Showing posts with label सत्येन्द्र कुमार सिंह. Show all posts
Showing posts with label सत्येन्द्र कुमार सिंह. Show all posts

Tuesday, October 11, 2022

संत बाबू - जाज्वल्या 2008

आंचलिक प्रकाशनों का अपना खास महत्व होता है, यथा- स्कूल-कॉलेज की वार्षिक पत्रिकाएं, कस्बा-नगर, व्यक्ति अथवा अवसर/आयोजन-विशेष पर संयोजित अंक। एक खासियत, इनकी कुछ-कुछ अनगढ़ता होती है। समय और संसाधनों की सीमा के साथ (अक्सर भारी-भरकम) संपादकीय टीम की समझ, रुचि और पक्षधरता का असर होता है। इन सबके बावजूद ऐसे प्रकाशन उन तथ्यों, जानकारियों, सूचनाओं, भावनाओं और अभिव्यक्ति का अमूल्य दस्तावेज होते हैं जो अन्यथा दुर्लभ हैं। इस क्रम में जिला- जांजगीर-चांपा से प्रति वर्ष आयोजित ‘जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेला‘ की स्मारिका ‘जाज्वल्या‘ का विशेष महत्व है।

जनगणना और गजेटियर के अंतराल में कई बार ऐसे प्रकाशन ही काम आते हैं। स्मारिका ‘जाज्वल्या‘, संभवतः छत्तीसगढ़ के किसी भी जिले से लंबे समय (2002) से प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली एकमात्र स्मारिका है। ऐसी सामग्री को डिजिटाइज कर, वेब पर अपलोड किया जाना आवश्यक है। इस उद्देश्य की आंशिक पूर्ति की दृष्टि से यहां अर्थात इस ब्लॉग ‘सिंहावलोकन‘ पर, समय-समय पर ‘जाज्वल्या‘ के चयनित लेखों को प्रस्तुत करने की तैयारी है, इसी क्रम में मेरे पिता सत्येन्द्र कुमार सिंह जी पर रविन्द्र कुमार सिंह बैस का लेख। 

लेखक रविन्द्र जी, स्थानीय विभूतियों के महत्व को पहचानने और उनके अभिलेखन के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं। बुजुर्गों की सोहबत की मानों धुन है, उन्हें। अभिलेखन का उद्यम उन्होंने विकसित किया है, मगर संस्मरण की अनमोल वाचिक परंपरा उन्हें अपने पिता भद्दर डाक्टर के नाम से ख्यात, बलभद्र सिंह जी से मिली है। मैं याद कर पाता हूं कि इस लेख की तैयारी में रवि, लंबे समय तक घंटों, पिताजी के साथ, उनकी बातें सुनते बैठा करते थे। तब शायद ही उनके मन में कभी संस्मरण लिखने की बात रही हो, क्योंकि बुजुर्गों की बातों में डूबे रहना, मानों उनका शगल है और उनके संस्मरण सुनकर मैंने जाना है कि बुजुर्ग, खुलकर अपने अंतरंग प्रसंग उनसे कह-बोल लेते हैं, जैसे अपने अभिन्न मित्रों के साथ। यह रवि गुरु जी की शालीन गंभीरता है कि वे इन संस्मरणों को सुनाते हुए कुछ प्रसंगों को हल्के-फुल्के ढंग से बता दिया करते हैं, लेकिन लिखते हुए किसी कठोर संपादक की तरह अनुशासित रहते, जानकारी और सूचनाओं का सजग-सावधान चयन मर्यादापूर्वक करते हैं। रविन्द्र जी की सहमति से छपाई की कुछ अशुद्धियों को ठीक करते, आगे यह लेख-

व्यक्तित्व

निष्काम कर्मयोगी स्व. सत्येन्द्र कुमार सिंह (संत बाबू)

दूर हजारों की भीड़ में अलग एवं विशेष दिखने वाले, जिनकी ऊँचाई 6 3, गौरवर्ण, जिनकी भव्य एवं आकर्षक शारीरिक बनावट जो एकदम सरल, सहज, एवं निर्विवाद ‘जीनियस‘ हो। हम बातें कर रहे हैं, अकलतरा के प्रतिष्ठित एवं सुशिक्षित सिसोदिया परिवार में 17 फरवरी 1927 को पिता डॉ. इन्द्रजीत सिंह (लाल साहब) एवं माता शांति देवी के कोख से अवतरित हुये सत्येन्द्र कुमार सिंह जी। जिन्हें घर में संत, बाहर में संत महाराज एवं मित्रों के बीच सत्येंद्र, नाम से पुकारने थे। उनके अग्रज राजेन्द्र कुमार सिंह, अनुज डॉ. बसंत कुमार सिंह, श्री धीरेन्द्र कुमार सिंह (पूर्व विधायक एवं साडा अध्यक्ष, कोरबा) एवं बहन श्रीमती बीना देवी हैं। उनके पिता डॉ. इन्द्रजीत सिंह सी.पी. एंड बरार के पहले डॉक्टरेट मानवशास्त्री हुये, जिन्होंने बीहड़ बस्तर, अबूझमाड़ एवं सरगुजा में जाकर जनजातियों के जीवन पर, लखनऊ विश्वविद्यालय से शोध कार्य ‘द गोंड एंड द गोड़वाना‘ की रचना कर समूचे छत्तीसगढ़ का नाम रोशन किया।

नागपुर स्कूल से रिटायर्ड मास्टर शेख सुल्तान एवं नूर मोहम्मद से घर में ही शिक्षा पाये, पं. गुनाराम एवं अयोध्या दीक्षित के सानिध्य में उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके जन्म स्थान अकलतरा में सम्पन्न होने के पश्चात् आगे अध्ययन के लिये बिलासपुर रेलवे कालोनी स्थित यूरोपियन स्कूल में दाखिला लिया, तब यूरोपियन स्कूल केवल एंग्लो इंडियन बच्चों की पढ़ाई के लिये खुला था। उसमें भारतीय बच्चों के लिये भर्ती होना आसाधारण घटना थी। वहॉं बालक सत्येन्द्र कुमार सिंह को पढ़ने का अवसर मिला।

जहाँ अंग्रेजी, विज्ञान में विशेष दक्षता हासिल कर क्रिश्चियन शिक्षक स्टीफन टीडू के प्रिय पात्र बने रहे। हालांकि उनके कथनानुसार बाल्यकाल में उन्हें पढ़ने-लिखने की रुचि बिल्कुल नहीं थी। यूरोपियन स्कूल के बाद बिलासपुर नगर की सुप्रसिद्ध ‘मल्टीपरपस गौरमेंट हाईस्कूल‘ में इन्होने सन् 1947 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। अध्ययन के दौरान बी.एन. डे एवं प्रख्यात शिक्षाविद् लाला दीनानाथ के कुशल एवं प्रभावी अध्यापन कौशल के वे कायल हो गये। सक्रिय खेलकूद गतिविधियों में हिस्सा लेकर वालीबाल के उदीयमान खिलाड़ी साबित हुये। गुजरे जमाने के बिलासपुर जिले में इनकी टीम का मुकाबला सिर्फ पुलिस टीम ही कर पाती थी। इनके बैच में प्रतिभाशाली सहपाठियों की भरमार थी। जबलपुर के ख्यातिप्राप्त अधिवक्ता श्री सतीशचंद्र दत्त, पूर्व कलेक्टर स्वरूपसिंह पोर्ते, पुरातत्वविद् डॉ. शंकर तिवारी, नेत्ररोग विशेषज्ञ, डॉ. आर.के. मिश्रा के अलावा अनेक विद्वान एवं बुद्धिजीवी इनके मित्र रहे हैं।

बिलासपुर से मेट्रिक उत्तीर्ण कर नागपुर के ख्यातिप्राप्त ‘विक्टोरिया कॉलेज आफ साइन्स‘ में प्रवेश लेकर, उच्च शिक्षा हेतु आगरा प्रस्थान हुए, जहाँ 1952 में बी. ए. और 1955 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की डिग्री ‘हीवेट हॉस्टल‘ में रहकर हासिल की। यहाँ अकलतरा के प्रख्यात जनप्रिय चिकित्सक डॉ. सी. बी. सिंह का उन्हें मार्गदर्शन मिला, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शारीरिक आकर्षण, खेल, व्यवहार एवं कार्यशैली से प्राध्यापकों एवं सहपाठियों में वे काफी लोकप्रिय हुये।

1952 में पिता डॉ. इन्द्रजीत सिंह के निधन के बाद उनका अकलतरा में स्थायी रूप से रहना हुआ। 1953 में आशा देवी से इनका विवाह बनारस में हुआ, जो शादी के बाद फाइन आर्टस् एवं पेंटिंग्स में स्नातक हुई। 1956 में प्रथम पुत्र रत्न राजेश एवं तीन वर्ष पश्चात् द्वितीय पुत्र रत्न राहुल का जन्म, मिशन अस्पताल बिलासपुर में ऑपरेशन के फलस्वरूप हुआ। श्री राजेश सिंह चिंतक, विचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं। श्री राहुल सिंह, छ.ग. शासन के संस्कृति विभाग में उपसंचालक (पुरातत्व) के पद पर रायपुर मुख्यालय में पदस्थ हैं।

सत्येन्द्र कुमार सिंह, अकलतरा एजुकेशन ट्रस्ट की रूपरेखा, सी.सी.आई. कारखाना के लिये पत्र व्यवहार एवं अन्य बौद्धिक विकास कार्य हेतु उनके हमउम्र राणा चितरंजन सिंह का मार्गदर्शन लेकर अनेक लोकहित के चुनौतीपूर्ण कार्य को अंजाम देकर आधुनिक अकलतरा की बुनियाद रखी। ट्रस्ट द्वारा स्थापित हाईस्कूल संयुक्त बिलासपुर जिले का ही नहीं वरन् समूचे छत्तीसगढ़ के अग्रणी शिक्षा केन्द्र के रूप में विख्यात हुआ।

वैसे तो वे सक्रिय राजनीति से दूर रहते थे, किन्तु जनता की मांग पर जरूरत पड़ने पर ग्राम पंचायत अकलतरा (1976) एवं जनपद पंचायत अकलतरा के अध्यक्ष (1978) निर्वाचित हुये। जिसे उन्होंने चुनौती के रूप में स्वीकार कर आदर्श स्थापित किये। उनके कार्यकाल का स्कूल भवन ग्राम अमलीपानी व कटघरी में देखने योग्य है। आज के पंचायत प्रतिनिधियों को उक्त दोनों ग्रामों क भवनों का अवलोकन कर उन्हें आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए। 

अकलतरा में बंगलादेशी शरणार्थियों के लिये भोजन, कपड़ा, स्नान, साबुन, सिंदूर, कुमकुम, चूड़ी यहॉ तक की कफन के लिये कपड़े, बच्चों के लिये फल एवं दूध की व्यवस्था अकलतरा के संवेदनशील नागरिकों ने राजेन्द्र कुमार सिंह एवं सत्येन्द्र कुमार सिंह के सहयोग से यह अद्भुत एवं अपूर्व मानवीय कार्यों को अंजाम दिया।

मानव सेवा सुश्रुषा को स्थायित्व प्रदान करने के लिये सत्येन्द्र कुमार सिंह ने ‘मानव कल्याण समिति‘ की स्थापना की थी। इस संस्था के माध्यम से लगभग 500 नेत्ररोग निदान एवं महिला रोग निदान शिविर आयोजित किया गया था। वे लायंस क्लब अकलतरा के संस्थापक थे। उनकी रुचि भ्रमण, ललितकला, पुरातत्व, ऐतिहासिक स्थलों, छत्तीसगढ़ के लोकजीवन एवं संस्कृति से उनका निकट का जीवंत संपर्क रहा। मशीनों से उनका विशेष अनुराग जग-जाहिर था। मोटर, प्रोजेक्टर, ग्रामोफोन, रेड़ियो, सायकल, गैसबत्ती, कैमरा अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों में विशेष दक्षता हासिल थी। फोटोग्राफी एवं पत्रकरिता में उनकी दिलचस्पी सर्वविदित थी। सामयिकी ंएवं पशु-पक्षियों के बारे में उनकी लेखनी खूब धारदार थी जो जनजीवन को प्रभावित किये बिना नहीं रहती थी। उन्होंने बिलासपुर टाइम्स के स्थायी स्तंभ ‘तिराहे से‘ के लिये काफी कलम चलाई, वे दैनिक नवभारत एवं भास्कर में भी छपते रहे हैं।

सत्येन्द्र कुमार सिंह का निधन बिलासपुर में 13.07.1999 में हुआ था। अद्भुत स्मरणशक्ति के स्वामी महान चिंतक एवं विचारक सत्येन्द्र कुमार सिंह, गीता के निष्काम कर्मयोग के सिद्धांत को जिये, नेपथ्य में रहकर नींव का पत्थर बनकर कर्तव्य के पथ पर चलने वालों के लिये उनका सारा जीवन अनुकरणीय है।

रविन्द्र कुमार सिंह बैस
पोस्ट - अकलतरा (आजाद चौक)
जिला - जॉजगीर चांपा

Sunday, October 9, 2022

जगदीश चंद्र तिवारी

जांजगीर निवासी विभूतियों में पंडित जगदीश चंद्र तिवारी (17.09.1912-14.12.1992) का नाम अविस्मरणीय है। पंडितजी के महाप्रयाण के पश्चात ‘स्मारिका-1995‘ का प्रकाशन हुआ। 

स्मारिका में पंडितजी को याद करते हुए उनसे जुड़े अंचल के महानुभावों ने उनके प्रति अपने शब्द-श्रद्धा सुमन अर्पित किया, जिसकी सूची यहां देखी जा सकती है। 

मेरे पिता, पंडितजी का बहुत सम्मान करते थे। उनकी विद्वता औैर उनसे जुड़े रोचक संस्मरण सुनाया करते थे। स्मारिका के लिए भरे मन से कुछ शब्द ही लिख सके, मगर यह संक्षिप्त लेख पंडितजी में मानवता के सूत्रों का स्पर्श करते उनके प्रति अपने भावों को प्रकट करने के लिए कम नहीं थे। स्मारिका में प्रकाशित वह लेख- 

पंडित जी: जैसा मैंने जाना 
सत्येन्द्र कुमार सिंह 

नित नवोन्मेष की प्रवृत्ति प्रतिभा कहलाती है। कहते हैं यह परमात्मा-प्रदत्त होती है। यही सच भी लगता है क्योंकि, प्रतिभा सभी में नहीं होती है। प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति लोक कल्याण की बात सोचता है और उसके क्रिया-कलाप भी उसी अनुरूप होते हैं। ऐसे लोग विरले होते हैं तथा वे समाज के विशेष अंग होते हैं। इनका संसार से हमेशा के लिये चले जाना ही समाज की हानि है। वैसे तो दुनिया में आना, जीवन को जीना और चले जाना किसी अजानी शक्ति से संचालित निरन्तर प्रक्रिया है। परन्तु, महत्वपूर्ण यही होता है कि किसी ने जीवन को कैसे जिया? इन सब बातों में पं. जगदीश चन्द्र तिवारी बार-बार याद आते हैं। दो ही तरह के लोग तो जाने के बाद याद आते हैं- एक तो स्वजन और दूसरे सुजन, जो कीर्तिवान हो जाये रहते हैं। स्व. पं. जगदीश चन्द्र तिवारी सुजन थे। उनकी कीर्ति प्रदेश और बाहर तक फैली हुई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पंडित जी हम सभी को छोड़कर किसी महायात्रा पर गये ही नहीं... । 

कहा जाता है कि मनुष्य पेट के लिये जीवन को जीता है, धर्म, ज्ञान और विवेक ये सब बाद की बातें हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन्हीं बाद की बातें यह बता सकती है कि जीवन को कैसे जिया जाना चाहिये। इसी में शांति और जीवन की सफलता है। पंडित जगदीश चन्द्र तिवारी ने सफल जीवन जिया, इसीलिये जाने के समय कुदरत ने उनके मन और शरीर के कोई उठा-पटक नहीं की। 

सन् 1937 में अंग्रेजी के मास्टर मिलना गूलर का फूल था। हमारे बाबा पूज्य (स्व.) मनमोहन सिंह जी उस समय डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर थे। उन्हें पता लगा कि, जॉंजगीर उदयभांठा के पं. जगदीश चन्द्र तिवारी कटक से स्नातक होकर आये हैं। यही वह कालखण्ड रहा जिसमें तिवारी जी की प्रतिभा अनेक भाषाओं में उनकी मधुरवाणी से प्रवचनों, व्याख्यानों और वक्तव्यों के रूप में चतुर्दिक सुवासित हो रही थी। बाबाजी ने कौंसिल के चेयरमेन देवीप्रसाद वर्मा और सचिव कृष्णानन्द वर्मा से कहकर पंडित जी को अकलतरा में अंग्रेजी शिक्षक नियुक्त करा लिया। बतौर शिक्षक उन्होंने अल्पावधि में जो ख्याति अर्जित की, उससे कहीं अधिक ख्याति उनकी ज्ञानयुक्त बोलने की शैली में वे अर्जित करते जा रहे थे। आश्चर्यजनक था कि वह क्रम कभी टूटा नहीं। उन्हें सम्मान अपने आप मिलता था। क्योंकि प्रतिभा के धनी तो थे ही, आचरण ऐसा था कि, जैसे वे व्यासांश हों, कि जैसे वे सन्त हों, कि जैसे वे कृष्ण भी हों और सुदामा भी। वे सादा-सरल थे, भीतर के भीतर तक तरल थे। किसी की पीड़ा उन्हें ही बेचौन कर देती थी। राम-रावण युद्ध सम्बन्धी प्रवचन में कभी वे इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि मंच से कूद कर श्रोताओं के बीच में आ जाते थे और समूह अवाक् रह जाता था। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन‘ की आकांक्षा रखने वाली पंडित जी की वह जीती जागती तसवीर अब चिरनिद्रा में सो रही है लेकिन तसवीर के खुदाई रंग कभी उतरेंगे नहीं। 

पंडित जी पर जितना लिखा जाये, कम है, 
कयास है कि उनकी याद में हर आँख नम है। 

अकलतरा (बिलासपुर) म.प्र. 
पंडितजी के परिवार जन और उनके सुयोग्य पुत्र
दिनेश शर्मा जी के प्रयासों से अब जांजगीर में
उनकी भव्य प्रतिमा का पुनर्स्थापत्य हुआ है।

Wednesday, October 6, 2021

मनुष्यता - सत्येन्द्र कुमार सिंह

मनुष्य की क्रूरता का अंत नहीं

-सत्येन्द्र कुमार सिंह, अकलतरा

वेद शास्त्र और पुराणों से भी ज्ञात होता है कि मानव एक श्रेष्ठ जीव है. मनुष्य का जीवन बहुत दुर्लभता से प्राप्त होता है परंतु यदि हम बहुत गहराई से विचार करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि आज का मानव सबसे खतरनाक प्राणी बन चुका है. जैसा कि स्व. राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है- यह मनुष्य ज्ञाननी श्रृंगालो कुकुरों से हीन, हो किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलीन।

सुनने में यह बात उटपटांग सी लगती है. आमतौर पर गले के नीचे नहीं उतरती, पर सत्य तो अपनी जगह रहेगा ही. ऐसा देखा जाता है और मान्यता है कि जितने प्राणी है उनमें विवेक, ज्ञान, बुद्धि नहीं होती है. कुछ में थोड़ी बहुत होती भी है तो वे उससे कोई काम नहीं ले पाते. पर मानव में बल, बुद्धि, मन, विवेक की शक्ति होती है और यदि वह इस शक्ति का प्रयोग सही ढंग से करें तो वह निश्चित है कि वह श्रेष्ठ प्राणी कहलाने का हक प्राप्त कर सकता है पर हकीकत कुछ और ही है. आज का मनुष्य अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिये बहुत नीचे स्तर तक जा सकता है और ऐसा घृणित काम कर सकता है कि उसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव हो जाता है. मनुष्य के क्रिया कलाप अन्य जीवित प्राणियों से कई माने में भिन्न होता है. अन्य जंगली जीव प्राकृतिक ढंग से जीवन यापन करते हैं वे मूलत स्वभावगत अपने क्रियाकलापों में सही होते हैं, उन्हें किसी प्रकार का दिखावा या पाखण्ड करने नहीं आता परंतु सभ्य प्राणी मनुष्य अपने को सभ्य कहलाने के लिये और तथाकथित सभ्यता का दिखावा करने के लिये पाखंड, आडंबर और न जाने कितने प्रकार के प्रपंचों की रचना करने में आगे रहता है.

चाहे कोई महात्मा हो, साधु या सन्यासी हो सबको भोजन, कपड़ा और मकान तो चाहिये ही इन्हें हम पलायनवादी कह सकते हैं. आज के अधिकतर साधु सन्यासी जंगलों के बजाय, बने बनाये मठों, घरों और मदिरों के आसपास अपना डेरा डाले हुए धर्म और ज्ञान उपदेश के नाम पर लोगों से पैसे ऐठते हैं और अपनी जीविका मजे में चलाते हैं. दुनिया को मोक्ष दिलाने की बात करते हैं. लोगों को आशीर्वाद देते हैं. ज्ञान देते हैं. पर कितने ऐसे लोग हैं जो साधु सन्यासियों द्वारा दिये गये उपदेशों का पालन करते हैं. चाहे मनुष्य हो या सन्यासी हो सबको अपनी अपनी चिंताये होती है. इन्हीं वासनाओं के मकड़जाल में व्यक्तियों के क्रिया-कलाप देखे जा सकते हैं. साधुसन्यासी गृहस्थी के झमेले से बचते हैं और वास्तव में साधु सन्यासी बनकर पाखंड करने में लगे रहते हैं. लोगों को ठगते हैं और उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से लूटते हैं. यह काम एक सन्यासी या अज्ञानी का हो ही नहीं सकता. कुछ ठग साधु या सन्यासी थोड़ा बहुत चमत्कार दिखाकर विदेश चले जाते हैं और वहां भी लोगों को ठगने से बाज नहीं आते. 

आज की शहरी और नगरी सभ्यता अमानवीयता का पर्याय बन चुकी है. शहरों का व्यापारीकरण, शोषण और अन्याय का पर्याय है. बड़े-बड़े व्यापारी कई प्रकार का ऐसा उद्योग धंधे चलाते हैं जिनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं में गुणवत्ता की कमी होती है. कई व्यापारी जो पक्के धंधेंबाज होते हैं जो बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से शेयर बेचकर करोड़ो रूपये एकत्र करते हैं और जनता को भुलावे में डालकर अचानक गायब हो जाते हैं. नगरीय जीवन इस भांति पतनगामी हो चुका है कि आदमी में आमानवीय चरित्र की गरिमा ही समाप्त होती दिखायी पड़ती है. ये व्यापारी और उद्योगपति वातानुकूलिम कमरों में ऐशोआराम का जीवन व्यतीत करते हैं. ऐसे धंधों से लाखों करोड़ों कमाते हैं जो गैरकानूनी कहे जा सकते हैं और जिनमें कई राजनैतिक हस्तियों के हाथ होते हैं. एक आदमी के आंसू और खून पसीने धनाड्य व्यक्तियों के लिये सुख के साधन बन जाते हैं. दूसरी ओर शहर के झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की जिदगी नरक के समान होती है. उन्हें जिंदगी की जटिलताओं का सामना करना पड़ता है. उनकी जिंदगी का हर क्षण दर्द का दास्तान होती है. आश्वर्य की बात ये है कि इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों पर किसी राष्ट्रीय नेता की नजर नहीं जाती और न ही मिडिया से जुड़े लोगों की दृष्टि पड़ती है. कितनी विचित्र बात है कि एक तरफ अमीरी बढ़ रही है और दूसरी और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है.

मनुष्य की तीन प्रमुख आवश्यकता होती है- भोजन, कपड़ा और मकान. जहां तक भोजन का सवाल है हर आदमी अपने लिये इसकी व्यवस्था करता है परंतु जहां तक गरीबों के भोजन की व्यवस्था की बात है वह भारत जैसे विकासशील देश में अत्यंत ही दुखदायी है. .एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है और जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि इस अत्याधिक जनसंख्यावृद्धि के कारण सैकड़ों समस्याओं का जन्म होता है. जनसंख्या वृद्धि से आम लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है. लाखों करोड़ों लोगों को आजाद भारत में पीने के लिये शुद्ध जल उपलब्ध नहीं हो पाता है. गरीब लोग बीमार पड़ते है और बिना इलाज और दवापानी के दम तोड़ देते हैं. आज का सामाजिक जीवन इतना अमानवीय बन चुका है कि लोग किसी के प्रति सहानुभूति या हमदर्दी नहीं जताते. यदि कोई व्यक्ति किसी के प्रति सहानुभूति या लगाव रखता है तो वह अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिये एक चालाक आदमी दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाकर अपने ऐशोआराम के लिये उसका शोषण करने से बाज नहीं आता. बड़ी बड़ी कंपनियों के मालिक अपनी कंपनी के कर्मचारियों का शोषण करते हैं और तिजोरी भरते हैं. और खुद महलों में रहते हैं इस प्रकार वे दूसरों की कमाई पर जिंदगी के मजे लूटते हैं. इस बात को छिपाने के लिये वे समाज सेवा करने का ढोंग और पाखण्ड रचते हैं.

वे लोग जो श्रम करते हैं जिनकी श्रम और सेवा से देश और समाज का विकास होता है वे आज भी शोषण अन्याय और अत्याचार के शिकार होते हैं. वह इसलिये श्रम करने के लिये विवश है क्योंकि उसे अपने और अपने बालबच्चों का पेट भरना है यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसके जीवन का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है. धंधेबाज लोग, जो श्रमिकों से काम लेते हैं, उनमें इन विवश श्रमिकों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती है और न ही कोई मानवीय संवेदना होती है. यह आज के मानवीय संदर्भों में इस बात का द्योतक है कि आज का मानव कितना स्वार्थी हो चुका है.

वन कटते जा रहे हैं. मनुष्य उसके लिये दोषी है. पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है. मनुष्य जीविका कमाने के लिये संघर्ष कर रहा है. आज मनुष्य की क्रूरता इतनी बढ़ गई है कि वह कितने प्रकार के वन्यजीव और पक्षियों को मारकर खा जाने में कोई भूलचुक नहीं करता. मात्र अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिये यह वन्य जीवों का सफाया कर रहा है. आज कई पक्षियों और जीवों की प्रजाति समाप्त होने की सीमा पर पहुंच चुकी हैं. इस धरती पर लाखों-करोड़ों एकड़ भूमि पर से वनों का सफाया हो जाता है. प्रकृति के विरूद्ध मनुष्य का बलात्कार और आत्याचार मनुष्य की कूरता का प्रमाण है. वनों के कटने के परिणामस्वरूप धरती धीरे-धीरे गार्माती जा रही है. धरती का गर्म होना समस्त मानव जाति के लिये खतरे की घंटी है. समय रहते यदि हरे भरे वनों को कटने से नहीं रोका गया तो भविष्य में मानवता के खतरे और बढ़ जाएंगे और इस ग्रह मर निवास करना अत्यंत कठिन हो जाएगा. बढ़ते ग्रीन हाऊस का प्रभाव और अंटार्कटिका में बर्फ पिघलती जा रही है जिससे समुद्र का जल प्रतिवर्ष एक सेंटीमीटर बढ़ रहा है जो कि महाविनाश का सूचक है. यह सब क्यों हो रहा है? मनुष्य क्या चाहता है? वह अपने विनाश पर क्यों उतारू है? वह यह मार्ग क्यों नहीं निकालता जो सबके लिये मंगलकारी एवं सुरक्षित हो. मनुष्य अपनी बुद्धि और इतना दीवालिया क्यों हो गया है. मनुष्य चाहे तो वह मार्ग निकाल सकता है और इस धरती के मृतप्राय जीवन को नवजीवन प्रदान कर सकता है. इसके लिये शर्त यह है कि वह मानवीय समस्याओं पर संजीदगी के साथ विचार करें. यदि मानवीय जीवन को इस धरती पर बनाये रखना है तो उसे सच्चे अर्थों में मनुष्य होने का परिचय देना होगा. यह न एक व्यक्ति के लिए अपितु समस्त मानवता के लिए मंगलकारी सिद्ध होगा।

मेरे पिता सत्येन्द्र कुमार सिंह, संत कुमार, संत बाबू या संत महराज के नाम से जाने जाते थे। उनका जन्म 14 सितंबर 1928 को और निधन 13 जुलाई 1999 को हुआ। 1955 में आगरा विश्वविद्यालय से अंगरेजी साहित्य में एम.ए. किया था, शेक्सपियर उन्हें प्रिय थे। इंग्लैंड कभी गए नहीं, लेकिन किसी भी लंदनवासी को वहां के गली-कूचों के बारे में सहज बता सकते थे। अंगरेज कवियों के संदर्भ उल्लेख करते थे, मैंने कैंटरबरी टेल्स और चॉसर के बारे में उन्हीं से सुना था। जीव-जन्तुओं और प्रकृति-पर्यावरण से अगाध लगाव। कुत्ते तो पाले ही, बंदर, खरगोश, मोर, चीतल और कोटरी-चौसिंघा भी पाले। बांधे या बंद किए बिना। उनसे बात करते समझाइश देते, वे उनके साथ बने रहते और लगता कि बात समझ और मान रहे हैं। बिलासपुर-जांजगीर अंचल के, विशेषकर राजपूत परिवारों को अपने छत्तीसगढ़ आने के इतिहास के बारे में जानना होता, तो उनसे संपर्क करते। इतिहास की मौखिक परंपरा में उनकी गति थी।

जीप चलाते 15-20 मील या इससे भी कम स्पीड से, कहते कि कोई तुम्हारी गाड़ी के सामने आ कर आत्महत्या करना चाहे, उसे भी नुकसान न हो। आशय, शायद लापरवाही से बाइक, साइकिल चलाने वालों के प्रति टिप्पणी कि वे जान की परवाह न करने की हद तक लापरवाह होते हैं या कि किसी भी घटना परिस्थिति में स्वयं की जिम्मेदारी के लिए अधिकतम संभव सजग रहो, दूसरे, तुम्हारे साथ हैं और गलती भी कर रहे हों तो उन्हें संभालने की जिम्मेदारी अपनी मानो। कभी अपने से बड़ी उम्र के कर्मचारी को मैं आसान सी बात और काम न समझ-कर पाने के कारण डांट रहा था, उन्होंने सुन लिया, तब कुछ नहीं बोले। रात को कहा कि तुम उसे डांट रहे थे, यह ठीक नहीं। वह, जितनी उसकी समझ है, करता है, इसीलिए तुम्हारा कर्मचारी है और तुम्हारे डांटने में तुम्हें अपने अधिक बुद्धिमान, समझदार होने का गुमान था, यह ठीक नहीं। उनके शब्द लगभग इस तरह याद है- ‘ओ हर तोरे अतका हुंसियार रतिस त तोर बुता का बर करतिस ...।

बिजली, मोटर, मशीन में उन्हें रुचि थी और दखल भी। अकलतरा में आटोमेटिक राइस मिल, तेल मिल, सॉ मिल, आइस फैक्ट्री, सोडा वाटर जैसे काम, अजंता इंडस्ट्रीज के नाम से स्थापित किया। धीरे-धीरे, शायद विरक्ति होने लगी। 1960 के दशक में अकलतरा से गुजरने वाली शरणार्थी गाड़ियों के भोजन, दवा-इलाज और कपड़ों की व्यवस्था कर उन्हें तसल्ली होती। मानव सेवा समिति के माध्यम से नेत्र और स्वास्थ्य शिविर आयोजित कराने लगे। अकलतरा के सरपंच रहे, पुराने लोग लोग उन्हें परसाही नाला से अकलतरा तक पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था और अकलतरा बिजली सब-स्टेशन की स्थापना जैसे कुछ कामों के लिए याद करते हैं। मगर उनके साथ के सभी 20 पंच आजीवन, उनके परिवार-जन बन गए, बने रहे, उन्होंने इसे असली हासिल माना। इस तरह थोड़ी राजनीति की, लेकिन उसमें मन कभी रमा नहीं।

लिखना और वह भी हिंदी, उनके अभ्यास में नहीं था, लेकिन 1970 के दशक में बजरंग केड़िया जी, डीपी चौबे जी, मंगत राय-अशोक अग्रवाल जी, जैसे बिलासपुर के अखबारों के लोगों के कहने पर अपनी बातों को लिखना शुरू किया। बिलासपुर टाइम्स 1974-75 से सांध्यकालीन दैनिक निकलने लगा, तब इसके लिए रमणीक भाई, व्यंग्य और चुटीली टिप्पणियों वाला स्तंभ ‘चौराहे से‘ लिखते थे। आपने ‘तिराहे से‘ का क्रम आरंभ किया, जिसमें सामयिक, वैचारिक टिप्पणियां होती थीं। उस दौर में कम दिखने वाले पक्षियों की जानकारी प्राण चड्डा जी, सतीश जायसवाल जी, महेन्द्र दुबे जी, गंगा ठाकुर जी आदि से करते। 1960 दशक के आरंभिक वर्षों तक हुम्मा यानि Bustard, तरौद-किरारी भांठा में और उन दिनों तक कुर्री यानि Demoiselle Crane देवरघटा, महानदी-शिवनाथ संगम पर आने की और अन्य ढेरों प्रवासी पक्षियों की बात साझा करते थे।

1984 में नवभारत बिलासपुर से निकलने लगा और बाद के वर्षों में अपने वर्तमान भवन में आ गया। आप 1996-97 से बिलासपुर रहने लगे।बजरंग केड़िया जी से फोन पर बात होती और वन-पर्यावरण, साल बोरर, स्वास्थ्य, तकनीक, आर्थिकी, कृषि, सामुदायिक जीवन, इतिहास-गाथा, मानवता, नैतिक जीवन जैसे विषयों पर लेख बना कर भेज देते।

उनके लिखे-छपे में से मिल पाया यह लेख, 3 जुलाई 1997 को ‘नवभारत‘ बिलासपुर में प्रकाशित हुआ था। आज पितृ-मोक्ष पर सभी पितरों के पुण्य-स्मरण सहित प्रस्तुत है।