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Sunday, March 27, 2022

बिलासपुर की प्राचीन नवपुरी

सात जिलों वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के पुरातात्विक स्थलों पर सन 1985 से 1997 तक, विभिन्न प्रयोजन हेतु जानकारियां तैयार की जाती रहीं। इस दौरान बिलासपुर के पुरातत्व कार्यालय में पदस्थ रहते हुए मुझे यह अवसर बार-बार मिला। इन्हीं में से एक यह तत्कालीन बिलासपुर जिले के नौ प्रमुख पुरातात्विक स्थलों की संक्षिप्त जानकारी यहां प्रस्तुत है-

1. अड़भार- बिलासपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर, सक्ती अनुविभाग में स्थित है। संभवतः इसी ग्राम को प्राचीन अभिलेखों में अष्टद्वार कहा गया है। स्थल पर 7-8 वीं सदी ईस्वी के स्थापत्य अवशेष विद्यमान है, जो मूलतः शिव मंदिर रहा होगा। पश्चिमाभिमुख यह शिव मंदिर अष्टकोणीय तारानुकृति तल-विन्यास वाला है, जिसमें प्रवेश हेतु दो द्वार अब भी विद्यमान है। प्रवेश द्वार-शाखाओं पर नाग तथा संभवतः गरुड़ और सिरदल पर कार्तिकेय व उमा-महेश का अंकन है। मंदिर परिसर में अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी महिषमर्दिनी तथा जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं हैं साथ ही नंदी तथा अष्टभुजी नटराज शिव की भी प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला-प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रुप में प्रस्तुत की जा सकती है। स्थल से ऐतिहासिक महत्व को विभिन्न शिलालेख, ताम्रपत्र व कलात्मक प्रतिमाएं प्रकाश में आई है। प्राचीन मृत्तिका-दुर्ग अथवा धूलि-दुर्ग (mud fort) की रुपरेखा भी अवशिष्ट है। समीप ही दमउदहरा नाम से प्रसिद्ध तीर्थस्थल ऋषभतीर्थ 'गुंजी' है, जो महत्वपूर्ण धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक दृश्यावली सम्पन्न स्थल है।

2. खरौद-शिवरीनारायण- खरौद, बिलासपुर से लगभग 63 किलोमीटर दूर, जांजगीर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थान विगत सदियों से 'परगना' के रुप में प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय रहा है। यहां 7-8 वीं सदी ईस्वी के ईंट-निर्मित मंदिर विद्यमान है, जिनमें इन्दल देउल और शबरी मंदिर मुख्य है। दोनों मंदिर तारकानुकृति तल-विन्यास पर निर्मित है। इन्दल देउल के पाषाण निर्मित प्रवेश द्वार पर पूरे शाख के आकार की नदी देवियाँ गंगा, यमुना उल्लेखनीय है। शबरी मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग तथा गरुड़ का क्षेत्रीय परम्परागत अंकन है। शबरी मंदिर के मंडप की प्रतिमाएं तथा स्तंभ भी महत्वपूर्ण हैं एक अन्य प्राचीन मंदिर लक्ष्मणेश्वर है, जिसे विशेष धार्मिक मान्यता प्राप्त है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना और शैव-द्वारपाल है। मंदिर के स्तंभों पर रामकथा का अंकन है तथा मंडप की भित्तियों पर दो प्राचीन महत्वपूर्ण शिलालेख जड़े हैं। मंदिर परिसर में कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं के साथ अभिलिखित राजपुरुष की प्रतिमा भी विद्यमान है। ग्राम में अन्य प्रतिमाएं तथा स्थापत्य अवशेष भी प्राप्त हुए है तथा अवशिष्ट धूलि-दुर्ग के लक्षण परिखा (खाई) के रुप में विद्यमान है।

संलग्न स्थल शिवरीनारायण, महानदी-शिवनाथ-जोंक संगम त्रिवेणी के निकट स्थित, छत्तीसगढ़ का प्रमुख वैष्णव केंद्र है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के नर-नारायण मंदिर, केशवनारायण मंदिर, चंद्रचूड़ मंदिर सहित पिछली सदी का राम-जानकी मंदिर है। प्राचीन शिलालेख और ताम्रपत्र भी प्राप्त हुए हैं। सन 1891 तक यह तहसील मुख्यालय रहा साथ ही जगन्नाथ पुरी से संबद्धता और माघ पूर्णिमा पर मेला भी उल्लेखनीय है।

3. जांजगीर- बिलासपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर, अनुविभाग मुख्यालय है। यह स्थल रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम द्वारा बसाया गया माना जाता है। यहां 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। शिखर-विहीन विष्णु मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से पूर्ण विकसित एवं तत्कालीन कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। मानवाकार प्रतिमाओं युक्त विशाल जगती (चबूतरे) पर मंदिर निर्मित है। जगती पर देव प्रतिमाओं के साथ कृष्ण-कथा एवं राम-कथा के कुछ अत्यंत रोचक दृश्यों का महत्वपूर्ण अंकन है। पूर्वाभिमुख मंदिर की बाहरी दीवार पर विष्णु के अवतार, ब्रह्मा, सूर्य, शिव, देवियाँ, अष्ट दिक्पाल व विभिन्न मुद्राओं में योगियों के साथ अप्सरा तथा व्याल प्रतिमाएं है। प्रवेश द्वार पर त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, त्रैलोक्य भ्रमण विष्णु, नदी देवी, द्वारपाल तथा अर्द्ध स्तंभों पर कुबेर अंकित है। अन्य मंदिर, शिव मंदिर है, जिसका मूल स्वरूप नवीनीकरण से प्रभावित है, किन्तु प्रवेश द्वार यथावत है। यहां सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रुपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपाल प्रतिमाएं है। बाहरी दीवार पर अपेक्षाकृत कम संख्या में किन्तु शास्त्रीय व कलात्मक सूर्य, हरिहर-हिरण्यगर्भ, शिव-नटराज, गणेश, सरस्वती आदि प्रतिमाएं है।

4. ताला- बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर ग्राम अमेरीकांपा में स्थित स्थल है। शिवनाथ और मनियारी नदी के संगम के निकट 5-6 वीं सदी ईस्वी के दो प्राचीन मंदिर अवशेष है, जिन्हें देवरानी-जिठानी नाम से जाना जाता है। विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है किंतु विशाल आकार के शिलाखंडों से निर्मित गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। प्रवेश द्वार के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती द्यूत-क्रीड़ा, भगीरथ-अनुगामिनी गंगा आदि अंकन आकर्षक और सजीव है। द्वार-शाखा की जालिकावत् लता-वल्लरी और पत्र-पुष्पीय संयोजन का कीर्तिमुख अंकन विशेष उल्लेखनीय है। मंदिर परिसर में मयूररूढ़ कार्तिकेय, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुखगण, उपासक तथा विश्व प्रसिद्ध विशालकाय रुद्र-शिव प्रतिमा विशिष्ट है। दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपानक्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। मंदिर का तल-विन्यास अत्यंत विशिष्ट प्रकार का है। यहां से कार्तिकेय, शिव-मस्तक, वरुण, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी और विष्णु फलक तथा मंदिर स्थापत्य-खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला प्रसंगों के साथ नंदी और शिवगण का अंकन भी उपलब्ध हुआ है। यहीं से शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का रजत सिक्का तथा कलचुरि शासकों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। स्थल पर स्थानीय-संग्रह में भी पुरावशेष एकत्र कर रखे गए हैं।

5. तुमान- बिलासपुर से लगभग 95 किलोमीटर दूर कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल इस क्षेत्र के कलचुरियों की आरंभिक राजधानी रही है। यहाँ पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर, लगभग 11 वीं सदी ईस्वी का स्थापत्य उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित मूल संरचना से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। प्रवेश द्वार में सिरदल पर शिव का अंकन है, किन्तु शाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेश द्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएं है। स्थानीय संग्रह में नंदी, नंदिकेश्वर, माता-शिशु, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएं है। मंदिर के चतुर्दिक प्राचीन टीले हैं तथा सतखण्डा क्षेत्र में भी पुरावशेषों के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। स्थल का प्राचीन नाम तुम्माण लगभग प्रत्येक कलचुरि अभिलेखों में प्राप्त होता है। प्रतिमाओं के संग्रह और प्रदर्शन की व्यवस्था भी स्थल पर है।

6. पाली- बिलासपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पूर्वाभिमुख महादेव मंदिर कलचुरि स्थापत्य शैली के महत्वपूर्ण स्मारक के रुप में विद्यमान है। मंदिर बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराये जाने की जानकारी प्रवेश द्वार में सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाहरी दीवार पर नटराज, अंधकासुर वध, गजासुरवध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय, सूर्य, नर्तकी, योगी, अष्ट दिक्पाल के साथ विविध प्रकार के व्याल तथा मिथुन प्रतिमाएं सज्जित है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना, शैव, द्वारपाल तथा द्वार-शाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला और उपासना के दृश्य हैं। मंदिर में बहुलिखित ‘मगरध्वज जोगी 700‘, भी अभिलिखित है।

7. मल्हार- बिलासपुर से लगभग 33 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल जिले और अंचल का प्रमुख पुरातात्त्विक स्थल है। यहाँ ईस्वी पूर्व 7-8 वीं सदी से मुगल काल तक निरंतर कालक्रम में स्थापत्य अवशेष, प्रतिमाएं, शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मुहर, मृदभाण्ड, मनके, मृणमूर्तियाँ आदि विविध सामग्रियां बड़ी मात्रा में प्राप्त हुई है। देउर मंदिर विशाल संरचना है। पश्चिमाभिमुख मंदिर के द्वार पार्श्वों में शिवलीला, गजासुरवध, शिव-विवाह तथा उमा महेश्वर का अत्यंत मनोहारी और बारीकी से अंकन हुआ है। इस मंदिर का काल 7-8 वीं सदी ईस्वी माना गया है। 11-12 वीं सदी ईस्वी के दो मंदिर है। इनमें केदारेश्वर अथवा पातालेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग, अंशतः तथा मंडप व अर्द्ध मंडप मात्र तल विन्यास में ही दृष्टव्य है। डिडिनेश्वरी मंदिर में काले पत्थर की अत्यंत कलात्मक प्रसिद्ध प्रतिमा 'डिडिन दाई' के रुप में पूजित है। केदारेश्वर मंदिर के मंडप में भी तीन दिशाओं से प्रवेश की व्यवस्था है। शिखर विहीन गर्भगृह में काले पत्थर की लिंग-पीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वार शाखों के भीतरी पाश्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव-विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध आदि उत्कीर्ण है। अभिलिखित विष्णु प्रतिमा, मेकल पाण्डववंशी ताम्रपत्र, प्रसन्नमात्र का ताम्र सिक्का आदि पुरावशेष, विशेष उल्लेखनीय हैं। यहां भी धूलि दुर्ग का अस्तित्व है, जिसमें विभिन्न पुरावशेष विद्यमान होने की जानकारी मिलती है। पातालेश्वर मंदिर परिसर का स्थानीय संग्रह भी विशेष उल्लेखनीय है।

8. रतनपुर- जिला मुख्यालय से लगभग 25 किलोमीटर दूर, बिलासपुर अनुविभाग में स्थित है। यह स्थल सुदीर्घ अवधि तक इस अंचल का प्रशासनिक मुख्यालय रहा है। रतनपुर और निकटवर्ती ग्रामों, यथा जूना शहर में कलचुरि और मराठा शासकों से सम्बंधित अवशेष आज भी विद्यमान है। महामाया मंदिर की ख्याति सिद्ध क्षेत्र के रुप में है जिसके प्रवेश द्वार पर परवर्ती कलचुरि शासक वाहर साय का शिलालेख है। मंदिर परिसर में विविध देव प्रतिमाएं हैं। कण्ठी-देउल भी परवर्ती काल की संरचना है जिसमें शाल भंजिका, राजपुरुष, लिंगोद्भव कथानक आदि प्रतिमाएं लाकर जड़ी गई हैं। मराठाकालीन स्मारक रामटेकरी मंदिर, प्राचीन किला-अवशेष तथा जूना शहर में कथित सतखंडा महल, बावली आदि विद्यमान है। रतनपुर से अत्यंत महत्वपूर्ण कलचुरि शिलालेखों, प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई है। यहां स्थानीय संग्रह भी दर्शनीय है।

9. चैतुरगढ़ (लाफा) - बिलासपुर से लगभग 82 किलोमीटर दूर, कटघोरा अनुविभाग में स्थित है। यहां पहाड़ी पर बना किला क्षेत्र के दुर्गमतम किलों में से एक माना जाता है। किले में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। मुख्य प्रवेश द्वार गणेश द्वार से है। अन्य प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा हेतु दोहरे दीवाल की व्यवस्था व देवकुलिकाओं में मातृका-देवियों की प्रतिमाएं है। पहाड़ी पर परवर्ती कलचुरि कालीन महामाया मंदिर है, जिसके गर्भगृह में महिषमर्दिनी प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह से संलग्न स्तंभ आधारित मण्डप है। यही पहाड़ी श्रृंखला एक छोटी नदी जटाशंकरी का उद्गम भी है। स्थल का प्राकृतिक दृश्य सौन्दर्य चित्ताकर्षक है।

Friday, March 25, 2022

बिलासपुर अंचल के प्राचीन शिव मंदिर

सन 1989 में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा ‘भारतीय कला में शैव परंपरा’ विषयक आयोजन हुआ था, जिसमें विभागीय पत्रिका ‘पुरातन‘-6, का विशेष अंक प्रकाशित हुआ था। इस अंक में ‘बिलासपुर जिले के प्राचीन शिव मंदिर‘ शीर्षक से मेरा लेख शामिल था, जो यहां प्रस्तुत है- 



प्राकृतिक संपदा और भौगोलिक विशिष्टता के कारण दक्षिण कोसल का क्षेत्र स्वाभाविक ही कला-संस्कृति पोषक विभिन्न राजवंशों के आकर्षण का केंद्र रहा है। फलस्वरूप स्थापत्य, मूर्तिकला, अभिलेख तथा मुद्राओं पर कलाप्रियता के साथ धार्मिक भावना के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जो विभिन्न राजवंशों की धार्मिक चेतना तथा कलानुराग के परिचायक हैं। वर्तमान बिलासपुर जिले के भूभाग से ऐसी स्रोत-सामग्री प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनके आधार पर तत्कालीन कला-प्रतिमान, दार्शनिक चिंतन, धार्मिक परंपरा तथा सहिष्णुता का परीक्षण किया जा सकता है। 

यह क्षेत्र मुख्यतः शैव धर्मावलंबी राजवंशों के अंतर्गत दीर्घकाल तक शासित रहा, अतः शैव कला और स्थापत्य के विविध अवशेष बिलासपुर जिले में उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र के प्रमुख राजवंश क्रमशः शरभपुरीय, पाण्डव-सोम (चन्द्रवंशी) तथा कलचुरि, शासकों द्वारा शैव परंपरा का उत्तरोत्तर विकास होता रहा। यद्यपि शरभपुरियों का राजधर्म वैष्णव था, किंतु इस काल में भी शैवधर्म लोकप्रिय रहा। इन राजवंशों के शैवधर्म से संबंधित प्रमाण बिलासपुर जिले में विद्यमान हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन धार्मिक स्थिति के साथ-साथ कला-स्थापत्य का आंकलन भी किया जा सकता है। इन प्रमुख राजवंशों के स्थापत्य-मूर्तिकला के प्रकाश में शैव-धार्मिकता के विकास के चरण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इन राजवंशों के प्रमुख कृतित्त्व का विवरण इस प्रकार है: 

शरभपुरीय वंश: इतिहास में अब तक अप्रमाणित नगर शरभपुर तथा इसके पश्चात् प्रसन्नपुर मुख्यालय से राज्य संचालन करने वाले इस वंश का अमरार्य कुल से संलग्न होने के प्रमाण मिलते हैं। शरभपुरीय शासकों का काल ई. पाँचवीं-छठी सदी माना जाता है। शरभपुरियों के स्थापत्य उदाहरण मात्र बिलासपुर जिले से ही ज्ञात होते हैं। ताला के दो शिव मंदिर, शैव धर्मावलंबी मेकल के पाण्डववंशी शासकों द्वारा निर्मित होने की संभावना भी प्रकट की जा सकती है, किंतु यह निर्विवाद है कि इन शिव मंदिरों का निर्माण काल, मंदिर स्थापत्य के क्षेत्रीय इतिहास में प्राचीनतम है। 

जिठानी तथा देवरानी नाम से अभिहित इन मंदिरों में देवरानी अपेक्षाकृत सुरक्षित व पूर्वज्ञात है। टीले के रूप में परिवर्तित जिठानी मंदिर की संरचना पिछले वर्षों में कराये गये विभागीय कार्यों से स्पष्ट हुई। दोनों मंदिरों के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमाएँ अप्राप्य हैं किंतु प्राप्त प्रतिमाओं और स्थापत्य अवशेष से तत्कालीन कला व शैव परंपरा की समृद्ध झलक मिलती है। 

विस्तृत जगती पर निर्मित पूर्वाभिमुख देवरानी मंदिर शिखर विहीन है, किंतु गर्भगृह, अन्तराल-मण्डप, अर्द्धमण्डप, सोपानक्रम तथा विभिन्न प्रतिमाओं की विशिष्टता रोचक है। द्वारशाखा के भीतरी पार्श्वों पर उमा-महेश्वर, शिव-पार्वती की द्यूतक्रीड़ा, भगीरथ अनुगामिनी गंगा आदि अंकनों में सुदीर्घ कलाभ्यास से प्राप्त उच्च प्रतिमान, दृश्यों को अत्यंत आकर्षक और सजीव बना देता है। इस मंदिर के परिसर में मयूरारूढ़ कार्तिकेय की दो प्रतिमाएँ, शिव प्रतिमा शीर्ष, नृत्यमग्न शिवगण, मेषमुख गण, प्रतिमाएँ भी धार्मिक विचारधारा के आयाम प्रस्तुत करती हैं। 

दक्षिणाभिमुख जिठानी मंदिर में पूर्व तथा पश्चिम सोपान क्रम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। तल-विन्यास से ज्ञात इस मंदिर की स्थापत्य योजना अत्यंत विशिष्ट है। यहाँ से भी शैवधर्म संबंधी अंकन- स्वतंत्र प्रतिमाएँ तथा स्थापत्य खंड, उपलब्ध हुए हैं। स्वतंत्र प्रतिमाओं में मुख्यतः कार्तिकेय, शिव मस्तक, अर्द्धनारीश्वर-वक्ष, कृश उपासक शीर्ष, नंदिकेश्वर मुख, गौरी फलक तथा मंदिर स्थापत्य खंडों पर कार्तिकेय, गणेश, शिवलीला और शैव प्रसंगों के अंकन के अतिरिक्त नंदी, शिवगण आदि प्रमुख हैं। 

पाण्डव-सोम वंश: वस्तुतः तीन भिन्न राजवंशों, जिनका निश्चित एकीकरण संभव नहीं हो सका है, का प्रभाव इस क्षेत्र में लगभग पाँच शताब्दियों तक रहा। इनमें मेकल के पाण्डव वंश का काल लगभग ई. पाँचवीं सदी, कोसल के पाण्डव वंश का काल ई. छठीं-सातवीं सदी तथा कोसल के सोमवंश का काल ई. सातवीं से दसवीं सदी निर्धारित किया गया है। पाण्डव-सोमवंशी शासकों के ताम्रपत्रों पर शिवस्तुति तथा मुद्रा (seal) पर नंदी की अनेक प्रकार की आकृतियाँ प्राप्त होती हैं। पाण्डव वंश-काल में निर्मित चार प्रमुख शिव मंदिर इस जिले में विद्यमान हैं। इनमें से अड़भार के मंदिर का तल-विन्यास व प्रवेशद्वार सुरक्षित है। मल्हार का देउर मंदिर शिखर विहीन है। खरौद का इन्दल देउल अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है और इसी स्थल के लक्ष्मणेश्वर मंदिर का वर्तमान स्वरूप पुनर्संरचना के फलस्वरूप है। 

मल्हार का पश्चिमाभिमुख देउर मंदिर महत्त्वपूर्ण और विशाल है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल-मण्डप तथा अर्द्धमंडप की भित्तियाँ कुछ ऊँचाई तक सुरक्षित हैं। गर्भगृह में लिंग पीठिका अवशिष्ट है। द्वारशाख के भीतरी पार्श्वों में उत्तरी पार्श्व पर शिवलीला के विभिन्न दृश्य हैं। दक्षिणी पार्श्व पर गजासुर-वध, शिव-विवाह तथा उमा-महेश्वर के अंकन में सूक्ष्म परिपूर्णता व मिथकीय सहजता के दर्शन होते हैं। मंदिर परिसर में स्थापत्य खंडों पर शैव-द्वारपालों की आकर्षक मानवाकार प्रतिमाएँ तथा उमा-महेश्वर भी हैं। इसी परिसर में पूर्ववर्ती काल की दो विशाल एवं विशिष्ट प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं को मुखलिंग तथा यज्ञोपवीतधारी आवक्ष शिव रूप में उत्कीर्ण किया गया है। 

खरौद का पश्चिमाभिमुख इन्दल देउल, तल-विन्यास में कोणीय योजना पर ईंटों से निर्मित है। मंदिर के पाषाण प्रवेशद्वार की शाख पर मानवाकार नदी-देवियों के साथ सिरदल पर त्रिमूर्ति की मध्य आकृति में नंदी सहित शिव-पार्वती प्रदर्शित हैं। मंदिर की बाह्य भित्ति पर गणेश उत्कीर्ण हैं। 

खरौद के पूर्वाभिमुख लक्ष्मणेश्वर मंदिर का स्थापत्य नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। गर्भगृह में अष्टकोणीय किंतु अत्यंत क्षत शिवलिंग है। उभय द्वारशाख के निचले अर्द्धभाग में शैव द्वारपाल हैं। मंडप के स्तंभ पर अर्द्धनारीश्वर तथा रावणानुग्रह प्रतिमाएँ अवनत तल में उत्कीर्ण हैं। खरौद के ही एक अन्य (शबरी) मंदिर में शैव द्वारपाल तथा अर्द्धनारीश्वर की चतुर्भुजी व्याघ्रचर्मधारी मानवाकार प्रतिमाएँ भी इसी काल की कृतियाँ हैं। 

अड़भार का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर ताराकृति अष्टकोणीय तल-विन्यास का है। प्रवेशद्वार में सिरदल पर कार्तिकेय तथा संभवतः उमा-महेश्वर का अंकन है। मंदिर परिसर में नंदी तथा अत्यंत आकर्षक अष्टभुजी नटराज शिव की प्रतिमा है, जो तत्कालीन कला प्रतिमानों में प्रतिनिधि प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। 

कलचुरि वंश: त्रिपुरी के प्रसिद्ध कलचुरि वंश की शाखा ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर तुम्मान में राजधानी स्थापित की। कलचुरियों की यह शाखा, रतनपुर शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई और सुदीर्घ अवधि तक इस क्षेत्र पर राज्य करती रही। शैव धर्मावलंबी कलचुरियों के धार्मिक तथा लोक कल्याणकारी विभिन्न कृत्यों की सूचना अभिलेखों में उत्कीर्ण है। अभिलेखों के आरंभ में निर्गुण, व्यापक, नित्य और परम कारण शिव की भावपूर्ण वंदना है। कलचुरियों के शिवमंदिर निर्माण की परंपरा राजधानी तुम्मान से आरंभ होकर दो शताब्दियों तक निरंतर निर्वहित हुई। 

तुम्मान का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर कलचुरियों की रतनपुर शाखा के आरंभिक स्थापत्य का उदाहरण है। भू-सतह पर आधारित संरचना मूल से उन्नत तथा विशाल मंडप संलग्न है। खुले मंडप में पहुंचने के लिए पश्चिम, उत्तर व दक्षिण तीनों दिशाओं में सोपान व्यवस्था है। इस स्थापत्य विशिष्टता में उड़ीसा शैली के जगमोहन का साम्य दृष्टिगत होता है। प्रवेशद्वार में सिरदल के मध्य कोष्ठ में शिव का अंकन है, किंतु द्वारशाखाओं पर विष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया जाना रोचक है। प्रवेशद्वार पर नदी देवियों के साथ परवर्ती परंपरा के दो-दो द्वारपालों से भिन्न मात्र वीरभद्र और भैरव की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर परिसर में नंदी, नंदिकेश्वर, नटराज, उमा-महेश्वर आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

पाली का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर मूलतः बाणवंशी शासक मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वारा निर्मित कराए जाने की सूचना मंदिर के सिरदल पर अभिलिखित है। कलचुरि शासक जाजल्लदेव प्रथम के काल में इस मंदिर का पुनरुद्धार हुआ। मंदिर की बाह्य-भित्ति आकर्षक प्रतिमाओं से सज्जित है, जिसमें विभिन्न शैव प्रतिमाएँ यथा-नटराज, अंधकासुर वध, गजासुर वध, हरिहर, अर्द्धनारीश्वर, कार्तिकेय अंकित हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर शैव-द्वारपाल तथा शिव परिवार के विभिन्न अंकन हैं। द्वारशाख पार्श्वों पर शिव-पार्वती लीला तथा उपासना के दृश्य हैं। 

जांजगीर का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर, प्रसिद्ध विष्णु मंदिर के निकट स्थित है। इस मंदिर का मूल स्वरूप नवीनीकरण के प्रभाव से लुप्तप्राय है किंतु मूल प्रवेशद्वार सुरक्षित है। सिरदल के मध्य में नंदी सहित चतुर्भुजी शिव का कलात्मक रूपायन है। नदी देवियों के साथ उभय पार्श्वों में द्वारपालों की प्रतिमाएँ हैं। शिव कथानक के कुछ अन्य दृश्यों के साथ गणेश व नटराज की प्रतिमाएँ भी हैं। 

मल्हार में कलचुरिकालीन दो शिव मंदिरों के अवशेष हैं। इनमें पातालेश्वर अथवा केदारेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है और डिडिनेश्वरी मंदिर का अधिष्ठान भाग अंशतः तथा मंडप व अर्द्धमंडप मात्र तल-विन्यास में ही दृष्टव्य हैं। पश्चिमाभिमुख केदारेश्वर मंदिर निम्नतलीय गर्भगृह का है किंतु मंडप की योजना पूर्वाेल्लिखित तुम्मान मंदिर के सदृश है, जिसमें तीन दिशाओं से प्रवेश किया जा सकता है। गर्भगृह में काले पत्थर की लिंगपीठिका के त्रिकोणीय विवर में लिंग स्थापना है। द्वारशाखों के भीतरी पार्श्वों पर द्यूत-प्रसंग, गणेश-वैनायिकी, नंदी पर नृत्त शिव, रेखांकित वीणाधर शिव, शिव विवाह, उमा-महेश्वर, नृत्त गणेश, अंधकासुर वध उत्कीर्ण है तथा सम्मुख में नंदी पर शिव-पार्वती, चतुर्भुजी शिव तथा अर्द्धनारीश्वर हैं। द्वारपालों के रूप में वीरभद्र तथा भैरव की प्रतिमाएँ हैं। 

पश्चिमाभिमुख डिडिनेश्वरी मंदिर के गर्भगृह की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर राजमहिषी की प्रतिमा है। यह मंदिर नवीनीकरण से विशेष प्रभावित है। मंदिर के मंडप की भित्तियों में जड़ी शैव द्वारपाल तथा नटराज की प्रतिमा से, इस मंदिर का शैव होना अनुमानित था। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य के दौरान लिंगपीठिका खंड व नंदी प्रतिमा प्राप्त हुई, जिससे यह मंदिर शिव मंदिर के रूप में सुनिश्चित हुआ। 

किरारी गोढ़ी का पश्चिमाभिमुख शिव मंदिर भी निम्नतलीय गर्भगृह योजना पर निर्मित है। मंदिर की पूर्व तथा उत्तर की भित्ति, जंघा तक अंशतः सुरक्षित है। मंदिर के संरक्षण हेतु विभागीय कार्य में गर्भगृह से लिंगपीठिका खंड प्राप्त हुई। जंघा की शैव देव प्रतिमाओं में नटराज, हरिहर-हिरण्यगर्भ हैं। मंदिर परिसर में गणेश, नंदी आदि प्रतिमाएँ भी अवस्थित हैं। 

गनियारी का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर अत्यधिक भग्न है किंतु पुनर्संरचित प्रवेशद्वार लगभग सुरक्षित है। गर्भगृह में लिंग की स्थापना है। सिरदल पर शिव, पार्श्वों में द्वारपालों का तथा अन्य परंपरात्मक शैव अंकन भी हैं। बाह्य भित्ति में जंघा के भग्न होने से शिव के अन्य रूप वर्तमान संरचना में अनुपलब्ध हैं। 

सरगाँव का पूर्वाभिमुख शिव मंदिर कलचुरि स्थापत्य के परवर्ती उदाहरणों में लगभग सुरक्षित मंदिर है। निम्नतलीय गर्भगृह के प्रवेशद्वार में सिरदल व द्वार-पार्श्वों पर परंपरात्मक शैव प्रतिमाओं के अतिरिक्त जंघा पर नटराज, अंधकासुर, गणेश, हरिहर हिरण्यगर्भ की प्रतिमाएँ हैं। 

मदनपुर में भी सरगाँव के समकालीन मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जिले के अन्य स्थलों पर भी विभिन्न काल के शिव मंदिरों के अस्तित्त्व के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, इनमें कुटेसर नगोई, रैनपुर खुर्द, पंडरिया, रतनपुर, भाटीकुड़ा, वीरतराई, कनकी, बेलपान, बसहा आदि प्रमुख हैं।

Friday, April 20, 2012

कोरबा

रत्नगर्भा धरा के कोष में अनमोल प्राकृतिक खजाना छुपा हुआ है, जो उजागर होकर हमें चमत्कृत और अभिभूत कर देता है। इसका आकर्षण, ऐसे सभी केन्द्रों पर मानव के लिये प्रबल साबित होता है, जैसा कोरबा और उसके चतुर्दिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर है। यह भूमि इतिहास के प्रत्येक चरण में मानव जाति की क्रीड़ा भूमि रही है। यह क्षेत्र नैसर्गिक सम्पदा से परिपूर्ण रहा है। हसदेव के सुरम्य और तीक्ष्ण प्रवाह से सिंचित तथा सघन वनाच्छादित उपत्यकाओं से परिवेष्टित यह भूभाग आदि मानवों द्वारा संचारित रहा हैं इसके प्रमाण स्वरूप हसदेव लघु पाषाण उपकरण प्राप्त होते हैं, और कोरबा से संलग्न रायगढ़ जिले का सीमावर्ती क्षेत्र तो मानो आदि मानवों का महानगर ही था। आदि मानवों को विभिन्न गतिविधियों के प्रमाण इस क्षेत्र में सुरक्षित हैं। इसी पृष्ठभूमि पर ऐतिहासिक-पौराणिक ऋषभतीर्थ और अब छत्‍तीसगढ़ का औद्योगिक तीर्थ कोरबा विकसित हुआ है।
ईस्वी पूर्व के धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख और घटनाओं की संबद्धता से भी इस क्षेत्र की प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता हैं महाभारत में उल्लेख है कि दक्षिण कोसल के प्रसिद्ध स्थल, ऋषभतीर्थ में गौदान करने से पुण्य अर्जित होता है। इस उल्लेख की ऐतिहासिकता निकटस्थ गुंजी के शिलालेख से प्रमाणित होती हैं ईस्वी की आरंभिक शताब्दी से संबंधित इस लेख में राजपुरूषों द्वारा सहस्त्र गौदान किया जाना अभिलिखित है। लेख का पाठान्तर इस प्रकार है- ''सिद्धम। भगवान को नमस्कार। राजा श्रीकुमारवरदत्त के पांचवें संवत्‌ में हेमन्त के चौथे पक्ष के पन्द्रहवें दिन भगवान के ऋषभतीर्थ में पृथ्वी पर धर्म (के समान) अमात्य गोडछ के नाती, अमात्य मातृजनपालित और वासिष्ठी के बेटे अमात्य, दण्डनायक और बलाधिकृत बोधदत्त ने हजार वर्ष तक आयु बढ़ाने के लिए ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान की। छवें संवत में ग्रीष्म के छठे पक्ष के दसवें दिन दुबारा एक हजार गायें दान की। यह देखकर दिनिक के नाती ... अमात्य (और) दण्डनायक इंद्रदेव ने ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान में दीं।'' इन प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में वैदिक परंपराओं की गतिविधियां सम्पन्न हुआ करती थीं। किरारी (चंदरपुर) का काष्ठ स्तंभ लेख तो अद्वितीय ही है, जिसमें राज्य अधिकारियों के पद नाम हैं।
ऋषभतीर्थ, गुंजी या दमउदहरा
इस क्षेत्र को रामायण के कथा प्रसंगों से भी जोड़ा जाता है। यह क्षेत्र राम के वनगमन का क्षेत्र तो माना ही गया है, सीतामढ़ी आदि नाम इसके द्योतक हैं निकटस्थ स्थल कोसगईं में प्राप्त पाण्डवों की प्रतिमाएं क्षेत्रीय पौराणिक मान्यताओं को और भी दृढ़ करती है। कोरबा के नामकरण को भी कौरवों से जोड़ा जाता है और सहायक तथ्य यह है कि इस क्षेत्र के आसपास कोरवा और पण्डो, दोनों जनजातियां निवास करती हैं। एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि बिलासपुर जिले के ही लहंगाभाठा नामक स्थल से लगभग 12-13 वीं सदी ईस्वी का शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें तत्कालीन कौरव राजवंश की जानकारी मिलती है, जिन्होंने अपने समकालीन प्रसिद्ध क्षेत्रीय राजवंश कलचुरियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। संभव है कि इस राजवंश की राजधानी कोसगईं, कोरबा क्षेत्र में रही हो। इस क्षेत्र में प्रचलित पंडवानी और फूलबासन (सीता प्रसंग) गाथा में ऐतिहासिक सूत्र खोजे जा सकते हैं।
सीतामढ़ी, कोरबा की गुफा में पूजित राम-लक्ष्‍मण-सीता प्रतिमा
'अष्‍टद्वारविषये' उल्लिखित शिलालेख
कोरबा के सीतामढ़ी में एक शिलालेख है, जिसमें लगभग आठवीं सदी ईस्वी का जीवन्त स्पन्दन है। इस शिलालेख के अनुसार यह क्षेत्र अष्टद्वार विषय में सम्मिलित था और यहां किसी वैद्य के पुत्र का निवास था। अष्टद्वार विषय का अर्थ तत्कालीन अड़भार क्षेत्र है। सातवीं सदी ईसवी के लगभग सक्ती के निकट स्थित अड़भार ग्राम प्रसिद्ध नगर था। यहां से प्राप्त एक ताम्रपत्र में भी इस क्षेत्र का नाम 'अष्टद्वार विषय' उल्लिखित है। संभवतः यह नाम अड़भार के अष्टकोणीय (तारानुकृति) मंदिर अथवा आठ द्वार युक्त मिट्‌टी के परकोटे वाले गढ़ के नाम के आधार पर है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में एक अन्य प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणयुक्त ग्राम बाराद्वार (बारहद्वार) भी है। अंचल में प्रचलित विभिन्न दन्तकथाओं में कोरबा तथा गुंजी को अड़भार से सम्बद्ध किया जाता है।
दैनिक लोकस्वर, कोरबा संस्करण के
शुभारंभ दिनांक 1 अगस्त 1992
के पूर्ति अंक के लिए तैयार किया गया,
पृष्ठ -1 पर प्रकाशित मेरा आलेख।
 अखबार की प्रति तो मिली नहीं,
अपना लिखा यह पन्‍ना मिल गया
परवर्ती काल में कोरबा, जिले की विशालतम जमींदारी का मुख्‍यालय बना, जो यहां के राजनैतिक-प्रशासनिक महत्व का द्योतक है। यह जमींदारी 341 गांवों और 856 वर्गमील में फैली थी तथा संभवतः सबसे अंत में रतनपुर राज्य में सम्मिलित की जा सकी अन्यथा इनकी पृथक और स्वतंत्र सत्ता थी। दूरस्थ, दुर्गम और शक्तिशाली जमींदारी होने के कारण ही यह संभव हुआ था। कोरबा जमींदार दीवान कहे जाते थे। संभवतः धार्मिक उदारता के कारण इस क्षेत्र में कबीरपंथ को प्रश्रय मिला, फलस्वरूप कुदुरमाल, कबीरपंथियों के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित हुआ। यहां प्रतिवर्ष माघ में पंथ समाज का मेला भरता है। कुदुरमाल में दो कबीरपंथी सद्‌गुरूओं के अलावा प्रमुख कबीरपंथी धर्मदास जी के पुत्र चुड़ामनदास जी की समाधि है।

कोरबा के चतुर्दिक क्षेत्र में गुंजी, अड़भार, रायगढ़ जिले के प्रागैतिहासिक स्थलों के साथ-साथ कोसगईं, पाली, रैनपुर, नन्दौर आदि ऐसे कई स्थल है जहां पुरातत्वीय सामग्री के विविध प्रकार उपलब्ध हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध और दर्शनीय स्थल पाली है। पाली ग्राम का मंदिर ''महादेव मंदिर'' के नाम से विख्‍यात है। मूलतः बाणवंशी शासक विक्रमादित्य प्रथम द्वारा निर्मित 9-10 वीं सदी ई. के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कलचुरि शासक जाजल्लदेव ने 11वीं सदी ई. में कराया। पूर्वाभिमुख यह मंदिर प्राचीन सरोवर के निकट जगती पर निर्मित है। मंदिर की बाह्यभित्तियां प्रतिमा उत्खचित, अलंकृत हैं। प्रतिमाओं में शिव के विविध विग्रह, चामुण्डा, सूर्य, दिक्पालों के साथ-साथ अप्सराएं, मिथुन दृश्य और विभिन्न प्रकार के व्यालों का अंकन है। अलंकरण योजना और स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर छत्तीसगढ़ का विकसित किन्तु संतुलित स्थापत्य और मूर्तिशिल्प का अनूठा उदाहरण है।
सचमुच कोरबा क्षेत्र की नैसर्गिक सम्पन्नता और ऐतिहासिक अवशेषों का आकर्षण प्रबल है। जो पहले कभी ऋषभतीर्थ के रूप में श्रद्धालुओं को आकर्षित करता था, औद्योगिक तीर्थ बनकर कोरबा, आज भी लोगों को आकर्षित कर रहा है।

इस पोस्‍ट के छायाचित्रों के लिए श्री हरिसिंह क्षत्री ने तथा कुछ जानकारियों के लिए डॉ. शिरीन लाखे व गेंदलाल शुक्‍ल जी ने मदद की।