लगिन बिचारी
8   काकर हाथ में तेल उठगे, काकर हाथ में चाउंर
     कौन बैठगे लोहा पिंजरवा, कौन बैठगे राउर
9   पड़की हाथ में तेल उठगे, परेवना हाथ में चाउंर
     सुवा बैठगे लोहा पिंजरवा, कोयली बैठगे राउर
10 अवो नवाईन लबक लुआठी, चल चुलमाटी जाइन
     लाव लसगर नगर बलुउवा, गीत मनोहर गाइन
11 कठवा ले कठखोलवा बोलय, सुन रे खुसरा साथी
     बने बने मोला नेवता देबे, ठोनक देहंव तोर आंखी
12 दहरा के नेवतेंव दहरा चिरैया, नरवा के दोई अड़ंवा
     कारी अऊ कर्रउंवा ला नेवतेंव, तेला बनावय गड़वा
13 इहां के समधिन कारी हावंय, उंहा के समधीन भूरी
     ईहां के समधिन नकटायल है, उहां के समधिन कुर्री
14 छोटे दाब अैरी के नेवतेंव, कोयली देवय गारी
     मकुट बांध के सारस आवे, कुर्री के दल भारी
15 कौन चिरई मंगरोहन लावे, कौन गड़ावे मड़वा
     कौन चिरई करसा लावे, घर घर नेवते गड़वा
16 मंग रोहन चिरई मंगरोहन लावे, कन्हैया गड़ावे मड़वा
     पतरेगिया हा करसा लावे, घर घर नेवते गड़वा

17 पीपर पेड़ के भरदा नेवतेंव, अऊ नेंवतेंव मैं चाई
     टाटी बांधय तबल के बरछी, दल में मजा बताई
18 आमाडार ले कोयली बोलय, लीम डार ले कौंवा
     कर्री बाज के देखे ले मोर, जीव खेले डुब कइंया
19 भुइंया के भुई लपटी नेवतेंव, अऊ नेव तेंव मैं चुक्का
     खुसरा के बिहाव में सब, भरभर पीवे हुक्का
20 खुसरा दीखय दुसरा 2, मूढ़ हवय ढेबर्रा
     वोकर पांव है थावक थइया, चोच हवय रन कर्रा
21 अटेर नेवतेव बटेर नेवतेंव, अऊ नेवतेन नटेर
     बड़े बड़े ल मुढ़ पटका पटकेंव, तुम्हरे कौन सनेर
22 ओती ले आवय लावा लशगर, ओती ले आवय बाजा
     बनत काम ल मत बिगारव, तोला बनाहू राजा
23 सब चिड़िया ला नेवता बलाके, खुसरा बनगे राजा
     चेंपा नांव के चिरई ला लानय, तेला धरावय बाजा
24 पानी के पनडुबी ल नेवतेंव, घर के दूठन पोई
     धन्य भाग वो खुसरा के, मन चुरनी के घर होई
25 हरिल चिरैया हरदी कूटय, गोड़रिया कूटय धान
     खुसरा के बिहाव में सब, हार दिंग मताइन
26 इधर काम ले फुरसत पाके, भरदा बैठय तेलाई
     लडु़वा पपची बनन लागे, तब मेछा ल टेंवय बिलाई
27 कौन कमावे रनबन 2, कौन कमावे मन चीते
     कौन बैठगे भरे सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे
28 पड़की कमावे रनबन 2, परेवना कमावे मन चीते
     बलही बैठगे भरा सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे
29 अपन नगर से चले बराता, गढ़ अम्बा में जाइन
     धूमधाम परघौनी होवय, गीत मनोहर गाइन
30 दार होगे थोरे थोरे, बरा होगे बोरे
     आधा रात के आये बरतिया, दांत ल खिसोरे
31 गांव निकट परघौनी होवय, दुरभत्‍ता खाये ल आइन
     लड़ुवा पपची पोरसन लागय, चोंच भर भर पाइन
32 सबो चिरई समधी घर जाके, खुसरा ल खड़ा करावय
     वैशाख शुक्ल अऊ सत्पमी, बुधवार के भांवर परावय
33 एक भांवर दुसर तीसर, छटवें भांवर पारिन
     सात भांवर परन लागिस, तब खुसरा मन में हांसिन
34 खुसरा हा खुसरी ला पाइस, बाम्‍हन पाइस टक्का
     सबो बरातिया बरा सोहारी, समधी धक्का धक्का

35 सोन चांदी गहना गुठ्‌ठा, अऊ पाइन एक छल्ला
     रूपिया पैसा बहुत से पाइन, नौ खाड़ी के गल्ला
36 सूपा टुकना चुरकी सुपली, खुसरा दाईज पाईन
     गढ़ अम्बा से बिदा कराके, अपन नगर में आईन
37 गांव के बाहिर डोला आवय, तब गिधवा डोला उतारय
     बेटा ले बहुरिया बड़े, कइसे दीन निकारय
38 सबो चिरई खुसरा घर आके, नेवता खायेला बैठिन
     गरूड़ चिरैया पूछी मरोड़य, कर्रा मेछा ऐठिन
39 कोने ल देवय सोन चांदी, कोनो ल देवय लुगरा
     कोनो ल देवय लहंगा साया, कोनो ल देवय फुंदरा

आरंभ वाले संजीव तिवारी और बस्‍तर बैंड वाले अनूप रंजन, तीर्थ-लाभ हम तीनों ने साथ-साथ लिया, लेकिन प्रसाद वितरण का जिम्‍मा मैंने ले लिया।

यहां आए सभी नामों के प्रति आदर-सम्‍मान।