मौसम-मिजाज से, न खैर-खबर से, कभी तो सलाम-बंदगी भी रह जाती है, जब मोहित साहू जी से बात शुरू होती है। वे पूछ रहे हैं, पिछले साल की पंडुक, गौरैया, लिटिया के बारे में, मेरे पास जवाब खाली है, बचने को कहता हूं, पिछले दिनों व्यस्त रहा खुसरा चिरई के ब्याह में, कुछ नया बताऊंगा इस साल। मई का आखिरी हफ्ता। नवतपा की दोपहर। याद कर रहा हूं, इस मौसम में भी सक्रिय रॉबिन के जोड़े को। सोचता हूं, उन पर ध्यान दूं, शायद मोहित जी से अगली बातचीत तक कोई जवाब बन जाए।
रॉबिन?, यह किस चिड़िया का नाम है। इसका पूरा नाम इंडियन रॉबिन है यानि Saxicoloides fulicata या हिन्दी में कलचुरि और छत्तीसगढ़ी में कारीसुई (और इसकी जोड़ीदार मैगपाई रॉबिन छत्तीसगढ़ में बक्सुई कही जाती है)। हमारे लिए आमतौर पर इंडियन या मैगपाई रॉबिन के बजाय रॉबिन ब्ल्यू अधिक सुना गया शब्द है, जो लगभग नील का पर्याय था और इसी के कारण मैं मानता था कि रॉबिन का रंग नीला होता होगा, बहुत बाद में पता लगा कि नीली रॉबिन हिमालय की तराई, म्यांमार, पश्चिमी घाट और श्रीलंका में तो होती है लेकिन इस अंचल के लिए रॉबिन का नीलापन विसंगत है।
इस चिड़िया के नाम कलचुरि-इंडियन रॉबिन के साथ रॉबिनहुड, रॉबिन ब्ल्यू नील, नील की तीन कठिया खेती, चम्पारण, स्वाधीनता संग्राम, गांधी जी, कलचुरि राजवंश ... ... यानि प्रकृति, पर्यावरण, भूगोल, पुरातत्व-इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, राष्ट्रीयता, शौर्य, लोकोपकार, सब कुछ जुड़ जाता है, लेकिन फिलहाल तो ललित निबंध लिखने का कोई इरादा नहीं है। यह पोस्ट रॉबिन चिड़िया की जानकारी के लिए भी नहीं है, क्योंकि चिड़ियों के मामले में मेरी जानकारियों की तुलना में रुचि का पलड़ा एकतरफा भारी होता है। जानकारी के लिए पहल करने वाले मोहित साहू जी, विवेक जोगलेकर जी सहज उपलब्ध हो जाते हैं और फिर भी कुछ न निपट पाए तो सालिम अली हैं, जिन्होंने चिड़ियों के पीछे पूरा जीवन बिता दिया, उनकी पुस्तक देख लेता हूं और उनके काम और जीवन की सार्थकता को अपने-आप में पुष्ट करता रहता हूं।
मोहित जी से पिछले हफ्ते फिर बात हुई, मैं आगे बढ़ कर बताने लगा। रोजाना के रास्ते में, मेरी पहुंच में, बस नाम की ओट में, अहिंसा की प्रतिमूर्ति तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रतिमा (निबंध लिखना हो तो अब धर्म भी है और कला भी) की छत्रछाया में रॉबिन का जोड़ा अपने चूजे पाल रहा है। मोहित कहते हैं कि यह चिड़िया अपने घोंसले की सफाई का खास ध्यान रखती है, चूजे का पोषण चिड़ा, चिड़ी दोनों करते हैं और कई तरह की ढेरों जानकारियां, इसलिए फिलहाल मुझे न सालिम अली की जरुरत है न गूगल की। अपनी रुचि के अनुकूल अवसर है। चूजे तो बेझिझक हैं ही, चिड़ा-चिड़ी का रवैया भी सहयोगी है, सो कुछ तस्वीरें निकल आई हैं-
चिड़ी का चुग्गा |
घोसले के आसपास चिड़ा-चिड़ी |
अब चिड़े की बारी |
लगभग महीने भर का वक्त, रॉबिन के पलने-पालने में उनके लिए किस तरह पल-पल बीता होगा, मेरे लिए तो समय के मानों पर लग गए और वह पंछी की तरह फुर्र हुआ।
nice information
ReplyDeleteबुद्ध के हाथों के बीच बैठी रॉबिन, सुन्दर और रोचक, बचाने वाले के हाथों में।
ReplyDeleteमेरी जानकारी बहुत सीमित है. क्या यह भी फुदक फुदक कर ही चलती है? कुछ नजदीक से ली तस्वीरें हैं, भोपाल जाकर भिजवाता हूँ .
ReplyDeleteकश्मीर से लौटकर कन्याकुमारी के तरफ अग्रसर.
चेन्नई.
मेरी जानकारी बहुत सीमित है. क्या यह भी फुदक फुदक कर ही चलती है? कुछ नजदीक से ली तस्वीरें हैं, भोपाल जाकर भिजवाता हूँ .
ReplyDeleteकश्मीर से लौटकर कन्याकुमारी के तरफ अग्रसर.
चेन्नई.
पी.एन.सर,
Deleteइस बार भी आऊट ऑफ भोपाल? :(
बहुत सुंदर तस्वीरें
ReplyDeleteमेरे पास भी एक पुस्तक तो थी (पता नही अब कहा है) उसमे बड़ी ही खूबसूरती से चिड़ियो और उनके भारतीय साहित्य मे प्रयोग की जानकारी सहित अन्य सभी जान्कारिया थी सबसे बड़ी विशेषता आंचलिक नामो का अद्भुत खजाना था उसमे। शायद किन्ही राजेश्वर सिंग जी की लिखी हुई थी। कल खोजता हूं मिल गयी त आपके लिये बड़े मनोयोग से पढ़ने का मसाला हो जायेगा।
ReplyDeleteगौतम बुद्ध के हाथ में, गोदी में जूनियर रोबिन कितने निर्भीक दिख रहे हैं, दिखें भी क्यों न?
ReplyDeleteक्षमा कीजियेगा,
Delete'पार्श्वनाथ की गोदी में रोबिन बहुत निर्भीक दिख रहे हैं' जोकि स्वाभाविक भी है|
इनकी अपनी ही एक भाषा है ....
ReplyDeleteअपने यहाँ इसे गडुल्लर कहते हैं क्यिकी इसका वेंट लाल होता है..... :)
ReplyDeleteपार्श्वनाथ जी के जंघा में राबिन चिड़िया को संरक्षण मिलना कोई बड़ी बात नहीं , वो तो जन कल्याण के लिए ही अवतरित हुए ,
ReplyDeleteतारीफ है २०१२ में आप सबका प्रेम कि उस हलचल कि जगह पर पुरे विभाग ने उसके विश्वास कि रक्षा की. मैं आप सब को इस पक्षी प्रेम के लिए प्रणाम करता हूँ . आज पता लगा कि आप सबको संस्कृति विभाग का दायित्व इश्वर की ओर से सौपा गया है न की जीविकोपार्जन के लिए ...
पुनः पूरा विभाग नमन योग्य ..और आपको केवल पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद .......प्रणाम ..
मोहक और भव्य संदर्भित ...तीन कठिया ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रोबिन और अच्छी जानकारी.....
ReplyDeleteलगभग सवा महीने के बाद ब्लॉग जगत में लौटा हूँ।
ReplyDeleteयह तो अपने आप में सुन्दर चित्र-कथा है। आपके चिरपरिचित और स्थापित मिजाज के मुताबिक, रोचक भी, मनोरम भी और नयनाभिराम भी।
रॉबिन घोंसला बनाने की तलाश में भगवान पार्श्वनाथ की शरण में आया और फुर्र से उड़ गया।..कुछ तश्वीरें बहुत सुंदर हैं।
ReplyDeleteआलेख रॉबिन पर ही केंद्रित रहता। ब्लॉगिंग चैट न होती तो सभी के काम का होता। मुझे ऐसा लगता है(पता नहीं सही है या नहीं) हम ब्लॉगर ब्लॉगिंग बतकही में अच्छे आलेख का गला घोंट देते हैं।
अरे वाह बढ़िया जानकारी और बेहतरीन चित्र.
ReplyDeleteधन्यवाद, कुछ हद तक आपसे सहमत. लेकिन ब्लॉगिंग पर कुछ न कुछ ब्लॉगरी भी तो होनी ही चाहिए.
ReplyDeleteबात बनाने का एक कारण यह भी कि जैसा मैंने स्पष्ट किया है, मेरी जानकारियों सीमित हैं इस मामले में.
और बाकी रॉबिन में रुचि लेने वालों के लिए ढेरों सामग्री उपलब्ध है ही.
जानकारि ...चित्र ....दोनो......सुन्दर........
ReplyDeleteराहुल सिंह जी, नमस्कार !
ReplyDeleteआप की पोस्टें ज्ञान बड़ाने के लिए हैं
हम जैसों की टिप्पणी पाने के लिए नही.....
खुश रहें!
चित्रों का संयोजन अच्छा रहा।
ReplyDeleteरॉबिन चिडा चिडी के सुंदर चित्र देख कर मन प्रसन्न हुआ ।
ReplyDeleteहाल ही में एन्डरसन में भी हमारे घर में बाहरी लैंप के ऊपर एक खूबसूरत चिडिया ने घोसला बनाया । लंबी पूंछ हलका भूरा रंग लिये य़े चिडिया रोज बच्चों को दाना लाती पर मेरी आहट सुनते ही भाग खडी होती . इसी से मैं अच्चे फोटो नह ले पायी पर जब तक घोसला खाली ना हुआ मै रोज ये संगोपन देखती रही और प्रसन्न होती रही । आपके लेख ने घोसला खाली होने का दर्द फिर से जगा दिया ।
हर बार की तरह एक रोचक जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteबढ़िया चित्र!
ReplyDeleteशानदार जानकारी... हाल ही में एक दिन अपने ३ वर्षीय भांजे को लेकर जू गया था... वहां पहली बार देखा था इस चिड़िया को... आज जानकारी भी मिल गयी...
ReplyDeleteऋषि-मुनियों तपस्यारत होने पर उनके सर में घोंसला बना लेने वाली कहानियां याद आई !
ReplyDeleteसुन्दर.
(१) दैहिकी / वंशानुक्रमण / काम जीवन परिणति पर ईश कृपा ?
ReplyDelete(२) निज अभिमत ये कि फोटोग्राफ्स सब कह दे रहे हैं , देवनागरी लिपि में कहे गये की , आवश्यकता शायद थी ही नहीं !
चिड़ियों के फुदकने वाला दृश्य तो वैसे भी मोहक होता है। लेकिन यहां मूर्तियों के साथ और अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteब्लॉग के लेख से इसबार मुझे फोटोग्राफ्स ने ज्यादा आकर्षित किया ये तो किसी प्रदर्शनी में रखने के लायक लगे कुछ को तो मैं डाउनलोड भी किया ताकि उनको प्रिंट करवा सकूं
ReplyDeleteउम्दा आलेख के लिए अभिनन्दन
जानकारी के साथ पक्षियों के ये मोहक फ़ोटो देखना बहुत सुखद अनुभव है !
ReplyDeleteमोहित साहू जी ई-मेल परः
ReplyDeleteDear Rahul bhai,
Hindi typing is not my cup of tea,sorry!
For the first time I came to terms with Indian robin in 1980.
It was May[I am bad at remembering dates] when I saw a female sitting on the pelmet, just over my study-table.On my entering the room she fled. Wondering,what was she up to,I peeped over the pelmet and to my astonishment,saw some nesting material.I sat on the chair quietly pretending to be unconcerned.After a while,when she became sure about my credibility,she returned with another strand and placed it carefully.
The process went on for some days and I was the only two-legged creature whom the pair would tolerate in that room.The pair became very friendly,so much so that I could be at a hand-shaking distance from them.Then came a clutch of 3 eggs and my nearness to the brooding female
increased-perhaps she could hear me breathe-the male would watch us from a distance,I am sure,with envy.After about 3 weeks,one day I heard a faint sound and on inspection I saw the chicks.Now, the
pair got engrossed in brood-care and they made not less than 100 sorties daily, bringing food for the ever-demanding broods.Once,as I was observing
the family,I observed a very strange thing,when the female approached the nest.one of the broods turned it's tail towards her and lifted it,a small pellet came out of it's vent[cloaca] which she took in it's beak and flew out. I always used to wonder-how the nest used to be absolutely clean-and this was the answer.As the time passed,the brood grew and one afternoon, on my return from the college,I heard the pair calling frantically.Fearing,
something untoward,I rushed to the room and to my relief,saw two of the young-ones sitting on the window-sill and one on the floor and the parents coaxing them to come and feel the world outside.I knew it was time to bid farewell to my one- month- old friends.The whole episode still makes me nostalgic even after 32 long years.This one-month intimate nearness inculcated in me, the love for these feathery creatures,which still persists.
Red vented bulbuls also do the same thing except they eat the fecal-sac of their brood. [reason-the chicks eat too much and good part remains semi-digested with much nutrients].
Another story some other time.
With warm regards'