ब्रज की सी यदि रास देखना हो प्यारों।
ले नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारो॥
यदि लखना हो सुहृद! आपको राघवलीला।
अकलतरा तो चलो, मत करो मन को ढीला॥
शिवरीनारायण जाइये, लखना हो नाटक सुग्घर।
वहीं कहीं मिल जाएंगे जगन्नाटक के सूत्रधर॥
रामकथा, कृष्णकथा, महाभारत और पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं के साथ मंचीय प्रयोजन हेतु नाट्य साहित्य को तो छत्तीसगढ़ ने आत्मसात किया ही रामलीला, रासलीला-रहंस से लेकर पारसी थियेटर तक का चलन रहा, जिसमें आंचलिक भाषाई-लोक और संस्कृत, ब्रज, अवधी, उर्दू के साथ हिन्दी के 'शिष्ट' नागर मंचों की सुदीर्घ और सम्पन्न परम्परा यहां दिखती है। लीला-नाटकों के पेन्ड्रा, रतनपुर, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, बलौदा, राजिम, कवर्धा, बेमेतरा, राहौद, कोसा जैसे बहुतेरे केन्द्र थे, लेकिन पंडित शुकलाल पाण्डेय के 'छत्तीसगढ़ गौरव' की उक्त पंक्तियों से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन तीन प्रमुख रंगमंचों- नरियरा की कृष्णलीला, अकलतरा की रामलीला और शिवरीनारायण (तीनों स्थान वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला में) के नाटक की प्रसिद्धि का सहज अनुमान होता है। इन पंक्तियों का संभावित रचना काल 1938-1942 के मध्य है।
शिवरीनारायण में पारंपरिक लीला मंडली हुआ करती थी, लगभग सन 1925 में मंडली के साथ संरक्षक के रूप में मठ के महंत गौतमदास जी, लेखक पं. मालिकराम भोगहा और निर्देशक पं. विश्वेश्वर तिवारी का नाम जुड़ा। इस दौर में भोगहा जी के लिखे नाटकों- रामराज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना की जानकारी मिलती है, जिनका मंचन भी हुआ। मठ के अगले महंत लालदासजी हुए और पं. विश्वेश्वर तिवारी के पुत्र पं. कौशल प्रसाद तिवारी के जिम्मे मुख्तियारी आई। आप दोनों की देख-रेख में सन 1933 से 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के नाम से शिवरीनारायण में नियमित और व्यवस्थित नाट्य गतिविधियों का श्रीगणेश हुआ।
शिवरीनारायण में मनोरमा थियेटर, कलकत्ता के संगीतकार मास्टर अब्दुल शकूर और के. दास, परदा मंच-सज्जा सामग्री के लिए खुदीराम की सेवाएं ली जाती थीं। जबकि स्थानीय अनेकराम हलवाई और बनगइहां पटेल को संगीत प्रशिक्षण के लिए विशेष रूप से कलकत्ता भेजा गया था। नाटक और 'पात्र-पात्रियां' सहित उसकी जानकारी छपा कर, परचे पूरे इलाके में बांटे जाते। यहां मंचित होने वाले भक्त ध्रुव, हरिश्चंद्र तारामती, कंस वध, दानवीर कर्ण, शहीद भगत सिंग, नाटकों के नाम आज भी लोगों के जुबान पर हैं। दिल की प्यास, आदर्श नारी, शीशे का महल जैसे प्रसिद्ध और चर्चित नाटक का भी मंचन यहां बारंबार हुआ।
कलकत्ता के जमुनादास मेहरा का कृष्ण सुदामा और सूरदास, पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' देहलवी का महाभारत, नई जिंदगी, भारत रमणी, आगा हश्र कश्मीरी का यहूदी की लड़की, आंख का नशा, दगाबाज दोस्त, पंडित राधेश्याम रामायणी कथावाचक का ऊषा अनिरुद्ध, वीर अभिमन्यु और किशनचंद जेबा का जब्तशुदा नाटक भक्त प्रह्लाद आदि भी यहां खेले गए। तब नाटकों की स्क्रिप्ट मिलना सहज नहीं होता। बताया जाता है कि नये नाटक के स्क्रिप्ट के लिए रटंत-पंडितों और शीघ्र-लेखकों की पूरी टीम कलकत्ता जाती और सब मिल कर बार-बार नाटक देखते हुए चुपके से पूरे संवाद उतार लेते। यह भी बताया जाता है कि चर्चित नाटकों के कलकत्ता में हुए प्रदर्शन के महीने भर के अंदर वही नाटक यहां खेलने को तैयार होता। इस तरह कलकत्ते के बाद पूरे देश में कहीं और प्रदर्शित होने में शिवरीनारायण बाजी मार लेता।
अभिनेताओं में केदारनाथ अग्रवाल और विश्वेश्वर चौबे को विशेषकर शिव-पार्वती की भूमिका के लिए, कृपाराम उर्फ माठुल साव को भीम, गुलजारीलाल शर्मा को हिरण्यकश्यप, गयाराम पांडेय को अर्जुन, मातादीन केड़िया को दुर्योधन, लादूराम पुजारी को द्रोण व शंकर, तिजाउ प्रसाद को राणा प्रताप तथा श्यामलाल शर्मा व बनमाली भट्ट को हास्य भूमिकाओं के लिए याद किया जाता है। इसके अलावा तब के कुछ प्रमुख कलाकार झाड़ू महराज, कृपाराम साव, लक्ष्मण शर्मा, रामशरण पांडेय, बोटी कुम्हार, रुनु साव, नंदकिशोर चौबे, बसंत तिवारी, भालचंद तिवारी, श्यामलाल पंडित आदि थे। शिवरीनारायण में खेले जाने वाले जयद्रथ वध नाटक में धड़ से सिर का अलग हो जाना, शर-शय्या और पुष्पक विमान जैसे अत्यन्त जीवन्त और चमत्कारी दृश्यों की चर्चा अब भी होती है। यहां पं. शुकलाल पांडेय की कुछ अन्य पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़! किसी प्रान्त से कम नहीं॥
अमरीका के पोर्टलैंड, ओरेगॉन में लगभग सन 1920 में निर्मित Eilers & Co. का पियानो शिवरीनारायण के नाटकों की शोभा हुआ करता था, जिसका संगीत न सिर्फ सुनने योग्य होता था, बल्कि लोग इस पियानो को बजता देखने को भी बेताब रहते। इस पियानो को संरक्षित करने की दृष्टि से अत्यंत जर्जर हालत में अकलतरा के सत्येन्द्र कुमार सिंह ने लगभग 30 साल पहले खरीदा और स्थानीय स्तर पर ही उसकी मरम्मत कराई और बजने लायक बनाया। शिवरीनारायण के नाटकों के प्रदर्शन की भव्यता और स्तर का अनुमान नाटक में संगीत के लिए इस्तेमाल होने वाले इस पियानो को देखकर किया जा सकता है।
महानद थियेट्रिकल कम्पनी 1956 तक लगातार सक्रिय रही, लेकिन 1958 में महंतजी के निधन के साथ संस्था ने भी दम तोड़ दिया। अंतिम दौर में 'गणेश जन्म' नाटक की तैयारी जोर-शोर से हो रही थी। तत्कालीन परिस्थितियों के चलते इस नाटक का प्रदर्शन न हो सका और यह कौशल प्रसाद तिवारी जी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और तिवारी जी पर आक्षेप करते हुए पोस्टर छपे- 'गणेश-जन्म कब होगाॽ' इस दौर के घटना-क्रम से आहत तिवारी जी ने जीवन भर के लिए न सिर्फ नाटकों से रिश्ता बल्कि अपना पूरा सामाजिक सरोकार ही सीमित कर लिया। अपने अंतिम दिनों में वे जरूर नाटकों और पारसी थियेटर के ऐतिहासिक विश्लेपषण के साथ अपनी तथा-कथा लिख रहे थे, लेकिन क्या और कितना लिख पाये पता नहीं चलता। शिवरीनारायण में भुवनलाल भोगहा की 'नवयुवक नाटक मंडली' एवं विद्याधर साव द्वारा संचालित 'केशरवानी नाटक मंडली' के साथ कौशल प्रसाद तिवारी के 'बाल महानद थियेट्रिकल कम्पनी' की जानकारी मिलती है, जिससे यहां 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के समानान्तर और उसके बाद भी नाटक मंडलियों और मंच की परम्परा होना पता लगता है।
नरियरा में रासलीला की शुरुआत प्यारेलाल सनाढ्य ने लगभग 1925 में की थी, जिसे नियमित, संगठित और व्यवस्थित स्वरूप दिया कौशल सिंह ने। तब से यह प्रतिवर्ष माघ सुदी एकादशी से आरंभ होकर 15 दिन चलती थी। यहां के पं. रामकृष्ण पांडेय के पास 60-70 साल पुराने हस्तलिखित स्क्रिप्ट में वंदना के बाद कृष्णकथा के विभिन्न प्रसंगों को लीला शीर्षक दिया गया है जो मानचरित, बैद्य, गोरे ग्वाल, खंडिता मान, दान, जोगन, चीर हरन, होरी, राधाकृष्ण विवाह, यमलार्जुन, उराहनो, माखन चोरी, गोचारण, पूरनमासी, चन्द्रप्रस्ताव, गोवर्धन गोप, मालीन और प्रथम स्नेह लीला नाम से है।
सन उन्नीस सौ तीसादि दशक का नरियरा लीला संबंधित चित्र |
कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत ग्राम नरियरा की प्रतिष्ठा छत्तीसगढ़ के वृन्दावन की रही है। यहां मंचित होने वाली लीला में गांव के गोकुल प्रसाद दुबे, राजाराम, कुंजराम के अलावा आसपास के भी अभिनेता होते, जिनमें जनकराम, सैदा, कपिल महराज, अमोरा, रामवल्लभदास, प्रभुदयाल, मदनलाल, श्यामलाल चतुर्वेदी और गउद वाले दादूसिंह रासधारी, प्रमुख नाम हैं। संगीत पक्ष का दायित्व बिशेषर सिंह पर होता था, जिनकी जन्मजात प्रतिभा में निखार आया, जब वे नासिक जाकर पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के भतीजे चिन्तामन राव और सेमरौता, उत्तरप्रदेश के उस्ताद मुरौव्वत खान से प्रशिक्षित हुए। लीला के स्थानीय कलाकारों को भी तालीम के लिए वृन्दावन भेजे जाने का जिक्र आता है।
ऊपर गोल घेरे में ठाकुर कौशल सिंह नीचे गोल घेरे में ठाकुर विशेषर सिंह |
नरियरा से जुड़े अन्य संगीतज्ञ होते थे तबला वादक पं. गोकुल प्रसाद दुबे और सारंगी वादक भारत प्रसाद, बाजा मास्टर पचकौड़ प्रसाद, भानसिंह- तबला, सुखसागर सिंह- इसराज, अफरीद के रामेश्वरधर दीवान और साहेबलाल- बांसुरी, भैंसतरा के रघुनंदनदास वैष्णव- चिकारा, जैजैपुर के महेन्द्र प्रताप सिंह पखावजी के साथ बेलारी के बसंतदास, कुथुर के शिवचरन, मेहंदी के काशीराम तथा कोसा के पुर्रूराम। इस प्रकार नरियरा ऐसा केन्द्र बन गया था, जहां पूरे अंचल के संगीत प्रतिभाओं की सहभागिता होती थी। विक्रम संवत् 2000 समाप्त होने के उपलक्ष में बहुस्मृत श्री विष्णु स्मारक महायज्ञ का आयोजन रतनपुर में हुआ। यज्ञ में माघ शुक्ल 8, मंगलवार, 1 फरवरी 1944 को नरियरा कृष्णलीला आरंभ हुई, जो इसके अंतिम यादगार और प्रभावी प्रदर्शन के रूप में याद किया जाता है।
प्रसंगवश थोड़ी चर्चा रतनपुरिहा गम्मत अथवा गुटका यानि कृष्ण लीला की। छत्तीगसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर में लीला की समृद्ध परम्परा डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुरानी है। गणेशोत्सव पर आयोजित होने के कारण यह भादों गम्मत के नाम से भी जाना जाता है। इस लीला की ब्रज, अवधी, मराठी, छत्तीसगढ़ी और संस्कृत, पंचमेल रूपरेखा-स्क्रिप्ट बाबू रेवाराम ने तैयार की। कहा गया है- 'कृष्ण चरित यह मह है जोई, भाषित रेवाराम की सोई।' रतनपुरिहा गम्मत की परम्परा के संवाहकों में लक्ष्मीनारायण दाऊ का नाम बहुत सम्मान से याद किया जाता है। लीला के प्रति उनका समर्पण किस स्तर तक था, इसका अनुमान पूरे इलाके में प्रचलित संस्मरणों-किस्सों से होता है। खैर! इसके बावजूद नरियरा के लीला का 'क्रेज' अलग ही था।
लक्ष्मीनारायण दाऊ |
हुआ कुछ यूं कि रतनपुर विष्णु महायज्ञ में नरियरा की लीला का प्रदर्शन कराए जाने की बात आई, लेकिन अड़चन थी कि नरियरा कृष्णलीला का मंचन गांव के ही मंदिर के साथ बने मंच पर होता था, इसके अलावा कहीं और नहीं। जिम्मेदारी ली, श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी समिति के पदाधिकारी- कोषाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण दाऊ ने। नरियरा वालों को संदेश भेजा गया, जो खर्च लगे दिया जाएगा, लेकिन यज्ञ में लीला होनी ही चाहिए। नरियरा वाले अड़े रहे कि किसी कीमत पर लीला, मंदिर के मंच से इतर कहीं नहीं होगी। बताया जाता है कि तब दाऊजी स्वयं नरियरा गए और एक नारियल, कौशल सिंह के हाथ में देकर कहा कि श्री विष्णु महायज्ञ का न्यौता है, नरियरा रासलीला मंडली को, कृपया स्वीकार करें। बस बात सुलझ गई। गाड़ा (भैंसा गाडि़या) रतनपुर रवाना होने लगे और नरियरा वालों ने यज्ञ समिति को भोजन-छाजन में भी एक पैसा व्यय नहीं करने दिया।
नरियरा मंच की परम्परा ने पचासादि के दशक में करवट ली और वल्लभ सिंह इस दौर के अगुवा हुए। अब लीला के साथ धार्मिक और सामाजिक नाटकों का मंचन होने लगा। पुरानी पीढ़ी के प्रसिद्ध संगीतकार, हारमोनियम वादक और गायक बिशेषर सिंह ने व्यास गद्दी संभाली। इसराज पर आपका साथ देते थे सुखसागर सिंह, तबले पर भानसिंह और बाद में उनके पुत्र वीरसिंह। बांसुरी और सितार हजारी सिंह बजाते थे। नाटकों के प्रमुख अभिनेता कृष्ण कुमार सिंह, मेघश्याम सिंह, भरतलाल पांडे, बिसुन साव, रामदास, पं. गीता प्रसाद, धनीराम विश्वकर्मा, दयादास, ननकी बाबू होते थे।
कृष्ण कुमार सिंह एवं भरतलाल पांडे |
इस दौर में खेले जाने वाले नाटकों में सती सुलोचना, भक्त प्रह्लाद, वीर अभिमन्यु, बिल्व मंगल, वीर अभिमन्यु, हरिश्चन्द्र, ऊषा अनिरुद्ध, मोरध्वज, दानवीर कर्ण, चीरहरण आदि प्रमुख थे। 'राजेन्द्र हम सब तुम पर वारि जाएं, हिल-मिल गाएं खुशियां मनाएं' और 'मिला न हमको कोई कद्रदां जमाने में, ये शीशा टूट गया देखने दिखाने में' जैसे नृत्य-गीतों के बोल सबके जबान पर होते थे। नरियरा में नाटकों का यह दौर लगभग 30 साल पहले तक चलता रहा, लेकिन व्यतिक्रम के साथ ही सही यह परम्परा अगली पीढ़ी तक बनी रही।
अकलतरा में बैरिस्टर साहब ने रामलीला मंडली की स्थापना की, जिसकी शुरुआत 1919 से हुई। लेकिन 1924 के बाद दूसरी बार 1929 से 1933 तक होती रही। अकलतरा के रंगमंच में पारम्परिकता से अधिक व्यापक लोक सम्पर्क तथा अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध अभिव्यक्ति का उद्देश्य बताया जाता है। यहां प्रदर्शित होने वाले नाटकों की दस्तावेजी जानकारी लाल साहब डा. इन्द्रजीत सिंह की निजी डायरी से मिली कि सन् 1931 में 23 से 26 अप्रैल यानि वैशाख शुक्ल पंचमी से अष्टमी तक क्रमशः लंकादहन, शक्तीलीला, वध लीला और राजगद्दी नाटकों का मंचन हुआ।
सर्कस कंपनियों के साथ आर्कलैम्प जलाकर घुमाया जाता था, ताकि दूर-दूर के लोग जान सके कि सर्कस आया है और शो शुरू होने वाला है। इसी तरह का, लेकिन कुछ अलग इंतजाम अकलतरा रामलीला के लिए किया जाता था। इसके लिए एक पोरिस (पुरुष प्रमाण) गड्ढा खोदा जाता, जिसमें लीला शुरू होने के घंटे भर पहले, लाल साहब अपनी 500 ब्लैक पाउडर एक्सप्रेस बंदूक दागते थे, जिसकी आवाज एक-डेढ़ कोस तक सुनाई देती और आस-पास के गावों में पता चल जाता कि अकलतरा में रामलीला शुरू होने वाली है। कुछ ऐसे दर्शक रोज होते जो इस दृश्य को भी लीला की आस्था लिए देखने पहुंच जाते।
अकलतरा रामलीला मंडली के एक अन्य दस्तावेजी स्रोत से पता चला कि चैत माह में नारद मोह, राम जन्म, विश्वामित्रागमन, फुलवारी लीला, धनुष यज्ञ, राम विवाह, कैकई मंथरा संवाद, राम बनवास, भरत मनावनी, सीताहरण, बालिवध, लंका दहन, रामपयान, सेतुबंध, शक्तीलीला, सुलोचना सती, रावण वध, रामराज्याभिषेक लीलाएं होती थीं। यह जानकारी ''बी.एल. प्रेस- 1/2 मछुआबाजार स्ट्रीट, कलकत्ता में छपे 'विज्ञापन' परचे से मिलती है, जिसमें अभिनयकर्ताओं की सूची में चन्दन सिंह, हमीर सिंह, सम्मत सिंह 1 व 2, ननकी सिंह 1 व 2, रामाधीन, शिवाधीन, गुनाराम, मुखीलाल, चुन्नीलाल आदि 40 अभिनेताओं के नाम हैं। इस परचे में ठाकुर दलगंजन सिंह को प्रधान व्यास, ठाकुर स्वरूप सिंह को व्यास और पंडित पचकौड़प्रसाद (बाजा मास्टर के नाम से प्रसिद्ध) को हारमोनियम माष्टर लिखा गया है, जबकि विनीत के स्थान पर ठाकुर छोटेलाल, मैनेजर का नाम है।''
मथुरा, लखनऊ तथा वृंदावन के साथ-साथ अल्फ्रेड और कॉरन्थियन नामक कलकत्ता की दो थियेटर कम्पनियों का प्रभाव इस अंचल के रंगमंच पर विशेष रूप से था और इन्हीं कम्पनियों के सहयोग से परदे, नाटक सामग्री व अन्य व्यवस्थाएं की जाती थी। छत्तीसगढ़ में हिन्दी नाटकों के आरंभिक दौर का यह संक्षिप्त विवरण राष्ट्री य परिदृश्यत के साथ जुड़ कर, यहां रंग परम्परा की मजबूत पृष्ठभूमि का अनुमान कराता है।
• यहां आए परम्परा के संवाहक और संरक्षक प्रतिनिधियों का नाम उल्लेखनीय और स्मरणीय होने के साथ आदरणीय है।
• इस विषय पर शोधपरक व्यापक संभावनाएं हैं, आरंभिक सर्वेक्षण और वार्तालाप में संबंधित तथ्यात्मक जानकारी तथा दस्तावेजी व अन्य सामग्री जैसे वाद्य यंत्र, वेशभूषा, परदे आदि की ढेरों सूचनाएं प्राप्त हुई हैं।
डा. रामेश्वर पांडेय |
इस लेख को तैयार करने में सर्वश्री श्यामलाल चतुर्वेदी, कोटमी-बिलासपुर, डा. बी.के.प्रसाद, बिलासपुर, बस्तर बैंड वाले अनूप रंजन, कोसा-रायपुर, शिवरीनारायण के कलाकार, कवि व संगीतज्ञ डा. रामेश्वर पांडेय 'अकिंचन' (जो कहते हैं- 'मेरा जन्म 83 साल पहले तब हुआ जब कृष्ण-सुदामा नाटक खेला जा रहा था'), विश्वनाथ यादव, डा. आलोक चंदेल, डा. अश्विनी केशरवानी, पूर्णेन्द तिवारी, बृजेश केशरवानी, अकलतरा के रवीन्द्र सिसौदिया, रविन्द्र सिंह बैस, सौरभ सिंह, नरियरा के पं. रामकृष्ण पांडेय, देवभूषण सिंह, कृष्ण कुमार सिंह, पं. भरतलाल का सहयोग लिया गया।
मूलतः, सन 2008 में विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च के अवसर पर रायपुर से प्रकाशित संकलन 'छत्तीसगढ़ हिन्दी रंगमंच' के लिए मेरे द्वारा तैयार किया गया आलेख।
बहुत ही रोचक जानकारी है। नाटकों के स्क्रिप्ट नहीं मिलने और उसे चुप्पे से उतार लेने की अनोखी जानकारी मिली।
ReplyDeleteधन्यवाद।
इन विभूतियों के बारे में सुनकर मुझ जैसे अदना नाटक कलाकार को अद्भुत प्रेरणा मिली. इनका एक समर्पित जीवन था कला के प्रति. नरियरा, अकलतरा,शिवरीनारायण से याद आया कि इन स्थानों के नाम के साथ एक परम्पारा जुडी होती थी..
ReplyDeleteबनारस में नाती इमली का भारत मिलाप, चेतगंज की नककटैया आदि! एक पूरा युग निकल गया इस आलेख के माध्यम से. जिन जिन विभूतियों के उल्लेख आपने किये वे सब नमनीय हैं मेरे लिए!!
क्या लोग थे!
ReplyDeleteबहुत ही रोचक जानकारी है। धन्यवाद|
ReplyDeleteजीवट लोग ही इस विधा को सबके सामने ला पाये हैं। उन्हें प्रणाम और परिचय का आभार।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक समृद्धता का दस्तावेज है यह आलेख !
ReplyDeleteआदरणीय राहुल जी
ReplyDeleteआपने तथ्यों और विश्लेषण के साथ रंगमंच की बहुत अच्छी जानकारी हमारे साथ साँझा की है ..आपका आभार
नाट्य दिवस पर इस शोधात्मक आलेख के लिए धन्यवाद भईया, बचपन में, इस पोस्ट के गांव और आदि पुरूषों के नामों को बार-बार सुनते रहा हूं, आज कडि़यों को जोड़ते हुए इन्हें जानना अच्छा लगा.
ReplyDeleteदो-दो बार लेख पढ़ा, बड़ा ही आनन्द आया..
ReplyDeleteitni jankari vo bhi itne behtar tarike se.....
ReplyDeletedhanyavad ,mai jabalpur me pala badha hu to ye nam aur jankari nahi thi darasal janne ki koshish nahi ki na prerna mili ..
HAMARE PAS ITNE NAM HOTE HUYE BHI BILASPUR ME BAN RAHE AUDITORIUM KA NAM lakhiram agrawal KE NAM PAR HOGA.
apke lehk ke adarsh nam meri pidhi tak bhi nahi pahuch paye the.. to mere bad ka kya hoga,
apko sawal uthane nahi kah raha hu bas is blog ko padhane wale buddhi jiviyo ke beech sawal chhod raha hu
SUNIL CHIPDE , bilaspur
मेरे लिए नितांत नवीन जानकारी मिली ! यह रचना अनूठी रही ! आभार आपका!
ReplyDeleteउत्कृष्ट! सहेज के रखने योग्य.
ReplyDeleteबहुत मेहनत से तैयार किया गया है लेख. आज नाटक धीरे धीरे विलुप्तप्राय: ही हुआ चाहता है
ReplyDeleteअद्भुत और संग्रहणीय जानकारी. इतनी विस्तृत जानकारी पहली बार पढने मिली . आपने वाकई खजाना संभल रखा है भाई साहब.
ReplyDeletenice
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त श्री अरुण कुमार निगम जी की टिप्पणी-
ReplyDeleteराहुल जी,
कहाँ-कहाँ से ऐसी जानकारियां बटोर कर रखते हैं ? सच मायने में ये सिर्फ जानकारियां नहीं बल्कि अतीत के गर्भ का ऐसा खजाना है जो वर्तमान को सोचने पर मजबूर करता है कि समृद्ध "आज" है या हमारा "कल"था.कैसी समृद्धि,कैसी सम्पन्नता,कैसा समर्पण था हमारे पूर्वजों में....आपकी लगन और मेहनत को नमन.
लेख पढ़ते- पढ़ते उसी दशक में पहुँच गया था ,पुराना मंदिर,पुराना
मंच,सादगी भरा वातावरण,न शोर, न शराबा.न वाहनों के कर्कश हार्न,न वाहनों से उड़ती धूल.मंच के सामने सहृदय ,निश्छल,रसिक और उत्साही दर्शक.अपने गाँव के दर्शक सपरिवार ,आस-पास के आमंत्रित पहुना दर्शक.एक आनंदोत्सव के माहौल में मंच के आनंद के साथ-साथ बहुत दिनों में अपनों से मिलने का सुख.मंचीय संवाद, मंचीय संगीत, मंच कि विषय-वस्तु से घर-घर पहुँचते नन्हे-नन्हे संस्कार.... कल-युग में कल के युग का रसास्वादन कराने के लिए ह्रदय से धन्यवाद...
बहुत सुंदर ओर रोचक जानकारी जी धन्यवाद
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ी लोक नाट्य से संबंधित जानकारी तो प्रकाशित होती रहती है किंतु छत्तीसगढ़ी रंगमंच के जिस स्वरूप का वर्णन आपने किया है उससे संबंधित जानकारी दुर्लभ है। इस आलेख में छत्तीसगढ़ के पुरातन का गौरव झलक रहा है। आलेख के लिए सामग्री संकलित करने के संदर्भ में आपका परिश्रम, धैर्य और लगन वंदनीय है। आपसे आग्रह है कि इसे विस्तारित कर पुस्तक का स्वरूप दीजिए।
ReplyDeleteखोज करने पर छत्तीसगढ़ के अन्य क्षेत्रों में भी रंगमंच की परम्परा का ऐतिहासिक विवरण मिल जाएगा। बेमेतरा की रामलीला भी लगभग सौ साल पुरानी है। पहले 15 दिनों तक मंचन होता था। अब केवल दशहरे के दिन रावण-वध-प्रसंग का ही मंचन होता है।
बड़ी दुर्लभ और रोचक जानकारियाँ लाते हैं आप राहुल जी.
ReplyDeleteइन्हें पुस्तकाकार देने के बारे में अवश्य सोचिये. बहुत पठनीय ग्रन्थ बनेगा वह.
इन नाटक-नौटंकियों के बारे में तो अब नयी पीढी को कुछ भी पता नहीं है. खुद मैंने ही बड़े स्टेज आदि पर मंचित होने वाले नाटकों के सिवाय प्रांतीय या देशज रंगमंच नहीं देखा है. सोच सकता हूँ कैसी उमंग रहती होगी उन दिनों जब कलाकार और दर्शक भरपूर उत्साह से अपनी परंपरा के मंचन में रूचि लेते थे. अब वह सब चाहकर भी नहीं किया जा सकता क्योंकि वैसे शुद्ध भावना और अभिव्यक्ति अब नहीं रही.
राहुल जी ! इतनी अच्छी जानकारी के लिए आभार ! किसी ज़माने में बनारस और कानपुर की रामलीलाएं बड़ी मशहूर हुआ करती थीं. हमारे ज़माने में एक और रंगमंचीय विधा थी "नौटंकी" जिसे देखने कोसों दूर के ग्रामीण सर में पग्गड़ बांधे और अपने सर से भी बित्ता भर ऊंची लाठी लेकर बड़े शान से जाया करते थे. अब यह विधा भी इतिहास बन चुकी है. कानपुर और बनारस में रामलीला अभी भी होती है पर अब वह गरिमा नहीं रही. विषय वस्तु और अभिनय का स्थान चकाचौंध ने ले लिया है. नौटंकी की मृत्यु पर मुझे बहुत दुःख है ...काश ! इसे पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास किया जा सकता . बचपन में "राजा हरिश्चंद्र", "डाकू पुतली बाई " और "लैला-मजनू" देखने का अवसर मुझे भी मिला था. ..अब तो वे सब यादें ही रह गयी हैं.
ReplyDeleteयह कहना बिलकुल मुनासिब होगा, कि यह ’पोस्ट’
ReplyDeleteन सिर्फ़ एक शोधपरक, संग्रहणीय आलेख है, बल्कि,
’सन्दर्भ’ के रूप मे, शोध-छात्रों के लिये भी बहुत ही
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी है ।
सादर,
सुंदर ,सार्थक और ज्ञानवर्धक आलेख के लिए बड़े भाई राहुल जी आपको बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteवाकई रोचक जानकारी समेटे उम्दा आलेख.
ReplyDeleteइतनी विस्तृत जानकारी पहली बार पढने मिली .
ReplyDeleteउम्दा आलेख.******
शिवरीनारायण से रंगमंच का कितना गहरा सम्बन्ध रहा उसके सम्यक विवेचन, एवं परिचय के लिए आभार
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तरछ.ग.
दूरभाष : 07786242693, मोबा. : 93 004 29264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in
आदरणीय राहुल सिंह जी,
सबसे पहले तो इस बात के लिये धन्यवाद कि आपने ईमेल -ारा मुझे अपने पोस्ट तीन रंगमंच' के विषय में सूचित किया। इसके लिये मैं पुनः आभारी हूँ। मैं लगातार आपके पोस्ट पढ़ता आ रहा हूँ किन्तु मेरे साथ जो सबसे बड़ी दिक्कत है वह यह कि मैं प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाता। बस! पढ़ता और गुनता हूँ। मैं केवल और केवल यही कहना चाहता हूँ कि जो कुछ आप अपने पोस्ट में लिख रहे हैं, वह छत्तीसगढ़ के विषय में प्रामाणिक है और सन्दर्भसामग्री के रूप में उसका अपना महत्त्व बना रहेगा। इतनी मेहनत, निष्ठा और ईमानदारी तथा शोधपरक दृष्टि के साथ तथ्यों को समुचित रूप में प्रस्तुत करने का आपका यह कार्य मुझे एक अभियान की तरह लगता है। दरअसल आपकी सारी सामग्री एक मुकम्मल किताब की माँग करती है। आपको यह सारी सामग्री निश्चित तौर पर किताब के रूप में पाठकों और शोधार्थियों के हित में सामने लाना ही होगा।
शासकीय सेवा के चलते मेरा लेखनकार्य बाधित हो रहा था। सो मैंने सेवानिवृत्ति के लिये बचे 4 वर्ष पूर्व ही 16 मार्च 2011 को शासकीय सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है और अब सारा समय लेखन में लगा रहा हूँ। आप जानते ही हैं, दुबलीपतली काया और ऊपर से स्वास्थ्य का ठीकठाक न रहना। काम बहुत है, समय कम। पता नहीं कितना, कैसा और क्या काम कर पाता हूँ। बस! एक धुन सवार है। जाने से पहले कुछ कर लूँ तो सन्तोष होगा।
छत्तीसगढ़ को उसकी समग्रता में जानने वालों के लिये आप निरन्तर लिखते रहें और उन्हें लाभान्वित करते रहें। मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।
पुनः आभार एवं आदर सहित।
आपकाः
हरिहर वैष्णव
अत्यंत रोचक और संकलन योग्य सूचनाएँ,
ReplyDeleteनाटक कार होने के लिए इतना जानना न्यूनतम अर्हता होनी चाहिए,
धन्यवाद सर!
बड़ा गौरवपूर्ण अतीत है आपके यहाँ की रंगमंच परम्परा का...
ReplyDeleteदुर्भाग्य है कि अब यह कलाएं आमजन से दूर होकर एलिट्स के मनोरंजन के साधन बनती जा रही हैं...
नरियरा वाली तस्वीरों के रंग मन मोहने वाले हैं.
ReplyDeleteनाटकों के कथ्य,तकनीक और लोकप्रियता से इस क्षेत्र की बौद्धिक पहचान बनती है.
शुकलाल पाण्डेय जी के सन्दर्भ को आप ने सफलता पूर्वक उकेरा है.
तस्वीरों के साथ इतनी सारी जानकारियां बहुत बहुत शुक्रिया दोस्त |
ReplyDeleteबहुत ही विस्तृत और रोचक जानकारी...
ReplyDeleteइस ब्लॉग के जरिये ...छत्तीसगढ़ कि संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिल रहा है
:):):)
ReplyDeletepranam.
राहुल सर छत्तीसगढ़ के रंगमंच पर प्रमाणिक जानकारी के लिए देश का रंगमंच आपका आभारी होगा. मिथिला में भी रंगमच की अपनी परंपरा थी और बहुत समृद्ध थी. पिछले बीस वर्षों में ही बहुत बदलाव देखे हैं ... खास तौर पर टी वी के आने से... मिथिला में किर्तनिया की परंपरा थी जो लोकगीतों के माध्यम से आध्यात्मिक, सामाजिक विषयों पर भजन गाते थे... गाँव गाँव घुमते थे.. फिर रामलीला पहुंची मिथिला.. पारसी थेयेटर का बहुत प्रभाव था इस पर. बंगाल में रंगमंच के पुनर्जागरण के साथ मिथिला में रामलीला मंडली रामलीला के साथ साथ पौराणिक और सामाजिक विषयों पर नाटक का मंचन करते थे... जीवन झा आधुनिक मिथिला रंगमंच केपहले बड़े नाटककार, निर्देशक और अभिनेता थे.. १९०४ में इनका नाटक सुदार्शंयोग और १९०६ में नर्मदा सागर उत्कृष्ट नाटक हैं... मिथिला में नाटक की परंपरा प्रायः समाप्त हो गई है...
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ का रंगमंच आपका आभारी रहेगा इस प्रमाणिक जानकारी के लिए...
पिआनो का DETAIL रोचक और ज्ञानवर्धक है,कंपनी का बंद होना तो इतिहास से सीधे तौर पर जुड़ा है.लिंक में अच्छा वर्णन है.
ReplyDeleteराहुल भाई अद्भुत लेख अकलतरा और नरियर शिवरीनारायण जैसी जगहों के बारे में वास्तव में लोगों की जानकारी बहुत ही कम है
ReplyDeleteसौभाग्य से कौशल प्रसाद जी तिवारी का सानिध्य मुझे भी मिला जिनसे इन नाटकों एवं महानद थ्रिअतिकल कंपनी के बारे में अनेकों बातें मैंने भी जानी समय के साथ साथ नाटकों से मोह भंग होना दुखद तो है ही पर किया क्या जा सकता सिर्फ अपने ताई प्रयास जिसमें सहयोग की सम्भावना नगण्य ही है
उम्दा लेख के लिए साधुवाद
राहुल सर, बेहतरीन जानकारी।
ReplyDeleteसर्कस का आर्कलैंप वाला नजारा हमने भी देख रखा है। कई बार सोचता हूँ कि हमारी पीढ़ी खुशनसीबों में है या बदनसीबों में? खुशनसीब इसलिये कि इन सब विलुप्त होती चीजों को देख रखा है और बदनसीब इसलिये कि आने वाली पीढि़यों को ये नहीं सौंप सके। बच्चों को कठपुतली का तमाशा ही दिखाना हो तो किसी रिसोर्ट पर लेकर जाना पड़ता है, इसे ऐय्याशी कहें या विडम्बना?
आज के पीवीआर अपने को अब भी उन टूटी बेंचों और टाट वाली रामलीलाओं, नौटंकी, खेल तमाशों से बहुत हल्के लगते हैं।
ऐसे आलेख टाईम कैप्स्यूल का काम करेंगे, देख लीजियेगा।
आभार स्वीकारें।
आपके अन्य आलेखों की तरह ही अद्भुत है यह आलेख। आपके आलेख पढने के लिए अलग से समय निकालना पडता है - ऐसा, जब फोन की घण्टी न बजे और कोई दरवाजा न खटखटाए।
ReplyDeleteआलेख की विषय वस्तु और उसका महत्व तो अपनी जगह है ही किन्तु आप सामग्री और सन्दर्भों का अभिलेखीकरण जिस परिश्रम, चिन्ता और निष्ठा से कर रहे हैं वह सचमुच में 'प्रणम्य' है।
छत्तीसगढ़ के रंगमंच पर बहुत ही रोचक जानकारी है....
ReplyDeleteइस महत्वपूर्ण लेख के लिए साधुवाद.
Itna masala late kahan se hain,,,,rahul jee bahut visrut jankari, rochakta se paripurna....
ReplyDeleteआदरणीय राहुल जी
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के रंगमंच पर बहुत ही रोचक जानकारी है ब्लॉग के जरिये छत्तीसगढ़ कि संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिल रहा है ........आपका आभार
अदभुत प्रविष्टि !
ReplyDeleteRahul Ji, History ke characters me aapko achha khaasa ras hai..
ReplyDeleteएक परंपरा के संरक्षण का रोचक एतिहासिक वर्णन!!
ReplyDeleteKaafi gyaanvardhak aur rochak tathya prastut kiya hai aapne.. Pehli baar aaya hun aapke blog par, achaa laga!
ReplyDeleteसुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख..
ReplyDeleteनवसंवत्सर २०६८ की हार्दिक शुभकामनाएँ|
ReplyDeleteदिल्ली के डॉ. नरेश जैन जी की ईमेल से प्राप्त टिप्पणी-
ReplyDeleteDear Rahulji,
Read your blog on Ramkatha, Krishnakatha and theatrical presentations in Chhattisgarh with great interest. It was quite enjoyable. I particularly liked your account of how a team of ratant-pandits(memorisers) and sheegra lekhaks(instant writers) would go to Calcutta and see new performances and produce the same plays back home. Great! Thanks.
Sincerely,
Naresh
आदरणीय राहुल जी,आपका ब्लॉग अत्यंत ज्ञानवर्धक तथा भावों से बहरा हुआ है.
ReplyDeleteआपने जो शोध कि बात की है, बहुत ही अच्छी , शोधार्थी भी तैयार है, मई एस पर काम करना चाह रहा हू.. यदि आप मार्गदर्शन करे.
कला-इतिहास-संस्कृति-रंगमंच पर छत्तीसगढ़ का विश्वकोश बन कर रहेगा। आपके लेख तो संदर्भ बनते जा रहे हैं…
ReplyDeleteप्रशन्नता हुआ
ReplyDeleteरोचक ग़ज़ब
ReplyDeleteGreat insight.
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