''1906/07 जब मादा अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरैया सूराख के पास कील पर बैठा था। मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा। ... ... ... अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरैयों को मार गिराया'' अविश्वसनीय लग सकता है कि यह प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली की हरकत है और उन्हीं का बयान 'एक गौरैया का गिरना' से लिया गया है। इतना ही नहीं, आगे टिप्पणी है- ''मुझे इस नोट पर गर्व है। ... ... ... आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।''
पुस्तक के 'बस्तरः1949'अध्याय में लिखा है- ''अपने लंबे जीवन में सरगुजा के महाराजा की अपनी प्रजा के प्रति भलाई करने वाली एकमात्र प्रतिबद्धता थी, बाघों की हत्या करना। ... उन्होंने 1170 से अधिक बाघ मारकर, निश्चय ही किसी प्रकार का रिकार्ड बनाया होगा तथा अपने अंतकरण में, यदि उनमें था, उसकी कचोट अनुभव की होगी।'' एक अन्य उद्धरण है- ''सरगुजा राज्य के एक पड़ोसी राज्य, कोरेआ (पूर्वी मध्य प्रदेश) के महाराज के शिकार में अपना नाम अमर कर लिया है। उन्होंने ... भारत के अंतिम तीन चीतों का शिकार कर इस जाति का भारतीय जमीन पर से हमेशा के लिए सफाया कर दिया।''
जिम कार्बेट की हथेली पर चिडि़या |
सिद्धार्थ और देवदत्त की प्रसिद्ध कहानी की सीख है- मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (ज्यों डिसेक्शन करने वाले हाथ ही शल्य चिकित्सा कर जान बचाते हैं)। ऊपर आए उद्धरणों के साथ कुमाऊं और रूद्रप्रयाग के आदमखोरों के शिकारी जिम कार्बेट का उदाहरण, उनके एक हाथ में लिए अंडों को बचाते हुए दूसरे हाथ से गोली दागने वाले प्रसंग सहित, स्मरणीय है। यों कहें कि भक्षक ही रक्षक या संहारक ही संरक्षक बन जाए तो इससे बेहतर रक्षा, और क्या होगी। बेगूसराय, बिहार के चिडि़मार अली हुसैन को सालिम अली द्वारा अपना सहयोगी पक्षी संरक्षक बना देने की नजीर है ही।
वन-वन्यजीव संरक्षण के दो उद्धरण- पहला, मृदुला सिन्हा द्वारा लिपिबद्ध राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' से- ''अपने शौक के लिए ही क्यों न सही, वन्य-संपदाओं के संरक्षण के लिए इन राजा-महाराजाओं ने जितनी सतर्कता बरती थी, वैसी तो आज जंगलों की रक्षा और पर्यावरण के प्रहरी बनने का ढोल पीटने वाले आधुनिक लोग भी नहीं बरतते होंगे। ये राजा-महाराजा इस बात के लिए अत्यंत जागरूक रहा करते थे कि शेरों की संख्या निर्धारित सीमा के नीचे कभी न जाने पाए। इसीलिए उनके हाथों वन्य-जीवों का संगोपन और संवर्ध्दन हो सका। और दूसरा, थोरो के 'वाल्डन' से- ''शिकार के जानवरों का शायद सबसे बड़ा मित्र ('पशु-परोपकारी समाज' को मिलाकर भी) शिकारी ही होता है।''
सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।
सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।
छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी खरौद के खुशखत, कवि कपिलनाथ मिसिर, बड़े पुजेरी की विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचना है 'खुसरा चिरई के बिहाव'। यह काव्य, पक्षी कोश के साथ जैव विविधता जैसे आधुनिक शास्त्रीय विषयों और सूक्ष्म अवलोकन की समर्थ लोक अभिव्यक्ति हैं। रचना में खुसरा चिड़िया के विवाह अवसर पर पूरी जमात को शामिल और पक्षियों को उनके व्यवहार के अनुसार भूमिका निभाते बताया गया है। गौरैया के लिए 'गुड़रिया धान कुटाती है' और एक बार 'गौरेलिया पाठ पढ़ाता है' कहा गया है। वाद्यों में निसान, ढोल, मांदर, तमूरा, करताल, खंजरी, मोहरी, दफड़ा, टिमटिमी, नफेरी के साथ उनकी ध्वनि को शब्दों में उसी तरह बांधा गया है जैसे परती परिकथा में रेणु जी ने ('खुसरा...' का प्रकाशन 1948-49 में बताया जाता है)। इस रचना में विवाह के नेग-चार के साथ अन्न और पेड़ों की नाम-सूची के अलावा शिव-स्तुति श्लोक भी हैं।
धूल-स्नानःबाथ सीन |
'कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर।
चींटी ले अंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।'
गौरैया का धूल-स्नान, आसन्न वर्षा का तो जल-स्नान, वर्षा न होने का संकेत माना जाता है।
माना गया है कि गौरैया, रोग-व्याधि मुक्त स्थान पर ही घोंसला बांधती है। वह ब्राह्मणों की तरह छुआ-छूत में सख्त भी मानी गयी है। मनुष्य द्वारा छू लिये जाने पर उस गौरैया को छूत मान कर, जात निकाला दे कर चोंच मारा जाता है लेकिन सूपे को किसी डंडी से तिरछा टिका कर या कमरा बंद कर गौरेया पकड़ना, फिर उसे लाल-काला रंग कर या धागा बांधकर, उड़ाने के अभियान से शायद ही कोई बचपन अछूता हो।
एक किस्से में गौरेया मनुष्य जाति के लिए संदेश लेकर आती है कि दिन में एक बार खाना और दो बार नहाना, लेकिन कहने में उससे हुई चूक से मनुष्य एक बार स्नान और दो बार भोजन करने लगा। इसकी सजा स्वरूप उसके पैरों में अदृश्य बेड़ी पड़ गई और उसे चम्पा (एक साथ दोनों पैर पर, फुदककर) चलना पड़ता है। किस्से में यह भी बताया जाता है कि प्रायश्चित स्वरूप उसे खुद बार-बार स्नान करना पड़ता है और भोजन के फिराक में लगे रहना होता है। साल में दो बार त्यौहारों पर बेड़ी छूटती भी है, तब यह ठुमक-ठुमक कर, इतराती चलती है और यह दुर्लभ दृश्य, शुभ माना जाता है, इसके विपरीत गौरैया का प्रजनन देखना निषेध किया जाता है। पक्षी मैथुन, खासकर काग-मैथुन देख लेने पर झूठी मृत्यु सूचना दी जाती है और प्रायश्चित होता है जब कोई स्वजन इस खबर पर रो ले। पक्षियों, विशेषतः सर्वाधिक घरू गौरैया, मैना और कौए की बोली की व्याख्या करने वालों के भी रोचक संस्मरण सुनाए जाते हैं। गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल और बारम्बारता है।
आंचलिक भावों के कवि कैलाश गौतम के फागुनी दोहे, बड़की भौजी जैसी कविताएं खूब पसंद की जाती हैं, उनकी ऐसी ही एक कविता 'भाभी की चिट्ठी' का दोहा है-
गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।
एक किस्से में काम के दौरान व्यवधान की सजा बतौर गौरैया के पैरों में लुहार द्वारा बेड़ी डालने की बात कही जाती है। गौरेया के लिए प्रचलित एक अन्य कहानी में चियां-म्यांरी (चूजे-मां) कुदुरमाल (कबीरपंथियों का प्रमुख केन्द्र) मेला के बजाय भांटा बारी (बैगन की बाड़ी) पहुंच कर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और किस्से के साथ गीत में इसकी मार्मिकता बयान होती है। पंचतंत्र की गौरैया के अंडे मदमत्त जंगली हाथी के कारण गिर कर फूट जाते हैं, तब वह विलाप तो करती है, लेकिन कठफोड़वा, मक्खी और मेंढक की मदद से बदला भी लेती है।
गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए।
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में,
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुकम हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं,
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएं।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को,
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।
बताया जाता है कि 1958 में माओ त्से-तुंग, आजकल उच्चारण माओ जिदौंग है, ने गौरेयों से होने वाले फसल का नुकसान कम करने के लिए गौरैयों को ही कम कर देना चाहा, लेकिन इस चक्कर में गौरैयों के भोजन बनने से बच जाने से टिड्डे इतने बढ़े कि उनसे हुए नुकसान से अकाल की स्थिति भुगतनी पड़ी।
''गांवों में कहा जाता हैः जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती वह घर निर्वंश हो जाता है। एक तरह से घर के आंगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुगकर मुड़ेरी पर बैठना, हर सांझ, हर सुबह हर कहीं तिनके बिखेरना, और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना, अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्थ के लिए बच्चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्छलता का प्रतीक है।'' यह विद्यानिवास मिश्र के 'आंगन का पंछी' (और बनजारा मन) का उद्धरण है, जो निबंध, चीन में गौरैयों के साथ किए जा रहे उक्त सलूक के प्रति आक्रोश और व्यथा से उपजी रचना है। विश्वमोहन तिवारी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ''घोंसला बनाने के लिए इसकी दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने तो मौलाना अबुल कलाम आजाद भी हारे थे'' का आशय अब तक तलाश रहा हूं।
बीते माह उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति के जिक्र सहित समाचार आया कि फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से मधुमक्खियां, तितलियां, कीट और गौरेया गायब हो गई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में रायपुर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान 8 जनवरी को उन्होंने बातचीत में कहा कि हमने अपने घर के खिड़की-दरवाजों को जाली से इस तरह बंद कर लिया है कि मच्छर भी न घुस सके, फिर गौरैया कैसे घर में प्रवेश करे (पंछी भी पर न मार सके)।
25 अप्रैल 2003 को इंडियन हिस्टारिकल रेकार्ड्स कमीशन के 58वें सत्र के उद्घाटन अवसर पर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री के उद्बोधन का समापन वाक्य था- 'देश का तीसरा गर्म शहर रायपुर में आपका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं।' प्रदूषण में भी यह शहर अव्वल ही न हो, होड़ में तो जरूर होगा। इस गरम, प्रदूषित शहर के इतिहास में सन 1938 की एक रिपोर्ट में यहां संग्रहालय भवन में अपरिमित गौरैयों का प्रवेश परेशानी का सबब बताया गया है।
सन 1875 मे निर्मित संग्रहालय भवन |
चटका पर चटका (संस्कृत में चिडि़या या गौरैया के लिए यही शब्द है, रायगढ़ के उड़ीसा सीमावर्ती झारा इसे चोटिया कहते हैं) यानि गौरैया पर क्लिक करें और देखें गत वर्ष से तय 20 मार्च, गौरैया दिवस के बारे में। हरेली पर चतुर्दिक हरियाली और दीपावली पर दीपों की रोशनी होती है, धन-धान्य से घर भरा हो तो नवाखाई और छेरछेरा, रंगों से सराबोर होली। लेकिन दिवस मनाने की अनिवार्य शर्त की तरह कमी और संकट का सयापा करना औपचारिकता बन गया है इसलिए ये 'दिवस', त्यौहार से भिन्न विलाप पर्व बन जाते हैं। अब हम क्या करें, गौरैया कम होने का रोना कैसे रोएं, कैसे हो इस दिवस की ऐसी औपचारिकता का निर्वाह। ये देखिए, शिवमंगल सिंह सुमन के शब्दों में 'मेरे मटमैले आंगन में फुदक रही गौरैया' या बच्चन जी के 'नीड़ का निर्माण फिर', 'एक दूजे के लिए' और 'एक चिडि़या, अनेक चिडि़या' वाले मेरे इर्द-गिर्द के दृश्य।
इस शहर रायपुर में तो गौरैया बहुतायत थीं, हैं और मेरा विश्वास है कि रहेंगी। सो हम इस 'दिवस' को त्यौहार जैसा ही मान रहे हैं और क्यों न रायपुर को गौरैया नगर मान लिया जाए।
पोस्ट आपको पसंद आए तो श्रेय उन ढेरों (अब्लॉगर) लोगों का, जिनके पास ऐसी 'अनुत्पादक' सूचनाओं का खजाना होता है, इनमें कुछेक से मेरा संपर्क-संवाद बना रहता है। इनमें रायपुर निवासी और अब भोपालवासी अग्रज आदरणीय बाबूदा (श्री नंदकिशोर तिवारी) भी हैं, जिन्होंने तत्काल संवाद के इस युग में पत्र लिखकर आशीर्वाद-स्वरूप कुछ महत्वपूर्ण संदर्भ डाक से नहीं, बल्कि हस्ते भेजा। इनलोगों से मिलते रहने पर अपनी अल्पज्ञता के साथ वेब की सीमाओं का भान होता रहता है। यह भी लगता है कि सब हमारे ही जिम्मे नहीं, बड़े-बुजुर्ग भी हैं। ऐसे सुहृद, मेरी ललचाई नजर को पहचान लेते हैं और मुखर हो कर, घर-आंगन से दुनिया-जहान तक के किस्से सुनाने लगते हैं।
इतने मनोरम आलेख के बाद -"अनुत्पादक सूचनाओं का खजाना होता है" मन खिन्न कर गया -अरे महराज ये सूचनाएं किस अर्थ में अनुत्पादक हुईं ?
ReplyDeleteगौरैया दिवस की इतनी संहत पूर्व पीठिका -कौन कहता है ब्लॉग जगत में साहित्य का अभाव है?
आपके सारे आलेख काफ़ी शोध कर लिखे गए होते हैं। प्रस्तुत रचना भी इसका प्रमाण है। जिस विषय पर भी आप लिखते हैं ढेर सारी जानकारी साथ में देते हैं।
ReplyDeleteब्लॉग जगत के साहित्य संपदा में यह आलेख श्रीवृद्धि कर रहा है।
होली है!!
हां, गोरैया जैसे लुप्त होते प्राणियों की चिंता हमें करनी चाहिए। करते रहनी चाहिए।
सच कहूं, इतनी अनूठी पोस्ट आज से पहले शायद नहीं पढी.
ReplyDeleteबिल ब्रायसन की किताब 'A Short History of Nearly Everything' में ऐसे अनेक भक्षक, संहारक, और रक्षकों का वर्णन है. यह जानना रोचक है कि किसी प्यारे और हानिरहित पक्षी का पूरी तरह से खात्मा कर देने की सनक ने दुनिया से बहुत सी बेहतरीन प्रजातियाँ मिटा दीं. लोगों के बीच प्रतिद्वंदिता होती थी कि फलां-फलां पक्षी या पशु प्रजाति का आखरी चश्म-ए-चिराग कहाँ देखा गया है, फिर वे वहां धावा बोलकर डाल पर शांति से बैठे पक्षी को गोली से उड़ाकर गर्व से घर वापस आ जाते.
अब आपसे कभी मिलेंगे तो सुनायेंगे अपने किस्से. फिर बनेंगीं ऐसी कमाल की पोस्टें.
ई-मेल पर प्राप्त-
ReplyDeleteविगत कुछ दिनों में पढ़े गये आलेखों में सर्वश्रेष्ठ। मेरा आभार स्वीकार करें।
अपने लेख 'अच्छा जी' की ये पंक्तियाँ याद आ गईं:
.... कितनी बार? कितनी बार टूट कर चाहा है कि कभी घर में एक चिड़िया रहे! एक आई भी थी। बाद में एक और भी आया। घोंसला बना। अंडा आया और जाने किस बात पर दोनों लड़ पड़े। अंडा जमीन पर गिरा और गमगम से घर गमक उठा। इतनी बू! बाप रे!! दोनों चले गये और फिर नहीं आये। जाने कितनी कहानियों के ड्राफ्ट ऐसे ही मन में दफन हो गये।
सादर,
गिरिजेश
ई-मेल पर प्राप्त-
ReplyDeleteअभी एक बार और पढ़ा। हमारी तरफ कौवा किसी के सिर पर बैठ जाता है या शरीर पर कहीं चोंच मार जाता है तो उस व्यक्ति के मरने की झूठी खबर नानी के यहाँ भेजने का टोटका किया जाता है। कुछ देर रो लेने के बाद बता दिया जाता है। पता नहीं कैसा मनोविज्ञान है - कहीं किसी का हार्ट फेल हो जाय तो मरण सच्ची हो जाय और कौआलाल काँव काँव कोंचते रहें।... खैर
टिप्पणी करना बन्द कर दिया हूँ। मेल पर ही प्रतिक्रिया भेज देता हूँ। कभी कभी लोग छाप भी देते हैं। उसमें आपत्ति जैसी कोई बात नहीं।
आप के आलेख ने वास्तव में मुग्ध और नतमस्तक कर दिया।
साभार,
गिरिजेश
शेरों का शिकार अवश्य ही प्रजा की रक्षा के लिए किया जाता था। क्योकिं उस समय इनकी बहुतायत थी। उन्होने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन इनकी नस्ल पर ही बन आएगी।
ReplyDeleteबांभन चिरई के बारे में आपने मेरे ज्ञान में वृद्धि की। आंगन में फ़ुदकती गौरेया भी अब कम ही दिखाई देती है। ये भी सही है कि हमने गौरेया के लिए अपने घर के खिड़की दरवाजे बंद कर लिए।
आपकी पोस्ट से बहुत ही ज्ञानरंजन हुआ।
आभार
ReplyDeleteडॉ अरविन्द मिश्र जी से सहमत हूँ ...
आप जैसे विभूतियों के होते यहाँ रहने का दिल करता है ! हार्दिक शुभकामनायें आपको !!
राहुल सर,
ReplyDeleteअपनी लिस्ट के ऊपरी पायदानों में से एक पर ऐसे ही नहीं माना था आपको।
भागना है ओफ़िस, अभी उसी नजर से पढ़ी है पोस्ट। चख लिया और जायका पहचान लिया, चटखारे लेकर तो बाद में ही पढ़ेंगे, शाम रात में:))
मनोज जी ने सही कहा। हम जैसे तो आपकी पोस्ट पढ कर ही धन्य हो गये। बहुत सुन्दर। होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteप्रजा की रक्षा करते करते आनन्द आने लगा और पता ही नहीं लगा कि कब बाघों की रक्षा का समय आ गया है।
ReplyDeleteवर्णनातीत सुख मिला. स्वयं तो पढ़ूंगा ही और बच्चों को भी उक्त पुस्तक पढ़वाऊंगा. यदि शिकार प्रजा की रक्षा के लिये किये जाते तो हिरनों के सिर क्यों सुशोभित होते रहे महाराजाओं के यहां.
ReplyDeleteआज तो आपने बहुत सारी भूली बिसरी बातें याद दिला दी राहुल जी!
ReplyDeleteb e h t a r i n.............l a j a b a w.........
ReplyDeleteh o l i n a m.
"गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल है।"
ReplyDeleteअंग्रेज़ी की ये पंक्तियाँ शायद ज्यादा अच्छे से इसे प्रमाणित कर सकती है|
Bull's Penetration
Dog's Duration
And
Sparrow's repetition
---
मैं आपकी प्रतिभा से अभिभूत हूँ|
हमारा घर काफी पुराना था सो पुरे घर में इन गौरैयो के घोसलों को बनाने के लिए जगह होती थी पर गर्मियों में बड़ी परेशानी होती जब बेचारी कोई पंखो से लड़ कर मर जाती थी कई बार पंखे बंद कर भागना मुश्किल होता था कमरे से बाहर ही नहीं निकलती थी | छूत वाली बात तो हमने भी देखी है कोई बच्चा घोसले से गिर जाये और हम उसे उठा कर वापस घोसले में भले रख दे कुछ ही मिनटों बाद वो बच्चा बेचारा फिर से जमीन पर गिरा मिलाता था | पर ये नया ज्ञान मिला की उन्हें किसी खास परिस्थिति में देखना वर्जित है क्योकि बनारस में गौरैयो और यहाँ मुंबई में कौवों की संख्या इतनी ज्यादा है की वो खुद सामने दिख जाते है |
ReplyDeleteरक्षार्थ ही संहार होता है, कृष्ण ने भी तो महाभारत में यही किया था . पक्षी ज्ञान आपका शोध आदरणीय है
ReplyDeleteआपका यह आलेख पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसे पर्यावरण अध्ययन की किसी पाठयपुस्तक का हिस्सा होना चाहिए। आज बच्चों के लिए सचमुच इस तरह के आलेखों की जरूरत है। बहुत सहज और आत्मीय लेख है। बधाई।
ReplyDeleteबेहद उम्दा पोस्ट .ज्ञानपरक, रोचक और स्तरीय
ReplyDeleteआभार आपका.होली मुबारक.
aapki lalchai nazare yu hi bani rahe ...hamari lar yuhi tapakati raher
ReplyDeletesunil chipde
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletepadhane bad se gouraiyya lagatar gunj rahi hai
ReplyDeletethax sir
sunil chipde
बहुत बढ़िया लिखे हस कका
ReplyDeleteफेर जतका धियान ए ब्लॉग म पोस्ट होवत आलेख बर देथव ओतका नहीं तो थोरिक कम वो ब्लॉग के पोस्ट मन म घलो देदेकरव जेकर संपादक मण्डल मा आपमन शामिल रथव कका...
अपने आप में एक सम्पूर्ण पोस्ट हमेशा की तरह.....
ReplyDeleteपढते-पढते बीच में कई बार लगा कि बस अब खत्म होनी वाला है. पर आगे पढता रहा और कई सारे घुमावदार रास्तों से मुस्कुराते हुए गुजरता गया... आपकी लेखनी चेहरे पर सहज मुस्कान ला देती है.. कहाँ से लाते हैं ऐसे आइडियाज़ और इतनी अनोखी जानकारियाँ? :)
अद्भुत! घर के अंगने में पारिजात के पेड़ पर एक कटोरा लटका रखा है. पानी डालते रहने का निर्देश देना भूल गया. अभी फोने करता हूँ. यहाँ केरल में गौरय्ये नहीं दीखते. लगता हैं कोई दूसरी प्रजाति है जो कुछ बड़ी भी है और वे बहुतायत से हैं. आपका आलेख रोचक तो था ही साथ ही ज्ञानवर्धन भी हुआ. मुझे नहीं पता था की कभी कभी उनकी "चम्पक" टूटती भी है.
ReplyDeleteगौरैया पर इतना सूचनापरक और लालित्यपूर्ण लेख पढ़ कर हमेशा की तरह मन प्रसन्न हो गया. अपनी पत्रिका अब मासिक हो रही है. लगता है आपके लेख का स्थाई कालम ही शुरू करना पडेगा. एक-एक पंक्ति ज्ञान बढ़ाती है. बधाई ऐसे लेखन के लिए केवल क्रान्ति के गीत ही नहीं, मनुष्य को रचनात्मक ऊर्जा भी चाहिए. कुछ सूचनाये भी मिलती रहे, ज्ञान भी बढ़ता रहे. आपका ब्लॉग इस कमी को पूरा करता है
ReplyDeleteरोचक, मजेदार और सूचना परक .
ReplyDeleteकथारस से भरी पोस्ट .
बस्तर और सरगुजा ,मेरे प्रिय स्थानों का वर्णन ......
२ घंटे पहले पढ़ा था, तब से सोच रहा हूँ कि कहूँ क्या?
ReplyDeleteगिरिजेश जी से सहमत हूँ, बस आभार ही कह सकूँगा इस आलेख के लिए।
गौरैया- मनुष्य की अनन्य सहचरी । मानव जहां-जहां गया, वहां गौरैया भी पहुंची।
ReplyDeleteलेकिन अब उल्टा हो रहा है, मनुष्य जहां-जहां जा रहा है, वहां से गौरैया गायब हो रही है।
बारी के बिही पेड़ पर गौरैया के झुंड का कलरव-नाद अब सुनाई नहीं देता। आने वाली पीढ़ी शायद एक गौरैया की चीं-चीं के लिए भी तरस जाए।
आपके इस आलेख से बचपन की स्मृतियां चहचहाने लगीं।
खुसरा चिरई के बिहाव होवय नेंवतव काला काला जी .... गीत के सुरता आगे.
ReplyDeleteबहुत सारी नई जानकारी और चिंतन से परिपूर्ण पोस्ट.
गौरैया पर इतनी सघन जानकारी नहीं थी मेरे पास.. कहीं पढने को भी नहीं मिला था.. आज गौरैया दिवस है जिसका भान तक नहीं था... संग्रहनीय आलेख... हाँ एक बात शेयर करना चाहता हूँ कि इंदिरापुरम गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश में मेरा ढाई मंजिला मकान है.. ऊपर का मंजिल वैसे तो खाली है लेकिन कम से कम पचासों गौरैया का सराय है... मेरे दोनों बच्चे अपनी बिस्कुट रोती आदि कभी दिखा के तो कभी छुपा के उन्हें देते हैं और उनकी मित्रता सी हो गई है... यह सिलसिला पिछले तीन वर्षों से है... पिछली गर्मी छुट्टी में जब बच्चे गाँव गए थे तो गौरैयों की ची ची में बच्चों को ढूँढने का स्वर था... शायद कंक्रीट के बढ़ने... छाजे की कमी आदि के कारण गौरैया हमसे दूर होने लगे हैं.. मिथिला में इन्हें 'बगरा' कहा जाता है...
ReplyDeleteसंवेदनाओं से परिपूर्ण और खोजी निगाह से लिखा गया गंभीर चिंतनपरक आलेख, जिसे पढ़कर मालूम हुआ कि बेचारी गौरैया के गायब होते जाने का राज क्या है और कौन-कौन लोग इसके लिए ज़िम्मेदार थे और जवाबदार हैं ? रंगों का त्यौहार होली बीस तारीख को है और आपके आलेख से यह भी पता चला कि इसी दिन विश्व गौरैया दिवस भी है .क्या ही अच्छा हो कि होली की मस्ती से थोड़ा समय निकाल कर हम लोग गायब होती गौरैया की बस्ती घूम आएं और उसके दर्द में साझीदार बनें !होली और गौरैया दिवस दोनों की शुभकामनाएं .
ReplyDeleteपहले मेरे घर में हमेशा ही गौरैया का एक आद घोंसला जरुर होता था और बचपन में मैंने इस पक्षी को बहुत तंग किया है. मुझे लगता है की बच्चों द्वारा तंग किये जाने के बावजूद इस पक्षी को इन्सान के निकट रहना पसंद है. पर आज मुझे अपने घर के आस पास इसके घोंसले कहीं नहीं दीखते. पिछले कुछ वर्षों में इसकी संख्या में जरुर कुछ कमी आयी है. एक बेहतरीन पोस्ट के द्वारा मेरी स्मृतियों से ही विलुप्त हो गए पक्षी की याद दिलाने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत और बिलकुल सही जानकारी आप सही कह रहें हैं हम बचपन से जिन चिड़िया को देखते आ रहे हैं आजकल तो उनका नामों निशान ही नहीं मिलता वो प्यारी सी इधर उधर फुदकती सी न जाने कहाँ गायब हो गई है | और एसा कुछ सालों में ही हुआ है हो सकता है फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन ही इनका कारण हो पर में भी इन सब की वजह सोच रही थी आपके लेख ने उसका खुलासा कर दिया इतनी सारी जानकारी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
ReplyDeleteआप बहुत खूबसूरती से हर बात की जाकारी देते हैं शुक्रिया |
होली वही जो स्वाधीनता की आन बन जाये
होली वही जो गणतंत्रता की शान बन जाये
भरो पिचकारियों में पानी ऐसे तीन रंगों का
जो कपड़ो पर गिरे तो हिंदुस्तान बन जाये
होली की हार्दिक शुभकामनाये
राहुल जी, अपने मेरी पुरानी कविता की स्मृति दिला दी....
ReplyDeleteचूँ - चूँ करती , धूल नहाती गौरैया.
बच्चे , बूढ़े , सबको भाती गौरैया.
कभी द्वार से,कभी झरोखे,खिड़की से
फुर - फुर करती , आती जाती गौरैया.
बीन-बीन कर तिनके ले- लेकर आती
उस कोने में नीड़ बनाती गौरैया.
शीशे से जब कभी सामना होता तो,
खुद अपने से चोंच लड़ाती गौरैया.
बिही की शाखा से झूलती लुटिया से
पानी पीकर प्यास बुझाती गौरैया.
दृश्य सभी ये ,बचपन की स्मृतियाँ हैं
पहले- सी अब नजर न आती गौरैया.
साथ समय के बिही का भी पेड़ कटा
सुख वाले दिन बीते, गाती गौरैया.
-अरुण कुमार निगम
राहुल जी,
ReplyDeleteसुबह आपसे कहा था कि अभी पोस्ट भागते भागते पढ़ी है, लौटकर पढूँगा। देर से आने का लाभ यह हो रहा है कि साथ में कमेंट्स भी पढ़ने को मिल रहे हैं। लगभग सभी टिप्पणीकर्ताओं से सहमत। आठ नौ साल पहले इलैक्शन ड्यूटी के सिलसिले में राजस्थान-हरियाणा बार्डर स्थित एक गांव में गया था तो वहाँ स्वच्छंद विचरण करते मोर पहली बार इतनी नजदीक से देखे थे। मुझे विस्मित देखकर साथी लोग हैरान थे, मैंने बताया कि हमें अगर मोर देखना हो तो चिडि़याघर जाना पड़ता है। आज ये पोस्ट पढ़कर लग रहा है कि विकास(?) की गति को देखते हुये वह दिन दूर नहीं जब गोरैया, कौये आदि से नई पीढ़ी का परिचय करवाने के लिये चिडि़याघर जाना पड़े।
’रक्षक ही भक्षक बन बैठे’ की आम धारणा से एकदम उलट ’भक्षक को रक्षक’ रूप में देखना बहुत प्रीतिकर लगा।
Behad achha aalekh hai!
ReplyDeleteSaalim Ali ko maine bahut qareeb se jana hai...meree dadee ke bhai lagte the.
Holee kee dheron shubhkamnayen!
यह पोस्ट तो गौरैया पर इनसाइक्लोपीडिया है। एक बार पढने से जी नहीं भरा है। अभी स्नान-ध्यान (कृपया 'ध्यान' को मुहावरे में ही लीजिएगा)कर काम पर लगना है। जल्दी है। देर रात इसे फिर पढूँगा।
ReplyDeleteअब्लागरों सके आपका व्यापक सम्पर्क आपके प्रति ईर्ष्या भाव भी जगाता है और प्रेरित भी करता है।
समझ में नहीं आया कि टिप्पणी गौरैय्या पे करूं कि सालिम अली , जिम कार्बेट ,सरगुजा महाराजा ,या कि...बाघों और चीतों के विलोपन पर ?
ReplyDeleteया फिर...कपिल नाथ मिसिर / रेणु जी / कैलाश गौतम / भवानी भाई / कौव्वे और अंध विश्वास / माओत्सेतुंग / विनोद शुक्ल /सुमन / बच्चन / कबीर पंथियों /...या तो ... रायपुर की गर्मी पर ?
या...प्रकृति और जीवन पर एक बड़ी विस्तृत और सारगर्भित रिपोर्ट मान कर आभार कहूं !
इसे पढकर जैसे मैं बौराया हूं वैसे ही मेरी टिप्पणी भी ना बौरा जाये की चिंता के साथ प्रस्थान कर रहा हूं !
पता नहीं कैसे ? रंग पर्व से पहले का असर आप पे है ? या मैं ही बहक गया हूं जो कि पोस्ट को बहका बहका देख रहा हूं :) रंगपर्व की शुभकामनायें !
भजन करो भोजन करो गाओ ताल तरंग।
ReplyDeleteमन मेरो लागे रहे सब ब्लोगर के संग॥
होलिका (अपने अंतर के कलुष) के दहन और वसन्तोसव पर्व की शुभकामनाएँ!
एक बार फिर आपने वो वक्त याद दिला दिया, जब आंगन में बोहली (बैंबू बॉस्केट) किसी लकड़ी से छतरीनुमा टिका भीतर कुछ दाने डालकर गौरैया को पकड़ा करते थे। गांव में यह एक मनोरंजन का बड़ा माध्यम हुआ करता था। हालांकि चिडिय़ा को पकडक़र कोई उसे मारता नहीं था, बल्कि रंग बिरंगी करके उसका स्त्रियों की तरह श्रृंगार कर दिया करता था। ताकि फिर वो कभी कहीं दिखे तो हम उस घटना को याद करके एक बार फिर मनोरंजन कर सकें। राहुल जी आपने यादों के कबाडख़ाने से धूल में सनी, मकड़ी के जालों में उलझी कोई याद निकाली है। लंबी दालान (बरांडा) दीवार पर गौरैया के ईंटो के बीच की सीमेंट निकालकर बनाए घर घोसले, उसके घर में आने की वाट जोहना और फिर एक रूमाल घोसले के मुहाने पर रख गौरैया को अपने कब्जे में करने का परमानंद। वाकई इस छोटे से पक्षी से इंसान कितना करीब था।........और अब करीब बीस सालों के अंतराल के बाद गांव जाता हूं, तो न तो कपड़े सुखाने की रस्सी पर न ही किसी दीवार में गौरैया नजर आती है। लोगों के पुण्य करने की तरीके बदल गए गौरैया रहे नहीं तो दाना किसको खिलाएं?
ReplyDeleteराहुल जी एक खूबसूरत पोस्ट के लिए शत-शत बधाइयां।।।।
बहुत सुन्दर ! उम्दा प्रस्तुती! ! बधाई!
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
bahut hi achchhi jankariparakh post. kai nai baten janne ko mili sunder prastuti.......... holi ki hardik shubhkamnaye.
ReplyDeleteमारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (
ReplyDeleteaapki ye post bahut pasand aai mujhe kisi ke bare me janna achchha lagta hai .sangraalya dekh man lalcha utha .sab kuchh sundar ,rang bhare parv ki badhai .
very informative post...
ReplyDeletehappy holi ....
बहुत सुन्दर उम्दा पोस्ट | धन्यवाद|
ReplyDeleteहोली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|
सुंदर सारगर्भित एवं सूचनाप्रद लेख के लिए बहुत बहुत आभार.
ReplyDeleteहोली के पावन रंगमय पर्व पर आपको और सभी ब्लोगर जन को हार्दिक
शुभ कामनायें.
बहुत ही सारगर्भित औऱ सौंधापन लिये हुए लेख है।
ReplyDeleteवैसे यहां मुंबई में कुछ लोगों के प्रयास से गौरेया को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। उनकी ओर से चिड़िया के लिये लकड़ी का घर उपलब्ध कराया जाता है जिसे कि लोग अब अपने घर के गैलरी में या छत पर टांगने लगे हैं। चिड़ियों के लिये पानी आदि की सुविधा भी लोग खुद से करने लगे हैं।
यह रहा उस संस्था का लिंक
http://www.sparrowshelter.org/
इस बारे में जो खबर छपी थी वो यह रही - If you miss the chirp of the forever excited sparrow, but don’t know how to bring them back, then you will find yourself remarking at how easy the solution can be — make them a shelter.
The idea struck Dharavi resident and bird lover Pramod Mane three years ago when he realised that the disappearance of the bird is linked to the decreasing green cover in the city, resulting in fewer places these small birds have to build their nests. Unlike bigger birds like pigeons and crows, whose numbers are rising jauntily by the day, sparrows have far more sensitive nervous systems, which get affected if they build a nest near mobile towers, or areas with high noise or air pollution areas, thereby ruling out a large part of the city.
“Moreover, unlike crows and pigeons, sparrows do not live on waste. They survive on grains and small insects. With the green and open spaces in the city being lost rapidly, the survival of sparrows in Mumbai is becoming more difficult by the day. About three years ago, I decided to do something about this, when the idea of creating an artificial sparrow shelter came to my mind,” said Pramod, who has since set up 3,000 sparrow shelters across the city.
Mane sought the help of Bombay Natural History Society (BNHS) officials to create a small wooden sparrow shelter. The first shelter was put up on a tree outside Ruia College in Matunga. In time, his concept became popular in the city as people found sparrows cheerily moving in into their new homes.
Soon, sparrow shelters could be spotted at various places between the Mayors’ Bungalow to Raj Bhavan and from Mumbai University premises to Veermata Jeejabai Udyan (Rani Baug, Byculla). Even Shiv Sena chief Bal Thackeray’s famous residence, Matoshri, in Bandra (East), was seen housing a shelter last year. The big moment, according to Pramod, came when master blaster Sachin Tendulkar accepted his gift and placed a sparrow shelter outside his house.
However, more than the celebs, it is the small groups and the societies which need to put up such shelters, says Pramod. “I want societies to understand the importance of this tiny bird,” he said.
The shelter can be purchased for a nominal amount. For more information, visit: www.sparrowshelter.org or call: 98676 33355.
News Courtesy - DNA
http://www.dnaindia.com/mumbai/report_here-s-how-you-can-bring-back-that-twittering-sparrow_1368280
गौरयों को बचाने के प्रयास हर जगह हो रहे हैं। बंगलौर में गौरया दिवस पर बांस के बने गौरया घर मुफ्त बांटे जा रहे हैं,ताकि लोग उन्हें अपने घर आंगन में लगा सकें। पूरी खबर यहां है जो दी न्यू इंडियन एक्सप्रेस के बंगलौर संस्करण में प्रकाशित हुई है।
ReplyDeleteBANGALORE: Massive urban development, destroying green cover, increase in the number of mobile phone towers and pollution has almost eaten up the nesting space for sparrows in the city, which once used to be a heaven for the survival of various species of birds.
Concerned over the dwindling sparrow population in the city which had been an intricate part of the city's environment few years ago, the Biodiversity Conservation India Limited (BCIL) and the Zoo Authority of Karnataka join hands to launch 'Gubbi Goodu' an effort to bring back the lost sparrows to city.
Launching the initiative a day ahead of the 'World House Sparrow Day' which falls on March 20, Krish Murali Eswar, CEO, BCIL said, "the step may sound a bit farfetched but we can at lest bring back a few of those lost sparrows and make the citizens of the city understand the need of ecology for a sustainable living."
MN Jayakumar, Additional Chief Conservator of Forests appreciated the initiative. Jayakumar said, "the rapid decline of house sparrows in our neighbourhood are indicators that we have become insensitive to the environment. The number of kitchen garden are reducing. This would be a very good step."
Kartik AM, Chief Naturalist, Jungle Lodges and Resorts, says, "like the food, clothing and shelter that human beings require for a living, apart from the clothing even the birds like sparrows need space and food. It is not just nest boxes, they also require the green bushes."
"In addition to the sparrows, we should also try to bring back other bird species as well, and this will help in marinating the ecosystem" he added.
As part of the programme, 10,000 sparrow houses made of bamboo will be distributed to the general public free of cost. Along with it an ebook describing ways to nurture sparrows, packet of grains, flowering and fruiting shrubs and seed balls will be provided. "Few schools have already expressed their interest in tying up with us for distributing the sparrow houses" added Murali. Those interested in procuring the sparrow house can use the help line: 8431848224.
मनोरम पोस्ट। अपने घर की कडियों में सदा ही गौरय्या के घोंसले रहे थे। उन्हें दाना-पानी डालकर ही बडे हुए। यहाँ, अमेरिका के ठंडे क्षेत्रों में घरों में मच्चर क्या हवी भी न घुस सके ऐसा इंतज़ाम होता है मगर गौरय्या आज भी वैसी ही बहुतायत में दिखती है जैसे बचपन में बरेली के घर में दिखती थी। सालिम अली की नर-गौरया-हत्या-गाथा कुछ अजीब सी ही लगी।
ReplyDeleteInformative post, thanks.
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धिल्ली में तो अब गोरैया दिखाई नही देती जब कि अन्य पक्षी खूब हैं । कोई 20 साल पहले जब हम यहां रहने आये थे तो फरवरी मार्च के दिनों में पंखों पर कूलर के पीछे खिडकी के ऊपर किसी भी जगह तिनका तिनका जोड कर ये चिडियां घोंसले बनाती थीं पर अब कहां हैं । गोरैया दिवस पर ये आलेख काफी जानकारी भरा है ।
ReplyDeleteगौरैया से संबंधित अनूठे लेख को पढ़ कर अविभूत हूँ।
ReplyDeleteसराहनीय लेखन के लिए बधाई।
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आपकी लेखनी में बड़ा दम है।
लेखनी क्या मानो एटमबम है॥
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होली मुबारक़ हो। सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
सिंह साहब!
ReplyDeleteऐसा लगता है गोद में गौरैया को बिठाकर, प्यार से सहलाते हुए लिखी गई है यह पोस्ट.. पढ़ते वक़्त भी एहसास बना रहता है कि अगर जल्दबाजी कि तो बेचारी प्यासी ही उड़ जायेगी!! इस लेख को मैं वाकई अल्टीमेट मानता हूँ!!
श्री महेश शर्मा का र्इ-मेल पर प्राप्त संदेश-
ReplyDeleteनमस्कार और होली की शुभकामनाएं. गौरैया -दिवस के माध्यम से ही सही, सनातन सुकून भरी जीवन चर्या का स्नेहिल अहसास हुआ, और ऐसे तथ्य-परक ब्लॉग के लिए आपको पुनः बधाई.
काफी देर से आ पाया. ये पोस्ट तो जानकारियों का खजाना है. इतनी जानकारियों के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत और बिलकुल सही जानकारी आप सही कह रहें हैं हम बचपन से जिन चिड़िया को देखते आ रहे हैं आजकल तो उनका नामों निशान ही नहीं
ReplyDelete..............सुन्दर उम्दा पोस्ट
प्रकृति के अनमोल तोहफे को हम खुद से दूर करते जा रहे है। चहचहाते पक्षियों की मधुर आवाज सुनने के बजाय अब कृत्रिम पशु पक्षियों को घर में सजावट करके खुश हो रहे प्रकृति से खिलवाड़ तो मानव समाज को महंगी पड़ेगी ही। जैसा अभी जापान में देखा जा रहा है। इसलिए विधाता की कृतियों से छेड़छाड़ उचित नहीं। अच्छी, सारगर्भित जानकारी राहुल भैया, इस चिंतन के लिए आपको ढेर सारी बधाईयां।
ReplyDeleteकुछ व्यस्तता की वजह से काफी दिनों बाद यह पोस्ट पढ़ पायी पायी....पर ख़ुशी ही हुई कि इसे जल्दबाजी में नहीं पढ़ा...इस से अच्छी और सार्थक रचना गौरया दिवस पर नहीं हो सकती....
ReplyDeleteबरसो बाद इस पसंदीदा कविता की पंक्तियाँ पढ़ी...शायद कॉलेज के दिनों में धर्मयुग में पढ़ा था...उसके बाद आज ही पढ़ी
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।
गौरैया पर इतनी जानकारी नहीं थी मेरे पास........ कहीं पढने को भी नहीं मिला था..अच्छी और सार्थक रचना,सराहनीय लेखन के लिए बधाई।
ReplyDeleteसिम्पली ब्रिलियेण्ट!
ReplyDeleteऔर कुछ दिन हुये, मेरे दफ्तर के कमरे के बाहर गौरैय्या दम्पति अपना घोंसला बनाने में व्यस्त हो गया है। यह पोस्ट और वह अनुष्ठान - दोनो का फ्यूज़न हो गया मन में!
राहुल जी इससे अच्छी पोस्ट मैंने ब्लॉगजगत में आज तक नहीं पढ़ी। भाषा शैली का चमत्कार तो है ही, इसमें जो साहित्य और विज्ञान का सम्मिश्रण आपने किया है वह अद्भुत है।
ReplyDeleteआपके इस आलेख से बहुत कुछ सीखने को मिला, खासकर एक बहुत अच्छा आलेख किस तरह लिखा जाता है।
बंगाल में इसे घुघ्घु कहा जाता है। घोंसला बनाने के लिए ये किसी एकांत जगह पर झाड़ी का चुनाव करते हैं, आपके गमलों से बेहतर और क्या हो सकता था, चित्र तो यही दर्शाते हैं। एक एक चित्र अनमोल निधि है।
आभार इस बेहतरीन पोस्ट को पढवाने के लिए।
राहुलजी, आपकी पोस्ट देखी. यह मेरी जानकारी बढ़ाने वाली है. सालिम अली जी बहुत बड़े पक्षी विज्ञानी और पर्यावरण प्रेमी थे. उनके प्रयास हमेशा अनुकरणीय रहेंगे. मैं तो एक साधारण अध्यापक हूँ. जो थोडा-बहुत कर पाया हूँ उसे और अधिक करना है. आपका आभार जो अपने इस पोस्ट को पढ़ने की सलाह दी.
ReplyDeleteकिताब खरीद ली - भले अन्ग्रेजी में मिली।
ReplyDeleteकहाँ पाँव टिकाए कोई पेड़ इजाज़त नहीं देता
ReplyDeleteगौरैया इसीलिए अब शहर नहीं आती
कहाँ पाँव टिकाए कोई पेड़ इजाज़त नहीं देता
ReplyDeleteगौरैया इसीलिए अब शहर नहीं आती
nice post.
ReplyDeleteअद्भुत , रोचक , कई नई जानकारियों से रू ब रू हुआ . इस ब्लाग से परिचित कराने के लिए मेहबूब अली जी को दिल से आभार .
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया आर्टिकल है ... Thanks for this article!! :) :)
ReplyDeleteआपके लेख की टीका-टिप्पणी का अधिकार नहीं हमें सरजी !
ReplyDeleteइन विषयों में अनभिज्ञ होने के कारण संग्रहणीय एवम् प्रशंसनीय है !
"गाँव-गाँव म किसिम-किसिम के हाना" में भी प्रकृति के सम्बन्ध जो गहन ज्ञान संजोये गए हैं-का लाभ लिया ही जाना चाहिए !
आपको सादर नमनपूर्वक धन्यवाद सरजी !
पंछी निहारकों के लिये संग्रहणीय
ReplyDeleteअद्भुत, रोचक
ReplyDeleteजयसिंह
फिलिपींन्स