गौरवशाली वैभव जब छीजने लगता है और मुट्ठी की रेत की तरह उसे रोक पाने का प्रयास सफल नहीं होता तब इतिहास-संस्कृति के अभिलेखन का आग्रह भी तीव्र होने लगता है और इसी तरह का भाव संभावित गौरवशाली भविष्य के लिए भी होता है। माना यह जाता है और देखा भी गया है कि ऐसे अवसरों पर तैयार किया गया सांस्कृतिक-इतिहास तटस्थ नहीं होता लेकिन मात्र इसी आधार पर किसी ऐसे काम के महत्व को कमतर नहीं आंका जा सकता।
प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल की पुस्तक क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति |
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य पर हो रहे फुटकर लेखन के साथ, इस विषय पर पहली स्वतंत्र पुस्तक प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल की 'क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति' पिछले दिनों आई है। पृथक छत्तीसगढ़ की गतिविधियों में प्रो. शुक्ल की सक्रिय भागीदारी रही है। बघेलखण्डी प्रो. शुक्ल फिलहाल भोपाल निवासी हैं, किन्तु उनकी सर्वाधिक सक्रिय अवस्था छत्तीसगढ़, विशेषकर बस्तर में गुजरी है, इसलिए वे मन से छत्तीसगढ़िया ही हैं, यह न सिर्फ पुस्तक में बारम्बार झलकता है, बल्कि इस लेखन के पीछे भी उनका छत्तीसगढ़िया मन ही प्रेरक जान पड़ता है।
लेखक स्वयं के शोध-अध्ययन का क्षेत्र मूलतः भाषाविज्ञान के मार्फत सामाजिक मानवशास्त्र रहा है, तो उन्होंने छत्तीसगढ़ की क्षेत्रीय अस्मिता को भी मुख्यतः इसी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। कुल 161 पृष्ठों की पुस्तक में 108 पृष्ठ, मौखिक इतिहास और क्षेत्रीय अस्मिता के हैं बाकी 35 पृष्ठों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता और क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति का विवेचन है। शेष पृष्ठों में उपसंहार- 'अलविदा मध्यप्रदेश' और परिशिष्ट- 'गोंडवाना के संघर्ष की आत्मकथा' है। पूरी पुस्तक, लेखक की छत्तीसगढ़ में गहरी पैठ और गंभीर अध्ययन का प्रमाण है।
पुस्तक की तैयारी संभवतः जल्दबाजी में की गयी है, इसलिए जानकारियों से ठसाठस इस पुस्तक का स्वरूप पाठ्य पुस्तक, वैचारिक निबंध और शोध-लेख में गड्ड-मड्ड होता रहता है। विशेषकर आरंभिक अध्यायों में शोध की गहराई है, किन्तु सहायक सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची अथवा स्पष्ट पाद टिप्पणियों का अभाव है। 'छवि छत्तीसगढ़', 'आदिवासी इतिहास के दस खंड', 'छत्तीसगढ़: आत्ममंथन का दौर' और 'कोसलानंद' महाकाव्य की चर्चा अधूरी जान पड़ती है, संभवतः लेखक ने पाठक को इन सभी से सुपरिचित मान लिया है, लेकिन आम पाठक इससे भ्रमित हो सकता है। यही भ्रम और जल्दबाजी प्रकाशक के साथ भी रही होगी, क्योंकि पुस्तक की भूमिका के अनुसार इसमें चार अध्याय हैं, विषय सूची के अनुसार पांच अध्याय और पृष्ठों पर मुद्रित अध्याय शीर्षकों के आधार पर मात्र तीन अध्याय हैं। इसके बावजूद भी लेखक की सूझ और समझ, अंचल के प्रति उसकी नीयत और निष्ठा संदेह से परे है।
छत्तीसगढ़ के गरमा-गरम मुद्दे के साथ लेखक ने भाषाविज्ञानी होने के नाते हाल के वर्षों में पूरी दुनिया में प्रचलित 'जनसामान्य का इतिहास' अथवा 'हाशिये का इतिहास' (उपाश्रयी, सब-आल्टर्न) की कड़ी जोड़ते हुए कहा है- ''इतिहासकार 'संरचना' और 'संप्रेषण' की तकनीकों से इतिहास की गहराई के साथ पहचानें। मौखिक इतिहास की यही संकल्पना है और इसी सांचे के आधार पर असाक्षर समाज का इतिहास भविष्य में प्रस्तुत हो सकेगा।'' लेकिन मौखिक इतिहास खंड में लेखक ने बस्तर की हल्बी-भतरी की कुछ पहेलियों की सूची देते हुए ढाई सौ पहेलियों का संकलन प्रकाशित कराया है, उपयुक्त होता यदि अंचल की सभी बोलियों और क्षेत्रों की चार-पांच पहेलियों के उदाहरण से लेखक ने विषय स्पष्ट किया होता।
आरंभिक अध्यायों में भाषाविज्ञान के सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में मौखिक इतिहास के पक्षधर लेखक बाद के अध्यायों में तथ्यों पर जोर देते हुए लिखते हैं- 'ज्ञान का क्षेत्र संशोधन आमंत्रित करता है और परिशुद्ध तथ्यों की परख चाहता है।' और फिर लिखित इतिहास के स्रोत और पुस्तकों-जानकारियों की विशद् चर्चा, लेखक के निजी विचारों के चौखट में की गई है। संभवतः लेखक के निजी सर्वेक्षण के अभाव में छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण भू-भाग सरगुजा छूट गया है, इसलिए जन नेताओं की सूची में गहिरा गुरू और राजमोहिनी देवी जैसे नामों का कोई हवाला पुस्तक में नहीं है। गंभीर विश्लेषक लेखक द्वारा बिना तथ्यों के सुतनुका देवदासी और घोटुलों को रति-संस्कृति के विकास का माध्यम निश्चित कर देना, शोभाजनक नहीं है।
उपसंहार में 'अलविदा मध्यप्रदेश', राजेन्द्र माथुर के उद्धरणों से अत्यंत महत्वपूर्ण और रोचक है। परिशिष्ट 'गोंडवाना के संघर्ष की आत्मकथा' में भी बस्तर का दबदबा और सरगुजा का अभाव है। हीरासिंह मरकाम के उल्लेख में तथ्यों का अभाव खटकता है। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि मुसलमान इतिहासकारों द्वारा किये गये नामकरण 'गोंडवाना' पर लगभग 70 वर्ष पहले आंचलिक प्रथम मानवशास्त्री डॉ. इंद्रजीत सिंह ने विश्वसनीय और अधिकृत सर्वेक्षण-अध्ययन विस्तार से किया था, जो सन् 1944 में 'द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ, वस्तुतः पूरे छत्तीसगढ़ के भौगोलिक परिवेश में जनजातीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को प्रकाशित करने का यही प्रथम गंभीर तथ्यात्मक प्रयास था, जो बाद में गोंडवाना और फिर छत्तीसगढ़ की अस्मिता तलाश के वर्तमान छटपटाहट की पृष्ठभूमि बना।
राजनीति पर लिखी गई यह पुस्तक, गनीमत है कि दलगत राजनीति से बिल्कुल प्रभावित नहीं है। वैचारिक राजनीति की दृष्टि से न सिर्फ पुस्तक का आवरण, बल्कि पूरी पुस्तक का तेवर भी लाल है। 'विरोध', 'विपर्यास', 'विद्रोह', और 'संघर्ष' पर पूरे विस्तार से विचार किया गया है, किन्तु प्रतीकात्मक विरोध के माध्यम से संस्कृति की सोपानिक संरचना को समझने का प्रबल आग्रही लेखक, 'मितानी' प्रथा में समरसता और समन्वय को भी माध्यम बनाने को मजबूर हुआ है। पुस्तक को दलगत राजनीति से बचाये रख सकने में लेखक की सफलता प्रशंसनीय इसलिए भी है, क्योंकि राजधानी- भोपाल के सत्ता के गलियारों में वे 'दाऊ के सर' (मंत्री डॉ. चरणदास महंत के शोध-निदेशक होने के नाते) के रूप में ख्यात हैं और उनकी विद्वता की गहराई से अनभिज्ञ जनसामान्य भी उन्हें, इसी परिचय से जान पाता है।
अनामिका प्रकाशन की छपाई अच्छी है, किंतु पुस्तक का मूल्य 250/- रखा गया है, जिससे लगता है कि पुस्तक का लक्ष्य-वर्ग आम पढ़ा-लिखा छत्तीसगढ़िया नहीं, बल्कि शासकीय विभाग, पुस्तकालय और पुस्तक को सजावट-उपकरण मानने वाला धनाढ्य है, कहीं पुस्तक वहीं तक न सिमट कर रह जाय। बहरहाल इन सबके बावजूद पृथक छत्तीसगढ़ पर तथ्यों और जानकारियों से लबालब यह पहली पुस्तक स्वागतेय है।
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पहले, इस पुस्तक के प्रकाशन के तुरंत बाद मेरे द्वारा तैयार की गई यह पुस्तक चर्चा, दैनिक भास्कर, रायपुर में 14 जुलाई 1998 को और इसी आसपास समाचार पत्र नवभारत में भी प्रकाशित हुई। छत्तीसगढ़ राज्य गठन का दशक बीत गया और लगा कि पुस्तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए भी पठनीय हो सकता है, अतएव यहां।
क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति और उस पर लिखी गयी हीरा लाल जी की पुस्तक के बारे में आपने बहुत तटस्थ विवेचन किया है ....निश्चित रूप से जिन बिन्दुओं को आपने उठाया है वह काबिल- ए -तारीफ हैं ...आपका आभार इस जानकारी भरी पोस्ट के लिए ..!
ReplyDeleteसमीक्षा पढ़कर पुस्तक के बारे में विस्तृत जानकारी मिली !
ReplyDeleteआभार !
पुसतक की समीक्षा के माध्यम से छात्तेसगढ़ के बारे में कई जानकारियाँ मिली.
ReplyDeleteछात्तेसगढ़ = छत्तीसगढ़
ReplyDeleteबढ़िया विवेचन किया है आपने, शुभकामनायें !
ReplyDeleteप्रोफेसर हीरालाल शुक्ल की पुस्तक क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति-परिचय के लिए आभार !
ReplyDeleteरोचक समीक्षा की है, मँहगी है तो क्या हुआ?
ReplyDeleteबढ़िया विवेचन आभार इस जानकारी भरी पोस्ट के लिए ..
ReplyDeleteपुस्तक की समीक्षा के साथ-साथ उस क्षेत्र की जानकारी बाँटने की कृपा की है आपने !
ReplyDeleteआभार सहित !
उस क्षेत्र के अध्ययन में रुचि रखने वालों केलिए निश्चित रूप से एक संग्रहणीय पुस्स्तक.. एक बेहतरीन समीक्षा..
ReplyDeleteशीर्षक पढ़ते ही मुझे महाराष्ट्र में फलाना ढेकाना के नाम पर की जाने वाली अस्मिता राजनीति का आभास हुआ। लेख पढ़ने पर पूरी बात पता चली।
ReplyDeleteपुस्तक से परिचय कराने के लिये आभार।
विस्तृत समीक्षा, अच्छी लगी।
ReplyDeleteबहुत ही विस्तृत समीक्षा की है आपने, बधाई
ReplyDelete- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
Umdaa samiikshaa ke liye badhaaii. Abhaar.
ReplyDeleteलेखन की अलग अलग विधाओं पर आपका अधिकार देख मुझे प्रेरणा मिलती है । निश्चित ही लेखन हो या समीक्षा तटस्थ हुये बिना न्याय नही किया जा सकता ।
ReplyDeleteबहुत ही विस्तृत समीक्षा , बधाई
ReplyDeleteयह लेख हम नही पढ़ पाए. वास्तव में यह लेख काफी अच्छा है.
ReplyDeleteविस्तृत और सुघ्घर समीक्षा के लिए धन्यवाद, सिंह साहब।
ReplyDeleteपुस्तक समीक्षा भी शोध परक शैली में है
ReplyDeleteईमेल से प्राप्त-
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव दिनांक : 26.05.2011
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तरछ.ग.
दूरभाष : 07786 242693, मोबा.: 93 004 29264, ईमेल : lakhijag@sancharnet.in
आदरणीय राहुल सिंह जी,
आपका आभार कि आपने एसएमएस के जरिये मुझे अपने इस पोस्ट की जानकारी दी।
सुतनुका देवदासी और घोटुल परम्परा को रतिसंस्कृति से जोड़ा जाना अशोभनीय ही नहीं अपितु आपत्तिजनक भी है। इस प्रसंग में अलग से कुछ कहने की बजाय मैं अपना आलेख गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय घोटुल'' शीर्षक अपना आलेख (जो ''उदन्ती.कॉम'', सम्पादक : रत्ना वर्मा, यूआरएल : www.udanti.com के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित हो चुका है) आपकी ओर भेज रहा हूँ। सम्भवतः इसे या इसके कुछ अंश को अविकल रूप में आप अपने ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रियास्वरूप और पाठकों की भ्रान्ति दूर करने के लिये स्थान देना चाहें।
सादर,
हरिहर वैष्णव
(वैष्णव जी की सदाशयता के प्रति आभार सहित अनुरोध कि इच्छुक पाठक दिए गए यूआरएल पर उनका आलेख देख सकते हैं.)
गंभीर विश्लेषण, दूध का दूध पानी का पानी
ReplyDeleteपोस्ट शीर्षक ही मेरा टिप्पणी ....
sodhpurn samiksha ke li liye abhar......
ReplyDeletepranam.
क्षमा सहित, मेरा टिप्पणी = मेरी टिप्पणी.....
ReplyDeleteविस्त्रत समीक्षा की है आपने .. छत्तीसगढ़ के इतिहास ... उसकी अस्मिता को लेकर आप बहुत कुछ लिखते रहते हैं जो अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनता जा रहा है ...
ReplyDeleteसब कुछ लिख दिया है आपने, अब आपकी समीक्षा पर मैं भला क्या टिप्पणी करूंगा ।
ReplyDeleteपुस्तक की समीक्षा अच्छी लगी,
ReplyDeleteबहुत ही विस्तृत समीक्षा|धन्यवाद|
ReplyDeleteश्री हरिहर वैष्णव जी की टिप्पणी के आलेख का लिंक- गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय घोटुल
ReplyDeleteDhanywaad Rahul Singh jii. Patrikaa mein mudran ashuddhiwash Ramo Chandra Duggaa chhap gayaa hai, jo wastutah Ramesh Chandra Duggaa hai.
ReplyDeleteसुन्दर समीक्षा की आपने...पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़ गयी....
ReplyDeleteपढने का प्रयास करुँगी...
आभार आपका...
बहुत विस्तृत जानकारी के साथ छत्तीसगढ़ के इतिहास के बारे में जानने का मौका मिला |
ReplyDeleteबहुत - बहुत शुक्रिया दोस्त |
पुस्तक के प्रति आकर्षण और पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाना ही इस समीक्षा की उत्कृष्टता का प्रमाण है!!
ReplyDeleteएक बार फिर अपनी धरोहर की सार्थक चर्चा।
ReplyDeleteबढिया जानकारी,
ReplyDeleteपुस्तक की विशिष्टताओं का परिचय आपकी बेबाक समालोचना से प्राप्त होने के उपरांत पुस्तक को पढ़ने की उत्कंठा जाग उठी है.आपकी लेखन शैली में ही "पुरातत्व" परिलक्षित होता है.इसी अदा के हम कायल हैं.आपने मितानी गोठ में आकर तपत-कुरु को गुनगुनाया ,hardik dhanyavad.
ReplyDeleteएक बहुत अच्छा प्रयास है. ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता पूरे देश को है..
ReplyDeleteसारगर्भित समीक्षा. आभार.
ReplyDeleteविषय पर पकड़ युक्त गवैषणा!! सार्थक समीक्षा!!
ReplyDeleteईमेल पर प्राप्त डॉ्. ब्रजकिशोर प्रसाद जी की टिप्पणी-
ReplyDelete"माना यह जाता है और देखा भी गया है कि ऐसे अवसरों पर तैयार किया गया सांस्कृतिक-इतिहास तटस्थ नहीं होता लेकिन मात्र इसी आधार पर किसी ऐसे काम के महत्व को कमतर नहीं आंका जा सकता।"
"पुस्तक की तैयारी संभवतः जल्दबाजी में की गयी है, इसलिए जानकारियों से ठसाठस इस पुस्तक का स्वरूप पाठ्य पुस्तक, वैचारिक निबंध और शोध-लेख में गड्ड-मड्ड होता रहता है। "
"जन नेताओं की सूची में गहिरा गुरू और राजमोहिनी देवी जैसे नामों का कोई हवाला पुस्तक में नहीं है।"
"हीरासिंह मरकाम के उल्लेख में तथ्यों का अभाव खटकता है।"
"पुस्तक को दलगत राजनीति से बचाये रख सकने में लेखक की सफलता प्रशंसनीय इसलिए भी है, क्योंकि राजधानी- भोपाल के सत्ता के गलियारों में वे 'दाऊ के सर' (मंत्री डॉ. चरणदास महंत के शोध-निदेशक होने के नाते) के रूप में ख्यात हैं और उनकी विद्वता की गहराई से अनभिज्ञ जनसामान्य भी उन्हें, इसी परिचय से जान पाता है। "
आप के सारे निष्कर्ष समीक्षा शास्त्र के मजबूत मानक हैं.
आपकी समीक्षा ने तो पुस्तक पढने का श्रम आधा कर दिया।
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