26 अप्रैल 2011, मेरे लिए अब खास तारीख है। अपने पंछी-प्रेम की घोषणा आसान हो सकती है, लेकिन पंछी भी बच्चों की तरह आप पर आसानी से भरोसा नहीं करते। बड़े होते बच्चों को बहला-फुसला सकते हैं, लेकिन चिड़ियों को नहीं। पालतू बन जाने वाले कुछ पक्षियों को छोड़ दें, लेकिन उनमें भी तोते के लिए कहावत है 'सुआ, सुई और ... एक जाति, जान-पहचान के चलते मुरव्वत नहीं करते, बस नजर चूकी और काम हुआ। ... सालिम अली और जिम कार्बेट के चित्र जरूर देखने को मिलते हैं, जिनमें कोई चिड़िया उनके कंधों पर, हाथ में या हैट पर बैठी हो।
आत्म-केन्द्रित इस पोस्ट की संक्षिप्त भूमिका के साथ पृष्ठभूमि कि हफ्ते भर कभी-कभार और दो-तीन दिन लगभग लगातार एक पंडुक (Dove या Streptopelia senegalensis) दिखाई पड़ने लगी। आती, एकदम सजग। अच्छी तरह निरखा-परखा। घर में कोई अबोध-उधमी तो नहीं। सांप, चूहे-बिल्ली की तो दखल नहीं। हवा-पानी, सरद-गरम, ओट सब मुआफिक, निरापद। पंडुक पर मेरी भी निगाह बनी रही। मैदानी छत्तीसगढ़ में यही चिडि़या पंड़की (बघेलखंड से लगे क्षेत्र में पोंड़की) कही जाती है और अपनी जाति की बुढ़ेल, बनइला, छितकुल, चोंहटी और ललपिठवा से अलग पहचानी जाती है।
दसेक दिन बीतते-बीतते, इस यादगार तारीख 26 अप्रैल को सुबह देखा कि पंडुक ने मेरी नियमित बैठकी से सिर्फ 10 फुट दूर रखे गमले में दो अंडे दिए हैं। 28 अप्रैल को शाम से मौसम खराब रहा, वह रात भर नहीं दिखी, 29 अप्रैल को कम दिखी, फिर अनुपस्थित रही, 3 मई को पुनः दिखाई पड़ी, लेकिन यह चिड़िया आकार में कुछ बड़ी जान पड़ती है, नर जोड़ा तो नहीं ? फिर उसने रात बासा किया और 4 मई को सुबह तीसरा अंडा दिखा। 5 मई को चौथा अंडा भी दिखा। 8 मई को उसने एक अंडा अलग हटा दिया, लेकिन मैंने मान लिया कि पंडुक ने मुझे पक्षी-प्रेमी होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। नेचर सोसाइटी और बर्ड वाचिंग क्लब की सदस्यता लेने का दीर्घ लंबित इरादा फिर मुल्तवी।
पंडुक आते-जाते अंडे ''से'' रही है, पूरे धैर्य के साथ, लेकिन मेरा काम सिर्फ निगरानी से तो नहीं चलेगा, मुझे पोस्ट भी तो लगाते रहना होता है, फिर आत्मश्लाघा का ऐसा अवसर। खुद को बहलाने की कोशिश की, थोड़ी खोजबीन कर पंडुक पर एक कायदे की पोस्ट बने तब लगाना ठीक होगा। याद कर रहा हूं- ''वो भी क्या दिन थे, जब फाख्ते उड़ाया करते थे'' ज्यों ''वे भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था।'' शायद पंडुक से आसान शिकार कोई नहीं- ''बाप न मारे पेंडुकी (कभी मेंढकी भी), बेटा तीरंदाज'' और ''होश फाख्ता हुए'' कह कर, इस पंछी का नाम उड़ने के पर्याय में तो इस्तेमाल होता ही है। ईसाईयों में पवित्र आत्मा का प्रतीक और चोंच में जैतून की डंठल लेकर उड़ती चिडि़या, पंडुक ही है। छत्तासगढ़ी गीत ''हाय रे मोर पंडकी मैना, तोर कजरेरी नैना, मिरगिन कस रेंगना'' में पंडकी, प्रेम-संबोधन है। पंडुक का मनियारी गोंटी चरना (छोटे, गोल और चिकने मणि-तुल्य कंकड़ चुगना), साहित्यिक मान्यता नहीं, देखी-जांची हकीकत है।
इस पंछी के कुछ और संदर्भ याद आ रहे हैं। डेनियल लेह्रमैन का कथन- ''हरेक अच्छे प्रयोग को उत्तरों से ज्यादा सवाल खड़े करना चाहिए।'' (Every good experiment has to raise more question than its answers.- Daniel S Lehrman) उद्धृत करता रहा हूं, लेकिन इसी दौरान जान पाया कि यह बात उन्होंने पंडुक के प्रजनन व्यवहार के संदर्भ में ही कही है।
रेणु की परती परिकथा के आरंभ में वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी पंडुकी व्यथा समझती है और वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है- तुर तुत्तू-उ-उ, तू-उ, तु-उ तूः। कुमाऊंनी लोककथा में घुघूती यानि पंडुक ''पुर पुतइ पुरै पुर'' बिसूरती फिरती है। इससे मिलती-जुलती बस्तर की भतरी लोककथा में पंडुक रो-रो कर अपने मृत बच्चे को जगाती है- 'उठ पुता, उरला-पुरला' और हल्बी छेरता गीत की पंक्ति है- 'झीर लिटी, झीर लिटी, पंडकी मारा लिटी।' शायद इन्हीं से प्रेरित हैं छत्तीसगढ़ के कवि एकांत श्रीवास्तव की 'पंडुक' कविता-
''जेठ-बैशाख की तपती दोपहरें
........................
पृथ्वी के इस सबसे दुर्गम समय में
वे भूलते नहीं हैं प्यार
और रचते हैं सपने
अंडों में सांस ले रहे पंडुकों के लिए''
परती परिकथा का समापन है- ''पंडुकी नाच-नाच कर पुकार रही है- तुतु-तुत्तु, तुरा तुत्त। ... ... ... आसन्नप्रसवा परती हंसकर करवट लेती है।'' मानों बिसूरती पंडुक अब लाफिंग डॉव है।
खुद को इससे अधिक बहला पाने में असफल, सोचते हुए कि ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट'' का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है। फिलहाल यही जारी कर रहा हूं, पंडुक के हवाले से, हस्ताक्षरित नहीं चित्राक्षरित, बिना पदमुद्रा के लेकिन प्राधिकारपूर्वक स्वयं से, स्वयं को, स्वयं के लिए टाइप।
- यों, पंछी-प्रेम के इस प्रमाण-पत्र पर मुझसे अधिक घर के बाकी सदस्यों का अधिकार बनता है, क्योंकि वे ही पूरे समय घर में रहते हैं, लेकिन 'कलम' की ताकत है, सो यह खुद के नाम कर लिया है।
- गलतफहमी न रहे, खासकर शाकाहारवादियों को स्पष्ट कर दूं कि मैं (घर के अन्य सदस्यों सहित) सर्वभक्षी नहीं तो 'हार्ड कोर' मांसाहारी अवश्य हूं।
- यह भी कि रायपुर में घरों के इर्द-गिर्द गौरैया के बाद सबसे आम यही चिड़िया, पंडुक दिखाई देती है।
याद करता हूं, नृतत्व-मनोविज्ञान में आहार, निद्रा, भय, मैथुन के अलावे मूल प्रवृत्ति के रूप में 'मातृत्व' (वात्सल्य या mother instinct) हाल के वर्षों में मान्य-स्थापित हुआ है। कल 8 मई 2011 को इस पोस्ट (को सेते हुए) की उधेड़-बुन में लगा रह कर, मातृत्व-वंचित वर्ग के सदस्य के रूप में मातृत्व-संपन्न नृवंशियों को नमन करते हुए, मातृ-दिवस मनाया।
@ "8 मई को उसने एक अंडा अलग हटा दिया,"
ReplyDeleteराहुल जी,
पंडुक का मातृत्व भी अफलद्रुप अंडे का मोह त्याग देता है।
ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी-
ReplyDeleteपँड़ुकी आप के यहाँ भी!
pigeon और dove का बारीक अन्तर लोगों को पता चलेगा।
पोस्ट बहुत अच्छी लगी, विशेषकर परती परिकथा के सन्दर्भ।
सादर,
गिरिजेश
कोई दो साल पहले मैंने भोपाल में वन विहार और बड़ी झील में नियमित रूप से होने वाले बर्ड वाचिंग कैम्प में सिस्सा लिया था. लगभग पूरे दिन का कार्यक्रम था. हमारे साथ विशेषज्ञ भी थे. दूरबीन की सहायता से अनेक पक्षियों को देखा और उन्हें पहचानना भी सीखा था. बहुत आनंददायक अनुभव था. मैंने तय किया था अब नियमित बर्ड वाचिंग किया करूँगा. पर हाय यह शौक भी बहुत कितने ही अरमानों की तरह मन मैं ही दबा रह गया.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट. और फिर से मुझे इस इच्छा को पूरी करने की प्रेरणा मिली है. आपका पक्षी प्रेम पहले भी आपके ब्लॉग पर परिलक्षित हुआ है. प्रणाम आपको और आपके प्रयासों को.
सिस्सा = हिस्सा
ReplyDeleteराहुल जी, आपने पंडुक की तस्वीर नहीं लगायी। खैर पोस्ट बहुत अच्छी लगी। पक्षियों को निहारना, उनकी हरकतें देखकर आनन्द लेना मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। मुझे याद है बचन में हम गौरैया को पकड़कर उसके पैर में धागा बांध देते थे और फिर उसे उड़ा देते थे। धागे का एक सिरा हमारे हाथ में होता था। पक्षियों का कलरव मन में एक उत्साह जगाता है।
ReplyDeletenai tarah kee jankari milti hai aapki posts se ..
ReplyDeleteabhaar.
मेरे एक पक्षी प्रेमी दोस्त हमेशा कहते हैं कि जब तक आप पक्षियों को निहारना पसंद करते हैं तभी तक आपके अंदर का इंसान जिंदा रहता है।
ReplyDeleteआपका हर एक पोस्ट एक से बढ़कर एक होता है! बहुत ही सुन्दर और जानकारी से भरपूर पोस्ट के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteमातृत्व दिवस पर प्रकृति प्रेम को जोड़ने वाली पोस्ट पंडुक आपकी हर पोस्ट की तरह लाजवाब है...
ReplyDeleteबहुत जानदार पोस्ट!
ReplyDeleteमेरे आस पास के पक्षी की सुध ली आपने। बहुत धन्यवाद! कभी टिटिहरी/कुररी को भी पोस्ट में लीजियेगा। गंगा की रेती में बहुत दीखती हैं!
छत्तीसगढ़ मे turtle dove spotted dove common dove तो आसानी से देखे जा सकते हैं पर एक emerald backed dove भी मिलता है पर आज कल इसका दिखना बेहद कम हो गया है यह संरक्षित वनो मे बेहद मुश्किल से ही दिखाई पड़ता है ।
ReplyDeleteमेरे साथ तो यह कई बार हो चुका है. सुई, सुआ, और .... कई बार काट चुके हैं.
ReplyDeleteखैर. पंडुक से कोई सगुन जुड़ा है ऐसा कहीं पढ़ा है. खोजना पड़ेगा. पंडुक के स्पष्ट चित्र की कमी खल रही है.
एक अनदेखी कर दी जानेवाली घटना का छोटा सा छोर पकड़ कर उसे बहुविध बहुआयामी बना देना तो कोई आपसे सीखे!
एक बार अण्डों से बाहर नये पंडुक आयें तो फिर तस्वीर पोस्ट कीजियेगा.
ReplyDeleteगमले में अंडे देना आश्चर्य ही लगा ! खैर अब उनका ध्यान रखियेगा !
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
ज्ञानभरी पोस्ट, रोचक चित्र।
ReplyDeleteआप भले ही 'हार्ड कोर' मांसाहारी होने का दम भरें लेकिन इन्हीं अंडों से पैदा होकर निकल उड़ने वाले पक्षियों को कल कभी अपना निवाला बना पाएंगे !...
ReplyDeleteइस पंडुक को हम कुमाउनी लोग घुगुती कह कर पुकारते हैं. कुमाउनी लोक साहित्य में भी इस पक्षी का एक विशेष स्थान है. ये विराहनियों के सन्देश उनके पतियों तक ले जाती है. इसकी आवाज स्त्रियों को उनके मायके की भी याद दिलाती है. बहुत से कुमाउनी लोक गीत भी घुघूती की बातें करते हैं. अपने इस हिंदी ब्लॉगजगत में एक प्रसिद्द ब्लोगेर भी हैं जो "घुगुती बासूती" अर्थात "घुगुती बोलती है" शीर्षक से अपने मन की बात कहती हैं और क्या खूब कहती हैं.
ReplyDeleteदिल्ली में तो हम लोग इसे "फ़ाक्ता" कहते हैं. मैं तो अभी तक इसे बहुत ही शर्मीला पक्षी मनाता था क्योंकि इसका प्रणय, इसका घोंसला और इसके बच्चे मैंने कभी भी खुले में नहीं देखे. मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा है जब मैं इसके अंडे यूँ गमले में एकदम खुले में पड़े देख रहा हूँ क्योंकि फ़ाक्ता तो ज्यादातर घनी झाड़ियों या अनार जैसे झाड़ीनुमा पेड़ों में ही अपना एक छोटा पर व्यवस्थित और प्यारा सा घोंसला बनती है और मैंने तो अक्सर उसमे इसके एक या दो ही अंडे देखे हैं. परन्तु मेरे ये सब अनुभव एकदम लेटेस्ट नहीं है. हो सकता है की अब की फ़ाक्ता बिना घोसला बनाये इस प्रकार गमले में चार पञ्च अंडे देती हुयी हिचकती न हो.......क्या कहूँ.... कलयुग है घोर कलयुग :))
या फिर हो सकता है आपके घर के आस पास घने पेड़ों और झाड़ियों की कमी है.
बहुत सुंदर पोस्ट ,अंडो से बच्चे निकले या नही अभी, ओर बिल्ली का भी ध्यान रखे, वैसे पक्षी भी धन्यवाद देते हे, हमारे घर के साथ एक नदी बहती हे, कुछ दिन पहले काई मे एक पक्षी गिर कर फ़ंस गया, ओर उस पर मेरी नजर पडी तो मैने दास्ताने पहन कर उसे बाहर निकाला ओर साफ़ कर के उसे एक जगह धूप मे बिठा दिया, दुसरे दिन वोही पक्षी मेरे बाहर निकलने पर बार बार मेरे सर के आस आप उडे ओर चीं ची की आवाज करे जैसे बहुत खुश हो.
ReplyDeleteज्ञान और रोचकता का समावेश आपकी इस पोस्ट की सार्थकता को निर्धारित करता है .....आपका आभार
ReplyDeleteवाह -क्या मगन करती पोस्ट !ईसाईयों का पूज्य है पंडुक !
ReplyDeleteफाख्ता जैसी कम चर्चित चिड़िया पर लाजवाब पोस्ट ...
विचार शून्य से पहली बार घुघूती और घुघूती बासूती का अर्थ ठीक से समझ पाया -
उन्हें भी आभार !
सालिम होते तो पहले झट से एक अंडे का आमलेट खाते और मुर्गी के अंडे के आमलेट से उसकी तुलना करते -
वैज्ञानिक और साहित्य कार का अंतर यहीं स्पष्ट होता है! क्यों?
मातृत्व के अहसास के साथ उसके कुशल प्रस्तुतिकरण के लिए मेरी ओर से शुभकामनाएं............
ReplyDeleteरुद्र अवस्थी,बिलासपुर
रोचक पोस्ट।
ReplyDeleteपंछीवाद और ज्यादा मोहक और रोचक बन जाना चाहिये आधुनिक काल में। यह फैशन के रास्ते आ जाये तो भी भला।
मातृ दिवस के साथ पक्षियों के नये अजन्मे बच्चों का अवलोकन । कुछ विशिष्ट संयोग भी लगा । शुभकामनाएं व आभार सहित...
ReplyDeleteश्रीमान दिल को छूता आलेख .कायल हुआ आपका,आम तोर पर बहुत साधारण लगने वाली पर ध्यान से देखो तो बहुत गहरी और जानकारियाँ उपलब्ध कराती बात आप फरमाते हैं .....यह भी कि रायपुर में घरों के इर्द-गिर्द गौरैया के बाद सबसे आम यही चिड़िया, पंडुक दिखाई देती है...हाँ मगर कब तक.. मेरे आस पास से तो ये चिडियाएँ लगभग रूठ सी गयी है .बाहरहाल मैं आपके सलीके और सरोकार को सलाम करता हूँ .आभार
ReplyDelete"संवेदना के स्वर" पर बिलकुल ऐसी ही पोस्ट लिखनी थी... बिलकुल यही घटना और यही तस्वीरें.. आज इस पोस्ट को पढकर यादें ताजा हो आयीं.. अंतिम पंक्तियों ने द्रवित कर दिया मन!!
ReplyDeleteमुझे इस पोस्ट के मूल से कुछ जानना है, कि उसने कितना वक्त अपने अध्ययन के लिए तय कर रखा है, कितना वक्त चिंतन और कितना लेखन को दे रखा है। दीख पड़ता है, अध्ययन के वक्त में चिंतन का अतिक्रमण। जान पड़ता है, चिंतन की परिधि में घुस लेखन ने ललकारा है। बहुत खूब। समिश्रण की सर्वश्रेष्ट पोस्ट। मिनिटों की यह जंजीर क्यों इतनी जकड़ी सी है, किताब के बर्खों को खोलता हूं तो ऑफिस के कंप्यूटर की स्क्रीन दिखती है। लिखने कुछ कलम उठाता हूं , तो मोबाइल फोन की एसएमएस या कॉल की घंटी घनघनाती है। शायद इसे ही पत्रकार या कुछ न करनेकार कहते हों। पोस्ट आपकी पढ़ी अफसोस मुझे अपने अनअध्ययनशील होने का हो रहा है। चलिए आपको एक बार फिर से बधाइयां।
ReplyDeleteसरस ललित निबन्ध का अवर्णनीय आनन्द देनेवाली रोचक और ज्ञानवर्ध्दक पोस्ट। सुबह सुहावनी हो गई।
ReplyDeleteअत्यन्त रोचक पोस्ट .. राहुल जी । आधुनिकता को दौर में .. आपके पोस्ट .. प्राकृतिकता को जिंदा रखने में सहायक हैं । बधाई ।
ReplyDelete- डा. जे.एस.बी. नायडू
आपकी अवलोकन क्षमता और धीरज को दाद देनी पड़ेगी।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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मुझे तो डर लग रहा है कि फर्श के इतने करीब गमला और उसमें अंडे सेती पंडुक... अपने यहाँ तो हर समय घूमती बिल्लियाँ अभी तक न जाने क्या कर दीं होती... आपको अतिरिक्त सावधानी-सुरक्षा बरतनी होगी !
...
दिलचस्प आलेख. आभार.
ReplyDeleteआपके आलेख ज्ञानवर्धक और रोचक होते हैं।
ReplyDelete‘हाय रे मोर पंड़की मैना‘ का उल्लेख अच्छा लगा।
ज्ञान वर्धक जानकारी भरा आलेख
ReplyDeleteशुभकामनाये
पंडुक पक्षी अपने जोड़े के साथ ही रहने के लिए प्रसिद्द ही.
ReplyDeleteबिना जोड़े के अकेले दिखाई नहीं देता.
खेत जाते समय इन्हें रास्ते में गोटियाँ बीनकर खाते हुए देखना.
मेरी दिन चर्या मेन शामिल था.
इन्हें प्रेम का प्रतीक माना जाता रहा है.
आपकी पोस्ट से ज्ञानरंजन हुआ...आभार
सबसे पहले मेरा आपको प्रणाम |
ReplyDeleteआज फिर इतनी मेहनत से एक और खुबसूरत पोस्ट हमारे समक्ष लाने का बहुत - बहुत शुक्रिया | बहुत खूबसूरती से प्रकृति के अंश को आपने चित्रित किया और साथ में सुन्दर तस्वीरे प्रमाण सहित | बहुत सी जानकारियां मिली |
आपका आभार |
आपकी विलक्षण दृष्टि ही है जो कहाँ कहाँ की सैर कराती रही और ध्यान गमले से भी नहीं हटा।
ReplyDeleteगुडलक टु ’पेंडुकी परिवार।’
बहुत ही मन को छूने वाली पोस्ट लगी ये....इतने विस्तार से इस चिड़िया के बारे में लिखा...एक नया नाम भी पता चला...वरना हम तो dove ही जानते थे
ReplyDeleteराहुल जी इससे अच्छी पोस्ट मैंने ब्लॉगजगत में आज तक नहीं पढ़ी। भाषा शैली का चमत्कार तो है ही, इसमें जो साहित्य और विज्ञान का सम्मिश्रण आपने किया है वह अद्भुत है।
ReplyDeleteआपके इस आलेख से बहुत कुछ सीखने को मिला, खासकर एक बहुत अच्छा आलेख किस तरह लिखा जाता है।
बंगाल में इसे घुघ्घु कहा जाता है। घोंसला बनाने के लिए ये किसी एकांत जगह पर झाड़ी का चुनाव करते हैं, आपके गमलों से बेहतर और क्या हो सकता था, चित्र तो यही दर्शाते हैं। एक एक चित्र अनमोल निधि है।
आभार इस बेहतरीन पोस्ट को पढवाने के लिए।
Are wah, aaj kal humen bhee bird watching ka saubhagy mil raha hai. nili peeli chidiyan jinka hum nam nahee jante yahan Martin'sberg me dekane ko mil rahee hai. Aage aap batayen ki kitane dino bad ande foote aur bachche nikale unke chitr bhee den to sone men suhaga.
ReplyDeletebahut hi badiya prastuti... maine bhi apne ghar mein money plant mein BULBUL ke andon aur unse nikalte bachhon ko dedha hai abhi kal hi we bade hokar ude hain .. main bhi apne blog par unke baare mein likhne jaa rahi hun ... aaj aapki post padhi to bahut achha laga...
ReplyDeletesach mein prakriti se judhna kitna sukhkar hota hai...
aapka aabhar
prakriti prem kee jhalak hai lekh men . sunder.
ReplyDeleteमातृत्व दिवस पर इससे बढ़िया आलेख, मेरा दावा है, और कहीं नहीं पाया जा सकता. एक जोड़ा हमारे घर के इर्द गिर्द भी चहल कदमी कर रहा है. अण्डों को सेने के बाद वाली स्थितियां अनुकूल रहें. आभार.
ReplyDeleteपंड्की पर विस्तृत जानकारी देते हुए पोस्ट को मातृत्व-दिवस के सन्दर्भ में जोड़ना,राहुल सिंह की विशिष्टता को दर्शाता है.आपके लेखन-कौशल को नमन.मेरा परिवार भी पक्षी प्रेमी है.हम कभी अपने अनुभवों को लिपिबद्ध करेंगे." वा रे ! मोर पंड्की मैना " की स्मृति ने १९८२ में पहुँचा दिया.
ReplyDeleteज्ञानवर्धक तथा रोचक पोस्ट
ReplyDeleteसरजी पंडुक का चित्र होता तो अन्दाज लगता कि हमारे इधर भी चिडिया होती होगी उसे और कुछ नाम से जाना जाता होगा।ा बडे मुहावरों का प्रयोग कर डाला सर। क्या मैना का यह नाम है क्या ? मनियारी गोंटी चरना एसी कहाबत इधर बुन्देलखण्ड में प्रचलित नहीं है। आपके गमले बडे खूबसूरत लगे। धन्यवाद
ReplyDeleteआधुनिक वास्तु युग में घरों में पक्षियों के घोंसले बनाने की बातें तो सिर्फ स्मृतियों में ही रह गई हैं. गमले में अंडे देना शायद इस पक्षी का भी इन परिस्थितियों के साथ सामंजन ही है. आभार इस भावपूर्ण पोस्ट का.
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
पोस्ट बहुत अच्छी लगी | हमारे हर में एक कबूतर ने ऐसे ही गमले में एक अंडा दे दिया था किन्तु न जाने क्यों उन्होंने दो दिन उसके पास आना छोड़ दिया हमने तो उस गमले में पानी देना छोड़ दिया था पौधा भी सुख गया और अंडे से बच्चे भी नहीं निकले |
ReplyDelete@मातृत्व-वंचित वर्ग के सदस्य के
माँ बच्चे को सिर्फ जन्म दे कर ही नहीं बना जाता, कहते है न पालने वाला जन्म देने वाले से बड़ा होता है यानि पालन पोषण करने वाला भी माँ बन सकता है और ये तो हर कोई कर सकता है आप जन्म देने से वंचित हो सकते है मातृत्व सुख से नहीं | ऐसा मुझे लगता है |
ई-मेल से प्राप्त-
ReplyDeleteआदरणीय राहुल सिंह जी,
बहुत ही सुन्दर पोस्ट के लिये बधाई और आभार भी।
पोस्ट पढ़ने के बाद से प्रतिक्रिया व्यक्त करने की सोच सोच कर रह जाता था। अब जा कर लिख पा रहा हूँ। पँड़की को बस्तर के हल्बीभतरी परिवेश में पँडकी' कहा जाता है। इसके करुण स्वर में पुकारने के पीछे एक मिथ कथा बस्तर में प्रचलित है। कथा कुछ इस प्रकार है :
एक थी पँडकी। वह बहुत ही मेहनती और ईमानदार थी। मेहनतमजदूरी कर अपना और अपने बच्चों का पेट पालती थी। वह रोज राजा के घर जाती थी धान के लिये। वहाँ से लाती थी धान और कूट कर चावल वापस राजा के घर. पहुँचा आती थी। बदले में राजा के घर से उसे पारिश्रमिक स्वरूप कनकी और चावल मिल जाया करता था। एक दिन की बात। चावल के कुछ दाने उसके एक बच्चे ने चुग लिये। यह देख कर पँडकी को बहुत गुस्सा आया अपने बच्चे पर। चावल के दाने कम होने पर उसकी ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह जो लगने वाला था। उसने गुस्से में आव देखा न ताव, बस! उठाया मूसर (मूसल) और दे मारा उस बच्चे के सिर पर और चावल ले कर चली राजा के घर। वहाँ पहुँच कर उसने चावल नापा तो देखा, चावल को जितना होना चाहिये था उससे कहीं अधिक था। यह देख कर उसे अपने बच्चे के साथ किये गये अपने व्यवहार पर पछतावा होने लगा। वह तुरन्त डेरे पर लौटी तो देखा उसका वह बच्चा मरा पड़ा था। तब वह शोकसंतप्त हो कर उसे उठाने लगी, उठ पुता! उरली पुरली, उरली पुरली।'' वह दुःख और आत्मग्लानि से भर उठी। तभी से वह विलाप करती, यही कहती हुई करुण स्वर में अपने मृत बच्चे को उठा रही है।
उठ पुता का अर्थ है, उठ बेटे। उरली का अर्थ है, अतिशेष और पुरली का अर्थ है पूरा हो जाना।
रेणु मेरे पसंदीदा कथाकारों में से एक रहे हैं। एकांत श्रीवास्तव छत्तीसगढ़ के गौरव हैं।
Harihar Vaishnav
Sargipalpara
Kondagaon 494226
Bastar - C.G.
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लाजवाब पोस्ट.. एक अनोखे विषय पर.. आपकी हर पोस्ट उस विषय पर एक 'पेपर' की तरह होती है..लिखने के पहले किया गया शोध-कार्य स्पष्ट दिखता है.. रही-सही कसर्र टिप्पणियाँ पुरी कर देती हैं.. बधाई..
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