राष्ट्रीय स्तर पर उपजी विसंगत स्थितियों का विचार करते हुए ईश्वर के बहाने गांधी ही याद आते हैं, यही कारण होगा कि मायाराम सुरजन जी के संकलन का शीर्षक है-'सबको सन्मति दे भगवान', मानों गांधीजी की प्रार्थना सभा । पुस्तक में अस्सी के दशक और नब्बे के शुरूआती वर्षों में हुई सामाजिक उथल-पुथल की पड़ताल करते लेख हैं। यह कालखण्ड है- अयोध्या विवाद, शहबानो, काश्मीर, सिख और तथाकथित ईशपुरूषों का, साथ ही रायपुर से जुड़े तत्कालीन कुछ प्रसंग, जो भारतीय सामाजिक दशाओं की निगरानी के लिए 'इण्डेक्स' माने जा सकते हैं, ऐसे ही मुद्दों पर वैचारिक विमर्श, इस पुस्तक में संग्रहित है। इस तरह पुस्तक की प्रकृति स्वयं 'विश्लेषण और टिप्पणी' की है, अतः अब टिप्पणी के बजाय इसकी अंतरधारा पर चर्चा अधिक समीचीन होगी।
फ्लैप का वाक्य है- ''सारी सांस्कृतिक परम्पराएं जैसे राजनीतिक एवं सामाजिक वहशीपन का शिकार होती जा रही है।'' तल्ख लगने वाली यह टिप्पणी गंभीर विचार के लिए उकसाती है। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र, भारत- धर्म प्रधान देश है, जिसका इतिहास धार्मिक-सामाजिक समरसता के प्रमाणों से सराबोर है, किन्तु इतिहास और परम्पराओं की चर्चा में तथ्यों का चयन और उनकी व्याख्या, बहुधा युगानुकूल और जरूरतों के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि 'सत्यार्थ प्रकाश', अपने प्रकाशन काल में धर्मों के तार्किक विश्लेषण का महत्वपूर्ण ग्रंथ, आज कथित उदारता और विकास के दौर में खतरनाक विस्फोटक सामग्री जैसा माना जा सकता है।
'धर्म' की पृष्ठभूमि पर रचित कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र', वस्तुतः 'राजनीति' का ग्रंथ है। यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि यदि समाज का ढांचा आपसी मानवीय संबंध के ताने-बाने पर खड़ा होता है तो वृहत्तर सामाजिक प्रसंग, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और राजसत्ता के माध्यम से आकार लेते हैं, इसलिए इन तीनों सत्ताओं का आपसी तालमेल स्वाभाविक है। पुस्तक में विश्लेषण के ऐसे संकेत लगातार विद्यमान हैं और जहां भी विशेषकर राजसत्ता और धर्मसत्ता का घालमेल हुआ है, उसे प्रखर टिप्पणी सहित रेखांकित किया गया है। 'अर्थ' की जमीन पर खड़े 'राज' के सिर पर 'धर्म' का वितान होता है, यह समाज की सम्यक दशा भी मानी जा सकती है, किन्तु इसका व्यतिक्रम कैसे बखेड़े पैदा करता है, उसका दस्तावेज यह पुस्तक है।
पुस्तक का एक महत्वपूर्ण और विचारणीय पक्ष विधायिका, कार्यपालिका से आगे न्यायपालिका और सबसे ऊपर जनता की आवाज पर बातें हैं। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, अखबार से यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है। न्यायपालिका के हस्तक्षेप की स्थिति निर्मित होना या अनावश्यक न्यायपालिका का मुंह ताकना, इस पर उच्चतम न्यायलय द्वारा एकाधिक बार टिप्पणी की जा चुकी है। इस दौर में यह भी गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि घटनाएं और मीडिया की खबरें यदि झुठलाई नहीं जा सकती, तो क्या वे इतनी भी सच होती हैं कि उसे जनता की आवाज मान लिया जाय ॽ हाल के अनुभव से तो घटनाएं, और विशेषकर मीडिया में स्थान प्राप्त घटनाएं, जनता की आवाज का सच नहीं मानी जा सकतीं। यदि एक हकीकत यह है कि घटनाओं का विस्तार अक्सर आयोजित-प्रायोजित होता है, स्वाभाविक नहीं, तो दूसरी तरफ मीडिया के लिए 'उन्माद' की तुलना में 'सद्भाव' के खबर बनने की संभावनाएं भी कम होती हैं, यह संकट भी दिनों-दिन गहरा रहा है। धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है और गैर के धर्म की निंदा के लिए भी यही नकाब काम आसान करता है। मीडिया की तटस्थता और निष्पक्षता का नकाब, रोमांचक और आकर्षक खबर परोसने की राह आसान बना देता है। (बड़े खर्च के साथ मौके पर पहुंच कर सनसनी वाली खबर न निकले, तो बात कैसे बनेगी ॽ)
धर्म की उत्पत्ति भय से हुई है, इस पर मतैक्य नहीं है, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं कि इतिहास में बारम्बार और इस दौर में विशेषकर धर्म के साथ संकट, आशंका और भयोन्माद का माहौल रचकर धर्म के फलने-फूलने की तैयारी दिखायी देती है। ऐसा लगता है मानों हमारे देश में दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं के लिए सभी संतुष्ट हैं, अन्यथा मानसिक रूप से स्वावलम्बी स्थिति है, क्योंकि ऐसे कारक सामाजिक स्तर पर संवेदना के कारण नहीं बन पाते, किन्तु धार्मिक मामलों में पूरा देश बहुत जल्दी आश्रित होकर किसी व्यक्ति, किसी मुद्दे, किसी अफवाह की गिरफ्त में आ जाता है। यदि सामाजिक गतिशीलता के मुद्दे रोजमर्रा की जरूरतें हों, तब शायद स्थिति बदल सकती है।
फिर भी जैसा कि पुस्तक के आरंभ में कहा गया है कि इसमें सांप्रदायिकता और धर्मांधता के खिलाफ लिखे गए लेख संकलित हैं। समाचार पत्र में समय-समय पर छपे इन लेखों की अंतरधारा स्पष्ट है और इसका पुस्तकाकार प्रकाशित होना स्वागतेय है, क्योंकि इन लेखों का महत्व दैनिक और स्फुट मात्र नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और स्थायी स्वरूप का है।
सन 2002 में पाठक मंच, बिलासपुर के लिए मेरे द्वारा तैयार की गई, अब तक अप्रकाशित पुस्तक चर्चा। लगा कि पुस्तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए स्वतंत्र लेख की तरह पठनीय है, सो अब यहां प्रस्तुत।
हां, देखेंगे।
ReplyDeleteपुस्तक चर्चा पढ़ना अच्छा लगा. पुस्तक कहीं मिली तो पढ़कर देखेंगे. लेकिन सच कहें तो यह सब पढ़कर अब मन ऊब गया-सा है.
ReplyDeleteपैसे के मामले में सबका मजहब एक है ।
ReplyDeleteधर्म की उत्पत्ति भय से हुई है... राज ही रहने दे नहीं तो गुनाहगारों के हौसले और बुलन्द होगें ☺
पुस्तक निस्संदेह अच्छी होगी.. सत्यार्थ प्रकाश उतना ही प्रासंगिक आज भी है जितना पहले था, बस बदला है तो वोटबैंक के चलते लोगों की मानसिकता. अन्यथा जो चीजें पहले तेग के जरिये हो रही थीं आज वोट के जरिये..
ReplyDeleteसच कहा, मानवीय सम्बन्धों के धरातल पर ही बड़ी बड़ी परिकल्पनायें निर्मित हों।
ReplyDeleteप्रस्तुत पुस्तक चर्चा अपने आप में समस्त पुस्तक का सिंहावलोकन है।
ReplyDelete"धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है और गैर के धर्म की निंदा के लिए भी यही नकाब काम आसान करता है।"
यथार्थ विश्लेषण!!
जो आपने बताया, उससे तो लग ऐसा ही रहा है की पुस्तक भी बहुत अच्छी होगी, पुस्तक तो खैर पढ़ नहीं पाया...आपकी पोस्ट से ही फ़िलहाल काम चला लेता हूँ.
ReplyDeleteलगता है पुस्तक रोचक होगी। धन्यवाद जानकारी के लिये।
ReplyDeleteसबको सन्मति दे भगवान् -पुस्तक परिचय के लिए आभार
ReplyDeleteराजनीति और धर्म का घातक मेल -सच है !
— जब मैंने गांधी द्वारा गाया भजन 'सबको सन्मति दे भगवान्' ... दलित सभा में गाया तो कुछ अधिक पढ़े दलितों ने सोचा कि गीत में 'दलितों के प्रति दुर्भावना व्यक्त है. गीतकार मानता है कि सभी दलितों में दुरमति वास करती है.
ReplyDelete— जब मैंने यही भजन कव्वाली रूप में मुशायरे में सुनाया तो कुछ अधिक पढ़े हजरात ने सोचा कि कव्वाली में 'मुस्लिम्स के प्रति दुर्भावना व्यक्त है. कव्वाल मानता है कि सभी मुसलमानों में दुरमति रहती है.
— जब मैंने यही भजन पडौस के कीर्तन में सुनाया तो कुछ अधिक पढ़ी महिलाओं ने सोचा कि जानबूझकर महिलाओं को बदनाम करने की कोशिश है भजन-उपदेशक महिलाओं में मति की कमी मानता है. सभी को सम+मति यानी 'बराबर मति' की कामना है.
...... हर वर्ग के पढ़े-लिखे जो समझा-बुझा देते हैं ... आमजन वही समझते हैं. ... फिर होती है साम्प्रदायिक, जातिगत राजनीति. ..... आरक्षण का खेल. यही वर्ग तो हैं जो उकसाए जाते हैं. भड़काए जाते हैं. इनमें अपनी-अपनी बुद्धि नहीं. केवल कुछों के द्वारा संचालित किये जाते हैं.
अच्छा लगा जानकार.
ReplyDelete---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
बढ़िया पुस्तक चर्चा.. पढने की जिज्ञासा हो रही है .. जब पुस्तक आएगी तो जरुर जानकारी दीजियेगा..
ReplyDeletemere jaise aalsi ke liye kash hamesha koi pustako ka kathya parosata rahe
ReplyDeletedhanyavad ......
sunil chipde
मायाराम सुरजन की पुस्तक की सारगर्भित विवेचना पढ़कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteबढ़िया पुस्तक चर्चा| धन्यवाद|
ReplyDeleteइस समीक्षा ने पुस्तक रुचि जगा दी। बेहतरीण समीक्षा।
ReplyDeleteआज भी समय है बापू के दिखाए मार्ग पर चलने का। दिनिया जो भटक गई है, सद्पथ भूल चुकी है, उलझन में पड़ी हुई है, -- उसे सही और सच्चे रास्ते पर बढना है तो बापू का दिखाया रास्ता - मानवीय समता का राजमार्ग पकड़ना ही होगा।
सबसे पहले तो धर्म सापेक्षता और धर्म निरपेक्षता की बात - मथाई साहब की लिखी पुस्तक 'all that glitters.....' पढ़ी थी कई साल पहले उसकी याद आ गई।
ReplyDeleteआपके द्वारा दी गई समीक्षा जबरदस्त लगी ही, प्रतुल जी का कमेंट भी अनूठा है।
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ओर सुंदर समीक्षा, धन्यवाद
ReplyDeletebahut achchha laga surjan ji ki pustak ka sar padh kar pustak mili to jarur padhe ka man hai ,aap ne bahut achchhe se prstut kiya hai .
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी मिली ! मायाराम जी को शुभकामनायें !!
ReplyDeleteआपके लेख से में पूरी तरह से सहमत हूँ की समाज में घट रही घटना किसी एक तथ्य पर टिकी नहीं होती उसमें सब बातों का मिला जुला कारण अवश्य होता है जैसे की धर्म की अपने बात की .................धर्म की उत्पत्ति भय से हुई है, इस पर मतैक्य नहीं है, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं कि इतिहास में बारम्बार और इस दौर में विशेषकर धर्म के साथ संकट, आशंका और भयोन्माद का माहौल रचकर धर्म के फलने-फूलने की तैयारी दिखायी देती है। ऐसा लगता है मानों हमारे देश में दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं के लिए सभी संतुष्ट हैं, अन्यथा मानसिक रूप से स्वावलम्बी स्थिति है, क्योंकि ऐसे कारक सामाजिक स्तर पर संवेदना के कारण नहीं बन पाते, किन्तु धार्मिक मामलों में पूरा देश बहुत जल्दी आश्रित होकर किसी व्यक्ति, किसी मुद्दे, किसी अफवाह की गिरफ्त में आ जाता है। यदि सामाजिक गतिशीलता के मुद्दे रोजमर्रा की जरूरतें हों, तब शायद स्थिति बदल सकती है।
ReplyDeleteऔर ये बात भी सच है ....................... मीडिया की तटस्थता और निष्पक्षता का नकाब, रोमांचक और आकर्षक खबर परोसने की राह आसान बना देता है। (बड़े खर्च के साथ मौके पर पहुंच कर सनसनी वाली खबर न निकले, तो बात कैसे बनेगी ॽ) और जब बात ही नहीं बनेगी तो फिर कमी कैसे होगी ? तो सारी बातों की एक बात की हर कोई एक दुसरे को सिर्फ भुनाने में लगा हुआ है |
आपका लेख हमें सच में बहुत अच्छा लगा |
किताब काफी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक लगती है.. और आने वाले समय में भी इसकी प्रासंगिकता कम होने वाली नहीं.. क्योंकि हमारे पूरे (सिंधु सभ्यता)क्षेत्र में धर्म (और साथ ही धर्मान्धता भी) सामाजिक और राजनीतिक जीवन से किसी न किसी रूप में जुड़ा रहा है और शायद आगे भी ऐसा रहेगा.. इसलिए इन लेखों का सर्वकालिक महत्व है...
ReplyDeleteसारगर्भित पुस्तक चर्चा....बहुत ही महत्वपूर्ण और पठनीय पुस्तक होगी...हाल की घटनाओं को विस्तार से जानने और उसके हर पक्ष को तटस्थ नज़रिए से देखने का मौका मिलेगा.
ReplyDeleteज्वलंत वैचारिक मुद्दों पर आधारित पुस्तक 'सबको सन्मति दे भगवान' पर आपकी सारगर्भित विवेचना सत्य को साँस दर साँस अनुभव करने जैसी है !
ReplyDeleteपुस्तक की विषयवस्तु और आपके द्वारा प्रस्तुत पुस्तक परिचय दोनों प्रशंसा के पात्र हैं!!आभार!!
ReplyDeleteJankari ke liye dhanyabad.
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा हुई है। पढ़ने की जिज्ञासा पैदा हुई।
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ReplyDeleteभला कोई तो है जिसे गांधी जी का ख्याल इस तरह से है !
ReplyDeleteachha laga padhkar.........
ReplyDeletepranam.
राहुल जी बहुत सही कहा आपने आज हमारी ''सारी सांस्कृतिक परम्पराएं जैसे राजनीतिक एवं सामाजिक वहशीपन का शिकार होती जा रही है।'' सांप्रदायिकता और धर्मांधता के जरिये निहित स्वार्थ की पूर्ति बहुत आसान होती है.धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है क्योंकि उसका प्रयोग वह अपनी छवि आवृत करने के लिए करता है.दूसरे शब्दों में कहें तो भेडिये को आसानी से भेड़ की खाल मिल जाती है. बहुत प्रेरक लेख है लेकिन हमारी समझ काफी ऊपर की चीज है.कुछ गलत समझा हो तो माफ़ी चाहूँगा.आपके लेखन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
ReplyDeleteमीडिया भी आज के बाज़ार का एक हिस्सा है ....ओर अब धार्मिक व्यक्ति मुझे भयभीत करने लगे है ......
ReplyDeletemere muhalle ko khudai walo ne charo taraf se harappa ki tarah khod daala hai. kuch khaas to nahi mila par net connection chala gaya. net judne par poori tippani karunga. pahli nazar men mazedaar hai.
ReplyDeleteपुस्तके तो मनुष्य की मित्र होती हैं परन्तु हम इन्हें मित्र न बना सके
ReplyDeleteआदरणीय मायाराम सुरजन जी से उनके प्रेस में एक बार मिलने का अवसर मिला था और अभिभूत भी हुआ. आपकी समीक्षा भी बहुत कुछ कह जाती है. बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteराहुल जी निःसन्देह जब समीक्षा इतनी ज़बरदस्त की है आपने तो पुस्तक का कलेवर लाजवाब होगा...पेशे से मैं भी एक पत्रकार हूँ लिहाज़ा मीडिया के नक़ाबधारी पक्ष से मैं वाबस्ता हूँ..फिलहाल क़िताब की प्रतिक्षा रहेगी..
ReplyDeleteज्ञानवर्धन कराती इस बेहतरीन समीक्षा के लिए आभार ।सबको सन्मति दे प्रभु ।
ReplyDeleteआपकी चर्चा बेहद रोचक... और यही पुस्तक के रोचक होने का प्रमाण भी है...
ReplyDeleteवाकई गांधी जी को याद रखने वाले कम हैं, परन्तु जो हैं वो पक्के हैं...
bahut hi badhiya samiksha ki hai rahul ji..
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