किताबी प्राचीन छत्तीसगढ़ से पहले-पहल मेरा परिचय एक विवाद के साथ हुआ था, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, इस विवाद के बाद भी प्यारेलाल गुप्त जी, पुरातत्व की तब युवा प्रतिभा लक्ष्मीशंकर निगम जी (अब वरिष्ठ विशेषज्ञ) के सदैव प्रशंसक रहे और निगम जी भी गुप्ता जी के उद्यम का बराबर सम्मान करते रहे। इस भूमिका के साथ सन 1973 में दैनिक देशबन्धु में प्रकाशित टिप्पणी यथावत प्रस्तुत-
प्राचीन छत्तीसगढ़ की प्रामाणिकता
रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ''प्राचीन छत्तीसगढ़'' (लेखक- श्री प्यारेलाल गुप्त) नामक पुस्तक का अवलोकन करने का अवसर प्राप्त हुआ। यह पुस्तक अनेक त्रुटियों से युक्त तथा अन्य पुस्तकों एवं अन्य लेखों की प्रतिलिपि ही कही जा सकती है। अतः इस पुस्तक को विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।
इस संबंध में स्मरण रहे कि उक्त पुस्तक के लेखक श्री प्यारेलाल गुप्त का एक लेख नवभारत ( दिनांक 24 दिसम्बर, 1972) के रविवासरीय अंक में ''छत्तीसगढ़ में गुप्त युग के सिक्के'' नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उसमें यह उल्लिखित था कि यह लेख 'प्राचीन छत्तीसगढ़' नामक ग्रंथ पर आधारित है तथा उक्त पुस्तक का प्रकाशन रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में मैंने रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति जी का ध्यान दिनांक 19 जनवरी 1973 को एक पत्र लिखकर कतिपय त्रुटियों की ओर कराया था तथा उसमें अनुरोध किया था कि उक्त ग्रंथ के प्रकाशन के पूर्व उस पर पुनर्विचार किया जावे। किंतु किन्हीं अज्ञात कारणों से मेरे उक्त पत्र पर न तो ध्यान ही दिया गया न ही इस सम्बन्ध में कोई उत्तर ही मुझे दिया गया।
इस पुस्तक के अध्याय 5, 6, तथा 7 के अधिकांश अंश, जिनकी पृष्ठ संख्या लगभग 60 है, श्री बालचन्द जैन द्वारा लिखित 'उत्कीर्ण अभिलेख' नामक पुस्तक की प्रतिलिपि ही कहे जा सकते हैं। श्री जैन की उक्त पुस्तक के अधिकांश भाग कुछ शब्दान्तरों के साथ ज्यों के त्यों उतार दिये गये हैं। यहां तक वाक्य विन्यास भी बिल्कुल उसी प्रकार है। अतः उक्त अंश के सम्बन्ध में विचार करने का कोई औचित्य नहीं है। पुस्तक के अध्याय 2 एवं 3 जो कि द्रविड़ तथा आर्य सभ्यताओं से संबंधित है। इसमें लेखक ने कई भ्रान्तिपूर्ण मत प्रतिपादित किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने मौर्ययुगीन प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ चाणक्य को द्रविड़ कहा है। जबकि समस्त भारतीय साहित्यिक साक्ष्यों से हमें ज्ञात होता है कि चाणक्य ब्राह्मण थे। पुनश्च लेखक के इस मत के विषय में कुछ नहीं कहना है, सिवाय इसके कि उन्होंने अपने मत के समर्थन में कोई साक्ष्य अथवा तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया है। साथ ही साथ ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वयं दिगभ्रमित हो गये हैं। एक ओर उन्होंने आर्य तथा द्रविड़ सभ्यताओं को एक सिद्ध करने का प्रयास किया है व कुछ ऐसे उद्धरण भी प्रस्तुत किया है जिससे यह प्रगट होता है कि आर्यों पर द्रविड़ सभ्यता का प्रभाव पड़ा था। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा यहां असंगत होगी।
प्यारेलाल गुप्त // पुस्तक // लक्ष्मीशंकर निगम |
गुप्त वंश का इतिहास (पृ 49 से आगे) लिखते समय लेखक ने अनेक अनैतिहासिक तथा काल्पनिक तथ्यों का समावेश किया है। इस खण्ड को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास के स्थान पर किंवदन्तियां तथा अनुश्रुतियां प्रस्तुत की जा रही हैं। इस अंश में दक्षिण कोशल के नरेश ''महेन्द्र'' का उल्लेख है जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। कुछ पंक्तियों के पश्चात् ''महेन्द्र'' को नाम न मानकर समुद्रगुप्त द्वारा पराजित दक्षिण के नरेशों की समुदायवादी उपाधि कहा गया है। इसी प्रकार फिंगेश्वर में समुद्रगुप्त की सेना का पड़ाव तथा राजिम से 13 मील दूर कोपरा नामक ग्राम में समुद्रगुप्त की रानी रूपा के निवास सम्बन्धी अनेक काल्पनिक घटनाओं तथा किंवदन्तियों का उल्लेख किया गया है। वैसे भी अभिलेखीय श्रोतों से हमें ज्ञात है कि समुद्रगुप्त की रानी का नाम ''दत्तदेवी'' था।
इस सम्बन्ध में लिखा गया है कि ''एक अभिलेख देवानामप्रिय प्रियदर्शिन अशोक का है जिसने इस अभिलेख में अपनी प्रजा को शान्ति और सदाचार के मार्ग में चलने की सीख दी है।'' इस सम्बन्ध में स्मरण रहे कि अशोक के इस अभिलेख में अपनी प्रजा को शान्ति और सदाचार की शिक्षा नहीं दी गई है, वरन् इसमें अशोक का कौशाम्बी के महामात्यों के नाम आदेश है कि यदि कोई भिक्षु संघ में भेद फैलाये तो उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर संघ से निकाल दिया जावे।
इस तरह हम देखते हैं कि इस पुस्तक में जहां एक ओर अन्य लेखकों की सामग्री का खुलकर प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर अनैतिहासिक तथा भ्रमात्मक तथ्यों का भी समावेश किया गया है।
लक्ष्मीशंकर निगम
रायपुर म.प्र.
कभी गंभीर आलोचना झेल चुकी यह पुस्तक समय के साथ और अन्य सामग्री की अनुपलब्धता के कारण महत्वपूर्ण होती गई। यही एक प्रकाशन था, जिसमें छत्तीसगढ़ की खासकर कला, संस्कृति, पुरातत्व और साहित्य की सामग्री इकट्ठी मिल जाती थी। सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के दौर में इस पुस्तक की खोज होती, अनुपलब्ध होने के कारण, इस पुस्तक प्राचीन छत्तीसगढ़ पर आधारित, सन 1996 और 1998 में दो भाग में छपी मदनलाल गुप्त की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन' की धूम रही।
इस प्रसंग में उल्लेखनीय, छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर आधारभूत पुस्तक, बालचन्द्र जैन लिखित एवं संपादित 'उत्कीर्ण लेख' प्रथमतः सन 1961 में प्रकाशित हुई। पुनः छत्तीसगढ़ की 21 नयी अभिलेख प्राप्तियों को शामिल कर मूल पुस्तक का परिवर्धित एवं परिमार्जित संस्करण जी एल रायकवार और राहुल कुमार सिंह ने तैयार किया, जो सन 2005 में प्रकाशित हुआ। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर यह पुस्तक प्रथम प्रकाशन से अब तक सर्वाधिक प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में निर्विवाद प्रतिष्ठित है।
नीर-क्षीर प्रस्तुति
ReplyDeleteआग्रह उन सज्जनों से जिनकी पुस्तकों का विमोचन कर राज्य के विद्वान गौरव महसूस करते हैं ,अपने प्रकाशन की गंभीरता और गुरुता पर ध्यान दें .
ReplyDeleteपूर्व में प्रकाशित लेख पर भी कहा गया है की भूल सुधार कर लेना आपके बड़ापन की निशानी है न की आपके किसी गलती की .
पुस्तकों का संरक्षण और तथ्यों की प्रमाणिकता को बनाये रखने के लिए विद्वानों द्वारा संशोधित पुस्तक का प्रकाशन कर लेखक और तथ्यों की गरिमा को
स्थापित किया जाना चाहिए .ताकि छत्तीसगढ़ की छवि पर कोई प्रश्न चिन्ह न बन पाए ,मेरा सविनय निवेदन ....
ध्यानाकर्षण के लिए शुक्रिया .....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteतब शायद कोई सुनवाई न होने पर अन्ततः चौथे स्तंभ का सहारा लिया गया था.
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteसार्वजनिक हो रहे/हुए प्रकाशन पर सार्वजनिक टिप्पणी जैसा था 'चौथे स्तम्भ' का सहारा.
Deleteपक्ष के विपक्ष का प्रतिपक्ष.
(2005 वाला प्रकाशन प्राचीन छत्तीसगढ़ का संशोधित वर्शन नहीं).
32 सालों में निगम जी के किए गए कामों प्रामाणिक और मौलिक प्रकाशन की लंबी सूची है.
चर्चा के नए क्षेत्र इंगित करने वाली टिप्पणी, इसलिए इस पर अलग से बात करना ठीक होगा.
प्यारेलाल जी की यह किताब जो मेरे पास है वह रविवि प्रकाशन की है प्रथम संस्करण 1973, 1000 प्रतियॉं, पेज है 432 चित्र, शुद्धिपत्र आदि के अतिरिक्त पेज 16. हार्डबांडेड.
ReplyDeleteमैं भी इसे विश्वविद्यालय प्रकाशन के कारण प्रामाणिक मानता रहा हूं, मदनलाल गुप्त की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन' से ज्यादा प्रामाणिक (इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इसके दोनों भाग मेरे पास नहीं है जिसे मैं दुर्ग के सेन्ट्रल लाईब्रेरी से लेकर पढते रहा हूं). आज इस पोस्ट में तत्कालीन रपट को पढकर ज्ञानार्जन हुआ.
प्यारेलाल जी वाले प्राचीन छत्तीसगढ़ का शायद यही एक संस्करण छपा है, पुरातत्व के कुछ हिस्से के अतिरिक्त निसंदेह यह एक महत्वपूर्ण प्रकाशन है.
DeleteSir मैं सिविल सर्विसेज का छात्र हु और छत्तीसगढ़ के इतिहास की प्रमाणिकता से दो चार होते रहता हूँ मैंने कुछ बुक्स राज्य ग्रथ अकादमी से लिये और उन्हें पढ़ा है लेकिन वो भी मुझे अपूर्ण लगे ।कुछ बुक्स बताएं जो प्रामाणिक हो और उपलब्ध हो जाएं और उनकी उपलब्धता का स्थान बताएं कृपया ,यह मेरा फोन no. है जिसमे आप संपर्क कर सकते हैं 7509548654
Deleteजानकारी मिली।
ReplyDeleteज्ञानवर्धन हुआ.
ReplyDeleteयथार्थ इतिहास के लिए विरोधाभास पर सचेत रहना आवश्यक है.
ReplyDeleteज्ञानवर्धन जानकारी मिली !!
ReplyDeleteएक महत्वपूर्ण दस्तावेजी प्रकरण-किताब का संशोधित संस्करण तो आ ही गया होगा ?
ReplyDeletebahut hi gyanverdhak jankari mili..........dhanyawaad
ReplyDeleteसटीक जानकारी देते हैं आपके लेख |
ReplyDeleteसदैव इन्तजार में रहता हूँ ||
आभार ||
कभी विस्तारित करूँगा अपने विचार को . मेरे मत मे गुप्त जी की प्राचीन छत्तीसगढ़ असावधानी और बेमन से लिखी पुस्तक है . लेखक ने अपनी पुरानी पुस्तिका बिलासपुर वैभव की लेखकीय कसावट को पूरी तरह से छोड़ दिया है . शायद उम्र का असर हो एक कारण ...
ReplyDeleteतथ्य सच रहे, स्पष्ट रहे, तभी दीर्घकालिक होते हैं।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी...
ReplyDeleteऐतिहासिक लेखन सबसे दुरूह और जोखिम भरा होता है,इसलिए इसे गंभीरता और तथ्यपूर्ण होकर ही लिखना चाहिए.
ReplyDelete...अली साहब कहाँ गए,उनके दोनों ज़वाब दिख रहे हैं !
यही कह पा रहा हूँ कि मेरी जानकारी बढी।
ReplyDeleteअधिकांश इतिहास लेखन को विवादों का सामना करना पड़ता है और ऐसा स्वाभाविक भी है। आधे-अधूरे प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों की कड़ियां जोड़ने के लिए इतिहास लेखक कल्पना का सहारा लेने का लोभ संवरण नहीं कर पाता।
ReplyDeleteबाद में नवीन साक्ष्यों से इतिहास में संशोधन-परिवर्धन होता रहा है।
लक्ष्मीशंकर निगम, बालचंद्र जैन, मदन लाल गुप्त और आपको छत्तीसगढ़ के इतिहास को प्रामाणिक बनाने के लिए बधाई।
किंवदंतियों का संकलन भी बेहद महत्वपूर्ण है, एक तरह से यह कुछ क्लू लिए होते हैं जैसे पहेलियों में कुछ गूढ़ रहस्य छिपा हो। समुद्रगुप्त की कोई पत्नी छत्तीसगढ़ में रही हो यह हो भी सकता है क्योंकि गुप्त राजवंश के राजा वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपने साम्राज्य को सुदृढ़ कर रहे थे। ऐसा लिखते हुए अभिज्ञान शाकुन्तलम का एक प्रसंग याद आ रहा है जिसमें कोयल के कूकने पर उपरानियां अपने उपरानी होने के दुर्भाग्य को कोसती हैं।
ReplyDeleteI read your post interesting and informative. I am doing research on bloggers who use effectively blog for disseminate information.My Thesis titled as "Study on Blogging Pattern Of Selected Bloggers(Indians)".I glad if u wish to participate in my research.Please contact me through mail. Thank you.
ReplyDeletehttp://priyarajan-naga.blogspot.in/2012/06/study-on-blogging-pattern-of-selected.html
ऐतिहासिक ग्रंथों को या किसी भी शोध कार्य को प्रामाणिक और मौलिक होना अनिवार्य है । किवदंतियों को शामिल किया जा सकता है बशर्ते कि ऐसा उल्लेख हो । Publish or perish के चक्कर में लोग ऐसी भूल कर बैठते हैं ।
ReplyDeleteकुछ किंवदंतियां कब इसिहास बन जाती हैं... और कभी-कभी शायद इतिहास भी किंवदंती !
ReplyDeleteमेरा भी ज्ञानवर्धन ही हुआ, यह पूरी जानकारी मेरे लिए नयी ही है।
ReplyDeleteआभार!
Likhane ka udyam karane vali nai pidhi ke liye preranadayak, dhanyavad sir.
ReplyDeleteAarya -dravid ka bakhedaa angrejiyat ki den hai!
ReplyDeletebed ke mantron ka arth jaanne ke liye vedaangon pr prishram karne ke baad poor rishiyon dvaaraa diye nirdeshan ka paalan karte huye arth-grahan kiya jata hai....David ka arth-dhan-aishvary- hai.n ki dakshin bhaartiy...mantra dekhiye-- Om Stuta my a vardaa vedmata prachodyantaam pavmani dvijanam aayuh praanam prajaam pashum keertim
dravinam brahmavarchasam mahyam datvaa vrajatbrahmlokam..